Book Title: Agam 16 17 Suryaprajnapti Chandraprajnapti Sutra - Swe Mu Pu Agam 16 17
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति मे आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्दपज्ञप्ति (मूल अनुवा-विवचन-टिप्पण-पशिष्ट युक्त www.jalinelibrary.org, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत श्रीसुव्रतमुनि 'सत्यार्थी शास्त्री एम. ए. (हिन्दी-संस्कृत) परमपूज्य, विद्वद्वरेण्य, तत्त्ववेत्ता, प्रबुद्ध मनीषी, आगमबोधनिधि, श्रमणश्रेष्ठ, स्व. युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. 'मधुकर' जी प्राचीन विद्या के सर्वतन्त्रस्वतन्त्र प्रवक्ता थे। आपके मार्गदर्शन एवं प्रधान सम्पादकत्व में जैन आगम प्रकाशन का जो महान् श्रुत-यज्ञ प्रारम्भ हुया, उसमें प्रकाशित श्री आचारांग, उत्तराध्ययन, व्याख्याप्रज्ञप्ति और उपासकदशांग आदि सूत्र गुरुकृपा से देखने को मिले। आगमों की सामयिक भाषा-शैली, और तुलनात्मक विवेचन एवं विश्लेषण अतीव श्रमसाध्य है। शोधपूर्ण प्रस्तावना, अनिवार्य पादटिप्पण एवं परिशिष्टों से आगमों की उपयोगिता सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार के पाठकों के लिए सुगम हो गई है तथा आधुनिक शोध-विधा के लिए अत्यन्त उपयोगी है / सभी सूत्रों की सुन्दर शुद्ध छपाई, उत्तम कागज और कवरिंग बहुत ही आकर्षक है / अतीव अल्प समय में विशालकाय 30 आगमों का प्रकाशन महत्त्वपूर्ण अवदान है। इसका श्रेय श्रुत-यज्ञ के प्रणेता आगममर्मज्ञ, पूज्यप्रवर युवाचार्य श्री जी म. को है तथापि इस महनीय श्रुत-यज्ञ में जिन पूज्य गुरुजनों, साध्वीवृन्द एवं सद्गृहस्थों ने सहयोग दिया है वे सभी अभिनन्दनीय एवं प्रशंसनीय हैं। आगम प्रकाशन समिति विशेष साधुवाद की पात्र है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अर्ह जिनागम ग्रन्थमाला : प्रन्थांक-२९ [परम श्रद्धय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में आयोजित श्रुतस्थविरप्रणीत-उपाङ्गसूत्रद्वय सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति [मूलपाठ, प्रस्तावना तथा परिशिष्ट युक्त] सन्निधिउपप्रवर्तक शासनसेयो स्व० स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज प्राद्य संयोजक तथा प्रधान सम्पादक [] स्व० युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' सम्पादक। मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' मुख्य सम्पादक / पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक 0 श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-प्रन्यमाला:.प्रन्थाङ्क 29 1 निर्देशन साध्वी श्री उमरावकुवर 'अर्चना' - सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनिश्री कन्हैयालाल 'कमल' उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' - सम्प्रेरक मुनिश्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' / प्रकाशनतिथि वीरनिर्वाण संवत 2515 वि. सं. 2045 ई. सन् 1989 . प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन-समिति पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन--३०५९०१ - मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ Frefen लये 44) - - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj Suryaprajnapti--Chandraprajnapti (Original Text, Introduction and Appendices) Inspiring Soal Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar' Editor Muni Sri Kanhaiyalalji "Kamal Chief Editor Pt. Shobhachandra Bharilla Publishers Sri Agama Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 29 Direction Sadhwi Umravkunwar 'Archana' Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalal 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharilla Managing Editor Srichand Surana 'Saras' O Promotor Munisri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar' O Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2515 Vikram Samvat 2045; March, 1989 Publisher Sri Agam Prakashan Samiti, Pipalia Bazar, Beawar (Raj.) [India] Pin 305 901 Printer Satishchandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer Prichte Prisera stereo 3:51- 4420 357. 442-6 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री जिनागम ग्रन्थमाला का २९वाँ ग्रन्थाङ्क प्रागमप्रेमी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। इसमें सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति दो प्रागमों का समावेश किया गया है। दोनों का एक साथ मुद्रण कराने का हेतु क्या है, इस विषय में आगम-अनुयोग-प्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' ने अपने सम्पादकीय में विस्तृत चर्चा की है, अतएव यहाँ दोहराने की आवश्यकता नहीं है / प्रस्तुत दोनों आगम मूलपाठ एवं परिशिष्ट प्रादि के साथ ही प्रकाशित किये जा रहे हैं। अर्थ-विवेचन आदि नहीं दिये गये हैं / इसका कारण यह है कि इनमें पाए कतिपय पाठों और उनके अर्थ में मतैक्य नहीं हो सका है। इसके अतिरिक्त इनका विषय ज्योतिष है जो सर्वसाधारण के लिए दुरूह है। इस विषय की चर्चा भी सम्पादकीय में की गई है। पाठकों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि जीवाजीवाभिगमसूत्र भी विस्तृत व्याख्या के साथ शीघ्र ही प्रकाशित हो रहा है। वह दो भागों में प्रकाशित होगा। प्रथम भाग मुद्रित हो चुका है। द्वितीय भाग का मुद्रण चालू है / इसका अनुवाद एवं सम्पादन विद्वद्वर श्री राजेन्द्रमुनिजी ने किया है / जीवाजीवाभिगमसूत्र के मुद्रण के पश्चात् छेदसूत्रों का प्रकाशन ही शेष रहता है। आगममनीषी मुनिश्री 'कमल' जी म. के सम्पादन के साथ इनका प्रकाशन भी शीघ्र ही होने वाला है। इनके प्रकाशित होते ही पागम बत्तीसी के प्रकाशन का महान् अनुष्ठान पूर्णरूप से सम्पन्न हो जाएगा। प्रस्तुत प्रकाशन के अनेक प्रागम कलिजों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में निर्धारित किए गए हैं। प्रतएव यह आवश्यक समझा गया कि इनकी उपलब्धि निरन्तर बनी रहे। इस कारण जिन आगमों की प्रतियाँ समाप्त हो रही हैं, उनके द्वितीय संस्करण प्रकाशित कराये जा रहे हैं। तदनुसार प्राचारांगसूत्र प्रथम भाग दूसरी बार छप रहा है और उपासकदशांगसूत्र भी शीघ्र प्रेस में दिया जाने वाला है। इनके अतिरिक्त जिन-जिन भागमों के प्रथम संस्करण समाप्त होते जाएंगे, उन्हें भी दुसरी बार प्रकाशित किया जाएगा। सन्तोष का विषय है कि ग्रन्थमाला के इन प्रकाशनों का समाज एवं विद्वद्वर्ग ने पर्याप्त प्रादर किया है। आशा है भविष्य में इनका और अधिक प्रचार-प्रसार होगा और श्री पागम प्रकाशन समिति का प्रयास अधिक सफल और सुफलप्रदायक सिद्ध होगा। अन्त में प्रागम-अनुयोग के विशाल कार्य में व्यस्त होते हए भी मुनिश्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' ने मूलपाठ का सम्पादन कर व डाक्टर श्री रुद्रदेवजी त्रिपाठी ने महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना लिखकर जो सहयोग प्रदान किया है, उसके लिए प्रादरपूर्वक प्राभार मानते हैं। साथ ही श्री पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने अवलोकन किया एवं सहयोगी कार्यकर्ताओं से सहयोग प्राप्त हना है, तदर्थ उनके भी हम आभारी हैं। रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष निवेदक अमरचन्द मोदी मन्त्री श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर सायरमल चौरडिया महामन्त्री Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय ज्योतिषगणराजप्रज्ञप्ति अर्थात् चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्ति के सूत्रपाठ पूर्व प्रकाशित सूर्यप्रज्ञप्ति के मूल सूत्रों से प्रस्तुत सूर्यप्रज्ञप्ति के मूल सूत्र यदि प्रक्षरश: मिलाना चाहेंगे तो नहीं मिलेंगे। क्योंकि इस संस्करण के सूत्रों को कई पूरक वाक्यों से पूरित किया है, फिर भी सूत्रपाठों की प्रामाणिकता यथावत् है। आगमों के विशेषज्ञ ही सूत्रपाठों की व्यवस्था के औचित्य को समझ सकेंगे। मामान्य अन्तर के अतिरिक्त चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति सर्वथा समान हैं, इसलिए एक के परिचय से दोनों का परिचय स्वतः हो जाता है / उपांगद्वय-परिचय संकलनकर्ता द्वारा निर्धारित नाम--ज्योतिषगणराजप्रज्ञप्ति है। प्रारम्भ में संयुक्त प्रचलित नाम चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति रहा होगा। बाद में उपांगद्वय के रूप में विभाजित नाम-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति हो गये हैं, जो अभी प्रचलित हैं। प्रत्येक प्रज्ञप्ति में बीस प्राभृत हैं और प्रत्येक प्रज्ञप्ति में 108 सूत्र हैं / तृतीय प्राभृत से नवम प्राभृत पर्यन्त अर्थात् सात प्राभृतों में और ग्यारहवें प्राभृत से बीसवें प्रभृत पर्यन्त अर्थात् दस प्राभृतों में "प्राभृत-प्राभूत" नहीं हैं। केवल प्रथम, द्वितीय और दसवें प्राभृत में "प्राभूत-प्राभृत' हैं। संयुक्त संख्या के अनुसार सतरह प्राभृतों में प्राभृत-प्राभूत नहीं हैं। केवल तीन प्राभूतों में प्राभृत-प्राभृत हैं उपलब्ध चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति का विषयानुक्रम वर्गीकृत नहीं है। यदि इनके विकीर्ण विषयों का वर्गीकरण किया जाए तो जिज्ञासु जगत अधिक से अधिक लाभान्वित हो सकता है। वर्गीकृत विषयानुक्रम चन्द्रप्रज्ञप्ति के विषयानक्रम की रूपरेखा१. चन्द्र का विस्तृत स्वरूप 3. चन्द्र का ग्रहों से संयोग 5. चन्द्र का ताराओं से संयोम / 2. चन्द्र का सूर्य से संयोग 4. चन्द्र का नक्षत्रों से संयोग Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यप्राप्ति के विषयानुक्रम की रूपरेखा१. सूर्य का विस्तृत स्वरूप 1. ग्रहों के सूत्र 2' सूर्य का चन्द्र से संयोग 2. नक्षत्रों के सूत्र 3. सूर्य का ग्रहों से संयोग 3. ताराओं के सूत्र 4. सूर्य का नक्षत्रों से संयोग 1. काल के भेद प्रभेद 5. सूर्य का तारात्रों से संयोग 2. अहोरात्र के सूत्र 1. चन्द्र, सूर्य के सयुक्त सूत्र 3. संवत्सर के सूत्र 2. चन्द्र, सूर्य, ग्रह के संयुक्त सूत्र 4. औपमिक काल के सूत्र 3. चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र के संयुक्त सूत्र 5. काल और क्षेत्र के सूत्र 4. चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, ताराओं के संयुक्त सूत्र दोनों प्रज्ञप्तियों की नियुक्ति आदि व्याख्याएँ द्वादश उपांगों के वर्तमान मान्य क्रम में चन्द्रप्रज्ञप्ति छठा और सूर्यप्रज्ञप्ति सातवां उपांग है-इसीलिए प्राचार्य मलयगिरि ने पहले चन्द्रप्रज्ञप्ति की वृत्ति और बाद में सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्ति रची होगी। यदि प्राचार्य मलयगिरिकृत चन्द्रप्रज्ञप्ति-वृत्ति कहीं से उपलब्ध है तो उसका प्रकाशन हुआ है या नहीं ? या अन्य किसी के द्वारा की गई नियुक्ति, चूणि या टीका प्रकाशित हो तो अन्वेषणीय है। प्राचार्य मलयगिरि ने सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्ति में लिखा है--सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति नष्ट हो गई है। अत: गुरुकृपा से वृत्ति की रचना कर रहा हूँ।' नामकरण और विभाजन सभी अंग-उपांगों के आदि या अन्त में कहीं न कहीं उनके नाम उपलब्ध हैं किन्तु इन दोनों उपांगों की उत्थानिका या उपसंहार में चन्द्रप्रज्ञप्ति या सूर्यप्रज्ञप्ति का नाम क्यों नहीं है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। दो उपांगों के रूप में इनका विभाजन कब और क्यों हुआ? यह शोध का विषय है। ग्रह, नक्षत्र, तारा ज्योतिष्क देव हैं-इनके इन्द्र हैं चन्द्र-सूर्य-ये दोनों ज्योतिषगणराज हैं। उत्थानिका और उपसंहार के गद्य-पद्य सूत्रों में "ज्योतिषगणराजप्रज्ञप्ति" नाम ही उपलब्ध है किन्तु इस नाम से ये उपांग प्रख्यात न होकर चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति नाम से प्रख्यात हुए हैं। "ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति" का संकलनकर्ता ग्रन्थ के प्रारम्भ में "ज्योतिष-गण-राज-प्रज्ञप्ति' इस एक नाम से की गई स्वतन्त्र संकलित वृत्ति को ही कहने की प्रतिज्ञा करता है। इसका असंदिग्ध प्राधार चन्द्रप्राप्ति के प्रारम्भ में दी हुई तृतीय और चतुर्थ गाथा है / 1. अस्या नियुक्तिरभूत्, पूर्व श्री भद्रबाहुसूरिकृता। कलिदोषात साऽनेशद् व्याचक्षे केवलं सुत्रम / सूर्यप्रज्ञप्तिमहं गुरूपदेशानुसारतः किंचित / विवणोमि यथाशक्ति स्पष्टं स्वपरोपकाराय / / -सूर्य० प्र० वृत्ति० प्र० 1 3. गाहाओ--फुड-वियड-पागडत्थं, वृच्छं पुबसुय-सार-णिस्संदं / सुहम मणिणोवइलैं, जोइसगणराय-पण्णत्ति // 3 // नामेण इंदभूइत्ति, गोयमो वंदिऊण तिविहेणं / / पुच्छइ जिणवरवसहं, जोइसरायरस पणत्ति // 4 // [8] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार चन्द्र और सूर्य प्रज्ञप्ति के अन्त में दी हुई प्रशस्ति-गाथाओं में से प्रथम गाथा के दो पदों में संकलनकर्ता ने कहा है-"इस भगवती ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति का मैंने उत्कीर्तन किया है।" - इस ग्रन्थ के रचयिता ने कहीं यह नहीं कहा कि “मैं चन्द्रप्रज्ञप्ति या सूर्यप्रज्ञप्ति का कथन करूंगा," किन्तु "ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति" यही एक नाम इसके रचयिता ने स्पष्ट कहा है, इस सन्दर्भ में यह प्रमाण पर्याप्त है। यह उपांग एक उपांग के रूप में कब से माना गया? और इसके दो अध्ययनों अथवा दोश्रतस्कन्धों को दो उपांगों के रूप में कब से मान लिया गया ? ऐतिहासिक प्रमाण के अभाव में क्या कहा जाय / ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता प्रश्न उठता है—"ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति" के संकलनकर्ता कौन थे ? इस प्रश्न का निश्चित समाधान सम्भव नहीं है, क्योंकि संकलनकर्ता का नाम कहीं उपलब्ध नहीं है। "चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति को कइयों ने गणधरकृत लिखा है। सम्भव है इसका प्राधार चन्द्रप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ की चतुर्थ गाथा को मान लिया गया है। किन्तु इस गाथा से गौतम गणधरकृत है, यह कैसे सिद्ध हो सकता है ? इसके संकलनकर्ता कोई पूर्वधर या श्रतधर स्थविर हैं, जो यह कह रहे हैं कि "इन्द्रभूति" नाम के गौतम गणधर भगवान् महावीर को तीन योग से वंदना करके "ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति" के सम्बन्ध में पूछते हैं / इस गाथा में "पुच्छह" क्रिया का प्रयोग अन्य किसी संकलनकर्ता ने किया है। ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति का संकलनकाल भगवान् महावीर और नियुक्तिकार श्री भद्रबाहुसूरि---इन दोनों के बीच का समय इस ग्रन्थराज का संकलन-काल कहा जा सकता है, क्योंकि भद्रबाहुसूरिकृत "सूर्यप्रज्ञप्ति की नियुक्ति" वृत्तिकार प्राचार्य मलयगिरि के पूर्व ही नष्ट हो गई थी, ऐसा वे सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्ति में स्वयं लिखते हैं। ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति एक स्वतन्त्र कृति है संकलनकर्ता चन्द्रप्रज्ञप्ति की द्वितीय गाथा में पांच पदों को वन्दन करता है और तृतीय गाथा में वह कहता है कि "पूर्वश्रत का सार निष्यन्द-झरना" रूप स्फूट-विकट सूक्ष्म गणित को प्रकट करने के लिए "ज्योतिषगण-राज-प्रज्ञप्ति" को कहूँगा। इससे स्पष्ट ध्वनित होता है-यह एक स्वतन्त्र कृति है। 1. गाहा- इय एस पागडत्था, प्रभव्वजणहियय-दुल्लभा इणमो। उक्कित्तिया भगवती, जोइसरायस्स पण्णत्ती // 3 // 2. नामेण इंदभूइत्ति, गोयमो वंदिऊण तिविहेणं / पुच्छइ जिणवरवसहं, जोइसरायस्स पण्णत्ति // 4 // 3. नमिऊण सुर-असुर-गरुल-भुयंगपरिवदिए गयकिलेसे / अरिहे सिद्धायरिए उवज्भाय सव्यसाहू य // 2 // 4. फुड-वियड-पागडत्थं, वच्छं पुव्वसुय-सारणिस्संदं / सुहमं गणिणोवइलैं, जोइसगणराय-पण्णत्ति // 3 // [1] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के प्रत्येक सूत्र के प्रारम्भ में "ता" का प्रयोग है। यह "ता" का प्रयोग इसको स्वतन्त्र कृति सिद्ध करने के लिए प्रबल प्रमाण है। इस प्रकार का "ता" का प्रयोग किसी भी अंग उपांगों के सूत्रों में उपलब्ध नहीं है। चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति के प्रत्येक प्रश्नसूत्र के प्रारम्भ में "भते !" का और उत्तर सूत्र के प्रारम्भ में 'गोयमा' का प्रयोग नहीं है। जबकि अन्य अंग-उपांगों के सूत्रों में भंते ! और गोयमा! का प्रयोग प्रायः सर्वत्र है, प्रतः यह मान्यता निर्विवाद है कि यह कृति पूर्ण रूप से स्वतन्त्र संकलित कृति है। ग्रन्थ एक, उत्थानिकाएँ दो ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति की एक उत्थानिका चन्द्रप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में दी हुई गाथानों की है और एक उत्थानिका गद्य सूत्रों की है। इन उत्थानिकारों का प्रयोग विभिन्न प्रतियों के सम्पादकों ने विभिन्न रूपों में किया है-- 1. किसी ने दोनों उत्थानिकाएँ दी हैं। 2. किसी ने एक गद्य-सूत्रों की उत्थानिका दी है। 3. किसी ने पद्य-गाथाओं की उत्थानिका दी है। इसी प्रकार प्रशस्ति गाथायें चन्द्रप्रज्ञप्ति के अन्त में और सूर्यप्रज्ञप्ति के अन्त में भी दी हैं। जबकि ये गाथाएँ ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति के अन्त में दी गई थीं। संभव है ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति को जब दो उपांगों के रूप में विभाजित किया गया होगा, उस समय दोनों उपांगों के अन्त में समान प्रशस्तिगाथाएँ दे दी गई हैं। ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति की संकलन-शैली चिर अतीत में ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति का संकलन किस रूप में रहा होगा? यह तो आगम-साहित्य के इतिहास-विशेषज्ञों का विषय है किन्तु वर्तमान में उपलब्ध चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा सूर्यप्रज्ञप्ति के प्रारम्म में दी गई विषयनिर्देशक समान गाथाओं में प्रथम प्राभूत का प्रमुख विषय "सूर्यमण्डलों में सूर्य की गति का गणित'' सूचित किया गया है, किन्तु दोनों उपांगों का प्रथम सूत्र मुहूतों की हानि-वृद्धि का हैं। सूर्य सम्बन्धी गणित और चन्द्र सम्बन्धी गणित के सभी सूत्र यत्र-तत्र विकीर्ण हैं। ग्रह, नक्षत्र और तारापों के सूत्रों का भी व्यवस्थित क्रम नहीं है। अतः आगमों के विशेषज्ञ सम्पादक श्रमण या सद्गृहस्थ इन उपांगों को आधुनिक सम्पादन शैली से सम्पादित करें तो गणित को आशातीत वृद्धि हो सकती है। प्रथम प्राभूत के पांचवें प्राभृत-प्राभृत में दो सूत्र हैं। सोलहवें सूत्र में सूर्य की गति के सम्बन्ध में अन्य मान्यताओं की पांच प्रतिपत्तियाँ हैं और सत्रहवें में स्वमान्यता का प्ररूपण है। इस प्रकार अन्य मान्यताओं का और स्वमान्यता का दो विभिन्न सूत्रों में निरूपण अन्यत्र नहीं है। संकलन काल गणधर अंग आगमों को सुत्रागमों के रूप में पहले संकलित करता है और श्रतधर स्थविर उपांगों को बाद में संकलित करते हैं। यह संकलन का कालक्रम निर्विवाद है। [10] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग आगमों को संकलित करने वाला गणधर एक होता है और उपांग प्राममों को संकलित करने वाले श्रुतधर विभिन्न काल में विभिन्न होते हैं अतः उनकी धारणाएँ तथा संकलन पद्धति समान संभव नहीं है। __ स्थानांग अंग आगम है / इसके दो सूत्रों में चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति के नामों का निर्देश दुविधाजनक है, क्योंकि स्थानांग के पूर्व चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति का संकलन होने पर ही उनका उसमें निर्देश सम्भव हो सकता है। इस विपरीत धारणा के निवारण के लिए बहुश्रुतों को समाधान प्रस्तुत करना चाहिए, किन्तु समाधान प्रस्तुत करने से पूर्व उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिए यह संक्षिप्त वाचना की सूचना नहीं है—ये दोनों अलगअलग सूत्र हैं। नक्षत्र-गणनाक्रम में परस्पर विरोध है चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति दशम प्राभूत के प्रथम प्राभूत-प्राभत में नक्षत्र-गणनाक्रम की स्वमान्यता का प्ररूपण है-- तदनुसार अभिजित से उत्तराषाढ़ा पर्यन्त 28 नक्षत्रों का गणनाक्रम है किन्तु स्थानांग अ. 2, उ. 3, सूत्रांक 95 में तीन माथाएँ नक्षत्र गणनाक्रम की हैं और यही तीन गाथाएँ अनुयोगद्वार के उपक्रम विभाग में सूत्र 185 में हैं। इनमें कृत्तिका से भरणी पयंत नक्षत्रों का गणनाक्रम है। _ स्थानांग अंग पागम है -इसमें कहा गया नक्षत्र-गणनाक्रम यदि स्वमान्यता के अनुसार है तो सूर्यप्रज्ञप्ति में कहे गये नक्षत्र-गणनाक्रम को स्वमान्यता का कैसे माना जाय ? क्योंकि उपांग की अपेक्षा अंग प्रागम की प्रामाणिकता स्वत: सिद्ध है। यदि स्थानांग में निर्दिष्ट नक्षत्र-गणनाक्रम को किसी व्याख्याकार ने अन्य मान्यता का मान लिया होता तो परस्पर विरोध निरस्त हो जाता किन्तु जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि के आगमपाठों से स्वमान्यता का क्रम अभिजित से उत्तरषाढा पर्यंत का है अन्य क्रम अन्य मान्यता के हैं। प्राभत पद का परमार्थ सूर्यप्रज्ञप्ति-वृत्ति के अनुसार प्राभत शब्द के अर्थ इष्ट पुरुष के लिए देशकाल के योग्य हितकर दुर्लभ वस्तु अपित करना। अथवा जिस पदार्य से मन प्रसन्न हो ऐसा पदार्थ इष्ट पुरुष को अपित करना, ये दोनों शब्दार्य हैं। 1 (क) स्थानांग अ. 3, उ. 2, सू. 160 (ख) स्थानांग अ. 4, उ. 1, सू. 277. 2 (क) अथ प्राभृतमिति कः शब्दार्थः ? उच्यते-इह प्राभृतं नाम लोके प्रसिद्ध यदभीष्टाय पुरुषार देश-कालोचितं दुर्लभ-वस्तु-परिणामसुन्दरमुपनीयते। (ख) प्रकर्षण प्रा-समन्ताद् भ्रियते-पोष्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुषस्यानेनेति प्राभूतम् / (ग) विवक्षिता अपि च ग्रन्थपद्धतयः परमदुर्लभा परिणामसुन्दराश्चाभीष्टेभ्यो विनयादिगुणकलितेभ्यः शिष्येभ्यो देश-कालोचित्येनोपनीयन्ते / -सूर्य. सू.६ वृत्ति-पत्र 7 का पूर्वभाग श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति के अध्ययन प्रादि विभागों के लिए "प्राभूत" शब्द प्रयुक्त है। दिगम्बर परम्परा के कषायपाहड आदि सिद्धान्त ग्रन्थों के लिए प्रयुक्त 'पाहड' शब्द के विभिन्न अर्थ----- १-जिसके पद स्फुट--व्यक्त हैं वह "पाहुड" कहा जाता है। २-जो प्रकृष्ट पुरुषोत्तम द्वारा आभृत = प्रस्थापित है वह “पाहुड" कहा जाता है। -जो प्रकृष्ट ज्ञानियों द्वारा आभत = धारण किया गया है अथवा परम्परा से प्राप्त किया गया है वह "पाहुड" कहा जाता है। -जनेन्द्र सिद्धान्त कोष से उद्धत [ 11] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति से सम्बन्धित अर्थ विनयादि गुण सम्पन्न शिष्यों के लिए देश-कालोपयोगी शुभफलप्रद दुर्लभ ग्रन्थ स्वाध्याय हेतु देना / यहाँ "देश-कालोपयोगी" विशेषण विशेष ध्यान देने योग्य है। कालिक और उत्कालिक नन्दीसूत्र में गमिक को “उत्कालिक' और अगमिक को "कालिक" कहा है / दृष्टिवाद गमिक है / ' दृष्टिवाद का तृतीय विभाग पूर्वगत है, उसी पूर्वगत से ज्योतिषगणराज-प्रज्ञप्ति (चन्द्रप्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति) का नि!हण किया गया है, ऐसा चन्द्रप्रज्ञप्ति की उत्थानिका की तृतीय गाथा से ज्ञात होता है। अंग-उपांगों का एक दूसरे से सम्बन्ध है, ये सब अगमिक हैं, अत: वे सब कालिक हैं / उसी नन्दीसूत्र के अनुसार चन्द्रप्रज्ञप्ति कालिक है और सूर्यप्रज्ञप्ति उत्कालिक है / ' चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के कतिपय गद्य-पद्य सूत्रों के अतिरिक्त सभी सत्र अक्षरश: समान हैं, अतः एक कालिक और एक उत्कालिक किस आधार पर माने गये हैं ? यदि इन दोनों उपांगों में से एक कालिक और एक उत्कालिक निश्चित है तो “इनके सभी सूत्र समान नहीं थे" यह मानना ही उचित प्रतीत होता है, काल के विकराल अन्तराल में इन उपांगों के कुछ मूत्र विच्छिन्न हो गये और कुछ विकीर्ण हो गये हैं। मूल अभिन्न और अर्थ भिन्न चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के मूल सूत्रों में कितना साम्य है ? यह तो दोनों के आद्योपान्त अवलोकन से स्वतः ज्ञात हो जाता है; किन्तु चन्द्रप्रज्ञप्ति के सभी सूत्रों की चन्द्रपरक ब्याख्या और सूर्यप्रज्ञप्ति के सभी सूत्रों की सूर्यपरक व्याख्या प्रतीत में उपलब्ध थी। यह कथन कितना यथार्थ है ? कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि ऐसा किसी टीका, नियुक्ति प्रादि में कहीं कहा नहीं है। यदि इस प्रकार का उल्लेख किसी टीका, नियुक्ति प्रादि में देखने में आया हो तो विद्वज्जन प्रकाशित करें। एक श्लोक या एक गाथा के अनेक अर्थ असम्भव नहीं हैं। द्विसंधान, पंचसंधान, सप्तसंधान आदि काव्य वर्तमान में उपलब्ध हैं। इनमें प्रत्येक श्लोक की विभिन्न कथापरक टीकाएँ देखी जा सकती हैं। किन्तु चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के संदर्भ में विना किसी प्रबल प्रमाण के भिन्नार्थ कहना उचित प्रतीत नहीं होता। 1. नन्दीसूत्र गमिक प्रगमिक श्रुत सूत्र 44. 2. नन्दीसूत्र दृष्टिवाद श्रुत सूत्र 90. 3. नन्दीसूत्र उत्कालिक श्रुत सूत्र 44. 4. नन्दीसूत्र कालिक श्रुत सूत्र 44. [12] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिषशास्त्र निमित्तशास्त्र माना गया है। इसका विशेषज्ञ शुभाशुभ जानने में सफल हो सकता है / मानव की सर्वाधिक जिज्ञासा भविष्य जानने की होती है क्योंकि वह इष्ट का संयोग एवं कार्य की सिद्धि चाहता है। चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति ज्योतिष विषय के उपांग है यद्यपि इनमें गणित अधिक है और फलित अत्यल्प है, फिर भी इनका परिपूर्ण ज्ञाता शुभाशुभ निमित्त का ज्ञाता माना जाता है-यह धारणा प्राचीनकाल से प्रचलित है। ग्रह-नक्षत्र मानवमात्र के भावी के द्योतक हैं अतएव इनका मानव जीवन के साथ व्यापक संबंध है। निमित्तशास्त्र के प्रति जो मानव की अगाध श्रद्धा है, वह भी ग्रह-नक्षत्रों के शुभाशुभ प्रभाव के कारण ज्योतिषी देवों का जीव-जगत् से सम्बन्ध __ इस मध्यलोक के मानव और मानवेतर प्राणी-जगत् से चन्द्र आदि ज्योतिषी देवों का शाश्वत संबंध है। क्योंकि वे सब इसी मध्यलोक के स्वयं प्रकाशमान देव हैं और वे इस भूतल के समस्त पदार्थों को प्रकाश प्रदान करते रहते हैं। ज्योतिष लोक और मानव लोक का प्रकाश्य-प्रकाशक भाव सम्बन्ध इस प्रकार है (1) चन्द्र शब्द को रचना चदि पालादने धातु से "चन्द्र" शब्द सिद्ध होता है। चन्द्रमालादं मिमीते निमिमीते इति चन्द्रमा प्राणिजगत् के आह्लाद का जनक चन्द्र है, इसलिए चन्द्रदर्शन की परम्परा प्रचलित है। चन्द्र के पर्यायवाची अनेक हैं उनमें कुछ ऐसे पर्यायवाची हैं जिनसे इस पृथ्वी के समस्त पदार्थों से एवं पुरुषों से चन्द्र का प्रगाढ़ संबंध सिद्ध है। कुमुवबान्धव-जलाशयों में प्रफुल्लित कुमुदिनी का बन्धु चन्द्र है इसलिए “कुमुदबान्धव" कहा जाता है। कलानिधि चन्द्र के पर्याय हिमांशु, शुभ्रांशु, सुधांशु की अमृतमयी कलानों से कुमुदिनी का सीधा सम्बन्ध है। इसकी साक्षी है राजस्थानी कवि की सूक्तिदोहा-जल में बसे कुमुदिनी, चन्दा बसे आकाश / जो जाहु के मन बसे, सो ताहु के पास // औषधीश---जंगल की जड़ी बूटियां "औषधि" हैं उनमें रोग-निवारण का अद्भुत सामथ्यं सुधांशु की सुधामयी रश्मियों से आता है। मानव प्रारोग्य का अभिलाषी है, वह पौषधियों से प्राप्त होता है इसलिए प्रौषधीश चन्द्र से मानव का घनिष्ठ सम्बन्ध है। निशापति-निशा-रात्रि का पति--चन्द्र है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमजीवी दिन में "श्रम" करते हैं और रात्रि में विश्राम करते हैं। पालादजनक चन्द्र की चन्द्रिका में विश्रान्ति लेकर मानव स्वस्थ हो जाता है इसलिए मानव का निशानाथ से अति निकट का सम्बन्ध सिद्ध होता है। जैनागमों में चन्द्र के एक "शशि" पर्याय की ही व्याख्या है। (2) सूर्य शब्द को रचना सू प्रेरणे धातु से “सूर्य" शब्द सिद्ध होता है / सुवति-प्रेरयति कर्मणि लोकान् इति सूर्यः-जो प्राणिमात्र को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है वह सूर्य है। सूरज-ग्रामीण जन "सूर्य" को "सूरज" कहते हैं। सु+ऊर्ज से सूर्ज या सूरज उच्चारण होता है / सु श्रेष्ठ-ऊर्ज = ऊर्जा = शक्ति / सूर्य से श्रेष्ठ शक्ति प्राप्त होती है। सूर्य के पर्याय अनेक हैं / इनमें कुछ ऐसे पर्याय हैं, जिनसे सूर्य का मानव के साथ सहज सम्बन्ध सिद्ध होता है। सहस्रांशु-सूर्य की सहस्र रश्मियों से प्राणियों को जो "ऊष्मा" प्राप्त होती है, वही जगत् के जीवों का जीवन है। प्रत्येक मानव शरीर में जब तक ऊष्मा = गर्मी रहती है, तब तक जीवन है। ऊष्मा समाप्त होने के साथ ही जीवन समाप्त हो जाता है। भास्कर, प्रभाकर, विभाकर, दिवाकर, द्युमणि, अहर्षति, भानु प्रादि पर्यायों से "सूर्य" प्रकाश देने वाला देव है। मानव की सभी प्रवृत्तियों प्रकाश में ही होती हैं / प्रकाश के बिना वह अकिंचित्कर है। ------- 1 ससी सद्दस्स बिसि त्यो प्र. से केणठेणं मंते ! एवं वुच्चई-चंदे ससी, चंदे ससी? उ. गोयमा ! चंदस्स णं जोइसिवस्स जोइसरष्णो मियंके विमाणे, कंता देवा, कताओ देवीओ, कंताई आसण सयण-खंभ-भंडमत्तोवगरणाई, अप्पणा वियणं चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया सोमे कंते सुभए पियवंसणे सुरुवे, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वच्चई-"चंदे ससी, चंदे ससी"। -भग. स. 12, उ. 6, सु.४ शशि शब्द का विशिष्टार्थ प्र. हे भगवन ! चंद्र को "शशि" किस अभिप्राय से कहा जाता है ? उ. हे गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र के मृगांक विमान में मनोहर देव, मनोहर देवियां तथा मनोज्ञ आसन-शयन-स्तम्भ-भाण्ड-पात्र आदि उपकरण हैं और ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र स्वयं भी सौम्य, कान्त, सुभग, प्रियदर्शन एवं सुरूप है। हे गौतम! इस कारण से चन्द्र को "शशि" (या सश्री) कहा जाता है। --- -- [ 14 ] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्य के ताप से अनेक रोगों की चिकित्सा होती है। सौर ऊर्जा से अनेक यंत्र शक्तियों का विकास हो रहा है। इस प्रकार मानव का सूर्य से शाश्वत सम्बन्ध है। जैनागमों में सूर्य के एक "आदित्य"' पर्याय की व्याख्या द्वारा सभी कालविभागों का आदि सूर्य कहा गया है। (3) गह-ग्रह की रचना ग्रह उपादाने धातु से यह ग्रह शब्द सिद्ध होता है। जैनागमों में छह ग्रह और पाठ ग्रह का उल्लेख है।' चन्द्र-सूर्य को ग्रहपति माना है, शेष छ: को ग्रह माना है, राहु-केतु को भिन्न न मानकर एक केतु को ही माना है। प्रवासी ग्रह भी माने हैं। अन्य ग्रन्थों में नौ ग्रह माने हैं। ग्रहों के प्रभाव के सम्बन्ध में वशिष्ठ और बृहस्पति नाम के ज्योतिर्विदाचार्य ने इस प्रकार कहा हैवशिष्ठ-ग्रहा राज्यं प्रयच्छति, ग्रहा राज्यं हरन्ति च / ग्रहैस्तु व्यापितं सर्व, त्रैलोक्यं सचराचरम् / / वृहस्पति---ग्रहाधीनं जगत्सर्व, ग्रहाधीना नरामराः / कालं ज्ञानं ग्रहाधीनं, ग्रहाः कर्मफलप्रदाः / / (३२वां गोचर प्रकरण-बृहदैवज्ञरंजन, पृ. 84) (4) नक्षत्र और नरसमूह नक्षत्र शन्द की रचना 1. न क्षदते हिनस्ति "क्षद" इति सोत्रो धातः हिसार्थ आत्मनेपदी। टन (उ. 4/159) नभ्राण्नपाद (6/3/75) इति नजः प्रकृतिभावः / 1 सूर सहस्स विसिद्वत्थो प्र. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-"सूरे आदिच्चे सूरे आदिच्चे" ? उ. गोयमा ! सूरादीया गं समयाइ वा, आवलियाइ वा, जाव ओसप्पिणीइ वा, उस्सप्पिणीइ था। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"सूरे आदिच्चे सूरे आदिच्चे।- भग. स. 12, उ. 6, सु, 5 सूर्य शब्द का विशिष्टार्थ प्र. हे भगवन् ! सूर्य को "आदित्य" किस अभिप्राय से कहा जाता है ? उ. हे गौतम ! समय, पावलिका पावत् अवसर्पिणी, उत्सपिणी काल का आदि कारण सूर्य है / हे गौतम ! इस कारण से सूर्य “आदित्य" कहा जाता है। 2 छ तारग्गहा पण्णत्ता, तं जहा१. सुक्को , 2. बुहे, 3. बहस्सति, 4. अंगारके, 5. साणिच्छरे, 6. केतू / --ठाणं अ. 6, सु. 48 अट्ठ महग्गहा पण्णत्ता तं जहा१. चन्दे, 2. सूरे, 3. सुक्के, 4. बुहे, 5. बहस्सति, 6. अंगारके, 7. सणिच्छरे, 8 केतू / -ठाणं 8 सू. 6/3 [15] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. णक्ष गती (भ्वा. प. से.) नक्षति / असि-नक्षि-यजि-वधि-पतिभ्यो न (उ. 3/105) प्रत्यये कृते / 3. न क्षणोति क्षणु हिंसायाम् (त. उ. से.) {ष्ट्रन्) (उ. 4/159) नक्षत्रं / 4. न क्षत्रं देवत्वात् क्षत्र भिन्त्वात् / जो क्षत खतरे से रक्षा करे वह "क्षत्र" कहा जाता है / उस "क्षत्र" का जो "रक्षा करना" धर्म है वह "क्षात्र धर्म" कहा जाता है / क्षत्र की सन्तान "क्षत्रिय" कही जाती है। इस भूतल के रक्षक नर"क्षत्र" हैं और नभ-प्राकाश में रहने वाले रक्षक देव "नक्षत्र" हैं। इन नक्षत्रों का नर क्षत्रों से सम्बन्ध नक्षत्रसम्बन्ध है। अट्ठाईस नक्षत्रों में से "अभिनित्" नक्षत्र को व्यवहार में न लेकर सत्ताईस नक्षत्रों से व्यवहार किया है। प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण हैं अर्थात् चार अक्षर हैं। इस प्रकार सत्ताईस नक्षत्रों के 108 अक्षर होते हैं। इन 108 अक्षरों को बारह राशियों में विभक्त करने पर प्रत्येक राशि के ९प्रक्षर होते हैं। इस प्रकार सत्ताईस नक्षत्रों एवं बारह राशियों के 108 अक्षरों से प्रत्येक प्राणी एवं पदार्थों के "नाम" निर्धारित किये जाते हैं। यह नक्षत्र और नर समूह का त्रैकालिक सम्बन्ध है। चर स्थिर आदि सात, अन्ध काण प्रादि चार इन ग्यारह संज्ञाओं से अभिहित ये नक्षत्र प्रत्येक कार्य की सिद्धि आदि में निमित्त होते हैं। रामण्डल तारा शब्द को रचना तारा शब्द स्त्रीलिंग है। तु प्लवन-तरणयो: धातु से "तारा" शब्द की सिद्धि होती है। तरन्ति अनया इति तारा। सांयात्रिक-.-जहाजी व्यापारियों के नाविक रात्रि में समुद्रयात्रा तारामण्डल के दिशाबोध से करते थे। शव तारा सदा स्थिर रहकर उत्तरदिशा का बोध कराता है। शेष दिशाओं का बोध ग्रह, नक्षत्र और राशियों की नियमित गति से होता रहता है। इसलिए नौका आदि के तिरने में जो सहायक होते हैं, वे तारा कहे जाते हैं। रेगिस्तान की यात्रा रात्रि में सुखपूर्वक होती है इसलिए यात्रा के प्रायोजक रात्रि में तारा से दिशाबोध करते हुए यात्रा करते हैं। तारामण्डल के विशेषज्ञ प्रान्त का, देश का शुभाशुभ जान लेते हैं इसलिए तारामों का पृथ्वीतल के प्राणियों से प्रतिनिकट का सम्बन्ध सिद्ध है। इस प्रकार चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा मानव के सुख-दुःख के निमित्त हैं। [16] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग का गणित सम्यक्श्रुत है मिथ्याश्रुतों की नामावली में गणित को भिधाश्रुत माना है', इसका यह अभिप्राय नहीं है कि-"सभी प्रकार के गणित मिथ्याश्रुत हैं।" आत्मशुद्धि की साधना में जो गणित उपयोगी या सहयोगी नहीं है, केवल वही गणित "मिथ्याशुत" है, ऐसा समझना चाहिए / यहाँ "मिथ्या" का अभिप्राय "अनुपयोगी" है, झूठा नहीं। वैराग्य की उत्पत्ति के निमित्तों में लोकभावना अर्थात लोकस्वरूप का विस्तृत ज्ञान भी एक निमित्त है, अतः अधो और ऊर्ध्व लोक से सम्बन्धित सारा गणित "सम्यक श्रत" है, क्योंकि वह गणित आजीविका या अन्यान्य सावध क्रियाओं का हेतु नहीं हो सकता है। स्थानांग, समवायांग और व्याख्याप्रज्ञप्ति-इन तीनों अंगों में तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति ---इन तीनों उपांनों में गणित सम्बन्धी जितने मूत्र हैं वे सब सम्यक्श्रुत हैं / क्योंकि अंग, उपाग सम्यक्श्रुत हैं। अन्य मान्यताओं के उद्धरण-स्वमान्यताओं का प्ररूपण चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति में अनेक मान्यताओं के उद्धरण दिये गये हैं, साथ ही स्वमान्यताओं के प्ररूपण भी किये गये हैं। अन्य मान्यताओं का सूचक "प्रतिपत्ति" शब्द है / चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति में जितनी प्रतिपत्तियाँ हैं, उनकी सूची इस प्रकार है P सूर्यप्रज्ञप्ति में प्रतिपत्तियों की संख्या प्राभृत प्राभूत-प्राभूत सूत्र प्रतिपत्ति संख्या प्राभूत प्राभूत-प्राभूत सूत्र प्रतिपति संख्या 6 प्रतिपत्तियाँ 3 प्रतिपत्तियां 5 प्रतिपत्तियाँ 8 प्रतिपत्तियां स्वमत कथन 22 2 प्रतिपत्तियाँ 7 प्रतिपतियाँ प्रतिपत्तियाँ 8 प्रतिपत्तियाँ 3 12 प्रतिपत्तियाँ "एक के समान स्वमान्यता" 4 25 16 प्रतिपत्तियाँ प्राभृत प्राभूत-प्राभृत सूत्र प्रतिपत्ति संख्या प्राभूत प्राभृत-प्राभृत प्रतिपत्ति संख्या 26 20 प्रतिपत्तियाँ 10 5 प्रतिपत्तियाँ 25 प्रतिपत्तियाँ 10 5 प्रतिपत्तियाँ 20 प्रतिपतियाँ དད 25 प्रतिपत्तियाँ 29 3 प्रतिपत्तियाँ 18 25 प्रतिपत्तियाँ 30 3 प्रतिपतियाँ 19 12 प्रतिपत्तियाँ oor m. . 000 1. नन्दीसूत्र 2. जगत्कायस्वभावौ च संवेग-वैराग्यार्थम् / --तत्त्वार्थसूत्र अ. 7 [ 17 ] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 31 25 प्रतिपत्तियां 20 0 2 प्रतिपत्तियाँ 20 0 96 प्रतिपत्तियां 2 प्रतिपत्तियाँ 2 प्रतिपत्तियां बहुश्रुतों का कर्तव्य उपांगद्वय में उद्धृत प्रतिपत्तियों के स्थल निर्देश करना, प्रमाणभूत ग्रन्थ से प्रतिपत्ति की मूल वाक्यावली देकर अन्य मान्यता का निरसन करना और स्वमान्यताओं का युक्तिसंगत प्रतिपादन करना इत्यादि आधुनिक पद्धति की सम्पादन प्रक्रिया से सम्पन्न करके उपांगद्वय को प्रस्तुत करना। अथवा-किसी शोधसंस्थान के माध्यम से चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति पर विस्तृत शोधनिबन्ध लिखवाना। किसी योग्य श्रमण-श्रमणी या विद्वान को शोधनिबन्ध लिखने के लिए उत्साहित करना / शोधनिबन्ध-लेखन के लिए आवश्यक ग्रन्थादि की व्यवस्था करना / शोधनिबन्ध लेखक का सम्मान करना / ये सब श्रुतसेवा के महान कार्य हैं। एक व्यापक भ्रान्ति ____दोनों उपांगों के दसवें प्राभूत के सतरहब प्राभूत-प्राभृत में प्रत्येक नक्षत्र का पृथक्-पृथक् भोजनविधान है / इनमें मांसभोजन के विधान भी हैं। इन्हें देखकर सामान्य स्वाध्यायी के मन में एक आशंका उत्पन्न होती है। ये दोनों उपांग आगम है- इनमें ये मांसभोजन के विधान कैसे हैं ? यह आशंका अज्ञात काल से चली आ रही है। सूर्यप्रज्ञप्ति के वृत्तिकार मलयगिरि ने भी इन मांसभोजनविधानों के सम्बन्ध में किसी प्रकार का ऊहापोह या स्पष्टीकरण नहीं किया है। एक कृत्तिका नक्षत्र के भोजनविधान की व्याख्या करके शेष नक्षत्रों के भोजन कृत्तिका के समान समझने की सूचना दी है। शेष नक्षत्रों के भोजनविधानों की व्याख्याएँ न करने के सम्बन्ध में यह कल्पना है कि-मांसवाची शब्दों की व्याख्या क्या की जाय ? अथवा मांसवाची भोजनों को वनस्पतिवाची सिद्ध करने की कल्पना करना उन्हें उचित नहीं लगा होगा? या उस समय ऐसी कोई परम्परागत धारणा न रही होगी ? 1. (क) इन प्रतिपत्तियों के पूर्व के प्रश्नसूत्र विच्छिन्न हैं। (ख) इन प्रतिपत्तियों के बाद स्वमत-प्रतिपादक सूत्रांश भी विच्छिन्न हैं / उपांगद्वय के संकलनकर्ता ने प्रतिपत्तियों के जितने उद्धरण दिये हैं, उनके प्रमाणभूत मूल प्रन्यों के नाम, ग्रन्थकारों के नाम, अध्याय, श्लोक, सूत्रांक प्रादि नहीं दिये हैं। [ 18 ] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पूज्य श्री घासीलालजी म. ने इस भोजन सूत्र को प्रक्षिप्त सिद्ध किया है और कतिपय मांसनिष्पन्न भोजनों को वनस्पति निष्पन्न भोजन भी सिद्ध किया है। ये दोनों परस्पर विरोधी कार्य हैं / - नक्षत्रभोजन का यह सूत्र यदि प्रक्षिप्त है तो मांसनिष्पन्न भोजनों को वनस्पत्यादि निष्पन्न भोजन सिद्ध करने से लाभ ही क्या है ? क्योंकि सूर्यप्रज्ञप्ति के प्ररूपक लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिए सावध विधि का प्ररूपण ही नहीं कर सकते और सूत्रागमों का गुथन करने वाले गणधर ऐसे भ्रामक शब्दों का प्रयोग भी नहीं करते, यह निश्चित है / इसलिए हमारे बहुश्रुतों को इस सूत्र के सम्बन्ध में सर्वसम्मत निर्णय घोषित करना ही चाहिए। जैनागमों में नक्षत्र गणना का क्रम अभिजित से प्रारम्भ होकर उत्तराषाढा पर्यन्त का है। प्रस्तुत प्राभत के इस सूत्र में नक्षत्रों का क्रम कृत्तिका से प्रारम्भ होकर भरणी पर्यन्त का है / उपलब्ध अनेक ज्योतिष ग्रन्थों में भी यह नक्षण गणना का क्रम विद्यमान है—अत: यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत नक्षत्रभोजनविधान का क्रम अन्य किसी ज्योतिष ग्रन्थ से उद्धत है।' 1. चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता श्रतधर स्थविर ने नक्षत्र गणना क्रम को पांच विभिन्न मान्यतानों का निरूपण करके स्वमान्यता का प्ररूपण किया है। पांच अन्य मान्यतानों का निरूपण--- अट्ठाईस नक्षत्रों का गणना क्रम१-कृत्तिका नक्षत्र से भरणी नक्षत्र पर्यन्त 28 नक्षत्र २--मघा नक्षत्र से अश्लेषा नक्षत्र पर्यन्त 28 नक्षत्र ३---धनिष्ठा नक्षत्र से श्रवण नक्षत्र पर्यन्त 28 नक्षत्र ४--अश्विनी नक्षत्र से रेवती नक्षत्र पर्यन्त 28 नक्षत्र ५-भरणी नक्षत्र से अश्विनी नक्षत्र पर्यन्त 28 नक्षत्र स्वमान्यता का प्ररूपणअभिजित नक्षत्र से उत्तराषाढा नक्षत्र पर्यन्त 28 नक्षत्र --चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति, दशम प्राभूत, प्रथम प्राभूत-प्राभूत, सूत्रांक 32 नक्षत्र गणना के इस क्रम के विधान से यह स्पष्ट है कि दशम प्राभत व सप्तदशम प्राभत-प्राभूत में निरूपित नक्षत्रभोजनविधान सूर्यप्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता की स्वमान्यता का नहीं है। आश्चर्य यह है कि अब तक सम्पादित एवं प्रकाशित चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्तियों के अनुवादकों आदि ने इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण लिखकर व्यापक भ्रान्ति के निराकरण के लिए सत्साहस नहीं किया। 2. कुल्माषांस्तिलताडुलानपि तथा माषांश्च गव्यं दधि / त्वाज्यं दुग्धमथैणमांसमपरं तस्यैव रक्तं तथा / तदत्पायसमेव चापपललं मार्ग च शाशं तथा / षाष्टिवयं च प्रियग्वपूपमथवा चित्राण्डजान सत्फलम् // कौम सारिकगोधिकं च पललं शाल्यं हविष्यं हया। बृक्षे स्यान्कृसरानमुदमपिना पिष्टं यवानां तथा // मत्स्यान्नं खलु चिनितान्नमथवा दध्यन्नमेवं क्रमात् / भक्ष्याऽभक्ष्यमिदं विचार्य मतिमान भक्षेत्तथाऽऽलोकयेत् // [19] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन उपांगद्वय की संकलन शैली के अनुसार अन्य मान्यताओं के बाद स्वमान्यता का सूत्र रहा होगा, जो विषम काल के प्रभाव से विच्छिन्न हो गया है-ऐसा अनुमान है। सामान्य मनीषियों ने इस नक्षत्रभोजनविधान को और नक्षत्रगणनाक्रम को स्वसम्मत मानने की बहुत बड़ी असावधानी की है। इसी एक सूत्र के कारण उपांगद्वय के सम्बन्ध में अनेक चमत्कार की बातें कहकर भ्रान्तियाँ फैलाई गई हैं। इन भ्रान्तियों के निराकरण के लिए प्राज तक किसी भी बहश्रत ने अपने उत्तरदायित्व को समझकर समाधान करने का प्रयत्न नहीं किया है। इसका परिणाम यह हा कि इन उपांगों का स्वाध्याय होना भी बन्द हो गया।' चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति और अन्य ज्योतिषग्रन्थों का तुलनात्मक चिन्तन दशम प्राभृत के अष्टम प्राभृत-प्राभृत में नक्षत्र संस्थान नवम प्राभूत-प्राभृत में नक्षत्र, तारा संख्या नक्षत्रस्वामी-देवता चन्द्र-सूर्य प्रज्ञप्ति में दशम प्राभूत के बारहवें प्राभूत-प्राभूत के सूत्र 46 में नक्षत्र देवताओं के नाम है / मुहूर्त चिन्तामणि के नक्षत्र प्रकरण में नक्षत्र देवताओं के नाम हैं। इन दोनों के नक्षत्र देवता निरूपण में सर्वथा साम्य है। केवल नक्षत्र गणना क्रम का अन्तर है। इसी प्रकार दशम प्राभूत के तेरहवें प्राभृत-प्राभृत में तीस मुहूतों के नाम, चौदहवें प्राभत-प्राभत में पन्द्रह दिनों के और रात्रियों के नाम, पन्द्रहवें प्राभृत-प्राभृत में दिवस तिथियों और रात्रि तिथियों के नाम, सोलहवें प्राभत-प्राभत में नक्षत्र गोत्रों के नाम, सत्तरहवें प्राभूत-प्राभूत में नक्षत्र भोजनों के विधान / बृहद् दैवज्ञरंजनम्, मुहूर्तमार्तण्ड आदि ग्रन्थों में ऊपर अंकित सभी विषय उपलब्ध हैं। आनन्दानुभूति श्रुतसेवा के इस महायज्ञ में श्री विनयमुनिजी आदि के सविनय सविवेक विविध सहयोगों से अधिक प्रानन्दानुभव कर रहा हूँ और सभी सहयोगियों की संयमसाधना सफल हो यह कामना कर रहा हूँ। आत्मशोधन-सूर्यप्रज्ञप्ति के सम्पादन में जहाँ कहीं प्रमादवश कुछ भी विपरीत या असंगत हुआ हो तो आगमज्ञ बहुश्रुत सुधार कर स्वाध्याय करें और आगामी प्रकाशन के लिए उपयोगी सुझाव प्रेषित करें। सहकार साभार स्वीकार सूर्यप्रज्ञप्ति के कतिपय सूत्रों से सम्बन्धित गणित विभाग का संक्षिप्त विवेचन खम्भात सम्प्रदाय के प्राचार्यप्रवर श्री कान्तिऋषिजी म. सा. के प्रशिष्य स्व. श्री महेन्द्रऋषिजी न्याय-साहित्य-व्याकरणाचार्य ने लिखकर हार्दिक सहयोग किया है। [20] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित साहत्र श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने समय-समय पर अनेक उपयोगी सुझाव देकर प्रस्तुत संस्करण के सम्पादन में सक्रिय सहयोग किया है। . श्री रुद्रदेवजी त्रिपाठी ने सूर्यप्रज्ञप्ति की प्रस्तावना लिखकर जिज्ञासु ज्योतिविदों को सूर्यप्रज्ञप्ति के स्वाध्याय के लिए प्रेरित किया है। आगम समिति के सूत्रधार सज्जन श्रावकों ने मेरे श्रम की सफलता के लिए जिज्ञासु जनों में इस संस्करण को वितरित किया है। 31 जनवरी '89 -अ. प्र. मुनि कन्हैयालाल 'कमल' -श्री वर्धमान महावीर केन्द्र, प्राबू पर्वत 307 501 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी साहित्य-सांख्य-योगदर्शनाचार्य, एम. ए. (संस्कृत एवं हिन्दी), पी-एच. डी., डी. लिट. निदेशक ब्रजमोहन बिड़ला शोध केन्द्र, उज्जैन (म. प्र.) 1. धर्मत्रिवेणी और उसका सर्वमान्य साहित्य भारत के सिद्ध तपस्वी, मन्त्रद्रष्टा महर्षि और महान् त्यागी-विरागियों द्वारा प्रदत्त ज्ञानपीयूष के कलश को सुरक्षित रखते हुए उसकी अमृत-बिन्दुओं को प्राणिमात्र के कल्याण के लिये वितरित करने वाले जैन, ब्राह्मण एवं बौद्धाचार्यों ने जिस धार्मिक सर्वमान्य साहित्य को पुरस्कृत किया, उसकी समता विश्व के समक्ष किसी अन्य साहित्य में उपलब्ध नहीं होती है / 'जैन आगम, ब्राह्मण-वेद तथा बौद्ध-पिटक' के रूप में व्याप्त दिव्य-प्रकाश की किरणों से जन-जन के अन्तर को उज्ज्वल बनाने वाले इस सर्वमान्य साहित्य का हमारे पूर्वाचार्यों ने विशुद्धभाव से लोककल्याण की भावना से ही उपदिष्ट किया था, यही कारण है कि यह सुदीर्घ काल से पूर्ण श्रद्धा के साथ समाज में आत्मसात् हुअा है, हो रहा है और चिरकाल तक होता रहेगा। धर्म के सनातन-सत्यों की समष्टि को चिर-स्थिर रखने वाला यह साहित्य भारत को गौरव प्रदान कराता है, मानव-मात्र को सत्य के दर्शन की प्रेरणा देता है, समूचित मार्ग का निर्देश करता है, कर्तव्याकर्तव्य का विवेक सिखाता है और सांसारिक-प्रपंचों से मुक्त होकर मोक्ष-पथ का पथिक बनने के लक्ष्य तक पहुंचाता है। 2. एक लक्ष्य 'मोक्ष-प्राप्ति' और उसके क्रमिक सन्दर्भ भाषा, भाव, कथन की विविधता, वक्ता की और द्रष्टा की भिन्नता एवं श्रोता-संग्रहकर्ता आदि की अनेकता के रहते हुए भी 'पागम, वेद अथवा त्रिपिटकों के आन्तरिक उपदेशों में ऐक्य नितान्त सुसिद्ध है। समान तात्त्विक सिद्धान्तों के हार्दतत्त्व-१. कर्म-विपाक, 2. संसार-बन्धन और 3. मुक्ति, मुख्यत: एक ही ध्येय की पूर्ति करते हैं, वह है--सर्वकर्मों का क्षय करके मोक्ष की प्राप्ति / ' मोक्ष किसका अपेक्षित है? यह प्रश्न मोक्ष-प्राप्ति के प्रसंग में सहज उठता है तो इसका सभी दर्शनकारों का एक ही उत्तर होता है 'पात्मा का'। इस उत्तर से 'प्रात्मा क्या है ?' यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक हो गया, तब सभी दर्शनकारों ने इस सम्बन्ध में अपनी-अपनी दष्टि से 'आत्म-चिन्तन' की प्रक्रियाएँ प्रस्तुत की। इन प्रक्रियाओं के प्रस्तोताओं की भारतीय-वाङमय में एक सुदीर्घ परम्परा प्रवर्तित हई और जैन, बौद्ध एवं वैदिक तथा इनके अवान्तर अनेक चिन्तकों ने अत्यन्त प्रौढता एवं गम्भीरता के साथ वे उपस्थापित की। आस्तिक और नास्तिक जैसे परम्परा-पोषक भेदों की बहुलता के कारण 1. पुवकम्मखयाट्टए इमं देहं........! --उत्त. प्र. 6, गा. 13. [22] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाक ने जहाँ प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानकर 'भूतात्मवाद और देहात्मवाद' को जन्म दिया वहीं उनके सूक्ष्मरूप से 'मन-आत्मवाद, इन्द्रियात्मवाद (एकेन्द्रियात्मवाद तथा समूहात्मवाद), प्राणात्मवाद, पुत्रात्मवाद, अर्थात्मवाद' के सिद्धान्त भी उभर आये। इसी प्रकार वैदिक-विचारकों में वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा एवं अद्वैत वेदान्त के द्वारा भी विभिन्न ऊहापोह-पूर्वक प्रात्मा की खोज में 'धर्म, चेतन, कर्म, देव, माया, ब्रह्म, जीव, जड, पुरुष, प्रकृति' प्रादि अनेक तत्त्वों की साङ्गोपाङ्ग मीमांसा की गई। जैन-दर्शन में 'अतति/गच्छति इति आत्मा' इस व्युत्पत्ति को लक्ष्य में रखकर, गमनार्थक धातु को ज्ञानार्थक भी मानने की व्याकरण-सम्मत व्यवस्था को स्वीकृत करते हुए यह व्याख्या प्रस्तुत की कि जो 'ज्ञान आदि गुणों में आ-सामन्तात् रहता है, अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप त्रिक के साथ समग्ररूप में रहता है, वह 'आत्मा ' है। जैनदर्शनकारों ने प्रात्मा के सम्बन्ध में अनेक दष्टियों से विचार किया है, इसीलिये जनदर्शन का अपरनाम 'अनेकान्तदर्शन' भी प्रसिद्ध है। 'चैतन्यस्वरूप' यह प्रारमा का मुख्य विशेषण है। जैनमतानुसार अन्य विशेषण इस प्रकार है 'चंतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद भोक्ता देहपरिमाणः प्रतिक्षेत्र भिन्नः पौदगलिकादष्टवांश्चायम 3. आत्मा का पर्याय 'जीव' तथा उसका मौलिक विश्लेषण जैनदर्शन का 'आत्मशास्त्र' अत्यन्त सूक्ष्म है। इसकी विचारणा सम्पूर्ण वैज्ञानिक है। विभिन्न दर्शनकार प्रात्मा का अस्तित्व तो मानते हैं किन्तु उनमें से कुछ आत्मा का 'अनेकत्व, नित्यत्व अथवा कर्तृत्व-मोक्षादि' नहीं मानते हैं किन्तु जैनदर्शन में आत्मा को नित्य और अविनाशी माना है। प्रात्मा के अस्तित्व के बारे में 'जीवो उवओगलक्षणो' सूत्र द्वारा वर्धमान महावीर ने उसकी पहचान का मार्ग दिखलाया है / जैन शास्त्रकार प्रात्मा के पर्याय रूप में 'जीव' शब्द का प्रयोग करते हैं और वह जीवन, प्राणशक्ति एवं चेतना का द्योतक है। कालिक जीवन-गुण से युक्त होने के कारण प्रात्मा की 'जीव' संज्ञा सार्थक है। 'जीवन' के प्राधार दशविध 'प्राण' बतलाये गये हैं। यह व्यवहारदष्टि है। निश्चय दृष्टि से जिसमें 'चेतना' पायी जाए वह 'जीव' है। जीव का लक्षण जैनदर्शन के अनुसार 'उपयोग' है। उपयोग, चेतना का अनुविधायी परिणाम होता है। इसके 'ज्ञान' और 'दर्शन' नाम से दो भेद हैं तथा इन दोनों के धारक को 'जीव' कहते हैं। जीव में प्रचेतन पदार्थों की तरह 'प्रदेश' और 'अवयव भी माने गये हैं, उसे इसी कारण 'अस्तिकाय' कहा गया है। उसमें प्रतिक्षण परिणमन क्रिया होती रहती है, फिर भी वह अपने मूल रूप/गुण को नहीं छोड़ता। ये "उत्पाद, ध्यय और --उत्त. प्र. 28, गा. 11 1. [क] नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा / वीरियं उपयोगो य एयं जीवस्स लक्खणं // [ख] बृहद् द्रव्यसंग्रह-५७ 2. प्रमाणनय-तत्त्वालोक, 7-56 3. क. उत्त. प्र. 28, मा. 10 ख. उपयोगो लक्षणम् -तत्त्वार्थसूत्र अ. 2, सू. 8 4. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 147 5. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 281 [23] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रौव्य ये पर्याय उसमें सदा पाये जाते हैं। इन कारणों से जीव को भी एक 'द्रव्य' माना गया है। जीव-द्रव्य अनन्त हैं। ये सभी प्ररूपी और चैतन्य गुण वाले होने के निरन्तर अपने-अपने बाय-प्राभ्यन्तर उभय परिणामों के कर्ता और भोक्ता बनते हैं तथा स्व-पर परिणामों के ज्ञाता भी हैं। जीबद्रव्य के अतिरिक्त अन्य चार 'अजीव-द्रव्य' भी हैं, जो चैतन्य-रहित जडत्व-गुण से युक्त हैं। इनमें 1. 'धर्मास्तिकाय' द्रव्य है, जो 'अरूपी' और 'गति-सहायक' गुण-धर्म वाला है। 2. 'अधर्मास्तिकाय' द्रव्य भी प्ररूपी एवं स्थिति-सहायक गुण-धर्म वाला है। 3. लोकालोक प्रमाण 'आकाशास्तिकाय' द्रव्य भी अरूपी, अवकाश देने के गुण-धर्म वाला है। 4. 'पुदगलास्तिकाय' द्रव्य स्कन्धदेश-प्रदेश और परमाणु स्वरूप से पूरण-गलन-स्वभाव वाला और वर्ण-गन्ध-रस और स्पर्शादि धर्म से युक्त होकर रूपी द्रव्य है / 4. जीव तथा अजीव द्रव्य रूप 'जगत्' और उसके ज्ञान की आवश्यकता सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी श्री बीतराग जिनेश्वर ने समस्त जगत को जीव और अजीव द्रव्यों का राशि रूप कहा है और यह भी प्ररूपित किया है कि यह जगत् अनादि, अनन्त तथा 'पंचास्तिकायमय' है / अतः जगत् में जो-जो द्रव्य दिखाई देते हैं और विभिन्न स्वरूप में जीव द्रव्यों के भोग-उपभोग में आते हैं, वे सभी पुद्गल द्रव्य हैं तथा जड़पुदगल-द्रव्यों के चित्र-विचित्र परिणामों के संयोग-वियोगादि में, जिस-जिस को भिन्न-भिन्न स्वरूप में सुख-दुःखादि का अनुभव होता है ये भिन्न-भिन्न जीव-द्रव्य हैं। क्योंकि जड़ द्रव्यों में सुख-दुःखादि की अनुभव रूप ज्ञान-चेतना 1. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् / -तत्त्वार्थसूत्र प्र. 5, सू. 29 2. प. कई गं भंते / अत्यिकाया पण्णत्ता ? उ. गोयमा १पंच अस्थिकरया पण्णत्ता तं जहा-१. धम्मत्थिकाए, 2. प्रधम्मत्यिकाए, 3. पागासस्थिकाए, 4. जीवत्थिकाए, 5. पोग्गलत्थिकाए। –विया. स. 2, उ. 10, सु. 1 यद्यपि जैन शासन में द्रव्य पांच ही हैं 'पंचास्तिकायो लोक:' यह सूत्र इसका प्रमाण है, तथापि कहीं-कहीं 'काल' को स्वतन्त्र द्रव्य मानकर 'षड्द्रव्य' भी बतलाये गये हैं। दव्वाणं नामाइं प. से किं तं दवणामे ? उ. दव्व-णामे छब्बिहे पण्णत्ते, तं जहा-1. धम्मत्थिकाए, 2. अधम्मत्यिकाए, 3. प्रागासस्थिकाए, 4. जीवत्थिकाए, 5. पोग्गलत्थिकाए 6. अद्धासमए, अ। से तं दब्ब-णामे। -अणु. सु. 218 तत्वार्थकार ने भी पांचवें अध्याय के 30वें सूत्र में स्पष्ट लिखा है कि 'कालश्चेत्येके' अर्थात् कुछ प्राचार्य काल को भी स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। जबकि पंचद्रव्यवादी 'काल' को जीव और अजीव का पर्याय-स्वरूप मानते हैं। [ 24 ] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं होती। इसीलिये जैन दष्टि से समस्त जगत् जीव और अजीव ऐसे दो पदार्थों में विभक्त है, और अजीव के विविध परिणमनरूप में प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला यह समस्त जगत् नवतत्त्वात्मक स्वरूप से सत् है / 2 जिसकी किसी भी काल में, किसी से उत्पत्ति नहीं हई और जिसका किसी भी काल में मामूल-सर्वथा विनाश भी नहीं है, ऐसे अनादि-अनन्त, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य परिणामी पांचों अस्तिकाय द्रव्यों में कालादि भेद से जो-जो चित्र-विचित्र पर्याय-परिणमन होते हैं, वे सभी 'स्वतः' और 'परतः सहेतुक होते हैं। अतः उनसे सम्बद्ध कार्य-कारणभाव का यथार्य स्वरूप जानना आवश्यक है। धर्मास्तिकायादि पदार्थ लोकाकाश रूप जगत् में ही व्याप्त हैं। इसी जगत् में जीवों की स्थिति है और जगत के समस्त जीवों को अनादिकाल से सुख और शान्ति की अपेक्षा रहती ही आयी है। सुख और शान्ति के लिये तड़पते हुए जीवों को सुख-शान्ति का वास्तविक मार्ग बतलाने की दृष्टि से ही परम करुणामूर्ति अरिहन्त तीर्थकर धर्मतीर्थ की प्ररूपणा करते हुए कहते हैं कि 'जिन आत्माओं को सुख एवं शान्ति की अभिलाषा हो, उन्हें अपनी आत्मा में मोक्षाभिलाषरूप 'संवेगभाव' तथा सांसारिक सुख के प्रति अनासक्त भाव रूप 'निर्वेद' प्रकट करना चाहिये, तमी वे सुख-शान्ति का अनुभव कर सकते हैं।' इसीलिये वाचकप्रवर श्री उमास्वाति ने भी संवेगनिर्वेद की उत्पत्ति का उपाय बतलाते हुए कहा है कि---'जगत-कायस्वभावौ च संवेग-वैराग्याथम्' और उसी 'तत्त्वार्थसूत्र' में तथा 'नवतत्त्व' में प्रात्मा में संवरभाव प्रकट करने के लिये बारह भावनाओं के भावने की बात कही गई है। उसमें 'लोक-स्वभाव-भावना' भी एक है। यह 'लोक-स्वभाव-भावना' तभी भावित कर सकता है, जबकि उसे 'लोक का स्वरूप' ज्ञात हो / "जगत" का अपर-पर्याय 'लोक" है। लोक का अर्थ दृश्यादृश्य "क्षेत्र" भी होता है। अतः धर्मास्तिकायादि द्रव्य जिस आकाश में विलसित हो रहे हैं, उस क्षेत्र को भी "लोक" कहते हैं। इसी लोक का स्वरूपपरिज्ञान करने की प्राज्ञा जैनागम तथा अन्य शास्त्रों में दी गई है। "प्राचाराङ्ग-सुत्र" में कहा गया "विदित्ता लोग बंता लोगसण्णं से मइमं परिपकमज्जासि"। इसके अनुसार लोकविषयक ज्ञान के अनन्तर ही विषयासक्ति में त्याग के पराक्रम निर्दिष्ट है। इसी प्रकार "द्वीप-समुद्र-पर्वत-क्षेत्र-सरित्-प्रभृति-विशेषः सम्यक् सकल-नगमादि-नयेन ज्योतिषां प्रवचन-मूलसूत्रजन्यमानेन कथमपि भावविदभिः सदभिः स्वयं पूर्वापरशास्त्रार्थ-पर्यालोचनेन प्रवचन-पदार्थविदुपासनेन चाभियोमादिविशेषविशेषेण वा प्रपंचेन परिवेद्य इति / " कथन द्वारा श्लोकवातिककार ने भी लोक-विषयक सभी पदार्थों के 1. (क) दुवे रासी पण्णत्ता, तं जहा---1. जीवरासी य, 2. अजीवरासी य। -सम. सू. 148 (ख) अस्थि जीवा, अत्थि अजीवा, -उव. सु. 56 (ग) के अयं लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव / के अणंता लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव। के सासया लोये? जीवच्चेव, अजीवच्चेव। --ठाणं. प्र. 2, उ.४ सु. 114 2. जीवाजीवा य बंधो य पुण्ण-पावासवा तहा / संवरो निज्जरा मोक्खो संतेए तहिया नव // 14 // उत्त. प्र. 28, गा. 14 3. आचारांगसूत्र-श्रुत. 1, अ. 3, उ, 1, सू. 25. 4. तत्त्वार्थसूत्र 3/70 पर श्लोकवार्तिक. [ 25 ] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान करने का आग्रह किया है। वस्तुतः आन्तरिक-सत्ता के ज्ञान के साथ बाह्य-सत्ता का ज्ञान भी प्रावश्यक माना गया है। इसीलिये जैन और अन्यान्य सभी धर्मानुयायियों के प्रमाणभूत प्रागमादि ग्रन्थों में "सृष्टि-विज्ञान" को धर्मचर्चा के रूप में प्रस्तुत करते हुए मान्यता दी गई है। साथ ही इस विज्ञान को सर्वज्ञ जिनेश्वर-प्ररूपित होने के कारण इसे मोक्ष के प्रमुख साधनभूत धर्म के चार भेदों के अन्तर्गत "धर्मध्यान" नामक भेद में लोक के स्वभाव और प्राकार एवं उसमें स्थित विविध द्वीपादि, क्षेत्र तथा समुद्रादि के स्वरूप-चिन्तन में मनोयोग "संस्थानविचय" नामक धर्मध्यान होता है—ऐसा कहा गया है। इस प्रकार की लोक-भावना करते हुए प्रात्मा "संस्थानविचय" नामक धर्मध्यान में पहुंचने से अपने कर्मों का नाश कर शुक्लध्यान में पहुँचता है और क्षपकश्रेणी में आ जाने से अष्टकर्मक्षय करके अपनी प्रात्मा को शाश्वत सुख का भागी बनाता है। ऐसे अनेक तथ्यों के कारण ही लोक की "स्थिति और विस्तार" आदि की मीमांसा जैन आगमों में पर्याप्त विस्तार से हई है, उसके मूल में धर्मबोध की ही प्रधानता रही है और इसीलिए धार्मिक चर्चाओं में सर्वत्र लोकविज्ञान, लोकचिन्तन" को भी महत्त्व मिला है। ऐसी एक यावश्यक चर्या का आध्यात्मिक महत्त्व सर्वोपरि है और वह हैप्र. एयंसिणं भंते ! एमहालयंसि लोगसि अस्थि केइ परमाणुपोग्गलत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि? उ. नो इणठे समझें / प्र. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ "एयंसिणं एमहालयंसि लोग सि नस्थि केई परमाणपोग्गलमेत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे ण जाए वा न मए वा वि?" उ. गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे प्रयासहस्सस्स एग महं अयावयं करेज्जा, सेणं तत्थ जहण्णणं एक्कं वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं प्रयासहस्सं पक्खिवेज्जा, तानो णं तत्थ पउरगोयरात्रो पउरपाणियाओ, जहणणं एगाहं वा, या बा, तियाहं वा, उक्कोसेणं छम्मासे परिवसेज्जा / अत्थि गं गोयमा ! तस्स प्रयावयस्स के यि परमाणपोग्गलमेत्ते वि पएसे जे णं तासि प्रयाणं उच्चारण वा पासबणेण वा खेलेण वा सिंघाणएण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूरण वा सुक्केण वा सोणिएण वा चम्मे हि वा रोमेहि वा सिंगेहि वा खुरेहि वा नहेहिं वा अणोक्कंतपुव्वे भवइ ? उ. णो इणठे समझें। होज्जा बिणं गोयमा! तस्स अयावयस्स केयि परमाणपोग्गलमेत्ते वि पएसे जे ण तासि अयाण उच्चारण वा जाव नहेहिं वा अगोक्कतपुब्बे नो चेव णं एयंसि एमहालयंसि लोगंसि लोगस्स य सासयभावं, संसारस्स य प्रणादिभावं, जीबस्स य निच्चभावं कम्मबहुत्तं जम्मण-मरणाबाहल्लं च पड़च्च नत्थि केयि परमाणपोग्गलमत्त वि पएसे- “जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि।" से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ---- 1. ज्ञानार्णव 34/4-8 तथा हैमयोगशास्त्र 7/10-12. [26] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'एयंसि णं एमहालयंसि लोगंसि नरिथ के परमाणपोग्गलमत्ते वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे गं जाए बा न मए वा वि।" -विया. स. 12, उ. 7, सु. 3/1-2. अर्थात इस लोक का ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जहाँ अनेक बार जीव उत्पन्न हुआ और मरा नहीं। जिस लोक में मानव उत्पन्न हुया है, उसके स्वरूप-परिज्ञान से वह सोचने लगता है कि "इस लोक के प्रत्येक प्रदेश में मेरे अनन्तबार जन्म और मरण हुए हैं, अतः इस पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र से मुझे मुक्त होना चाहिए।" उसकी यह जागरूकता उसे विभिन्न पुण्य-पाप, सत्कर्म-दुष्कर्म आदि से परिचित कराती है और वह उनके स्वरूपों से परिचित होकर असत्कर्मों से निवृत्ति एवं सत्कर्मप्रवृत्तिपूर्वक अपने निरापद गन्तव्य का निर्धारण करने में तत्पर हो जाता है। यदि समस्त लोक तथा पृथ्वी पर स्थित द्वीपादि का निरूपण शास्त्रों में नहीं होता तो जीव अपने स्वरूप के परिचय से अपरिचित ही रह जाता और वैसी स्थिति में आत्मज्ञान के प्रति श्रद्धान तथा ज्ञानादि की सम्भावनाएँ भी विलुप्त हो जाती। जो जीवे वि न याणाति अजीव विनयाणति / जीवाऽजीवे प्रयाणतो कहं सो नाहीइ संजमं / / 35 / / जो जीवे वि बियाणाति अजीवे वि वियाणति / जीवाजी वियाणंतो सो हुनाहीइ संजमं / / 36 / / जया जीवमजीवे य दो वि एए वियाणई / तया गई बहुविहं सव्वजोवाणं जाणई // 37 // तया गई बहुविहं सव्वजीवाण जाणई / तया पुण्णं च पावं च बंधं भोक्खं च जाणई / / 38 // जया पुण्णं च पावं च बंधं मोक्खं च जाणई। तया निविदए भोए जे दिव्वे जे य माणुसे // 39 // जया निविदए भोए जे दिव्वे जे य माणसे / / तया चयई संजोगं माब्मितरबाहिरं // 40 // जया चयइ संजोगं सऽभितर-बाहिरं / तया मुंडे भवित्ताणं पब्वइए अणगारियं // 41 // जया मुंडे भवित्ताणं पव्वइए अणगारियं / तया संवरमुक्किट्ठ धम्म फासे अणुत्तरं // 42 / / जया संवरमूक्किटठं धम्म फासे अणत्तरं / तया धुणइ कम्मरयं प्रबोहिकलुसं कडं / / 43 / / जया धुणइ कम्मरयं प्रबोहिकलुसं कडं / तया सव्वत्तगं नाणं दंसणं चाभिगच्छई // 44 / / जया सव्वत्तमं नाणं दसणं चाभिगच्छई। तया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली॥ 45 // [27] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली। तया जोगे निरु भित्ता सेलेसिं पडिवज्जई // 46 / / जया जोगे निरु भित्ता सेलेसि पडिबज्जइ। तया कम्म खविताणं सिद्धि गच्छइ नीरो / / 47 / / जया कम्म खवित्ताणं सिद्धि गच्छइ नीरो / तया लोगमस्थ यस्थो सिद्धो भवइ सासयो / / 4 / / -दस. अ. 4, गा. 35-48 इन्हीं सब कारणों से लोक-सम्बन्धी ज्ञान प्रत्यावश्यक माना गया है और इस ज्ञान की उपलब्धि के लिए आगम-साहित्य सदैव परिशीलनीय माना गया है / 5. लोक और उसमें "सूर्य" जैसा कि ऊपर बताया गया है कि “लोक-विज्ञान" का निदर्शन जैन-पागमों में विस्तार से हुआ है। वहाँ उसका परिचय // 1. समग्र, 2. विभिन्न अंग और 3. अंग-विशेष" के रूप में निर्दिष्ट होकर उत्तरकाल के आचार्यों द्वारा भाष्य, टीका-नियुक्ति, चुर्णी, वत्ति प्रादि के रूप में उसे और भी पल्लवित एवं पुष्पित किया गया है / ऐसे साहित्य में लोक परिचय के लिए 1. आचारांग सूत्र 1 श्रुतस्कन्ध, 2 अध्ययन, 1 उद्देशक' / 2. स्थानांग सूत्र, 1 स्थान / 3. समवायांग सूत्र-प्रथम समवायः / 4. भगवतीसूत्र 11 शतक, 10 उद्देशक / 1. इच्चत्थं गढिए लोए वसे पमत्ते अहो य राम्रो य परितप्पमाणे कालाकालसमुट्ठायी संजोगट्टी अट्टालोभी पालुपे सहसक्कारे विणिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो पुणो / -प्राचा. श्रु. 1, प्र. 2, उ. 1, सु. 63 2. ठाणं. अ. 1, सु. 5 3. सम. अ. 1, सु. 3 4. प्र. कइविहे गं भंते 1. लोए पण्णत्ते ? उ. गोयमा ! चउब्बिहे लोए पण्णत्ते, तं जहा.--१. दव्वलोए, 2. खेत्तलोए, 3. काललोए, 4. भावलोए / प्र. खेत्तलोए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? उ. गोयमा ! तिविहे पणत्ते, तं जहा--१. अहेलोयखेत्तलोए, 2. तिरियलोयखेत्तलोए, 3. उड्ढलोयखेत्तलोए। प्र. आहेलोयखेत्तलोए णं भंते ! कइविहे पण्णते? उ. गोयमा ! सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा–रयणप्पभापुढविहेलोयखेत्तलोए जाव अहेसत्तमपुढविअहेलोयखेत्तलोए / प्र. तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! कइबिहे पण्णते ? [शेष अगले पृष्ठ पर] [28] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. 13 शतक, 4 उद्देशक / ' तथा अन्य सूत्रों में प्रासंगिक रूप से चचित विषयों का अध्ययन किया जाये तथा 2. लोक के आकार-ज्ञान के लिये-- 1. आचारांगसूत्र श्रुत 1. अ. 8, उ. / 2 / द्रष्टव्य हैं। लोक-विषयक विचारणा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। जैन आगमों में लोक का अभिप्रेतार्थ "रज्जुलोक" है, क्योंकि यह चौदह विभागों में विभाजित है, अतः इसे "चौदह रज्जूलोक" के नाम से भी पहचाना जाता है। वैसे वैदिक-धर्मग्रन्थों में भी "चौदह रज्जलोक" की मान्यता एवं वर्णन मिलते हैं। एक रज्जुलोक का प्रमाण-"कोई देव एक हजार भार वाले लोहे के गोले को अपनी समग्र शक्तिपूर्वक आकाश से फेंके और वह लोहगोलक 6 माह, 6 दिन, 6 घड़ी, 6 पल में जितना क्षेत्र लांघ जाए, उतना क्षेत्र उ. गोयमा! असंखेज्जइविहे पण्णते, तं जहा–जंबुद्दीवतिरियलोयखेत्त लोए जाव सयंभुरमणसमुद्दतिरियलोयसेत्तलोए / प्र. उड्ढलोयखेत्तलोए णं भंते ! कइविहे पणते ? उ. गोयमा ! पण्णरसविहे पण्णते, तं जहा- सोहम्मकप्पउड्ढलोयखेत्तलोए जाव अच्च्यउड्ढलोयखेत्तलोए / गेवेज्जविमाणउड्ढलोयखेत्त लोए अणुत्तरविमाणउड्डलोयखेत्तलोए इसिपब्भारपुढविउड्ढलोयखेत्तलोए।। –विया. स. 11, उ. 10, सु. 2-6 प. कहि णं भंते ! लोगस्स पायाममज्झे पण्णते ? उ. गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए प्रोवासंतरस्स असंखेजइभागं एत्थ णं लोगस्स पायाममज्झे पण्णत्ते / प. कहि णं भंते ! अहेलोगस्स प्रायाममझ पण्णते ? गोयमा! चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए प्रोवासंतरस्स साइरेग अद्ध योगाहित्ता, एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममझे पण्णत्ते।। प. कहि णं भंते ! उड्ढलोगस्स आयाममज्झे पण्णते ? उ. गोयमा ! उप्पिं सणकुमार-माहिदाणं कप्पाणं हेदिष्ठं वंभलोए कप्पे रिटठे विमाणपत्थडे, एत्थ णं उड्ढ लोगस आयाममज्झे पण्णत्ते / 5. कहि णं भंते ! तिरियलोगस्स पायाममज्झे पण्णत्ते ? गोयमा ! जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स बहमज्भदेसभाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्टि लेसु खुड्डुगपयरेसु, एत्थ णं तिरियलोयमझ अट्रपएसिए रुयए पण्णत्ते, जो गं इमामो दस दिसाओ पवहंति, तं जहा-पुरस्थिमा पुरस्थिमदाहिणा एवं जहा दसमसते जाव नामधेज्ज त्ति / -विया. स. 13, उ. 4, सु. 10-15 2. मत्थि लोए, गस्थि लोए, धुवे लोए, प्रधुवे लोए, सादिए लोए, प्रणादिए लोए, सपज्जवसिए लोए, अपज्जवसिए लोए, सुकडे ति वा दुकडे ति वा कल्लाणे ति वा पावए ति वा साधु ति वा असाधू ति वा सिद्धी ति वा प्रसिद्धी ति वा निरए ति वा अनिरए ति वा। --आधा. श्रु. 1, अ.८, उ. 1, सु. 200 [ 29 ] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक रज्जुलोक कहलाता है। चौदह रज्जुलोक का आकार दोनों पैर सीधे करके कटि के दोनों पाश्वों पर हाथ रखकर खड़े हुए पुरुष के समान है। प्रागम साहित्य में इसे लोक पुरुष की संज्ञा दी गई है। इसी में धर्मास्तिकायादि (काल द्रव्य, सहित) छह द्रव्य हैं। लोक के बाहर जो अाकाशा स्तिकाय है, उसमें इन छह द्रव्यों के न होने से उसे "अलोक" कहते हैं। प्रलोक का विस्तार लोक की अपेक्षा अनन्त गुना विशाल है। लोक के "ऊर्ध्व", "अधः" और "तिर्यक" ऐसे तीन विभाग हैं। इनमें "रत्नप्रभा" से नौ सौ योजन ऊपर तथा नौ सौ योजन नीचे इस प्रकार कुल अठारह सौ योजन मोटाई वाला, एक रज्जु चौड़ा ऐसा "तिर्यक् लोक" है। वहां से नौ सौ योजन न्यून सात रज्जु प्रमाण “अधोलोक" है और "ऊर्ध्वलोक" भी नौ सौ योजन न्यून सात रज्जु प्रमाण है / / संक्षेप में यह लोक का सामन्य परिचय है। विशेष ज्ञान के लिये गणितानयोग का आद्योपान्त अवलोकन "लोक-प्रकाश", क्षेत्रसमास आदि दर्शनीय हैं। 6. सूर्य का आलोक और उसका स्वरूप तिर्यकलोक में जो प्रकाश व्याप्त है, वह सूर्यों के द्वारा ही प्राप्त है। मनुष्यलोक के अन्दर और बाहर के विभागों को प्रकाशित करने वाले सूर्य पृथक्-पृथक् हैं और इस दृष्टि से सूर्यों की अनेकता सिद्ध है। इस मध्यलोक के प्रकाशक सूर्य और इनके सहयोगी अन्य देव, जो कि "ज्योतिष्क देव" के रूप में पहचाने जाते हैं-इन सबका परिचय प्रागमों में इस प्रकार है-- जम्बद्वीप के मध्य में स्थित "मेरुपर्वत की समतल भूमि से ऊपर 790 योजन की ऊँचाई के पश्चात् ज्योतिश्चक्र का क्षेत्र प्रारम्भ होता है जो कि 110 योजन प्रमाण है अर्थात् ज्योतिश्चक्र की स्थिति इसी मध्यलोक में है। इन 110 योजनों में से 10 योजन छोड़कर उसके ऊपर मेरु की समतल भूमि से 800 योजन की ऊँचाई पर सूर्य के विमान हैं। उससे 80 योजन की ऊँचाई पर चन्द्र के विमान हैं / वहाँ से 20 योजन तक अर्थात् मेरु की समतल भूमि से 900 योजन की ऊंचाई तक की परिधि में ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्ण तारागण हैं / तारासमूह को प्रकीर्ण कहने का कारण यह है कि अन्य कतिपय तारे अनियतचारी होने से कभी सूर्य और चन्द्र के नीचे भी चलते हैं तथा कभी ऊपर भी। इन सब ज्योतिष्कों की स्थिति भी इसी मध्यलोक में है। मनुष्यलोक की सीमा में जो ज्योतिष्क हैं वे भ्रमण करते रहते हैं। इसलिये उन्हें "चर ज्योतिष्क" कहते हैं। चर ज्योतिष्कों की गति की अपेक्षा से ही मुहर्त, प्रहर, अहोरात्र, पक्ष, मास, अतीत, वर्तमान आदि तथा संख्येय-असंख्येय प्रादि काल का व्यवहार है। मनुष्यलोक की सीमा से बाहर ज्योतिष्कों के विमान स्थिर हैं। स्वभावत: वे एक स्थान पर स्थिर रहते हैं, भ्रमण नहीं करते / अतः उनका उदय-अस्त न होने से उनका प्रकाश भी एक समान पीतवर्णी और लक्ष योजन-प्रमाण रहता है। इसलिये उन्हें "स्थिर ज्योतिष्क" कहा है / सभी ज्योतिष्क पांच यूथों में विभाजित होते हैं और वे सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारामों का प्रतिनिधित्व करते हैं। केवल मनुष्य सृष्टि के लिये ही ये सतत गतिशील रहते हैं ऐसा प्रतीत होता है, यहाँ सूर्य-चन्द्र की बहलता के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण जैन सिद्धान्त की लाक्षणिकता के लिये आवश्यक है। मुख्यत: जम्बूद्वीप (मध्यलोक) में दो सूर्य, दो चन्द्रों का होना माना जाता है / समय विभाजन इन ज्योतिर्मय देवों की गति से ही निर्धारित होता है। जैनदर्शन की दृष्टि से जगत् में व्याप्त दृष्ट-अदृष्ट सभी पदार्थ जिन षड् द्रव्यों में विभक्त हैं उनमें "काल" को भी एक द्रव्य माना है। चेतन और जड़ पुद्गल तीनों कालों में सक्रिय रहते हैं। जीव तथा पुद्गल को [30] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्रियता को समयमर्यादा निश्चित करने का एक मात्र आधार काल-द्रव्य है। सामान्यतः जगत् में "काल" नामक कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है तथापि उपर्युक्त जड़ और चेतन पदार्थ के सम्बन्ध में अत्यन्त उपकारक होने से शास्त्र. कारों ने इसको औपचारिक द्रव्य भी कहा है। काल का अर्थ यहाँ समय (सेकिंड, मिनिट, घण्टे, दिन, पक्ष, मास और वर्ष आदि) का सूचक है। इस समय को यदि कोई भी निश्चित कर देने वाले साधन हैं, तो वे हैं "सूर्य अनन्तज्ञानी तीर्थकर परमात्मा ने सूर्य-चन्द्र दोनों ही असंख्य कहे हैं और इनमें परस्पर तनिक भी न्यूनाधिकता नहीं है। वस्तुत: ये चार प्रकार के देवों में "ज्योतिषी देव" हैं। इनके विमानों में जटित विशिष्ट रलों के प्रकाश से जगत् के सर्व पदार्थ प्रकाशित होते हैं / सूर्यविमान के रत्नों में वर्तमान एकेन्द्रिय जीवों को प्रातप नामकर्म से उष्ण प्रकाश का अनुभव होता है और चन्द्र विमान के रत्नों में वर्तमान एकेन्द्रिय जीवों को उद्योत नामकर्म से शीत प्रकाश का अनुभव होता है। असंख्य सूर्य ज्योतिषी-निकाय के इन्द्र हैं और इन असंख्य सूर्य इन्द्रों के रहने के विमान भिन्न-भिन्न होते हैं। उसी प्रकार चन्द्रों के भी विमान भिन्न-भिन्न हैं / सूर्य का प्रत्येक विमान पूर्वदिशा में 4000 सिंह रूप, दक्षिण में 4000 हस्ति रूप, पश्चिम में 4000 वृषभ रूप तथा उत्तर में 4000 अश्व रूप इस प्रकार कूल 16000 प्राभियोगिक (सेवकादि) देव इन विमानों का वहन करते हैं। सूर्य के विमान पृथ्वी से 800 योजन ऊँचे हैं तथा वे शाश्वत हैं। शाश्वत पदार्थों का 1 योजन 3600 मील जितना होता है। जम्बूद्वीप और उसके बाद वाले असंख्य द्वीप-समुद्रों में सूर्य-चन्द्र सदा हर समय प्रकाश फैला रहे हैं / यथा-- - जम्बूद्वीप में लवणसमुद्र में धातकीखण्ड में कालोदधिसमुद्र में अर्ध-पुष्करद्वीप में 2 सूर्य 4 सूर्य 12 सूर्य 42 सूर्य 72 सूर्य 2 चन्द्र 4 चन्द्र 12 चन्द्र 42 चन्द्र 72 चन्द्र 132 चन्द्र 132 सूर्य इन सूर्य-चन्द्रों के सम्बन्ध में अन्य ज्ञातव्य इस प्रकार है मनुष्यलोक के सूर्य-चन्द्र 1. अस्थिर (परिभ्रमणशील) 2. इनके विमान की पीठिका अर्ध कोष्ठकाकार 3. चन्द्र विमानयोजन (लम्बाई-चौड़ाई) 4. चन्द्र विमान की ऊँचाई योजन 5. सूर्य विमान 6 योजन (लम्बाई-चौड़ाई) 6. सूर्य विमान की ऊँचाई योजन / मनुष्यलोक से बाहर के सूर्य-चन्द्र 1. स्थिर (परिभ्रमणरहित) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. चतुरस्र इष्टकाकार 3. चन्द्र विमान 26 योजन (लम्बाई-चौड़ाई) 4. चन्द्र विमान की ऊँचाई 16 योजन 5. सूर्य विमान योजन (लम्बाई-चौड़ाई) 6. सूर्य विमान की ऊंचाई 14 योजन। जम्बूद्वीप में एक चन्द्र, एक सूर्य 48 घण्टे में प्रत्येक मण्डल को पूर्ण करता है / जम्बूद्वीप में एक सूर्य दक्षिण दिशा में भरतक्षेत्र में होता है तब दूसरा सूर्य उत्तरदिशा में-ऐरवत क्षेत्र में रहता है। उसी समय एक चन्द्र पूर्व महाविदेह में होता है तब दूसरा चन्द्र पश्चिम महाविदेह में रहता है। जहाँ सूर्य होता है वहाँ दिन और जहाँ चन्द्र होता है वहाँ रात्रि होती है। अतः प्रत्येक क्षेत्र में जो सूर्य-चन्द्र प्राज दिखाई देते हैं, वे दूसरे दिन नहीं दिखाई देते / इस प्रकार सूर्य-चन्द्र का परिभ्रमण सतत चाल है। अढाई द्वीपवर्ती सभी सूर्य-चन्द्र द्वीपवर्ती मेरुपर्वतों के चारों ओर सतत परिभ्रमण कर रहे हैं / इस प्रकार कुल 132 सूर्य-चन्द्र अढाई द्वीपों के मध्यस्थ मेरु की परिक्रमा कर रहे हैं, वे दो विभाग में विभक्त 66-66 संख्या में रहते हैं और इनकी पंक्ति सदा एक साथ ही परिक्रमा करती है। सूर्य परिभ्रमण करते हुए जैसे-जैसे आगे बढ़ता है वैसे उस क्षेत्र में सूर्योदय कहलाता है और वह गति करता हुमा पिछले क्षेत्र में अन्तिम दिखाई देता है तब सूर्यास्त कहलाता है। वस्तुत: जैन आगमों में वर्णित सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिष्क देवों की विचारणा इतनी महत्त्वपूर्ण एवं सूक्ष्मता से परिपूर्ण है कि उसका वर्णन करना यहाँ सम्भव नहीं है। भगवतीसूत्र, जीवाभिगम, सूर्य-प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिष्करण्डक, क्षेत्रलोकप्रकाश, बृहत्संग्रहणी, क्षेत्रसमास (लघु एवं बृहत्) तथा त्रिलोकसारादि में यह विषय विस्तार से समझाया गया है। इतना ही नहीं, अन्य धर्मों के प्रमुख अन्थों में भी सूर्य की सर्वोपरि सत्ता को बहुत ही प्रादर के साथ सराहा गया है / वेदों में सूर्य को "प्राणः प्रजानामुख्यत्येष सूर्यः, विभ्राट्, बृहतू, विश्वाय वृशे सूर्यम्, सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च," और "आकृष्णन रजसा वर्तमानो निवेशयनमृतं मर्त्यश्च / हिरण्ययेन सविता रथन देवो याति भुवनानि पश्यन" इत्यादि अनेक मन्त्रों से विविधरूप में व्यक्त किया है / सर्वाराध्य गायत्री मन्त्र में भी सवित देवता की ही महिमा और प्रार्थना है। सूर्य के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अनेक विवेचन वैदिक मन्त्रों में अभिव्यक्त हैं, जिनके भाष्यों में प्राचार्यों ने सूक्ष्मातिसूक्ष्म परीक्षणात्मक प्रयोगों के निर्देश भी दिये हैं। सूर्य सप्ताश्वरथ में स्थित होकर जगत् को प्रकाशित करता है। ऋग्वेद में "सप्त यूञ्जन्ति रथमेकचक्र" कहते हुए जगत् को सप्तवर्गी ही बतलाया है। ये सात वर्ग-पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक् और काल हैं / सौर-परिवार के नौ सदस्य नवग्रह हैं / सूर्य प्रादि ग्रहों के बिम्बों का व्यास, गति, युति, ग्रहण प्रादि के वर्णन पुराणों तथा ज्योतिष के ग्रन्थों में व्यापकरूप से आये हैं। "वद्ध गर्गसंहिता" में "महासलिलाध्याय" के उत्तरार्ध में "ग्रहकोपाध्याय, नक्षत्रकर्मगणाध्याय" आदि में वैज्ञानिक विषयों का विस्तृत वर्णन भी दर्शनीय है। इस प्रकार सूर्य की प्रखण्ड सत्ता सनातन धर्मग्रन्थों में भी विस्तार से स्वीकृत है। ऐसी ही सूर्य की सार्वत्रिक महिमा को वैज्ञानिक दृष्टि से समन्वित चिन्तन-प्रधान असाधारण विवेचना के द्वारा व्यक्त करने वाला एक महान् ग्रन्थ "सूर्य-प्रज्ञप्ति" है / जिसका परिचय इस प्रकार है७. सूर्य-प्रज्ञप्ति का आगम साहित्य में स्थान जैन आगम-साहित्य प्राचीनतम वर्गीकरण के अनुसार 'पूर्व' और 'अंग' के रूप में वर्गीकृत हुआ था जिसे श्रमण भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती बतलाया है / इसके पश्चात् 'पूर्वश्रुत' को सरल रूप में प्रथित कर उसमें 'दृष्टिवाद' जन [ 32] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को सम्मिलित करने से पाचारादि ग्यारह अंगों को 'द्वादशांगी' कहा गया। प्राचारांग आदि के प्ररूपक महावीर की श्रुतराशि 'चौदह पूर्व' अथवा 'दृष्टिवाद' के नाम से पहचानी जाती थी। इसका वर्गीकरण 'अंगप्रविष्ट' और 'अंगबाह्य ऐसे दो भागों में किया गया। इनमें प्रथम 'गणधर द्वारा सूत्र रूप में निर्मित' और द्वितीय 'स्थविरकृत' समाविष्ट हैं। इनके अतिरिक्त एक और सूक्ष्म विवेचन करते हए नन्दीसूत्र में "आवश्यक, श्रावश्यक-व्यतिरिक्त, कालिक और उत्कालिक" रूप में पागम की सम्पूर्ण शाखाओं का परिचय दिया है। इनके अतिरिक्त दिगम्बर मान्यता के अनुसार "अंगप्रविष्ट" प्रागमों का एक वर्गीकरण दृष्टिवाद के 1. परिकर्म, 2. सूत्र, 3. प्रथमानुयोग, 4. पूर्वगत एवं 5. चूलिका के रूप में हुआ है / श्री पार्यरक्षित ने आगमों को अनुयोगों के अनुसार चार भागों में विभाजित किया जिनके "1. चरण-करणानुयोग, 2. धर्मकथानुयोग, 3. गणितानुयोग तथा 4. द्रव्यानुयोग" ये नाम दिये हैं। इन्हीं ने व्याख्याक्रम की दृष्टि से 1. अपृथक्त्वानुयोग और 2. पृथक्त्वानुयोग के रूप में आगमों के दो रूप भी बतलाये / इन सबके अतिरिक्त नन्दीसूत्र की चूणि में एक दृष्टि और उद्घाटित हुई जिसमें द्वादशांगी को "श्रत पुरूष" के अंगों की संज्ञा से अभिहित किया गया। साथ हो द्वादश उपांगों का भी विनियोग हुया और प्रत्येक अंग के साथ एक-एक उपांग (अंगों में कहे गये अर्थों का स्पष्ट बोध कराने वाले सूत्र) भी निर्धारित हुए। इन और ऐसे ही अन्य भेदों में श्रुतस्थविर-विरचित "सूर्य-प्रज्ञप्ति' सूत्र क्रमश: अंग, दृष्टिवाद, अंगबाह्य, प्रावश्यक व्यतिरिक्त में उत्कालिक, दृष्टिवाद का प्रथम भेद परिकर्म, गणितानुयोग, पृथक्त्वानुयोग और श्रुतपुरुष के ज्ञाताधर्मकथांग के उपांग में अपना स्थान रखती है। बत्तीस प्रागमों के क्रम में यह उपांगगत २२वीं संख्या पर है। कुछ ग्रन्थों में इसे पांचवां और कहीं छठा उपांग बतलाया गया है। 8. सूर्य-प्रज्ञप्ति का स्वरूपात्मक परिचय जैन-पागम वाङमय में "सूर्य और ज्योतिष्कचक्र" का व्यवस्थित दिग्दर्शन कराने वाला यह उपांग ग्रन्थ मुख्यतः ज्ञान एवं विज्ञान की संक्लिष्ट पद्धति से विचारों को व्यक्त करता है। गणित और ज्योतिष की महत्त्वपूर्ण विवेचना इसमें अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इसकी रचना में 108 गद्य-सूत्र और 103 पञ्च-गाथाएं प्रयुक्त हैं। इसमें एक अध्ययन, 20 प्राभत और उपलब्ध मूलपाठ 2200 श्लोक परिमाण है। "सूर्य-प्रज्ञप्ति" अति प्राचीन ग्रन्थ है, क्योंकि इसका उल्लेख श्वेताम्बर, दिगम्बर और स्थानकवासी- तीनों में मान्य रहा है / इसी दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि इसकी स्थिति तीनों के विभाजन से पूर्व थी। इसका समय विक्रम पूर्व का होना चाहिये / विषय-विस्तार की दृष्टि से इसके 20 प्राभृतों में खगोलशास्त्र की जितनी सूक्ष्म विचारणाएँ प्रस्तुत हुई हैं, उतनी अन्यत्र कहीं एक साथ प्रस्तुत नहीं हुई हैं। इसका उपक्रम मिथिला नगरी में जितशत्रु के राज्य में नगर से बाहर मणिभद्र चैत्य में वर्धमान महावीर के पधारने पर धर्मोपदेश के पश्चात् गणधर गौतम की जिज्ञासा के समाधान हेतु हुमा है। इसमें---"मण्डलग तिसंख्या, सूर्य का तिर्यक् परिभ्रमण, प्रकाश्य क्षेत्र परिमाण, प्रकाश संस्थान, लेश्या प्रतिघात, प्रोजःसंस्थिति, सूर्यावरक उदयसंस्थिति, पौरुषी छायाप्रमाण, योगस्वरूप, संवत्सरों के आदि और अन्त, संवत्सर के भेद, चन्द्र की वृद्धि अपवृद्धि, ज्योत्स्नाप्रमाण, शीघ्रगति निर्णय, ज्योत्स्ना लक्षण, च्यवन और उपपात, चन्द्र सूर्य प्रादि की ऊंचाई, उनका परिमाण एवं चन्द्रादि के अनुभाब आदि विषयों की विस्तृत चर्चा है। अत: यह ग्रन्थ खगोलशास्त्र के चिन्तकों के लिये पर्याप्त उपयोगी तथ्य उपस्थापित करता है। उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने अपने महनीय ग्रन्थ "जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा" में सूर्य-प्रज्ञप्ति का विस्तृत परिचय देते हुए लिखा है। सारांश इस प्रकार है जन [ 33] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभत में-"दिन ब रात्रि में 30 मुहर्त, नक्षत्रमास, सूर्यमास, चन्द्रमास प्रौर ऋतुमास के मुहतों की वृद्धि, प्रथम से अन्तिम और अन्तिम से प्रथम मण्डल पर्यन्त सूर्य की गति के काल का प्रतिपादन एवं अन्तिम मण्डल में सूर्य की एक बार तथा शेष मण्डलों में सूर्य की दो बार गति होना, प्रादित्य-संवत्सर के दक्षिणायन और उत्तरायन में अहोरात्र के जघन्य तथा उत्कृष्ट मुहूर्त एवं अहोरात्र के मुहतों की हानिवृद्धि के कारण भरत और ऐरावत क्षेत्र के का उद्योत क्षेत्र, प्रादित्यसंवत्सर के दोनों अयनों में प्रथम से अन्तिम और अन्तिम से प्रथम पर्यन्त एक सूर्य की गति का अन्तर, अन्तर के सम्बन्ध में छह अन्य मान्यताएँ, सूर्य द्वारा द्वीपसमुद्रों के अवगाहन सम्बन्ध में एक अहोरात्र में सूर्य के परिभ्रमण का परिमाण एवं मण्डलों की रचना तथा विस्तार वणित हैं।" द्वितीय प्राभृत में--"सूर्य के उदय और अस्त का वर्णन करके अन्यतीथिकों के मतों का उल्लेख किया है, जिनमें-- 1. सूर्य का पूर्व दिशा में उदित होकर आकाश में चला जाना, 2. सूर्य को गोलाकार किरणों का समूह बतलाकर सन्ध्या में नष्ट होना, 3. सूर्य को देवता बतलाकर उसका स्वभाव से उदयास्त होना, 4. सूर्य के देव होने से उसकी सनातन स्थिति रहना, 5. प्रात: पूर्वदिशा में उदित होकर सायं पश्चिम में पहँचना तथा वहाँ से अधोलोक को प्रकाशित करते हुए नीचे की ओर लोट जाना आदि प्रमुख हैं। अन्त में “सूर्य के एक मण्डल से दूसरे मण्डल में गमन का और वह एक मुहूर्त में कितने क्षेत्र में परिभ्रमण करता है ? इसका विचार व्यक्त करते हुए स्वमत का भी प्रतिपादन हुआ है। अन्यधर्मावलम्बी पृथ्वी का आकार गोल मानते हैं किन्तु जैनधर्म की मान्यता उससे भिन्न है, यह भी इससे संकेतित है।" तृतीय प्राभूत में-चन्द्र, सूर्य द्वारा प्रकाशित किये जाने वाले द्वीप एवं समुद्रों का वर्णन है। इसी प्रसंग में बारह मतान्तरों का भी निर्देश हुअा है। चतुर्थ प्राभूत में चन्द्र और सूर्य के 1. विमान संस्थान तथा 2. प्रकाशित क्षेत्र के संस्थान और उनके सम्बन्ध में 16 मतान्तरों का उल्लेख है। यहीं स्वमत से प्रत्येक मण्डल में उद्योत तथा ताप क्षेत्र का संस्थान बतलाकर अन्धकार के क्षेत्र का निरूपण किया गया है। सूर्य के ऊर्ध्व, प्रध: एवं तिर्यक ताप-क्षेत्र के परिमाण भी यहीं वणित हैं। पांचवें प्राभृत में सूर्य की लेश्याओं का वर्णन है। छठे प्राभूत में सूर्य का प्रोज वणित है अर्थात् सूर्य सदा एक रूप में अवस्थित रहता है अथवा प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है ? इस सम्बन्ध में 25 प्रतिपत्तियां हैं। जनदृष्टि से व्यक्त किया है कि जम्बूद्वीप में प्रतिवर्ष केवल 30 मुहूर्त तक सूर्य अवस्थित रहता है तथा शेष समय में अनवस्थित रहता है। क्योंकि प्रत्येक मण्डल पर एक सूर्य 30 मुहूर्त रहता है। इसमें जिस-जिस मण्डल पर वह रहता है, उस दृष्टि से वह अवस्थित है और दूसरे मण्डल की दृष्टि से वह अनवस्थित है, यह स्पष्ट किया है। __ सातवें प्राभूत में -सूर्य अपने प्रकाश से मेरुपर्वतादि को और अन्य प्रदेशों को प्रकाशित करता है, यह बतलाया है। ___ आठवें प्राभृत में—जो सूर्य पूर्व-दक्षिण में उदित होता है, वह मेरु के दक्षिण में स्थित भरतादि क्षेत्रों को प्रकाशित करता है और जो मेरु के पश्चिम-उत्तर में उदित होता है, वह मेरु के उत्तर में स्थित ऐरावतादि क्षेत्रों Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्रकाशित करता है। इस प्रकार दो सूर्यो की सत्ता प्रतिपादित हुई है और इसी से दिन-रात्रि की व्यवस्था स्पष्ट की गई है। साथ ही भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की अपेक्षा उत्सपिणी-अवसपिणी काल का कथन भी इसी प्राभत में वर्णित है। नौवें प्राभूत में--पौरुषी छाया का प्रमाण बतलाते हुए सूर्य के उदयास्त के समय 59 पुरुष-प्रमाण छाया होती है, यह बतलाया है और इस सम्बन्ध में अनेक मत-मतान्तरों का उल्लेख करते हए स्वमतानुसार पौरुषीछाया के सम्बन्ध में स्थापना की है। दसवें प्रामृत में-नक्षत्रों में प्रावलिका क्रम, मुहूर्त की संख्या, पूर्व-पश्चिम भाग तथा उभयभागों से चन्द्र के साथ योग करने वाले नक्षत्र, यूगारम्भ में योग करने वाले नक्षत्रों का पूर्वादि विभाग, नक्षत्रों के कुल, उपकुल तथा कुलोपकुल, 12 पूर्णिमा और अमावस्याओं में दक्षत्रों के योग, समान नक्षत्रों के योग बाली पूणिमा तथा अमावस्या, नक्षत्रों के संस्थान, उनके तारे, वर्षा, हेमन्त और ग्रीष्म ऋतुओं में मासक्रम से नक्षत्रों का योग तथा पौरुषी प्रमाण, दक्षिण-उत्तर एवं उभयमार्ग से चन्द्र के साथ योग करने वाले नक्षत्र, नक्षण रहित चन्द्रमण्डल, सूर्यरहित चन्द्र मण्डल, नक्षत्रों के देवता, 30 मुहूर्तों के नाम, 15 दिन, रात्रि और तिथियों के नाम, नक्षत्रों के गोत्र, नक्षत्रों में भोजन का विधान, एक युग में चन्द्र व सूर्य के साथ नक्षत्रों का योग, एक संवत्सर के महीने और उनके लौकिक तथा लोकोत्तर नाम, पांच प्रकार के संवत्सर, उनके 5-5 भेद और अन्तिम शनैश्चर-संवत्सर के 28 भेद, दो चन्द्र, नक्षत्रों के द्वार, दो सूर्य और उनके साथ योग करने वाले नक्षत्रों के मुहूर्त परिमाण, नक्षत्रों की सीमा तथा विष्कम्भ आदि का प्रतिपादन विस्तार के साथ इसके 22 उप-अध्यायों में हुआ है। ग्यारहवें प्राभूत में--संवत्सरों के आदि, अन्त और नक्षत्रों के योग का वर्णन है। बारहवें प्राभत में-नक्षत्र, चन्द्र, ऋतु, श्रादित्य और अभिवधित 5 संवत्सरों का वर्णन, छह ऋतुओं का प्रमाण, 6-6 क्षयाधिक तिथियां, एक युग में सूर्य और चन्द्र की आवत्तियां और उस समय नक्षत्रों के योग और योगकाल प्रादि का वर्णन है। तेरहवें प्राभूत में--कृष्ण और शुक्ल पक्ष में चन्द्र की हानि-वृद्धि, 62 पूर्णिमा तथा 62 अमावस्याओं में चन्द्र-सूर्यों के साथ राहु का योग, प्रत्येक अयन में चन्द्र की मण्डल-गति आदि का वर्णन किया गया है / चोयहवें प्रामृत में कृष्ण और शुक्ल पक्ष की ज्योत्स्ना और अन्धकार का प्रमाण वर्णित है। पन्द्रहवें प्राभत में चन्द्रादि ज्योतिष्क देवों की एक मुहर्त की गति है, यह बतलाकर नक्षत्रमास में चन्द्र, सूर्य, ग्रहादि की मण्डल गति और ऋतुमास तथा आदित्यमास में भी मण्डल गति का निरूपण किया है। सोलहवें प्रामृत में-चन्द्रिका, पातप और अन्धकार के पर्यायों का वर्णन है / सत्रहवें प्रामृत में सूर्य के च्यवन तथा उपपात के सम्बन्ध में अन्य 25 मत-मतान्तरों का उल्लेख करने के पश्चात् स्वमत का संस्थापन किया है। अठारहवें प्राभूत में भूमि से सूर्य-चन्द्रादि की ऊँचाई का परिमाण बताते हुए अन्य 25 मत-मतान्तरों का उल्लेख करके स्वमत का प्रतिपादन किया है। चन्द्र-सूर्य के विमानों के नीचे, ऊपर तथा सम विभाग में ताराओं के विमान होने के कारण एक चन्द्र का ग्रह, नक्षत्र और तारानों का परिवार, भेरुपर्वत से ज्योतिष्कचक्र का अन्तर, जम्बूद्वीप में सर्व बाह्य-प्राभ्यन्तर, ऊपर-नीचे चलने वाले नक्षत्र, चन्द्र-सूर्यादि के संस्थान, पायाम, विष्कम्भ और Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहुल्य, उनको वहन करने वाले देवों की संख्या और उनके दिशाक्रम से रूप, शीघ्र-मन्द गति, अल्पबहुत्व, चन्द्र-सूर्य की अग्रमहिषियों का परिवार, विकुर्वणा, शक्ति एवं देव-देवियों की जघन्य उत्कृष्ट स्थिति प्रादि विषयों पर विस्तार से विचार हुआ है। उन्नीसवें प्राभत में-चन्द्र और सूर्य सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करते हैं अथवा लोक के एक विभाग को ? यह प्रश्न उठाकर इस सम्बन्ध में बारह मत-मतान्तरों का उल्लेख करते हुए स्वमत का निरूपण किया है। साथ ही लवणसमुद्र का आयाम, विष्कम्भ और चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र एवं ताराओं का वर्णन है। उसी प्रकार धातकीखण्ड के संस्थान, कालोदधिसमुद्र और पुष्करार्धद्वीप तथा मनुष्य क्षेत्र आदि का विवरण प्रस्तुत हुप्रा है। इसी प्राभत में यह भी बतलाया गया है कि इन्द्र के अभाव में व्यवस्था, इन्द्र का जघन्य और उत्कृष्ट विरहकाल, मनुष्य क्षेत्र के बाहर चन्द्र की उत्पत्ति और गति तथा अन्त में स्वयम्भूरमण समुद्र तक द्वीपसमुद्रों के मायाम, विष्कम्भ, परिधि आदि का वर्णन है। बीसवें प्राभत में चन्द्रादि का स्वरूप, राह का वर्णन, राह के दो प्रकार तथा जघन्य-उत्कृष्ट काल का वर्णन है। यहीं चन्द्र को शशि और सूर्य को प्रादित्य कहने का कारण बतलाते हुए स्पष्ट किया है कि ज्योतिष्कों के इन्द्र–चन्द्र का मृग (शश) के चिह्नवाला 'मृगाङ्क-विमान' है और सूर्य समय, आवलिका आदि से लेकर अवसपिणी-उत्सर्पिणी काल का आदि-कर्ता है। चन्द्र और सूर्य को अग्रमहिषियों और चन्द्र-सूर्य के कामभोगों की मानवीय कामभोगों के साथ तुलना भी यहाँ प्रस्तुत हुई है तथा अन्त में 88 ग्रहों के नाम बताये गये हैं। इन प्राभतों के भी अन्य लघु प्राभतों के रूप में विभाजन हैं। उपर्युक्त विषयों के अवलोकन से सहज ही यह अनुमान किया जा सकता है कि सूर्य-प्रज्ञप्ति के प्रायाम में न केवल सूर्य और उससे सम्बद्ध विषयों का ही इसमें विमर्श हमा है, अपितु समग्र ज्योतिष्क-परिवार का प्रसंगानुसार सूक्ष्म एवं स्थूल विमर्श समावृत हो गया है। इतना ही नहीं, यहाँ प्राचीन ज्योतिष-सम्बन्धी मूल का भी सङ्कलन आ गया है / इसमें चचित विषय अन्यान्य धर्मों के मान्य-ग्रन्थों में चचित विषयों से भी कुछ अंशों में साम्य रखते हैं। 9. सूर्य-प्रज्ञप्ति की नियुक्ति एवं अन्य विवेचनाएँ सूर्य-प्रज्ञप्ति के व्यापक विषय-विवेचन से प्रभावित होकर नियुक्तिकार भी भववाहु ने दस प्रागमों पर नियुक्तियों की रचना की थी, उनमें सूर्य-प्रज्ञप्ति भी थी। किन्तु दुर्भाग्य से अब वह अनुपलब्ध है। किन्तु प्राचार्य मलयगिरि की वत्ति में इसका निर्देश हुआ है। उन्होंने वहाँ लिखा है-'भद्रबाहरि कृत नियुक्ति का नाश हो जाने से मैं केवल मुल सूत्र का ही व्याख्यान करूंगा।' इसके बीच के काल में भाष्य और चणियां भी लिखी गई किन्त सर्य-प्रज्ञप्ति पर किसी ने लिखा हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता। आचार्य मलयगिरि का स्थितिकाल १५वीं शती माना जाता है। इनके द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में "सर्यप्रज्ञप्त्यपाङटीका" 9500 श्लोक प्रमाण उपलब्ध होती है / इसी का अपरनाम "सूर्यप्रज्ञप्तिव है। प्राचार्य ने यहाँ प्रारम्भ में मिथिला नगरी, मणिभद्र चैत्य, जितशत्रु राजा, धारिणी देवी और भगवान् महावीर का साहित्यिक वर्णन किया है। तदनन्तर गणधर इन्द्रभूति गौतम का वर्णन है। वैसे सूर्यप्रज्ञप्ति के बीसों प्राभतों का विवेचन मननीय है और उसमें यत्र-तत्र विशिष्ट चिन्तन, आलोचना एवं स्वमत-निरूपण को भी स्थान दिया है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि अधिकांश प्राचार्य, जिन्होंने आगम-ग्रन्थों पर भाष्य, नियुक्ति, चूणि या टीकाएँ लिखने में पर्याप्त उदारता व्यक्त की है, परन्तु सूर्य-चन्द्र सम्बन्धी प्रज्ञप्तियों पर प्रायः नहीं लिखा है। इसका एक कारण यह प्रतीत होता है कि सीधे अध्यात्म एवं प्राचार-उपासना जैसे विषयों के प्रति उनकी रुचि विशेष रही होगी। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि इन प्रज्ञप्तियों के विषय विज्ञान के प्रतिनिकट होने से क्लिष्ट जानकर छोड़ दिये हों। उत्तरकाल में कुछ प्राचार्यों ने इस कमी को समझा और पून: इस पर टीका लिखने का उपक्रम किया। इनमें स्थानकवासी आचार्य मुनि धर्मसिंहजी (१८वीं शती) ने 'सूर्य-प्रज्ञप्ति के यन्त्र' निर्मित किये और इसी परम्परा के अन्य आचार्य श्री घासीलालजी महाराज ने 32 आगमों पर जो संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखी हैं उनमें सूर्य-प्रज्ञप्ति पर "प्रमेयबोधिनी" सूर्य प्रज्ञप्ति-प्रकाशिका नामक टोका व्याख्या महत्त्वपूर्ण है। इसमें प्राचार्य श्री ने मूलसूत्र की संस्कृत छाया और संस्कृत व्याख्या की है। इसका हिन्दी और गूजराती भाषा में अनुवाद दो भागों में प्रकाशित भी हया है, जिसका नियोजन पण्डित मनि श्री कन्हैयालालजी ने किया है। हिन्दी और गजराती अनुवादकर्ताओं का नामोल्लेख नहीं हया है। प्राचार्य श्री अमोलकऋषिजी ने भी प्रज्ञप्ति का हिन्दी अनुवाद किया है इसका प्रकाशन हैदराबाद से हुअा है तथा और भी कुछ विद्वान् प्राचार्यों ने इस पर विवेचन किये हैं। सूर्य-प्रज्ञप्ति के सम्बन्ध में देश-विदेश के विचारक मनीषियों ने भी बहत से अभिमत भिन्न-भिन्न लेखों में व्यक्त किये हैं। भारतीय ज्योतिष के क्षेत्र में बहुमान्य बराहमिहिर' नियुक्तिकार भद्रबाहु के भ्राता थे, उन्होंने अपने ग्रन्थ "बराहसंहिता" में सूर्य-प्रज्ञप्ति के कतिपय विषयों को आधार बनाकर उन पर लिखा है। इसी प्रकार प्रसिद्ध ज्योतिविद भास्कर ने सूर्य-प्रज्ञप्ति की कुछ मान्यताओं को लेकर अपने खण्डनात्मक विचार व्यक्त किये हैं जो "सिद्धान्तशिरोमणि" ग्रन्थ में द्रष्टव्य हैं / इसी प्रकार ब्रह्मगुप्त ने "स्फुट-सिद्धान्त' ग्रन्थ में भी खण्डन का आधार बनाया है / किन्तु इस युग में वैदेशिक विद्वानों ने सूर्य-प्रज्ञप्ति के महत्त्व को स्वीकार करते हुए इसे विज्ञान का प्रत्य माना है, डॉ. विन्टरनित्ज उनमें प्रथम हैं। डॉ. शुबिग ने तो यहां तक कहा है कि "सूर्य-प्रजाप्ति के अध्ययन के बिना भारतीय ज्योतिष के इतिहास को सही रूप से नहीं समझा जा सकता।" बेवर ने सन् 1868 में "उवेर डी सर्यप्रज्ञप्ति" नामक निबन्ध प्रकाशित किया था। डॉ. सिबो ने “ऑन द सूर्य-प्रज्ञप्ति' नामक अपने शोधपूर्ण लेख में ग्रीक लोगों के भारतवर्ष में प्रागमन से पूर्व वहाँ "दो सूर्य और दो चन्द्र' का सिद्धान्त सर्वमान्य था, ऐसा प्रतिपादित किया है तथा उन्होंने अतिप्राचीन ज्योतिष के वेदांग ग्रन्थ को मान्यताओं के साथ सूर्य-प्रज्ञप्ति के सिद्धान्तों की समानता भी बतलाई है / 10. प्रस्तुत प्रकाशन और कुछ प्रश्न : कुछ समाधान "सूर्य-प्रज्ञप्ति' की गरिमा से स्वत: सिद्ध हो जाता है कि ऐसे ग्रन्थ का सर्वाधिक स्वाध्याय हो, मनन हो और गम्भीरता-पूर्वक इसमें वर्णित विषयों का स्व-पर कल्याण की दृष्टि से पुन: पुन: विचार हो / सम्भवतः इसी कल्याणमयी भावना से इसका प्रकाशन किया गया है, जो कि अभिनन्दनीय है। यद्यपि यह ग्रन्थ मूल रूप में ही प्रकाशित है किन्तु इसके सम्पादनकर्ता मुनि श्री कन्हैयालालजी "कमल" ने परिश्रमपूर्वक इसके पाठों को विशुद्धरूप में प्रकाशित करने का प्रयास किया है। साथ ही पाद-टिप्पणियों में अनेक प्रश्नों को भी उठाया है तथा उनके समुचित समाधानों की कामना भी की है। मैंने जब इसका अवलोकन किया 1. द्रष्टव्य, गच्छाचार की वृत्ति. [ 37 ] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो मेरे मन में भी कुछ प्रश्न उभर आये। उन सबका क्रमिक विचार भी यहाँ प्रस्तुत करना अनुचित न होगा। यहाँ उन प्रश्नों की उपस्थापना के साथ ही उनके यथोपलब्ध समाधान भी प्रस्तुत हैं--- प्रश्न 1. सूर्यप्रज्ञप्ति ग्रन्थ वस्तुतः खण्डित है फिर यह ग्रन्थ कैसे पूर्ण हुआ ? समाधान : ऐसा कहा जाता है कि इसके पाठों में और चन्द्रप्रज्ञप्ति के पाठों में प्रायः साम्य है। अत: पूर्वाचार्यों ने ही इसे परस्पर पाठानुसंधान द्वारा वर्तमान रूप दिया है / प्रश्न 2. वर्तमान सूर्यप्रज्ञप्ति के मूलपाठों में अब भी पाठान्तर क्यों हैं ? यह स्थिति इस संस्करण से पूर्व प्रकाशित "सूर्यप्रज्ञप्ति" ग्रन्थों से मिलाने से स्पष्टत: प्रतीत हो जाती है। जैसे प्रारम्भ में “वीरस्तुति" नहीं दी है। कहीं गद्यपाठ में कुछ अंश त्याग दिये हैं तो यत्र-तत्र पाठगत शब्दों में व्यत्यय भी हना है, आदि / समाधान : सम्भवत: यह इसलिए किया गया होगा कि सम्पादक-वर्ग को ऐसी अन्य पाण्डुलिपियां उपलब्ध हुई हों। साथ ही उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री के शब्दों में यह भी सम्भव है कि जैन आगम "शब्द" की अपेक्षा "अर्थ” को अधिक महत्त्व देते हैं। वेदों की तरह शब्दवादी नहीं हैं। अत: ऐसा पाठभेद हुआ होगा। एक यह भी कारण हो सकता है कि स्थविरों के द्वारा संग्रह होने के पश्चात् इनकी जो भिन्न-भिन्न कालों में वाचनाएँ हई हैं, उनमें वैसी व्यवस्था हुई हो। प्रश्न 3. इस ग्रन्थ में एक और महत्त्वपूर्ण प्रश्न है नक्षत्र-भोजन में मांसादि के भोजन का? यह जैनधर्म के सर्वथा प्रतिकूल कथन इसमें कैसे पाया ? समाधान : इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न समाधान प्राप्त होते हैं। यथा 1. यह पाठ प्रक्षिप्त है / 2. इस पाठ से पूर्व और भी कुछ पाठ था, जो विच्छित्र हो गया है। 3. इस सम्बन्ध में प्रागमप्रभाकर पुण्यविजयजी का अभिमत था कि 'इसके पहले के कुछ वाक्य खण्डित हो गये हैं, जिनमें यह भगवान् महावीर के द्वारा कथित न होकर किसी प्रश्न के उत्तर में उद्धरण के रूप में अन्य मतों का प्रदर्शन किया गया है।' 4. अन्य प्राचार्यों का कथन है कि यहाँ प्रयुक्त "मांस" शब्द का अर्थ प्राण्या मांस नहीं है, अपिर यह अत्यन्त प्राचीनकाल में प्रयुक्त होने वाले अर्थ "वनस्पतिजनित फल, मेवा' आदि के अर्थ में व्यवहृत है। इसी प्रकार मांस के पर्यायवाची अन्य शब्द "पिशित, तरस, पलल, अव्य और आमिष" शब्द भी प्राण्यङ्गजन्य मांस के सूचक न होकर अन्य अर्थों के ही सूचक हैं। अमरकोष के टीकाकार भानुजी दीक्षित ने जो धातुप्रत्यय जनित शब्द की व्युत्पत्ति दी है, उससे "पिशित = अवयववान्, तरस - बलवान, मांस-मानकारक, पलल = गमनकारक, ऋव्य = भयकारक अथवा गतिकारक और आमिष = किंचित स्पर्धाकारक अथवा सेचन अर्थ का ही प्रतिपादन होता है / कोशकारों के अतिरिक्त प्रायुर्वेद के ग्रन्थों में भी ऐसे अनेक शब्दों को वनस्पतियों के अर्थों में ही प्रयुक्त किया है / 5. वेद, ब्राह्मण, उपनिषद् और अन्य संहिता-ग्रन्थों में भी ऐसे मांसा दि शब्दों के प्रयोग निविवादरूप से प्राण्यङ्गजनित मांस के लिए कदापि प्रयुक्त नहीं हैं। 6. तन्त्रग्रन्थों में भी यही स्थिति है। वहां ऐसे शब्दों को वस्तुतः प्राध्यात्मिक अर्थों में ही सूचित किया है किन्तु वामाचार के नाम पर जिह्वालोलुपवर्ग अपनी लिप्सायों के अनुसार अर्थ करके विकृतमार्ग का अनुसरण करते हैं। प्राचीन महर्षियों की कथन-पद्धति का वास्तविक तथ्य एवं प्रक्रिया का पारम्परिक बोध न होने से मनमाना अर्थ लगाकर समाज में दुषण फैलाने वाले अथवा पापसिद्धि के लिये दुर्वत्ति के लोग ऐसा करते हैं। 1. यह बात उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्रीजी ने कही थी, जबकि उन्होंने इसके लिये स्वयं प्रागमप्रभाकरजी से पूछा था। [38] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जैन-साहित्य में प्रयुक्त मांस-मत्स्यादि शब्दों के वास्तविक अर्थ" अाधुनिक व्यवहार में प्रचलित अर्थ कथमपि नहीं हैं, यह निश्चित है / इस तथ्य को "मानव-भोज्य-मीमांसा" ग्रन्थ के द्वितीय प्रकरण में अत्यन्त विस्तार से पंन्यास श्री कल्याणविजयजी गणी ने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धार्थ और अप्रसिद्धार्थ का विवेक नहीं रखने से ही अल्पज्ञ वर्ग ऐसी दुर्भावनाएँ फैलाते हैं। सूर्य-प्रज्ञप्ति में "नक्षत्र-भोजन" की बात नक्षत्रों के दोष से मुक्त होने के लिये उनकी तुष्टि करने वाले पदार्थों के भोजन से सम्बद्ध है / ज्योतिषशास्त्र में वारदोष, तिथिदोष, ग्रहदोष, शकुनदोष, दुर्योग प्रादि की निवृत्ति के लिये ऐसे उपाय बहधा दिखाये गये हैं, उन्हीं को यहाँ भी उदाहरण के रूप में प्रसनपूर्वक संक्षेप में दिया होगा / यह धारण अवश्य ही स्वीकरणीय है। "मुहूर्त-चिन्तामणि' में भी ऐसे नक्षत्रों के दोष से छुटकारा पाने के लिये खाद्य-वस्तुओं का कथन हुआ है। उनमें भी "मांस' शब्द प्रयुक्त है। किन्तु उसके प्रसिद्ध टीकाकार गोविन्द ज्योतिर्वित ने अपनी 'पीयूषधारा" टीका में स्पष्ट लिखा है कि-"नक्षत्रदोहदं कुल्माषनित्यादिकमिदं भक्ष्याभक्ष्यं वर्णभेदेन देशभेदेन वा भक्ष्यमेतदभक्ष्यमिति विचार्य भक्ष्यसम्भवे भक्षयेत, अभक्ष्यसम्भवे पालोकयेत पश्येत स्पशेद वेत्यपि ध्येयम् / (पृ० 390, निर्णयसागर बम्बई प्रकाशन)। इसका सारांश यह है कि- "नक्षत्रदोहद के पालन में वर्णभेद और देशभेद के अाधार पर भक्ष्याभक्ष्य का विचार करके जैसा उचित हो वह करे। यदि भक्ष्य न हो तो उसको देखे अथवा स्पर्श करे"...वही नारद के किसी ग्रन्थ का तथा वसिष्ठ, कश्यप, श्रीपति और भट्ट उत्पल द्वारा भी नक्षत्र-दोहद कथन का संकेत दिया है। अपने कथन के प्रमाण में टीकाकार ने "गुरु" के वचनों को उदधत करते हुए बतलाया है कि-"अत्र यदभक्ष्य दुष्प्रापं वा तत् स्मृत्वा, दृष्ट्वा दत्त्वा गन्तव्यमित्याह गुरुः।" इससे स्पष्ट है कि ये दोहद-भक्ष्य जनसाधारण को लक्ष्य में रखकर सूचित किये थे और उनमें विवेक को प्रधानता दी थी। आचार्य श्रीमलयगिरि ने इस प्रसंग की व्याख्या में सामान्य अर्थ के रूप में "कृत्तिका में प्रारब्ध कार्य निर्विघ्न सिद्ध हो, तदर्थ दधिमिश्रित प्रोदन का भोजन किया जाता है" इतना कहकर "शेष सूत्रों में देखें" कह दिया हैं। ___आचार्य श्री घासीलालजी महाराज ने अपनी व्याख्या प्रमेय-बोधिनी में (दशम प्राभृत के सत्रहवें प्राभृतप्राभृत में) “नामैकदेशग्रहणेन नामग्रहणं भवतीति नियमात्" कहकर "वृषभमांस से धतूरे का सार अथवा चूर्ण ग्राह्य है" ऐसा बतलाया है तथा मृगमांस का अर्थ इन्द्रावरुणी बनस्पति, दीपकमांस- अजवाइन का चूर्ण, मण्डूकमांस - मण्डूकपर्णी का चूर्ण, नखीमांस = वाघनखी का चर्ण, वराहमांस = बाराहीकन्द का वर्ण, जलचरमांस-जलचर कुम्भिका का चूर्ण, तिन्तिणोकमांस = इमली का चूर्ण-ऐसे अर्थ स्पष्ट किये हैं।' प्राचार्य श्री अमोलकऋषिजी ने भी अपनी व्याख्या में ऐसे ही अर्थों को व्यक्त किया है, जिसकी तालिका इस प्रकार है नक्षत्र-भोजन-तालिका 1. कृतिका 2. रोहिणी वसहमस 3. मिगसिर मिगमंस कस्तूरी 4. प्रा णवणीय नवनीत (मक्खन) दधि घृत ...... .-- -... ... 1. द्रष्टव्य, टीका ग्रन्थ, पृ. 1048 से 1052 तक। श्री सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रम् (प्रथम भाग), अ. भा. श्वे. स्था. जैन शास्त्रोद्धार समिति, अहमदाबाद से प्रकाशित / Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जस 5. पुनर्वसु घय 6. पुष्य खीर 7. अश्लेषा दीवममंस कवचसिंग अथवा कमल 8. मघा कसारि केशर (?) अथवा केसार 9. पूर्वाफाल्गुनी मेढगमंस एलायची अथवा पाल 10. उत्तराफाल्गुणी ण क्खिमंस लसणकंद अथवा आल 11. हस्त वत्थाणिएम सिंघाडा 12. चित्रा मगसूए मूंग की दाल 13. स्वाति फल 14. विशाखा आतिसिया पाठली अथवा शाक 15. अनुराधा मासा करेण मिश्र कुरो धान्य 16. ज्येष्ठा कोलठ्ठिय कोला-कद्दू 17. मूल मूलक मूली अथवा मोगरे का शाक 18. पूर्वाषाढा प्रामलग यांबला 19. उत्तराषाढा विल्ल विल्व फल अथवा पक्का नींबू 20. अभिजित पुष्फ पुष्प 21. श्रवण खीर 22. धनिष्ठा करेला अथवा सक्कर कोला 23. शतभिषा तुम्बरात तुंबा 24. पूर्वाभाद्रपदा कारियए करेला 25. उत्तरभाद्रपदा बराहमंस कपूर 26. रेवती जलयरमंस जलचर फलन अथवा पानी 27. अश्विनी तित्तरमंस सीताफल 28. भरणी तिल तंदुल तिल्ली का तेल अथवा चावल इस तरह अट्ठाईस नक्षत्रों के भोजन का विषय जैसा अन्य स्थान में देखने में प्राया है वैसा ही लिखा है। टीकाकार श्री मलयगिरि आचार्य ने इसको टीका नहीं की है। तत्त्व केवलिगम्य / -प्राचार्य प्रमोलकऋषि जी म. प्राचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज द्वारा सम्पादित--सूर्यप्रज्ञप्ति पा. 10 अन्तरपाहुड-१७ पृ. 220-223. ११-उपसंहार एवं कर्तव्य-बोध ___ इन सब विवेचनों के द्वारा हम एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि "विश्व को सर्वांश में सर्वज्ञ ही जानते हैं। बुद्धिजीवी जगत् इसकी समग्रता को पहचानने में सदैव अक्षम ही रहा है। विज्ञेय आधिभौतिक तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये आधिदैविक और प्राध्यात्मिक भूमिकारूढ हुए बिना जीव-जगत की जिज्ञासा पूर्ण नहीं हो सकती। अलोकिक तत्त्वोपलब्धि अथवा सत्य का साक्षात्कार प्रागमों के द्वारा ही सम्भव है। यही कारण है कि विश्व विद्याओं के निधान आगमों का प्रत्येक अक्षर सभी के लिये बहुमान्य है। सर्वज्ञ की वाणी होने से उसका प्रत्येक अंश सत्य है, श्रद्धेय है और उपास्य है और साथ ही यह भी ध्यातव्य है कि "आगम-साहित्य के वास्तविक तत्त्वों को समझने के उनके लिए मर्मज्ञ मनीषियों से पारम्परिक सम्प्रदायार्थ का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, तभी हम कुछ जान सकते हैं / सूर्य-प्रज्ञप्ति भी एक ऐसा ही पागम ग्रन्थ है, जिसके रहस्यार्थ का परिज्ञान आधुनिक परिभाषाओं [40] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अपेक्षा प्राचीन गाणितिक एवं खगोलीय परिभाषाओं को समझे बिना तुष-कुट्टन के समान ही निष्फल हो मकता है। - अन्त में मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि भारतीय संस्कृति के इन अपूर्व ग्रन्थ-रत्नों के चिरन्तन सत्य के परिचायक तत्त्वों की खोज में विद्वान गवेषकों एवं चिन्तकों को जैन, वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों का संयुक्त रूप से परिशीलन करना चाहिये, क्योंकि ये तीनों धाराएँ प्रारम्भ से ही एक ही लक्ष्य से बही हैं किन्तु बीच के साम्पातिक काल में कुछ तो स्वयं के दराग्रहों से और कूछ पराये लोगों के बहकावे के कारण विश्र खलित हो गई हैं / जब तक परस्पर मिलकर एक-दूसरे की न्यूनताओं को पूर्ण नहीं किया जाएगा तब तक पूर्णता की प्राप्ति आकाश-पुष्प ही बनी रहहेगी। अत: यूयं यूयं वयमिह वयं सर्वदैवं बुवभिहन्ता हन्ताग्रह-निपतितंभ्र शितं नैव किं किम / सञ्चिन्त्यातः पुनरपि निजं स्वत्वमुद्धतमार्या, यूयं ये ते बयमिति मिथ: स्वात्मना संबदन्तु / / यही निवेदन है, कामना, है और प्रार्थना है ।।ॐ॥ [ 41] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम प्रथम प्राभूत प्रथम प्रामृतप्रामृत वीरथुई पंचपयवंदणं जोइसरायपण्णत्तिपरूवणपइण्णा य पाहुडाणं विसयपरूवणं पढमपाडगय अदपाहडपाहुडसुत्ताणं विसयपरूवणं पढमपाहुडस्स पडिवत्तिसंखा बितिययाहुडस्स विसयपरूवर्ण , पडिवत्तिसंखा दसमे पाहुडे बाबीसं पाहुडपाहाणं विसयपरूवणं मासस्स मुहुत्ताणं वद्धीऽवद्धी सव्वसूरमंडलमग्गे सूरस्स गमणागमणे राइंदियष्यमाणं सूरमंडलेसु सूरस्स सई दुक्खुत्तो बा चारं प्राइच्चसंवच्छरे अहोरत्तप्पमाणं उपसंहारसुत्तं द्वितीय प्रामृतप्राभूत सूरस्स दाहिणा अद्धमंडलसंठिई सूरस्स उत्तरा अद्धमंडलसंठिई तृतीय प्राभूतप्राभूत सूरियाणं संचरण-खेत्तं चतुर्थ प्राभृतप्राभूत सूरियाणं अण्णमण्णस्स अंतरचार पंचम प्राभूतप्राभूत सूरस्स दीवसमुद्द-प्रवगाहणाणंतरं चारं षष्ठ प्राभताभत सूरस्स एगमेगे राइदिए मंडलामो मंडलसंकमणखेत्तचारं सप्तम प्राभृतप्राभूत चंद-सूरमंडल-संठिई अष्टम प्राभृतप्राभूत सुरस्स सव्वमंडलाणं बाहल्लं पायाम-विक्खंभ-परिक्खेवं च सव्वसूरमंडलाणं बाहल्लं अंतरं श्रद्धापमाणं च IY [ 42 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 u 4 द्वितीय प्राभूत प्रयम प्राभूतप्राभूत सूराणं तेरिच्छगई द्वितीय प्राभूतप्राभूत सूरस्स मंडलामो मंडलान्तरसंकमणं तृतीय प्राभृतप्राभूत सूरस्स मुहुत्तगइपमाणं तृतीय प्राभूत चंदिम-सूरियाणं प्रोभासखेत्तं उज्जोयखेत्तं पगासखेत्तं च चतुर्थ प्राभूत सेयाते संठिई चंदिम-सूरियसंठिई सुरियस्स तावक्खेत्तसंठिती ताक्खेत्तसंठिइए बाहाम्रो पंचम प्राभूत सूरियस्स लेस्सापडियायमा पव्वत्ता षष्ठ प्राभूत सूरियस्स ओयसंठिई सप्तम प्राभूत सुरिएण पगासिया पव्वया अष्टम प्राभत सूरस्स उदयसंठिई वासा उउ हेमंत उउ गिम्ह उउ अयणाइ उस्सप्पिणी-प्रोसप्पिणी लवणसमुद्दो धायइसंडो अभंतरपुक्खरद्धो नवम प्राभत पोरिसिच्छायनिव्वत्तणं पोरिसिनिवत्तणं पोरिसिपमाणं Xurrrrrror [43 ] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत 74 77 78 प्रथम प्रामृतप्राभूत णक्खत्ताणं प्रावलिया-णिवायजोगो य द्वितीय प्राभृतप्राभूत णक्वत्ताणं चंदेण जोगकालो णक्खत्ताणं सूरेण जोगकालो तृतीय प्राभृतप्रभृत णक्खत्ताणं पुवाइभागा खेत्त-कालप्पमाणं च चतुर्थ प्राभूतप्राभूत णक्खत्ताणं चंदेण जोगारंभकालो पंचम प्राभूतप्राभूत खत्ताणं कुलोवकुलाई षष्ठ प्राभूतप्राभूत दुवालसासु पुण्णमासिणीसु कुलाइ-णक्खत्त-जोगसंखा दुवालसासु अमावासासु णक्खत्तजोगसंखा दुवालसासु अमावासासु कुलाइ-णक्खत्त-जोगसंखा सप्तम प्राभृतप्राभूत दुवालस पुण्णिमासु अमावासासु प चंदेण-णक्खत्तसंजोगो अष्टम प्रामृतप्रामृत णक्खत्ताणं संठाणं नवम प्राभृतप्राभूत णक्खत्ताणं तारग्गसंखा 1 0.0 दशम प्राभूतप्राभूत वास-हेमंत-गिम्ह-राइंदियाणं ग्यारहवां प्राभूतप्राभूत चंदमगो जक्खत्तजोगसंखा रवि-ससि-णक्खत्तेहिं अविरहियाणं, विरह्यिाण सामण्णाण य चंदमंडलाणं संखा बारहवां प्राभूतप्राभूत णक्खताणं देवया तेरहवां प्राभृतप्राभूत मुहुत्ताणं णामाई चौदहवां प्राभृतप्राभूत दिवसराईण णामाई 110 114 [44] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 123 124 पन्द्रहवां प्राभूतप्राभूत तिहोणं णामाई सोलहवां प्राभूतप्राभूत णक्खत्ताण गोत्ता सत्तरहवां प्राभूतप्राभूत णक्खत्ताणं भोयणं कज्जसिद्धी य अठारहवां प्राभूतप्राभूत एगे जुगे आदिच्च-चंदचारसंखा उन्नीसवां प्रामृतप्राभूत एगसंवच्छरस्स मासा बीसवां प्राभूतप्राभूत संक्च्छराणं संखा लक्खणं च लक्खणसंवच्छरस्स भेया इक्कीसवां प्राभृतप्राभूत मक्खत्ताण दाराई बावीसवां प्राभूतप्राभूत णक्खत्ताणं सरूवपरूवण णक्खत्तमंडलाणं सीमाविक्खंभो णक्खत्ताणं चंदेण जोगो चंदस्स पुणिमासिणीसु जोगो सूरस्स पुण्णिमासिणीसु जोगो चंदस्स अमावासासु जोगो सूरस्स अमावासासु जोगो पुण्णिमासिणिसु चंदस्स य सूरस्स य णक्खत्ताणं जोगो अमावासासु चंदस्स य सूरस्स य मक्खत्ताणं जोगो चंदेण च सूरेण य णक्खत्ताणं जोगकालो चंद-सूर-गह-णवदत्ताणं गइसमावण्णत्त चंद-सूर-गह-णक्खत्ताण जोगो 125 128 ل ابه لام سه 132 133 بله 134 لله 135 arrorm' nr nr mm ग्यारहवां प्राभूत पंचण्ह संवच्छराणं पारंभ-पज्जवसाणकालं, चंद-सूराण-णक्खत्तसंजोगकालो च पढम चंदसंबच्छर बितियं चंदसंबच्छर ततियं अभिवढियं संवच्छरं चउत्थं चंदसंवच्छर पंचमं अभिवडिढयं संवच्छर 141 141 141 142 142 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 145 146 146 147 148 148 149 0 152 152 153 153 बारहवां प्राभत पंचण्ह संवच्छराणं मासाणं च राइदियमुहत्तप्पमाणं पढम णक्खत्तसंवच्छर बितियं चंदसंवच्छर ततियं उडुसंबच्छरं. च उत्थं प्राइच्चसंवच्छर पंचम अभिवडिढयसंवच्छरं एगस्स जुमस्स अहोरत्त-मुहत्तप्पमाणं पंचण्हं संवच्छराणं पारंभ-पज्जवसाणकालस्स समत्तपरूवणं उडणं णामाई कालप्पमाणं च / अवम-अइरित्तरत्ताणं संखा हेऊ च वासिक्कियासु पाउट्टियासु चंदेण सूरेण य पक्खत्तजोगकालो हेमतियासु प्रावट्टियासु चंदेण सूरेण य णक्खत्तजोगकालो जोगाणं चंदेण सद्धि जोग-परूवणं तेरहवां प्राभूत चंदमसो बड़ढोऽवड्ढी एगयुगे पुणिमासिणीग्रो अमावासामो चंदाइच्च अद्धमासे चंदाइच्चाणं मंडलचारं पढमे चंदायण दोच्चे चंदायणे तच्चे चंदायणे चौदहवां प्राभूत दोसिणा अधयारस्स य बहुत्तकारणं पन्द्रहवां प्राभूत चंद-सूर-गह-णखत्त-ताराणं गइपरूवर्ण चंद-सूर-गक्खत्ताणं विसेसगइपरूवण चंदस्स णक्खत्ताण य जोगगइपरूवर्ण चंदस्स गहाण य जोग-गइकालपरूवणं सूरस्स मक्खत्ताण य जोग-गइकालपरूवणं सूरस्स गहाण य जोग-गइकालपरूवणं कणक्खत्तमासे चंदस्स सूरस्स णक्वत्तस्स य मंडलचार ख-- चंदमासे चंदस्स सूरस्स मक्खत्तस्स य मंडलचारं ग-उडमासे चंदस्स सूरस्स णक्खत्तमासस्स य मंडलचारं घ–आइच्चमासे चंदस्स सूरस्स गक्खत्तस्स य मंडलचार हु-अभिवढियमासे चंदस्स सूरस्स णक्ख तस्स य मंडल चार एगमेगे अहोरत्ते चंद-सूर-मक्खत्तागं मंडलचारं एगमेगे मंडले चंद-सूर-अक्खत्ताणं अहोरसे चार एगमेगजुगे चंद-सूर-गक्खत्ताणं मंडल चार 154 155 157 X X X 159 rururur 161 162 162 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्राभूत दोसिणाइयाणं लक्खणा सत्तरहवां प्राभूत चंद-सुरियाणं चवणोववाया 167 168 wo-or अठारहवां प्राभूत चंदाइच्चाईणं भूमिभागामो उडढत्तं ताराण अगत्ते तुल्लत्ते कारणाई चंदस्स मह-णखत्त-ताराणं परिवारो मंदरपब्वयाओ जोइसचार लोअंताग्रो जोइसठाण णक्खत्ताणं अब्भतराई चार चंद-सूर-गह-मक्खत्तविमाणाण संठाणाई चंद-सूर-गह-णक्खत्त-तारा-विमाणाणं पायाम-विक्खभ-परिक्खेव-बाहिल्लाई चंद-सुर-गह-णक्खत-ताराणं विमाणपरिवहणं जोइसियाणं सिग्घ-मंदगइपरूवण जोइसियाणं अय्प-महिडिढपरूवण ताराणं अबाहा अंतरपरूवणं चंदस्स अगमहिसीओ देवीपरिवार विउवणा य सूरस्स अग्गम हिसीनो देवीपरिवार विउवणा य जोइसियाणं देवाणं ठिई जोइसियाणं अप्पबहुत्तं 170 170 171 172 173 177 177 177 178 179 ~ 181 182 182 183 184 उन्नीसवां प्राभूत चंद-सूर-गह-शक्खत्त-ताराणं परिमाण जम्बुद्दीवो-जंबुहोवे जोइसियपरिमाण लवणसमुद्दो धायईसंडदीवे कालोए समुद्दे पुक्खरवरदीवे माणुसुतरे पब्बए अभितर-पुक्खरद्धे . समयक्खेत्ते अंतोमणुस्सखेत्ते जोइसियाणं उड्ढोबवण्णगाइपरूवणं पुब्बइंदस्स चवणाणंतरं अण्णइंदस्स उववज्जणं माणसखेत्तस्स बहिया जोइसियाणं उड़ढोववष्णगाइपरूवणं सेसाणं दीव-समुद्दाणं आयामा ~ ~ 15 ISIT ~ ~ 187 188 192 ~ 193 [ 47 ] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 197 198 199 199 200 201 बीसवां प्राभूत चंदिम-सूरियाणं अणुभावो राहु-कम्मपरूवणं राहुस्स णव णामाई राहस्स विमाणा पंचवण्णा राहुस्स दुविहत्तं चंदस्स ससी-अभिहाणं सूरस्स आइच्चाभिहाणं चंद-सुराई णं काम-भोगपरूवणं प्रवासीई महम्गहा संगहणीगाहामो उपसंहारो सूयथविरपणीयं चंदपण्णत्तिसुत्तं परिशिष्ट श्री सूर्य-चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र का गणितविभाग सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र 20 व 24 का परिशिष्ट 201 201 204 205 206 207 210 239 [48 ] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयथेरविरइयं उवंग सूरियपण्णत्तिमुत्तं चंदपण्णत्तिसुतं श्रुतस्थविरविरचित उपांग सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभेत [प्रथम प्राभृतप्राभूत वीरथुई जयइ नव-नलिण-कुवलय, वियसिय-सयवत्त-पत्तल-दलच्छो / वीरो गइंद-मयंगल, सललिय-गयविक्कमो भयवं // 1 // पंच-पय-वंदणं जोइसगणराय-पण्णत्ति-परूवण-पइण्णा य नमिऊण असुर-सुर-गरुल-भुयंग-परिवदिए गयकिलेसे // अरिहे सिद्धायरिय-उवज्झाए सव्वसाहू य॥२॥ फुड-वियड-पागडत्थं, बुच्छं पुव्व-सुय-सार-णिस्संदं // सुहुमं गणिणोबइठें, जोइसगणराय-पण्णत्ति // 3 // नामेण "इंदभूई" ति, गोयमो वंदिऊण तिविहेणं // पुच्छइ जिणवरवसह, जोइसरायस्स पत्ति // 4 // 1-2. तेणं कालेणं तेणं समएणं "मिहिला" णामं णयरी होत्था, वण्णओ। तोसे णं मिहिलाए णयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए, एस्थ णं "माणिभद्दे" णामं चेइए होत्था, वण्णओ। तीसे णं मिहिलाए "जियसत्तू" राया परिवसइ, वण्णओ। तस्स णं जियसत्तुस्स रण्णो "धारिणी" णामं देवी होत्था, वण्णभो। तेणं कालेणं, तेणं सभएणं तंमि माणिभद्दे चेइए सामी समोसढे, वण्णओ। [क] परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ। . [ख] परिसा पडिगया। [ग] राया जामेव दिसि पाउन्भूए, तामेव दिसि पडिगए। तेणं कालेणं, तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जे? अंतेवासी "इंदभूई" णामं अणगारे जाव पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र बीस पाहुडाणं विसयपरूवणं 3. गाहाओ-१. कई मंडलाइ बच्चइ, 2. तिरिच्छा किं च गच्छइ // 3. ओभासइ केवइयं, 4. सेयाइ कि ! ते संठिई // 1 // 5. कहि पडिहया लेसा, 6. कहिं ते ओयसंठिई॥ 7. के सूरियं वरयंति, 8. कहं ते उदयसंठिई // 2 // 6. कइ कट्ठा पोरिसिच्छाया, 10. जोगे कि ते व आहिए। 11. किं ते संवच्छरेणाई, 12. कइ संवच्छाराइ य // 3 // 13. कहं चंदमसो बुड्डी, 14. कया ते दोसिणा बहू // 15. के सिग्धगई वुत्ते, 16. कहं दोसिण-लक्खणं // 4 // 17. चयणोववाय, 18. उच्चत्ते, 19. सूरिया कह आहिया // 20. अणुभावे के व संवुत्ते, एवमेयाइं वीसई // 5 // पढमपाहुडगय अट्ठपाहुडपाहुडसुत्ताणं विसयपरूवणं 4. गाहामो-१. वड्डो बड्डी मुहूत्ताण, 2. मद्धमंडल-संठिई // 3. के ते चिण्णं परियरइ, अंतरं किं चरंति य // 1 // 5. ओगाहइ केवइयं, 6. केवइयं च विकंपइ // 7. मंडलाण य संठाणे, 8. विक्खंभो-अट्ठ पाहुडा // 2 // पढमपाहुडस्स पडिवत्तिसंखा 5. गाहा - 4. छ, 5. पंच य, 6. सत्तेव य, 7, अटु, 8. तिनि य हवंति पडिवत्ती॥ पढमस्स पाहुडस्स, हवंति एयाउ पडिवत्ती // 1 // बितियपाहुडस्स विसय-परूवणं 6. गाहाओ-१. पडिवत्ताओ उदए, तह अत्थमणेसु य॥ 2. भेयग्घाए कण्णकला, 3. मुहत्ताणं गतो ति य // 1 // निक्खममाणे सिग्धगई, पविसंते मंदगई इय // चुलसीइ सयं पुरिसाणं, तेसि च पडिवत्तीओ // 2 // पडिवत्तिसंखा गाहा–१. उदयंमि अट्ठ भणिया, 2. मेयग्घाए दुवे य पडिवत्ती॥ 3. चत्तारि मुहत्तगईए, हुंति तइयंमि पडिवत्ती // 3 // Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभूत-प्रथम प्राभृतप्राभृत] दसमे पाहुडे बावीसं पाहुड-पाहुडाणं विसयपरूवणं 7. गाहाओ-१. आवलिय, 2. मुहत्तग्गो, 3. एवं भागा य, 4. जोगस्स / / 5. कुलाई, 6. पुण्णमासी य, 7. सन्निवाए य 8. संठिई // 1 // 9. तारग्गं, च, 10. नेता य, 11. चंदमग्गत्ति, यावरे // 12. देवता य अन्मयणे, 13. मुहुत्ताणं नामाइ य // 2 // 14. दिवसा-राइवत्ता य, 15. तिहि, 16. गोत्ता, 17. भोयणाणि य // 18. आइच्चचार, 19. मासा य, 20. पंच संवच्छराइ य // 3 // 21. जोइस्स य, दाराई, 22. नक्खत्ता विजये वि य॥ वसमे पाहुडे एए, बावीसं पाहुड-पाहुडा // 4 // "मासस्स" मुहुत्ताणं वद्धोऽवद्धी 8. ता कहं ते बद्धोऽवद्धी मुहत्ताणं आहिए त्ति, वदेज्जा ? ता अट्ठ एगूणवीसे मुहुत्तसए सत्तावीसं च सट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिए ति वदेज्जा / ' 1. (क) मुहूर्तों की हानि-वृद्धि का यह सूत्र यहाँ कैसे दिया गया है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है / सूर्यप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में उत्थानिका के बाद बीस प्राभतों के प्राथमिक विषयों की प्ररूपक पांच गाथाएँ हैं। उनमें से प्रथम गाथा में प्रथम प्राभत के प्रथम प्राभतप्राभूत की प्राथमिक विषयसूचक गाथा का "कइ मंडलाइ वच्चइ" यह प्रथम पद है। इसके अनुसार “एक वर्ष में सूर्य कितने मंडलों में एक वार और कितने मण्डलों में दो वार गति करता है।" यह विषय है। वृत्तिकार श्रीमलयगिरि उक्त पद की व्याख्या इस प्रकार करते हैं-"प्रथमे प्राभते--सूर्यो वर्षमध्ये कति मण्डलान्येकवार, कति वा मण्डलानि द्विःकृत्वा व्रजतीत्येतन्निरूपणीयम् / किमुक्तं भवति ? एवं तमेन प्रश्ने कृते तदनन्तरं सर्व तद्विषयं निर्वचनं प्रथमे प्राभृते वक्तव्यमिति / " किन्तु प्रथम प्राभत के पाठ प्राभूतप्राभूतों की विषयप्ररूपक दो गाथाओं में से प्रथम गाथा के प्रथम पद में “वडढोऽवड्डी मुहुत्ताणं' यह पद है। इसके अनुसार प्रथम प्राभूत के प्रथम प्राभृतप्राभृत में प्रथम सूत्र में वृत्तिकार के अनुसार चार प्रकार के मासों के मुहूर्तों की हानि-वृद्धि का प्ररूपण है। वृत्तिकार श्रीमलयगिरि उक्त पद की व्याख्या इस प्रकार करते हैं-"प्रथमस्य प्राभूतस्य सत्के प्रथमे प्राभूतप्राभते मुहूर्तानां दिवस-रात्रिगतानां वृद्धयपवृद्धी वक्तब्ये।" विषयप्ररूपक संग्रहणी गाथानों की रचना के पूर्व एवं वत्तिकार के पूर्व यह व्युत्क्रम हो गया है। वृत्तिकार स्वयं उक्त व्युत्क्रम की उपेक्षा कर गए तो अन्य सामान्य श्रुतधरों का तो कहना ही क्या ? यह सूत्र क्रमानुसार कहाँ होना चाहिए, इस सम्बन्ध में प्रागे यथास्थाम लिखने का संकल्प है। (ख) मुहूर्तों की हानि-वृद्धि का यह सूत्र भी खण्डित प्रतीत होता है, क्योंकि प्रस्तुत सूत्र के प्रश्नसूत्र में मुहूर्तों की हानि-वृद्धि का प्रश्न है किन्तु उत्तरसूत्र में केवल नक्षत्रमासों के मुहूर्तों का ही कथन है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्राप्तिसूत्र सव्वसूरमंडलमग्गे सूरस्स गमणागमण-राइंदियप्पमाणं 9. ता जया णं सूरिए सव्वम्भंतराओ मंडलामो सम्वबाहिरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ, सम्वबाहिराओ मंडलाओ सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, एस णं अद्धा केवइयं राइंदियग्गे णं आहिते ति वदेज्जा? ता तिणि छावठे राइंदियसए राइंदियगे णं आहिते ति वदेज्जा। सूरमंडलेसु सूरस्स सई दुक्खुत्तो वा चारं 10. ता एताए अद्धाए सूरिए कति मंडलाई चरइ ? ता चुलसीयं मंडलसयं चरइ। बासीइ मंडलसयं दुक्खुत्तो चरइ, तं जहा-णिक्खममाणे चेव, पवेसमाणे चेव / दुवे य खलु मंडलाइं सई चरइ, तं जहा–सन्चभंतरं चेव मंडलं, सम्बबाहिरं चेव मंडलं / प्राइच्चसंवच्छरे अहोरत्तप्पमाणं 11. जइ खलु तस्सेव आदिच्चस्स संवच्छरस्स सई अद्वारसमुहत्ते दिवसे भवइ सइं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, सई दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सई दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, पढमे छम्मासे-अस्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, नस्थि अट्ठारसमुहत्ते दिवसे, अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे, नस्थि दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / दोच्चे छम्मासे-अस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, नस्थि अट्ठारसमुहत्ता राई, अस्थि दुवालसमुहुत्ता राई, नस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ / पढमे छम्मासे वा दोच्चे छम्मासे वा पत्थि पण्णरसमुहुत्ते विवसे भवइ, णत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ / तत्थ णं कं हे वदेज्जा? ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदोव-समुदाणं सवभंतराए सव्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम-विषखंभे णं, तिनि जोयण-सयसहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवे णं पण्णत्ते / ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतर-मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, से निक्खममाणे सरिए नवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभिंतरातरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभूत-प्रथम प्रामृतप्राभृत] ता जया णं सूरिए अम्भितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहि एगसट्ठिभाग मुहुर्तेहि ऊणे। दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया, से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अभित्तर तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई। ता जया णं सूरिए अम्भितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहता राई भवइ, चउहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं आहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराणंतरं मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो एगठ्ठिभाग मुहुत्ते एगमेगे मंडले दिवसखेत्तस्स णिवुड्ढेमाणे णिवुड्ढेमाणे रयणिखेत्तस्स अभिवुड्ढेमाणे अभिवुड्ढमाणे सन्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतराओ मंडलाओ सब्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सव्वन्भंतरं मंडलं पणिहाय एगे णं तेसीए णं राइंदियसए णं तिण्णि छावठे एगसट्ठि भागमुहत्तसए दिवस-खेत्तस्स मिड्ढित्ता रयणि-खेत्तस्स अभिवुड्ढित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकठ्ठपत्ता उक्कोसिया प्रहारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए बारसमुहत्ते दिवसे भवइ, एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे / से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ, दोहि एगसद्विभागमुहत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ, दोहि एगसट्ठिभागमुहुरोहिं आहिए, से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ, चहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिए, एवं खल एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो एगसद्विभागमुहुत्ते एगमेगे मंडले रयणिखेत्तस्स णिबुड्ढेमाणे णिवुड्ढेमाणे दिवसखेत्तस्स अभिवड्ढेमाणे अभिवड्ढेमाणे सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए सब्चबाहिराओ मंडलाओ सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सत्वबाहिरं मंडलं पणिहाय एगे गं तेसोए णं राइंदियसए णं तिन्नि छावठे एगसद्विभागमुहत्तसए रयणिखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिवड्ढेत्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहत्ता राई भवइ, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र एस गं दोच्चे छम्मासे, एस णं दुच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे। एस णं आदिच्चे संवच्छरे एस णं आदिच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे / उपसंहारसुत्तं एवं खलु तस्सेव आदिच्चस्स संवच्छरस्स सई अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ, सहं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, सई दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सई दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, पढमे छम्मासे-अस्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, नत्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे, अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, नत्थि दुवालसमुहुत्ता राई / दोच्चे बा छम्मासे-अस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, नस्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई / / अस्थि दुवालसमुहुत्ता राई, नस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, पढमे वा छम्मासे दोच्चे वा छम्मासे-पत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, णत्थि पण्णरसमुहत्ता राई भवइ, गत्थि राइंदियाणं बड्ढोवड्ढीए, मुहुत्ताण वा चयोवचएणं णण्णत्थ वा अणुवायगईए, गाहारो भाणियवाओ।' 00 1. अत्र अनन्तरोक्तार्थसंग्राहिका अस्या एव सूर्यप्रज्ञप्तेर्भद्रबाहुस्वामिना या नियुक्तिः कृता तत्प्रतिबद्धा अन्या वा काश्चन ग्रन्थान्तरसुप्रसिद्धा गाथा वर्तन्ते ता “भणितच्या" पठनीया, ताश्च सम्प्रति क्वापि पुस्तके न दृश्यन्तइति व्यवच्छिन्ना सम्भाव्यन्ते ततो न कथयितुं "व्याख्यातुं वा शक्यन्ते।" -सूर्य. टीका. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभूत [द्वितीय प्राभृतप्राभृत] सूरस्स दाहिणा अद्धमंडलसंठिई 12. ता कहं ते अद्धमंडलसंठिई आहिताति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमे दुवे अद्धमंडलसंठिई पण्णत्ता, तं जहा१. दाहिणा चेव अद्धमंडलसंठिई, 2. उत्तरा चेव अद्धमंडलसंठिई / ता कहं ते दाहिणा अद्धमंडलसंठिई आहिताति वदेज्जा ? ता अयण्णं जंबुद्दीवे दोवे सव्वदीव-समुदाणं सयभंतराए सम्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम-विक्खंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साई, दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए, तिष्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चार चरइ, तया गं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / से निक्खममाणे सूरिए गवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए अभिंतराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलं संठिई उवसंकमिसा चारं चरइ।। ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारसमुहत्तेहि दिवसे भवइ दोहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणे। दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया। से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए अभितरं तच्चं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उबसंकमित्ता चारं चरइ / ता जया णं सूरिए अम्भितरं तच्चं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहि एगद्विभागमुहुत्तेहि ऊणे / दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, चहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिया। एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरमंडलस्स तंसि Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र तंसि देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिति संकममाणे संकममाणे दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए सव्वबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरइ / ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया गं उत्तमकठ्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ / एस गं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे / से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए बाहिराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं दाहिणअद्धमंडलसंठिति उवसंकमिता चारं चरइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगठ्ठिभागमुत्तेहि ऊणा, __ दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ, दोहि एट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिए, से पविसमाणे सरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए बाहिरंतरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चार चरइ, ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया गं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, चहिं एगट्ठिभागमुहुर्तेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिए, __ एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरंसि तंसि तंसि देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई संकममाणे संकममाणे उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए सव्वन्भंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ। ताजया णं सूरिए सम्बन्भंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उबसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे / सूरस्स उत्तरा अद्धमंडलसंठिई 13. ता कहं ते उत्तरा अद्धमंडलसंठिई आहितेति वदेज्जा ? ता अयण्णं जंबहीवे दीवे सव्वदीव-समदाणं सन्चभंतराए सवखड्डागे वट्ट जाव जोयणसयसहस्समायाम-विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई, दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभूत--द्वितीय प्राभूतप्राभूत] [11 . ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, से निक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए अभंतराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उक्संकमित्ता चारं चरह / ता जया णं सूरिए अभंतरणतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिइं उवसंकमित्ता चार चरइ, तया णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ, दोहि एगट्ठिभागमुहुर्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दोहि एगट्ठिभागमहत्तेहि अहिया / से णिक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए अमितराणंतरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंक मित्ता चारं चरइ / ता जया गं सूरिए अभितराणंतरं तच्च उत्तरं अद्ध मंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमहुत्ते दिवसे भवइ, चहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, चउहि एगठ्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे तंसि तंसि देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई संकममाणे संकममाणे उत्तराए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए सव्वबाहिरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरई, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं चाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया गं उत्तमकठ्ठपता उक्कोसिया अट्ठारसमुहता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिबसे भवइ, एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, से पविसमाणे सरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए बाहिराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं उतरं अद्धमंडलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया गं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहि एगट्ठिभागमुहुर्तेहि ऊणा, दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ दोहि एगठिभागमहत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए बाहिर तच्चं दाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं वाहिणं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं जरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिए, Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे तंसि तंसि देसंसि तं तं अद्धमंडलसंठिई संकममाणे संकममाणे दाहिणाए अंतराए भागाए तस्साइपएसाए सव्वन्भंतरं उत्तरं श्रद्धमंडलसंठिई उक्संकमिता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए सव्वम्भंतर उत्तर अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभूत [तृतीय प्राभृतप्राभूत सूरियाणं संचरण-खेतं 14. ता कि ते चिण्णं पडिचरति माहितेति वदेज्जा? तत्थ खलु इमे दुवे सूरिया पण्णत्ता, तं जहा-भारहे चेव सूरिए / एरवए चेव सूरिए / ता एए णं दुवे सूरिया पत्तेयं पत्तेयंतीसाए तीसाए महत्तेहिं एगमेगं अद्धमंडलं चरह, सट्ठीए सट्ठीए मुहुत्तेहिं एगमेगं मंडलं संघातयति। ता निक्खममाणे खलु एते दुवे सूरिया णो अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरंति, पविसमाणा खलु एते दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरंति तं सयमेगं चोयाल', प.-तत्थ णं को हेतु, ति वदेज्जा ? उ.-ता अयण्णं जंबुद्दीवे दो सम्वदीव-समुद्दाणं सम्बन्भंतराए सव्वखुड्डागे बट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम-विक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई, दोनि य सत्तावीसे जोयणसए, तिणि कोसे अट्ठावीसं च घणुसयं, तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंधि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। तत्थ णं अयं भारहए चेव सूरिए जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपडीणाययाए उदीण-दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउबीसएणं सएणं छेत्ता-वाहिण-पुरथिमिल्लसि चउम्भागमंडलंसि बाणउतिय सूरियमयाई जाइं सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाइं पडिचरइ, उत्तर-पच्चस्थिमिल्लसि घउन्भागमंडलंसि एक्काणउइयं सूरियमयाई जाइं सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरह, तत्थ णं अयं भारहे सुरिए एरवयस्स सूरियस्स जंबुद्दोवस्स दोवस्स पाईण-पडोणाययाए उदीण-दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सएणं छेत्ता उत्तर-पुरस्थिमिल्लसि चउभागमंडलंसि बाणउइय सूरियमयाइं जाई सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरइ, दाहिण-पच्चस्थिमिल्लसि चउडभागमंडलंसि एक्काणउइयं सूरियमयाइं जाइं सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरइ, ___ तत्थ णं अयं एरवए चेव सूरिए जंबुद्दीवस्स दोवस्त पाईगपडीणाययाए उदोण-दाहिणाययाए जोवाए मंडलं चउबीसएणं सएणं छत्ता उत्तर-पुरथिमिल्लसि चउन्भागमंडलंसि बाणउइयं सूरियमयाई जाई सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरइ, Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र दाहिण-पुरस्थिमिल्लंसि चउम्भागमंडलंसि एक्काणउइय सूरियमयाइं जाई सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाइं पडिचरइ, तत्थ णं अयं एरवए सूरिए भारहस्स सूरियस्स जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईण-पडीणाययाए उदोण-दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउबीसएणं सएणं छेत्ता दाहिण-पच्चथिमिल्लसि चउठभागमंडलंसि बाणउइय सूरियमयाइं जाई सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरइ, / उत्तर-पुरथिमिल्लसि चउभागमंडलंसि एक्काणउइय सूरियमयाइं जाई सूरिए परस्स चेव चिण्णाइंपडिचरइ, ता निक्खममाणा खलु एए दुवे सूरिया णो अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरंति / पविसमाणा खलु एए दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरंति सयमेगं चोयालं। 00 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रात [चतुर्थ प्राभृतप्राभूत सूरियाणं अण्णमण्णस्स अंतर-चारं 15. ता केवइयं एए दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स अंतरं कटु चारं चरंति, आहितेति वएज्जा? तत्थ खलु इमाओ छ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. तत्थ एगे एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, आहितेति बदेज्जा, एगे एबमाहंसु / 2. एगे पुण एवमाहंसु ता एग जोयणसहस्सं एगं च चोत्तीसं जोयणसयं अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेज्जा, एगे एबमाहंसु, 3. एगे पुण एवमाहंसु ता एगं जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसयं अण्णमण्णस्य अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु, 4-1. एगे पुण एवमाहंसु ता एगं दोवं, एगं समुदं अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु, 5-2. एगे पुण एवमाहंसु ता दो दीवे, दो समुद्दे अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु, 6-3, एगे पुण एवमाहंसु ता तिणि दीवे, तिण्णि समुद्दे, अण्णमण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वयामो ता पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमग्णस्स अंतरं अभिवढे माणा वा, निवड्ढेमाणा वा सूरिया चारं चरंति, आहितेति वदेज्जा, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र तत्थ णं को हेउ ? आहितेति वदेज्जा, ता अयं णं जंबुद्दोवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सम्वन्भंतराए सम्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम-विषखंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरसय-अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, 1. ता जया णं एते दुवे सूरिया सध्यभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरंति, तया णं णवणउइं जोयणसहस्साई, छच्च चत्ताले जोयणसए अण्णमण्णस्स अंतर कट्ट चार चरंति आहितेति वदेज्जा, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, 2. ते निक्खममाणा सूरिया णवं संवच्छर प्रयमाणा पढमंसि अहोरत्तसि अभिंतराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरंति, ता जया णं एते दुवे सूरिया अभिंतराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरंति, तया णं णवणउइं जोयणसहस्साई छच्च पणयाले जोयणसए पणतीसं च एगठिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतर कटु चार चरति प्राहितेति वदेज्जा, / तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहि एगठिभाग मुहुत्तेहि ऊणे, दुवालसमहत्ता राई भवइ दोहि एगठिभागमुहुत्तेहि अहिया, 3. ते निक्खममाणा सूरिया दोच्चंसि अहोरत्तसि अभिंतर तच्चं मंडलं उबसंकमित्ता चार चरति, ता जया णं एते दुवे सूरिया अन्भिंतर तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरंति, तया णं णवणउइं जोयणसहस्साई छच्च इक्कावणे जोयणसए नव य एगठिभागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अंतर कटु चार चरंति, प्राहितेति वदेज्जा, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चहि एगठिभागमुहुतेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चाहिं एगठिभागमुहुत्तेहि अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं मिक्खममाणा एते दुवे सूरिया तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतर मंडलं संकममाणा संकममाणा पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतर अभिवड्ढेमाणा अभिवड्ढमाणा, सब्बबाहिर मंडलं उवसंकमित्ता चरचरंति, ता जया णं एते दुवे सरिया सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, तया णं एग जोयणसयसहस्सं छच्च सट्टे जोयणसए अण्णमण्णस्स अंतर कटु चार चरंति, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत-चतुर्थ प्राभूतप्राभूत] [17 एस गं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, - 2. ते पविसमाणा सूरिया दोच्चं छम्मासं अयमाणा पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिराणंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरंति, तया णं एगं जोयणसयसहस्सं छच्च चउप्पण्णे जोयणसए छत्तीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स, अण्णमणस्स अंतरं कटु चारं चरंति, तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ, दोहि एगट्ठिभागमुत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगठिभागमुहत्तेहिं अहिए, 3. ते पविसमाणा सूरिया दोच्चंसि अहोरत्तसि बाहिर तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, ता गं एग जोयणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावण्णं च एगट्ठिभागे जोयणस्स, अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ट चारं चरंति, तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ, चहिं एट्ठिभागमुहुर्तेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहिं एगठिभागमुहुर्तेहि अहिए, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणा एते दुवे सूरिया तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणा संकममाणा पंच पंच जोयणाई पणतीसे च एट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अंतर निवड्ड माणा निवड्डमाणा सन्वन्तरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरंति, ता जया णं दुवे सूरिया सवभंतर मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरंति, तया णं णवणउई जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसए अण्णमष्णस्स अंतर कटु चारं चरंति, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते, उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एस णं दोच्चे छम्मासे एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं प्राइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे, Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभूत [पंचम प्राभृतप्राभूत सूरस्स दोव-समुद्द-प्रोगाहणाणंतरं चार 16. 17. ता केवइयं ते दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, आहितेति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीग्रो पण्णत्ताओ तं जहातत्थेगे एवमाहंसु 1. ता एग जोयण-सहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं, दीवं वा समुह वा ओगाहिता सूरिए चारं, चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु 2. ता एगं जोयण-सहस्सं, एगं च चउत्तीसं जोयणसयं, दीवं वा समुदं वा ओगाहिता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु 3. ता एग जोयण-सहस्सं, एगं च पणतीसं जोयणसयं दोवं वा समुई वा प्रोगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु--- 4. ता अवड्ढ दीवं वा, समुदं वा, ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ एगे एवमाहंसु, 5. एगे पुण एवमाहंसु ता नो किचि एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं दीवं वा, समुई वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एबमाहंसु, तत्थ जे ते एवमाहंसु 1. ता एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीस जोयणसयं, दीवं वा समुदं वा ओगाहिता सूरिए चारं चरइ, ते एवमाहंसुक–ता जया सधभंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत-पंचम प्राभृतप्राभृत] [19 तया णं जंबुद्दीवं दीवं एगं जोयणसहस्स, एगं च तेत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, तया उत्तमकठ्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, ख–ता जया णं सूरिए सम्वबाहिर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं लवणसमुदं एग जोयणसहस्सं, एगं च तेतीसं जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, 2. एवं चउत्तीसेऽवि जोयणसयं, 3. पणतीसेऽवि एवं चेव भाणियब्वं, 4. तत्थ णं जे ते एवमाहंसुता अवड्ड दीवं वा, समुहं वा, ओगाहिता सूरिए चारं चरइ, ते एवमाहंसुता जया णं सूरिए सम्वन्भंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं अव जंबुद्दीवं दीवं प्रोगाहित्ता सरिए चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई गवइ, एवं सम्वबाहिरे मंडलेऽवि, णवरं-"प्रवड्ड लवणसमुद्दे" तया f-"राइंदियं" तहेव,' 5. तत्थ णं जे ते एवमासु--- ता नो किंचि दीवं वा समुई वा ओगाहित्ता चारं चरइ, ते एक्माहंसु-- ता जया णं सरिए सम्वन्भंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं नो किंचि दीवं वा, समुदं वा ओगाहिता सूरिए चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहत्ता राई भवइ, ___ एवं सव्वबाहिरे मंडले वि, णवर---'नो किंचि लवणसमुदं ओगाहित्ता सरिए चारं चरइ, राईदियं तहेव, 1. ऊपर अंकित सूत्र के समान है / 2. ऊपर अंकित सूत्र के समान है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र वयं पुण एवं वयामोक-ता जया णं सरिए सन्चभंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं जंबुद्दीवं दीवं असीयं जोयणसयं ओगाहित्ता सरिए चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुता राई भवइ, ख --ता जया णं सरिए सव्वबाहिर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया गं लवणसमुई तिणि तीसे जोयणसए ओगाहिता सरिए चारं चरइ, तया णं उत्तमकठ्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमहत्त दिवसे भवड, गाहाओ भाणियब्वाओ। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभूत [छठा प्राभृतप्राभृत सूरस्स एगमेगे राइदिए मंडलानो मंडलसंकमणखेत्तचारं 18. ता केवइयं ते एगमेगे णं राइंदिए णं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए / चारं चरइ, आहितेति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ सत्त पडिवत्तीओ पण्णतारो, तं जहातत्थेगे एवमाहंसु 1. ता दो जोयणाई अद्धदुचत्तालोसे तेसोई सयभागे जोयणस्स एगमेगेणं, राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमासु, एगे पुण एवमाहंसु 2. ता अड्डाइज्जाइं जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चार चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु 3. ता तिभागूणाई तिनि जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु 4. ता तिणि जोयणाई अद्धसोतालीसं च तेसोइसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु 5. ता अद्घटाई जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु--- 6. ता चउभागूणाई चत्तारि जोयणाई एगमेमेणं राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एक्माहंसु 7. ता चत्तारि जोयणाई अद्धबावण्णं च तेसोइसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चार चरइ, एगे एवमाहंसु, Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [सूर्यप्रज्ञप्सूित्र वयं पुण एवं वयामो ता दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरइ, तत्थ णं को हेऊ ? इति वदेज्जा। ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सम्वन्भंतराए सव्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायामविक्खंभेणं, तिष्णि जोयणसयसहस्साइं, दोणि य सत्तावीसे जोयणसए, तिणि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते / 1. ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ-.. तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, 2. से निक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छर अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अम्भिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ___ता जया णं सूरिए अभिंतराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं दो जोयणाई अडयालीसं च एगठिभागे जोयणस्स एगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता विकंपइत्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगठिभागमहत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगठिभागमुहुर्तेहि अहिया। 3. से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तसि अम्भितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता वारं चरह, ता जया णं सूरिए अभिंतर तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच जोयणाई पणतीसं च एगठिभागे जोयणस्स दोहिं राइदिएहि विकंपइत्ता विकंपइत्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहिं एगठिभागमहत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चहिं एगठिभागमुहुर्तहि अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतर मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगठिभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राइदिएणं विकंपमाणे विकंपमाणे सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ।। ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरामो मंडलाओ सम्वबाहिर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ, तया णं सम्वन्भंतर मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसएणं पंचदसुत्तरजोयणसए विकंपइत्ता विकंपइत्ता चारं चरइ, Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभूत-छठा प्राभूतप्राभूत [23 . तया णं उत्तमकठ्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, 1. से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए बाहिराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ, तया णं दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगठिभागे जोयणस्स एगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगठिभागमुहुर्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिए, 2. से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिर तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ, ता जया णं सूरिए बाहिर तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंचजोयणाई पणतीसं च एगठिभागे जोयणस्स दोहिं राइदिएहिं विकंपइत्ता विकंपइत्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ, चहि एगठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहिं एगठिभागमुहुत्तेहि अहिए, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाऽणंतराओ मंडलानो तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो जोयणाई अडयालीसं च एगठिभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगेमेगेणं राइदिएणं विकंपमाणे विकंपमाणे सव्वभंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए सम्वबाहिराओ मंडलाओ सव्वभंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सव्वबाहिर मंडलं पणिहाय एगे गं तेसोए णं राइंदियसएणं पंचसुत्तरे जोयणसए विकंपइत्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहत्ता राई भवह एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं प्राइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे / 00 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभूत [सप्तम प्राभृतप्राभूत] चंद-सूर-मंडल-संठिई 16. ता कहं ते मंडल-संठिई आहितेति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ अट्ठ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहातत्थेगे एवमासु१. ता सव्वावि णं मंडलावता समचउरस-संठाणसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु-- 2. ता सव्वाबि णं मंडलावता विसमचउरस-संठाणसंठिया पण्णता एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु-- 3. ता सव्वा वि णं मंडलावता समचउकोणसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु४. ता सव्वा वि णं मंडलावता विसमचउक्कोणसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु-- एगे पुण एवमाहंसु५. ता सम्वा वि णं मंडलावता समचक्कवालसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु६. ता सव्वा वि णं मंडलावता विसमचक्कवाल-संठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसएगे पुण एवमाहंसु७. ता सध्या वि गं मडलावता चक्क द्धचक्कवालसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसएगे पुण एवमाहंसु८. ता सव्वा वि णं मंडलावता छत्तागारसंठिया पणत्ता, एगे एवमाहसुतत्थ जे ते एवमाहसता सव्वा वि णं मंडलावता छत्तागारसंठिया पण्णत्ता, एएणं णएणं णायव्वं, णो चेव णं इयरेहिं / पाहुडगाहाम्रो भाणियव्वाश्रो / 00 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभूत [अष्टम प्राभृतप्राभृत सूरस्स सम्बमंडलाणं बाहल्लं पायाम-विक्खंभ-परिक्खेवं च 20. ता सव्वा वि णं मंडलवयाकेवइयं बाहल्लेणं? केवइयं पायाम-विक्खंभेणं ? केवइयं परिक्खेवेणं ? आहितेति वदेज्जा। तत्थ खलु इमा तिणि पडिवत्तीओ पण्णताओ, तं जहा-- तत्थेगे एवमाहंसु१-ता सव्वा वि णं मंडलबया जोयणं बाहल्लेणं, एग जोयणसहस्सं एगं तेत्तीसं जोयणसयं पायाम-विक्खंभेणं, तिणि जोयणसहस्साई तिण्णि य णवणउई जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ता एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु२–ता सव्वा वि णं मंडलवया जोयणं बाहल्लेणं एग जोयणसहस्सं एगं च चउत्तीसं जोयणसयं पायाम-विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसहस्साई चत्तारि विउत्तराई जोयणसयाई परिक्खेवेणं पग्णत्ता, एगे एवमासु, एगे पुण एवमाहंसु३–ता सव्वा वि णं मंडलवया जोयणं बाहल्लेणं एग जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसयं आयाम-विक्खंभेणं, तिणि जोयणसहस्साई चत्तारि पंचत्तराई जोयणसयाइं परिक्खेवेणं पण्णता, एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वयामोता सव्वा वि णं मंडलवया अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, अणियया पायाम-विक्खंभ-परिक्खेवेणं, आहितेति वदेज्जा, तत्थ णं को हेऊ? ति वदेज्जा। ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सम्ववीव-समुद्दाणं सन्वम्भंतराए सम्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयण Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] [सूर्यप्राप्तिसूत्र सहस्समायाम-विक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई, दोणि य सत्तावीसे जोयणसए, तिणि कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई. अद्धंगुलं च किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, 1. ता जया गं सूरिए सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलक्या अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहलेणं, णवणउइ जोयणसहस्साइं छच्च चत्ताले जोयणसयाई आयाम-विक्खंमेणं, तिष्णि जोयणसयसहस्साई पण्णरस जोयणसहस्साई एगणणउई जोयणाइं किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, तथा णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहत्ता राई भवइ। 2. से निक्खम्ममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तसि अन्भितराणंतर मंडलं जवसंकमित्ता चार चरइ, ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगठिभागे जोयणस्स बाहले णं, णवणउई जोयणसहस्साई छच्च पणयाले जोयणसए पणतीसं :च एट्ठिभागे जोयणस्स आयाम-विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साइं पण्णरस जोयणसहस्साइं एग चउत्तरं जोयणसयं किंचि विसेसूणं परिक्खेवणं, 1. सूर्यप्रज्ञप्ति तथा जम्बूद्वीपप्रजाप्ति के सूत्रों में सूर्यमण्डल का प्रायाम-विष्कम्भ कहा गया है किन्तु समवायांग सूत्र में केवल विष्कम्भ ही कहा गया है। इसका समाधान यह है कि वृत्ताकार का आयाम-विष्कम्भ सदा समान होता है, सूर्यमण्डल वृत्ताकार है, अत: केवल विष्कम्भ कहने से आयाम और विष्कम्भ दोनों समझ लेने चाहिए। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का बाहल्य एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग जितना कहा गमा है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का बाहल्य एक योजन के इकसठ भागों में से चौवीस भाग जितना कहा गया है। इन दो प्रकार के बाहल्य प्रमाणों में से कौन सा बास्तविक है, यह शोध का विषय है। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का पायाम-विष्कम्भ और परिधि बाह्याभ्यन्तर मण्डलों की अपेक्षा अनियत है, ऐसा लिखा है किन्तु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का आयाम, विष्कम्भ और परिधि अनियत नहीं लिखी है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ और परिधि जो कही है वह आभ्यन्तर या बाह्यमण्डलों की है ? क्योंकि सूर्यप्रज्ञप्ति में कथित बाह्याभ्यन्तर मण्डलों के प्रायाम-विष्कम्भप्रमाणों में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिकथित आयाम-विष्कम्भपरिधि का प्रमाण मिलता नहीं है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [27 प्रथम प्राभृत ---अष्टम प्राभृतप्राभृत] तया णं अट्ठारसमुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगठिभागमहत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहि एगठ्ठिभागमुहुर्तेहि अहिया, 3. से निक्खम्ममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अभितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चार चर, ता जया णं सूरिए अम्भितरं तच्चं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगठिभागे जोयणस्स बाहरूलेणं, णवणउइ जोयणसहस्साई छच्च एकावन्ने जोयणसए णव य एगठ्ठिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई पण्णरस जोयणसहस्साई एगं च पणबीसं जोयणसयं परिक्खेवेणं पण्णते, तया णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ, चहिं एगठिभागमुहुर्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चाहिं एगठ्ठिभागमुहुर्तेहि अहिया, 4. एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खम्ममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतर मंडलं संकममाणे संकममाणे पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुटि अभिवढेमाणे अभिवढेमाणे अट्ठारस अट्ठारस जोयणाई परिरयडि अभिवड्ढेमाणे अभिवड्ढेमाणे सम्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, एगं च जोयणसयसहस्सं छच्चसट्टे जोयणसए आयामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साहं अट्ठारस सहस्साई तिणि य पण्णरसुत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं, तया णं उत्तमकठ्ठपत्ते उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ, जहपिणए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भव एस णं पढमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, 1. से पविसमाणे सरिए दोच्च छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरसि बाहिराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालोसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, एग जोयणसयसहस्सं छच्च चउप्पणे जोयणसए छब्बीसं च एगठिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साइं अट्ठारस सहस्साई दोष्णि य सत्ताण उए जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [सूर्यप्राप्तिसूत्र तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ दोहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहि एगठिभागमुहुत्तेहि अहिए, 2. से पविसमाणे सरिए दोच्चंसि अहोरत्तसि बाहिर तच्च मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया गं सरिए बाहिर तच्चं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगठ्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, एगं जोयणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावण्णं च एगट्ठिभागे जोयणस्स आयामविक्वंमेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई अट्ठारससहस्साई दोण्णि य एगूणासोए जोयणसए परिक्लेवेणं पण्णते, तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ चहि एगठिभागमुहुत्तेहि ऊणा, नुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ चाहिं एगट्ठिभागमुहुर्तेहि अहिए, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतर मंडलं संकममाणे संकममाणे पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवृद्धि निवुड्ढेमाणे निवुड्ढेमाणे अट्ठारस जोयणाई परिरयष्टि निवुड्ढेमाणे निबुड्ढेमाणे सम्वन्भंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सरिए सम्वन्भंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं ए गठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, णवणउई जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसए आयाम-विक्खंभेणं, तिष्णि जोयणसयसहस्साई पण्णरससहस्साई एगणणउई च जोयणाई किंचि विसेसाहिए परिक्लेवेणं पण्णत्ते, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ नहणिया दुवालसमुहत्ता राई भवइ, एस णं दोच्चे छम्मासे, एस पं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आइच्चे संवच्छरे एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे / सव्वसूरमंडलाणं बाहल्लं अंतरं अद्धा पमाणं च ता सव्वा वि णं मंडलवया अडयालीसं च एगठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं, सव्वा विणं मंडलंतरिया दोजोयणा विक्खंभेणं, एस णं अद्धा तेसोय सयपडप्पण्णे पंचदसुत्तरे जोयणसए पाहिए ति वएज्जा, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्राभृत-अष्टम प्राभृतप्राभूत] [21 ... ता अमितराओ मंडलवयाप्रो बाहिरं मंडलवयं बाहिराम्रो वा मंडलवयाओ अम्भितरं मंडलवयं, एस णं अद्धा केवइयं आहिए ति वदेज्जा? ता पंचदसुत्तरे जोयणसए पाहिए त्ति वएज्जा, अम्भितराए मंडलवयाए बाहिरा मंडलवया-एस णं अद्धा केवइयं आहिए त्ति वएज्जा? ता पंचदसुत्तरे जोयणसए अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स अहिया, ता अभितराओ मंडलवयाओ बाहिरमंडलवया बाहिरामो मंडलक्याओ अम्भितरमंडलवया---एस णं अद्धा केवइयं आहिए ति वदेज्जा ? ता पंचनवुत्तरे जोयणसए तेरस एगदिमागे जोयणस्स आहिए ति वदेज्जा, अभितराओ मंडलवयाओ बाहिरा मंडलवया, बाहिराए मंडलवयाए अभितर-मंडलक्या--- एस णं अद्धा केवइया पाहिए ति वदेज्जा ? ता पंचवसुत्तरे जोयणसए पाहिए ति वदेज्जा। 00 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्राभूत [प्रथम प्राभृतप्राभृत] सूराणं तेरिच्छगई 21. ता कहं ते तेरिच्छगई आहिए ? ति वएज्जा। तत्थ खलु इमाओ अट्ठ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहातत्थेगे एवमाहंसु 1. ता पुरथिमाओ लोयंताओ पाओ मरीची आगासंसि उठेह, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करिता पच्चत्थिमंसि लोयंतंसि सायंमि आगासंसि विद्धंसइ एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमासु 2. ता पुरथिमाओ लोयंताओ पाओ सरिए आगासंसि उठेइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चत्थिमंसि लोयंससि सायं सरिए आगासंसि विद्धंसइ एगे एवमासु / एगे पुण एवमाहंसु 3. ता पुरथिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए आगासंसि उठेइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चत्थिमंसि लोयतंसि सायं सूरिए आगासं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अहे पडियागच्छइ पडियागच्छित्ता पुणरवि अवरभू-पुरथिमाओ लोयंताओ पापो सूरिए आगासंसि उठेइ एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु 4. ता पुरथिमाओ लोयंताओ पाओ सरिए पुढविप्रो उठेइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चस्थिमंसि लोयंतसि सायं सूरिए पुढविकायंसि विद्धंसइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु 5. ता पुरथिमाओ लोयंताओ पाओ सरिए पुढवीओ उठेइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चत्थिमंसि लोयंतसि सायं सूरिए पुढविकायं अणुपविसइ अणुपविसित्ता अहे पडियागच्छइ पडियागच्छित्ता पुणरवि अवरभू-पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ सरिए पुढवीओ उठेइ एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु 6. ता पुरथिमाओ लोयंतानो पाओ सरिए पाउकासि उठेइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ, करित्ता पच्चस्थिमंसि लोयंतसि सायं सरिए आउकासि विद्धसइ एगे एवमाहंसु / Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्राभूत-प्रथम प्राभृतप्राभूत] [31 . एगे पुण एवमाहंसु--- 7. ता पुरस्थिमानो लोयंताओ पाओ सरिए आउओ उठेइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ करित्ता पच्चत्थिमंसि लोयंसि सायं सरिए आउकासि पविसइ, पविसित्ता अहे पडियागच्छइ पडियागच्छित्ता पुणरवि अवरभू-पुरथिमानो लोयंताओ पाओ सूरिए आउओ उठेइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु 8. ता पुरस्थिमाओ लोयंताप्रो बहूई जोयणाई बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई उड्ढे दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं पाओ सूरिए आगासंसि उठेई, से णं इमं दाहिणड्ढं लोयं तिरियं करेइ, करिता उत्तरड्डलोयं तमेव राम्रो, से णं इमं उत्तरडलोयं तिरियं करेइ, करित्ता दाहिणड्डलोयं तमेव राओ, से णं इमाई दाहिण-उत्तरडलोयाई तिरियं करेइ, करित्ता पुरथिमाओ लोयंताओ बहूई जोयणाई बहूई जोयणसयाई, बहूइं जोयणसहस्साई उड्ढे दूर उप्पइत्ता, एत्थ णं पाओ सूरिए आगासंसि उठेइ, एगे एवमाहंसु। वयं पुण एवं वयामो___ता जंबुद्दोवस्स दोवस्स पाईण-पडीणायय-उदीण-दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउन्धीसेणं सएणं छेत्ता दाहिण-पुरस्थिमंसि उत्तर-पच्चत्यिमंसि य चउभाग-मंडलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जानो भूमिभागाओ अजोयणसयाई उड्ढं उप्पइत्ता-एत्थ णं पाओ दुवे सरिया आगासाओ उत्तिह्रति, ते णं इमाई वाहिणुत्तराई जंबुद्दीब-भागाइं तिरियं करेंति, करेंतिता पुरथिम-पच्चस्थिमाई जंबुद्दीव-भागाइं तामेव रायो, ते णं इमाई पुरथिम-पच्चस्थिमाई जंबुद्दोवभागाइं तिरियं करेंति, करेंतित्ता दाहिणुत्तराई जंबुद्दीवभागाई तामेव राओ, ते णं इमाई दाहिणुत्तराई पुरथिम-पच्चस्थिमाई जंबुद्दीवभागाई तिरियं करेंति, करेंतित्ता जंबुद्दोवस्स दीवस्स पाईण-पडीणायय-उदीण-दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउन्वीसे गं सएणं छेत्ता दाहिण पुरथिमंसि उत्तर-पच्चस्थिमंसि य चउम्भाग-मंडलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अट्ठ जोयणसयाई उड्ढं उप्पइत्ता-एत्थ णं पाओ दुवे सरिया आगासंसि उत्तिट्ठति / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्राभृत [द्वितीय प्राभृतप्राभूत सूरस्स मंडलायो मंडलांतर-संकमणं 22. ता कहं ते मंडलाओ मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए चार घरह माहिए ? ति वएज्जा, तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पण्णत्तानो तं जहातत्थेगे एवमाहंसु१. ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए मेयषाएणं संकामइ, एगे एवमाहंस, एगे पुण एवमाहंसु२. ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए कण्णकलं निवेढेइ, एगे एवमाहंस, तत्थ णं जे ते एवमाहंस 1. ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे संकममाणे सरिए भेयपाएणं' संकामइ, तेसि णं अयं बोसे, "ता जेणंतरेणं मंडलाओ मंडलं संकममाणे संकममाणे भेयधाएणं संकमइ-एवइयं च णं अवं पुरओ न गच्छइ, पुरओ पुरओ अगच्छमाणे मंडलकालं परिहवेई" तेसि णं अयं दोसे / तस्थ णं जे ते एवमाहंसु२. ता मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं निवेढेइ, तेसि णं अयं विसेसे, ता जेणंतरेणं मंडलाओ मंडलं संकममाणे सरिए कण्णकलं निवेढेइ एवइयं च णं अवं पुरमो गच्छह, पुरओ गच्छमाणे मंडलकालं न परिहवेइ, तेसि णं अयं विसेसे, तत्थ णं जे ते एवमाहंस मंडलाओ मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं निवेढेइ एएणं णएणं णेयव्वं, णो चेव णं इयरेणं, मण्डलादपरमण्डल संक्रामन संक्रमितमिच्छन सूर्यो भेदघातेन संक्रामति, भेदो मण्डलस्य मण्डलस्यापान्तरालं तत्र घातो-गमनं, एतच्च प्रागेवोक्तं, तेन संक्रामति, किमुक्तं भवति ? विवक्षिते मण्डले सूर्येणापूरिते सति तदन्तरमपान्तरालगमनेन द्वितीयं मण्डलं संक्रामति संकम्प च तस्मिन मण्डले चारं चरति / मण्डलामण्डलं संक्रमान् संक्रमितुमिच्छन् सूर्यस्तदधिकृतं मण्डलं प्रथमक्षणादूर्ध्वमारभ्य कर्ण-कलं निर्वेष्टयति मुंचति, इयमत्र भावना-'भारत ऐरावतो वा सूर्यः स्व-स्वस्थाने उद्गत: सन अपरमण्डलगतं कर्ण प्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्य शनैःशनरधिकृतं मण्डलं तया कयाचनापि कलया मुंचन् चारं चरति येन तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति अपरानन्तरमण्डलस्यारम्भे वर्तते इति / कर्णकलमिति च क्रियाविशेषणं द्रष्टव्यं, तच्चवं भावनीयं-कर्ण-अपरभण्डलगतप्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्याधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणादुर्ध्व क्षणे क्षणे कलयाऽतिक्रान्तं यथा भवति तथा निर्देष्टयतीति / —सूर्य. टीका. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रामृत [तृतीय प्राभृतप्राभूत सूरस्स मुहत्त-गइ-पमाणं 23. ता केवइयं ते खेत्तं सूरिए एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छइ ? आहिए ति वएज्जा / तत्थ खलु इमाओ चत्तारि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा :तत्थेगे एवमाहंसु(१) ता छ छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु(२) ता पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छह, एगे एयमाहंसुएगे पुण एवमाहंसु-- (3) ता चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-- (4) ता छ वि, पंच वि, चत्तारि वि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं, मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एवमाहंसु / तत्थ णं जे ते एवमाहंसु(१) ता छ छ जोयणसहस्साई सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, ते एवमाहंसु--- ता जया णं सरिए सब्वम्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए प्रद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / तंसि च णं दिवसंसि एगं जोयणसयसहस्सं अट्ठ य जोयणसहस्साई तावक्खेते पण्णत्ते / ता जया णं सरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ जहन्नए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ।। तंसि च दिवसंसि बावरि जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते, तया णं छ छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ / तत्थ गंजे ते एकमाइंसु-- (2) ता पंच पंच जोयणसहस्साई सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, ते एवमाहंसु ता जया णं सरिए सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं घरइ तया णं उत्तमकटपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहता राई भवइ / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र तंसि च णं दिवसंसि नउइ जोयणसहस्साई तावक्लेसे पण्णते।। ता जया णं सरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ / तंसि च णं दिवसंसि सट्टि जोयणसहस्साई तावक्खेते पण्णते, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साइ सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ / तत्थ णं जे ते एवमाहंसु(३) ता चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छइ, ते एवमाहंसु ता जया णं सरिए सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहत्ता राई भवइ / तसि च णं दिवसंसि बावतरि जोयणसहस्साई तावखेत्ते पण्णत्ते। ता जया णं सरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकटुपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ / तंसि च णं दिवसंसि अडयालीसं जोयणसहस्साई तायक्वेत्ते पण्णते, तया णं चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ / तत्थ णं जे ते एवमाहंसु (4) ता छ वि, पंच वि, चत्तारि वि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, ते एवमाहंसु _____ता सूरिए णं उग्गमणमुहत्तंसि य, अत्थमणमुहत्तंसि य सिग्घगई भवइ, तया णं छ छ जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ / ... मज्झिमं तावक्खेत्ते समासाएमाणे समासाएमाणे सूरिए मज्मिमगई भवइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ / मज्झिमं तावक्खेत्तं संपत्ते सूरिए मंदगई भवइ, तया णं चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ / ता जया णं सरिए सम्वम्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्टे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / तंसि च दिवसंसि एक्काणउइ जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते। ता जया णं सरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ / ....... तंसि च णं दिवसंसि एगद्विजोयणसहस्साई तावक्खेते पण्णत्ते तया णं छ वि, पंच वि, चत्तारि वि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, एगे एवमाहंसु / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्राभृत--तृतीय प्राभूतप्राभृत] वयं पुण एवं व्यामोता साइरेगाई पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुर्तणं गच्छइ / प.-तत्य को हेऊ ? ति वएज्जा। उ.-ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सम्वदीव-समुद्दाणं सव्वम्भंतराए सम्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम-विक्खं मेणं, तिन्नि जोयणसयसहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिषि कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई, प्रद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते / ता जया णं सरिए सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि य एक्कावण्णे जोयणसयाई एगणतीसं च सद्विभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छद। तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवहिं जोयणसएहि एक्कवीसाए य सट्ठिभागेहि जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ / तया णं उत्तमकटुपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भव। __ से निक्खममाणे सरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अमितराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ____ता जया गं सरिए अमितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोणि य एक्कावणे जोयणसए सीयालीसं च सद्विभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छा / तया णं इहगयस्स मणसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहिं एगूणासीए य जोयणसए सत्तावण्णाए सद्विभाएहिं जोयणस्स सद्विभागं च एगद्विहा छत्ता एगूणवीसाए चुण्णिाभागेहि सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ / तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहि एगद्विभाग मुहुत्तेहि अणे। दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिया। से निक्खममाणे सरिए वोच्चंसि अहोरत्तंसि अभिंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं घरइ / ता जया गं सरिए अम्भिंतरं तच्च मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि य बावण्णे जोयणसए पंच य सट्ठिभाए जोयणस्स एगेमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ / ___तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीओलीसाए जोयणसहस्सेहि छण्णउईए य जोयणेहि तेत्तीसाए य सढिभागेहि जोयणस्स सट्ठिभागं च एगट्ठिहा छेत्ता दोहिं चुण्णिाभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छइ / तया गं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगविभागमुहुरोहिं ऊणे। .. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सूर्यप्राप्तिसूत्र दुवालसमुहत्ता राई भवइ, बहि एगट्ठिभागमुहत्तेहि अहिया। एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुहत्तगई अभिवुड्ढेमाणे भभिवुड्ढेमाणे चुलसीइं चुलसीइं सीयाई जोयणाई पुरिसच्छायं निवुड्ढेमाणे निवुड्ढेमाणे सन्धबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सरिए सन्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं पंच पंच जोयगसहस्साई तिनि य पंचुत्तरे जोयणसए पण्णरस य सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छा। तया णं इहगयस्स मणूसस्स एक्कतोसाए जोयणसहस्सेहिं अहिं एक्कतीसेहिं जोयणसएहि सोसाए य सद्विभाएहि जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ।। तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसे मुहुत्ते दिवसे भव। एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे / से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उक्संकमित्ता चारं चरइ।। ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरइ, तया रणं पंच पंच जोयणसहस्साई तिण्णि य चउरुत्तरे जोयणसए सत्तावणं च सद्विभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ / तया णं इहायस्स मणूसस्स एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहिं नवहि य सोलसुत्तहिं जोयणसएहि एगूणचत्तालोसाए सट्ठिभागेहि जोयणस्स सट्ठिभागं च एगट्टिहा छेत्ता सट्ठीए चुणिया भागेहि, सूरिए बक्खुप्फासं हवमागच्छइ। तया गं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणा। दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिए। से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ / ता जया णं सरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयनसहस्साई तिन्नि य चउरुत्तरे जोयणसए एगूणचत्तालीसं च सद्विभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुसेणं गच्छद। तया गं इहगयस्स मणूसस्स एगाहिएहि बत्तीसाए जोयणसहस्सेहिं एगणपण्णाए य सद्विभाएहिं भोयणस्स सट्ठिभागं च एगट्टिहा छेत्ता तेवीसाए चुणियाभागेहि सूरिए चक्खुफासं हव्वमागच्छद / तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ बहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणा / दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ पहिं एगद्विभागमुहत्तेहि महिए। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्राभृत-तृतीय प्राभूतप्राभूत [37 एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सरिए तयाणंतराओ मंडलायो तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे भंडले मुहत्तगई निव्वुड्ढेमाणे निव्वुड्ढेमाणे साइरेगाई पंचासीइ पंचासीइ जोयणाई पुरिसच्छायं अभिवुड्ढेमाणे अभिवुड्ढेमाणे सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सरिए सव्वम्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोणि य एक्कावणे जोयणसए अद्वतीसं च सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे णं मुहत्ते णं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहि दोहि य दोव?हिं जोयणसएहि य एक्कवीसाए य सद्विभाहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ। तया णं उत्तमकटुपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भव। एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे / एस णं प्राइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे / 70 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रात चंदिम-सूरियाणं प्रोभासखेत्तं उज्जोयखेत्तं तावखेत्तं पगासखेतं च 24. प.–ता केवइयं खेत्तं चंदिम-सूरिया ओभासंति, उज्जोति तति पगासेंति ? आहिएत्ति वएज्जा, उ.-तत्थ खलु इमाओ बारस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहातत्थेगे एवमासु१. ता एगं दोवं एगं समुद्द चंदिम-सूरिया ओभासेंति उजोति तति, पगासेंति' एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु२. ता तिणि दोवे, तिणि समुद्दे चंदिम-सूरिया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु३. ता अद्धचउत्थे दोवे, अद्धचउत्थे समुद्दे चंदिम-सूरिया ओभासेंति जाव पगासेंति, एगे __एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु-- 4. ता सत्तदोवे, सत्तसमुद्दे चंदिम-सूरिया ओभासेंति, जाव पगार्सेति, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु५. ता दसदीवे, दससमुद्दे चंदिम-सूरिया ओभासेंति जाव पगासेंति, एगे एवमासु, एगे पुण एवमाहंसु६. ता बारसदोवे, बारससमुद्दे चंदिम-सूरया ओभासेंति जाव पगासेंति, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु७. ता बायालीसं दीवे, बायालीसं समुद्दे चंदिम सूरिया ओभासेंति जाव पगासेंति एगे एवमाहंसु, अवभासयन्ति, तत्रावभासो ज्ञानस्यापि व्यवह्रियते अतस्तव्यवच्छेदार्थमाह-उद्योतयन्ति, स चोद्योतो यद्यपि लोके भेदेन प्रसिद्धो यथा सूर्यगत ग्रातप इति, चन्द्रगत: प्रकाश इति, तथाप्यातपशब्दश्चन्द्रप्रभायामपि वर्तते, यदुक्तम् 'चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना, तथा चन्द्रगतःस्मृतः इति' प्रकाशशब्दः सूर्यप्रभायामपि, एतच्च प्रायो बहना सुप्रतीतंतत एतदर्थप्रतिपत्यर्थमुभयसाधारणं भूयोऽप्येकार्थकद्वयमाह तापयन्ति प्रकाशयन्ति ग्राख्याता इति / -संस्कृतटीका Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रामृत] एगे पुण एवमाहंसु८. ता बावरि दोधे, बावरि समुद्दे दिम-सरिया प्रोभासेंति जाव पगासेंति, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु९. ता बायालीसं दीवसयं, बायालीस समुद्दसयं चंदिम-सरिया ओभासेंति जाव पगासेंति, एगे एवमासुएगे पुण एवमाहंसु१०. ता बावरि दोवसयं बावरि समुद्दसयं चंदिम-सूरिया ओभासेंति, जाव पगासेंति, एगे एवमासु, एगे पुण एवमासु११. ता बायालीसं दीवसहस्सं, बायालीसं समुद्दसहस्सं दिन-सरिया ओभासेंति जाव पगा __ सेंति, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु१२. ता बावत्तरं दीवसहस्सं, बावतरं समुद्दसहस्सं चंदिम-सूरिया ओभाति जाव पगासेंति, एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वयामो ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुदाणं सब्बम्भंतराए सव्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम-विक्खंभे णं तिणि जोयणसयसहस्साई, दोणि य सत्तावीसे जोयणसए, तिणि कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, से णं एगाए जगईए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते साणं जगई अट्ठ-जोयणाई उड्ड उच्चत्तण पण्णत्ता, एवं जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए जाव,' एवामेव सपुव्वावरे गं जंबुद्दीवे चोद्दस सलिलासयसहस्सा छप्पण्णं च सलिलासहस्सा भवतीतिमक्खायं, जंबुद्दीवे णं दोवे पंच चक्कभागसंठिए ? आहिएत्ति वएज्जा, प.–ता कहं जंबुद्दीवे दीवे पंच चक्कभागसंठिए ? आहिए ति वएज्जा, 1. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के प्रथम वक्षस्कार मूत्रांक '4 से पष्ठ वक्षस्कार सूत्रांक 125 पर्यन्त के सभी मूत्रों के पाठ यहाँ समझने की सूचना है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 401 सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र उ.--ता जया णं एए दुवे सरिया सवभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं जंबुद्दोवस्स दोवस्स तिष्णि पंच चक्कभागे ओभासेंति जाव पगासेंति, तं जहा ता एगे वि सरिए एगं दिवड्ढं पंच चक्कभागं ओभासेइ जाव पगासेइ, ता एगे वि सूरिए एग दिवढं पंच चक्कभागं ओभासेइ जाव पगासेइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, ता जया णं एए दुवे सूरिया सवबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं जंबुद्दीवस्त दोवस्स दोणि पंच चक्कभागे ओभासेंति जाव पगासेंति, ता एगे वि सरिए एग पंच चक्कवालभागं ओभासेइ जाव पगासेइ, ता एगे वि सूरिए एगं पंच चक्कवालभाग ओभासेइ जाव पगासेइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवह। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्रामृत सेयाते संठिई प.-ता कहं ते सेआते ' संठिई प्राहिताति वदेज्जा? उ.--तत्थ खलु इमा दुविहा संठिती पण्णत्ता, तं जहा--- १.-चंदिम-सरियसंठिती य / २.-तावक्खेत्तसंठिती य / चंदिम-सूरियसंठिई प.-ता कहं ते चंदिम-सरियसंठितो आहिताति वदेज्जा ? उ.-तत्थ खलु इमाओ सोलस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ। १.-तत्थेगे एवमासु-- ता समचउरंससंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / २.-एगे पुण एवमाहंसु ता विसमचउरंससंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु / ३.-एगे पुण एवमाहंसु -- _____ता समचउक्कोणसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु। ४.--एगे पुण एवमाहंसु... __ता विसमचउक्कोणसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु / ५.--एगे पुण एवमाहंसु ता समचक्कवालसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / 6. एगे पुण एवमाहंसुता विसमचक्कवालसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / 1. वृत्तिकार ने 'श्वेतता' की व्याख्या इस प्रकार की है 'इह श्वेतता चन्द्र-सूर्यविमानानामपि विद्यते, तत्कृततापक्षेत्रस्य च, ततः श्वेततायोगादुभयमपि श्वेतताशब्देनोच्यते / 2. चन्द्र-सूर्य विमानों के संस्थान अन्यत्र कहे गये हैं। अत: चन्द्र-सूर्य विमानों की संस्थिति के सम्बन्ध में प्रश्नकर्ता के अभिप्राय का स्पष्टीकरण वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है'इह चन्द्र-सूर्यविमानानां संस्थानरूपा संस्थितिः प्रागेवाभिहिता तत इह चन्द्र-सूर्यविमान-संस्थितिश्चतुर्णामपि प्रवस्थानरूपा पृष्टा द्रष्टव्या।' Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रशप्तिसूत्र एगे पुण एवमाहंस-- ता चक्कद्धचक्कवालसंठिया बंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / 8. एगे पुण एवमाहंसु ता छतागारसंठिया चंदिम-सरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एक्माहंस / 6. एगे पुण एघमाहंसु ता गेहसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णता, एगे एबमाहंसु / 10. एगे पुण एवमाहंसु__ता गेहावणसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, 11. एगे पुण एवमाहंसु___ता पासायसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, 12. एगे पुण एवमासु ता गोपुरसंठिया चंदिम-सरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, 13. एगे पुण एवमाहंसु ता पेच्छाघरसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, 14. एगे पुण एवमाहंसु ता वलभीसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, 15. एगे पुण एवमाहंसु ता हम्मियतलसंठिया चंदिम-सूरियसंठितो पण्णता, एगे एवमाहंसु, १६.-एगे पुण एवमाहंसु ता बालग्गपोतियासंठिया' चंदिम-सूरियसंठिती पण्णसा, एगे एवमाहंसु / तत्थ जे ते एवमाहंसुता समचउरंस-संठिया चंदिम-सरियसंठिती पण्णता, एएणं गएणं यन्वं णो चेव णं इयरेहि / 1. बालाग्रपोतिका शब्दो देशीशब्दत्वादाकाशतडागमध्ये व्यवस्थितं क्रीडा-स्थानं लघुप्रासादम्। -सूर्य. वृत्ति 2. परतीथिकों की इन सोलह प्रतिपत्तियों में से केवल एक प्रतिपत्ति सूत्रकार की मान्यतानुसार है-इस विषय में वत्तिकार का कथन यह है-- 'तत्थेत्यादि-तत्र तेषां षोडशानां परतीथिकानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहः---समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थिति: प्रज्ञप्ता इति, एतेन नयेन नेतन्यं, एतेनाभिप्रायेणास्मन्मतेऽपि चन्द्र-सूर्यसंस्थितिरवधार्येति भावः, तथाहि----'इह सर्वेऽपि काल विशेषा: सुषमसुषमादयो युगमूलाः / (शेष अगले पृष्ठ पर Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ प्राभृत] सूरियस्स तावक्खेत्तसंठिती प.--ता कहं ते तावक्खेत्तसंठिती? आहिएत्ति वएज्जा। उ.---तत्थ खलु इमाओ सोलस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तत्थ णं-. १.--एगे एवमाहंसु ता गेहसंठिता तावखेससंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / २.-एगे पुण एवमाहंसु गेहावणसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / ३.–एगे पुण एवमाहंसु पासायसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पग्णत्ता, एगे एवमाहंसु / ४.-एगे पुण एवमाहंसु गोपुरसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु / ५.-एगे पुण एवमाहंसु पिच्छाघरसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / ६.-एगे पुण एवमाहंसु बलभीसंठिया ताबक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / ७.---एगे पुण एवमाहंसु-. हम्मियतलसंठिया तावखेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एषमाहंसु / ८.–एगे पुण एवमाहंसु बालग्गपोतियासंठिया तावखेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एबमासु / युगस्य चादौ श्रावणे मासे बहुलपक्षप्रतिपदि प्रातरुदयसमये एकसूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां दिशि वर्तते, तद्वितीयस्त्वपरोत्तरस्यां, चन्द्रमा अपि तत्समये एको दक्षिणापरस्यां दिशि वर्तते, द्वितीय उत्तरपूर्वस्यामत एतेषु युगस्यादौ चन्द्र-सूर्याः समचतुरस्रसंस्थिता वर्तन्ते।। यत्त्वत्र मण्डलकृतं वैषम्यं यथा सूर्यो सर्वाभ्यन्तरमण्डले वर्तते, चन्द्रमसौ सर्वबाह्य, इति तदल्पमितिकृत्वा न विवक्ष्यते। तदेवं यत: सकलकालविशेषाणां सुषमासुषमादिरूपाणामादिभूतस्य युगस्यादौ समचतुरस्रसंस्थिताः सूर्य-चन्द्रमसो भवन्ति, ततस्तेषां संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थानेनोपणिता, अन्यथा वा यथासम्प्रदाय समचतुरस्रसंस्थितिः परिभावनीयेति / नो चेव णं इयरेहिं तिनो चेव' नैव इतर:-शेषनैयैश्चन्द्र-सूर्यसंस्थितितिव्या, तेषां मिथ्यारूपत्वात्, तदेवमुक्ता चन्द्र-सूर्यसंस्थिति: / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्राप्तिसूत्र ६.–एगे पुण एवमाहंसु - अस्संठिए जंबुद्दीवे तस्संठिए तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एमे एवमासु / १०.एगे पुण एवमाहंसु जस्संठिए भारहे वासे तस्संठिए तावक्लेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / ११..-एगे पुण एवमाहंसु-- उज्जाणसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / १२.-एगे पुण एवमाहंसु निज्जाणसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / 13. एगे पुण एवमासु-- एगओ णिसवसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु / १४.---एगे पुण एवमाहंसु दुहओ णिसधसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / १५.---एगे पुण एवमाहंसु सेयणगसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु / १६..-एगे पुण एवमासु-- सेयणगपट्टसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / वयं पुण एवं वदामोता उद्धीमुहकलंबुआपुष्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णता। अंतो संकुचिया, बाहिं वित्थडा। अंतो वट्टा, बाहि पिधुला। अंतो अंकमुहसंठिया, बाहि सस्थियमुहसंठिया 2 तावक्खेत्तसंठिइए दुवे बाहाम्रो उभओ पासेणं तीसे दुवे बाहाओ अवटियाओ' भवंति, पणयालीसं पणयालीस जोयणसहस्साई आयामेणं। 1. अंतर्मनादिशि अंक-पद्यामनोपविष्टस्योत्संगरूप प्रामनबन्ध: तस्य मुखं अग्रभागोद्ध वलयाकारस्तस्येव संस्थित संस्थान यस्य सा। 2. तथा वहिलवणदिशि स्वस्तिकमुखसंस्थिता, स्वस्तिक: सुप्रतीतः तस्य मुखम-अग्रभाग: तस्येवाति विस्तीर्णतया संस्थित संस्थानं यस्या सा। 3. 'य द्वे बाहे ते पायामेन-जम्बुद्वीपगतमायाममाश्रित्यावस्थिते भवतः / ' सूरिय. वृत्ति. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतुर्थ प्राभृत) [45 तोसे दुवे बाहाओ अणवद्विआओ' भवंति, सं जहा-- १.-सव्वभंतरिया चेव बाहा / २.--सव्वबाहिरिया चेव बाहा / प.--तत्थ को हेउ ति? वएज्जा। उ.-- ता अयण्णं जंबुद्दीने दोवे सम्वदीव-समुद्दाणं सम्वन्भंतराए, सव्वखुड्डाए। वट्टे तेल्लापूय-संठाण-संठिए / बट्टे रहचक्कवाल-संठाण-संठिए। वट्टे पुक्खरकणिया-संठाण-संठिए / वट्टे पडिपुण्णचंद-संठाण-संठिए / एग जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं / तिष्णि जोयणसयसहस्साई सोलससहस्साई दोणि य सत्तावीसे जोयणसए, तिणि य कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते / तावक्खेतसंठिइए परिक्खेवो ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तया णं उद्धीमुहकलंबुमापुष्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई प्राहिताति वएज्जा, अंतो संकुडा, बाहि वित्थडा, अंतो वट्टा, बाहिं पि थुला, अंतो अंकमुहसंठिया, बाहिं सस्थियमुहसंठिया, दुहओ पासेणं तोसे तहेव जाव सव्वबाहिरिया चेव बाहा। (क) तीसे णं सम्बन्भंतरिया बाहा = मंदरपब्वयं तेणं णव जोयणसहस्साई चत्तारि य छलसीए जोयणसए णव य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिए त्ति वएज्जा। प.–ता से णं परिक्खेवविसेसे कओ ? आहिए त्ति वएज्जा ? उ.-ताजे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे, तं परिक्खेवं तिहि गुणित्ता, दसहि छित्ता वसहि भागे होरमाणे = एस णं परिक्खेव-विसे से, आहिए ति वएज्जा। 1. 'द्वे च बाहे अनवस्थिते भवतः तद्यथा सर्वाभ्यन्तरा, सर्वबाह्या च / (क) तत्र या मेरुसमीपे विष्कम्भमधिकृत्य वाहा सा सर्वाभ्यन्तरा। (क) या तु लवणदिणि जम्बुद्वीपपर्यन्ते विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्वबाह्यबाहा। . (ग) पायामश्च-दक्षिणायततया प्रतिपत्तव्यो, विष्कम्भः पूर्वापरायततया / Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रनप्तिसूत्र (ख) तोसे णं सम्बबाहिरिया बाहा = लवणसमुदंतेणं, चउणउई गोयणसहस्साई, अटु य अटुसळे जोयणसए, चत्तारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खवेणं, आहिए त्ति वएज्जा।' प.ता से णं परिक्खेव विसेसे को ? पाहिए ति वएज्जा। उ.--ता जे णं जंबुद्दीव-दीवस्स परिवखेथे तं परिक्सवं तिहिं गुणित्ता, दसहि छेत्ता, वसहि भागे होरमाणे = एस गं परिक्खेव-विसेसे, आहिए ति वएज्जा / ' तावखेत्तस्स अंधकारखेत्तस्स य आयामाईणं परवणं प.-ता तोसे णं तावक्खेत्ते केवइयं आयामेणं ? आहिए ति वएज्जा। उ.-ता अट्टतरि जोयणसहस्साई, तिणि य तेतीसे जोयणसए जोयणतिभागे च आयामेणं, आहिए ति बएज्जा। प.-- तया णं किंसंठिया अंधकारसंठिई ? प्राहिय ति वएज्जा। उ.- उद्धीमुह-कलंबुआपुप्फसंठिया तहेव जाव बाहिरिया चेव बाहा। तोसे णं सम्वन्भतरिया बाहा मंदरपब्वयंतेणं छज्जोयणसहस्साई तिणि य बउवीसे जोधणसए छसच सभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं, आहिय त्ति वएज्जा। प.--ता तीसे गं परिक्खेवविसेसे ? आहिए त्ति वएज्जा / उ.-ताजे णं मंदरस्स पब्वयस्स परिक्खेवे गं तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता, इसहि छित्ता वसहि भागे हीरमाणे, एस णं परिक्खेव-विसेसे, आहिए ति वएज्जा। तीसे गं सम्बबाहिरिया बाहा लवणसमुदं तेणं तेवट्टि जोयणसहस्साई वोणि य पणयाले नोयसए छच्च दस मागे जोयणस्स परिक्खेवेणं, आहिए ति वएज्जा / प.--ता से गं परिक्खेवविसेसे कओ? आहिए ति वएज्जा। उ.-ता जे गं जंबद्दीवस्स दीवस्स परिक्खेवे, तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता वसहि छेत्ता दसहि भागेहि हीरमाणे एस गं परिक्खेवविसेसे, आहिए ति वएज्जा। प.–ता से गं अंधकारे केवइयं आयामेणं ? आहिए ति वएज्जा। उ.--ता अटुरि जोयणसहस्साई तिणि य तेत्तीसे जोयणसए जोयणतिभागं च आयामेणं, माहिए ति वएज्जा। तया णं उत्तमकटुपत्ते उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति / रु की परिधि 31,6,23 योजन की है, इसे तीन से गुणा करने पर 94,8,79 योजन हुए, इन के दश का भाग देने पर 9,8,861 लब्ध होते हैं---यह सर्व आभ्यन्तर बाहा की परिधि है। जंबूद्वीप की परिधि 3,16,2,27 योजन तीन कोस 28 धनुष 13 अंगुल तथा प्राधे अंगुल से कुछ माधिक है। इसमें दश का भाग देने पर 94, 8, 68 योजन और एक योजन के दस भागों में से चार भाग जितनी सर्वबाह्य वाहा की परिधि विशेष है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धतुर्थ प्रामृत] [47 जहणिया दुवालसमुहत्ता राई भवइ / प.-"ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं घरह तया णं किसंठिया सावखेत्तसंठिई ? आहिय त्ति वएज्जा। उ.--ता उद्धमुह-कलंबुयापुप्फसंठिया तावरखेत्तसंठिई आहिय ति वएज्जा, एवं जं अग्भिंतरमंडले अंधकारसंठिईए यमाणं तं बाहिरमंडले तावक्खेत्तसंठिईए, जंतहि तावक्खेत्तसंठिईए तं बाहिरमंडले अंधकारसंठिईए भाणियन्वं, जाव तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसेणं अट्ठारसमुहत्ता राई भवति, जहण्णिए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ / सूरियाणं तावखेत्तयमाण-परूवणं प.--ता जंबुद्दीवे वीवे सूरिया केवइयं खेत्तं उ तवंति, केवइयं खेत्तं अहे तवंति, केवइयं खेतं तिरियं तवंति ? उ.--ता जंबुद्दीवे गं दोवे सूरिया एगं जोयणसयं उड्ड तवंति / अट्ठारस जोयणसयाई अहे पतवन्ति / सोयालीसं जोयणसहस्साई दुन्नि य तेवढे जोयणसए एक्कवीसं च सटिभागे जोयणस्स तिरियं तवंति। 00 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम प्राभूत सूरियस्स लेस्सा पडिघायगा पन्वया 26. ता कस्सि णं सूरियस्स लेस्सा पडिया ? आहिय ति वएज्जा। तत्थ खलु इमानो वोसं पडिवत्तीओ पण्णत्तानो, तं जहातत्थेगे एवमाहंसु१. ता मंदरंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु२. ता मेरुसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय ति वएज्जा एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु३. ता मणोरमंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिया, आहिय ति वएज्जा एगे एबमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु४. ता सुदंसणंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय त्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु५. ता सयंपभंसि णं पच्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, प्राहिय त्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु एगे पुण एवमाहंसु 6. ता गिरिरायंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिय ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु-.-- 7. ता रयणुच्चयंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु--- 8. ता सिलुच्चयंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिया, आहिय ति वएज्जा, एगे एवमासु, एगे पुण एवमाहंसु 9. ता लोयममंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, प्राहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम प्राभूत] [49 . एगे पुण एवमाहंसु 10. ता लोगनामिसि गं पब्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिय ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु-- 11. ता अच्छसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिया आयि त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु 12. ता सूरियावत्तंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु 13. ता सूरियावरणंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिय ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु१४. ता उत्तमंसि णं पब्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमासु 15. ता दिसादिसि णं पठनयंति सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु१६. ता अवयंसंसि णं पब्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु-- 17. ता धरणिषीलंसि गं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, आहिय ति वएज्जा, एगे एक्माहंतु, एगे पुण एवमाहंसु 18. ता धरणिसिगंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिय ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु१९. ता पम्वइंदंसि णं पब्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया आहिय त्ति वएज्जा, एगेएवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु 20. ता पव्वयरायसि णं पव्वयंसि सूरियस लेस्सा पडिया आहिय ति वएज्जा, एगे एवमासु, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र वयं पुण एवं क्यामो, जंसि गं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, से ता मंदरे वि पवुच्चइ जाव पन्वयराया वि पच्चइ,' [क] ता जे णं पुग्गला सूरियस्स लेस्स फुसंति ते णं पुग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति, [ख] अदिट्ठा वि णं पुग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति, चरिमलेस्संतरगया वि पुग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति / 1. मंदरस्स णं पब्वयस्स सोलस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा गाहामो-- 1. मंदर 2. मेरू 3. मणोरम 4. सुदंसण 5. सयंपभे य 6. गिरिराया। 7. रयणुच्चय 8. पियदसण 9-10. मज्झे लोगस्स, नाभी य // 1 // 11. अच्छे य 12. सूरियावत्ते 13. सूरियावरणे ति य / 14. उत्तमे य 15. दिसादी य 16. बडेंसेइ य सोलसे // 2 // __ क-सम. स. 16, सु. 3 ख-जंबू. वक्ख. 4, सु. 109 इन दोनों गाथाओं में 'मंदर पर्वत' के सोलह नाम गिनाये हैं, यहाँ इनके अतिरिक्त चार प्रौपमिक नाम और भी हैं। मन्दर पर्वत के इन बीस पर्यायवाची नामों को अन्यान्य मान्यतावाले भिन्न भिन्न पर्वत मानते हैं। किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता ने समवायांग और जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति के अनुसार मन्दर पर्वत के ये बीस पर्यायवाची नाम मानकर सभी अन्य मान्यतामों का 'समन्वय' किया है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा प्राभूत सूरियस्स प्रोयसंठिई प-ता कहं ते ओयसंठिई ? आहिय ति वएज्जा / ' उ-तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा तत्थेगे एवमाहंसु१. ता अणुसमयमेव सूरियस्स प्रोया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एक्माहंसु / एगे पुण एवमाहंसु२. ता अणुमुहत्तमेव सूरियस्त ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु--- 3. ता अणुराइदियमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जह, अण्णा अवेइ एगे एवमाहंसु / एगे गुण एवमाहंसु४. ता अणुपक्खमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु५. ता अणुमासमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-- 6. ता अणुउउमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जा, अण्णा अवेइ एगे एवमासु / एगे पुण एवमाहंसु७. ता अणुअयणमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु८. ता अणुसंवच्छरमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु६. ता अणुजुममेव सूरियस्स ओया अण्णा उच्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एषमाहंसु१०. ता अणुवाससयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु११. ता अणवाससहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेह, एगे एवमाहंसु / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र एगे पुण एवमाहंसु१२. ता अणुवास-सय-सहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु-- 13. ता अणुपुत्वमेव सूरियस्स प्रोया अण्णा उप्पज्जइ अण्णा प्रवेइ, एगे एवमासु / एगे पुण एवमासु१४. ता अणुपुटव-सयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमासु / एगे पुण एवमाहंसु१५. ता अणपुथ्वसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अबेइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-- 16. ता अणुपुन्चसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमासु। एगे पुण एवमाहंसु१७. ता अणुपलिग्रोवममेव सूरियस्स प्रोया अण्णा उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे, एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु१८. ता अणुपलिओवमसयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु१६. ता अपलिओवमसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु२०. ता अणुपलिओवमसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अण्णा प्रवेइ, एगे एवमाहंसु। एगे पुण एवमाहंसु२१. ता अणुसागरोवममेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एमे एवमासु / एगे पुण एवमाहंसु२२. ता अणुसागरोवम-सयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमासु। एगे पुण एबमाहंस२३. ता अणुसागरोवम-सहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जा अण्णा अवेह, एगे एवमाहंसु / Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा प्राभूत एगे पुण एवमाहंसु-- 24. ता अणुसागरोवम-सयसहस्समेव सरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु२५. ता अणुउस्सप्पिणि-ओस प्पिणिमेव सूरियस्स ओया अण्मा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु / ' वयं पुण एवं वयामो-- (क) ता तीसं तीसं मुहुत्ते सूरियस्स ओया अवट्ठिया भवइ तेण परं सूरियस्स ओया अणट्टिया भवइ / (ख) छम्मासे सरिए प्रोयं णिव्वुड्ड। छम्मासे सरिए ओयं अभिवुड्डइ / (ग) निक्खममाणे सूरिए देसं णिन्वुड्डई / पविसमाणे सरिए देसं अभिवुड्ड। प.-तत्थ को हेऊ ? आहिए ति वएज्जा / उ.--ता अयं णं जंबद्दोवे दोवे सव्वदीव-समुद्दाणं सम्वन्भंतराए सव्व खड्डागे व जाव जोयणसयसहस्समायाम-विक्खंभे गं तिणि जोयणसयसहस्साई, दोणि य सत्तावीसे जोयणसए, तिणि कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवे णं पण्णते। 1. ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया मं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहत्ता राई भवइ / 2. से निक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सूरिए अभिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया गं एकाणं राईदिएणं एगं भागं ओयाए दिवसखित्तस्स निबुढित्ता रयणि-खित्तस्स अभिड्ढित्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसेहिं तीसे हि सर्वहिं छेत्ता। तया गं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणे / 1. इन प्रतिपत्तियों से ऐसा प्रतीत होता है कि जैनागमों के अतिरिक्त अन्य दार्शनिक पुराणादि ग्रन्थों में भी प्रौपमिककालवाचक 'पल्योपम-सागरोपम, उत्सपिणी-अवसर्पिणी' आदि शब्दों का प्रयोग था। वर्तमान में भी यदि पूराणादि ग्रन्थों में इन प्रौपमिककाल वाचक शब्दों का कहीं प्रयोग हो तो अन्वेषणशील विद्वान् प्रयत्न करके प्रकाशित करें। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 541 [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र दुवालसमुहुत्ता राई भवइ-दोहि एगठिभागमुहुत्तेहि अहिया। 3. से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अभितराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरह। ता जया गं सूरिए अभितराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया गं दोहि राइदिएहि दो भागे ओयाए दिवस-खेत्तस्स निवृढित्ता, रयणि-खेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता धारं चरइ, मंडलं अट्ठारसेहिं तीसेहिं सएहि छेत्ता। तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहि एगट्ठिभाग मुहुत्तेहिं ऊणे / . दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, चहि एगद्विभागमुहुत्तेहिं अहिया। 4. एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे एगमेगे मंडले, एगमेगेणं राइदिएणं एगमेगं एगमेगं भागं ओयाए दिवस-खेत्तस्स निव्वड्डमाणे निव्वुड्डमाणे रयणि-खेत्तस्स अभिवड्ढेमाणे अभिवड्ढेमाणे सम्बबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। 5. ता जया गं सूरिए सन्धभंतराओ मंडलाओ सम्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं घरह तया णं सम्वन्भंतरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसिएणं राइंदियसएणं एग तेसीयं भागसयं ओयाए दिवसखेत्तस्स निव्वुड्डत्ता रयणि-खेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसेहिं तीसे हिं सहि छेत्ता। तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहत्ते विवसे भवइ। एस णं पढमे छम्मासे, एस गं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे / 1. से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं एगेणं राइदिएणं एग भागं ओयाए रयणिखेत्तस्स निम्बुड्ढेता दिवस-खेत्तस्स अभिवढेत्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसेहि तीसेहिं सएहि छेत्ता। तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहि ऊणा / दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए। 2. से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चर। ता जया गं सूरिए बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं दोहिं राइदिएहि दो भाए ओयाए रयणिखेत्तस्स निव्वुड्ढेत्ता दिवस-खेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसहिं तीसेहिं सहि छेत्ता / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा प्रामृत] [55 तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, चउहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा। दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिए। 3. एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतर मंडलं संकममाणे संकममाणे एगमेगे मंडले एगमगेणं राइदिएणं एगमेगं भाग ओयाए रयणि-खेत्तस्स निव्वुड्ढेमाणे निन्वुड्ढेमाणे दिवस-खेत्तस्स अभिवुड्ढेमाणे अभिवुड्ढेमाणे सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरई। 4. ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरामो मंडलाओ सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सव्वबाहिरं मंडलं पणिहाय एमेणं तेसोएणं राबंदियसएणं एमं तेसीयं भागसयं ओयाए रयणिखेत्तस्स निव्वुड्ढेत्ता दिवस-खेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता चार चरइ, मंडलं अट्ठारसेहि तोसेहिं सहि छेत्ता। तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे। एस णं श्राइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाण / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम प्राभूत सूरियेण पगासिया पव्वया प.- ता कि ते सूरियं वरइ? आहिएत्ति वएज्जा। उ.---तत्थ खलु इमाओ वीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहातत्थेगे एवमाहंसु-.. 1. ता मंदरे णं पव्वए सरियं वरइ, एगे एक्माहंसु / एगे पुण एवमाहंसु२. ता मेरू णं पन्वए सरियं वरइ एगे एवमाहंसु / 3-16. एवं एएणं अभिलावेणं णेयध्वं तहेब जाव / ' एगे पुण एवमाहंसु२०. ता पन्वयराये णं पव्वए सूरियं वरइ, एगे एवमाहंसु / वयं पुण एवं वदामो ता मंदरे णं पव्वए सूरियं वरइ, एवं पि पवुच्चइ तहेव जाव (1-20 सूरिय० पा० 5, सु. 26 को देखें)। ता पव्वयराये गं पब्बए सूरियं वरइ, एवं पि पवुच्चइ / (क) ताजे गं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पुग्गला सूरियं वरयंति / (ख) अदिट्ठा वि णं पोग्गला सूरियं वरयंति / (ग) चरिमलेस्संतरगया वि गं पोग्गला सूरियं वरयति / 1. 'सूरियस्स लेस्सा पडिधायगा पन्वया' इस शीर्षक के अन्तर्गत सूर्य. प्रा. 5, सु. 26 में बीस प्रतिपत्तियों के अनुसार सूर्य की लेश्या को प्रतिहत करने वाले बीस पर्वतों के नाम गिनाये हैं। यहाँ भी उसी के अनुसार मूल-पाठ के सभी आलापक कहने चाहिए। 2. ऊपर के टिप्पण में सूचित शीर्षक के अन्तर्गत मर्य. पा. 5, सु. 26 के अनुसार सूर्यप्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता ने यहाँ भी मंदर पर्वत के बीस नामों को पर्यायवाची मानकर समन्वय कर लिया है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3bਟਸ ai सूरस्स उदय-संठिई प.-ता कहं ते उदयसंठिई आहिया ? ति वएज्जा। उ.-तत्थ खलु इमाओ तिणि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. तत्थेगे एवमासु (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दोवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ / जया उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवह। (ख) ता जया णं जंबुद्दोवे दोबे दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ / जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ। (ग) ता जया णं जंबुद्दीवे दोवे दाहिणड्ढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि सोलसमुहत्ते दिवसे भवइ / जया णं उत्तरड्ढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि सोलसमुहत्ते दिवसे भवइ / (घ) ता जया णं जंबुद्दोवे दोवे दाहिणड्ढे पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्डेऽवि पण्णरसमुहत्ते दिवसे भव। __ जया णं उत्तरड्डे पग्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्डऽवि पण्णरसमुहत्ते दिवसे भवह। (ङ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ड चउद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्डेऽवि चउद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ / जया णं उत्तरड्ढे चउद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि चोद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ / (च) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे तेरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तर ड्ढेऽवि तेरसमुहत्ते दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ढे तेरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि तेरसमुहुत्ते दिवसे, भवइ / (छ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिगड्डे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि बारसमुहत्ते दिवसे भवइ / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र जया गं उत्तरड्ड बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्डेऽवि बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ। (ज) तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिम-पच्चत्थिमे णं सया पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सया पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, अष्ट्रिया णं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता, समणाउसो ! एगे एवमासु। 2. एगे पुण एवमाहंसु (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया गं उत्तरड्डऽवि अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ / जया णं उत्तरड्डे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्डवि अट्ठारसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ / (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे सत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया गं उत्तरले वि सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ / जया णं उत्तरड्डे सत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्डेऽवि सत्तरसमुहत्ताणंतरे दिवसे भव। [ग] ता जया णं जंबुद्दीवे दोवे दाहिणड्ड सोलसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया गं उत्तरड्डऽवि सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ / जया णं उत्तरड्डे सोलसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्वेऽवि सोलसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ। [5] ता जया णं जंबुद्दीवे वीवे वाहिणड्ढे पण्णरसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ / जया णं उत्तरड्ढे पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ। [3] ता जया णं जंबुद्दीवे दोबे दाहिणड्ढे चोद्दसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि चोद्दसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ / जया णं उत्तरउढे चोद्दसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि चोहसमुहत्ताणंतरे दिवसे भव। [च] ता जया णं जंबुद्दीवे दोवे दाहिणड्ढे तेरसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरडेवि तेरसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ / Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम प्राभत] . जया णं उत्तरड्ढे तेरसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि तेरसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ। [छ] ता जया णं जंबुद्दीवे दोवे दाहिगड्ढे बारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया गं उत्तरड्ढेऽवि बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ / जया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया में दाहिणड्ढेऽवि बारसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ / [ज] तया णं जंबद्दोवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिम-पच्चत्थिमे णं णो सया पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, णो सया पण्णरसमुहत्ता राई भवइ, प्रणव ट्ठिया णं तत्थ राईदिया पण्णत्ता, समणाउसो ! एगे एवमासु / 3. एगे पुण एवमासु [क] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / / जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारस मुहत्ता राई भवइ / [ख] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ / जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहत्ता राई भवइ। [क] ता जया णं जंबुद्दीवे दोवे दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / जया णं उत्तरढे सत्तरसमुहत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढे बारममुहत्ता राई भवइ / [ख] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ / जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भव। [क] ता जया गं जंबुद्दीने वीवे दाहिणड्ढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / जया णं उत्तरड्ढे सोलप्तमुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ / Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र [ख] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सोलसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / जया णं उत्तरड्ढे सोलसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भव। [क] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे पण्णरसमुहत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड ढे दुवालसमुहत्ता राई भवइ / जया णं उत्तरड ढे पण्णरसमुहत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड ढे बारसमुहत्ता राई भवइ / [ख] ता जया णं जंबुद्दीवे दोवे दाहिणड ढे पण्णरसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड ढे दुवालसमुहत्ता राई भवइ / जया णं उत्तरडले पण्णरसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणडले बारस मुहत्ता राई [क] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड ढे चोहसमुहत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / जया णं उत्तरड ढे चोद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहत्ता राई भवइ / [ख] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे बाहिणड ढे चोद्दसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरले दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / जया णं उत्तरड्ढे चोहसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहत्ता राई भवह। [क] ता जया णं जंबुद्दीवे दोवे दाहिणडढे तेरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया गं उत्तरा ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / जया णं उत्तरड ढे तेरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ / [ख] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड ढे तेरसमुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तया गं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। जया णं उत्तरड ढे तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड ढे बारसमहत्ता राई भवह। [क] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड ढे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। जया णं उत्तरड ढे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ / [ख] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड ढे बारसमुहत्ताणतरे दिवसे भबइ, तया गं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [61 अष्टम प्राभूत] . जया णं उत्तरड्डे बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्डे बारसमुहुत्ता राई भबइ। तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपच्चत्थिमे णं वत्थि पग्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, गेवत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ / वोच्छिण्णा णं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता, समणाउसो ! एगे एवमाहंसु / वयं पुण एवं वयामो ता जंबुद्दीवे दोबे सूरिया उदीण-पाईणमुग्गच्छंति, पाईण-दाहिणमागच्छंति / पाईण-दाहिणमुग्गच्छंति, दाहिण-पडोणमागच्छंति / बाहिण-पडोणमग्गच्छंति, पडीण-उवीणमागच्छंति / पडोण-उदोणमुग्गच्छंति, उदीण-पाईणमागच्छंति / / [क] ता जया गं जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ड दिवसे भवइ, तया गं उत्तरड्डऽवि दिवसे भवइ। जया णं उत्तरड्ड दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स पुरथिम-पच्चिस्थिमे णं राई भवइ। [ख] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पुरथिमे णं दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमेऽवि दिवसे भवइ / जया णं पच्चत्थिमे णं दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरवाहिणे णं राई भवइ / [क] ता जया णं जंलुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स दाहिणड्ढे उक्कोसए अटारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्डे उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ / जया णं उत्तर उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीये दीवे मंदरस्स पन्वयस्स पुरस्थिम-पच्चत्थिमे णं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / 1. प. जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया ? उदीणपाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिणमागच्छंति ? पाईणदाहिणमुग्गच्छ दाहिणपडीमागच्छंति ? दाहिणपडीणमुग्गच्छ पडीणउदीणमागच्छंति ? पडीणउदीणमुग्गच्छ उनीणपाईणमागच्छंति ? हंता गोयमा ! जहा पंचममा पढमे उसे जाव बत्थि उस्सप्पिणी प्रवट्रिए णं तत्थ काले पं. समणाउसो! --भग. स. 5, उ.१ सु. 5 (क) जंबु. वक्ख. 7, सु. 150 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र [ख] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पुरस्थिमे णं उक्कोसए अट्ठारसमहत्ते दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमेऽवि उक्कोसए अद्वारसमहुत्ते दिवसे भवइ।। जया णं पच्चत्थिमे णं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणे णं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / एवं एएण गमेणं णेयत्वं अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसेसाइरेग-दुवालस-मुहुत्ता राई। सत्तरस-मुहुत्ते दिवसेतेरस-मुहुत्ता राई। सत्तरस-मुहत्ताणंतरे दिवसेसाइरेग-तेरस-मुहुत्ता राई। सोलस-मुहुत्ते दिवसे-- चोद्दस-मुहुत्ता राई। सोलस-मुहुत्ताणंतरे दिवसेसाइरेग-चोहस-मुहुत्ता राई। पण्णरस-मुहुत्ते दिवसेपण्णरस-महत्ता राई। पण्णरस-महत्ताणंतरे दिवसे--- साइरेग-पण्णरस-मुहुत्ता राई। चोड्स-महत्ते दिवसेसोलस-मुहुत्ता राई। चोद्दस-महत्ताणतरे दिवसे-- साइरेग-सोलस-मुहुत्ता राई / तेरस-मुहुत्ते दिवसेसत्तरस-मुहुत्ता राई। तेरस-मुहुत्ताणतरे दिवसे-- साइरेग-सत्तरस-मुहुत्ता राई / जहण्णए दुवालस-महत्ते दिवसे भवइ---- उक्कोसिया अट्ठारस-महत्ता राई भवइ एवं भाणियन्वं / ' 1. भग. श. 5, उ. 1, सु. 5-13 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम प्रामृत] वासाउउ [क] ता जया णं जंबुद्दीवे वीवे मंदरस्स पब्बयस्स दाहिणड ढ वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड ऽवि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ / जया णं उत्तरड ढ वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिम-पच्चत्थिमे णं अणंतर-पुरक्खड-काल-समयंसि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ / [ख] ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं पच्चत्थिमेऽवि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ / जया णं पच्चस्थिमे णं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दोवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्म उत्तर-दाहिणे णं अणंतरपच्छाकय-काल-समयंसि वासाणं पढमे समए पडिवन्ने भवइ / जहा समओ तहा 1. आवलिया, 2. आणापाण, 3. थेवे, 4. लवे, 5. मुहुत्ते, 6. अहोरत्ते 7. पक्खे, 8. मासे, एए अट्ठ आलावगा, जहा वासाणं तहा भाणियन्वा / / हेमत उउ (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणड्ढे हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं उत्तरढेऽवि हेमंतागं पढमे समए पडिवज्जइ / / जया णं उत्तर ड्ढे हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स पुरस्थिम-पच्चत्थिमे णं अणंतर-पुरक्खड-काल-समयंसि हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ / (ख) ता जया जं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमे णं हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जह, तया णं पच्चत्थिमेऽवि हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ। जया णं पच्चस्थिमे णं हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं अणंतर-पच्छाकड-काल-समयंसि हेमंताणं पढमे समए' पडिवज्जइ / जहा समओ तहा 1. आवलिया, 2. प्राणापाण, 3. थोवे, 4. लवे, 5. मुहुत्ते, 6. अहोरत्ते, 7. पक्खे, 8. मासे, एए अट पालावगा. जहा द्वेमंताणं तहा भाणियवा। 1. ऊपर सूत्र में पढमे समए' आठ स्थानों पर 'रेखांकित' हैं उन स्थानों में नीचे लिखे पालापक कहें, और प्रत्येक पालापक के दो दो सूत्र ऊपर के समान कहें-- 1. पढमा प्रावलिया, 2. पढमो प्राणापाण, 3. पढमे थोवे, 4. पढमे लवे, 5. पढमे महत्ते, 6. पढमे अहोरत्ते, 7. पढमे पक्खे, 8. पढमे मासे / 2. ऊपर सूत्र में 'पढमे समए' पाठ स्थानों पर है उन स्थानों पर नीचे लिखे पालाषक कहें, और प्रत्येक मालापक के ऊपर के समान दो दो सूत्र कहें१. पढमा प्रावलिया, 2. पढमो प्राणापाण, 3. पढमे थोवे, 4. पढमे लवे, 5. पढमे मुहत्ते, 6. पढमे अहोरत्ते, 7. पढमे पक्खे, 8. पढमे मासे / Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्राप्तिसूत्र गिम्ह उउ (क) ता जया णं जंबुद्दोवे दोवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणड्ढे गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं उत्तरढेऽवि गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ। जया णं उत्तर गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिम-पच्चस्थिमे णं अणंतर-पुरक्खड-काल-समयंसि गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ / (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्धयस्स पुरथिमे णं गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं पच्चस्थिमेऽवि गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ, जया पच्चस्थिमे णं गिम्हाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स उत्तर-वाहिणे णं अणंतर-पच्छाकड काल-समयंसि गिम्हाणं पढमे समए' पडिवज्जइ / जहा समओ तहा 1. आवलिया, 2. आणापाण, 3. थोवे, 4. लवे, 5. मुहुत्ते, 6. अहोरत्ते, 7. पक्खे, 8. मासे, एए अट्ठ आलावगा, जहा गिम्हाणं तहा भाणियन्वा / अयणाइ (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दौवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ढे पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि पढमे अयणे पडिवज्जइ / जया णं उत्तरड्ढे पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं दाहिणड्ढेऽवि पढमे अयणे पडिवज्जइ / जया णं उत्तरड्ढे पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया गं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स पुरस्थिमपच्चस्थिमे णं अणंतर-पुरक्खड-काल-समयंसि पढमे अयणे पडिवज्जइ / (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स फव्वयस्स पुरथिमे गं पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं पच्चत्थिमेऽवि पढमे अयणे पडियज्जइ। जया णं पच्चस्थिमे णं पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं पुरत्थिमेऽवि पढमे अयणे पडिवज्जइ / जया णं पञ्चस्थिमे णं पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणे णं अणंतर-पच्छाकड-काल-समयंसि पढमे अयणे पडिवज्जइ / जहा पढमस्स अयणस्स आलावगो तहा दोच्चस्स अयणस्स भाणियन्यो। जहा अयणे तहा संवच्छरे, जुगे, वाससए, वाससहस्से, वास-सयसहस्से, पुन्वगे, पुठवे, जाव सीसपहेलिया पलिओवमे सागरोवमे य / ऊपर सूत्र में "पढमे समए" आठ स्थानों पर है, उन स्थानों पर नीचे लिखे पालापक कहें और प्रत्येक पालापक के ऊपर के समान दो दो सुत्र कहें। 1. पढमा प्रावलिया, 2. पढमो प्राणापाण, 3. पढमे थोवे, 4. पढमे लवे, 5. पढमे मुहत्ते, 6. पढमे अहोरते, 7. पढमे पक्खे, 8. पढमे मासे। 2. जहाँ जहाँ "पढमे अयणे" है, वहां वहां "दीच्चे प्रयणे" कहें। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम प्राभूत] 65 उस्सप्पिणी ता जया णं जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पन्वयस्स दाहिणड्डे उस्सप्पिणी पडिवज्जइ, तया णं उत्तरऽवि उस्सप्पिणी पडिवज्जइ / जया णं उत्तरड्डे उस्सप्पिणी पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स फव्वयस्स पुरथिमपच्चस्थिमे णं णेवस्थि उस्सप्पिणी वस्थि ओसप्पिणी अवदिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो ! एवं ओसप्पिणी। लवरणसमुद्दो ता जया णं लवणे समुद्दे दाहिणड्डे दिवसे भवइ, तया णं लवणे समुद्दे उत्तररड्डेऽवि दिवसे भवइ, जया णं लवणे समुद्दे उत्तरड्डे दिवसे भवइ, तया गं लवणे समुद्दे पुरथिम-पच्चत्थिमे णं राई भवइ। सेसं जहा जंबुद्दोवे दीवे तहेव जाव ओसप्पिणी। धायइखंडो ता धायइखंडे गं दीवे सूरिया उदीण-पाईणमुग्गच्छंति, पाईण-दाहिणमागच्छंति, 1. (क) ऊपर जहां जहां "उस्सप्पिणी' है वहां वहां "प्रोसप्पिणी" कहें / 2. "जच्चेव जंबुद्दीवस्स क्त्तव्बता भणिता, सच्चेव सव्वा अपरिसे सिता लवणसमुदस्स वि भाणितव्वा" / नवर---इमेणं अभिलावेणं सब्वे आलावगा भाणितव्वा / प. (क) लवणे णं भंते ! समुद्दे सूरिया उदीण-पादोणमुगच्छ पादोण-दाहिणमागच्छति ? (ख) पादीण-दाहिणमुग्गच्छ दाहिण-पादीणमागच्छति ? (ग) दाहिण-पादीणमुग्गच्छ पादीण-उदोणमागच्छंति ? (घ) पादीण-उदीणमुम्गच्छ उदीण-पादीणमागच्छति ? उ. (क-घ) हता गोयमा ! लवणे णं समुद्दे मूरिया--- उदीण-पादीणमुम्गच्छ पादीण-दाहिण मागच्छंति, जाव पादीण-उदोणमुग्गच्छ उदोण-पादीणमागच्छति / एतेणं अभिलावणं णेतव्वं-जाव प. (क) जदा गं भंते ! लवणसमुद्दे दाहिणड्ढे पढमा उस्सप्पिणी पडिवज्जति तदा ण उत्तरड्ढे वि पढमा उस्सप्पिणी पडिवज्जति ? (ख) जदा णं उत्तर पढमा उस्मप्पिणी पडिवज्जति, तदा णं लवणसमुद्दे पुरथिमपच्चत्थिमे णं नेवत्थि प्रोसप्पिणी, नेवत्थि उस्सप्पिणी ? अवट्रिते ण तत्थ काले पण्णते ? उ. हंता गोयमा! तं चेव उच्चारेयव्वं जाव समणाउसो ! भग. स. 5, उ. 1, सु. 22 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र जाव पडीण-उदोणमुग्गच्छंति, उदीण-पाईणमागच्छंति, ता जया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि दिवसे भवइ, जया णं उत्तरउढे दिवसे भवइ, तया णं धायइसंडे दोवे मंदराणं पन्क्याणं पुरथिम-पच्चत्थिमे ण राई भवति, सेसं जहा जंबद्दीवे दीवे तहेव जाव ओस प्पिणी, कालोए णं समुद्दे जहा लवणे समुद्दे / अभंतरपुक्खरद्धो ता अभंतर-पुक्खरद्धे णं दीवे सूरियाउदीण-पाईणमुग्गच्छंति, पाईण-दाहिणमागच्छंति, जाव पडीण-उदीणमुग्गच्छंति, उदीण-पाईणमागच्छंति, ता जया णं अन्भंतर-पुक्खरद्धे मंदराणं पव्वयाणं दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे दिवसे भवइ, तया णं अभितरपुक्खरद्धे मंदराणं पब्वयाणं पुरथिमपच्चस्थिमे णं राई भवइ, सेसं जहा जंबुद्दीवे दीवे तहेव जाव प्रोसप्पिणी। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਗੇਟਸ alਰ पोरिसिच्छाय-निव्वत्तणं३०. प. ता कइकट्ठे ते सूरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेति ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. तत्थ खलु इमानो तिण्णि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहातत्थेगे एवमाहंसुः 1. ता जे गं पोग्गला सरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पोग्गला संतप्पति, ते गं पोग्गला संतप्पमाणा तदणंतराई बाहिराई पोग्गलाई संतावेतीति, एस णं से समिए तावक्खेत्ते एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु 2. ताजे गं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पोगला नो संतप्पंति, ते णं पोग्गला असंतप्पमाणा तदणंराई बाहिराई पोग्गलाई णो संतातीति, एस णं से समिए तावक्खेत्ते, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंस 3. ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पोग्गला अत्थेगइया संतप्यंति, अत्थेगइया नो संतप्पंति, तत्थ अत्थेगइया संतप्पमाणा तदणंतराई बाहिराई पोग्गलाई अत्थेगयाई संताति, अत्थेगयाई नो संतावेंतीति. एस णं से समिए तावखेत्ते, एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वयामो: ता जाओ इमाओ चंदिम-सूरियाणं देवाणं विमाणेहितो लेसाओ बहित्ता उच्छुढा अभिणिसट्ठाओ पताति, एयासि णं लेसाणं अंतरेसु अण्णयरीओ छिण्णलेसाओ संमुच्छंति, तए णं ताओं छिण्णलेस्साओ संमुच्छियाओ समाणीओ तदणंतराई बाहिराइं पोग्गलाई संतातीति, एस णं से समिए तावक्खेत्ते / पोरिसिच्छाय-निवत्तण:३१. प. ता कइकट्ठ ते सूरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेति ? आहिए ति वएज्जा / उ. तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णताओ तंजहाः Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र तत्थेगे एवमाहंसु१. ता अणुसमयमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिव्वत्तेइ, आहिए ति वएज्जा, एगे एक्माहंसु, एगे पुण एवमाहंसु२. ता अणुमुहुत्तमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेइ, आहिए त्ति वएज्जा, जाओ चेव ओयसंठिईए पडिवत्तीओ एएणं अभिलावणं णेयवाओ, जाव' [3.24] एगे पुण एवमाहंसु 25. ता अणुउस्स प्पिणि-प्रोसप्पिणिमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेइ आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वयामो:ता सूरियस्स णं१. उच्चत्तं च लेसं च पडुच्च छायुद्देसे, 2. उच्चत्तं च छायं च पडुच्च लेसुद्देसे, 3. लेस्सं च छायं च पडुच्च उच्चत्तोद्देसे प.....................२ उ. तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-- तत्थेगे एवमाहंसु(क) 1. ता अत्यि णं से दिवसे जंसि गं दिवसंसि सूरिए चउपोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, (ख) अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु एगे पुण एवमाहंसु(क) 2. ता अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, (ख) अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए नो किचि पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, 1. सूरिए. पा. 6. सु. 27 2. सूर्यप्रज्ञप्ति की संकलनशैली के अनुसार यहां प्रश्नसूत्र होना चाहिए था, किन्तु यहां प्रश्नसूत्र प्रा. स. यादि किसो प्रति में नहीं है, अत: यहां का प्रश्नसूत्र विच्छिन्न हो गया है, ऐसा मान लेना ही उचित है। सूर्यप्रज्ञप्ति के टीकाकार भी यहां प्रश्न-सूत्र के होने न होने के सम्बन्ध में सर्वथा मौन है, अत: यहां प्रश्न-नूत्र का स्थान रिक्त रखा है। यदि कहीं किसी प्रति में प्रश्न-सूत्र हो तो स्वाध्यायशील प्रागमज्ञ सूचित करने की कृपा करें, जिससे द्वितीय संस्करण में परिवर्धन किया जा सके / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम प्राभूत] तत्थ जे ते एबमाहंसु(क) 1. ता अत्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए चउ-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, (ख) अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, ते एवमासु, (क) ता जया णं सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसिए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालस-मुहत्ता राई भवइ / तंसि च णं दिवसंसि सूरिए चउ-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, तं जहा-उग्गमण-मुहत्तंसि य, अत्थमण-मुहुत्तसि य, लेसं अभिवड्ढेमाणे नो चेव णं निव्वुड्ढेमाणे / [ख] ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालस-मुहुत्ते दिवसे भवइ, तंसि च णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, तं जहा-उग्गमण-मुहुत्तंसि य, अस्थमणमुहुतंसि य, लेसं अभिवड्ढेमाणे नो चेव णं निव्वुड्ढेमाणे / तत्थ णं जे ते एवमाहंस२. ता अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए नो किचि पोरिसिच्छायं निध्वत्तेइ, ते एवमाहंसु, [क] ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसिए अट्ठारस-मुहत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालस-मुहत्ता राई भवइ, तंसि च णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, तं जहा~-उग्गमण-मुहुत्तंसि य, अस्थमण-मुहत्तंसि य, लेसं अभिवड्ढेमाणे, नो चेव गं निन्वुड्ढेमाणे, [ख] ता जया णं सूरिए सवबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया गं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारस-मुहत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालस-मुहुत्ते दिवसे भवइ, तंसि च णं दिवसंसि सूरिए नो किचि पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, तं जहा-उग्गमण-मुहुरासि य, अस्थमण-मुहत्तंसि य, ___नो चेव णं लेसं अभिवड्ढेमाणे वा, निव्वुड्ढेमाणे वा / ' 1. इसके अनन्तर यहाँ स्वमतसूचक 'वयं पुण एवं व्यामो' यह वाक्य नहीं है और न स्वमत का कथन ही है। 'तदेव परतीथिक-प्रतिपत्तिद्वयं श्रुत्वा भगवान गौतमः स्वमतं पृच्छति, ता कइ कट्ठमित्यादि' -सूर्य. टीका टीकाकार का यह कथन सूर्य प्रज्ञप्ति की संकलनशैली के अनुरूप नहीं है क्योंकि प्रतिपत्तियों के कथन के अनन्तर 'वयं पुण एवं वयामो' इस वाक्य से हो सर्वत्र स्वमत का प्रतिपादन किया गया है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र प. ता कइकट्ठ ते सरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ ? आहिए त्ति वएज्जा / उ. तत्थ इमाओ छण्णउइ पडिवत्तीओ पथ्णत्तानो, तं जहातत्थेगे एवमाहंसु१. ता अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए एगपोरिसीयं छायं निम्वत्तेइ,' एगे एवमाहंस, एगे पुण एवमाहंस--- 2. ता अस्थि णं से देसे जंसि णं देससि सूरिए दु-पोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु, एवं एएणं अमिलावणं यन्वं, जाव (3-65) एगे पुण एवमाहंसु ६६-ता अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए छण्णउइ पोरिसीयं छायं निम्वत्तेइ, एगे एवमासु, तत्थ जे ते एवमाहंस-- 1. ता अस्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए एग-पोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ ति' ते एवमासु, ता सूरियस्स णं सव्वहेट्ठिमाओ सूर-प्पडिहीओ बहिता अभिणिसट्टाहि लेसाहिं ताडिज्जमाणीहि इमोसे रयणप्पभाए पुढवोए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ जावइयं सूरिए उड्ड उच्चत्तेणं, एवइयाए एगाए अद्धाए, एगेणं छायाणुमाणप्पमाणेणं उमाए, तत्थ से सूरिए एगपोरिसीयं छायं निम्वत्तेइ त्ति, तत्य जे ते एवमासु२. ता अस्थि णं से देसे, जंसि गं देसंसि सूरिए दु-पोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ 'त्ति' ते एवमाहंसु, ता सूरियस्स णं सन्चहे द्विमाओ सूर-प्पडिहीओ बहित्ता अभिणिसट्टाहि लेसाहिं ताडिज्जमाणोहि, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ जावइयं सूरिए उड्ढे उच्चत्तेणं, एवइयाई दोहि अाहि दोहिं छायाणुमाणप्पमाणेहिं उमाए, एत्थ णं से सूरिए दुपोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ त्ति, ३.९५---एवं एएणं अभिलावेणं णेयध्वं, जाव.... तत्थ जे ते एवमाहंसु--- ९६-'ता अत्थि णं से देसे जंसि गं देसंसि सूरिए छण्णउई पोरिसीयं छायं निम्वत्तेइ ति ते एवमाहंसु, 1. तत्र-तेषां षण्णवते: परतीथिकानां मध्ये, एके एवमाहुः 'ता' इति पूर्ववत् अस्ति स देशो, यस्मिन् देशे सूर्यः पागतःसन् एकपौरुषी-एकपुरुषप्रमाणां (पुरुषग्रहणमुपलक्षणं सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनः स्व-प्रमाणां) छायां निवर्तयति / ---सूर्य . टीका. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम प्राभूत [71 __ता सूरियस्स णं सव्वहिटिमाओ सूरप्पडिहीओ बहिता अभिणिसट्टाहि लेसाहिं ताडिज्जमागोहिं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ जावइयं सूरिए उड्ढे उच्चत्तेणं, एवइयाई छण्णउईए छायाणुमाणप्पमाहि उमाए, एस्थ णं से सूरिए छण्ण उई पोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ ति, वयं पुण एवं वयामो ता साइरेग-अउणट्ठि-पोरिसीणं सूरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ ति / पोरिसिच्छाय-प्पमाणं 5. ता अवद्ध-पोरिसी णं छाया दिवसस्स कि गए वा सेसे वा? उ. ता ति-भागे गए वा सेसे वा। प. ता अउणसद्धिपोरिसी गं छाया दिवसस्स कि गए वा सेसे वा ? उ. ता बावीससहस्सभागे गए वा सेसे वा / प. ता पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा? उ. ता चउभागे गए वा सेसे वा,' प. ता दिवड्ढ-पोरिसी गं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? उ. ता पंचभागे गए वा, सेसे वा। प. ता बि-पोरिसी णं छाया दिवसस्स कि गए वा सेसे वा? उ. ता छन्भागगए वा, सेसे वा। प. ता अड्ढाइज्ज-पोरिसी णं छाया दिवसस्स कि गए वा सेसे वा ? उ. ता सत्तभागगए वा, सेसे वा। एवं अवठ्ठपोरिसिं छोढ़ छोढुपुच्छा ,' दिवसभागं छोढुं छोदुवागरणं जाव.... 1. पौरुषी की परिभाषा--- "पुरिस ति, संकु, पूरिस-सरीरं वा, ततो पूरिसे निप्फन्ना पारिसी, एवं सव्वस्स वत्थुणो यदा स्वप्रमाणा छाया भवति, तदा हवइ, एवं पोरिसि-प्रमाणं उत्तरायणस्स अंते, दक्षिणायणस्स आईए इक्कं दिणं भवइ, अतो पर अद्ध एगसट्ठिभागा अंगुलस्स दक्खिणायणे वड्ढंति, उत्तरायणे हस्संति, एवं मंडले मंडले अन्ना पोरिसो" 'यह पौरुषी की परिभाषा सूर्य-प्रज्ञप्ति की टीका में नन्दिणि से उद्धत है।' चणि की भाषा संस्कृत-मिश्रित प्राकृत होती है, अतः ऊपर अंकित चूर्णि-पाठ अशुद्ध नहीं है। 2. एवमित्यादि-एवमुक्तेन प्रकारेण 'अर्द्धपौरुषो' अर्द्धपुरुषप्रमाणां छाया क्षिप्त्वा, क्षिप्त्वा पच्छा पच्छासूत्र द्रष्टव्यं / -सूर्य. टीका. 3. "दिवसभागं" ति, पूर्व-पूर्वसूत्रापेक्षया एकैकमधिकं दिवसभामं क्षिप्त्वा क्षिप्त्वा व्याकरण, उत्तरसूत्र ज्ञातव्यम् / ---सूर्य. टीका Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र प. ता अउणसट्ठि-पोरिसी णं छाया दिवसस्स कि गए वा, सेसे वा ? उ. ता एगूणवीस-सय-भागे गए वा, सेसे वा। प. ता अउणसठिपोरिसो णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा? उ. ता वावीसहस्सभागे गए वा सेसे वा। प. ता साइरेग-अउणसट्ठि-पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा ? उ. ता नस्थि किचि गए वा, सेसे वा।' तत्थ खलु इमा पणवीसविहा छाया पण्णत्ता, तंजहा 1. खंभ-छाया 2. रज्जु-छाया 3. पागार-छाया 4. पासाय-छाया 5. उग्गम छाया 6. उच्चत्तछाया 7. अणुलोम-छाया 8. पडिलोम-छाया है. आरंभिया-छाया 10. उवहया-छाया 11. समा-छाया 12. पडिहया-छाया 13. खील-छाया 14. पक्ख-छाया 15. पुरओउदया-छाया 16. पुरिम कंठभागुवगया-छाया 17. पच्छिम-कंठ-भागुवगया-छाया 18. छायाणुवाइणी-छाया 16. किटाणुवाइणीछाया 20. छाय-छाया 21. विक्कप्प-छाया 22. वेहास-छाया 23. कड-छाया 24. गोल-छाया 25. पिटुमोदग्गा-छाया। 1. यहाँ अंकित प्रश्नोत्तर यहाँ दी गई संक्षिप्त वाचना की सूचनानुसार संशोधित है। सूर्यप्रज्ञप्ति की '1 प्रा. स. / 2 शा. स.। 3 अ. सु. / 4 ह. न.' इन चारों प्रतियों में दिये गये प्रश्नोत्तर यहाँ दी गई संक्षिप्त वाचना की सचना से कितने विपरीत हैं ? यह निर्णय पाठक स्वयं करें। प. 'ता अद्धअउणसट्ठि पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा ? त. ता एगणवीससयभागे गए वा, सेसे वा / प. ता अउणसट्ठि पोरिसी गं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा? उ. ता वावीस-सहस्स भागे गए वा, सेसे वा। प. ता साइरेग-अउणसट्ठि-पोरिसी णं छाया दिवमस्स कि गए वा, सेसे वा ? उ. ता नत्थि किंचि गए वा, सेसे वा / (क) यहाँ इन प्रश्नोत्तरों में व्यतिक्रम हो गया प्रतीत होता है। सर्वप्रथम साढे गुनसठ पौरुषी छाया का प्रश्नोत्तर है / द्वितीय प्रश्नोत्तर गुनसठ पौरुषी छाया का है / तृतीय प्रश्नोत्तर कुछ अधिक मुनसठ पौरुषी छाया का है। (ख) यहाँ प्रश्नों के अनुरूप उत्तर भी नहीं है। प्रथम प्रश्नोत्तर में—“साढे गुनसठ पौरुषी छाया, एक सो उन्नीस दिवस भाग से निष्पन्न होती है। ऐसा माना है किन्तु संक्षिप्तवाचना पाठ के सुचनानुसार एक सौ बीस दिवस से निष्पन्न होती है। द्वितीय प्रश्नोत्तर में-गुनसठ पौरुषी छाया की निप्पत्ति वावीस हजार दिवस भाग से होती हैऐसा माना है, किन्तु यह मानना सर्वथा असंगत है, क्योंकि संक्षिप्त वाचना के सूचनापाठ को टीका में एक एक दिवस भाग बढ़ाने का ही सूचन है। ततीय प्रश्नोत्तर में—प्रश्न ही असंगत है, क्योंकि संक्षिप्त वाचना के सूचनापाठ में अर्द्ध पौरुषी छाया से संबंधित प्रश्न हो तो यहां कहा गया उत्तरसूत्र यथार्थ है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम प्राभृत] तत्थ गं गोल-छाया अट्टविहा पण्णत्ता, तं जहा 1. गोल-छाया 2. अवत-गोल-छाया 3. गाढ-गोल-छाया 4. अव-गाढ-गोल-छाया 5. गोलावलि-छाया 6. अवड्ड-गोलावलि-छाया 7. गोलपुंज-छाया 8. अवड्ड-गोल-पुज-छाया।' 00 1. प्रस्तुत सूत्र में छाया के पच्चीस प्रकार तथा गोल छाया के आठ प्रकार का कथन है। 'तत्थेत्यादि, तत्रतासा पंचविशति-छायानां मध्ये खल्वियं गोल-छाया अष्टविधा प्रज्ञप्ता / ' सूर्य-प्रज्ञप्ति की टीका के इस कथन से प्रतीत होता है कि छाया के पच्चीस प्रकारों में 'गोल-छाया' का नाम था और उसके पाठ प्रकार भिन्न थे, किन्तु सूर्यप्रज्ञप्ति की '1. प्रा. स.। 2. शा. स.। 3. अ. सु.।' इन तीन प्रतियों में छाया के केवल सत्तरह नाम हैं और गोल-छाया के पाठ नाम है / इस प्रकार पच्चीस पूरे नाम लिये गये हैं। सत्तरह नामों में गोल-छाया का नाम नहीं है, फिर भी 'तत्थेत्यादि' पाठ से संगति करके पच्चीस नाम पूरे मानना आश्चर्यजनक है। एक 'ह. .' प्रति में छाया के पच्चीस नाम तथा गोल-छाया के आठ नाम हैं, जो मूल पाठ के अनुसार हैं। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [प्रथम प्राभृत प्राभृत णक्खत्ताणं प्रावलिया-णिवायजोगो य 32. प. ता कहं ते जोगे ति वत्थस्स आवलिया-णिवाए ? आहिए ति वएज्जा। उ. तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहातत्थेगे एवमाहंसु१. ता सव्वे वि णं णक्खत्ता, कत्तियादिया भरणिपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु२. ता सन्वे वि णं णक्खत्ता, महादिया अस्सेस-पज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु३. ता सव्वे वि णं णक्खता, धणिट्ठादिया सवणपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-- 4. ता सव्वे वि णं णक्खत्ता, अस्सिणी-प्रादिया रेवईपज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु५. ता सम्वे वि णं णक्खत्ता, भरणीआदिया अस्सिणीपज्जवसाणा पण्णता, एगे एवमाहंसु / वयं पुण एवं वयामो ता सम्वे वि णं णक्खत्ता, अभिई आदिया, उत्तरासाढा पज्जवसाणा पण्णत्ता, तंजहा–अभिई सवणो जाव उत्तरासाढा।' OM 1. जंबुद्दीवे दीवे अभिइवज्जेहि सत्तावीसाए णक्वत्तेहि संयवहारे वट्टति / –एम. 27, मु. 2 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [द्वितीय प्राभृतप्राभूत णक्खत्ताणं चंदेण जोगकालो 33. प. ता कहं ते मुहत्तग्गे आहिए? ति वएज्जा, उ. ता एएसि णं अट्ठावीसाए गक्खत्ताणं, [क] अस्थि णक्खत्ते जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तद्विभाए मुहत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जोएइ। [ख] अस्थि णक्खत्ता जे गं पण्णरस मुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति / [ग] अस्थि णक्खत्ता जे णं तीसं मुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति।। [घ] अस्थि शक्खत्ता जे णं पणयालीसे मुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति / [क] प: ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ते जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभाए मुहत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जाएंति ? [ख] कयरे गवखत्ता जे णं पण्णरस मुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति ? [ग] कयरे णक्खत्ता जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति ? [घ] कयरे णक्खत्ता जे णं पणयालोसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति ? [क] उ. ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ते, जे णं णव मुहुत्ते, सत्तावोसं च सत्तट्ठिभाए मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, से णं एगे, अभीयो / ' [ख] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ता णं, तत्य जे ते णक्खत्ता, जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, ते णं छ, तं जहा-- 1. सतभिसया, 2. भरणी, 3. अद्दा, 4. अस्सेसा, 5. साति, 6. जेट्ठा / [ग] ता एएसि णं णट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं तीसं मुहत्तं चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, ते णं पण्णरस तं जहा१. सवणो, 2. धणिट्ठा, 3. पुव्वाभद्दवया, 4. रेवई, 5. अस्सिणी, 6. कत्तिया, 7. मग्गसिरा, 8. पुस्सो, 9. महा, 10. पुव्वाफग्गुणो, 11. हत्थो, 12. चित्ता, 13. अणुराहा, 14. भूलो, 15. पुव्वासाढा। [ध] ता एएसि णं अट्ठावीसाए, णक्खत्ताणं, 1. अभिजिणक्खत्ते साइरेगे णव मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोगं जोएइ सम. 9 सु. 5 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्राप्तिसूत्र तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे गं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, ते गं छ, तंजहा१. उत्तराभद्दवया, 2. रोहिणी, 3. पुणव्वसू, 4. उत्तराफग्गुणी, 5. विसाहा 6. उत्तरासादा।। सूरिय. पा. 10, पाहु. 2, सु. 33 णक्खत्ताणं सूरेण जोगकालो ३४–ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, [क] अस्थि णक्खत्ते जे णं चत्तारि अहोरत्ते, छच्च मुहत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति / [ख] अस्थि णक्खत्ता जे गं छ अहोरत्ते, एक्कवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति / [ग] अत्थि णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते, बारस य मुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति / [ग] अस्थि गक्खत्ता जे णं वीसं अहोरत्ते, तिण्णि य मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति / प. [क] ता एएसि गं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ते जं चत्तारि अहोरत्ते, छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति ? [ख] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ते जे णं छ अहोरत्ते, एक्कवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति ? [ग] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते बारस य मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति ? [घ] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ता जेणं वीसं अहोरत्ते, तिणि य मुहत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति ? उ. [क] ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ते जे णं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति से णं एगे अभीयो। (ख) ता एएसिणं अठावीसाए जक्खत्ताणं, तत्थ जे ते पक्खता जे णं छ अहोरत्ते, एक्कवीसं च मुहुत्ते, सूरेण सद्धि जोयं जोएंति ते णं छ, तंजहा–१. सतभिसया, 2. भरणी, 3. अद्दा, 4. अस्सेसा, 5. साती, 6. जेट्ठा। (ग) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं तेरस अहोरत्ते दुवालस य मुहुत्ते सरेण सद्धि जोयं जोएंति, ते गं पण्णरस तंजहा–१. सवणो, 2. धणिट्ठा, 3. पुव्वाभद्दवया, 4. रेवई, 5. अस्सिणी, 6. कत्तिया, 7. मगसिरं, 8. पुस्सो, 6, महा, 10. पुव्वाफग्गुणी, 11. हत्थो, 12. चित्ता, 13. अणुराहा, 14. मूलो, 15. पुव्वासाढा / (घ) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं वीसं अहोरत्ते तिणि य मुहुत्ते, सूरेण सद्धि जोयं जोएंति ते णं छ, तंजहा-१. उत्तराभद्दवया, 2. रोहिणी, 3. पुनव्वसू, 4. उत्तराफग्गुणी, 5. विसाहा, 6. उत्त CC रासाढा। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [तृतीय प्राभृतप्राभृत] णक्खत्ताणं पुन्वाइभागा खेत-कालप्पमाणं च 35. प. ता कहं ते एवंभागा णक्खत्ता? आहिया ति वएज्जा, उ. ता एएसि णं अट्ठावीसाए गक्खत्ताणं, (क) अस्थि णक्खत्ता पुन्वंभागा, समखेत्ता तोसइ मुहुत्ता पण्णत्ता। (ख) अस्थि णक्खला पच्छंभागा, समखेत्ता तीसइ-मुहुत्ता पण्णत्ता। (ग) अस्थि णक्खता णतंभागा अवड्ढखेत्ता पण्णरस-मुहुत्ता पण्णत्ता। (घ) अस्थि णक्खत्ता उभयं भागा विड्ड खेत्ता, पणयालीसं मुहुत्ता पण्णत्ता। प. (क) ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ता पुव्वंभागा, समखेत्ता, तोसइ-मुहुत्ता पण्णता ? (ख) ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ता पच्छंभागा समखेत्ता तोसइ-मुहुत्ता पण्णत्ता ? (ग) ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ता पत्त भागा अवडखेत्ता पण्णरस-मुहत्ता पण्णत्ता ? (घ) ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, कयरे णक्खत्ता उभयंभागा दिवड्डखेत्ता, पणयालीसं-मुहुत्ता पण्णता? उ. (क) ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता पुन्वंभागा, समक्खेत्ता, तीसइ-मुत्ता, पण्णत्ता, ते णं छ तंजहा--- 1. पुव्वापोट्ठवगण, 2. कत्तिया, 3. महा, 4. पुव्वाफग्गुणी, 5. मूलो, 6. पुव्वासाढा / (ख) ता एएसि णं अट्ठावीसाए मक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता पच्छंभागा समक्खेत्ता तीसइ-मुहुत्ता पण्णत्ता ते णं दस, तंजहा१. अभिई, 2. सवणो. 3. धणिट्ठा, 4. रेवई, 5. अस्सिणी, 6. मिगसिरं, 7. पूसो, 8. हत्थो, 9. चित्ता, 10. अणुराहा / (ग) ता एएसिणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता पत्तंभागा अवडखेत्ता पण्णरस-मुहत्ता पण्णत्ता, ते णं छ, तंजहा१. सयभिसया, 2. भरणी, 3. अद्दा, 4. अस्सेसा, 5. साती, 6. जेट्ठा। (घ) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते णक्खत्ता उभयंभागा दिवट्टखेत्ता, पणयालीसं मुहत्ता पण्णत्ता, ते णं छ, तंजहा--- 1. उत्तरापोट्टवया, 2. रोहिणी, 3. पुणब्वसू, 4. उत्तराफग्गुणी, 5. विसाहा, 6. उत्तरासाढा / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਦਸ ਗੁਰ [चतुर्थ प्राभृतप्राभृत] णक्खत्ताणं चंदेरण जोगारंभकालो 36. प. ता कहं ते जोगस्स आई ? आहिए ति वएज्जा, उ. ता अभियी-सवणा खलु दुवे णक्खत्ता, पच्छाभागा समखित्ता', साइरेगएगूणचसालिसइ मुहुत्ता तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएंति , तो पच्छा अवरं साइरेगं दिवसं / एवं खलु अभियी-सवणा दुवे णक्खता एगराई एगं च साइरेगं दिवसं चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टति, जोयं अणुपरिट्टित्ता सायं चंदं धणिट्ठाणं समर्पति, 2. ता धणिटा खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ पच्छाराई अवरं च दिवसं / एवं खलु धणिट्ठर णक्खत्ते एगं च राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोएता जोयं अणुपरियट्टइ, सायं चंदं सयभिसयाणं समप्पेह, 1. "इह अभिजिन्नक्षत्रं न समक्षेत्र, नाप्यपार्धक्षेत्र, नापि द्वयर्द्धक्षेत्र, केवलं श्रवण नक्षत्रेण सह सम्बद्धमुपात्तमित्यभेदोपचारात तदपि समक्षेत्रमुपकल्प्य समक्षेत्रमित्युक्तम्" 2. 'सातिरेका नवमुहूर्ताः अभिजित् त्रिशन्मुहुर्ताः श्रवणस्येत्युभयमीलने यथोक्त मुहूर्तपरिमाणं भवति / " 3. 'सायं-विकालवेलायां, इह दिवसस्य कतितमाच्चरमाद् भागादारभ्य यावद्रात्रे कतितमो भागो यावन्नाद्यापि परिस्फुट-नक्षत्र-मण्डलालोकस्तावान् कालविशेष: सायमिति विवक्षितो द्रष्टव्य:" 4. "इहाभिजिन्नक्षत्रं यद्यपि युगस्यादौ प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपैति, तथापि श्रवणेन सह सम्बद्धमिह तद्विक्षितं, श्रवण नक्षत्रं च मध्याह्नादुर्ध्वमपसरति दिवसे चन्द्रेण सह योगमुपादत्ते, ततस्तत्साहचर्यात् तदपि सायं समये चन्द्रेण युज्यमानं विवक्षित्वा सामान्यत: सायं चन्द्रेण" सद्धि जोयं जोएंति" इत्युक्तम् / / अथवा युगस्यादिमतिरिच्यान्यदा बाहुल्यमधिकृत्येदमुक्त ततो त कश्चिद्दोषः।" -टीका 5. "एतावन्तं कालं योगं युक्त्वा तदनन्तरं योगमनुपरिवर्तयते, आत्मनश्चयावयत इत्यर्थ: ?" -सूर्यप्रज्ञप्ति की टीका से उद्धत, 6. "समक्षेत्र त्रिशन्मुहर्तम" चन्द्र के साथ किसी भी नक्षत्र का योग, यदि तीस मुहूर्त पर्यन्त रहता है तो वह "समक्षेत्र-योग" कहा जाता है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत-चतुर्य प्राभृतप्राभूत] 3. ता सयभिसया खलु गक्खत्ते णतंभागे अवडखेत्ते' पण्णरस-मुहुत्ते, तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, नो लभइ अवरं दिवस, एवं खलु सयभिसया णक्खत्ते, एगं राइं च चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं पुत्वपोट्ठवयाणं समप्पेइ, 4. ता पुव्वा-पोटुवया खलु णक्खत्ते पुव्वं भागे' समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ पच्छा अवरं राई, एवं खलु पुव्वापोटुवया णक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोएता अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टिता पाओ चंदं उत्तरापोट्ठव्वयाणं समप्पेइ, ता उत्तरापोट्टव्वया खलु णवखत्ते उभयं भागे3 दिवड्डखेत्ते पणयालीस-मुहुत्ते , तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, अवरं च राइं तओ पच्छा अवरं च दिवसं / एवं खलु उत्तरापोट्टवया णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं रेवईणं समप्पेइ, ता रेवई खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु रेवई णक्खत्ते एगं च राई, एगं च दिवसं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोएता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टिता सायं चंदं अस्सिणीणं समप्पेइ, 7. ता अस्सिणो खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तोसइ-मुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु अस्सिणी णक्खत्ते, एगं च राई, एगं च दिवसं, चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, "अपार्ध-क्षेत्र पंचदशमूहर्तम' चन्द्र के साथ किसी भी नक्षत्र का योग, यदि पन्द्रह मुहर्त पर्यन्त रहता है, तो वह "अपार्ध-क्षेत्र-योग" अर्थात् "प्राधा क्षेत्र योग" कहा जाता है। 2. "इह पूर्वप्रोष्ठपपदानक्षत्रस्य प्रातश्चन्द्रेण सह प्रथमतया योगः प्रवृत्त इतीदं पूर्वभागमुच्यते / " 3. इदं किलोतराभद्रपदाख्यं नक्षत्रमक्तप्रकारेण प्रातश्चन्द्रण सहयोगमधिगच्छति / केवलं प्रथमान् पंचदश-महान् अधिकानपनीय समक्षेत्र कल्पयित्वा यदा योगश्चिन्त्यते तदा नक्तमपि योगोऽस्तीत्युभयभागमवसेयम् / / 4. "उत्तरप्रकोष्ठपदानक्षत्रं खलभयभाग द्वयर्धक्षेत्र पंचचत्वारिंशन्महत, तत्प्रथमतया-योगप्रथमतया प्रातश्चन्द्रण सादं योगं युनक्ति, तच्च, तथायुक्तं सत् तं सकलमपि दिवसमपरं च रात्रि ततः पश्चादपरं दिवसं यावद्वर्तते / Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र जोयं जोएसा जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता, सायं चंदं भरणोणं समप्पेइ। __8. ता भरणी खलु णक्खत्ते णत्तं भागे, 'अवडखेत्ते, पण्णरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, नो लभइ अवरं दिवसं. एवं खलु भरणी णक्खत्ते एगं च राइं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं कत्तियाणं समप्पइ। 9. ता कत्तिया खलु णक्खत्ते पुव्वं भागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ पच्छाराई, एवं खलु कत्तिया णक्खत्ते, एगं च दिवस एगं च राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोएता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं रोहिणीणं समप्पेइ / 1. "योगमनपरिवर्त्य सायं परिस्फुटनक्षत्रमण्डलालोकसमये भरण्या: समर्पयति, इदं च भरणी नक्षत्रमुक्तयुक्त्या रात्री चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततो नक्तं भागमवसेयम" 2. इसके आगे मूल प्रति में-"संक्षिप्तवाचना" का पाठ इस प्रकार है 10. "रोहिणी जहा उत्तराभवया", 11. मगसिरं जहा धणिट्ठा, 12. अद्दा जह सतभिसया, 13. पुणब्बसू जहा उत्तराभवया, 14. पुस्सो जहा धणिट्ठा, 15. असलेसा जहा सतभिसया, 16. महा जहा पुवाफग्गुणी, 17. पुव्वाफग्गुणी जहा पुन्वाभद्दवया, 18. उत्तराफम्गुणी जहा उत्तराभवया, 19.-20. हत्थो, चित्ता य जहा धणिट्ठा, 21. साती जहा सतभिसया, 22. विसाहा जहा उत्तराभवया, 23. अणुराहा जहा धणिट्ठा, 14. जिट्ठा जहा सतभिसया, 25. मूलो जहा पुब्वाभद्दवया, 26. पुवासादा जहा युव्वाभद्दवया 27. उत्तरासाढा जहा उत्तराभवया Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत-चतुर्थ प्रामृतप्राभूत] [81 10. ता रोहिणी खलु णवखत्ते उभयभागे दिवड्डखेत्ते पणयासील-मुहत्ते तप्पढमयाए, पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, अवरं च राई तओ पच्छा अवरं दिवसं, एवं खलु रोहिणी णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियत्तिा सायं चंदं मिगसरं समप्पेइ / 11. ता मिगसिरे खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ तओ पच्छाराई अवरं च दिवस, एवं खलु मिगसिरे णक्खत्ते एगं च राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं प्रदाए समप्पेइ / 12. ता अद्दा खलु णक्खत्ते नत्तंभागे अवड्डखेत्ते पण्णरस-मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, नो लभइ अवरं दिवस, एवं खलु अद्दा णक्खत्ते एग राइं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं पुणव्वसूर्ण समप्पेइ / 13. ता पुणव्वसू खलु णक्खत्ते उभयंभागे दिवडखेत्ते पणयालीस-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, अवरं च राई तओ पच्छा अवरं च दिवसं, एवं खलु पुणव्वसू णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राइं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरिट्टित्ता सायं चंदं पुस्सस्स समप्पेइ / 14. ता पुस्से खलु गक्खत्ते पच्छंभागे समखेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्यढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोयइ, तओ पच्छाराई अवरं च दिवसं. एवं खलु पुस्से मक्खत्ते एगं च राइं एगं च दिवसं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं असिलेसाए समप्पेइ / 15. ता असिलेसा खलु णक्खत्ते नतंभागे अवडखेते पन्नरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, नो लभइ अवरं दिवस, एवं खल असिलेसा णक्खत्ते एग राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टेइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं मघाणं समप्पेइ / 16. ता मघा खलु णक्खत्ते पुव्वंभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तो पच्छा अवरं राई, एवं खलु मघा गक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च राइं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं पुज्वाफग्गुणोणं समप्पेइ / 17. ता पुव्वाफग्गुणी खलु णक्खत्ते पुव्वंभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ पच्छा अवरं राई, एवं खल पुवाफग्गुणी गक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टेइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पानो चंदं उत्तराफग्गुणीणं समप्पेइ / 18. ता उत्तरा-फरगुणी खलु णक्खत्ते उभयंभागे दिवडखेत्ते पणयालीसइ-मुहत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, अवरं च राइं तो पच्छा अवरं च दिवसं, एवं खलु उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राइं च देण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टिता सायं चंदं हत्थं समप्पेइ / 19. ता हत्थे खलु गक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेश सद्धि जोयं जोएइ, तो पच्छाराई अवरं च दिवस, एवं खलु हत्थणक्खत्ते एगं च राई, एगं च दिवसं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं चित्ताए समप्पेइ / 20. ता चित्ता खल णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेते तीसइमुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ पच्छाराई अवरं च दिवसं, एवं खलु चित्ता णक्खत्ते एगं च राई, एगं च दिवसं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं साईए समप्पेइ / 21. ता साई खलु णक्खत्ते नत्तंभागे अवड्ढखेत्ते पण्णरसमुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, नो लमइ अवरं दिवस, Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत-चतुर्थ प्राभृतप्राभृत] एवं खलु साई णक्खत्ते एगं राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं विसाहाणं, समप्पेइ / 22. ता विसाहा खलु णक्खत्ते उभयभागे दिवड्डखेत्ते पणयालीस-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ-अवरं च राइं तओ पच्छा अवरं दिवस, एवं खलु विसाहा णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टाइ जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अणुराहाए समप्पेइ। 23. ता अणुराहा खलु णक्खत्ते पच्छंभागं समक्खेत्ते तीसइ-मुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ पच्छाराई अवरं च दिवस, एवं खलु अणुराहा णक्खत्ते एग राई एगं च दिवसं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं जिट्ठाए समप्पेइ / 24. ता जेट्ठा खलु णक्खत्ते नत्तंभागे अवडखेत्ते पण्णरस-मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, नो लभइ अवरं दिवसं, एवं खलु जिट्ठा णक्खत्ते एग दिवसं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पापो चंदं मूलस्स समप्पेइ / 25. ता मूले खलु णक्खत्ते पुव्वंभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ पच्छा अवरं च राई, एवं खलु मूलं णक्खत्तं एगं च दिवसं च राई च चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं पुब्बासाढाणं समप्पेइ / 26. ता पुन्वासाढा खलु णक्खत्ते पुव्वं भागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ तओ पच्छा अवरं च राई, एवं खलु पुश्वासाढा णक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं उत्तरासाढाणं समप्पेइ / Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 27. ता उत्तरासाढा खलु णक्खत्ते उभयंभागे दिवड्डखेत्ते पणयालीस-मुहत्ते तपढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, अवरं च राई तओ पच्छा अवरं च दिवस, एवं खलु उत्तरासाढा गक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अभिई सवणाणं समप्पेइ / ' 1. सूत्रांक 10 से 27 पर्यन्त में मूलपाठ सूर्यप्रज्ञप्ति की टीका से यहाँ उद्धत किया है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत [पंचम प्राभृतप्राभूत णक्खत्ताणं कुलोवकुलाई:-- 37. ता कहं ते कुला (उवकुला, कुलोवकुला) ? आहिए त्ति वएज्जा।' तत्थ खलु इमे बारस कुला, बारस उवकुला, चत्तारि कुलोवकुला पण्णत्ता। बारसकुला पण्णत्ता तं जहा 1. धणिट्ठा कुलं 2. उत्तराभवया कुलं 3. अस्सिणी कुलं 4. कत्तियाकुलं 5. मिगसिरकुलं 6. पुस्सकुलं 7. महाकुलं 8. उत्तराफग्गुणी कुलं 6. चित्ताकुलं 10. विसाहाकुलं 11. मूलंकुल 12. उत्तरासाढाकुलं / बारस उवकुला पण्णत्ता तं जहा--- 1. सवणो उवकुलं 2. पुव्वापोट्ठवयाउवकुलं 3. रेवई उवकुलं 4. भरणी उवकुलं 5. रोहिणी उवकुलं 6. पुणव्वसु उबकुल 7. अस्सेसा उवकुलं 8. पुव्वाफग्गुणी उवकुलं . हत्थो उवकुलं 10. साती उपकुलं 11. जेट्ठा उवकुलं 12. पुव्वासाढा उवकुलं। चत्तारि कुलोचकुला पण्णत्ता तं जहा-- 1. अभियी कुलोवकुलं 2. सतभिसया कुलोवकुलं 6. अद्दा कुलोवकुलं 4. अणराहा कलोवकुलं / 1. सूर्यप्रज्ञप्ति में प्रस्तुत प्रश्नसूत्र खण्डित है, अतः कोष्ठक के अन्तर्गत “उवकुला, कुलोवकुला" अंकित करके उसे पूरा किया है, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वक्ष०७ सूत्र 161 में, यह प्रश्नसूत्र इस प्रकार हैप्र० कति गं भंते ! कुला ? कति उवकुला? कति कुलोबकुला पण्णता? उ० गोयमा ! बारस कुला वारस उवकुला, चत्तारि कुलोवकुला पण्णत्ता / शेष पाठ सूर्यप्रज्ञप्ति के समान है, किन्तु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के इस प्रश्नोतर सूत्र में बारह कुल नक्षत्रों के नामों के बाद कुलादि के लक्षणों की सूचक एक गाथा दी गई है जो सूर्यप्रज्ञप्ति की टीका में भी उद्धृत है और यह गाथा प्रस्तुत संकलन में भी उद्धत है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता यदि यह गाथा प्रस्तुत सूत्र के प्रारम्भ में या अन्त में देते तो अधिक उपयुक्त रहती। गाहा–मासाणं परिणामा, होति कुला, उवकुला उ हेट्टिमगा। होति पुण कुलोवकुला, अभियी-सयभिसय-ग्रह-अणुराहा / -~~-जंबु. वक्ख. ७,सु. 161 "कि कुलादीनां लक्षणम् ? उच्यते-मासानां परिणामानि-परिसमापकानि भवन्ति कुलानि, कोऽर्थः ? इह यनक्षत्रैः प्रायो मासानां परिसमाप्तय: उपजायन्ते माससदृशनामानि च तानि नक्षत्राणि कुलानीति प्रसिद्धानि / " "कुलानामधस्तनानि नक्षत्राणि श्रवणादीनि उपकुलानि, कुलानां समीपमुपकुलं तत्र वर्तन्ते यानि नक्षत्राणि तान्युपचारादुपकुलानि / " "यानि कुलानामुपकुलानां चाधस्तनानि तानि कुलोपकुलानि / ' - जम्बू. टीका. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र दुवालसासु पुण्णमासिणीसु गक्खत्त-संजोग-संखा 38. प. ता कहं ते पुणिमासिणो ? आहिए ति वएज्जा ? उ. तत्थ खलु इमाओ बारस युणिमासिणीओ, बारस अमावासाओ पण्णत्ताओ तंजहा 1. साविट्ठि, 2. पोटुवई, 3. आसोया, 4. कत्तिया, 5, मग्गसिरी, 6. पोसी 7. माही, 8. फग्गुणी, 9. चेती, 10. विसाही, 11. जेट्ठामूली, 12. आसाढी। 1. प. ता साविद्विण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? / उ. ता तिष्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा-१. अभिई, 2. सवणो, 3. धणिट्ठा। 2. प. ता पोटुवइगणं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? / उ. ता तिण्णि णक्खता जोएंति, तंजहा--१. सतभिसया, 2. पुव्वापोटुवया, 3. उत्तरा पोट्टवया। 3. प. ता पासोइण्णं पुष्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता दोणि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा–१. रेवती, 2. अस्सिणी य / 4. प. ता कत्तिइण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता दोणि णखत्ता जोएति, तंजहा--१. भरणी, 2. कत्तिया य / 5. प. ता मग्गसिरि पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता दोणि गवखत्ता जोएंति, तंजहा--१. रोहिणी, 2. मम्गसिरो य / 6. प. ता पोसिण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता तिण्णि गक्खत्ता जोएंति, तंजहा-१. अद्दा, 2. पुणव्यसू, 3. पुस्तो। 7. प. ता माहिण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता, जोएंति ? उ. ता दोणि गक्खत्ता जोएंति, तंजहा.---१. अस्सेसा, 2. महा य / 8. प. ता फग्गुणिणं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता दोणि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा–१. पुव्वाफग्गुणी, 2. उत्तराफग्गुणी य / 6. प. ता चित्तिण्णं पुण्णमासि कति णखत्ता जोएंति ? ___ उ. ता दोगिण गवखत्ता जोएंति, तंजहा.---१. हत्थो, 2. चित्ता य / 10. प. ता विसाहिण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता दोषिण णक्खत्ता जोएंति, तंजहा-१. साती, 2. विसाहा य / 11. प. ता जेट्ठा-मूलिण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा--१. अणुराहा, 2. जेट्टा, 3. मूलो। 12. प. ता आसाढिण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. ता दोणि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा- 1. पुश्वासाढा, 2. उत्तरासाढा य। 00 " Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [छठा प्राभृतप्राभृत दुवालसासु पुण्णमासिणीसु कुलाइ-णक्खत्त-जोगसंखा 39. 1. प. ता साविट्टिण्णं पुणिमं णं कि कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं मोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, 1. कुलं जोएमाणे धषिट्ठा णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे सवणे णक्खत्ते जोएइ, 3. कुलोवकुलं जोएमाणे अभिई णक्खत्ते जोएइ, साविटुिण्णिं पुणिमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलेग वा, उवकुलेण वा, कुलोवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी पुण्णिमा जुत्ताति वत्तन्वं सिया। 2. प. ता पोट्ठवइण्णं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, 1. कुलं जोएमाणे उत्तरापोटुवया णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकलं जोएमाणे पुवापोटुवया णक्खत्ते जोएइ, 3. कुलोवकुलं जोएमाणे सतभिसया णक्खते जोएइ, पोटुवइण्णं पुण्णिमं कुलं वा जोएइ, उपकुलं वा जोएइ कुलोवकलं वा जोएइ, कुलेण वा, उबकुलेण वा, कुलोवकुलेण वा जुत्ता पुट्ठवया पुणिमा जुत्ता तिक्त्तव्वं सिया। 3. प. ता आसोइण्णं पुण्णिमं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोदकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, 1. कलं जोएमाणे अस्सिणी णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे रेवई णक्खत्ते जोएइ, 1. शेषमपि सूत्रं निगमनीयं "एवं नेयवाग्रो, जाव प्रासाढी-पूण्णिमं जुत्तेति बत्तव्य सिया, गवरं पोषी पौर्णमासी, ज्येष्ठामूली च पौर्णमासी कुलोपलमपि यूनक्ति, अवशेषासु च पौर्णमासीषु कुलोपकुलं नास्तीति परिभाव्य वक्तव्याः / -सूर्य. टीका Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र आसोइण्णं पुणिमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा, उवकुलेण वा जुत्ता आसोइण्णं पुण्णिमं जुत्तेति वत्तव्वं सिया। प. ता कत्तिइण्णं पुणिमं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोबकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे कत्तिआ णखत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे भरणी गवखत्ते जोएइ, कत्तिइण्णं पुण्णिमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेण वा जोएइ, कुलेण वा, उवकुलेण वा जुत्ता कत्तिइण्णं पुणिमं जुत्तेत्ति वत्तव्वं सिया। 5. प. ता मागसिरी पुणिमं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उबकुलं का जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे मग्गसिरं णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे रोहिणी णक्खत्ते जोएइ, मागसिरी पुणिमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा उवकुलेण वा जुत्ता मागसिरी पुणिमं जुत्तेत्ति वत्तव्वं सिया / 6. प. ता पोसिणं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं का जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, 1. कुलं जोएमाणे पुस्से णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे पुणव्वसू गवखत्ते जोएइ, 3. कुलोबकुलं जोएमाणे अद्दा णक्खत्ते जोएइ, पोसिणं पुणिमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा, उवकुलेण वा, कुलोवकुलेण वा जुत्ता पोसिणं पुणिमं जुत्तेत्ति वत्तव्वं सिया / 7. प. ता माहिण्णं पुणिमं किं कुलं जोएइ, उपकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे महा णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे अस्सेसा णवखत्ते जोएइ, माहिणं पुणिमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेण वा जोएइ, कुलेण वा उवकुलेण वा जुत्ता माहिणं पुण्णिमं जुत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत-~-छठा प्रामृतप्रामृत] 8. प. ता फग्गुणीणं पुण्णिमं कि कुलं जोएइ, उपकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं बा जोएइ नो लभइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे पुवाफग्गुणी णक्खत्ते जोएइ, फग्गुणोणं पुण्णिमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेण वा जोएइ, कुलेण वा उवकुलेण वा जुत्ता फग्गुणोणं पुण्णिमं जुत्ते त्ति वत्तव्वं सिया, 9. प. ता चित्तिण्णं पुष्णिमं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं वा जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोयमाणे चित्ता णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोयमाणे हत्थ णक्खत्ते जोएइ, चित्तिण्णं पुण्णिमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेणं वा जोएइ, कुलेण वा, उवकुलेण वा जुत्ता चित्तिण्णं पुण्णिमं जुत्तेत्ति वत्तव्बं सिया। 10. प. ता विसाहिणं पुणिमं किं कुलं जोएइ, उबकुलं जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे विसाहा णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे साती णक्खत्ते जोएइ, विसाहिणं पुण्णिमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेण वा जोएइ, कुलेण वा, उवकुलेण वा जुत्ता विसाहिण्णं पुणिमं जुत्तेत्ति वत्तव्वं सिया / 11. प. ता जेट्ठा-मूलिण्णं पुण्णिमं किं फुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, 1. कुलं जोएमाणे मूले णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे जेट्ठा णक्खत्ते जोएइ, 3. कुलोवकुलं जोएमाणे अणुराहा णक्खत्ते जोएइ, जेट्टा-मूलिण्णं पुणिमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोबकुलं वा जोएइ, कलेण वा, उवकुलेण वा, कुलोवकुलेण वा जुत्ता जेट्टा-मूलिणं पुण्णिमं जुत्तेत्ति वत्तव्वं सिया, 12. प. ता आसाढिण्णं पुण्णिमं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. ता कुलं बा जोएइ, उपकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे उत्तरासाढा णक्खत्ते जोएइ, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 2. उपकुलं जोएमाणे पुवासाढा णक्खत्ते जोएइ, प्रासाढिण्णं पुणिमं कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोएइ, कुलेण वा उवकुलेण वा जुत्ता आसाढिण्णं पुण्णिमं जुत्तेत्ति वत्तव्वं सिया, दुवालसासु अमावासासु णक्खत्तजोग-संखा१. प. ता साविट्ठ णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुण्णि णवखत्ता जोएंति, तंजहा-अस्सेसा य मघा य, 2. प. ता पोवई णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुणि णक्खता जोएंति, तं जहा-पुवाफन्गुणी उत्तराफग्गुणी, 3. प. ता आसोई गं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति तंजहा-हत्थो, चित्ता य, 4. प. ता कत्तिई णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? ___उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति तंजहा–साती, विसाहा य, 5. प. ता मग्गसिरि णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. तिष्णि णक्खत्ता जोएंति तंजहा-अणुराधा जेट्ठा-मूलो य, 6. प. ता पोसि णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति तंजहा-पुव्वासाढा, उत्तरासाढा, 7. प. ता माहि णं अमावासं कति गक्खत्ता जोएंति ? ___ उ. तिणि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा-१. अभीयो, 2. सवणो, 3, धणिट्टा, 8. प. ता फग्गुणो णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति तंजहा-१. सतभिसया, 2. पुवापोटुवया / 9. प. ता चेति णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति तंजहारेवई, अस्सिणी य, 10. प. ता विसाहिं गं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुण्णि णक्खत्ता जोएंति तंजहा-भरणी, कत्तिया य, 11. प. ता जेट्ठा-मूलि णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. दुणि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-रोहिणी, मग्गसिरं च, 12. प. ता प्रासादि णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? उ. तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंजहा-१. अद्दा, 2. पुणव्वसू, 3. पुस्सो, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [15 दशम प्राभूत-छठा प्रामृतप्राभूत] दुवालसासु अमावासासु कुलाइ-णक्खत्त-जोग-संखाः१. प. ता साविढि णं अमावासं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ नो लगभइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे महा णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुल जोएमाणे असिलेसा जोएइ, ता साविष्टुिं गं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी असावासा जुत्ता ति वत्तव्य सिया / प. ता पोटुवई णं अमावासं कि कुल जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उपकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे उत्तराफग्गुणों जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे पुव्वाफग्गुणों जोएइ, पुट्ठवई णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता पोट्टक्या अमावासा जुत्तात्ति वत्तव्वं सिया / 3. प. ता आसोई णं अमावासं किं कुलं जोएइ, उबकुलं जोएइ, कुलोवकलं जोइए ? उ. कुलं वा जोएइ, उपकुलं वा जोएइ, नो लन्भइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे चित्ता णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे हत्थ णक्खत्ते जोएइ, ता आसोई णं अमावासं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता प्रासोई अमावासा जुत्ता ति वत्तवं सिया। 4. 5. कत्तिई णं अमावासं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लब्भइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे विसाहा णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे साई णक्खत्ते जोएइ, ता कत्तिई णं अमावासं कुलं बा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता कत्तिइ णं प्रमावासं जुत्तत्तिवत्तग्वं सिया / 5. प. ता मग्गसिरि णं अमावासं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं या जोएइ, उबकुलं वा जोएइ, कुलोषकुलं वा जोएइ, 1. कुलं जोएमाणे मूलणक्खत्ते जोएइ, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 2. उबकुलं जोएमाणे जेट्टा पक्खत्ते जोएइ, 3. कुलोवकुलं जोएमाणे अणुराहा णक्खत्ते जोएइ, ता मग्गसिरिणं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उपकुलेण वा जुत्ता कुलोककुलेण वा जुत्ता, मग्गसिरि णं अमावास जुत्तत्तिवत्तवं सिया। 6. प. पोषि णं अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लब्भइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे पुश्वासाढा णक्खसे जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे, उत्तरासाढा गक्खत्ते जोएइ, ता पोषि णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता पोषि णं अमावासा जुत्तति वत्तव्वं सिया। 7. प. ता माहि णं अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, 1. कुलं जोएमाणे अभीयो णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे सवणे णक्खत्ते जोएइ, 3. कुलोबकुलं जोएमाणे धणिट्ठा णक्खत्ते जोएइ, ता माहिं गं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता, कुलोवकुलेण वा जुत्ता माहिणं अमावासा जुत्तत्ति यत्तन्वं सिया / 8. प. ता फग्गुणि अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोबकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लब्भइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे सतभिसया णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे पुन्वापोटुवया णक्खत्ते जोएइ, ता फग्गुणी अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ। कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता फग्गुणि प्रमावासा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया, 6. प. ता चेति अमावासं किं कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ लभइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे रेवती णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे अस्सिणी णक्खत्ते जोएइ, ता चेत्ति अमावासं कुलं वा जोएइ, उधकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता चेत्ति अमावासा जुत्तत्ति वत्तष्वं सिया / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत-छठा प्रामृतप्रामृत] 10. प. ता वेसाहि अमावासं कि कुलं जोएइ उवकुलं जोएइ कुलोवलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ नो लम्भइ कुलोवकुलं, 1. कुलं जोएमाणे भरणि णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे कत्तिया णक्खत्ते जोएइ, ता वेसाहि अमावासं कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता वेसाहिं अमावासा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया / 11. प. ता जेट्ठामूली अमावासं कि कुलं जोएइ उवकलं जोएइ कुलोवकुलं जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ नो लगभइ कुलोबकुलं, 1. कुलं नोएमाणे रोहिणी णक्खते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे मग्गसिरे णक्खत्ते जोएइ, ता जेट्ठामूली अमावासं कुलं वा जोएइ उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उबकुलेण वा जुत्ता जेट्टामूली अमावासा जुत्तत्ति वत्तवं सिया / 12. 5. ता आसाढि अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ कुलोवकुल जोएइ ? उ. कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं बा जोएइ, 1. कुलं जोएमाणे अद्दा णक्खत्ते जोएइ, 2. उवकुलं जोएमाणे पुणव्वसू णक्खत्ते जोएइ, 3. कुलोवकुलं जोएमाणे पुस्से णक्खत्ते जोएइ, ता आसाढि अमावासं कुलं वा जोएइ, उपकुलं वा जोएइ कुलोषकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उबकुलेण वा जुत्ता, कुलोवकुलेण वा जुत्ता, आसाढिं अमावासा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [सप्तम प्राभृतप्राभृत दुवालस पुणिमासु अमावासासु य चंदेण-णक्खत्तसंजोगो 40. 1. प. ता कहं ते सण्णिवाए आहिए ति वएज्जा ? उ. [क] ता जया णं साविट्ठी पुण्णिमा भवइ, तया णं माहो अमावासा भवइ / [ख] ता जया णं माही पुणिमा भवइ, तया णं साविट्ठी अमावासा भवइ / [क] ता जया णं पुट्ठवई पुणिमा भवइ, तया णं फग्गुणी अमावासा भवइ / [ख] ता जया णं फरगुणी पुणिमा भवइ, तया णं पुट्टवई अमावासा भवइ / [क] ता जया णं आसोई पुण्णिमा भवइ, तया णं चेत्ती अमावासा भवइ / ता जया णं चेत्ती पुण्णिमा भवइ, तया णं आसोई अमावासा भवइ / ता जया गं कत्तियो पुण्णिमा भवइ, तया णं वेसाही अमावासा भवइ / [ख] ता जया णं वेसाही पुणिमा भवइ, तया णं कत्तियो अमावासा भवइ / ता जया णं मग्गसिरी पुणिमा भवइ, तया में जेट्टामूली अमावासा भवइ / ता जया णं जेट्ठामूली पुणिमा भवइ तया णं मग्गसिरी अमावासा भवइ / [क] ता जया णं पोसी पुणिमा भवइ, तया णं आसाढी अमावासा भवइ / [ख] ता जया णं प्रासाढी पुण्णिमा भवइ, तया णं पोसी अमावासा भवइ / ma Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [अष्टम प्राभृतप्राभूत णक्खत्ताणं संठाणं 41. 1. प. ता कहं ते णक्खत्तसंठिई आहिए त्ति वएज्जा? ___ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीयो णक्खत्ते किंसंठिए पपणते ? उ. गोसीसावलि-संठिए पण्णते, 2. प. ता सवणे णक्खत्ते किसंठिए पण्णते? उ. काहार-संठिए पण्णत्ते, 3. प. ता धणिट्ठा णक्खत्ते किसंठिए पण्णते ? __उ. सउणोपलीणग-संठिए पण्णत्ते, 4. प. ता सयभिसया णक्खत्ते किसंठिए पपणते ? उ. पुष्फोक्यारसंठिए पण्णत्ते, 5. 5. ता पुवापोटुवया णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. प्रवड्वाविसंठिए पण्णते ? 6. प. ता उत्तरापोटुवया णक्खत्ते किसंठिए पण्णते ? उ. अवड्डवावि-संठिए पग्णत्ते, 7. प. ता रेवई णक्खत्ते किसंठिए पण्णते ? उ. णावासंठिए पण्णत्ते, 8. प. ता अस्सिणी णक्खत्ते किसंठिए पण्णते ? उ. प्रासक्खंध-संठिए पण्णत्ते, 6. प. ता भरणी णक्खत्ते किसंठिए पण्णते? उ. भग-संठिए पण्णत्ते, 10. प. ता कत्तिया णक्खत्ते किसंठिए पण्णते ? उ. छुरघरग-संठिए पग्णत्ते, 11. प. ता रोहिणी णक्खत्ते किसंठिए पण्णते? उ. सगडुड्डि-संठिए पण्णत्ते, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 16 12. प. ता मियसिरा णक्खत्ते किंसंठिए पण्णते? उ. मगसीसावलि-संठिए पण्णत्ते, 13. प. ता अद्दा णक्खत्ते किसंठिए पण्णते ? उ. रुहिरबिंदु-संठिए पण्णते, 14. प. ता पुणवणक्खत्ते किंसंठिए पण्णते ? उ. तुला-संठिए पण्णत्ते, 15. प. ता पुस्से णक्खत्ते किसंठिए पण्णत्ते ? उ. वद्धमाण-संठिए पण्णत्ते, 16. प. ता अस्सेसा णक्खत्ते किसंठिए पण्णते ? उ. पडाग-संठिए पण्णते, 17. प. ता महा णक्खत्ते किसंठिए पणते ? उ. पागार-संठिए पण्णत्ते, 18. प. ता पुन्वाफग्गुणी णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? उ. अद्धपलियंक-संठिए पण्णत्ते, 16. प. ता उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते किसंठिए पण्णते ? उ. प्रद्धपलियंक-संठिए पण्णत्ते, 20. प. ता हत्थ णक्खत्ते किंसंठिए पण्णते ? उ. हत्थ-संठिए पण्णत्ते, 21. प. ता चित्ता णक्खत्ते किंसंठिए पणते ? उ. मुहफुल्ल-संठिए पण्णत्ते, 22. प. ता साई णक्खत्ते किसंठिए पणते ? उ. खोलग-संठिए पण्णत्ते, 23. प. ता विसाहा णक्खत्ते किसंठिए पण्णत्ते ? उ. दामणि-संठिए पण्णते, 24. प. ता अणुराहा णक्खत्ते किसंठिए पण्णते ? उ. एगावलि-संठिए पण्णत्ते, 25. प. ता जेट्ठा णक्खत्ते किसंठिए पण्णत्ते ? उ. गयदंत-संठिए पण्णत्ते, Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत--अष्टम प्राभूतप्राभृत] 26. प. ता मूले णक्खत्ते किसंठिए पग्णत्ते ? उ. विच्छ्यलंगोलसंठिए णग्णत्ते, 27. प. ता पुन्वासादा णक्खत्ते किसंठिए पण्णते ? उ. गविक्कम-संठिए पण्णत्ते, 28. प्र. ता उत्तरासाढा णक्खत्ते किसंठिए पणते ? उ. सीहनिसाइयसंठिए पण्णते।' 1. प. एएसिणं भंते ! अहावीसाए णक्खत्ताणं अभोई खत्ते किसठिए पण्णते ? उ. गायमा ! गोसोसावलिस ठिा पण्णते, गाहानो१. गोसीसावलि, 2. काहार, 3. सउणी, 4. पुष्फोबयार, 5-6. वावी य / 1. णावा, 8. प्रासखंधग, 9. भग, 10. छुरघरए, 11. अ संगडुद्धी / / 12. मिगसीसावली, 13. रुहिरबिंदु, 14. तुला, 15. बद्धमाणग, 16. पडागा / 17. पागारे, 18-19. पलिअंके, 20. हत्थे, 21. मुहल्लए चेव / / 22. खोलग, 23. दामणी, 24. एगावली य, 25. गयदंत, 26. विच्छुयलंगुले य / 27. गयविक्कमे य तत्तो, 28. सीहनिसीही य संठाणा // -जंबु. वक्ख. 7, सु. 160 मूर्यप्रशप्ति की वृत्ति में ये गाथाएं उद्धृत हैंपूर्वाभाद्रपद-उत्तराभाद्रपद के संस्थान तथा पूर्वाफाल्गुनी-उत्तराफाल्गुनी के संस्थान समान माने गए है किन्तु पूर्वाषाढा-उत्तराषाढा के संस्थान भिन्न भिन्न माने गए हैं। संस्थानों की इस विभिन्नता का हेतु इस प्रकार है:-- पूर्वभद्रपदाया:अर्द्धवापीसंस्थान, उत्तरभद्रपदाया अप्यर्धवापी संस्थानं, एतदर्द्धवापीद्वयमीलनेन परिपूर्णा वापी भवति, तेन सूत्रे वापीत्युक्तम् / पूर्वफल्गुन्या पद्धपल्यंकसंस्थान, उत्तरफलान्या अप्यर्धपत्यक संस्थान, अत्रापि अर्द्धपल्यंकद्वयमीलनेन परिपुर्ण कल्यंको भवति, तेन संख्यान्यूनता न / ---जंबु. वक्ख. 6, सु 160 वृत्ति Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [नवम प्राभृतप्राभूत णक्खत्ताणं तारग्गसंखा--- सूत्र 42-1. प. ता कहं ते तारग्गे आहिए त्ति वएज्जा? ___ता एएसि णं अट्ठावोसाए णक्खत्ताणं अभीई गक्खत्ते कतितारे पण्णते? उ. तितारे पण्णत्ते, 2. सवणे णक्खत्ते कतितारे पण्णते? उ. तितारे पण्णत्ते, 3. प. धणिट्ठा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. पंचतारे पण्णत्ते, 4. प. सतभिसया णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. सततारे पण्णत्ते,४ 1. क-प. एएसि णं भते ! अदाबीसाए णवत्ताणं अभिई णवते कतितारे पणते ? उ, गोयमा ! तितारे पण्णत्ते, एवं गेयव्वा जस्स जइयानो तारापो, इमं च तं तारगां, गाहामो:-- तिग-तिग-पंचग-मय-दुग-बत्तीसम-तिगं तह तिग च / छ, पंचग-तिग-एक्कग-पंचग-तिग-छक्कगं चेव / / 1 / / सत्तग-दुग-दुग-पंचग-एक्केक्कग-पंच-चउ-तिग चेव / / एक्कारसग-चउक्क, चउक्कं चेव तारग्गं // 2 // --जंबु. वक्ष. 6, मृ. 151 ख, अभिइणखत्ते तितारे पण्णत्ते, एवं सवणो, अस्मिणी भरणी, मगसिरे, पूसे, जट्टा -ठाणं. अ. 3, उ. 3, मु. 2 अभिइणखत्ते तितारे घण्णत्ते, -सम. स. 6, सु. 9 2. क. ठाणं. अ. 3, उ. 3, सु. 227 ख. सम. स. 3, सु. 9 3. क. पंच णक्खत्ता पंचतारा पण्णत्ता, तं जहा-१. धणिट्टा, 2. रोहिणी, 3. पृणव्वम् 4. हत्थो, 5. विसाहा, - ठाणं अ. 5. उ. 3, सु. 473 ख. सम. स. 5, सु. 13 4. सतभिसयाणखत्ते एगसयतारे पण्णत्ते, -मम. म 100, मु. 2 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत-नवम प्राभूतप्राभूत] 5. प. पुन्वापोटुवया णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? - उ. दुतारे पण्णत्ते, 6. प. उत्तरापोटुवया णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. दुतारे पण्णत्ते, 7. प. रेवई णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. बत्तीसइतारे पण्णत्ते, 8. प. अस्सिणी, गक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. तितारे पण्णते, 6. प. भरणी णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. तितारे पण्णत्ते, 10. प. कत्तिया मक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. छतारे पण्णत्ते, 11. प. रोहिणीणक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. पंचतारे पण्णत्ते," 12. प. मिगसिरे णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. तितारे पण्णत्ते, -ठाणं अ. 2. उ. 4, मु. 110 -ठाणं अ. 2, उ. 4, सु. 110 -सम. स. 32, सु. 5 5. क-पुवामद्दवयाणवखत्ते दुतारे पण्णते, ख- मम. म. 2, सु. 6 6. क-उत्तराभवयाणक्वत्ते दुतारे पण्णत्ते, ख- सम. म. 2, मु. 6 7. रेवईणखत्ते बत्तीमद तारे पण्णत्ते, 8. क-ठाणं, अ. 3, उ. 3, सु. 227 खु-मम. स. 3, सु. 9 9. क-ठाणं, अ. 3 उ. 3, मु. 227 ख-सम. स. 3, सु. 9 10. कत्तिया णक्खत्ते छतारे पण्णते क-ठाणं अ. 6, सु. 539 ख-सम. स. 6, मु. 7 11. क-ठाणं अ. 5, उ. 3, सु. 473 ख-सम. स. 5, मु. 13 12. क-ठाणं अ. 3, उ. 3, सु. 227 ख-सम. स. 3, मु. 9 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 13. प. अद्दा णक्खत्ते कतितारे पण्णते? उ. एगतारे पण्णत्ते,13 14. प. पुणग्वसू णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. पंचतारे पण्णत्ते,१४ 15. प. पुस्से णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? ____ उ. तितारे पण्णत्ते,१५ 16. प. अस्सेसा णक्खत्ते कतितार पण्णत्ते ? उ. छतारे पण्णत्ते,१६ 17. 5. मघा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. सत्ततारे पण्णत्ते,'७ 18. प. पुवाफग्गुणी णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. दुतारे पण्णत्ते,१८ 16. प. उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. दुतारे पण्णत्ते, 13. क-अद्दा णक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते, ठाणं, अ. 1, सु. 55 ख-सम. स. 1, सु. 23 क-ठाणं अ. 5, उ. 3, मु. 473 ख-सम. स. 5, सु. 13 क-ठाणं अ. 3. उ. 3, मु. 227 ख-सम. स. 3, सु. 9 क-ठाणं, अ. 6, मु. 539 ख-सम. स. 6, सु. 7 क-महा णक्खत्ते सत्ततारे पण्णते. ठाणं, अ.७ सु. 589 ख-सम. स. 7, सु. 7 क-ठाणं अ.२, उ. 4, सु. 110 ख-सम. स. 2, सु.६ क-ठाणं ठा. 2, उ. 4. सु. 110 ख-सम. स. 2, सु. 6 19. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत-नवम प्राभृतप्राभृतः] [101 20. प. हत्थ णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. पंचतारे पण्णत्ते,२० 21. प. चित्ता णक्खत्ते कतितारे पग्णत्ते ? उ. एकवारे पण्णत्ते,२१ 22. प. साती णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. एकतारे पण्णत्ते,२२ 23. प. विसाहा णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. पंचतारे पण्णत्ते,२३ 24. प. अणुराहा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ. पंचतारे पण्णत्ते,२४ 25. प. जेट्टा णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. तितारे पण्णते, 25 26. प. मूले णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. एगतारे पण्णत्ते, 20. क-ठाणं, ठा. 5, उ. 3, सु. 473 ख-सम. स. 5. सु. 13 क-ठाणं, ठा. 1, मु. 55 ख-सम. म. 1, सु. 55 क-ठाण, ठा. 1, सु. 55 ख-सम. 1, सु. 23 क-ठाण, ठा. 5, उ. 3, मु. 473 ख-सम. स. 5, सु. 12 क-अणुराहा णक्खत्ते चउतारे पण्णत्ते ---ठाण अ. 4 उ. 4 सु. 386 ख-सम. 4 सु. 7 क-ठाण, ठा. 3, उ. 3, सु. 227 ख-सम. स. 3, सु. 9 मूलनक्खत्ते एक्कारसतारे पण्णत्ते -सम. 11 सु. 5 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 27. प. पुव्वासाढा णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? उ. चउतारे पण्णते,२७ 28. प. उत्तरासाढा णक्खत्ते कतितारे पण्णते? उ, चउतारे पण्णत्ते / 26 27. क-ठाणं, ठा. 4, उ. 4, सु. 386 ख-सम. स. 4, सु. 8 क-ठाण, ठा. 4, उ. 4, सु. 386 ख-सम. स.४, मु.९ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत दशम प्राभूतप्राभूत वास-हेमंत-गिम्हराइंदियाणं४३. प. 1. क. ता कहं ते णेता आहिए ति वएज्जा ? ख. ता वासाणं पढमं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? उ. ता चत्तारि णक्खत्ता ऐति, तं जहा–१. उत्तरासाढा, 2. अभिई, 3. सवणो, 4. धणिटा। 1. उत्तरासाढा चोद्दस अहोरत्ते णेइ, 2. अभिई सत्त अहोरत्ते णेइ, 3. सवणे अट्ठ अहोरत्ते णेइ, 4. धणिहा एग अहोरत्तं इ, तंसि णं मासंसि चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पादाई चत्तारि य अंगुलाणि पोरिसी भवइ / प. 2. ता बासाणं वितियं मासं कति णक्खत्ता ऎति ? उ. ता चत्तारि णक्खत्ता ति, तं जहा–१. धणिट्ठा, 2. सतभिसया, 3. पुत्वपोट्टक्या, 4. उत्तरपोढवया, 1. धणिट्ठा चोद्दस अहोरते णेइ, 2. सतभिसया सत्त अहोरत्ते गेइ, 3. पुचपोटक्या अट्ट अहोरत्ते णेइ, 4. उत्तरपोटुवया एग अहोरत्तं णेइ, तंसि णं मासंसि अळंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पादाई अट अंगुलाई पोरिसी भवइ / प. 3. ता वासाणं ततियं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? ता तिणि णक्खत्ताणेति, तं जहा–१. उत्तरपोटुवया, 2. रेवई, 3. अस्सिणी, 1. उत्तरपोढुवया चोद्दस अहोरत्ते णेइ, 2. रेवई पण्णरस अहोरत्ते णेइ, 3. अस्सिणी एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि दुवालसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहत्थाई तिण्णि पयाई पोरिसी भवइ / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र प. 4. ता वासाणं चउत्थं मासं कति णक्खत्ताणेति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तंजहा—१. अस्सिणी, 2. भरणी, 3. कत्तिया, 1. अस्सिणी चउद्दस अहोरत्ते इ, 2. भरणी पण्णरस अहोरत्ते णेइ, 3. कत्तिया एग अहोरत्तं जेइ, तंसि च णं मासंसि सोलसंगुलाए पोरिए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिणि पयाइं चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ / प. 1. ता हेमंताणं पढमं मासं कति णक्खत्ता ति ? उ. ता तिणि णक्खत्ता णेति, तंजहा-१. कत्तिया, 2. रोहिणी, 3. संठाणा, 1. कत्तिया चोद्दस अहोरत्ते णेइ, 2. रोहिणी पण्णरस अहोरत्ते णेइ, 3. संठाणा एग अहोरतं णेइ, तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पयाइं अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवइ / 1. 2. ता हेमंताणं वितियं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? ता चत्तारि णक्खत्ता णेति, तंजहा--१. संठाणा, 2. अद्दा, 3. पुणवसू, 4. पुस्सो, 1. संठाणा चोद्दस अहोरते णेइ, 2. अहा सत्त अहोरत्ते णेइ, 3. पुणव्वसू अट्ठ अहोरत्ते णेइ, 4. पुस्से एग अहोरत्तं गेइ, तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहत्थाई चत्तारि पदाइ पोरिसी भवइ / प. 3. ता हेमंताणं ततियं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? उ. ता तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तंजहा–१. पुस्सो, 2. अस्सेसा, 3. महा, 1. पुस्सो चोद्दस अहोरत्ते गेड, 2. अस्सेसा पंचदस अहोरत्ते णेइ, 3. महा एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि वीसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिट्टा, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पदाइं अठंगुलाई पोरिसी भवइ / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्रामृत-दशम प्राभूतप्राभूत] [105 प. 4. ता हेमंताणं चउत्थं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? उ. ता तिण्णि पक्खत्ता ऐति तं जहा--१. मघा, 2. पुवाफग्गुणी, 3. उत्तराफग्गुणी, 1. मघा चोद्दस अहोरत्ते गई, 2. पुव्वाफग्गुणी पण्णरस अहोरते णेइ, 3. उत्तराफरगुणी एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि सोलस अंगुलाई पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिणि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ / प. 1. ता गिम्हाणं पढमं मासं कति णक्खत्ता णेति ? उ. ता तिणि णक्खत्ता ऐति, तंजहा-१. उत्तराफग्गुणी, 2. हत्थो, 3. चित्ता, 1. उत्तराफग्गुणी चोद्दस अहोरत्ते णेइ, 2. हत्थो पण्णरस अहोरत्ते नेइ, 3. चित्ता एग अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स गं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्ठाई य तिण्णि पयाई पोरिसी भवइ / प. 2. ता गिम्हाणं बितियं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? उ. तातिणि णक्खत्ता ति, तंजहा-१. चित्ता, 2. साई, 3. विसाहा 1. चित्ता चोद्दस अहोरत्ते णेइ, 2. साई पण्णरस अहोरत्ते णेइ, 3. विसाहा एगं अहोरत्ते णेइ, तसि च णं मासंसि अट्ठगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पयाई अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवइ / प. 3. गिम्हाणं ततियं मासं कति गक्खत्ता ऐति ? उ. ता तिण्णि णक्खता णेति तं जहा--१. विसाहा, 2. अणुराहा, 3. जेट्ठामूलो, 1. विसाहा चोद्दस अहोरत्ते इ, 2. अणुराहा पण्णरस अहोरते णेइ, 3. जेट्ठामूलो एगं अहोरत्तं णेइ, तंसि च णं मासंसि चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पयाणि य चत्तारि अंगुलाणि पोरिसी भवइ / Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र प. 4. ता गिम्हाणं चउत्थं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? उ. ता तिष्णि णक्खत्ता ति, तंजहा—१. मूलो, 2. पुवासाढा, 3. उत्तरासाढा, 1. मूलो चोद्दस अहोरत्ते णेइ, 2. पुव्वासाढा पण्णरस अहोरत्ते इ, 3. उत्तरासाढा एग अहोरत्तं णेइ, तसि च णं मासंसि बट्टाए समचउरंससंठियाए जग्गोधपरिमंडलाए सकायमणुरंगिणीए छायाए सरिए अणुपरियट्टइ। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्ठाई दो पदाइं पोरसीए भवइ / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्रात [ग्यारहवां प्राभूत-प्राभृत चंदमग्गे णक्खत्तजोगसंखा--- 44. प. ता कहं ते चंदमग्गा आहिए ति वएज्जा ? उ. 1. ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अस्थि णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणणं जोगं जोएंति, 2. अत्थि णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, 3. अस्थि णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणऽवि उत्तरेणऽवि पमपि जोगं जोएंति, 4. अत्थि गवखत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणऽवि पमपि जोगं जोएंति, 5. अस्थि गक्खत्ता जे णं चंदस्स सया पमई जोगं जोएंति / प. 1. ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खताणं--- कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणेण जोगं जोएंति ? 2. कयरे णवखत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति ? 3. कयरे णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणणवि उत्तरेणऽवि पमई जोगं जोएंति ? 4. कयरे णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणणऽवि पमह जोगं जोएंति ? 5. कयरे णक्खता जे णं चंदस्स सया पमई जोगं जोएंति ? उ. 1. ता एएसि णं अट्ठावीसाए णवखत्ताणं--- तत्थ जे णं णक्खत्ता सया चंदस्स दाहिणणं जोगं जोएंति, ते णं छ, तंजहा–१. संठाणा, 2. अद्दा, 3. पुस्सो, 4. अस्सेसा, 5. हत्थो, 6. मूलो, 2. तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, ते णं बारस, तंजहा-- 1. अभिई, 2. सवणो, 3. धणिट्ठा, 4. सतभिसया, 5. पुस्वभद्दवया, 6. उत्तरभद्दवया, 7. रेवई, 8. अस्सिणी, 6. भरणी, 10. पुन्वफग्गुणो, 11. उत्तरफग्गुणी, 12. साती, 3. तत्थ जे ते शक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणणऽवि उत्तरेणऽवि पमई जोगं जोएंति, ते णं सत्त, तंजहा-१. कत्तिया, 2. रोहिणी, 3. पुणब्वसू, 4. महा, 5. चित्ता, 6. विसाहा, 7. अणुराहा, Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 108] सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 4. तत्य जे ते णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणऽवि पमई जोगं जोएंति, ____ताओ णं दो आसाढाओ सव्वबाहिरे मंडले जोगं जोएंसु वा, जोएंति वा जोएस्संति वा, 5. तत्थ जे ते णक्खत्ते जे णं सया चंदस्स पमई जोगं जोएइ, सा णं एगा, जेट्ठा / ' रवि-ससि-णक्खतेहि अविरहियाणं, विरहियाणं सामण्णाण य चंदमंडलाणं संखा४५. क. ता एएसि गं पण्णरसन्हं चंदमंडलाणं अस्थि चंदमंडला जे णं सया णक्खहि अविरहिया, ख. अस्थि चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहि विरहिया, ग. अत्थि चंदमंडला जे णं रवि-ससि-णक्खत्ताणं सामण्णा भवंति, घ. अस्थि चंदमंडला जे णं सया प्रादिच्चेहि विरहिया। प. क. ता एएसिणं पण्णरसहं चंदमंडलाणं-- कयरे चंदमंडला जे णं सया णक्खहिं अविरहिया ? ख. कयरे चंदमंडला जे णं सया णक्खहि विरहिया ? ग. कयरे चंदमंडला जे णं रवि-ससि-णक्खत्ताणं सामण्णा भवंति ? घ. कयरे चंदमंडला जे णं सया आदिच्चेहि विरहिया ? 1. प. 1. एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णवत्ताणं---- कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणेणं जोगं जोएंति ? कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोग जोएंति ? 3. कयरे मक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहणेणऽवि उत्तरेणऽवि पमर्ट जोग जोएति ? 4. कयरे णक्खत्ता जे णं सया दाहिणणं पमई जोगं जोएंति ? 5. कयरे णक्खता जे ण सया चंदस्स पमह जोगं जोएंति ? उ. 1. गोयमा ! एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खताणं-- तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणेणं जोगं जोएंति, ते णं छ, तंजहा---१. मंठाण, 2. अह, 3. पुस्सो, 4. प्रसिलेस, 5. हत्थो, 6. तहेव मुलो प्रबाहिरग्रा बाहिर मंडलस्स छप्पते णक्खत्ता, 2. तत्थ ण जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएं ति, ते णं बारस, तंजहा-...१. अभिई, 2. सवणो, 3. धणिदा, 4. सयभिसया, 5. पुवभवया, 6. उत्तरभवया, 7. रेवई, 5. अस्सिणी, ___9. भरणी. 10. पुब्बफग्गुणी, 11. उत्तरफग्गुणी, 12. साती, 3. तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहियोऽवि, उत्तरोऽवि पमई जोग जोएंति, ते णं सत्त, तंजहा---१. कत्तिया, 2. रोहिणी, 3. पुणब्वसू 4. मघा, 5. चित्ता, 6. विसाहा, 7. अणुराहा, 4. तस्थ णं जे ते णक्खत्ता जे गं सया चंदस्स दाहिणग्रो पमई जोगं जोएंति, नानी णं वे प्रासादायो सन्च बाहिरए मंडले प्रोगं जोएंसु वा, जोएंति वा, जोएस्संति वा, 5. तत्थ णं जे से णक्खत्ता, जे णं मया चंदस्स जोग जोएइमा णं एगा जेट्रा, ...-जंबू. वक्ख, 7, सू. 157 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत-प्राभूतप्राभूत [109 उ. क. ता एएसि णं पण्णरसण्हं चंदमंडलाणे तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं सया णक्खहि अविरहिया, ते णं अट्ठ, तंजहा१. पढमे चंदमंडले, 2. ततिए चंदमंडले, 3. छठे चंदमंडले, 4. सत्तमे चंदमंडले, 5. अट्ठमे, चंदमंडले, 6. दसमे चंदमंडले, 7. एकादसे चंदमंडले, 8. पण्णरसमे चंदमंडले, ख. तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं सया णक्खत्तेहि विरहिया, ते णं सत्त तंजहा१. बितिए चंदमंडले, 2. चउत्थे चंदमंडले, 3. पंचमे चंदमंडले, 4. नवमे चंदमंडले. 5. बारसमे चंदमंडले, 6. तेरसमे चंदमंडले, 7. चउद्दसमे चंदमंडले, ग. तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं रवि-ससि-णक्खत्ताणं सामण्णा भवंति, ते णं चत्तारि, तं जहा 1. पढमे चंदमंडले, 2. बीए चंदमंडले, 3. इक्कारसमे चंदमंडले, 4. पन्नरसमे चंदमंडले, घ. तत्थ जे ते चंदमंडला जे णं सया आदिच्चेहि विरहिया ते णं पंच तंजहा -- 1. छठे चंदमंडले, 2. सत्तमे चंदमंडले, 3. अट्ठमे चंदमंडले, 4. नवमे चंदमंडले, 5. इसमे चंदमंडले। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਟਸ ਗਰ [बारहवां प्राभृतप्राभूत णक्खत्ताणं देवया४६. प. ता कहं ते णक्खत्ताणं देवया पाहिए ति वएज्जा ? ता एएणं अट्ठावीसाए गक्खत्ताणं-. अभीई णक्खत्ते किदेवयाए पण्णते ? उ. बंभदेवयाए पग्णत्ते, 2. प. ता सवणे णक्खत्ते किंदेवयाए पण्णते ? उ. विण्हुदेवयाए पण्णत्ते, 3. प. ता धणिट्ठा णक्खत्ते किदेवयाए पण्णते ? उ. वसुदेवयाए पण्णत्ते, 4. प. ता सय भिसया णक्खत्ते किदेवयाए पण्णते? उ. वरुणदेवयाए पण्णत्ते, 5. प. ता पुब्बपोटुवया णक्खत्ते किदेवयाए पण्णते ? उ. अजदेवयाए पण्णत्ते, 6. प. ता उत्तरापोटुवया णक्खसे किदेवयाए पण्णते ? ___ उ. अहिवडि देवयाए' पण्णते, 7. प. ता रेवई णक्खत्ते किदेवयाए पण्णत्ते ? उ. पुस्सदेवयाए' पण्णत्ते, 8. प. ता अस्सिणी णक्खत्ते किदेवयाए पण्णत्ते ? उ. अस्सदेवयाए पण्णत्ते, 6. प. ता भरिणी णक्खत्ते किदेवयाए पण्णते ? उ. जमदेवयाए पण्णत्ते, 1. अभिवृद्धि, अन्यत्र-अहिर्बुध्न इति / 2. पूषा-पूषनामको देवो, न तु सूर्यपर्यायस्तेन रेवत्येव पौष्णमिति प्रसिद्धम / 3. अश्वनामको देव। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [111 दशम प्राभूत-प्रामृतप्राभूत] 10. प. ता कत्तिया णक्खत्ते किदेवयाए पण्णते? उ. अग्गिदेवयाए पण्णत्ते, 11. प. ता रोहिणी णक्खत्ते किदेवयाए पण्णते ? उ. पयावइदेवयाए' पण्णत्ते, 12. प. ता संठाणा णक्खत्ते किदेवयाए पण्णते ? उ. सोमदेवयाए पण्णत्ते, 13. प. ता अहा णक्खत्ते किदेवयाए पण्णत्ते ? उ. रुद्ददेवयाए पण्णत्ते, 14. 5. ता पुणव्वसू णक्खत्ते किदेवयाए पण्णत्ते ? उ. अदितिदेवयाए पण्णत्ते, 15. प. पुस्से णक्खत्ते किदेवयाए पण्णत्ते ? उ. बहस्सइदेवयाए पण्णत्ते, 16. प. ता अस्सेसा णक्खत्ते किदेवयाए पण्णत्ते ? उ. सप्पदेवयाए पण्णत्ते, 17. प. ता महा णक्खत्ते किदेवयाए पण्णते? उ. पितिदेवयाए पण्णत्ते, 18. 1. ता पुवाफग्गुणी णक्खत्ते किदेवयाए पण्णत्ते ? उ. भगदेवयाए पण्णत्ते, 16. प. ता उत्तराफग्गुणी गक्खत्ते किंदेवयाए पण्णते ? उ. अज्जम' देवयाए पण्णत्ते, 20. प. ता हत्थे णक्खत्ते किदेवयाए पण्णत्ते ? उ. सुविया देवयाय पण्णत्ते, 21. प. ता चित्ता गक्खत्ते किदेवयाए पग्णते ? ___ उ. तछेदेवयाए" पण्णत्ते, 1. प्रजापतिरिति ब्रह्मनामको देवः, अयं च ब्रह्मणः पर्यायान सहते, तेन ब्राह्ममित्यादि प्रसिद्धम् / 2. सोमः-चन्द्रस्तेन सौम्यं चान्द्रमसमित्यादि प्रसिद्धम / 3. रुद्र:--शिवस्तेन रौद्रा कालिनीति प्रसिद्धम / 4. पितृनामा देव:, 5. अर्यमा—अर्यमनामको देव विशेष:, 6. सविता---सूर्यः, 7. त्वष्टा--त्वष्ट्रनामको देवस्तेन त्वाष्ट्री-चित्रा इति प्रसिद्धम / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 22. प. ता साती णक्खत्ते किदेवयाए पण्णते? उ. वाउदेवयाए पण्णत्ते, 23. प. ता विसाहा णक्खत्ते' किंदेवयाए पण्णते ? उ. इंदग्गीदेवयाए पण्णत्ते, 24. प. ता अणुराहा गक्खत्ते किदेवयाए पण्णत्ते ? उ. मित्तदेवयाए पण्णत्ते, 25. प. ता जेट्टा गक्खत्ते किंदेवयाए पण्णत्ते ? उ. इंददेवयाए पण्णत्ते, 26. प. ता मूले णक्खत्ते किदेवयाए पण्णत्ते ? उ. णिरइदेवयाए' पण्णत्ते, 27. प. ता पुन्वासाढा णक्खत्ते किदेवयाए पणते ? उ. आउदेवयाए' पण्णत्ते, 28. प. ता उत्तरासाढा गक्खते किदेक्याए पण्णते ? उ. विस्सदेवयाए पण्णत्ते,' 1. कविशाखा-द्विदैवतमिति प्रसिद्धम / 2. नैऋत:--राक्षसस्तेन / 3. आपो-जलनामा देवस्तेन पूर्वाषाढा तोयंमिति प्रसिद्ध म / 4. विश्वेदेवास्त्रयोदश। क. प. एएसि णं भंते ! अहावीमाए णखत्ताणं अभीई गवाखते किदेवयाए पण्णते ? उ. गोयमा ! बम्हदेवया पण्णता, एएणं कमेणं णेयव्वा प्रणपरिवाडीए इमानो देवयानो, गाहाप्रो:१. बम्हा, 2. विण्हु, 3. वसू, 4. वरुणे, 5. अय, 6, अभिवती, 7. पूसे, 5. आसे, 9. जमे, 10. अग्गी, 11. पयावई, 12. मोमे, 13. रुद्दे, 14. अदिइ // 1 // 15. बहस्सई, 16. मप्पे, 17. पिऊ, 18. भगे, 19. अज्जम, 20. सविना, 21. तट्टा 22. वाउ, 23. इंदग्गी, 24. मित्तो, 25. इंदे, 26. निरई, 27, पाउ, 28. विस्सा य // 2 // एवं णक्खत्ताण एगा परिवाडी णे अव्वा, जाव प. उत्तरामाढा णवखते गं ऋते किंदेवयाए पण्णते ? उ. गोयमा! विस्सदेवया पणत्ता, --जंबू. वक्ख. 7, सु, 158 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [तेरहवां प्राभृतप्राभूत मुहुत्ताणं णामाई४७. प. ता कहं ते मुहुत्ताणं णामधेज्जा ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. एगभेगस्स णं अहोरत्तस्स तीसं मुहुत्ता पण्णत्ता तंजहा गाहाओ:१. रोद्दे, 2. सेते, 3. मित्ते, 4. वायु, 5. सुगीए, 6. अभिचंदे / 6. महिंद, 8. बलव 6. बंभो, 10. बहुसच्चे, 11. चेव ईसाणे // 1 // 12. तळे य, 13. भावियप्पा, 14. वेसमणे, 15. वरुणे य, 16. आणंदे। 17. विजए य, 18. वीससेणे, 19. पायावच्चे चेव, 20. उवसमे य // 2 // 21. गंधव, 22. अग्गिवेसे, 23. सयरिसहे, 24. आयवं च, 25. अममे य / 26. अणवं, 27. च भोम, 28. रिसहे, 26. सव्वळे, 30. रक्खसे चेव // 3 // 0 ख, एतया-ब्रह्म-विष्णु-वरुणादिरूपया परिपाट्या, न तु परतीथिकप्रयुक्त-अश्व-यमदहन-कमलजादिरूपया नेतव्या-परिसमदि प्रापणीया। गाहाप्रो:---- 1. बम्हा, 2. विण्हू, 3. अक्सू, 4. वरुणे, 5. अय, 6. वुड्ढी, 7. पूस, 8. प्रास, 9. जमे / 10. अग्गि, 11. पयावइ, 12. सोमे, 13. मद्दे, 14. अदिति, 15. बहस्सई, 16. सय्ये, // 1 // 17, पिउ, 18. भग, 19. अज्जम, 20. सविमा 21. तटा, 22. वाउ, 23. तहेव, इंदग्गी ! 24. मित्ते, 25. इंदे, 16. निरूई, 27. पाउ, 28. विस्सा या बोद्धब्वे / / 2 / / ---जबु. वक्ख. 47, सु, 174 एक ही प्रागम में अदावीस नक्षत्र-देवताओं के नामों की गाथाएं भिन्न भिन्न रचनाशैली में दो बार ग्राना, विचारणीय प्रश्न है। इसका समाधान बहुश्रुत करें तो जिज्ञासुओं के ज्ञान की वृद्धि हो। 1. एगमेगे णं अहोरते तीसमुहुत्ते मुहुत्तग्गेण पणत्ता, एएसिणं तीसाए मुहत्ताण तीसं नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-- 1, रोहे, 2. सत्ते, 3. मित्ते, 4. वाऊ. 5. सुपीए, 6. अभिचंदे, 7. माहिदे, 8. पलंबे, 9. बंभे, 10. सच्चे, 11. पाणंदे, 12. विजए, 13. विस्ससेणे, 14. पायावच्चे, 15. उवसमे, 16. ईसाणे, 17. तळे, 18. भाविअप्पा, 19. देसमणे, 20. वरुणे, 21. सतरिसमे, 22. गंधब्बे, 23. अग्गिवेसायणे, 24. अातवे, 25. आक्ते, 26. तट्टवे, 27. भूमहे, 28. रिसभे, 29. सब्वट्ठसिद्ध 30. रक्खसे, Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [चौदहवां प्राभृतप्राभूत दिवसराईणं णामाइं४८. प. ता कहं ते दिवसा ? आहिए ति वएज्जा, उ. ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस पण्णरस दिवसा पण्णत्ता, तंजहा-पडिया दिवसे, बितिया दिवसे, तइया दिवसे, चउत्थी दिवसे, पंचमी दिवसे, छट्ठी दिवसे, सत्तमी दिवसे, अट्ठमी दिवसे, नवमी दिवसे, दसमी दिवसे, एक्कारसी दिवसे, बारसी दिवसे, तेरसी दिवसे, चउद्दसो दिवसे, पण्णरसे दिवसे, ता एएसि णं पण्णरसण्हं दिवसाणं पण्णरस णामधेज्जा पण्णत्ता, तंजहागाहाओ:१. पुवंगे, 2. सिद्धमणोरमे, य तत्तो, 3. मणोहरो चेव / 4. जसभद्दे, 5. जसोधर, 6. सम्वकामसमिद्धे ति य // 1 // 7. इंदे मुद्धाभिसित्ते य, 8. सोमणस, ६.धणंजए य बोद्धब्वे / 10. अत्थसिद्धे, 11. अभिजाए, 12. अच्चासणे, 13. सतंजए // 2 // 14. अग्गिवेसे, 15. उवसमे, दिवसाणं णामधेज्जाई / / प. ता कहं ते राईओ पण्णत्ताओ? आहिए ति वएज्जा। उ. ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस पण्णरस राईओ पण्णताओ, तंजहा पडिवाराई. बितियाराई, ततीयाराई, चउत्थीराई, पंचमीराई, छट्ठीराई, सत्तमीराई, अट्ठमीराई, नवमोराई, दसमीराई, एक्कारसोराई, बारसोराई, तेरसोराई, चउद्दसीराई, पण्णरसीराई, ता एयासिणं पण्णरसण्हं राईणं पण्णरस णामधेज्जा पण्णत्ता, तंजहा गाहाओ:-- 1. उत्तमा य, 2. सुणक्खत्ता, 3. एलावच्चा, 4. जसोधरा / / 5. सोमणसा चेव तहा, 6. सिरिसंभूता य बोद्धन्वा // 1 // 7. विजया य, 8. वेजयंती, 6. जयंति, 10. अपराजिया य, 11. गच्छा य / 12. समाहारा चेव तहा, 13. तेया य तहा य, 14. अतितेया // 2 // 15. देवाणंदानिरती, रयणीणं गामधेज्जाई / / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [पन्द्रहवां प्राभृतप्राभूत तिहोणं णामाई४६. प. ता कहं ते तिही ? आहिए ति वएज्जा। उ. तत्थ खलु इमा दुविहा तिही पण्णत्ता, तं जहा–१. दिवसतिही, 2. राईतिही य, प. ता कहं ते दिवसतिही ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस पग्णरस दिवस तिही पण्णत्ता तंजहा 1. णंदे, 2. भद्दे, 3. जए, 4. तुच्छे, 5. पुणे पक्खस्स पंचमी, पुणरवि-६. णंदे, 7. भद्दे, 8. जए, 6. तुच्छे, 10. पुण्णे पक्खस्स दसमी, पुणरवि-११. गंदे, 12. भद्दे, 13. जए, 14. तुच्छे, 15. पुण्णे पक्खस्स पण्णरस, एवं ते तिगुणा तिहीओ सन्वेसि दिवसाणं / प. ता कहं ते राईतिही? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस राईतिही पण्णत्ता तं जहा 1. उग्गवई, 2. भोगवई, 3. जसवई, 4. सम्वसिद्धा, 5. सुहणामा, पुणरवि-६. उग्गवई, 7. भोगवई, 8. जसवई, 9. सव्वसिद्धा, 10. सुहणामा, पुणरवि-११. उग्गवई, 12. भोगवई, 13. जसवई, 14. सव्वसिद्धा, 15. सुहणामा, एए तिगुणा तिहीओ सव्वेसि राईणं॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [सोलहवां प्राभृतप्राभत] णक्खत्ताणं गोत्ता५०. प. ता कहं ते गोत्ता ? आहिए ति वएज्जा। प. 1. ता एएसिणं अट्ठावीसाए गक्खत्ताणं अभियो णक्खत्ते किंगोते पण्णते? उ. ता मोग्गलायणसगोत्ते पण्णत्ते / प. 2. सवणे णक्खत्ते किंगोते पण्णते? उ. संखायणसगोते पण्णत्ते / प. 3. धगिट्ठा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. अग्गितावसगोत्ते पण्णत्ते, प. 4. सतभिसया णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. कण्णलोयणसगोते पण्णत्ते, प. 5. पूव्वापोटुवया णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. जोउकण्णियसगोत्ते पण्णत्ते, प. 6. उत्तरापोटुवया णक्खत्ते किंगोते पण्णते ? उ. धनंजयसगोते पण्णत्ते, प. 7. रेवई णक्खत्ते किंगोते पण्णते ? उ. पुस्सायणसगोते पण्णत्ते, प. 8. अस्सिणी णक्खत्ते किंगोत्ते पग्णत्त ? उ. अस्सादणसगोत्ते पण्णते, प. 9. भरणी णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते? उ. भग्गवेससगोते पण्णते, प. 10. कत्तिया णक्खत्ते किंगोते पण्णते ? उ. अग्गिवेससगोत्ते पण्णते, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [117 दशम प्राभृत-सोलहवां प्राभृतप्राभृत] प. 11. रोहिणी णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते ? उ. गोतमसगोत्ते पण्णत्ते, प. 12. संठाणा णक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते? उ. भारद्दायसगोत्ते पण्णत्ते, प. 13. अद्दा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते ? उ. लोहिच्चायणसगोते पण्णत्ते, प. 14. पुणव्वसु णक्खते किंगोते पण्णते ? उ. वासिट्ठसगोते पण्णत्ते, प. 15. पुस्से मक्खत्ते किंगोत्ते पग्णत्ते ? उ. उज्जायणसगोत्ते पण्णत्ते, प. 16. अस्सेसा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते? उ. मंडव्वायणसगोते पण्णते, प. 17. मघा पक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते ? उ. पिंगायणसगोत्ते पण्णत्ते, 5. 18. पुव्वाफग्गुणो णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. गोवल्लायणसगोत्ते पण्णत्ते, प. 19. उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते ? उ. स कासवगोते पण्णत्ते, प. 20. हत्थे णक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते? उ. स कोसियगोते पण्णत्ते, प. 21. चित्ता णक्खत्ते किंगोते पण्णते ? उ. दभियाणसगोत्ते पण्णत्ते, प. 22. साई णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते ? उ. स चामरच्छसगोते पण्णते, प. 23. विसाहा णक्खत्ते किंगोते पण्णत्ते ? उ. सुगायणसगोते पण्णत्ते, 5. 24. अणुराहा णक्खत्ते किंगोते पण्णते ? उ. गोलव्वायणसगोते पण्णत्ते, Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र प. 25. जेट्टा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. तिगिच्छायणसगोत्ते पण्णत्ते, प. 26. मूले णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णते ? उ. कच्चायणसगोत्ते पण्णत्ते, प. 27. पुम्वासाढा गक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. वझियायणसगोत्ते पण्णत्ते, प. 28. उत्तरासाढा णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? उ. वग्घावच्चसगोते पण्णत्ते,' 1. प. एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिइणवखत्ते किंगोते पण्णत्ते ? उ. गोयमा ! मोगलायणसमोत्ते पण्णत्ते, गहायो 1. मोग्गलायण, 2. संखायणे अतह, 3. अम्गभाव, 4. कसिणल्ले / ततो अ५. जा उकणे, 6. धणंजए चेव बोद्धज्वे // 1 // 7. पुस्सायणे य, 8, अस्सायणे य, 9. भग्गवेसे य, 10. अग्गिवेसे य / 11. गोअम, 12. भारद्दाए, 13. लोहिच्चे चेव, 14. वासिळें // 2 / / 15. प्रोमज्जायण, 16. मंडवायणे य, 17. पिगायणे य, 18. गोवल्ले // 19. कासव, 20. कोसिय, 21. दब्भिय, 22. चामरच्छा य, 23. सुंगा य / / 3 / / 24. गोलब्वायण, 25. तेगिच्छायणे अ, 26. कच्चायणे हवइ मूले / / 27. तत्तो अवझियायण, 28. वग्यावच्चे य गोत्ताई // 4 // -जंबु. वक्ख. 7, सु. 160 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्रात [सत्तरहवां प्राभृतप्राभृत] णक्खत्ताणं भोयणं कज्जसिद्धी य५१. प. ता कहं ते भोयणा ? प्राहिए ति वएज्जा, उ. ता एएसि णं अट्ठावीसाए णं णक्खत्ताणं मज्झे-- 1. कत्तियाहि दधिणा भोच्चा कज्जं साधेति, 2. रोहिणीहि वसभ-मंसं भोच्चा कज्जं साधेति, 3. मिगसिरे णं (संठाणाहि) मिग-मंसं' भोच्चा कज्जं साति, 4. अद्दाहिं णवणोएणं भोच्चा कज्ज साधेति, 5. पुणवसुणाऽथ घएणं भोच्चा कज्जं साति, 6. पुस्से णं खोरेण भोच्चा कज्जं साति, 7. अस्सेसाए दीवग-मंसं भोच्चा कज्ज साधेति, 8. महाहि कसोति भोच्चा कज्ज साधेति, 6. पुव्वाहि फग्गुणोहिं मेढक-मंसं भोच्चा कज्जं साधेति, 10. उत्तराहि फग्गुणोहि णक्खो-मंसं भोच्चा कज्जं साधेति, 11. हत्थेण वत्थाणोएणं भोच्चा कज्ज सार्धति, 12. चित्ताहि मुग्ग-सूवेणं भोच्चा कज्ज साधेति, 13. साइणा फलाई भोच्चा कज्ज साधेति / 14. विसाहाहिं आसित्तियाओ भोच्चा कज्ज साधेति, 15. अणुराहाहि मिस्सकर भोच्चा कज्जं साधे ति, 16. जेट्टाहि कोलट्ठिएणं भोच्चा कज्ज साधेति, 17. मूलेणं मूलापन्नेणं भोच्चा कज्ज साधेति, 1. रोहिणीहिं चसम-मंसं (चमसमंस) भोच्चा कज्ज साधेति, प्रा. स. समिति से प्रकाशित प्रति के पृष्ठ 151 पर (पाठान्तर) है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 18. पुज्याहिं आसाढाहि आमलग-सरीरं भोच्चा कज्ज साधेति, 19. उत्तराहिं आसाढहि बिल्लेहि भोच्चा कज्जं सार्धति, 20. अभोयिणा पुहि भोच्चा कज्ज साधेति. 21. सवणेणं खीरेणं भोच्चा कज्जं सार्धति, 21. धणिवाहि जूसेणं भोच्चा कज्ज साधेति, 23. सतभिसयाए तुवरीओ भोच्चा कज्जं साधेति, 24. पुटवाहिं पुट्ठवयाहि कारिल्लएहि भोच्चा कज्जं साधेति, 25. उत्तराहिं पुट्ठवयाहिं वराहमंसं भोच्चा कज्जं साधेति, 26. रेवतीहि जलयर-मंसं भोच्चा कज्जं सार्धति, 27. अस्सिीहिं तितिर-मंसं बट्टकमंसं वा भोच्चा कज्जं साधेति, 28. भरणीहि तलं (तिल) तंदुलकं भोच्चा कज्जं साधेति।' DO कल्माषांस्तिलतण्डलानवि तथा माषांश्च गव्यं दधि, वाज्यं दुग्धमथैणमांसमपरं तस्यैव रक्तं तथा। तद्वत्पायसमेव चापपललं मार्ग च शाशं तथा, षाष्टिवयं च प्रियंग्वपूपमथवा चित्राण्डजान सत्फलम / / 84 // कौम सारिकगोधिक च पललं शाल्यं हविष्यं यायक्षे स्थान्कृसरान्नमुद्गमपि वा पिष्टं यवानां तथा / मत्स्यान्नं खलु चित्रितान्नमथवा दध्यन्नमेवं क्रमाद्भक्ष्याऽभक्ष्य मिदं विचार्य मतिमान् भक्षेत्तथाऽऽलोकयेत् / / -मुहर्त चिन्तामणि यात्राप्रकरण वस्तृत इदं सप्तदशं प्राभूतप्राभतं न भगवता प्रतिपादितं किन्तु केनाऽप्यत्र प्रक्षिप्तमिति प्रतिभाति, नेयं भाषाशैली भगवतो लक्ष्यते, यतोऽत्र सूत्रे कुत्रचित् 'कत्तियाहि रोहिणीहि, अद्दाहिं' इत्यादि तृतीयाबहुवचनं लभ्यते कुत्रचिच्च 'पुणब्बसुणा, पुम्सेणं, अदाए' इत्यादि तृतीय कवचनं लभ्यते / अन्यच्च भोज्यवस्तुविषये कुत्रचित्तृतीया कुत्रचिद् द्वितीया च / यथा-'दहिणा भोच्चा, गबणीयण भोच्चा, खीरेण भोच्चा' इति तृतीया, कुत्रचिच्च या मांसविषयकथनं तत्र द्वितीया, यथा---"वसभमंसं भोच्चा, मिगमसं भोच्चा, दीवगमसं भोच्चा" इत्यादि, एवमव्यवस्थितजल्पनेन ज्ञायते नेदं भगवता प्ररूपितमिति / अन्यच्च कतिपयस्थलेषु स्थलचर-जलचरखेचर-प्राणिनां मांसभक्षणं कार्यसिद्धौ कारणत्वेन प्रतिपादितं तत्तु नितान्तमसङ्गतमेव, यतः पटकायप्रतिपालकस्य षट्कायरक्षणोपदेशतत्परस्य च भगवतो मुखान्नैष मांसभक्षणविधिर्भवितुमर्हति, शास्त्रेषु कुत्रापि नेतादृशी वाणी भगवत: समुपलभ्यतेऽतो निश्चीयते-नेदं भगवदुपदेशविषयक मिति / अस्तु, अन्यदपि सयुक्तिक कारणं श्रयताम-शास्त्रेषु सर्वत्र नक्षत्राणां गणना अभिजिनक्षत्रादारभ्यैव कृता युगस्याद्यदिवसेऽभिजित एव सद्भावात् / अत्रव शास्त्रे पूर्व दशमप्राभृतस्य प्रथमे प्राभृतप्राभृते पादावेव सूत्रमिदम--- "ता कहं ते जोगेति वत्थुस्स प्रावलियाणिवाए पाहिएति वएज्जा, तत्थ खलू इमानो पंच पडिवत्तीयो पण्णत्तानो, तत्थेगे एवमाहंसु ता सव्वेवि णखत्ता, कत्तियादिया भरणीपज्जवसाणा एगे एवमाहंस् ॥शा" इयमन्यतीथिकानां प्रथमा प्रतिपत्तिः, एते कृत्तिकादीनि भरणीपर्यवसानानि नक्षत्राणि मन्यन्ते, एवमन्यतीथिकानां पञ्च प्रतिपत्तयः सन्ति / तत्र द्वितीया:-'मधादिकानि अश्लेषापर्यवसानानि सर्वाणि नक्षत्राणि' इति Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [अठारहवां प्राभृतप्राभृत] एगे जुगे प्रादिच्च-चंदचारसंखा५२. प. क-ता कहं ते चारा? आहिए त्ति वएज्जा, उ. तत्य खलु इमा दुविहा चारा पण्णत्ता, तंजहा-१. आदिच्चचारा य, 2. चंदचारा य / प. क-ता कहं ते चंदचारा? आहिए त्ति वएज्जा, उ. ता पंच संवच्छरिए णं जुगे, 1. अभीइ णक्खत्ते सत्तसद्विचारे चंदेण सद्धि जोगं जोएइ, 2. सवणे णक्खत्ते सत्तसद्विचारे चंदेण सद्धि जोगं जोएइ, एवं जाव, 3-28 उत्तरासाढा णक्खत्ते सत्तसद्विचारे चंदेण सद्धि जोगं जोएइ, प. ख–ता कहं ते आइच्चचारा ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. ता पंचसंवच्छरिए णं जुगे, 1. अभीई णक्खत्ते पंचचारे सूरेण सद्धि जोगं जोएइ, एवं जाव, 2-28 उत्तरासाढा णक्खत्ते पंचचारे सूरेण सद्धि जोगं जोएइ / 00 2, तृतीया-धनिष्ठादीनि श्रवणपर्यवसानानि इति 3, चतुर्थी अश्विन्यादीनि रेवतीपर्यवसानानि सर्वाणि नक्षत्राणि 4, एके भरण्यादिकानि अश्विनी पर्यवसानानि इति कथयन्ति / 5 / एता पञ्चापि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपा इति कथयित्वा, भगवान स्वमतं प्रदर्शयति "वयं पूण एवं वयामो--सब्वेवि णं णक्खत्ता अभिई आइया उत्तरासाढापज्जवसाणा पण्णत्ता, तंजहा-अभिई सवणो जाव उत्तरासाढा।" इति / अस्य मलय गिरिसूरिणा कृता टीका यथा--- "युगस्य चादिः प्रवर्त्तते श्रावणमासि बहुलपक्षे प्रतिपदि तिथौ बालबकरणे अभिजिन्नक्षत्रे चन्द्रेण सह योगमुपागच्छति (सति) / तथा चोक्तम्-ज्योतिष्करण्डके-- सावण बहुलपडिवए, बालवकरणे अभिईनक्वते / सव्वत्थ पढमसमये जुमस्स आई वियाणाहि / / 1 / / इति 'सव्वत्थ' सर्वत्रेति भरतैरवते महा विदेहे च / इत्थं सर्वेषामपि काल विशेषाणामादौ चन्द्रयोगमधिकृत्याभिजिन्नक्षत्रस्य वर्तमानत्वादभिजिदादीनि नक्षाणि प्रजप्तानि / ' इति टीका। अत्र कृत्तिकातो भरणीपर्यवसानानि नक्षत्राणि प्रथमान्यतीथिक:-संमतानि सन्ति, तन्मतानुसारेद-प्रातिप्राभतं दृश्यते / नेदं भगवतो मतमित्यत: स्पष्टं ज्ञायतेऽस्मिन् सप्तदशे प्राभतप्राभते भगवतः प्ररूपणा न भवितुमर्हतीत्यलं विस्तरेणेति। -चन्द्रप्रज्ञप्तिप्रकाशिका टीका Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [उन्नीसवां प्राभृतप्राभृत] एगसंवच्छरस्स मासा-- 53, प. ता कहं ते मासा ? आहिए ति वएज्जा, उ. ता एगमेगस्स णं संवच्छरस्स बारस मासा पण्णत्ता, तेसि च दुविहा णामधेज्जा पण्णत्ता, तंजहा-१. लोइया, 2. लोउत्तरिया य / तत्थ लोइया णामाः१. सावणे, 2. भद्दवए, 3. प्रासोए, 4. कत्तिए, 5. मग्गसिरे, 6. पोसे, 7. माहे, 5. फग्गुणे, 9. चेत्ते, 10. वेसाहे, 11. जेठे, 12. आसाढे / लोउत्तरिया णामाःगाहाओ:१. अभिणंदणे, 2. सुपइ8 य, 3. विजए, 4. पोइवद्धणे। 5. सेज्जंसे य, 6. सिवेया वि, 7. सिसिरे वि य, 8. हेमवं // 1 // 9. नवमे वसंतमासे, 10. दसमे कुसुमसंभवे / 11. एकादसमे णिदाहो, 12. वणविरोही य बारसे // 2 // 00 1. जंबु. वक्ख. 7, सु. 153 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्रामृत [बीसवां प्राभृतप्राभृत संवच्छराणं संखा लक्खणं च५४. प. ता कइ णं संवच्छरे ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. ता पंच संवच्छरा पण्णत्ता, तंजहा—१. णक्खत्त-संवच्छरे, 2. जुग-संवच्छरे, 3. पमाण संवच्छरे 4. लक्खण-संवच्छरे, 5. सणिच्छर-संबच्छरे।' णक्खत्तसंवच्छरस्स भेया तस्स कालपमाणं च५५. 1. क–ता णवखत्तसंवच्छरे णं दुवालसविहे पण्णत्ते, तंजहा–१. सावणे, 2. भद्दवए, 3. आसोए, 4. कत्तिए, 5. मग्गसिरे, 6. पोसे, 7. माहे, 8. फग्गुणोए 6. चित्ते, 10. वइसाहे, 11. जेठे, 12. आसाढे। 2. ख-जं वा बहस्सई महग्गहे दुवालसहि संवच्छरेहि सन्वं णक्खत्तमंडलं समाणेइ / जुगसंवच्छरस्स भेया कालपमाणं च-- 56. 2. ता जुगसंवच्छरे णं पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा–१. चंदे, 2. चंदे, 3. अभिवट्टिए, 4. चंदे, 5. अभिवडिए'। 1. ता पढमस्स णं चंदसंवच्छरस्स चउवीसं पवा पण्णत्ता, 2. दोच्चस्स णं चंदसंवच्छरस्स चउवीसं पव्वा पण्णत्ता, 3. तच्चस्स णं अभिवडिय संवच्छरस्स छन्वीसं पवा पण्णत्ता, 4. चउत्थस्स णं चंद संवच्छरस्स चउवीसं पव्वा पण्णत्ता, 5. पंचमस्स णं अभिवडिय संवच्छरस्स छव्वीसं पव्वा पण्णत्ता, एवामेव सपुष्वावरेणं पंचसंवच्छरिए जुगे एगे चउवीसे पव्वसए भवंतीतिमक्खायं / 3. पमाणसंवच्छरस्स भेया५७-५८. ता पमाणसंवच्छरे णं पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-१. णक्खत्ते, 2. चंदे, 3. उडू , 4. आइच्चे, 5. अभिवड्डिए, 1. ठाण. 5, उ. 3, सु. 460 2. ठाणं. 5, उ. 3, सु. 460 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 4. लक्खणसंवच्छरस्स भेया ता लक्खणसंवच्छरे णं पंचविहे पण्णत्ते तंजहा–१. णक्खत्ते, 2. चंदे, 3. उडू, 4. आइच्चे, 5. अभिवट्टिए। 5. सणिच्छरसंवच्छरभेया क. ता सणिच्छरसंवच्छरे णं अट्ठावीसइविहे पण्णत्ते, तंजहा–१. अभियो, 2. सवणे, 3. धणिट्ठा, 4. सतभिसया, 5. पुव्वापोट्टवया, 6. उत्तरापोट्टवया, 7. रेवई, 8. अस्सिणी, 6. भरणी, 10. कत्तिय, 11. रोहिणी, 12. संठाणा, 13. अद्दा, 14. पुणव्वसू, 15. पुस्से, 16. अस्सेसा, 17. महा, 18. पुव्वाफग्गुणी, 19. उत्तराफग्गुणी, 20. हत्थे, 21. चित्ता, 22. साई, 23. विसाहा, 24. अणुराहा, 25. जेट्टा, 26. मूले, 27. पुन्वासाढा, 28. उत्तरासाढा / ख. जं वा सणिच्छरे महग्गहे तीसाए संवच्छरेहि सव्वं गक्खत्तमंडलं समाणेइ / गाहाओः१. णक्खत्तसंवच्छरलक्खण: समगं गक्खत्ता जोयं जोएंति, समगं उडू परिणमंति // मच्चुण्हं नाइसीए, बहु उदए होइ नवखत // 1 // 2. चंदसंवच्छरलक्खणः ससि समग पुण्णमासिं, जोईता विसमचारि णक्खत्ता / / कडुनो बहु उदगवओ, तमाहु संवच्छरं चंदं / / 2 // 3. उडु (कम्म) संवच्छरलक्खण: विसमं पवालिणो परिणमंति, अणउसु दिति पुष्फफलं // वासं न सम्म वासइ, तमाहु संवच्छरं कम्मं / / 3 // 4. आइच्चसंवच्छरलक्खणं:-- पुढवि-दगाणं च रसं, पुष्फ-फलाणं च देइ आइच्चे // अप्पेण वि वासेणं, सम्मं निप्फज्जए सस्सं // 4 // 5. अभिवुड्डियसंवच्छरलक्खणं प्राइच्चतेयतविया, खण-लव-दिवसा उऊ परिणमंति / / पूरेइ रेणु-थलयाई, तमाहु अभिवडिय जाण // 5 // 1. ठाणं. 5, उ. 3, सु. 460 2. ठाणं. 5, उ. 3, सु. 460 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत [इक्कीसवां प्राभृतप्राभूत मक्खत्ताणं दाराई५९. प. ता कहं ते जोइसस्स दारा? आहिए ति वएज्जा, उ. तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्ताओ पण्णत्तीओ, तंजहा तत्थेगे एबमाहंसु१. ता कत्तियावीया सत्त णक्खत्ता पुत्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमासु२. ता महादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु३. ता धणिट्ठादीया सत्त णक्खत्ता पुष्वदारिया पण्णत्ता एगे एवमासु, एगे पुण एवमाहंसु४. ता अस्सिणीयादीया सत्त णक्खत्ता पुन्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमासु, एगे पुण एवमाहंसु५. ता भरणीयादीया सत्त णक्खत्ता पुन्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु / 1. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु(क) ता कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता पुन्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तंजहा 1. कत्तिया, 2. रोहिणी, 3. संठाणा, 4. अद्दा, 5. पुणव्वसू, 6. पुस्सो, 7. असिलेसा। (ख) महादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा 1. महा, 2. पुव्वाफग्गुणी, 3. उत्तराफरगुणी, 4. हत्थो, 5. चित्ता, 6. साई, 7. विसाहा, (ग) अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा 1. अणुराधा, 2. जेट्ठा, 3. मूलो, 4. पुष्वासाढा, 5. उत्तरासाढा, 6. अभीइ, 7. सवणो, (घ) धणिद्वादोया सत्त णक्खता उत्तरदारिया पण्णता, तं जहा 1. धणिट्ठा, 2. सतभिसया, 3. पुव्वापोट्ठवया, 4. उत्तरापोट्टवया, 5. रेवई, 6. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र अस्सिणी, 7. भरणी। 2. तत्थ गं जे ते एवमाहंसु(क) ता महादीया सत्त णक्खत्ता पुन्वदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तंजहा 1. महा, 2. पुन्वाफग्गुणी. 3. उत्तराफग्गुणी, 4. हत्थो, 5. चित्ता, 6. साती, 7. विसाहा, (ख) अणुराधादोया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा-- 1. अणुराधा, 2. जेट्ठा, 3. मूले, 4. पुव्वासाढा, 5. उत्तरासाढा, 6. अभिई, 7. सवणे, (ग) धणिवादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा 1. धणिट्ठा, 2. सतभिसया, 3. पुन्वापोटुवया, 4. उत्तरापोटुवया, 5. रेवई, 6. अस्सिणी, 7. भरणी, (घ) कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा--- 1. कत्तिया, 2. रोहिणी, 3. संठाणा, 4. अद्दा, 5. पुणव्वसू, 6. पुस्सो, 7. अस्सेसा, 3. तत्थ गं जे ते एवमाहंसु(क) ता धणिवादीया सत्त णक्खत्ता पुब्वदारिया पण्णता ते एवमाहंसु, तंजहा 1. धणिट्ठा, 2. सतभिसया, 3. पुव्वापोडवया, 4. उत्तरापोट्टवया, 5. रेवई, 6. अस्सिणी, 7. भरणी,' (ख) कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा 1. कत्तिया 2. रोहिणी, 3. संठाणा, 4. अद्दा, 5. पुणव्वसू, 6. पुस्सो, 7. अस्सेसा, (ग) महादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा 1. महा, 2. पुब्बाफग्गुणी, 3. उत्तराफग्गुणी, 4. हत्थो, 5. चित्ता, 6. साई, 7. विसाहा, (घ) अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तंजहा 1. अणराहा, 2. जेट्टा, 3. मूलो, 4. प्रवासाढा, 5. उत्तरासाढा, 6. अभीयी, 7. सवणो। 1. (क) कत्तियाईया सत्त गक्खत्ता पुब्बदारिया पण्णत्ता, (ख) महाईया सत्त णवत्ता दाहिणदारिया एण्णत्ता, (ग) अणुराहाईया सत्त णक्खत्ता अवरदारिया पण्णत्ता, (घ) धणिटाइया सत्त णवखत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता / -सम. स. 7, सु. 8, 9, 10, 11 ये समवायांग के जो सूत्र यहाँ दिये गये हैं वे अन्य मान्यता के सूचक हैं किन्तु इन सूत्रों में ऐसा कोई वाक्य नहीं है जिससे सामान्य पाठक इन सूत्रों को अन्य मान्यता के जान सके / यद्यपि जैनागमों में नक्षत्र इल का प्रथम नक्षत्र अभिजित है और अन्तिम नक्षत्र उत्तराषाढा है, पर इसके अतिरिक्त भिन्न भिन्न कालों में परिवर्तित नक्षत्रमण्डलों के भिन्न भिन्न क्रमों का परिज्ञान आगमों के स्वाध्याय के बिना कैसे सम्भव हो? Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत-इक्कीसवां प्राभूतप्राभृत] [127 4. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु(क) ता अस्सिणी, आदीया सत्त णक्खत्ता पुग्वदारिया पण्णत्ता, एते एवमाहंसु, तंजहा 1. अस्सिणी, 2. भरणी, 3. कत्तिया, 4. रोहिणी, 5. संठाणा, 6. अद्दा, 7 पुणन्वसू, (ख) पुस्सादीया सत्त पक्खता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा— 1. पुस्सा, 2. अस्सेसा, 3. महा, 4. पुव्वाफग्गुणी, 5. उत्तराफग्गुणी, 6. हत्थो, 7. चित्ता, (ग) साइयाइया सत्त गक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा 1. साती, 2. विसाहा, 3. अणुराहर, 4. जेट्ठा, 5. मूलो, 6. पुव्वासाढा, 7. उत्तरासाढा, (घ) अभिइयादिया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णता, तंजहा 1. अभिई, 2. सवणो, 3. धणिट्टा, 4. सतभिसया, 5. पुश्वभवया, 6. उत्तरभवया, 7. रेवई, 5. तत्थ गंजे ते एवमासु(क) ता भरणियादीया सत्त णक्खत्ता पुश्वारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तंजहा 1. भरणी, 2. कत्तिया, 3. रोहिणी, 4. संठाणा, 5. अद्दा, 6. पुणन्वसू, 7. पुस्सो, (ख) अस्सेसादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, तंजहा---- 1. अस्सेसा, 2. महा, 3. पुव्वाफग्गुणी, 4. उत्तराफग्गुणी, 5. हत्थो, 6. चित्ता, 7. साई, (ग) विसाहादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता, तंजहा 1. विसाहा, 2. अणुराहा, 3. जेट्ठा, 4. मूलो, 5. पुवासाढा, 6. उत्तरासाढा, 7. अभिई, (घ) सवणादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णता, तंजहा--- 1. सवणो, 2. धणिट्ठा, 3. सतभिसया, 4. पुवापोट्टवया, 5. उत्तरापोटुवया, 6. रेवई, 7, अस्सिणी। वयं पुण एवं वयामो(क) ता अभीइयादीया सत्त णक्खत्ता पुन्वदारिया पण्णता, तंजहा-- 1. अभिई, 2. सवणो, 3. धणिट्ठा, 4. सतभिसया, 5. पुवापोटुवया, 6. उत्तरा पोटुवया, 7. रेवई, (ख) अस्सिणीआदीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया यण्णता, तंजहा 1. अस्सिणी, 2. भरणी, 3. कत्तिया, 4. रोहिणी, 5. संठाणा, 6. अद्दा, 7, पुणव्वसू, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बावीसवाँ प्राभृतप्राभूत णक्खत्ताणं सरुवपरूवणं६०. प. ता कहं ते णक्खत्तविजए ? आहिए त्ति वएज्जा ? उ. ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सम्बन्भंतराए सव्वखुड्डाए जाव एगं जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई, सोलससहस्साई, दोण्णि य सत्ताधीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते। क. ता जंबुद्दीवे णं दीवे दो चंदा 1. पभासेंसु वा, 2. पभासेंति वा, 3. पभासिस्संति वा, ख. दो सूरिया 1. तविसु वा, 2. तवेंति वा, 3. तविस्संति वा, ग. छप्पण्णं णक्खत्ता जोयं 1. जोएंसु वा, 2. जोएंति वा, 3. जोइस्संति वा, तंजहा-1 1. दो अभीई, 2. दो सवणा, 3. दो धणिट्टा, 4. सतभिसया, 5. दो पुवापोटुवया, 6. दो उत्तरापोटुवया, 7. दो रेवई, 8. दो अस्सिणी, 6. दो भरणी, 10. दो कत्तिया, 11. दो रोहिणी, 12. दो संठाणा, 13. वो अद्दा, 14. दो पुणव्वसू, 15. दो पुस्सा, 16. दो अस्सेसाओ, 17. दो महाओ, 18. दो पुग्वाफग्गुणी, 19. दो उत्तराफग्गुणी, 20. दो हत्था, 21. दो चित्ता, 22. दो साई, 23. दो विसाहा, 24. दो अणुराधा, 25. दो जेट्ठा, 26. दो मूला, 27. दो पुव्वासाढा, 28. दो उत्तरासाढा। ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं--- क. अस्थि णक्खत्ता जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तदिमागे मुहत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, ख. अस्थि णक्खत्ता जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, ग. अत्थि णक्खत्ता जे गं तीसं मुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, घ. अस्थि णक्खत्ता जे णं पणयालोसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, प. क. ता एएसि छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जे णं णवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तविभागे मुहत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जोएंति? Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वशम प्रामृत-बावीसवाँ प्रामृतप्रामृत] [129 ख. कयरे णक्खता जे णं पण्णरसमुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति ? ग. कयरे णक्खत्ता जे णं तीसं मुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति ? घ. कयरे णक्खत्ता जे णं पणयालीसं मुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति ? उ. क. ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तसट्ठिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, ते णं दो अभोई, तत्थ जे ते णक्खता, जे णं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धि जोगं जोएंति, ते णं बारस, तंजहा१. दो सतभिसया, 2. दो भरणी, 3. दो अद्दा, 4. दो अस्सेसा, 5. दो साती, 6. दो जेट्ठा। ग. तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोगं जोएंति, ते णं तीसं, तंजहा 1. दो सवणा, 2. दो धणिट्ठा, 3. दो पुव्वाभहवया, 4. दो रेवई, 5. दो अस्सिणी, 6. दो कत्तीया, 7. दो संठाणा, 8. दो पुस्सा, 6. दो महा, 10. दो पुवाफग्गुणी, 11. दो हत्था, 12. दो चित्ता, 13. दो अणुराधा, 14. दो मूला, 15. दो पुव्वासाढा, घ. तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोगं जोएंति ते णं बारस, तं जहा-- 1. दो उत्तरापोटुवया, 2. दो रोहिणी, 3. दो पुणध्वसू, 4. दो उत्तराफागुणी, 5. दो विसाहा, 6. दो उत्तरासाढा / क. ता एएसि गं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं अस्थि णक्खत्ता जे णं चत्तारि अहोरत्ते, छच्च मुहत्ते सूरिएण सद्धि जोगं जोएंति, ते णं दो अभीयी, ख. अस्थि णक्खत्ता जे णं छ अहोरत्ते, एगवीसं च मुहत्ते सूरिएणं सद्धि जोगं जोएंति, ग. अस्थि णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते, बारस य मुहत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएंति, घ. अस्थि णक्खता जे णं वीसं अहोरत्ते तिन्नि य मुहत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएंति / प.क. ता एएसि णं णक्खत्ताणं कयरे मक्खत्ता जे णं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरिएण सद्धि जोगं जोएंति ? ख. कयरे णक्खत्ता जे णं छ अहोरत्ते एगवीसं च मुहत्ते सुरिएण सद्धि जोगं जोएंति ? ग. कयरे णखत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते, बारस य मुहुत्ते सूरिएण सद्धि जोगं जोएंति ? घ. कयरे णक्खत्ता जे णं वीसं अहोरत्ते, तिनि य मुहुत्ते सूरिएण सद्धि जोगं जोएंति ? Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र उ. क. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं___ तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं चत्तारि अहोरत्ते, छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएंति, ते णं दो अभोई, ख. तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं छ अहोरते, एगवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोग जोएंति, ते गं बारस तंजहा१. दो सतभिसया, 2. दो भरणी, 3. दो अद्दा, 4. दो अस्सेसा, 5. दो साती, 6. दो जेट्ठा, ग. तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते, बारस य मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएंति, ते णं तीसं, तंजहा१. दो सवणा, 2. दो धणिट्ठा, 3. दो पुन्वाभवया, 4. दो रेवती, 5. दो अस्सिणी, 6. दो कत्तिया, 7. दो संठाणा, 8. दो पुस्सा, 9. दो महा, 10. दो पुब्वाफग्गुणो, 11. वो हत्था, 12. दो चित्ता, 13. दो अणुराधा, 14. दो मूला, 15. दो पुव्वासाढा, घ. तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं वीसं अहोरत्ते तिण्णि य मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएंति, ते णं बारस, तंजहा--- 1. दो उत्तरापोट्टवया, 2. दो रोहिणी, 3. दो पुणव्वसू, 4. दो उत्तराफग्गुणी 5. दो विसाहा, 6. दो उत्तरासाढा। णक्खत्तमंडलाणं सीमाविक्खंभो६१. प. ता कहं ते सीमाविक्खंभे ? आहिए ति वएज्जा। उ. क. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं--- अस्थि णक्खत्ता, जेसि णं छ सया तीसा सत्तसदिभाग तोसइ भागाणं सीमाविक्खंभो, ख. अस्थि णक्खत्ता, जेसि णं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तसद्विभाग तोसइ भागाणं सीमा-विक्खंभो ग. अस्थि पक्खत्ता जेसि णं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागाणं सीमा विक्खंभो, घ. अस्थि णक्खत्ता जेसि णं तिसहस्सं पंचदसुत्तरं सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागाणं सीमा विवखंभो, प. क. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जेसि णं छसया, तीसा सत्तसद्विभाग तीसइ भागाणं सीमाविक्खंभो? Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत-बावीसवाँ प्राभतप्राभत] [131 ख. कयरे णक्खत्ता जेसि णं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तसद्विभाग तीसइ भागाणं सीमा विक्खभो? ग. कयरे णक्खत्ता जेसि णं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तसद्विभाग तीसइ भागाणं सीमा विक्खंभो? घ. कयरे णक्खत्ता जेसि गं तिसहस्सं पंचदसुत्तरं सत्तसद्विभाग तीसइ भागाणं सीमा विक्खंभो? उ. क. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं छ सया तीसा सत्तसद्विभाग तीसइ भागे णं सीमा विक्खंभो, ते णं दो अभिई / ख. तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेसि णं सहस्सं पंचुत्तरं सत्तसद्विभाग तीसइ भागे णं सीमाविक्खंभो, ते णं बारस, तंजहा--- 1. दो सतभिसया, 2. दो भरणी, 3. दो अद्दा, 4. दो अस्सेसा, 5. दो साती, 6. दो जेट्ठा। ग. तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तसट्ठिभाग तोसइ भागे गं सीमाविक्खंभो, ते गं तीसं, तंजहा१. दो सवणा, 2. दो धणिटा, 3. दो पुवाभद्दवया, 4. दो रेवई, 5. दो अस्सिणी, 6. दो कत्तिया, 7. दो संठाणा, 8. दो पुस्सा, 9. दो महा, 10. दो पुव्वाफग्गुणी, 11. दो हत्था, 12. दो चित्ता, 13. दो अणुराहा, 14. दो मूला, 15. दो पुश्वासाढा, तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं तिणि सहस्सा पण्णरसुत्तरा सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागे णं सोमाविक्खंमो, ते णं बारस, तंजहा१. दो उत्तरापोटुवया, 2. दो रोहिणी, 3. दो पुणव्वसू, 4. दो उत्तराफग्गुणो, 5. दो विसाहा, 6. दो उत्तरासाढा, णक्खत्ताणं चंदेण जोगो--- 62. प. क. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कि सया पादो चंदेण सद्धि जोगं जोएंति ? ख. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं कि सया सायं चंदेण सद्धि जोगं जोएंति ? ग. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं किं सया दुहा पविसिय पविसिय चंदेण सद्धि जोगं जोएंति ? Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] [सूर्यप्राप्तिसूत्र उ. क. ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खताणं-- न कि पि तं जं सया पादो चंदेण सद्धि जोगं जोएंति, ख. न सया सायं चंदेण सद्धि जोगं जोएंति, ग. न सया दुहओ पविसित्ता पविसित्ता चंदेण सद्धि जोगं जोएंति, पण्णस्थ दोहि अभिईहिं। ता एएणं दो अभिई पायंचिय पायंचिय चोतालीसं चोत्तालीसं अमावासं जोएंति णो चेव णं पुण्णमासिणि। चंदस्स पुणिमासिणोसु जोगो तत्थ खलु इमानो बार्टि पुण्णिमासोओ बाढ़ि अमावासाम्रो पण्णत्ताओ, 1. प. ता एएसिणं पंचण्ह संवच्छराणं पढमं पुण्णिमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ, जंसि णं देसंसि चंदे चरिम बाटुिं पुणिमासिणि जोएइ ताए तेणं पुण्णिमा सिणिट्ठाणाए' मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता बेत्तीस भागे उवाइणावेत्ता, एत्य णं से चंदे पढमं पुण्णिमासिणि जोएइ, 2. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं पुणिमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. जंसि णं देसंसि चंदे पढमं पुण्णिमासिणि जोएइ, ताए तेणं पुण्णिमासिणिढाणाए मंडलं चउन्दीसेणं सएणं छत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता एस्थ णं से चंदे दोच्चं पुणिमासिणि जोएइ, 3. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं पुण्णिमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. जंसि णं देसंसि चंदे दोच्चं पुणिमासिणि जोएइ ताए ते णं पुणिमासिणिट्ठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से चंदे तच्चं पुणिमासिणि जोएइ, 4. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं पुणिमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. जंसि णं देसंसि चंदे तच्चं पुण्णमासिणि जोएइ ता पुणिमासिणिट्ठाणाए मंडलं चउब्बीसेणं सएणं छेत्ता दोणि अट्ठासीए भागसए२ उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे दुवालसमं पुण्णिमासिणि जोएइ, 1. तस्मात्पूर्णमामोस्थानात्-चरमद्वाषष्टितम पौर्णमासीपरिममाप्तिस्थानात परतो मण्डल, चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्वा विभज्य / / "दोणि अट्ठासीए भागसए" ति, तृतीयस्या: पौर्णमास्या: परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी भवति, ततो नवभित्रिशतो गुणने द्वे शते अष्टाशीत्यधिके भवतः / Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत-बावीसवां प्राभूतप्रामृत] [133 एवं खलु एएणं उवाएणं ताए ताए पुणिमासिणिट्ठाणाए मंडलं चउध्वीसेणं सएणं छेत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं पुणिमासिणि चंदे जोएइ / 5. प. ता एएसि गं पंचण्हं संवच्छराणं चरमं वाट्ठि पुणिमासिणि चंदे कसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जंबुदीवस्स णं दीवस्स पाईण-पडिणाययाए उदीण-वाहिणययाए जीवाए मंढलं चउव्वीसेणं सए णं छेत्ता दाहिणंसि चउम्भामंडलंसि सत्तावीसं भागे उवाइणावेत्ता, अट्ठावीसइ भागे वीसहा छेत्ता अट्ठारसभागे उवाइणावेत्ता तिहि भागेहि दोहि य कलाहिं पच्चथिमिल्लं चउभागमंडलं असंपत्ते एत्थणं चंदे चरिमं बावद्धि पुणिमासिणि जोएइ।' सूरस्स पुणिमासिणीसु जोगो:६४. 1. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं पुण्णिमासिणि सूरे कंसि देससि जोएइ ? उ. ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं बावट्ठि पुण्णिमासिणि जोएइ, ताए पुणिमासिणिठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता चउणवई भागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से सूरिए पढमं पुणिमासिणि जोएइ। 2. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं पुणिमासिणि सूरे कंसि देससि जोएइ ? उ. ता जंसि गं देसंसि सूरे पढमं पुण्णिमासिणि जोएइ, ताए पुणिमासिणिठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता दो चउणवइभागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से सूरिए दोच्चं पुण्णिमासिणि जोएइ, 3. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्च पुण्णिमासिणि सूरे कंसि देसंसि जोएइ ? ___ उ. ता जंसि गं देसंसि सूरे दोच्चं पुणिमासिणि जोएइ, ताए पुणिमासिणिठाणाए मंडलं . "जंबुद्दीवस्स णमित्यादि। जम्बूद्वीपस्य णमिति वाक्यालंकारे द्वोपस्योपरि प्राचीना प्राचीनतया, इह प्राचीनग्रहणेनोत्तरपूर्वा (ईशान) गृह्यते, अपाचीनग्रहणेन दक्षिणापरा, (नैऋत्य) / ततोऽयमर्थः पूर्वोत्तर-दक्षिणापरायतया, एवमुदीचि-दक्षिणायतया, पूर्व-दक्षिणोत्तरापरायतया जीवया प्रत्यंचया दवरिकया इत्यर्थः. मण्डलं चतुर्विशेन-चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा विभज्य भूयश्चतुर्भिविभज्यते, ततो दाक्षिणात्ये चतुर्भागमण्डले एकत्रिंशद्भागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादायाष्टाविंशतितमं च भागं विंशतिधा छित्त्वा तद्गतानष्टादश-- भागानुपादाय शेष स्त्रिभिर्भागश्चतुर्थस्य भामस्य द्वाभ्यां कलाभ्यां, पाश्चात्यं चतुर्भागमण्डलमसंप्राप्तः अस्मिन् प्रदेशे चन्द्रो द्वाषष्टितमा चरमा पौणिमासी परिसमापयति / -टीका Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र चउच्चीसेणं सएणं छेत्ता चउणवइमागे उवाइणावेत्ता एस्थ णं से सूरिए तच्चं पुण्णिमासिणि जोएइ, 4. प. ता एएसिणं पचण्हं संवच्छराणं दुवालसं पुणिमासिणि सूरे कंसि देसंसि जोएइ ? ता जंसि णं देसंसि सूरे तच्चं पुणिमासिणि जोएइ, ताए पुणिमासिणिठाणाए मंडलं चउरवीसेणं सएणं छत्ता अद्वछत्ताले भागसए' उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से सूरिए दुवालसमं पुणिमासिणि जोएइ, एवं खलु एएणं उवाएणं ताए ताए पुणिमासिणिठाणाए मंडलं चउव्वीसे णं सएणं छेत्ता चउणवई चउणवइं भागे उवाइणावेत्तार, तंसि तंसि णं देसंसि तं तं पुणिमासिणि सूरे जोएइ, 5. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चरिमं बावटि पुणिमासिणि सूरे कसि देसंसि जोएइ? उ. ता जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पाईण-पडिणाययाए उदोण-दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउम्वोसेणं सएणं छेत्ता पुरथिमिल्लसि चउम्भागमंडलंसि सत्तावीसं भागे उवाइणावेत्ता अट्ठावोस इभागं वीसहा छेत्ता अट्ठारसभागे उवाइणावेत्ता तिहि भागेहि दोहि य कलाहिं दाहिणिल्लं चउभागमंडलं असंपत्ते एस्थ गं सूरिए चरिमं बावटि पुणिमासिणि जोएइ। चंदस्य अमावासासु जोगो 65. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं अमावासं चंदे कसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जसिणं देससि चंदे चरिमं बावठिं अमावासं जोएइ ताए अमावासद्वाणाए मंडलं चउव्वीसे णं सएणं छेत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से चंदे पढम अमावासं जोएइ, 1. "अटुछत्ताले भागसए" त्ति, तृतीयस्या पौर्णमास्या: परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी, ततश्चतुर्नवाति वाभिर्गण्यते, जातान्यष्टौ शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि / 2. पाश्चात्ययुगचरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्ति निबन्धनात् स्थानात परतो मण्डलस्य चतुर्दिशत्यधिक रात प्रविभक्तस्य मत्कानां चतर्नवतिचतुर्नवतिभागानामतिक्रमे तस्याः तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिः, ततश्चतुर्नवतिद्विषट्या गुण्यते, जातान्यष्टा-- पंचाशच्छतानि अष्टाविंशत्यधिकानि, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो ह्रियते लब्धाः सप्तचत्वारिंशत्सकलमण्डलपरावर्ताः / ----टीका Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्रामत-बावीसवाँ प्रामतप्राभत] [135 एवं जेणेव अभिलावणं चंदस्स पुणिमासिणीओ भणिआओ तेणेव अभिलावेणं अमावासाओ भाणियन्वानो, तंजहा-विइया, तइया, दुवालसमो।' एवं खलु एएणं उवाएणं ताए ताए अमावासाठाणाए मंडलं चउच्चीसे णं सएणं छत्ता बत्तीसं बत्तीस भागे उवाइणावेत्ता तसि तंसि देसंसि तं तं अमावासं चंदेण जोएइ, प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चरिमं बावठिं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जंसि णं देसंसि चंदे चरिमं बावटि पुणिमासिणि जोएंति, ताए पुणिमासिणि ठाणाए मंडलं चउब्बीसेणं सएणं छेत्ता सोलस भागे ओसक्कावइत्ता, एत्थ णं से चंदे चरिमं बावटि अमावासं जोएइ। सूरस्स अमावासासु जोगो६६. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं अमावासं सूरे कसि देसंसि जोएइ? उ. ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं बाढि अमावासं जोएइ, ताए अमावाससंठाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता चउणउइभागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से सूरे पढ़मं अमावासं जोएइ, एवं जेणेव अभिलावेणं सूरियस्स पुणिमासिणोनो तेणेव अभिलावेणं अमावासाओ भणियवाओ, तंजहा-बिइया, तइया, दुवालसमी / ' 1. “एवमित्यादि" एवमुक्तप्रकारेण येन वाभिलापेन चन्द्रस्य पौर्णमास्यो भणितास्तेनैवाभिलापेनामावास्या अपि भणितव्याः, तद्यथा-द्वितीया, ततीया, द्वादशी च ताश्चैवम् / प. ता एएसि णं पंचण्ह संवच्छराणं दोच्वं अमावासं चंदे कमि देसंमि जोएइ ? उ. ता जंसि णं देसंसि चंदे पढम प्रमामासं जोएइ, तानो णं अमावासट्रागाग्रो मंडलं चउवीसेणं सएणं छत्ता, बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्य गं से चंदे दोच्चं प्रमावासं जोएइ, प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्च अमावासं चंदे कमि देसंसि जोएइ ? उ. ता जंसि णं देसंसि चंदे दोच्च अमावासं जोएइ, तायो अमावासद्वाणाम्रो मंडल चउच्वीसेक सएणं छत्ता, बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे तच्च अमावासं जोएइ, प. ता एएसि णं पंचण्हं संबच्छराणं दुवालममं अमावासं चदे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जसिणं देससि चंदे अमावासं जोएड, तानो णं अमावासटाणायो मंडलं चउवोसेणं सरण छेता. दोरिण अट्टामीए भागलए उवाइणावेत्ता, एत्थ णं चंदे दुवालसमं अमावासं जोएइ, 2. एवमित्यादि एवमुक्तेन प्रकारेण तेमवाभिलापेन सूर्यस्य पौर्णमास्य उक्तास्तेनैवाभिलापेनामावास्या अपि वक्तव्याः, तद्यथा-द्वितीया, तृतीया द्वादशी च ताश्चैवम् / 1. एएसि णं पंचण्ह संवच्छराणं दोच्च अमावासं सूरे कंसि देसं सि जोएइ ? उ. ता जसिणं देसंसि सूरे पढ़मं अमावासं जोएइ, तानो अमावासद्वाणायो मंडलं चउदीसेणं सएण छेत्ता चउणउई भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं सूरे दोच्च अमावासं जोएइ, 5. ता एएसिणं पंचण्हें संवच्छराणं तच्च अमावासं सूरे कंसि देससि जोएइ ? उ. ता जसि णं देसंसि दोच्चं अमावासं जोएइ, तायो अमावासद्राणायो मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता च उणउइ भागे उवाइजावेत्ता एत्थ णं सूरे तच्च अमावासं जोएइ, प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराण दुवालसमं सूरे कंसि देसंसि जोएइ ? उ. ता सिगं देसंसि सूरे तच्च अमावासं जोएइ, तायो अमावासटाणामो मंडलं चउन्वीसेणं सरण छेत्ता अट्ठ छत्ताले भागसए उवाइशावेत्ता, एत्थ णं से सूरे दुवालसमं अमावासं जोएइ / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र एवं खलु एएणं उवाएणं ताए ताए अमावासट्टाणाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता, चउणउई चउणउइं भागे उवाइणावेत्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं अमावासं सूरिए जोएइ / प. ता एएसिणं पंचण्हं संबच्छराणं चरिमं बावटि अमावासं सूरे कंसि देसंसि जोएइ ? / उ. ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं बाट्टि अमावासं जोएइ, ताए पुण्णिमासिणिठाणाए _____ मंडमं चउध्वीसे णं सएणं छेत्ता सत्तालीसं भागे ओसक्कावइत्ता, एत्थ णं से सूरिए चरिमं बाढि अमावासं जोएइ। पुण्णिमासिणिसु चंदस्स य सूरस्स य णक्खत्ताणं जोगो६७. 1. क. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं पुणिमासिणि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता धणिवाहि, णिहाणं तिण्णि मुहत्ता एगूणवीसं च बावट्ठिभागा मुहत्तस्स बावविभागं ___ च सत्तट्टिधा छेत्ता पण्णट्टि चुणिया भागा सेसा, ख. प. तं समयं च णं सुरिए केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुब्वफग्गुणीहि, पुवफग्गुणीणं अट्ठावीसं मुहुत्ता प्रद्रुतीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावद्विभागं च सत्तद्विधा छत्ता बत्तीसं चुणिया भागा सेसा। 2. क. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं पुणिमासिणि चंदे केणं णक्यत्तेणं जोएइ ? उ, ता उत्तराहि पोढवयाहि, उत्तराणं पोटुवयाणं सत्तावीसं मुहत्ता चोइस य बावटि भागा मुहत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता बाट्टि चुणिया भागा सेसा, ख. प. तं समयं च णं सूरिए केणं गक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं फग्गुणीहि, उत्तराफग्गुणोणं सत्तमुहुत्ता तेत्तीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता, एक्कवीसं चुग्णिया भागा सेसा। 3. क. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं पुणिमासिणि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता अस्सिणीहि, अस्सिणीणं एक्कवीसं मुहत्ता णव य बावट्ठिभागा मुहत्तस्स, बावविभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेवद्धि चुणिया भागा सेसा, ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? .उ. ता चित्ताहि, चित्ताणं एकको मुहुत्तो अट्ठावीसं च बावट्ठिभागा मुहत्तस्स, बावटिभागं च ___ सत्तद्विधा छेत्ता, तीसं चुण्णियाभागा सेसा। 4. क. प. ता एएसिणं, पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं पुणिमासिणि चंदे केणं णक्खतेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहि आसाढाहि, उत्तराणं च आसाढाणं छवीसं मुहुत्ता छवीसं च बावद्विभागा मुहत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता, चउप्पण्णं चुणिया भागा सेसा, ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभृत-बावीसवाँ प्राभृतप्रामृत] [137 उ. ता पुणण्वसुणा पुणब्बसुस्स सोलस मुहुत्ता अट्ठ य बाव द्विभागा मुहुत्तस्स बावद्विभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता वीसं चुणियाभागा सेसा / 5. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरमं बाढि पुण्णिमासिणि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहि आसाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए / ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुस्से णं पुस्सस्स एगूणवीसं मुहुत्ता तेतालीसं च बावट्ठिभागा मुहत्तस्स बाटिभागं च सत्तट्टिधा छेत्ता तेतीसं चुणिया भागा सेसा / अमावासासु चंदस्स य सूरस्स य पक्खत्ताणं जोगो६८. 1. क. प. एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता अस्सेसाहिं चेव अस्सेसाणं एक्के मुहत्ते चत्तालोसं च बावद्विभागा मुहत्तस्स बावट्टि भागं च सत्तट्टिधा छेत्ता, बावट्टि चुणिया भागा सेसा / ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता अस्सेसाहिं चेव अस्सेसाणं एक्को मुहत्तो चत्तालीसं च बावट्ठिभागा मुहत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता, बावट्टि चुणिया भागा सेसा। 2. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्च अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहि चेव फग्गुणीहि उत्तराणं फग्गुणीणं चत्तालीसं मुहुत्ता पणतीसं बावटि भागा मुहत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता, पट्टि चुणिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ___ उ. ता उत्तराहि चेव फग्गुणीहि उत्तराणं फग्गुणोणं जहेव चंदस्स / 3. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं अमावासं चंदे केणं णक्खतेणं जोएइ ? उ. ता हत्थेणं चेव हत्थस्स चत्तारि मुहत्ता तीसं च बाट्ठिभागा मुहत्तस्स बावविभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता बाट्टि चुणिया भागा सेसा / ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ___ उ. ता हत्थेणं चेव हत्थस्स जहेब चंदस्स / 4. क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र उ. ता अद्दाहिं चेव अद्दाणं चत्तारि मुहुत्ता, दस य बावट्टि भागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं ___ च सत्तद्विधा छेत्ता चउप्पण्णं चुणिया भागा सेसा / ख. प. तं समयं च सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता अद्दाहिं चेव अदाणं जहा चंदस्स / 5. क. प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चरिमं बाट्ठि अमावास चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? उ. ता पुणन्वसुणा चेव पुणन्धसुस्स बावीसं मुहुत्ता बायालोसं च बासट्ठिभागा मुहत्तस्स सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुणव्वसुणा चेव, पुणव्वसुस्स जहा चंदस्स / चंदेण य सूरेण य णवखत्ताणं जोगकालं६६. 1. क. ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं चंदे जोगं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाई अट्ठ एगूणवीसाइ मुहत्तसयाइं चउवीसं च बावट्ठिभागा मुहत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता, बाट्ठि चुण्णियाभागे उवाइणावेत्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं सरिसएणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएइ अण्णंसि देसंसि / ख. ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं चंदे जोगं जोएइ, जंसि देसंसि से णं इमाइं सोलस अट्ठतीसं मुहत्तसयाई अउणापण्णं च बावठ्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता, पण्णाष्टुं चुण्णियाभागे उवाइणावेत्ता, पुणरवि से णं चंदे तेणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएइ, अण्णंसि देसंसि / ग. ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं चंदे जोगं जोएइ, जंसि देसंसि से णं इमाई चउपग्ण-मुहत्त सहस्साई णव य मुहुत्तसयाई उवाइणावेत्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं तारिसएणं णक्खत्तेणं जोगं जोएइ, तंसि देसंसि, घ. ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं चंदे जोगं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाइं एगलक्खं नव य सहस्सं अट्ठ य मुहुत्तसए उवाइणावेत्ता पुणरवि से चंदे तेणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएइ, तंसि देसंसि। . ता जेणं अज्ज गक्खत्तेणं सूरे जोगं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाई तिणि छावट्ठाई राइंदियसयाई उवाइणावेत्ता पुणरवि से सूरिए अण्णेणं तारिसएणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएइ तं देसंसि / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम प्राभूत-बावीसवाँ प्रामतप्राभूत] [139 ख. ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं सूरे जोगं जोएइ तंसि देसंसि से गं इमाई सत्त दुतीस राइंदियसयाई उवाइणावेत्ता पुणरवि से सूरे अण्णेणं चेव तारिसएणं णक्खत्तेणं जोगं जोएइ, तंसि देसंसि / ग. ता जेणं अज्ज णक्खतेणं सूरे जोग जोएइ, जंसि देससि से णं इमाइं अट्ठारस तीसाई राइंदियसयाई उवाइणावेत्ता पुणरवि सूरे तेणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएइ, तंसि देसंसि / घ. ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं सूरे जोगं जोएइ जंसि देसंसि से णं इमाई छत्तीसं सट्ठाई राईदियसयाई उवाइणावेत्ता पुणरवि से सूरे तेणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएइ तसि देसंसि। चंद-सूर-गह-णक्खत्ताणं गइसमावण्णत्तं-- 70. ता जया णं इमे चंदे गइसमावण्णए भवइ, तया णं इयरेऽवि चंदे गइसमावण्णए भवइ / जया णं इयरे चंदे गइसमावण्णए भवइ, तया णं इमेऽवि चंदे गइसमावष्णए भवइ / ता जया णं इमे सूरिए गइसमावण्णए भवइ, तया णं इयरेऽवि सूरिए गइसमावण्णए भवइ / ता जया णं इयरे सूरिए गइसमावण्णए भवइ, तया णं इमेऽवि सूरिए गइसमावण्णए भवइ / एवं गहे वि, णक्खत्ते वि। चंद-सूर-गह-णक्खत्तारणं जोगो-~ ता जया णं इमे चंदे जुत्ते जोगे णं भवइ, तया णं इयरेवि चंदे जुत्ते जोगे णं भवइ / ता जया णं इयरे चंदे जुत्ते जोगे णं भवइ, तया णं इमेऽवि चंदे जुत्ते जोगे णं भवइ / एवं सूरेऽवि गहेऽवि णक्खत्तेवि। सया वि चंदा जुत्ता जोगेहि, सया वि सूरा जुत्ता जोगेहि, सया वि गहा जुत्ता जोगेहि, सया वि णक्खत्ता जुत्ता जोगेहि / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र दुहप्रोऽवि चंदा जुत्ता जोगेहि, दुहओऽवि सूरा जुत्ता जोगेहि, दुहओऽवि गहा जुत्ता जोगेहि, दुहओऽवि णक्खत्ता जुत्ता जोगेहिं / मंडलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउईए सरहिं छत्ता इच्चेस मक्खत्ते खेत्तपरिभागे, णक्खत्तविजए पाहुडे, ति बेमि / 03 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्राभूत पंचण्हं संवच्छराणं, पारंभ-पज्जवसाणकालं चंद-सूराण-णक्खत्तसंजोगकालं च७१. क. 1 प. ता कहं ते संवच्छराणादी? आहिए ति वएज्जा। उ. तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरे पण्णत्ते तं जहा--१. चंदे, 2. चंदे, 3. अभिवटिए, 4. चंदे, 5. अभिड्डिए। पढमं चंदसंवच्छरंख. 1 प. ता[एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स चंदस्स संबच्छरस्स के आदी ? आहिए त्ति वएज्जा / उ. ता जे णं पंचमस्स अभिवडियसंवच्छरस्स पज्जवसाणे, से णं पढमस्स चंदस्स संवच्छरस्स आदी, अणंतरपुरक्खडे समए / ग. प. ता से णं कि पज्जवसिए ? आहिए ति वएज्जा / उ. ता जे णं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स आदी, से णं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे, अणंतर पच्छाकडे समए। घ. प. तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं आसाढाहि, उत्तराणं आसाढाणं छदुवीसं मुहुत्ता, छ दुवीसं च बासट्ठिभागा, मुहु त्तस्स बास विभागं च सत्तट्ठिधा छित्ता चउप्पणं चुणिया भागा सेसा। ङ. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स सोलस मुहत्ता, अट्ठ य बासट्ठिभागा, मुहत्तस्स बासट्ठिभागं च सत्त द्विधा छेत्ता वीसं चुण्णिया भागा सेसा / बितियं चंदसंवच्छरक. 2 प. ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स के आदी ? आहिए ति वएज्जा। उ. ता जे णं पढमस्स चंदसंबच्छरस्स पज्जवसाणे, से णं दोच्चस्स चंदसंबच्छरस्स आदी, अणंतर पुरक्खडे समए। ख. प. ता से गं कि पज्जवसिए? आहिए ति वएज्जा। उ. ताजे णं तच्चस्स अभिवडिय-संवच्छरस्स आदी, से णं दोच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ग. प. तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुब्वाहिं आसाढाहि, पुवाणं आसाढाणं सत्त मुहुत्ता, तेवण्णं च बावद्विभागा मुहत्तस्स, बावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता इगतालीसं चुण्णिया भागा सेसा।। घ. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुणवसुणा, पुणवसुस्स णं बायालीसं मुहत्ता पणतीसं च बास द्विभागा मुहत्तस्स, बासट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता सत्त चुणिया भागा सेसा / ततियं अभिवढियं संवच्छरंक. 3 प. ता एएसि णं पंचण्ह संवच्छराणं तच्चस्स अभिवढियसंवच्छरस्स के आदी ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता जे णं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे, से गं तच्चस्स अभिवडियसंवच्छरस्स आदी, ____ अणंतरपुरक्खडे समए। ख. प. ता से णं किपज्जवसिए ? प्राहिए ति वएज्जा। उ. ता जे णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स आदी, से णं तच्चस्स अभिड्डियसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए। ग. प. तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहि आसाढाहि, उत्तराणं आसाढाणं तेरसमुहुत्ता, तेरस य बाट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता सत्तावीसं चुण्णिया भागा सेसा / घ. प. तं समयं च णं सूरे केणं गक्खतेणं जोएइ ? ___ उ. ता पुणव्वसुणा, पुणध्वसुस्स दो मुहत्ता, छप्पण्णं बावट्ठिभागा, मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं सत्तट्टिधा छेत्ता सट्ठी चुणिया भागा सेसा। चउत्थं चंदसंवच्छरं क. 4 प. ता एएसि णं पंचण्ह संवच्छराणं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स के आदी ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ताजे णं तच्चस्स अभिवडिय-संवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स आदी, अणंतरपुरक्खडे समए। ख. प. ता से णं किंपज्जवसिए ? आहिए ति वएज्जा। उ. ता जे णं चरिमस्स अभिवद्रियसंवच्छरस्स आदी, से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए। ग. प. तं समयं च णं चंदे केणं गक्खत्तेणं जोएइ ? Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां प्राभृत] [143 उ. ता उत्तराहिं आसाढाहि, उत्तराणं आसाढाणं चत्तालीसं मुहुत्ता, चत्तालोसं च बासद्विभागा ___मुहुत्तस्स, बासट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता च उसट्ठी चुणिया भागा सेसा / घ. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुणव्वसुणा पुणव्वसुस्स अउणतोसं मुहुत्ता, एक्कवीसं च बासट्ठिभागा मुहत्तस्स, बासटि भागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता सितालीसं चुणिया भागा सेसा / पंचमं अभिवढिय संवच्छरक. 55. ता एएसि णं पंचण्ह संवच्छराणं पंचमस्स अभिवडियसंवच्छरस्स के आदो ? आहिए ति वएज्जा / उ. ताजे णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे, से णं पंचमस्स अभिवडियसंवच्छरस्स __ आदी, अणंतरपुरक्खडे समए / ख. प. ता से णं किपज्जवसिए ? आहिए त्ति वएज्जा। ता जे णं पढमस्स संवच्छरस्स आदी से गं पंचमस्स अभिवडियसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए / ग. प. तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं आसाढाहि, उत्तराणं आसाढाणं चरमसमए / घ. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पुस्सेणं, पुस्सस्स णं एक्कवीसं मुहुत्ता तेतालीसं च वावट्ठिभागा, मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेत्तीसं चुणिया भागा सेसा / 00 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहतां प्राभूत पंचण्हं संवच्छराणं, मासाणं च राइंदिय-मुहत्तप्पमाणं 72. क. 1 प. ता कति णं संवच्छरा? आहिए ति वएज्जा ? उ. तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरा पण्णत्ता तं जहा--१. णक्खत्ते, 2. चंदे, 3. उडु, 4. आइच्चे, 5. अभिवडिए। पढम णक्खत्त-संवच्छरं-- ख. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स णक्खत्तसंवच्छरस्स णक्खत्तमासे तीसइ मुहुत्तेणं तीसइ मुहुत्तेणं अहोरत्तेणं मिज्जमाणे केवइए राइंदियग्गेणं ? आहिए त्ति वएज्जा / उ. ता सत्तावोसं राईदियाई एक्कबोसं च सत्तद्विभागा राईदियस्स राइंदियग्गेणं, आहिए त्ति वएज्जा / ग. प. ता से णं केवइए मुहत्तग्गेणं ? आहिए ति वएज्जा? उ. ता अट्ठसए एगूणवीसे मुहत्ताणं, सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहत्तस्स मुहत्तग्गेणं, आहिए त्ति वएज्जा / घ. प. ता एएसि गं अद्धा दुवालसक्खुत्तकडा णक्खत्ते संवच्छरे, ता से णं केवइए राइदियग्गे गं ? आहिएत्ति वएज्जा। उ. ता तिणि सत्तावीसे राइंदियसए एक्कावन्नं च सत्तविभागे राइंदियस्स राइंदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। ड़. प. ता से णं केवइए मुहत्तग्गे णं? आहिए त्ति बएज्जा। उ. ता णव मुहत्तसहस्सा अट्ट य बत्तीसे मुहुत्तसए छप्पन्नं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा। बितियं चंदसंवच्छर२ क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स चंदे मासे तीसइमुहुत्ते णं तीसइ मुहुत्ते णं अहोरत्तेणं मिज्जमाणे केवइए राइंदियग्गे णं ? आहिए ति वएज्जा। उ. ता एगूणतीसं राइंदियाई बत्तीसं बासटिभागा राइंदियस्स राइंदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा / ख. प. ता से णं केवइए महत्तग्गे णं? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता अट्ठपंचासए मुहुत्ते तेत्तीसं बास द्विभागा मुहत्तग्गे णं, आहिए ति वएज्जा / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्रामृत] [145 ग. प. ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा चंदे संवच्छरे, ता से गं केवइए राइंदियग्गे गं? प्राहिए त्ति वएज्जा। उ. ता तिन्नि चउप्पत्रे राइंदियसए दुवालस य बासट्ठिभागा राइंदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा / घ. प. ता से णं केवइए मुहत्तग्गे गं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता दसमुहत्तसहस्साई छच्च पणवीसे मुहत्तसए पण्णासं च बासट्टिमागे मुहुत्ते णं आहिए त्ति वएज्जा। ततियं उडसंवच्छर३ क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संबच्छराणं तच्चस्स उडुसंवच्छरस्स उडुमासे तीसइ मुहुत्ते गं, तीसइ मुहुत्ते णं मिज्जमाणे केवइए राइंदियग्गे गं? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता तीसं राइंदियाणं राइंदियग्गे णं आहिए ति वएज्जा। ख. प. ता से णं केवइए मुहत्तम्गे णं? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता णवमुहुत्तसयाई मुहत्तग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। ग. प. ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा उडू संवच्छरे, ता से णं केवइए राइंदियग्गे गं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता तिण्णि सट राइंदियसए राइंदियग्गे णं पाहिए ति वएज्जा। घ. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे गं ? पाहिए ति वएज्जा। उ. ता दसमुहत्तसहस्साई अट्ट य सयाई मुहुत्तग्गे णं पाहिए त्ति वएज्जा। चउत्थं प्राइच्चसंवच्छर४ क. प. ता एएसि पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थस्स आदिच्चसंवच्छरस्स आइच्चे मासे तीसइमुहुत्ते णं, तोसइमुहुत्ते णं अहोरत्तेणं मिज्जमाणे केवइए राइंदियग्गे थे ? आहिए ति वएज्जा। उ. ता तीसं राइंदियाई अवद्धभागं च राइंदियस्स राइदियग्गे णं आहिए ति वएज्जा / ख. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं? आहिए त्ति वएज्जा / उ. ता णव पण्णरस मुहुत्तसए मुहत्तग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। ग. प. ता एस गं अद्धा दुवालसखुत्तकडा आदिच्चे संवच्छरे, ता से णं केवइए राइंदियग्गे गं? आहिए ति वएज्जा। उ. ता तिनि छाव? राइंदियसए राइंदियग्गे णं आहिए ति वएज्जा। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र घ. प. ता से णं केवइए मुहत्तग्गे गं? आहिए ति वएज्जा / उ. ता दसमुहुत्तस्स सहस्साई णव असीए मुहुत्तसए मुहुत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा / पंचमं अभिवढियसंवच्छर-- 5 क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवडियसंवच्छरस्स अभिवडिए मासे तीसइमुहत्तेणं, तीसइमुहुत्ते णं अहोरते णं मिज्जमाणे केवइए राइंदियग्गे णं ? आहिए ति वएज्जा। उ. ता एगतीसं राइंदियाई एगणतीसं च मुहुत्ता सत्तरस बासट्ठिभागे मुहत्तस्स राइंदि यग्गे गं आहिए त्ति वएज्जा। ख. प. ता से णं केवइए मुहत्तग्गे णं? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता णव एगूणस? मुहत्तसए सत्तरस बास द्विभागे मुहत्तस्स मुत्तग्गे गं आहिए त्ति बएज्जा / ग. प. ता एस णं श्रद्धा दुवालसखुत्तकडा अभिवडियसंवच्छरे, ता से णं केवइए राइंदियग्गे गं? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता तिणि तेसीए राइंदियसए एक्कतीसं च मुहुत्ता अट्ठारस बासट्ठिभागे मुहत्तस्स राईदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। घ. प. ता से णं केवइए मुहत्तग्गे गं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता एक्कारसमुहत्तसहस्साई पंच य एक्कारसमुहुत्तसए अट्ठारस बासद्विभागे मुहुत्तस्स मुहत्तग्गे गं आहिए त्ति वएज्जा / एगस्स जुगस्स अहोरत्त-मुहत्तप्पमाणं७३. क. प. ता केवइयं ते नो-जुगे राइंदियग्गेणं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता सत्तरस एकाणउए राइंदियसए, एगूणवीसं च मुहत्त, सत्तावण्णे बासट्ठिभागे मुत्तस्स, बासट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता पणपन्न चुणिया भागे राइदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। ख. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे गं ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. ता तेवण्णमुहुत्तसहस्साई, सत्त य अउणापन्ने मुहुत्तसए, सत्तावणं बासद्रिभागे मुहुत्तस्स, बासटिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता पणपण्णं चुणिया भागा मुहुत्ते णं, प्राहिए त्ति वएज्जा / ग. प. ता केवइए णं ते जुगपत्ते राइंदियग्मे णं ? आहिए त्ति वएज्जा / Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्रामृत] [147 उ. ता अद्वतीसं राइंदियाई दस य मुहुत्ता, चत्तारि य बासद्विभागे मुहत्तस्स, बासट्टि भागं च सत्तद्विधा छेत्ता दुवालस चुणिया भागे राइदियग्गे णं, आहिए त्ति वएन्जा। घ. प. ता से णं केवइए मुहत्तग्गे णं ? आहिए त्ति वएज्जा, उ. ता एक्कारस पण्णासे मुहत्तसए, चत्तारि य बासट्ठिभागे मुहत्तस्स, बासद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता दुवालस चुणिया भागे मुहत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा। ङ. प. ता केवइयं जुगे राइंदियग्गे णं ? आहिए ति वएज्जा। उ. ता अट्ठारस तोसे राइंदियसए राइंदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा, च. प. ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं? आहिए ति वएज्जा। उ. ता चउप्पण्णं मुहुत्तसहस्साई णव य मुहत्तसयाई मुहुत्तो णं, आहिए त्ति वएज्जा। छ. प. ता से णं केवइए बासट्ठिभागं मुहुत्तग्गे णं? आहिए त्ति वएज्जा, उ. ता चोत्तीसं सयसहस्साइं अट्ठावीसं च बासटिभागमुहत्तसए बासट्ठिभाग मुहुत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा। पंचण्हं संवच्छराणं पारंभ-पज्जवसाणकालस्स समत्तपरूवणं७४. 1 क. प. ता कया गं एए आदिच्च-चंद संवच्छरा समादीया समपज्जवसिया ? आहिए त्ति वएज्जा / उ. ता सट्टि एए आदिच्चमासा बाटि एए य चंदमासा / एस णं श्रद्धा छखत्तकडा दुवालसभयिता तीसं एए आदिच्चसंवच्छरा, एक्कतीसं एए चंदसंवच्छरा, तया गं एए आदिच्च-चंद-संबच्छरा समादीया समपज्जवसिया आहिए ति वएज्जा / ख. प. ता कया णं एए आदिच्च-उडु-चंद-णक्खत्ता-संवच्छरा समादीया, समयज्जवसिया? ___ आहिए ति वएज्जा। उ. ता सटुिं एए आदिच्चा मासा, एट्ठि एए उडुमासा, बाटि एए चंदमासा, सट्टि एए णक्खत्तमासा। एस णं अद्धा दुवालस खुत्तकडा दुवालसभयिता सट्टि एए प्राइच्चा संवच्छरा, एट्ठि एए उडु संवच्छरा, बाढेि एए चंदा संवच्छरा, सट्टि एए णक्खत्ता संवच्छरा। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र तया णं एए आइच्च-उड़-चंद-णवखत्ता संवच्छरा समादीया, समपज्जवसिया, आहिए त्ति वएज्जा। ग. प. ता कया गं एए अभिवड्ढिअ-आदिच्च-उडु-चंद-णक्खत्ता संवच्छरा समादीया समपज्जवसिया ? आहिए त्ति वएज्जा / उ. ता सत्तावणं मासा, सत्त य अहोरत्ता, एक्कारस य मुहुत्ता, तेवोसं बार्टि भामा मुहत्तस्स एए अभिवढिया मासा, ट्ठि एए प्राइच्चामासा, एट्टि एए उडुमासा बासट्टि एए चंदमासा सत्तट्टि एए णक्खत्त मासा। एस णं अद्धा छप्पण्ण-सयखुत्तकडा दुवालस भयिता सत्त सया चोयाला, एए णं अभिवडिया संवच्छरा, सत्तसया असीया, एए णं आइच्चा संवच्छरा, सत्तसया तेणउया, एए णं उडु संबच्छरा, अट्ठसत्ता छल्लुत्तरा, एए णं चंदा संवच्छरा, एकसत्तरी अट्ठसया, एए णं णक्खत्ता संवच्छरा। तया णं एए अभिवडिप्र-आइच्च-उडु-चंद-णक्खत्ता संवच्छरा समादीया समपज्ज वसिया, आहिए त्ति वएज्जा। 2. ता णयट्टयाए णं चंदे संवच्छरे तिण्णि चउप्पण्णे राइंदियसए, दुवालस य बासट्ठिभागे राइंदियस्स, आहिए त्ति वएज्जा। 3. ता अहातच्चे णं चंदे संवच्छरे तिण्णि चउप्पण्णे राइंदियसए, पंच य मुहत्ते पण्णासं च बास ट्ठि भागे मुहत्तस्स, आहिए त्ति वएज्जा / उडूणं णामाई कालप्पमाणं च७५. तत्थ खलु इमे छ उडू पण्णत्ता, तंजहा–१. पाउसे, 2. वरिसारत्ते, 3. सरते, 4. हेमंते, 5. वसंते, 6. गिम्हे / ' ता सच्चे विणं एए चंद-उड़ दुवे दुवे मासा तिचउप्पण्णसएणं तिचउप्पण्णसएणं आयाणेणं गणिज्जमाणा साइरेगाई एगूणस ट्ठि एगूणसट्टि राइंदियाइं राइंदियग्गेणं आहिए त्ति वएज्जा। अवम-अइरित्तरत्ताणं संखा त हेउं च तत्थ खल इमे छ ओमरत्ता पण्णत्ता, तंजहा--१. तइए पव्वे, 2. सत्तमे पम्वे, 3. एक्कारसमे पव्वे, 4. पण्णरसमे पव्वे, 5. एगूणवीसइमे पन्वे, 6. तेवीसइमे पव्वे / 1. ठाणं, 6, सु. 526 2. चंदस्स णं संवच्छरस्स एगमेगे उऊ एगणटि राइंदियाइं राइंदियम्गणं पण्णत्ता / Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्राभूत] तत्थ खलु इमे छ अतिरत्ता पण्णता, तंजहा१. चउत्थे पव्वे, 2. अट्टमे पव्वे, 3. बारसमे पव्वे, 4. सोलसमे पब्वे, 5. वोसइमे पवे, 6. चउवोस इमे पव्वे / गाहाछच्चेव य अइरत्ता, आइच्चामो हवंति माणाई / छच्चेव ओमरत्ता, चंदाहिं हवंति माणाई // 1 // वासिक्कियासु आउट्टियासु चदेण सूरेण य णक्खत्त जोगकालो 76. तत्थ खलु इमाओ पंचवासिकोओ, पंच हेमंतीओ प्राउट्टीनो पण्णताओ / 1 क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम वासिक्किं आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? उ. ता अभिइणा अभिइस्स पढमसमएणं / ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पूसेणं, पूसस्स एगूणवीसं मुहुत्ता तेतालीसं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स बाट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेत्तीसं चुपिणया भागा सेसा / 2 क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं वासिक्कि पाउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता संठाणाहि, संठाणाणं एक्कारस मुहुत्ते, एगूणतालोसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावद्विभागं ___च सत्तद्विधा छेत्ता तेपण्णं चुणिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पूसे णं, पूसस्स णं तं चेव, जं पढमाए / 3 क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं वासिक्किं आउट्टि चंदे केणं णवखत्तणं जोएइ ? उ. ता विसाहाहि, विसाहा णं तेरस मुहत्ता, चउप्पण्णं च बावद्विभागा मुहुत्तस्स, बावटिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता, चत्तालीसं चुणिया भागा सेसा / ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं मक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पूसे णं, पूसस्स शं तं चेव, जं पढमाए / 4 क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं च चउत्थं वासिक्किं आउटिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? 1. क. पर्वणि-पक्षे / यहाँ पर्व-पक्ष का पर्यायवाची है। ख. ठाणं 6, सु. 524 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ___ उ. ता रेवईहि, रेवईणं पणवीसं मुहुसा बत्तीसं च बासद्विभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता छत्तीसं चुणिया भागा सेसा / ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? ___उ. ता पूसे णं, पूसस्स गं तं चेव, जं पढमाए। 5 क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं च पंचमं वासिक्किं आउदि चंदे केणं णक्खत्ते गं जोएइ ? उ. ता पुव्वाहि फग्गुणोहि पुवाफग्गुणोणं बारसमुहत्ता सत्तालीसं च बाबविभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेरस चुणिया भागा सेसा / ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पूसेणं, पूसस्स तं गं चेव, जं पढमाए। हेमंतियासु प्रावट्टियासु चंदेरण सूरेण य गक्खत्तजोगकालो 77 1 क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं हेमंति-आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता हत्थेण, हत्थस्स णं पंचमुहुत्ता पण्णासं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावविभागं च सत्तट्टिधा छेत्ता सट्टि चुणिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? __उ. ता उत्तराहि प्रासादाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए। 2 क. प. ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं हेमति आउट्टि चंदे केणं णक्खतेणं जोएइ ? उ. ता सतभिसयाहि, सतभिसयाणं दुन्नि मुहुत्ता अट्ठावीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावविभागं च सत्तद्विधा छेत्ता छत्तालीसं च चुण्णिया भागा सेसा / ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोइए ? उ. ता उत्तराहि उासाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए / 3 क. प. एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं हेमंति आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता पूसे गं, पुसस्स एगूणवीसं मुहुत्ता तेतालीसं च बावट्टिभागा मुहत्तस्स, बावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता तेत्तीसं च चुणिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं आसाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए। 4 क. प. एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थि हेमंति आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता मूलेणं, मूलस्स छ मुहुत्ता, अट्ठावन्नं च बावविभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च ___ सत्तद्विधा छेत्ता वीसं चुणिया भागा सेसा। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां प्रामृत] [11 ख. प. तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहिं आसाढाहि, उत्तराणं प्रासाढाणं, चरिमसमए, 5 क. प. ता एएसि णं पंचण्ह संवच्छराणं पंचमं हेमंति आदि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता कत्तियाहि, कत्तियाणं अट्ठारस मुत्ता, छत्तीसं च बावट्ठिभागा मुहत्तस्स बावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता छ चुग्णिया भागा सेसा। ख. प. तं समयं च सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता उत्तराहि आसाढाहि, उत्तराणं आसाढाणं चरिमसमए / जोगाणं चंदेण सद्धि जोग-परूवर्ण 78. तत्थ खलु इमे दसविहे जाए पण्णत्ते, तंजहा 1. वसभाणु जोए, 2. वेणुयाणु जोए 3. मंचे जोए, 4. मंचाइमंचे जोए 5. छत्ते जोए, 6. छत्ताइ छत्ते जोए, 7. जुअणद्धे जोए, 8. घणसंमदे जोए 9. पीणिए जोए. 10. मंडुकप्पुते जोए 1 प. ता एएसि गं पंचण्ह संवच्छराणं छत्ताइच्छत्तं जोयं चंदे कसि देसंसि जोएइ ? उ. ता जंबुद्दीवस्स दीवस्स, पाईण-पडिणीआययाए, उदीण-दाहिणाययाए जीवाए मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छित्ता दाहिणपुरथिमिल्लंसि चउभागमंडलंसि सत्तावीसं भागे उवाइणावेत्ता अट्ठावीसइभागं वीसधा छेत्ता अट्ठारसभागे उवाइणावेत्ता तिहिं भागेहिं दोहिं कलाहिं दाहिण-पुरथिमिल्लं चउभागमंडलं असंपत्ते एत्थ णं से चंदे छत्तातिच्छत्तं जोयं जोइए। उप्पि चंदो. मज्झे णक्खत्ते, हेट्ठा आइच्चे / 2 प. तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ. ता चित्ताहि चरमसमए / DO Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रात चंदमसोबड्ढोऽवड्ढी७९. प. ता कहं ते चंदमसो वड्डोऽवड्डी ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता अट्ठ पंचासोते मुहत्तसते तीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स / क. ता दोसिणापक्खाओ अंधगारपक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि बायालसए, छत्तालीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स जाई चंदे रज्जइ, तंजहा--- पढमाए पदमं भागं बितियाए बितियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भाग, चरमिसमए चंदे रत्ते भवइ, अवसेसे समए चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ, इयण्णं अमावासा, एत्थ णं पढमे पव्वे अमा वासे ता अंधगारपक्खो, ख. ताणं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारे बायाले मुहुत्तसए छत्तालीसं च बावढिमागा मुहुत्तस्स जाई चंदे विरज्जइ, तंजहापढमाए पढम भागं बितियाए बितियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसमं भागं, चरिमसमए चंदे विरत्ते भवइ, अवसेससमए रत्ते य, विरत्ते य भवइ, इयण्णं पुण्णमासिणी, एत्थ णं दोच्चे पव्वे पुण्णिमासिणी / एगयुगे पुण्णिमासिणीयो अमावासो८०. तत्थ खल इमाओ बाढेि पुणिमासिणीओ बाढि अमावासाओ पण्णत्तानो, बावळिं एते कसिणा रागा, बावळिं एते कसिणा विरागा, एते चउव्वीसे पब्बसए, एते चउव्वीसे कसिण-राग-विरागसए, जावइयाणं पंचण्हं संवच्छराणं समया एगे णं चउव्वीसेणं समयसएगुणगा, एवइया परित्ता असंखेज्जा देस-राग-विराग सया भवतीतिमक्खाया, ता अमावासाओ णं पुणिमासिणी चत्तारि .बायाले मुहत्तसए छत्तालीसं बावद्रिभागे मुहुत्तस्स आहिए त्ति वएज्जा, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्रामृत] [153 ता पुणिमासिणीओ णं अमावासा चत्तारि बायाले मुहत्तसए छत्तालीसं बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिए त्ति वएज्जा, ता अमावासाओ णं अमावासा अट्ठपंचासोए मुहत्तसए तीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिए त्ति वएज्जा, ता पुणिमासिणीओ णं पुण्णिमासिणी अट्ट पंचासोए मुहत्तसए तीसं बावदिमागे मुहत्तस्स आहिए त्ति वएज्जा, एस णं एवइए चंदे मासे, एस गं एवइए सगले जुगे। चंदाइच्च अद्धमासे चंदाइच्चाणं मंडलचार ____ क. प. ता चंदेणं अद्धमासेणं चंदे कइ मंडलाई चरइ ? ____उ. ता चउद्दस चउभागमंडलाई चरइ एगं च चउवोससयभागं मंडलस्स / ख. प. ता प्राइच्चेणं अद्धमासेणं चंदे कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता सोलस मंडलाइं चरइ, सोलसमंडलचारी तया अवराई खल दुवे अटुकाई जाइं चंदे केणइ' असामण्णगाइं सयमेव पविद्वित्ता पविट्टित्ता चारं चरइ / ग. प. कयराइं खलु दुवे अटुगाई जाई चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविद्वित्ता पविट्टित्ता चारं चरइ? उ. इमाई खलु ते दुवे अढगाई जाइं चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविहिता पविटुित्ता चारं चरइ तं जहा१. निक्खममाणे चेव अमावासंते णं, 2. पविसमाणे चेव पुण्णिमासितेणं, एयाई खलु दुवे अट्ठगाई जाई चंदे केणई असामण्णगाई सयमेव पविट्टित्ता पविद्वित्ता चारं चरइ। पढमे चंदायणे ता पढमा पढमायणगए चंदे दाहिणगए भागाए पविसमाणे सत्त अद्धमंडलाई जाई चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, प. कयराइं खलु ताई सत्त अद्धमंडलाइं जाई चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे, चारं चरइ? Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र उ. इमाई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाइं जाइं चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, तं जहा१. बिइए अद्धमंडले, 2. चउत्थे अद्धमंडले, 3. छठे अद्धमंडले, 4. अट्ठमे अद्धमंडले, 5. दसमे अद्धमंडले, 6. बारसमे अद्धमंडले, 7. चउदसमे अद्धमंडले। एयाई खलु ताई सत्त अद्धमंडलाइं जाइं चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरई, ता पढमायणगए चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे छ अद्धमंडलाइं तेरस य सत्तट्ठिभागाइं अद्धमंडलस्स जाइं चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ / प. कयराइं खलु ताई छ अद्धमंडलाइं तेरस य सत्तविभागाइं अद्धमंडलस्स जाई चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ ? उ. इमाई खल ताई छ अद्धमंडलाइं तेरस य सत्तद्विभागाइं अद्धमंडलस्स जाई चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, तंजहा१. तईए अद्धमंडले, 2. पंचमे अद्धमंडले, 3. सत्तमे अद्धमंडले, 4. नवमे अद्धमंडले, 5. एकारसमे अद्धमंडले, 6. तेरसमे अद्धमंडले पण्णरसमंडलस्स तेरस सत्तट्ठिभागाई, एताई खलु ताई छ अद्धमंडलाइं तेरस य सत्तद्विभागाइं अद्धमंडलस्स जाई चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरई, एयावया च पढमे चंदायणे समत्ते भवइ / दोच्चे चंदायणे ता णक्खत्ते अद्धमासे नो चंदे अद्धमासे, चंदे अद्धमासे नो गक्खते अद्धमासे, प. ता णक्खत्ताओ अद्धमासाओ ते चंदे चंदेणं अद्धमासेणं किमधियं चरइ ? उ. ता एगं अद्धमंडलं चरइ, चत्तारि य सत्तद्विभागाई अद्धमंडलस्स सत्तविभागं एगतीसाए छेत्ता णव भागाई, Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां प्राभूत [155 ता दोच्चायणगए चंदे पुरच्छिमाए भागाए णिक्खममाणे सत्त चउप्पणाई जाई चंदे परस्स चिन्नं पडिचरइ, सत्त तेरसगाई जाई चंदे अप्पणा चिण्णं चरइ, ता दोच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए णिक्खममाणे छ चउप्पण्णाई जाई चंदे परस्स चिण्णं पडिचरइ, छ तेरसगाई चंदे अप्पणो चिण्णं पडिचरइ, अवरगाई खलु दुबे तेरसगाई जाई चंदे केणइ असामन्नगाई सयमेव पविद्वित्ता पविद्वित्ता चारं चरइ, प. कयराइं खलु ताई दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ असामण्णागयाइं सयमेव पविद्वित्ता पविद्वित्ता चारं चरइ ? उ. इमाई खलु ताई दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ असामण्णगाई सयमेव पविद्वित्ता पविट्टित्ता चारं चरइ, 1. सम्वन्भंतरे चेव मंडले, 2. सव्वबाहिरे चेव मंडले, एयाणि खल ताणि दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ अमामण्णगयाई सयमेव पविट्टित्ता पविट्टित्ता चारं चरइ, एयवया दोच्चे चंदायणे समत्ते भवइ / तच्चे चंदायणे ता णक्खत्ते मासे नो चंदे मासे, चंदे मासे नो णक्खते मासे, प. ता णक्खत्ताए मासाए चंदे चंदेणं मासेणं किमधियं चरइ ? उ. ता दो अद्धमंडलाई चरइ, अट्ठ य सत्तट्टि भागाइं प्रद्धमंडलस्स, सत्तद्विभागं च एक्कतीसधा छेत्ता अट्ठारस भागाई, ता तच्चायणगए चंदे पच्चस्थिमाए भागाए पविसमाणे बाहिराणंतरस्स पच्च स्थिमिल्सस्स अद्धमंडलस्स इगयालीसं सत्तट्टिभागाइं जाइं चंदे अप्पणो, परस्स य चिन्न पडिचरइ, तेरस सत्तट्ठिभागाइं जाइं चंदे परस्स चिणं पडिचरइ, तेरस सत्तट्ठिभागाइं चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडिचरइ, एयावया बाहिराणतरे पच्चथिमिल्ले अद्धमंडले समत्ते भवइ / Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र तच्चायणगए चंदे पुरस्थिमाए भागाए पविसमाणे बाहिर तच्चस्स पुरथिमिल्लस्स अद्धमंडलस्स इगयालीसं सत्तट्ठिभागाइं जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडिचरइ, तेरस सत्तट्ठिभागाइं जाई चंदे परस्स चिण्णं पडियरइ, तेरस सत्तट्ठिभागाइं जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडियरइ, एयावया बाहिरतच्चे पुरथिमिल्ले अद्धमंडले समत्ते भवइ, ता तच्चायणगए चंदे पच्चस्थिमाए भागाए पविसमाणे बाहिर चउत्थस्स पच्चस्थि. मिल्लस्स अद्धमंडलस्स अट्ठसत्तद्विभागाई, सत्तट्ठिभागं च एक्कतीसधा छेत्ता अट्ठारस भागाइं जाइं चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडियरइ, एयावया बाहिर चउत्थ पच्चथिमिल्ले अद्धमंडले समत्ते भवइ, एवं खलु चंदेणं मासेणं चंदे तेरस चउप्पण्णगाई दुवे तेरसगाई जाई चंदे परस्स चिण्णं पडियरइ, तेरस तेरसगाई जाइं चंदे अप्पणो चिण्णाइं पडियरइ, दुवे इगयालीसगाई दुवे तेरसगाई, अट्ठ सत्तट्ठिभागाइं सत्तट्ठिभागं च एक्कतीसधा छेत्ता अट्ठारसभागाइं जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं पडियरइ, अवराई खलु दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ असामन्नगाई सयमेव पविद्वित्ता पविट्टित्ता चारं चरइ, इच्चेसो चंदमासो अभिगमण-णिक्खमण-बुद्धि-णिव्वुट्टि-प्रणवष्टिय-संठाण-संठिईविउव्वणगिडिपत्ते चंदे देवे चंदे देवे, आहिए ति वएज्जा / [1 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां प्रात दोसिणा अंधयारस्स य बहुत्तकारणं८२. क 1 प. ता कता ते दोसिणा बहू आहिति वदेज्जा ? उ. ता दोसिणापक्खे णं दोसिणा बहू आहितेति वदेज्जा / 2 प. ता कहं ते दोसिणापक्खे दोसिणा बहू आहितेति वदेज्जा ? उ. ता अंधकारपक्खाओ णं दोसिणा बहू आहिते ति वदेज्जा / प. ता कहं ते अंधकारपक्खाओ णं दोसिणापक्खे दोसिणा बहू अाहितेति वदेज्जा? उ. ता अंधकारयक्खाओणं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि बायाले महत्तसते छत्तालीसं च बावटिभागे मुहुत्तस्स जाई चंदे विरज्जति, तंजहापढमाए पढमं भागं बिदियाए बिदियं भागं जाव पण्णरसीए पण्णरसं भागं / एवं खलु अंधकारपक्खाओ णं दोसिणापक्खे दोसिणा बहू आहिताति वदेज्जा। 4 प. ता केवतिया णं दोसिणापक्खे दोसिणा बहू अाहिताति वदेज्जा? उ. ता परित्ता असंखेज्जा भागा। 1 प. ता कता ते अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा ? उ. ता अंधकारपक्खे णं अंधकारे बहू आहितेति बदेज्जा, 25. ता कहं ते अंधकारपक्खे णं अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा ? उ. ता दोसिणापक्खाओ अंधकारपक्खे णं अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा? 3 प. ता कहं ते दोसिणापक्खाओ अंधकारपक्खेणं अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा ? उ. ता दोसिणापक्खाओ णं अंधकारपक्खं अयमाणे चंदे चत्तारि बायाले मुहत्तसते छत्तालीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स जाइं चंदे रज्जति, तंजहा–पढमाए पढ़मं भागं बितियाए बितियं भागं जाव पण्णरसं भागं, एवं खलु दोसिणापक्खाओ णं अंधकारपक्खे अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा / 4 प. ता केवतिए णं अंधकारपक्खे अंधकारे बहू आहितेति धदेज्जा ? उ. परित्ते असंखेज्ज भागे।' --------- ----- ---- "सूर्यप्रज्ञप्ति प्राभत 13, सूत्र 79 और सूर्यप्रज्ञप्ति प्रा. 14 सत्र 82" इन दोनों सूत्रों का फलितार्थ समान है / अन्तर इतना ही है कि सूत्र 79 में "चन्द्र की हानि-वद्धि" का कथन है। सूत्र 82 में "चन्द्रिका तथा अन्धकार की अधिकता" का कथन है। किन्तु चन्द्र की हानि-वद्धि से ही चन्द्रिका एवं अन्धकार की अधिकता होती है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ प्रामृत चंद-सूर-गह-णक्खत्त-ताराणं गइपरूवणं८३. प. ता कहं ते सिग्धगई ? आहिए त्ति वएज्जा / उ. ता एएसि णं चंदिम-सूरिय-गहगण-णक्खत्त-तारारूवाणं-- चंदेहितो सूरे सिग्धगई, सूरेहितो गहा सिग्घगई, गहेहितो णक्खत्ता सिग्घगई, णक्खत्तेहितो तारा सिग्घगई, सव्वप्यगई चंदा सन्वसिग्धगई तारा।' 15. ता एगमेगेणं मुहुत्तेणं चंदे केवइयाई भागसयाई गच्छइ ? उ. ता जंज मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तस्स तस्स मंडलपरिषदेवस्स सत्तरस अडसद्धि ___ भागसए गच्छइ, मंडलं सयसहस्से णं अट्ठाणउइ सहि छेत्ता छेत्ता। 25. ता एगमेगेणं मुहुत्तेणं सूरिए केवइयाइं भागसयाई गच्छइ ? उ. ताजं जं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरइ, तस्स तस्स मंडल-परिक्खेवस्स अट्ठारस तीसे भागसए गच्छइ, मंडलं सयसहस्से गं अट्ठाणउइसएहि छेत्ता छेत्ता / 1. प. ता एएसि णं चंदिम-मूरिय-गह-णखत्त-तारारूबाणं कयरे कयरेहितो सिग्घगई वा मंदगई वा ? उ. ता चंदेहितो सूरा सिग्घगई, सूरेहितो गहा सिग्घगई, गहेहितो णखत्ता सिग्धगई, णक्खत्तेहितो तारा सिग्घगई, सब्बप्पगई चंदा, सव्वसिग्घगई तारा / ग्रहों की गति का निरूपण मूल पाठ में नहीं है। ग्रहों की गति के सम्बन्ध में टीकाकार का स्पष्टीकरण :-. ग्रहास्तु वक्रानुवादिगतिभावतोऽनियतगतिप्रस्थानास्ततो न तेषामुक्तप्रकारेण गतिप्रमाणप्ररूपणा कृता, उक्तं 'चंदेहि सिग्घय रा, सूरा सूरेहि होति णक्खत्ता। ग्रणिययगइपत्थाणा, हवंति सेसा गहा सव्वे // 1 // अट्ठारस पणतीसे, भागसए गच्छइ महत्तेणं / नक्खत्तं चंदो पुण, सत्तरससए उ प्रहस? // 2 // अट्ठारस भागसए, तीसे गच्छइ रवी मुहुत्तेण / नक्खत्तसीमछेदो, सो चेव इहं पि णायब्बो / / 3 / / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां प्राभत] [159 35. ता एगमेगेणं मुहुत्तेणं णक्खत्ते केवइयाई भागसयाई गच्छइ ? उ. ताजं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तस्स तस्स मंडल-परिक्खेवस्स अट्ठारस पणतीसे भागसए गच्छइ, मंडलं सयसहस्से णं प्राणउईसएहि छेत्ता छेत्ता।' चंद-सूर-णक्खत्ताणं विसेसगइपरूवणं८४. 15. ता जया णं चंदं गइसमावणं सूरे गइसमावण्णे भवइ, से गं गइमायाए केवइयं विसेसेइ ? उ. बाट्ठिभागे विसेसे इ / 2 प. ता जया णं चंदं गइसमावणं, णक्खत्ते गइसमावण्णे भवइ, से णं गइमायाए केवडयं विसेसेइ ? उ. ता सट्टि भागे विसेसेइ / 3 प. ता जया ण सूरं गइसमावण्णं णखत्ते गइसमावण्णे भवइ, से णं गइमायाए केवइयं बिसेसेइ ? उ. ता पंच भागे विसेसेइ / चंदस्स-णक्खत्ताण य जोगगइपरूवणं ता जया ण चंदे गइसमावष्णं अभिई णक्खते ण गइसमावण्णे पुरथिमाए भागाए समासाएइ समासाइत्ता णवमुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तसट्ठिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता, जोगं विप्पजहइ विगयजोगो यावि भवइ, ता जया णं चंदं गइसमावण्णं सवणे णक्खसे गइसमावण्णे पुरथिमाए भागाए समासाएइ, समासाइत्ता तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ जोगं अणुपरिट्टित्ता जोगं विप्पजहइ विगयजोगी यावि भवइ। एवं एएणं अभिलावेणं णेयध्वं, पण्णरसमुहुत्ताई, तीसइमुहुत्ताई पणयालीसमुहत्ताई। भाणियव्वाइं जाव उत्तरासाढा, चंदस्स गहाण य जोग-गइकालपरूवणं--- 84. ता जया णं चंदं गइसमावणं गहे गइसमावण्णे पुरस्थिमाए भागाए समासाएइ, पुरथिमाए भागाए समासाइत्ता चंदेण सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता जोगं विप्पजहइ, विगयजोगी यावि भवइ / 'ताराओं की गति सबसे अधिक है। ऐसा मुल पाठ में कथन है किन्तु गति के प्रमाण का कथन नहीं है, टीकाकार ने भी इस मम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] [सूर्यप्राप्तिसूत्र सूरस्स णक्खत्ताण य जोग-गइकालपरूवणं ता जया णं सूरं गइसमावण्णं अभिइणक्खत्ते गइसमावण्णे पुरथिमाए भागाए समासाएइ पुरथिमाए भागाए समासाइत्ता, चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुत्ते सूरेणं सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता जोगं विप्पजहइ, विगयजोगी यावि भवइ, एवं छ अहोरत्ता एक्कबीसं महत्ता य, तेरस अहोरता बारस महत्ता य, वीस अहोरत्ता तिण्णि मुहुत्ता य सव्वे भणियन्वा जाव ता जया णं सूरं गइसमावण्णं उत्तरासाढा णक्खत्ते गइसमावण्णे पुरथिमाए भागाए समासाएइ, पुरस्थिमाए भागाए समासाइत्ता बीसं अहोरत्त तिणि य मुहत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता जोगं विप्पजहइ, विगयजोगी यावि भवइ / सूरस्स गहाण य जोग-गइकालपरूवणं-- ता जया णं सूरं गइसमावण्णं गहे गइसमावण्णे पुरथिमाए भागाए समासाएइ, पुरथिमाए भागाए समासाइत्ता सूरेण सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता जोगं विप्पजहइ विगयजोगी यावि भवइ / क-णक्खत्तमासे चंदस्स सूरस्स, मक्खत्तस्स य मंडलचार८५. [णक्खत्ताइसु पंचसु मासेसु चंदस्स सूरस्स णक्खत्तस्स च मंडलचारसंखा] 1 प. ताणक्खत्तेणं मासेणं चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता तेरस मंडलाई चरइ, तेरस य सत्तट्ठिभागे मंडलस्स / 2 1. ता गक्खत्तेणं मासेणं सूरे कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता तेरस मंडलाइं चरइ चोत्तालोसं च सत्तविभागे मंडलस्स / 3 प. ता णक्खतेणं मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता तेरस मंडलाइं चरइ अद्धसेतालीसं च सत्तट्ठिभागे मंडलस्स / ख-चंदमासे चंदस्स सूरस्स णक्खत्तस्स य मंडल चार१ प. ता चंदेणं मासेणं चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता चोहस्स चउभागाइं मंडलाई चरइ, एगं च चउवीससयं भागं मंडलस्स / 2 प. ता चंदेणं मासेणं सूरे कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ताणण्णरस चउभागूणाई मंडलाई चरइ, एगंज चउवीससयभागं मंडलस्स / 3 प. ता चंदेणं मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता पण्णरस चउभागूणाई मंडलाइं चरइ, छच्च चउवीससयभागे मंडलस्स / / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां प्रामृत] [161 ग-उडुमासे चंदस्स सूरस्स णक्खत्तमासस्स य मंडलचारं१ प. ता उडुणा मासेणं चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता चोद्दस मंडलाई चरइ तीसं च एगट्ठिभागे मंडलस्स। 2 प. ता उडुणा मासेणं सूरे कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता पण्णरस मंडलाइं चरइ। 3 प. ता उडणा मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता पण्णरस मंडलाई चरइ, पंच य बावीस सयभागे मंडलस्स / घ-प्राइच्चमासे चंदस्स, सूरस्स णक्खत्तस्स य मंडलचारं१ 5. ता आइच्चेणं मासेणं चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता चोइस्स मंडलाइं चरइ, एक्कारस पण्णरस य भागे मंडलस्स। 2 प. ता आइच्चेणं मासेणं सूरे कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता पण्णरस चउभागाहिगाई मंडलाई चरइ / 3 5. ता आइच्चेणं मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता पण्णरस चउभागाहिगाई मंडलाइं चरइ पंचतीसं च चउवीससयभाग मंडलाई चरइ / -अभिवढियमासे चंदस्स सूरस्स णक्खत्तस्स य मंडलचार१ प. ता अभिवड्ढिएणं मासेणं चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता पण्णरस मंडलाइं चरइ, तेसोई छलसीयभागे मंडलस्स / 2 प. ता अभिवढिएणं मासेणं सूरे कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता सोलस मंडलाइं चरइ, तिहिं भागेहिं ऊणगाई दोहिं अडयालेहि सएहिं मंडलं छित्ता। 3 5. ता अभिवडिएणं मासेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता सोलस मंडलाइं चरइ सेयालीसहि भागेहि अहियाहिं चोद्दसहि अट्ठासोएहिं मंडलं छेत्ता। एगमेगे अहोरत्ते चंद-सूर-णक्खत्ताणं मंडलचार८६. 1 प. ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं चंदे कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता एगं अद्धमंडलं चरइ, एक्कतीसेहि भागेहि ऊणं णवहिं पण्णरसेहिं सहि अद्ध मंडल छेत्ता। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [सूर्यप्राप्तिसूत्र 2 प. ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं सूरे कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता एगं अद्धमंडलं चरइ / 3 प. ता एगमेगेणं अहोरत्तेणं णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता एगं अद्धमंडलं चरइ, दोहि भागेहि अहियं सतहिं बत्तीसेहिं सएहि अद्धमंडलं छेत्ता। एगमेगे मंडले चंद-सूर-णक्खत्ताणं अहोरत्ते चारं१ प. ता एगमेगं मंडलं चंदे कतिहि अहोरहि चरइ ? उ. ता दोहिं अहोरत्तेहिं चरइ, एक्कतोसेहि भारहि अहिएहि चउहि चोयालेहि सएहि __राइंदिएहि छेत्ता। 2 प. ता एगमेगं मंडलं सूरे कतिहि अहोरत्तेहि चरइ ? उ. ता दोहि अहोरत्तेहि चरइ / 3 प. ता एगमेगं मंडलं णक्खत्ते कतिहिं अहोरतेहि चरइ? उ. ता दोहि अहोरत्तेहि चरइ, दोहिं भागेहि ऊर्णेहि तिहि सत्तस?हि सहिं राई दिएहि छेत्ता। एगमेगजुगे चंद-सूर-णक्खत्ताणं मंडलचारं१ प. ता जुगे णं चंदे कइ मंडलाइं चरइ ? उ. ता अट्ठचुल्लसीए मंडलसए चरइ / 2 प. ता जुगे णं सूरे कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता णव-पण्णरसमंडलसए चरइ / प. ता जुगे णं णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ ? उ. ता अट्ठारस पणतीसे दुभागमंडलसए चरइ / इच्चेसा मुहुत्तगई रिक्ख-उडुमास-राइंदिय-जुगमंडल-पविभत्ती सिग्घगई वत्थ आहिए त्ति बेमि। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रामृत दोसिरणाइयाण लक्खणा८७. 1 प. ता कहं ते दोसिणालक्खणा ? आहिए ति वएज्जा ? उ. ता चंदलेसाइ य दोसिणाइ य।। 2 प. दोसिणाइ य चंदलेसाइ य के अछे, किलक्खणे? उ. ता एगळे एगलवखणे। प. ता कहं ते सूरलेस्सालक्खणो ? आहिए त्ति बएज्जा ? उ. ता सूरलेस्साइ य मायवेइ य / प. ता सूरलेस्साइ य, आयवेइ य के अट्ठे किलक्खणे? उ. ता एगळे, एगलक्खणे। प. ता कहं ते छायालक्खणे? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता छायाइ य, अंधकाराइ य / 2 प. ता छायाइ य अंधकाराइ य के अछे किलक्खणे ? उ. ता एगळे एगलक्खणे। 00 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहता प्रामृत चंद-सूरियाणं चवणोववाया 88. प. ता कहं ते चवणोववाया, आहिए ति वएज्जा ? उ. तत्थ खलु इमानो पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णताओ तंजहा तत्थ एगे एवमाहंसुता अणुसमयमेव चंदिम-सूरिया अण्णे चयंति अण्णे उववज्जंति, एगे एवमासु, एगे पुण एवमाहंसु२. ता अणुमुहुत्तमेव चंदिम-सूरिया अण्णे चयंति अण्णे उववज्जति / 3-24. एवं जहेब हेट्ठा तहेव जाव' 1. "एवं जहा हिट्ठा तहेब जावेत्यादि एवं उक्तेन प्रकारेण यथा अधस्तात् षष्ठे प्राभते पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयस्तथैवात्रापि बक्तव्या: यावत् अणमासप्पिणि-उस्सप्पिणिमेवेत्यादि चरमसूत्रम् / ताश्च भणितव्याःएगे पुण एवमाहंसुःता अणराइंदियमेव चंदिम-सूरिया अण्णे चयंति, अण्णे उववज्जति, पाहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसू, एगे पुण एवमाहंसु-- 4. ता अणपक्खमेव चंदिम-सूरिया अग्रणे चयंति, अण्णे उववज्जति, प्राहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंस, एगे पुण एवमाहंसु५. ता अणुमासमेव चंदिम-सूरिया अण्णे चयंति, अण्णे उवज्जंति, पाहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंम्, एगे पुण एवमासु६. ता अणु-उउमेव एगे पुण एवमाहंसु---- 7. ता अणु-अथणमेव, एगे पुण एवमाहंसु८. ता अणु-संवच्छरमेव, एगे पुण एवमाहंसु९. ता अगुजुगमेव, एगे पुण एवमासु (शेष टिप्पणियां अगले पृष्ठ पर Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां प्राभूत] . 25. [165 एगे पुण एवमाहंसुता अणुओसप्पिणी, उस्सपिणीमेव चंदिम-सूरिया अण्णे घयंति, अण्णे उववज्जंति, एगे एवमाहंसु। 10. ता अणुवाससयमेव, एगे पुण एवमासु...११. ता अणुवाससहस्समेव, एगे पुण एवमाहंसु१२. ता अणु वाससयसहस्समेव, एगे पुण एवमाहंसु१३. ता अणुपुब्वमेव, एगे पुण एवमाहंसु१४. ता अणपुव्वसयमेव, एगे पुण एवमासु१५. ता अणुपुन्वसहस्समेव, एगे पुण एवमाहंसु--- 16. ता अणुपुत्वसयसहस्समेव. एगे पुण एवमाहंसु१७. ता अणुपलिअोवमेव, एगे पुण एवमाहंसु१८. ता अणुपलिग्रोवमसयमेव, एगे पुण एवमाहंसु१९. ता अणुपलिग्रोवमसहस्समेव एगे पुण एवमासु२०. ता अणुपलिग्रोवममयसहस्ममेव, एगे पुम एषमाहंसु२१. ता अणुसागरोवमेव, एगे पुण एवमाहंसु२२. ता अणुसागरोबमसयमेव, एगे पुण एवमाहंसु२३. ता अणुसागरोवमसहस्ममेव / / एगे पुण एवमासु२४. ता अणुसागरोवममयसहस्समेव / पंचविशतितमं प्रतिपत्तिसूत्रं तु साक्षादेव सुत्रकृता शितम् तदेवमुक्ताः परतीथिकप्रतिपत्तयः / -~-टीका. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र वयं पुण एवं वयामोता चंदिम-सूरियाणं देवा महिड्डीया, महाजुईया-महाबला, महाजसा, महासोक्खा, महाणुभावा / वर खत्थधरा, वरमल्लघरा, वरगंधषरा, वराभरणधरा, अन्योछित्तिणयट्टयाए काले अण्णे चयंति, अण्णे उववज्जति, चवणोववाया आहिए ति वएज्जा। 00 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां प्राभूत चंदाइच्चाइणं भूमिभागाप्रो उड्ढत्तं 89. प. ता कहं ते उच्चत्ते आहितेति वदेज्जा ? उ. तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तिओ, पण्णत्ताओ, तंजहा तत्थेगे एवमाहंसु१. ता एगं जोयणसहस्सं सूरे उड्डं उच्चत्तेणं दिवड्ढे चंदे, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-- 2. ता दो जोयणसहस्साई सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अड्डातिज्जाइं चंदे, एगे एवमाहंसु / ___एगे पुण एवमाहंसु३. ता तिन्नि जोयणसहस्साई सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं, अधुढाई चंदे, एगे एषमाहंसु / ___एगे पुण एवमासु-- 4. ता चत्तारि जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढे उच्चत्तणं, अद्धपंचमाई चंदे, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु५. ता पंच जोयणसहस्साई सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं, अद्धछट्ठाई चंदे, एगे एवमाहंसु / __ एगे पुण एवमाहंसु६. ता छ जोयणसहस्साई सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं, अद्धसत्तमाई चंदे, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु७. ता सत्तजोयणसहस्साई सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं अट्ठमाई चंदे, एगे एवमाहंसु / ___ एगे पुण एवमाहंसु-- 8. ता अट्ट जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं अद्धनवमाई चंदे, एगे एवमाहंसु / ___एगे पुण एवमाहंसु 6. ता नवजोयणसहस्साई सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं अद्धदसमाई चंदे, एगे एवमाहंसु / ___एगे पुण एवमाहंसु१०. ता दसजोयणसहस्साई सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं, अद्धएक्कारस चंदे, एगे एवमाहंसु / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] [सूर्यप्राप्तिसूत्र एगे पुण एवमाहंसु११. ता एक्कारस जोयणसहस्साई सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं अद्धबारस चंदे, एगे एवमाहंसु / एते णं अभिलावेणं णेतन्वं१२. बारस सूरे, अद्धतेरस चंदे, 13. तेरससूरे अद्धचोद्दस चंदे, 14. चोइस सूरे, अद्धपण्णरसचंदे, 15. पण्णरस सूरे अद्धसोलस चंदे, 16. सोलस सूरे, अद्धसत्तरस चंदे, 17. सत्तरस सूरे अद्धअट्ठारस चंदे, 18. अट्ठारस सूरे, अद्धएकोणवीसं चंदे, 19. एकोणवीसं सरे अद्धवीसं चंदे, 20. वीसं सूर, अद्धएक्कवीसं चंदे, 21. एक्कवीसं सूरे, अद्धबाबीसं चंदे, 22. बावीसं सूरे, अद्धतेवीसं चंदे, 23. तेवीसं सूरे, अद्ध चउवीसं चंदे, 23. चउवीसं सूरे अद्धपणवीसं चंदे, एगे पुण एवमाहंसु२५. ता पणवीस जोयणसहस्साई सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं श्रद्धछव्वीसं चंदे, एगे एवमाहंसु / वयं घुण एवं वदामोता इभीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तणउइ जोयणसए उड्ढे उप्पतित्ता हेढिल्ले ताराविमाणे चारं चरति जाव ता चंदविमाणातो गं वीसं जोयणाई उड्ढं उप्पतित्ता उवरिल्लते तारारूवे चारं चरति। एवामेव सपुव्वावरेणं दसुत्तरं जोयणसतं बाहल्ले तिरियमसंखेज्जे जोतिसविसए जोतिस चारं चरति आहितेति वदेज्जा। ताराणं अणुत्ते तुल्लत्ते कारणाई ता अस्थि णं चंदिम-सूरियाणं देवाणंहिट्ठपि' तारारूवा अणुपि, तुल्ला वि, समंपि' तारारूवा अणुपि तुल्ला वि, उपिपि ताराख्वा अणुपि, तुल्ला वि। 90. 1. जंबु. वक्ख. 7 सु. 162 हिटठं पित्ति-क्षेत्रापेक्षया अधस्तना अपि तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवास्तेऽपि चंद्र-सूर्याणां देवानां द्यति विभवादिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि भवंति, केचित्तुल्या अपि / 2. "सममवि त्ति-चंद्रविमानः सूर्यविमानश्च क्षेत्रापेक्षया समश्रेण्यापि / " 3. "उप्पि पि त्ति चंद्रविमानानां सूर्य विमानानां चोपर्यपि।" 4. ता जहजहेत्यादि....यैः प्रागभवे तपोनियम-ब्रह्मचर्याणि मंदानि कृतानि ते तारारूपविमानाधिष्ठात-देवभवमनुप्राप्ताश्चन्द्र-सूर्यदेवेभ्यो द्युति-विभवादिकमपेक्ष्य हीना भवंति / (शेष अगले पृष्ठ पर) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां प्रामृत [169 प. ता कहं ते चंदिम-सूरियाणं देवाणंहिट्ठपि तारारूवा अणुपि, तुल्ला वि, समपि तारारूवा अणुपि, तुल्ला वि, उप्पिपि तारारूवा अणुपि तुल्ला वि? उ. ता जहा जहा णं तेसि णं देवाणं तव-णियम-बंभचेराई उस्सियाई भवंति-तहा तहा णं तेसिं देवाणं एवं भवंति, तंजहा-अणुसे वा, तुल्लत्ते वा / ता एवं खलु चंदिम-सूरियाणं देवाणंहिट्ठपि तारारूवा अणुपि, तुल्ला वि, समंपि तारारूवा अणुपि, तुल्ला वि, उप्पिपि तारारूवा अणुपि, तुल्ला वि। चंदस्स गह-णक्खत्त-ताराणं परिवारो 91. प. क. ता एगमेगस्स णं चंदस्स देवस्स केवइया गहा परिवारो पण्णत्तो ? ख. केवइया णक्खत्ता परिवारो पण्णत्तो? ग. केवइया तारा परिवारो पण्णत्तो ? उ. क. ता एगमेगस्स णं चंदस्स देवस्स अट्ठासीइगहा परिवारो पण्णत्तो, ख. अट्ठावीसं णक्खत्ता परिवारो पण्णत्तो, ग. गाहा छावटि सहस्साई, णव चेव सयाई पंचुतराई। एगससीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं'। परिवारोपण्णत्तो। यस्तु भवान्तरे तपोनियम-ब्रह्मचर्याणि प्रत्युत्कटान्यासेवितानि ते तारारूप विमानाधिष्ठातुरूपदेवत्वमनप्राप्ता द्युतिविभवादिकमपेक्ष्य चंद्र-सूर्यदेवैः सह समाना भवन्ति न चैतदनुपपन्नम् / दृश्यन्ते हि मनुष्यलोकेऽपि केचिज्जन्मान्तरोपचिततथाविधपुण्यप्रारभारा राजस्वमनुप्राप्ता अपि राज्ञा सह तुल्य विभवा इति / 1. जम्मू. वक्ख. 7, सु. 163 2. क. “एगमेगस्स णं चंदिम-सूरियस्स अट्ठासीइ अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो पण्णत्तो। -सम. 88, सु. 1 ख. प. एममेगस्स णं चंदिम-सूरियस्स.... उ. माहामो-अट्ठासीति च गहा, अट्ठावीसं च होइ णक्खत्ता / एगससीपरिवारो, एत्तो ताराण वोच्छामि // (शेष टिप्पणियां अगले पृष्ठ पर) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र मंदरपव्वयानो जोइसचारं 92. 1 प. ता मंदरस्स णं पव्वयस्स णं केवइयं अबाहाए जोइसे चारं चरइ ? उ. ता एक्कारस एक्कयोसे जोयणसए अबाहाए जोइसे चारं चरइ' / लोअंताओ जोइसठाणं प. ता लोअंताओ णं केवइयं प्रवाहाए जोइसे पण्णते ? उ. ता एक्कारस एक्कारे जोयणसए अबाहाए जोइसे पण्णत्ते / / गक्खत्ताणं अभंतराइं चारं 13. 1 प. ता जंबुद्दीवे णं दीवे कयरे णक्खत्ते सव्वन्भंतरिल्लं चारं चरइ ? 2 प. कयरे णक्खत्ते सव्वबाहिरिल्लं चारं चरइ ? 3 प. कयरे णक्खत्ते सव्ववरिल्लं चारं चरइ ? 4 प. कयरे णक्खत्ते सव्वहेटिल्लं चारं चरइ ? 1 उ. अभिई णक्खत्ते सव्वभंतरिल्लं चारं चरइ / छावट्ठीसहस्साइं, णव चेव सयाइं पंचसयराइं। एगससीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं // ----जीवा. प. 3, उ. 2, सु. 194 ग: जीवाभिगम प्रति. 3, उ. 2, सू. 194 में--"चन्द्र और सूर्य दोनों के संयुक्त प्रश्नोत्तर हैं। मूल में प्रश्नसूत्र का केवल प्रतीक है और उत्तर के रूप में दो गाथाएँ हैं। ___टीका में-- "प्रश्नसूत्र का यह प्रतीक है- "एगमेगस्स णं भंते ! चंदिभ-सरियस्येत्यादि इस प्रतीक के सम्बन्ध में टीकाकर का स्पष्टीकरण यह है "एकैकस्य भदन्त ! चंद्र-सूर्यस्य" अनेन च पदेन यथा नक्षत्रादीनां चंद्र: स्वामी तथा सूर्यो: पि, तस्यापीन्द्रत्वात्.... ....इह भूयान पुस्तकेषु वाचनाभेदो गलितानि च सूत्राणि बहषु पुस्तकेष ततो यथावस्थित वाचनाभेदप्रतिपत्यर्थं गलितसूत्रोद्धरणार्थ चैवं सुगमान्यपि विवियन्ते.... 1. सम. स. 11, सु. 3 2. क. सम. स. 11, सु. 2 ख. जम्बु. वक्ख. 7, सु. 154 3. "सर्वाभ्यन्तरं सर्वेभ्यो मण्डलेभ्योऽभ्यन्तर: सर्वाभ्यन्तरः अनेन द्वितीयादि-मण्डल चारव्युदासः" "यद्यपि सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारीग्यभिजिदादिद्वादशनक्षत्राण्यभिहितानि, तथापीदं शेषकादशनक्षत्रापेक्षया मेरुदिशि स्थितं सत चारं चरतीति सर्वाभ्यन्तरचारीत्यूक्तम्"। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ प्राभूत] [171 . 2 उ. मूले णक्खत्ते सव्वबाहिरिल्लं चारं चरइ' / 3 उ. साई णक्खत्ते सव्वुवरिल्लं चारं चरइ / 4 उ. भरणी गक्खत्ते सव्वहेटिल्लं चारं चरइ। चंद-सूर-गह-णक्खत्तविमाणाणं संठाणाई 64. प. ता चंदविमाणे णं किसंठिए पण्णत्ते ? उ. ता अद्धकविटुग-संठाणसंठिए सवफालियामए अब्भुगयमूसियपहसिए विविह-मणि-रयण. भत्तिचित्ते, वाउद्घय-विजय-वेजयंतीपडागा छत्ताइछत्तकलिए, तुगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे, जालंतररयण-पंजरुम्मीलियव्व मणिकणगथभियागे, वियसिय-सयवत्त-पुडरोयतिलयरयणद्धचंदचित्ते, अंतो बहिं च सण्हे, तवणिज्जबालुगापत्थडे सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। एवं सूरविमाणे, गहविमाणे, नक्खत्तविमाणे ताराविमाणे / / 1. "सर्वबाह्य-सर्वतो नक्षत्रमण्डलिकाया बहिश्चारं चरति" / "यद्यपि पंचदशमण्डलाबहिश्चारीणि मृगशिर:प्रभृतीनि षड् नक्षत्राणि. पूर्वाषाढोत्तराषाढयोश्चतुर्णा तारकाणां मध्ये द्वे द्वे च तारे उक्तानि, तथाप्येतदपरबहिश्चारिनक्षत्रापेक्षया लवणदिशि स्थितं सच्चारं चरतीति सर्वबहिश्चा रीत्युक्तम्"। 2. क. "दशोत्तरशतयोजनरूपे ज्योतिश्चक्रबाहल्ये यो नक्षत्राणां क्षेत्रविभागश्चर्योजनप्रमाणस्तदपेक्षयोक्तनक्षत्रयोः क्रमेणाधस्तनोपरितनभागो ज्ञेयो।" इस टिप्पण में उधत उद्धरण जम्बू. वक्ख. 7: सू. 165 टीका के हैं / ख. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के सूत्र 165 के समान यह सूर्यप्रज्ञप्ति का सूत्र भी है। 3. गाहापो अद्ध कविट्ठागारा उदयत्थमणमि कहं न दीसंति, ससि-सूराण विमाणा, तिरियक्खेत्तट्टियाणं च ? उत्ताणद्ध कविट्ठागारं, पीढं तदुरिं च पासाप्रो। बट्टालेखेण तो, समवटें दूरभावाप्रो॥ जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन विशेषणावत्यामाक्षेपपुरस्सरमुक्तम् / / "यदि चन्द्रविमानमुत्तानीकृतार्द्धमात्रकपित्थफलसंस्थानसंस्थितं तत उदयकाले अस्तमयकाले वा, यदि वा तिर्यक परिभ्रमत पौर्णमास्यां कस्मात्तदर्धकपित्थफलाकारं नोपलभ्यन्ते ? कामं शिरस उपरि वर्तमानं वर्तुलमुपलभ्यते अर्धकपित्थस्य उपरि दुरभवस्थापितस्य परभागादर्शनतो वर्तलतया दृश्यमानत्वात् उच्यते। इहार्द्ध कपित्थफलाकारं चन्द्रविमानं न सामस्त्येन प्रतिपत्तव्यं, किन्तु तस्य चन्द्र विमानस्य पीठं, तस्य च पीठस्योपरि चन्द्रदेवस्य ज्योतिश्चक्रराजस्य प्रासादः स च प्रासादस्तथा कथंचनापि व्यवस्थितो यथा पीठेन सह भूयान् वर्तुलाकारो भवति, स च दूरभावादेकान्ततः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते, ततो न कश्चिद्दोषः / / —सूर्य. टीका, 4. जंबु. वक्ख. 7, सु. 125 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र चंद-सूर-गह-णक्खत्त-ताराविमाणाणं आयाम-विक्खंभ-परिक्खेव-बाहल्लाई प. क. ता चंदविमाणे गं केवइयं आयाम-विक्खंभेण? ख. केवइयं परिक्खेवेणं? ग. केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? उ. क. ता छप्पण्णं एगद्विभागे जोयणस्स आयाम-विक्खंमेणं / / ख. तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं / ग. अट्ठावीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णते।' प. क. ता सूरविमाणे णं केवइयं आयाम-विक्खंभेणं ? ख. केवइयं परिक्खेवेणं? ग. केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? उ. क. ता अडयालीसं एगट्टिभागे जोयणस्स आयाम-विक्खंभेणं ? ख. तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं / ग. चउव्वीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते / प. क. ता गहविमाणे णं केवइयं आयाम-विवखंभेणं ? ख. केवइयं परिक्खेवेणं? ग. केवइयं बाहल्लेणं पण्णते? उ. क. ता अद्धजोयणं आयाम-बिक्खंभेणं / ख. तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं / ग. कोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते। 1. प. क. चंदमंडले णं भंते / केवइयं पायाम-विक्खंभेण ? ख. केवइयं परिक्खेवेणं? ग. केवइयं बाहरूलेणं पण्यात्ते ? उ. क. गोयमा ! छप्पन्न एगसटिभाए जोअणस्स आयाम-विक्खभेण, ख. तं तिगुणं सविसेस परिक्खेवेणं; ग. अट्ठावीसं च एगसट्ठिभाए जोयणस्स बाहल्लेणं, पण्णत्ते / -जंबु. दक्ख. 7, सु. 145 चंदमंडले णं एगसद्धिविभाग-विभाइए समंसे पण्णत्ते। --सम. 61, सु. 3 इस सूत्र से यह स्पष्ट है कि चन्द्रविमान और चन्द्रमण्डल एक ही है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां प्राभूत] [173 प. क. ता णक्खत्तविमाणे णं केवइयं आयामबिक्खंभेणं ? ख. केवइयं परिक्खेवेणं? ग. केवइयं बाहल्लेणं? उ. क. ता कोसं आयाम-विक्खंभेणं / ख. तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं / ग. अद्धकोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते / प. क. ता ताराविमाणे णं केवइयं आयामविक्खंभेणं ? ख. केवइयं परिक्खेवेणं? ग. केवइयं बाहल्लेणं ? उ. क. ता अद्धकोसं आयामविवखंभेणं / ख. तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं / ग. पंचधणुसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / चंद-सूर-गह-णक्खत्त-ताराणं विमाणपरिवहणंप. ता चंदविमाणे णं कइ देवसाहस्सीओ परिवहति ? उ. सोलस देवसाहस्सीयो परिवहन्ति, तंजहा पुरथिमेणं सोहरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सोओ परिवहंति, १.क.प. चंदविमाणे ण भंते ! केवइयं पायाम-विक्खंभेणं ? केवइयं बाहल्लेणं ? उ. गाहायो छप्पणं खलु भाए-विछिण्णं चंदमडलं होइ। अट्ठावीसं भाए बाहल्लं तस्स बोद्धच्वं // 1 // अडयालीसं भाए, विच्छिण्ण सूरमंडल होइ। चउवीसं खलु भाए, बाहल्लं तस्स बोद्धब्वं // 2 // दो कोसे अ गहाणं, णक्खत्ताणं तुहवा तस्सद्ध / तस्सद्धं ताराणं, तस्सद्ध चेव बाहल्ले / / 3 / / —जंबु. वक्ख. 7, सु. 165 "एकस्य प्रमाणाालयोजनस्यैकषष्टिभागीकृतस्य षट्पंचाशता भामैः समुदितैर्यवत्प्रमाणं भवति, तावत्प्रमाणोऽस्य विस्तारः” "वृत्तवस्तुनः सदृशायाम-विष्कम्भात्" परिक्षेपस्तु स्वयमभ्यूह्यः वृत्तस्य सविशेषस्त्रिगुणः परिधिरिति प्रसिद्धेः / यह स्पष्टीकरण जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति के वृत्ति कार ने ऊपर लिखित सूत्र का दिया है। ख. यद्यपि जीवा. प. 3, उ. 2, सू. 197 प्रश्नोत्तरात्मक सूत्र हैं किन्तु उसमें "भंते" और "गोयमा" का प्रयोग अधिक है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र दाहिजेणं गयरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सोओ परिवहंति, पच्चभिमेणं वसभरूवधारोणं चत्तारि देवसाहस्सोओ परिवहंति, उत्तरेणं तुरगरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहति / एवं सूरविमाणं पि, प. ता गहविमाणे णं कइ देवसाहस्सीओ परिवहंति ? उ. ता अट्ट देवसाहस्सीओ परिवहंति, तंजहा पुरस्थिमेणं सिहरूवधारीणं देवाणं दो देवसाहस्सीओ परिवहंति, उत्तरेणं तुरगरूवधारीणं देवाणं दो देवसाह्स्सीओ परिवहति / प. ता गक्खतविमाणे णं कह देवसाहस्सोओ परिवहंति ? उ. ता चत्तारि देवसासहसीओ परिवहति, तंजहा पुरस्थिमेणं सोहरूवधारीणं देवाणं एक्का देवसाहस्सी परिवहइ, एवं जाव उत्तरेणं तुरगरूवधारीणं देवाणं एक्का देवसाहस्सी परिवहइ / प. ता ताराविमाणे णं कह देवसाहस्सोओ परिवहति ? उ. ता दो देवसाहस्सोओ परिवहंति, तंजहा पुरस्थिमेणं सीहरूवधारीणं देवाणं पंचदेवसया परिवहंति, एवं जावउत्तरेणं तुरगरूवधारीणं देवाणं पंचदेवसया परिवहति / ' १.प. चंदविमाणे णं भंते ! कति देवसाहस्सीमो परिवहति ? गोयमा ! सोलस देवसाहस्सीनो परिवहति / उ. चंदविमाणस्स णं पुरथिमेण, सेग्राणं, सुभगाणं, सुप्पभाणं, संखतल-विमल-निम्मल-दधिघण-गोखीरफेण-रयणणिगरप्पभासाण, थिर-लट्रपउट्ट-वट्ट-पीवर-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-तिक्खदाढा-विडंबिअ-मुहाणं, रत्तुप्पलपत्त-मउय-सूमालतालु-जीहाणं, महु-गुलिअ-पिंगलक्खाणं, पीवरवरोरु-पडिपुण्ण-विउल-खंधाणं, मिउ-विसय-सुहुम-लक्खण-पसत्थ-वरवण्ण-केसरसटोवसोहिआणं, ऊसिअ-सुनमिय-सुजाय-अप्फोडिअ-लंगूलाणं, वइरामय-णक्खाणं, वइरामय-दाढाणं, वइरामय-दंताणं, Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मठारहवां प्राभत] [175 तवणिज्ज-जीहाणं, तवणिज्ज-तालुपाणं, तवणिज्ज-जुत्त-जोत्तगसुजोइपाणं कामगमाणं, पीइगमाणं, मणोगमाणं, मणोरमाण, अभिजिअगईणं, अमिन-बल-वीरिग्र-यूरिसक्कार-परक्कमाणं, महया अप्फोडिग्र-सीहणाय-वोल-कलकल-रवेणं महरेण मणहरेणं पूरेता अंबर, दिशामो य सोभयंता, चत्तारि देवसाहस्सीग्रो मोहरूवधारीण परिस्थिमिल्लं वाहं बहंति, चंदविमाणस्स णं दाहिणेणं, सेग्राणं. सुभगाणं, सुप्पभाणं, संखतल-विमल-णिम्मल-दधिघण-गोखीरफेण-रयय-णिगरप्पयासगाणं, वइरामय-कुंभयुमल-सुट्ठिअ-पीवर-वरवइरसोंड-वट्टिप्र-दित-सुरत्त, पउमप्पगासाणं, अब्भुण्णय-मुहाणं, तवणिज्ज-विसाल-कण्णचंचल-चलंत-विमलुज्जलाणं, महवण्ण-भिसंत-णिद्ध-पत्तल-णिम्मल-तिवण्ण-मणि-रयण-लोयणाणं, अब्भग्गय-म उल-मल्लियाधवलसरिससंठिय-णिवण्णदढ-कसिण-फालिग्रामय-सुजाय-दंतमुसलोवसोभिप्राण, कंचणकोसी-पविट्ठ-दंतगग-विमल-मणि-रयण-रुइल-पेरंत-चित्तरूवग-विराइयाण, तवणिज्ज-विसाल-तिलगप्पमुह-परिमण्डियाणं, गाणामणि-रयण-मुद्ध-गेविज्ज-बद्ध-गलयवरभूसणाणं, वेरुलिय-विचित्त-दण्ड-निम्मल-वइरामय-तिक्खलट्ट-अंकुस-कुंभजुयलयंतरोडियाण, तवणिज्ज-सुबद्ध-कच्छ-दप्पिण-बलुद्धराणं, विमल-घण-मंडल व इरामय-लालाललियतालणं, णाणामणि-रयण-घंट-पासग-रजतमय-बद्ध-रज्जु-लंबिध-घंटाजुयल-महरसरमणहराणं, अल्लीण-पमाणजुत्त-वट्टिअ-सुजाय-लक्खण-पसत्थ-रमणिज्ज-वालगत्तपरिपुंछणाणं, उवचिन-पडिपुण्ण-कुम्म-चलण-लहुविक्कमाणं, अंकामयणक्वाण, तवणिज्ज-जोहाणं, तवणिज्जतालूप्राणं, तवणिज्ज-जोत्तन-सुजोइयाण, कामगाणं, पीइगाणं, मणोगमाणं, मनोरमाणं, अमियगईणं, अमिय-वल-वीरिय-पूरिसक्कार-परक्कमाणं, महया-गंभीर-गुलगुलाइतरवेणं महुरेणं मणहरेणं, पूरॅता अंबर, दिसायो य सोभयंता, चत्तारि देवसाहस्सीग्रो गयरूवधारीणं देवाणं दक्खिणिलं वाहं परिवहंति, चंदविमाणस्स णं पच्चत्थिमेणं, सेग्राणं, सुभगाणं सुप्पभाणं, चल-चवल-ककुह-सालीणं, घण-निचिन-सुबद्ध-लक्खणुण्णयई मिश्राणय-वसभोट्ठाणं, चंकमिन-ललिग्र-पुलिअ-चलघवल-गविन-गईणं, सन्नतपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं; पीवरवट्टिन-सुसंठिय-कडीण, अोलब-पलब-लक्खण-पमाणजुत्त-रमणिज्ज-वालगंडाणं समखुरवालिधाणाणं, समलिहिप्र-सिंग-तिक्खम्ग-संगयाणं, तणु-सुहुभ-सुजाय-णिद्ध-लोमच्छवीणं, उवचिन-मंमल-विसाल-पडिपूण्ण-खंध-पएस-संदराणं, वेरुलिअ-भिसंत-कडक्ख-सुनिरिक्खणाणं, Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र जुत्तप्पमाण-पहाणलखण-पसत्थ-रमणिज्ज-गग्गर-गल्ल-सोभियाणं, घरघरग-सुसद्द-बद्ध-कंड-परिमंडियाणं, णाणामणि-कणग-रयणघंटिया-वेगच्छिग-सुकयमालिपाणं, वरघंटा-गलय-मालुज्जल-सिरिघराणं, पउमुप्पल-सगल-सुरभि-माला-विभूसिपाणं, वहरखुराणं, विविहक्खुराणं, फालिग्रामय-दंताणं, तवणिज्ज--जीहाणं, तवणिज्जतालुप्राणं, तवणिज्ज-जोत्तग-सुजोइयाणं, कामगमाणं, पीइगमाणं, मणोगमाणं मगोरमाणं, अमिअगईणं अमिन-बलवीरित्र-पुरिसक्कारपरक्कमाणं महया गज्जि-गंभीर-रवेणं, महरेणं, मणहरणं, पूरता अंबर, दिसामो य सोभंता, चत्तारि देवसाहस्सोमो वसहरूवधारीणं देवाणं पच्चस्थिमिल्लं वाहं परिवहंति, चंदबिमाणस्स णं उत्तरेणं-- सेणाणं, सुभगाणं, सुप्पभाणं, तरमल्लिहायणाणं तरमल्लिअच्छाणं चंचुच्चिअ-सेग्राणं, ललिग्र-पुलिस-चलचवल-चंचलगईणं, ललंतलाम-गललाय-धरभूसणाणं, सन्नयपासाणं संगयपासाणं, सुजायपासाणं, पीवर-वट्टिन-सुसंठिप-कडीणं, पोलंब, पलंब-लक्खण-पमाण-जुत्त-रमणिज्ज-वालपुच्छाणं, तणुसुहुम-सुजाय-णिद्ध-लोमच्छविहराणं, मिउविसय-सुहम-लक्खण-पसत्थ-वित्थिण्ण-केसरवालिहराणं, ललंत-थासग-ललाड-वरभूसणाणं, मुहमण्डग-प्रोचुलग-चामर-थासग-परिमण्डि-कडीणं, तवणिज्ज-खुराणं, तवाणिज्ज-जीहाणं, सवणिज्ज-तालुप्राणं, तवणिज्ज-जोत्तग-सुजोइयाणं, कामगमाणं पीइगमाणं, मणोगमाणं, मणोरमाणं, महया मज्जिन महरेणंरवेणं, गंभीर-मणहरेणं पूरेता अंबर, दिसाम्रो य सोभयंता, चत्तारि देवसाहस्सोप्रोवस हरूबधारीण देवाणं पच्चथिमिल्लं वाहं परिवहति, चन्दविमाणस्स णं उत्तरेणं-- सेग्राणं सुभगाणं, सुप्पमाणं तरमल्लिअच्छाणं चंचुच्चिय-सेयाणं, ललिप-पुलिस-चलनवल-चंचलगईणं, ललंतलाम-गललाय-वरभूसणाणं, -जंबु. वक्ख. 7, सु. 168 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां प्राभूत] [157 जोइसियाणं सिग्घ-मंदगइपरूवणं 15. प. ता एएसि णं चंदिम-सूरिय-गह-णखत-तारा-सवाणं कयरे कयरेहितो सिग्धगई वा, मंदगई वा? उ. ता चंदेहितो सूरा सिग्घगई, सूरेहितो गहा सिग्धगई, गहेहितो णक्खत्ता सिग्धगई, णक्खत्तेहितो तारा सिग्धगई, सम्वप्पगई चंदा, सव्वसिग्घगई तारा।' जोइसियाणं अप्प-महिड्ढिपरूवणं प. ता एएसि णं चंदिम-सूरिय-गह-गक्खत-तारारूवाणं कयरे कयरेहितो अप्पडिया वा __ महिड्डिया वा ? उ. ता ताराहितो महिड्डिया णक्खत्ता, णक्खत्तेहितो महिड्डिया गहा / गहेहिंतो महिड्डिया सूरा, सूरेहितो महिड्डिया चंदा, सम्वप्पड्डिया तारा, सव्वमहिड्डिया चंदा / ताराणं प्रवाहा अंतरपरूवणं 16. प. ता जंबुद्दोवे णं दोवे तारारुवस्स तारारुवस्स य एस णं केवइए प्रवाहाए मंतरे पण्णते? उ. दुविहे अंतरे पण्णते, तंजहा 1. वाघाइमे य, 2. निवाघाइमे य / क. तत्य णं जे से वाघाइमे, से णं जहण्णेणं दोणि छावळे जोयणसए / उक्कोसेणं, बारस जोयणसहस्साई दोणि बायाले जोयणसए तारारुवस्स य तारा रुवस्स य अबाहाए अंतरे पण्णते। ख. तत्थ णं जे से णिम्वाधाइमे से गं जहण्णणं पंच घणुसयाई, उकोसेणं प्रद्धजोयणं तारारुवस्स य तारारुवस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते।' 1. क. सूत्र 83 और इस सूत्र में साम्य है। ख. जंबू. वक्ख. 7, सु. 169 2. जंबू. वक्ख. 7, सु. 170 3. जंबु. वक्ख. 7, सु. 171 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र चंदस्स अग्गमहिसोमो देवीपरिवारविउवणा य 97. प. ता चंदस्स णं जोइसिदस्स जोइसरण्णो कइ अग्गम हिसीओ पण्णताओ? उ. ता चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा 1. चंदप्पभा, 2. दोसिणाभा, 3. अच्चिमाली, 4. पभंकरा / तत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि देवीसाहस्सीपरिवारो पण्णत्तो। प. पमू णं ताओ एगमेगा देवी अण्णाई चत्तारि चत्तारि देवीसहस्साई परिवारं विउवित्तए ? उ. पभू णं ताओ एगमेगा देवी देवीसाहस्सीपरिवारं विउवित्तए। _____एवामेव सपुम्वावरेणं सोलसदेवीसहस्सा पण्णत्ता, से तं तुडिए / प. ता पमू णं चंदे जोइसिदे जोइसराया चंदडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए तडिएणं सद्धि दिवाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरित्तए ? उ. णो इणठे समझें। प. ता कहं ते णो पमू जोइसिदे जोइसराया चंदडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए तुडिएणं सद्धि दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? उ. क. ता चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो चंदडिसए विमाणे समाए सुहम्माए माणव. एसु चेइयखंभेसु वइरामएसु गोलबट्टसमुग्गएसु बहवे जिणसकहाओ संणिपिखत्ताओ चिट्ठति / ताओ णं चंदस्स जोइसिंदस्स जोइसरण्णो अणेसि च बहणं जोइसियाणं देवाण य, देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ। एवं खलु णो पभू चंदे जोइसिदे जोइसराया चंदडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए तुडिएण सद्धि दिन्वाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरित्तए। ख. पभू णं चंदे जोइसिदे जोइसराया चंदडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदसि सीहा सणंसि चहि सामाणियसाहस्सीहि, चहिं अग्गमहिसीहि सपरिवाराहि, तिहिं परिसाहि, सहि अणिएहि, सहि अणियाहिवईहि, सोलसहिं आयरक्ख-देवसाहस्सीहि, अण्णेहि य बहूहि जोइसिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिवुडे, महयाहयपट्ट-गोय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंग-पडुप्पवाइय-रवेणं, दिव्वाई भोग Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां प्रात] [179 भोगाइं भुजमाणे विहरित्तए केवलं परिवारणिड्डीए / णो चेव णं मेहुणवत्तियाए। सूरस्स अग्गमहिसोयो देवोपरिवारविउव्वणा य 1. ता सूरस्स णं जोइसिदस्स जोइसरण्णो कइ अग्गर्माहसीओ पण्णत्ताओ? उ. ता चत्तारि अगमहिसोओ पण्णत्ताओ, तंजहा 1. सूरप्पभा, 2. आतवा, 3. अच्चिमाली, 4. पभंकरा। सेसं जहा चंदस्स, णवरं-सूरवडेंसए विमाणे जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियाए। जोइसियाणं देवाणं ठिई९८. प. ता जोइसियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? उ. ता जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं, वाससयसहस्समभहियं / प. ता जोइसिणोणं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? उ. ता जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, ___ उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहि अमहियं / प. ता चंदविमाणे णं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? उ. ता जहन्नेणं चउब्भागपलिओवमं, __उक्कोसेणं पलिओवमं वाससयसहस्सममहियं / प. ता चंदविमाणे णं देवीणं केवडयं कालं ठिई पण्णता? उ. ता जहन्नेणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्से हिं अन्भहियं / प. ता सूरविमाणे णं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? उ. ता जहन्नेणं चउम्भागपलिओवम, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससहस्समभहियं / प. ता सूरविमाणे णं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ. ता जहन्नेणं चउभागपलिओवमं, उकोसेणं अद्ध पलिनोवमं पंचर्चाह बाससएहि अमहियं / Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] [सूर्यप्राप्तिसूत्र प. ता गहविमाणे णं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? उ.:ता जहन्नेणं चउब्भागपलिओवम, उकोसेणं पलिओवमं / प. ता महविमाणे णं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? उ. ता जहन्नेणं चउम्भागपलिओबम, उक्कोसेणं अद्धपलिओवर्म। प. ताणक्खत्तविमाणे ण देवाणं केवयं काल:ठिई पण्णत्ता? उ. ता जहन्नेणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं / प. ताणक्खतविमाणे णं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता.? उ. ता जहानेणं अट्ठभागपलिनोवम, ___ उक्कोसेणं चउब्भागपलिओवमं / प. ता ताराविमाणे गं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? उ. ता जहण्णणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं चउब्भागपलिओवमं / प. ता ताराविमाणे णं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ. ता जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवम, उक्कोसेणं साइरेगअट्ठभागपलिओवमं / ' जोइसियाणं अप्प-बहुत्तं९९. 5. ता एएसि णं चंदिम-सूरिय-गह-णक्खत्त-ताराणं कयरे कयरेहितो अप्पा बा, बहुया वा, तुल्ला वा विसेसाहिया वा? उ. ता चंदा य, सूरा य, एएणं दोवि तुल्ला, सम्वत्थोवा णखक्त्ता, संखिज्जगुणा गहा, संखिज्जगुणा तारा।' DO 1. जंबु वक्ख. 7, सु. 173 2. जंबु. वक्ख. 7, सु. 175 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां प्रात चंद-सूर-गह-णक्खत्त-ताराणं परिमाणं 100. प. ता कइ णं चंदिम-सूरिया सव्वलोयं ओभासंति, उज्जोएंति, तति, पभासेंति ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. तत्थ खलु इमाओ दुवालस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तंजहा-. तत्थेगे एवमाहंसु--- 1. ता एगे चंदे एगे सूरे सम्वलोयं ओभासइ, उज्जोएइ, तवेइ, पभासइ, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-- 2. ता तिण्णि चंदा, तिणि सूरा सव्वलोयं ओभासेंति उज्जोएंति, तति, पभासेंति, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-- 3. ता अट्ठ चंदा अट्ठ सरा सव्वलोयं ओभासैंति जाव पभासेंति, एगे एबमाहंसु / एएणं अभिलावेणं णेयव्वं, 4. सत्त चंदा, सत्त सूरा, 5. दस चंदा, दस सरा, 6. बारस चंदा, बारस सूरा, 7. बायालीसं चंदा, बायालोसं सरा, 8. बावत्तरी चंदा, बावत्तरों सूरा, 6. बायालोसं चंदसयं बायालीसं सूरसयं, 10. बावत्तरं चंदसयं बावत्तरं सूरसयं, 11. बायालीसं चंदसहस्सं बायालोसं सूरसहस्सं, 12. बावतरं चंदसहस्सं, बावत्तरं सूरसहस्सं, सव्वलोयं ओभासंति उज्जोएंति तर्वेति, पभासेंति एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वयामो Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र जम्बूद्दोवो-जंबुद्दोवे जोइसियपरिमाणं ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सम्वन्भंतराए सव्वखुड्डाए जाव एगं जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई, सोलस सहस्साई, दोणि य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि य कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते / 15. ता जंबुद्दीवे दीवे ___ केवइया चंदा पभासिसु वा, पभासिति वा, पभासिस्संति वा? 25. केवइया सूरा विसु वा, तति वा, तविस्संत्ति वा ? 3 प. केवइया गहा चारं चरिसुवा, चरंति वा, चरिस्संति या ? 4 प. केवइया णक्खत्ता जो जोइंसु वा, जोएंति वा, जोइस्संति वा ? 5 प. केवइया तारागणकोडि-कोडोओ सोभं सोभेसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति का ? 1 उ. ता जंबुद्दीवे दोवे दो चंदा पभासेंसु वा, पभासिति वा, पभासिस्संति वा। 2 उ. दो सूरिया तविसु वा. तवेति वा, तविस्संति वा। 3 उ. छावर्तारं गहसयं चारं चरिंसु वा, चरंति वा, चरिस्संति वा। 4 उ. छप्पण्णं णक्खत्ता जोयं जोएंसु बा, जोएंति वा, जोइस्संति वा। 5 उ. एग सयसहस्सं तेत्तीसं च सहस्सा णव सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभेसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा। गाहाओदो चंदा दो सरा, णक्खत्ता खल हवंति, छप्पणा / छावत्तरं गहसयं, जंबुद्दोवे विचारोणं // एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई / णव य सया पण्णासा, तारागणकोडिकोडीणं // लवणसमुद्दो ता जंबुद्दीवं दीवं लवणे नामं समुद्दे वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिखिता णं चिट्ठइ। प. ता लवणे णं समुद्दे कि समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? उ. ता लवणसमुद्दे समचक्कवालसंठिए, नो विसमचक्कवालसंठिए / Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां प्राभूत |153 . ता लवणसमुद्दे केवइयं चक्कवालविखंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं ? पाहिए ति वएज्जा। उ. ता दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, पण्णरस जोयणसयसहस्साइं एक्कासीयं च सहस्साई सयं च एगूणचालीसं किंचि विसेसूर्ण परिक्खेवेगं / गाहापण्णरस सयसहस्सा, एक्कासीयं सयं च ऊतालं / किंचि विसेसेणूणो, लवणोदहिणो परिक्खेवो / 15. ता लवणसमुद्दे केवइया चंदा पभासिसु वा, पभासिति वा, पभासिस्संति वा? 25. केवइया सूरा विसु वा, तविति वा, तविस्संति वा ? 35. केवइया गहा चारं चरिसुवा, चरंति वा चरिस्संति वा ? 4 प. केवइया णक्खता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा, जोइस्संति वा ? 55. केवइया तारागण कोडाकोडीओ सोभं सोभेसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा ? 1 उ. ता लवणसमुद्दे चत्तारि चंदा पभासिसु वा, पभासिति बा, पभासिस्संति वा / 2 उ. चत्तारि सूरिया तविसु वा, तविति वा, तविस्संति वा। 3 उ. तिण्णि बावण्णा महग्गहसया चारं चर्चारसु वा चरंति वा, चरिस्संति वा / 4 उ. बारस णक्खत्तसयं जोगं जोएंसु वा जोएंति वा, जोइस्संति वा। 5 उ. दो सयसहस्सा सत्तट्टि च सहस्सा णव य सया तारागणकोडाकोडीणं सोभं सोभेसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा / गाहाओ--- चत्तारि चेव चंदा, चत्तारि य सूरिया लवणतोए। बारस णक्खत्तसयं, गहाण तिण्णेव बावण्णा // दोच्चेव सयसहस्सा, सद्धि खलु भवे सहस्साई। णव य सया लवणजले, तारागणकोडिकोडीणं / / धायईसंडदोवे ता लवणसमुदं धायईसंडे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सन्धओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठइ। प. ता धायईसंडे णामं दीवे कि समचक्कवालसंठिए विसमचक्कबालसंठिए ? उ. ता धायईसंडे गामंदीबे समचक्कवालसंठिए, तो विसमचक्कवालसंठिए। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र प. पायईसंडे णं दोवे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता चत्तारि जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, ईयालोसं जोयणसयसहस्साई दस य सहस्साई णव य एगट्टे जोयणसए किचि विसेसूर्ण परिक्खेवेणं, आहिए ति वएज्जा गाहाधायइसंड परिरओ, ईयाल दसूत्तरा सयसहस्सा। णव य सया एगट्ठा, किंचि विसेसेण परिहीणा // 15. घायईसंडे दीवे केवइया चंदा पभासेंसु वा, पभासिति वा, पभासिस्संति वा? 25. केवइया सूरिया तवेंसु वा, तविति वा, तविसिस्संति वा? 3 प. केवइया गहा चारं चरिसुवा, चरंति वा चरिस्संति वा? 4 प. केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा, जोइस्संति का? 5 प. केवइया तारागणकोडाकोडीओ, सोभं सोभेसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा ? 1 उ. बारस चंदा पभासेंसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति बा। 2 उ. बारस सूरिया तवेंसु वा, तविति वा, तविसिस्संति वा। 3 उ. एगं छप्पण्णं महग्गहसहस्सं चारं चरिंसु वा, चरंति वा, चरिस्संति वा। 4 उ. तिणि छत्तीसा णक्खत्तसया जोगं जोएंसु था, जोएंति वा, जोइस्संति वा / 5 उ. गाहाओ अठेव सय सहस्सा, तिणि सहस्साई सत्त य सयाई। एगससीपरिवारो, तारागणकोडिकोडोणं // चवीसं ससि-रविणो, णक्खत्तसया य तिषिण छत्तीसा / एगं च गहसहस्सं, छप्पणं धायईसंडे // अद्वैव सयसहस्सा, तिण्णि सहस्साई सत्त य सयाई। धायइसंडे.दोवे, तारागण कोडिकोडोणं // कालोए समुद्दे ता धायईसंडं णं दीवं कालोए णामं समुद्दे वट्ट वलयाकारसंठाणसंठिए सम्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठ। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां प्रामत] [185 प. ता कालोए णं समुद्दे कि समचक्कवालसंठिए, विसमचक्कवालसंठिए ? उ. ता कालोए णं समुद्दे समचक्कवालसंठिए, नो विसमचयकवालसंठिए। प. ता कालोए णं समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता कालोए णं समुद्दे अट्ठ जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते / एक्काणउई जोयणसयसहस्साई सरि च सहस्साई छच्च पंचुत्तरे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, आहिए त्ति वएज्जा / गाहा--- एक्काणउई सयसहस्सं, सत्तरि सहस्साई परिरओ तस्स / अहियाई छच्च पंचुत्तराई, कालोदधि वरस्स / / 15. ता कालोये णं समुद्दे केवइया चंदा पभासिसु वा, पभासिति वा, पभासिस्संति वा ? 2 प. केवइया सूरा तविसु वा, तवेति वा, तविस्संति वा ? 3 प. केवइया गहा चारं रिसुवा, चरंति वा, चरिस्संति वा ? 4 प. केवइया णक्खता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा, जोइस्संति वा ? 55. केवइया तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभेसु वा सोभंति वा, सोमिस्संति वा? 1 उ. ता कालोये णं समुद्दे बायालीसं चंदा पभासेंसु वा पभासिति वा, पभासिस्संति वा। 2 उ. बायालीसं सूरा तवेंसु वा, तवेति वा, तविस्संति वा / 3 उ. तिन्नि सहस्सा छच्च छन्नउया महागहसया चारं चरिसुवा, चरंति वा, चरिस्संति वा / 4 उ. एक्कारस छावत्तरा णक्खत्तसया जोगं जोइंसुवा, जोएंति वा, जोइस्संति वा / 5 उ. अट्ठावीसं सयसहस्साई, बारस सहस्साई नव य सयाई पण्णासा तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभेसु वा सोभंति वा, सोभिस्संति वा। गाहाओ-- बायालीसं चंदा, बायालीसं च दिणकरादित्ता / कालोदहिमि एए, चरति संबद्ध लेसागा // णक्खत्तसहस्सं, एगमि छावत्तरं च सतमण्णे। छच्चसया छण्णउया, महग्गह, तिणि य सहस्सा // Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र अट्ठावीसं सयसहस्स, बारस य सहस्साई / णबयसया पण्णासा, तारागण कोडिकोडीणं // पुक्खरवरदीवे ता कालोयं णं समुदं पुक्खरवरे णाम दोवे बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए सबओ समंता संपरिक्खित्ता गं चिट्टइ। प. ता पुक्खरे णं दोवे कि समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? उ. ता पुक्खरवरे णं दीवे सनचक्कवालसंठिए नो विसमचक्वालसंठिए / प. ता युक्खरवरे णं दोवे केवइयं समचक्कवालविवखंभेणं ? केवडयं परिक्खेवेणं? उ. ता सोलस जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं / एगा जोयणकोडी बाणउइं च सयसहस्साइं अउणावन च सहस्साई अट्ट चउणउए जोयणसए परिक्खेवेणं, पाहिए।त्ति वएज्जा / गाहा कोडी बाणउई खलु, अउणाणउई भवे सहस्साई / अट्ठसया च उणउया, परिरओ पोक्खरवरस्स // 1 प. ता पुक्खरवरे णं दोवे केवइया चंदा पभासेंसु वा, पभासिति वा, पभासिस्संति वा ? 25. केवइया सूरा विसु वा, तति वा, तविस्संति वा ? 3 प. केवइया गहा चारं चरिसुवा, चरंति वा, चरिस्संति वा ? 4 प. केवइया णक्खत्ताःजोगं जोइंसु वा, जोएंति वा, जोइस्संति वा ? 55. केवइया तारागण कोडिकोडीयो सोभं सोभेसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा? 1 उ. ता चोयालं चंदसयं पभासेंसु वा, पभासिति वा, पभासिस्संति वा / 2 उ. चोयालं सूरियाणं सयं तविसु वा, तति वा, तविस्संति वा / 3 उ. बारस सहस्साई छच्च बावत्तरा महागहसया चारं चरिसुवा, चरंति वा, चरिस्संति वा। 4 उ. चत्तारि सहस्साई बत्तीसं च णक्खत्ता जोगं जोएंसु वा, जोएंति वा, जोइस्संति वा।। 5 उ. छण्णउइसयसहसाई चोयालीसं सहसाइं चत्तारि य सयाई तारागणकोडिकोडीणं सोभं सो सु वा, सोभ॑ति वा, सोभिस्संति वा। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां प्राभूत] [187 गाहाओ.--- चत्तालं चंदसयं, चत्तालं चेव सूरियाण, सयं / पोक्खरवरदीवम्मि य, चरति एए पभासंता॥ चत्तारि सहस्साई, बत्तीसं चेव हुति णक्खत्ता / छच्च सया; बावत्तरं, महागहा: बारह सहस्सा // छष्णउद्द] सबसहस्सा, चोत्तालोसं खलु भवे सहस्साई। चत्तारि यः सया खलु, तारागण कोडि कोडी णं / / माणुसुत्तरे पन्धए ता पुक्खरवरस्स णं दोवस्स बहुमज्झदेसभाए माणुसुत्तरेणामं पम्वएपण्णते, वट्ट वलयाकारसंठाणसंठिए जे णं पुक्खरवरं दीवं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ, तंजहा१. अभिंतरयुक्खरद्धं च, 2. बाहिरयुक्खद्धरद्धं चः। अभितर-पुक्खरद्ध-~ प. ता अभिब्तर-पुक्खरद्धे णं कि समचक्कवालसंठिए, :विसमचक्कवालसंठिए ? उ. ता समचक्कवालसंठिए, नो विसमचक्कवालसंठिए। प. ता अभितर-पुक्खरद्धे गं केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवयं परिक्खेवेणं ? आहिए।त्ति वएज्जा। उ. ता अट्ठ जोयणसयसहस्साई चषकवालविक्खंभे णं, एक्का जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई तीसं च सहस्साई दो अउणापण्णे जोयणसए परिक्खेवेणं, आहिए त्ति वएज्जा, "अट्ठव सयसहस्सा अम्भितरपुक्ख रस्स विक्खंभो।"" 15. ता अमितरपुक्खरद्धे णं केवइया चंदा पभासेंसु वा, पभासिति बा, पभासिस्संति वा? 25. केवइया सूरा तवेंसु वा, तवेंति वा, तविस्संति वा ? 3 प. केवइया गहा चारं चरिसुवा, चरंति वा, चरिस्संति वा ? 4 प. केवइया णक्खता जोगं जोएंसु वा, जोएंति वा, जोइस्संति वा ? 5 प. केवइया तारामणकोडिकोडीओ सोभं सो.सु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा? 1 उ. बावरिं चंदा पभासेंसु वा, पभासिति वा, पभासिस्संति वा / 1. ये गाथा के प्रारम्भ के दो पद हैं। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188] [सूत्रप्रज्ञप्तिसूत्र 2 उ. बावरि सूरिया तवेंसु वा, तवेंति का, तविस्संति वा। 3 उ. छ महग्गहसहस्सा तिन्नि सए य छत्तीसा चारं चरेंसु वा, चरंति वा, चरिस्संति वा / 4 उ. दोण्णि सोला णक्खत्तसहस्सा जोगं जोएंसु वा, जोएंति वा, जोइस्संति वा / 5 उ. अडयालीसं सयसहस्सा, बावीसं च सहस्सा दोणि य सया तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभेसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा / गाहाओबावरि च चंदा बावत्तरिमेव दिणकरादित्ता। पुक्खरवरदीवड्ड, चरंति एए पभासेंता।। तिणि सया छत्तोसा, छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु / णक्खत्ताणं तु भवे, सोलाई दुवे सहस्साई / अडयालसयसहस्सा, बावीसं खलु भवे सहस्साई / दो य सय पुक्खरद्धे, तारागणकोडिकोडीणं // समयक्खेत्ते प. ता समयक्खेत्ते णं केवइयं आयाम-विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयाम-विक्खंभेणंएगा जोयणकोडो, बायालीसं च सयसहस्साई दोषिण य अडणापण्णे जोयणसए परिक्खेवेणंआहिए त्ति वएज्जा, गाहापणयाल सय सहस्सा, समयखेत्तस्स विक्खंभो।' कोडी बायालीसं, सहस्स दुसया य अउणपण्णासा। समयखेत्तस्स परिरओ, एमेव य पुक्खरद्धस्स // 15. ता समयक्खेत्ते णं केवइया चंदा पभासेंसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा ? 2 प. केवइया सूरा तवेंसु वा, तवंति वा, तविस्संति वा ? 3 प. केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा, चरिस्संति वा ? 4 प. केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोइंति वा, जोइस्संति वा ? 5 प. केवइया तारागणकोडिकोडीओ सोभं सो सु वा सोभंति वा, सोभिस्संति वा ? 1. ये गाथा के उत्तरार्ध के दो पद हैं। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ प्राभत] [189 1 उ. ता बत्तीसं चंदसयं पभासेंसु वा, पभासंति वा, पमासिस्संति वा। 2 उ. ता बत्तीसं सूरसयं तवेंसु बा, तवेति वा, तविस्संति वा / 3 उ. ता एक्कारस सहस्सा छच्च सोलस महग्गहसया चारं चरिसुवा, चरंति वा, चरिस्संति वा। 4 उ. ता तिणि सहस्सा छच्च छण्णउया णक्खत्तसया जोगं जोएंसु वा, जोएंति वा, जोइ स्संति वा। 5 उ. ता अट्ठासीई सयसहस्साइं चत्तालीसं च सहस्सा सत्त य सया तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभेसु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा / गाहाओबत्तीसं चंदसयं, बत्तीसं चेव सूरियाण सयं / सयलं माणुसलोयं चरंति एए पभासेंता // एक्कारस य सहस्सा, छप्पिय सोला महग्गहाणं तु / छच्च सया छण्णउया मक्खत्ता तिणि य सहस्सा। अढासीइ चत्ताई, सय सहस्साई मणुयलोगमि / सत्त य सया अणूणा, तारागणकोडिकोडोणं // एसो तारापिंडो, सध्वसमासेण मणयलोगंमि / बहिया पुण तारापो, जिहिं भणिया असंखेज्जा / एवइयं तारगं, जं भणियं माणुसंमि लोगंमि / चारं कलंबुया-पुप्फसंठियं जोइसं चरइ // रवि ससि गह णक्खत्ता, एवइया आहिया मणयलोए। जेसि णामागोतं, न पागया, पण्णवेहिति // जोइसियाणं पिडगाई छावट्टि पिडगाई, चंदाइच्चाण मणुयलोगंमि / दो चंदा दो सूरा, य हुंति एक्केकए पिडए / / छाढि पिडगाई, महागहाणं मणयलोमि / छावत्तरं गहसयं, होइ एक्केकए पिडए / Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190] [सूर्यप्रजाप्तिसूत्र छाढेि पिडगाई णक्खत्ताणं तु मणुयलोगंमि / छप्पणं णक्खत्ता हुंति एक्केक्कए पिडए / जोइसियाणं पंतीओ गाहाओचत्तारि य पंतीओ, चंदाइच्चाण मणुयलोगमि / छावट्ठि छावट्टि च, हवइ एक्केक्किया पती॥ छावत्तरं गहाणं. पंतिसयं हवंति मणुयलोमि / छावट्टि छाटुिं च हवइ एक्केक्किया पंती // छप्पन्न पंतीओ, णक्खताणं तु भणयलोगमि / छाद्धि छावद्धि हवइ एक्केक्किया पती॥ जोइसियाणं मंडला--- गाहाओते मेरुमणुचरंता, पदाहिणावत्त: मंडला सव्वे / अणवट्ठिय जोगेहि, चंदा सूरा गहगणा य // णक्खत्त-तारगाणं, अवट्ठिया, मंडला मुणयन्वा / तेऽवि य पदाहिणावत्तमेव मेरु अणुचरंति // जोइसियाणं मंडलसंकमणं रणिकर-दिणकराणं, उद्धं च अहेव संकमो नस्थि / मंडलसंकमणं पुण, सम्भंतर-बाहिरं तिरिए / जोइसाणं चारं सुह-दुहस्स निमित्तकारणं रयणिकर-दिणकराणं, मक्खत्ताणं महग्गहाणं च / चारविसेसेण भवे, सुह-दुक्खविही मणुस्साणं / / जोइसाणं तावक्खेत्तं तेसि पविसंताणं तावक्खेत्तं तु वड्डए णिययं / तेणेव कमेण पुणो, परिहायइ निक्खमाणाणं / / तेसि कलंबुयापुप्फसंठिया हंति तावक्खेत्तपहा / अंतो य संकुडा बाहिं वित्थडा चंद-सूराणं // Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [191 उन्नीसवां:प्राभूत] चंदस्स परिवुट्टि-परिहाणी गाहाओकेणइ वडद चंदो ? परिहाणो केण हुंति चंदस्स ? कालो वा जोण्हो वा ? केणऽणुभावेण चंदस्स ? किण्हं राहुविमाणं णिच्चं चंदेण होइ अविरहियं / चउरंगुलमसंपत्तं, हिच्चा चंदस्स तं चरइ // बाट्टि बाटुिं, दिवसे दिवसे तु सुक्कपक्खस्स / जं परिवड्इ चंदो, खवेइ तं चेव काले णं / / पण्णरसइ भागेण :य चंदं पण्णरसमेव तं वरइ। पण्णरसइ भागेण य, पुणोऽवि तं चेव वक्कमइ / / एवं वड्डइ चंदो, परिहाणी एव होइ चंदस्स / कालो वा. जोहो वा, एवऽणुभावेण चंदस्स / अणवट्ठिया अवटिया वा जोइसिया गाहाओ-- अंतोमणुस्स खेत्ते, हवंति चारोगा उ उववण्णा / पंचविहा जोइसिया, चंदा सूरा गहगणा य॥ तेण परं जे सेसा, चंदाइच्च-गह-तार-णक्खत्ता। णथि गई गवि चारो, अवट्ठिया ते मुणेयव्वा / / अड्डाइजेसु दोव-समुद्देस जोइसियाणं पमाणं-- गाहाओएवं जंबुद्दीवे, दुगुणा, लवणे चउग्गुणा हुँति / लावणगा य तिगुणिया, ससि-सूरा धायइसंडे / दो चंदा इह दोवे, चत्तारि य सायरे लवणतोए / धायइसंडे दीवे, बारस चंदा य सूरा य॥ माणुसणगस्स बहिया जोइसियाणं पमाण गाहाओधायइसंडप्पभिइस्स, उहिट्ठा तिगुणिया भवे चंदा / आइल्लचंद सहिया, अणंतराणंतरे खेत्तेग / / Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र रिक्खग्गह-तारगग्गं, वीव-समुद्दे जहिच्छसी गाउं / तस्ससोहि तग्गुणियं, रिक्ख-गह-तारग्गं तु // बहिया उ माणुसणगस्स चंद-सूराणऽवट्ठिया जोण्हा / चंदा अभिईजुत्ता, सूरा पुण हुंति पुस्सेहि // इसियागं अंतरं-- गाहाओचंदाओ सूरस्स य, सूरा चंदस्स अंतरं होई / पण्णाससहस्साइं तु जोयणाणं अणूणाई॥ सूरस्स य सूरस्स य, ससिणो ससिणो य अंतरं होई / बाहिं तु माणुसनगस्स जोयणाणं सयसहस्सं / सूरतरिया चंदा, चंदंतरिया य दिणयरा दित्ता। चित्तंतरलेसागा, सहलेसा मंदलेसा य॥ माणुसनगस्स बहिया एगससीपरिवारो गाहाओअट्ठासीइं च गहा, अट्ठावीसं च हुंति णक्खत्ता णं / एगससी परिवारो, एत्तो ताराण वोच्छामि / छाबटि सहस्साई, णव चेव सयाइपंचसयराई। एगससी परिवारो, तारागण कोडिकोडीणं / / अंतोमणुस्सखेत्ते जोइसियाणं उड्ढोववण्णगाइपरूवणं प. अंतो भणुस्सखेत्ते जे चंदिम-सूरिया गह-णक्खत्त-तारारूवा ते णं देवा किं उड्डोव वण्णगा, कप्पोक्वण्णगा, विमाणोववष्णगा, चारोववण्णगा, चारदितिया, गतिरतिया गतिसमावण्णगा? उ. ता ते णं देवा नो उट्टोववण्णगा नो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोव वण्णगा नो चारदिईया गइरइया गइसमावण्णा / उड्ढामुह-कलंबुअघुप्फसंठाणसंठिएहिं जोयणसाहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहिं साहस्सिएहि बाहिराहि य बेउम्वियाहिं परिसाहिं महयाहयणगीयवाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां प्राभूत] {193 घणमुइंग-पडुपवाइयरवेणं, महया उक्किट सोहणादबोलकलकलरवेणं, अच्छे पवयरायं पयाहिणावत्तमंडलचारं मेरु अणुपरियति / पुव्वइंदस्स चवणाणंतरं अण्णइंदस्स उववज्जणं प. ता तेसि णं देवाणं जाहे इंदे चयइ से कयमिदाणि पकरेइ ? उ. ता चत्तारि पंच सामाणिया देवा तं ठाणं उवसंपज्जितागं विहरं ति जाव अण्णे इत्य इदे उववण्णे भवइ। प. ता इंदठाणे णं केवइएणं कालेणं विरहियं पण्णतं ? उ. ता जहण्णेणं इक्क समयं उक्कोसेणं छम्मासे / माणुसखेत्तस्स बहियाजोइसियाणंउड्ढोववण्णगाइपरूवणं प. ता बहिया णं माणुरसखेत्तस्स जे चंदिमसूरिया गहगण-णक्खत्त-तारारूबा, ते णं देवा कि उड्डोववण्णगा कप्पोववष्णगा, विमाणोचवण्णगा, चारोववण्णगा, चारदिइया, गइरईया गइसमावण्णगा? उ. ता ते णं देवा नो उड्ढोववण्णगा, नो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, नो चारोववण्णगा, चारदिइया नो गइरइया, नो गइसमावण्णगा। पगिट्ठगसंठाणसंठिएहि जोयणसयसाहस्सिएहि तावक्खेतहि सयसाहस्सिएहि बाहिराहि वेउब्वियाहि परिसाहिं महयाहय-पट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घणमुइंग-पडुष्पवाइयरवेणं, महया उक्किट्ठसीहणाद-बोलकलकलरवेणं, दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ। सहलेसा मंदलेसा मंदायवलेसा, चित्तंतरलेसा, अण्णोऽण्ण सभोगाढाहि लेसाहिं कूडा इव ठाणठिया ते पदेसे सध्यओ समंता प्रोभासंति उज्जोवेंति तति पभार्सेति / प. ता तेसि णं देवाणं जाहे इंदे चयइ, से कहमिदाणि पकरेइ ? उ. ता चत्तारि पंच सामाणिया देवा तं ठाणं उवसंपजित्ताणं विहरंति, जाव अण्णे इत्थ इंदे उववणे भवइ / प. ता इंदठाणे णं केवइएणं कालेणं विरहियं पण्णत्ते ? उ. ता जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासे / सेसाणं दीव-समुद्दाणं आयामाह 101. ता पुक्खरवरं णं दोवं पुक्खरोदे णामं समुद्दे बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खिता णं चिट्ठइ / Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र प. ता पुक्खरोदे णं समुद्दे कि समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? उ. ता समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए / प. ता पुक्खरोदे णं समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं ? केवइयं परिक्लेवेणं ? आहिए त्ति बएज्जा? उ. ता संखेज्जाइं जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, संखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पाहिए ति वएज्जा। प. ता पुक्खरोदे गं समुद्दे केवइया चंदा पभासेंस वा, जाव केवइया तारागण-कोडिकोडोमो सोभं सोभिस्संति का। उ. ता पुक्खरोदे णं समुद्दे संखेज्जा चंदा पभासेंसु वा जाव संखेज्जाओ तारागणकोडिकोडियो सोभं सोभिस्संति वा। एवं एएणं अभिलावेणं१. वरुणवरे दोवे, 2. वरुणोदे समुद्दे, 1. खीरवरे दीवे, 2. खोरोदे समुद्दे, 1. घयवरे दीवे, 2. घयोदे समुद्दे, 1. खोयवरे दोवे, 2. खोयोदे समुद्दे, 1. नंदीसरवरे दोवे, 2. नंदीसरे समुद्दे, 1. अरुणे दीवे, 2. अरुणोदे समुद्दे, 1. अरुणवरे दीवे, 2. अरुणवरोदे समुद्दे, 1. अरुणवरोभासे दीवे, 2. अरुणवरभासोदे समुद्दे, 1. कुडले दीवे, 2. कुडलोदे समुद्दे, 1. कुडलवरे दीवे, कुंडलवरोदे समुद्दे, 1. कुडलवरोभासे दोवे, 2. कुंडलवरभासोदे समुद्दे। सम्वेसि विक्खंभ-परिक्खेवो जोइसाई च पुक्खरोदसागरसरिसाई। ता कुंडलवरभासोदं समुई रुयए दीवे वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए, सव्वनो समंता संपरिक्खिताणं चिटुइ। प. ता रुयए णं दोवे कि समचक्कवालसंठिए विसमचकवालसंठिए ? उ. ता समचक्कबालसंठिए, नो विसमचक्कवालसंठिए / Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां प्राभृत] [195 प. ता रुयए णं दोवे केवइयं समचक्कवालविक्खंभेणं, केवइयं परिक्लेवेणं ? उ. ता असंखेज्जाई जोयणसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, ____ असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहिए ति वएज्जा / प. ता रुयगे णं दोवे केवइया चंदा पभासेसु वा जाव केवइया तारागणकोडिकोडीओ सोभं सो सु सोभिस्संति वा? उ. ता रुयगे णं दीवे असंखेज्जा चंदा पभासेंसु वा जाव असंखेज्जाओ तारागण-कोडि कोडोओ सोभं सोभिस्संति वा। एवं रुयगोदे समुद्दे, 1. रुयगवरे दीवे, 2. रुयगवरोदे समुद्दे, 1. रुयगवरोभासे दोवे. 2. रुयगवरभासोदे समुद्दे / एवं तिपडोयारा दीव-समुद्दा णायव्वा, जाव, 1. सूरे दीवे, 2. सरोदे समुद्दे, 1. सुरवरे दीवे, 2. सूरवरोदे समुद्दे, 1. सूरवरोभासे दीवे, 2. सूरवरभासोदे समुद्दे / सन्वेसि विक्खंभ-परिक्खेवो जोइसाई रुयगवरदीवसरिसाई। ता सूरवरोभासोद णं समुदं देवे णामं दोवे बट्टे क्लायाकारसंठाणसंठिए सव्वमओ समंता संपरिक्खित्तागं चिट्टइ। प. ता देवे णं दीवे कि समचक्कवालसंठिए, विसमचक्कवालसंठिए ? उ. ता समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए। प. ता देवे णं दीवे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं ? आहिए त्ति वएज्जा। उ. ता असंखेज्जाई जोयणसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं आहिए त्ति वएज्जा / 5. ता देवे णं दोवे केवइया चंदा पभासेंस वा जाव केवइया तारागण-कोडिकोडीओ सोभं सोभिस्संति वा? उ. ता देवे गं दोवे असंखेज्जा चंदा पभासेंसु वा जाव असंखेज्जाओ तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभिस्संति वा / Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र एवं देवोदे समुद्दे१. णागे दीवे, 2. गागोदे समुद्दे, 1. जक्खे दोवे, 2. जक्खोदे समुद्दे, 1. भूए दोवे, 2. भूओदे समुद्दे, 1. सयंभूरमणे दीवे, 2. सयंभूरमणे समुद्दे / सध्वेसि विक्खंभ-परिक्खेवे जोडसाडं देवदीवसरिसाई। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां प्राभूत चंदिम-सूरियाणं अणुभावो 102, प. ता कहं ते अणुभावे ? आहिए त्ति वएज्जा / उ. ता तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-- 1. तत्थेगे एवमाहंसु ता चंदिम-सूरिया णंनो जीवा, अजीवा, नो घणा, झुसिरा, नो बादरबोंदिधरा कलेवरा / नत्थि णं तेसि 1. उट्ठाणेइ वा, 2. कम्मेइ वा, 2. बलेइ वा, 4. वीरिएइ वा, 5. पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा। नो विज्जु लवंति, नो असणि लवंति, नो धणियं लवंति। अहे य णं बादरे वाउकाए संमुच्छइ, संमुच्छित्ता विज्जु पि लवंति, अणि पि लवंति, थणियं पिलवंति “एगे एवमाहंसु"। 1. एगे पुण एवमाहंसु-- ता चंदिम-सूरिया:णंजीवा, नो अजीवा, घणा, नो झुसिरा, बादरबोंदिधरा, नो कलेवरा / अस्थि णं तेसि 1. उट्ठाणेइ वा, 2. कम्मेइ वा, 3. बलेइ वा, 4. वीरिएइ वा, 5. पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा। ते विज्जु पि लवंति, असणि पि लवंति, थणियं पि लवंति, "एगे एवमासु"। वयं पुण एवं वयामो-- ता चंदिम-सूरिया णं देवाणं महिडिया, महज्जुइया, महब्बला, महाजसा, महासोक्खा, महाणुभागा वरवत्थधरा, वरमल्लधरा, वराभरणधरा अवोछित्तिणयट्टयाए अन्ने चयंति, अन्ने उववज्जति / Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] {सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र राहु-कम्मपरूवणं 103. प. ता कहं ते राहुकम्मे ? पाहिए ति वएन्जा ? उ. तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीग्रो पण्णत्तानो तंजहा--- एत्थेगे एक्माहंसु१. अस्थि णं से राहू देवे जे णं चंदं वा सूरं वा गिण्हइ, “एगे एवमासु"। एगे पुण एवमाहंसु२. नत्थि णं से राहू देवे जे णं चंदं वा सूरं वा गिण्हइ. “एगे एवमाहंसु"। तत्थ जे ते एवमाहंसुता अस्थि णं से राहू देवे जे णं चंदं वा सूरं वा गिण्हइ, से एवमाहंसुता राहू णं देवे चंदं वा सूरं था गेण्हमाणे१. बुद्धतेणं गिण्हित्ता, बुद्धतेणंमुयइ, 2. बुद्धतेणं गिण्हित्ता, मुद्धतेणंमुयइ, 3. मुद्धतेणं गिण्हित्ता, बुद्धतेणंमुयइ, 4. मुद्धतेणं गिहित्ता, मुद्धतेणंमुयइ, 1. वामभुयंतेणं गिहित्ता वामभुयंतेणं मुयइ, 2. वामभुयंतेणं गिण्हत्ता, दाहिणभुयंतेणं मुयइ, 3. दाहिणभयंतेणं गिण्हित्ता वामभुयंतेणं मुयइ, 4. दाहिणभुयंतेणं गिण्हित्ता दाहिणभुयंतेणं मुयइ // तत्थ जे ते एवमाहंसुता नस्थि णं से राहू देवे जे णं चंदं वा, सूरं वा गेण्हह, ते एवमाहंसु तत्थ णं इमे पण्णरसकसिणपोग्गला पण्णता, तंजहा---१. सिंघाणए, 2. जडिलए, 3. खरए, 4. खतए, 5. अंजणे, 6. खंजणे, 7. सीतले, 8. हिमसोतले, 9. केलासे, 10. अरुणामे, 11. परिज्जए, 12. णभसूरए, 13. कवि लिए, 14. पिंगलए, 15. राहू। ता जया गं एए पण्णरस कसिणा कसिणा पोग्गला सया चंदस्स वा सूरस्स वा लेसाणुबद्धचारिणो भवंति, तया गं माणुसलोयंसि माणुसा एवं वयंति-"एवं खलु राहू चंदं वा सूरं वा गेण्हई"। एवं ता जया णं एए पण्णरस कसिणा कसिणा पोग्गसा णो सया चंदस्स वा सूरस्स वा लेसाणुबद्धचारिणो भवंति, णो खलु तया माणुसलोयंसि माणुसा एवं वयंति---"एवं खलु राहू चंदं का सूरं वा गेण्हइ. ते एवमाहंसु / Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां प्रामृत] क्यं पुण एवं क्यामो ता राहू णं देवे महिड्डीए महज्जुइए महब्बले महायसे महासोक्खे महाणुभावे, वरवत्थधरे, वरमल्लघरे वराभरणधारी। राहुस्स णव णामाई ता राहुस्स णं देवस्स णव णामधेज्जा पण्णता, तंजहा--१. सिंघाडए, 2. जडिलए, 3. खरए, 4. खेतए, 5. ढड्डरे, 6. मगरे, 7. मच्छे, 8. कच्छभे, 9. कण्णसप्पे / राहुस्स विमाणा पंचवण्णा ता राहुस्स णं देवस्स विमाणा पंचवण्णा पण्णत्ता, तंजहा-१. किण्हा, 2. नीला, 3. लोहिया, 4. हालिद्दा, 5. सुकिल्ला। अस्थि कालए राहुविमाणे खंजणवण्णामे पण्णत्ते / अस्थि नीलए राहुविमाणे लाउयवण्णाभे पण्णत्ते / अस्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिट्ठावण्णामे पण्णत्ते / अस्थि हालिद्दए राहुविमाणे हालिद्दावण्णामे पण्णत्ते / अस्थि सुकिल्लए राहुविमाणे भासरासिवण्णामे पण्णत्ते / ता जया गं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउव्वेमाणे वा, परियारेमाण वा, चंदस्स वा, सूरस्स वा लेस्सं पुरथिमेणं आवरित्ता पच्चस्थिमेणं वोईवयइ, तया गं पुरथिमेणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेइ पच्चस्थिमेणं राहू / ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं दाहिणेणं आवरित्ता उत्तरेणं वोईवयइ, तया णं दाहिणेणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेइ, उत्तरेणं राहू। एएणं अमिलावेणं पच्चत्थिमेणं प्रावरिता पुरथिमेणं वीईवयइ, उत्तरेणं आवरित्ता दाहिणेणं बोईवयई। ता जया गं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउम्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं दाहिणपुरस्थिमेणं आवरित्ता उत्तरपच्चत्थिमेणं वीईवयइ, तया णं दाहिणपुरस्थिमेणं चंदे वा सूरे वा उवदंसेइ, उत्तरपच्चस्थिमेणं राहू / ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउब्वेमाणे वा, परियारेमाणे या चंदस्स Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र वा सूरस्स वा लेसं दाहिणपञ्चस्थिमेणं आवरित्ता उत्तरपुरथिमेणं बीईवयइ, तया णं दाहिणपच्चत्थिमेणं चंदे वा, सूरे वा उवदंसेइ उत्तरपुरस्थिमेणं राहू। एएणं अभिलावेणं उत्तरपच्चत्थिमेणं आवरेत्ता दाहिणपुरस्थिमेणं वोईवयई, उत्तरपुरस्थिमेणं आवरेत्ता दाहिणपच्चत्थिमेणं वीईवयइ।। ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा, विउद्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा सूरस्स वा लेस्सं आवरेत्ता वोईवयइ तया णं माणुसलोयंसि मणुस्सा एवं वयंति "राहुणा चंदे वा, सूरे वा गहिए।" ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा विउग्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता पासेणं वीईवयइ, तया णं माणुसलोयंसि मणुस्सा एवं वयंति—"चंदेण वा, सूरेण वा राहुस्स कुच्छी भिण्णा / ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा, सरस्स वा लेसं आवरेसा पच्चोसक्कइ तया णं माणुसलोयंसि मणुस्सा एवं वयंति-"राहुणा चंदे वा सूरे वा बंते / " ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउन्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा, सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता मज्झं मज्झेणं वीईवयइ, तया णं माणुसलोयंसि मणुस्सा एवं वयंति"राहुणा चंदे वा, सूरे वा विइयरिए।" ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, विउब्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा सूरस्स वा लेसं आवरेत्ता अहे सक्खि सपडिदिसि चिट्ठइ, तया णं माणुसलोयंसि मणस्सा एवं वयंति-"राहुणा चंदे वा सूरे वा धत्थे।" राहुस्स दुविहत्तं प. कइविहे णं राहू पण्णते? उ. दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-ता धुवराहू य पव्वराहू य / क. तत्थ णं जे से धुवराहू से गं बहुलपक्खस्स पाडिवए पण्णरसइ भागेणं भागं चंदस्स लेसं आवरेमाणे आवरेमाणे चिट्ठइ, तंजहा-पढमाए पढमं भाग, जाव पण्णरसमीए पण्णरसमं भागं। चरमे समए चंदे रत्ते भवइ, प्रवसेसे समए चंदे रत्ते य, विरत्ते य भवइ / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां प्राभूत] [201 तमेव सुक्कपक्खे उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे चिट्ठइ, तंजहा-पढमाए पढम भागं जाव पण्णरसमीए पण्णरसमं भागं / चरमे समए चंदे विरत्ते य भवइ, अवसेसे समए चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ / ख. तत्थ णं जे ते पव्वराह से जहण्णेणं छह मासाणं, उक्कोसेणं बायालीसाए मासाणं चंदस्स, अडयालीसाए संवच्छराणं सरस्स ! चंदस्स ससी-अभिहाणं 104. प. ता कहं ते चंदे ससी चंदे ससी आहिए ? ति वएज्जा। उ. ता चंदस्स णं जोइसिदस्स जोइसरणो मियके विमाणे कंता देवा, कंताओ देवीओ, कताई आसण-सयण-खंभ-भंड-मत्तोवगरणाई। अपणा वि णं चंदे देवे जोइसिदे जोइसराया सोमे कंते सुभे पियदंसणे सुरूवे / ता एवं खलु चंदे ससो, चंदे ससी आहिए ति वएज्जा। सूरस्स प्राइच्चाभिहाणं प. ता कहं ते सूरिए आइच्चे सूरिए आइच्चे आहिए ? ति वएज्जा। उ. ता सूरादीया समयाइ वा आवलियाइ वा आणापाण्इ वा थोवेइ वा, जाव उस्सपिणी, प्रोसप्पिणीइ वा / ता एवं खलु सूरे आइच्चे सूरे आइच्चे आहिए ति वएज्जा / चंद-सूराईणं काम-भोगपरूवणं 105. प. ता चंदस्स णं जोइसिवस्स जोइसरण्णो कइ आगमहिसीओ पण्णताओ? उ. ता चत्तारि अगमहिसीनो पण्णत्ताओ, तंजहा–१. संबप्पभा, 2. दोसिणाभा, 3. अच्चि माली, 4. पभंकरा। जहा हेढा तं चेव जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं / एवं सूरस्स वि णेयव्वं / प. ता चंदिम-सरिया जोइसिदा जोइमरायाणो केरिसे कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरंति? उ. ता से जहाणामए केई पुरिसे, पढमजोवणुट्ठाणबलसमत्थे, पढमजोवणुढाणबलसमत्थाए भारियाए सद्धि, अचिरवत्तविवाहे, Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र अत्थत्थी अत्थगवेसणयाए सोलसबासविष्यवसिए, से णं ततो लढे कयकज्जे अणहसमग्गे पुणरवि णियगधरं हत्वमागए, पहाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए, अप्प-महग्घाभरणालंकियसरीरे, मणुण्णं थालीपाकसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भुत्ते समाणे, तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अंतो सचित्तकम्मे, बाहिरओ दूमियघटुमठे विचित्तउल्लोअ-चिल्लियतले बहुसमसुविभत्तभूमिभाए, मणिरयण-पणासियंधयारे / कालागुरू-पवरकुदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-मघमघेतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरगंधिए, गंधर्वाट्ट तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि दुहओ उण्णए मज्झे णयगंभीरे उभओ सालिगणट्टिए, उभओ पण्णत्तगंडबिब्बोयणे, सुरम्मे गंगापुलिण-बालुआ-उद्दाल-सालिसए सुविरइयरयत्ताणे, ओयविय-खोमियखोमदुगूलपट्टपडिच्छायणे, रत्तंसुयसंवडे, सुरम्मे आईणग-रूय-बूर-णवणीय-तूलफासे, सुगंधवर-कुसुमचुष्ण-सयणोवयारकलिए, ताए तारिसाए भारियाए सद्धि सिंगारागारचारुबेसाए संगत-हसित-णित-चिट्ठित संलाव-विलास-णिउणजुत्तोवयारकुसलाए अणुरत्ताविरत्ताए मणोऽणुकूलाए सद्धि एगंतरतिपसत्ते अण्णत्थ कत्थई मणं अकुवमाणे इठे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरिज्जा। प. ता से णं पुरिसे विउसमणकालसमयसि केरिसए सायासोक्खं पच्चणुभवमाणे विहरइ ? उ. उरालं समणाउसो! ता तस्स णं पुरिसस्स कामभोहितो एत्तो अणंतगुणविसिटुतरा चेव वाणमंतराणं देवाणं कामभोगा, वाणमंतराणं देवाणं काम-भोगेहितो अणतगुणविसिटुतरा चेव असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं कामभोगा, असुरिंदवज्जियाणं देवाणं काम-भोगेहितो एत्तो अणंतगुणविसिट्टतरा चेव असुरकुमाराणं इंदभूयाणं देवाणं कामभोगा, Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां प्राभूत] [203 असुरकुमाराणं देवाणं काम-भोगेहितो अणंतगुणविसिटुतरा चेव गहगण-णक्खत्त-तारारूबाणं कामभोगा, गहगण-णक्खत्त-तारारूवाणं काम-भोगेहितो अणंतगुणविसिद्धतरा चेव चंदिम-सूरियाणं देवाणं कामभोगा, ता एरिसए णं चंदिम-सूरिया जोइसिदा जोइसरायाणो कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरति / Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31ਵੀਂ ਸਵਰਗ 106. तत्थ खलु इमे अट्ठासोई महग्गहा पण्णता, तंजहा 1. इंगालए, 2. वियालए, 3. लोहियक्खे, 4. सणिच्छरे, 5. आहुणिए, 6. पाहुणिए, 7. कणे, 8. कणए, 6. कणकणए, 10. कवियाणए, 11 कणसताणए / 12. सोमे, 13. सहिए, 14. अस्सासणे, 15. कज्जोयए, 16. कम्बडए, 17. अयकरए, 18. दु'दुभए, 99. संखे, 20. संखवण्णे, 21. संखवण्णाभे, 22. कंसे / 23. कंसवणे, 24. कंसवण्णाभे, 25. णीले, 26. णीलोभासे, 27. रूप्पी, 28. रूप्पोभासे, 26. भासे, 30. भासरासी, 31. तिले, 32. तिलपुष्फवणे, 33. दगे। 34. दगपंचवण्णे, 35. काले, 36. काकंधे, 37. इंदग्गी, 38. धूमके ऊ, 39. हरी, 40. पिंगले, 41. बुहे, 42. सुक्के, 43. बहस्सई, 44. राहू। 45. अगत्थी, 46. माणवगे, 47. कासे, 48. फासे, 49. धूरे, 50. पमुहे, 51. वियडे, 52. विसंधी, 53. णियल्ले, 54. पयल्ले, 55. जडियाइल्ले / 56. अरुणे, 57. अग्गिल्लए, 58 काले, 59. महाकाले, 60. सोथिए, 61. सोवस्थिए, 62. बद्धमाणगे, 63. पलंबे, 64. णिच्चालोए, 65. निच्चुज्जोए, 66. सयंपभे / 67. ओभासे, 68. सेयंकरे, 69. खेमंकरे, 70. आभंकरे, 71. पभंकरे, 72. अपराजिए, 73. अरए, 74. असोगे, 75. बीयसोगे, 76. विमले, 77. वियत्ते। 78. वितथे, 79. विसाले, 80. साले, 81. सुब्बए, 82. अनियट्टी, 83 एगजडी, 84. दुजडी, 85. करकरिए, 86. रायग्गले, 87, पुप्फकेऊ, 88. भावकेऊ' / 1. स्थानांग अ. 2, उ. 3, सु. 95 में जंबूद्वीप के दो चन्द्रों दो सयों के 88 ग्रहों की संख्या दो दो की दी गई है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगहणीगाहाओ 1. इंगालए, 2. वियालए, 3. लोहियक्खे, 4. सणिच्छरे चेव / 5. आहुणिए, 6. पाहुणिए, 7-11. कणगसनामा उ पंचेव // 2. 12. सोमे, 13. सहिए, 14. आसासणे य, 15. कज्जोवए य, 16. कम्बडए। 17. अयकरए, 18. दुदुहए, 19-21. संखसनामाओ तिन्नेव // 3. 22-24. तिन्नेन कंसनामा, 25-26. णीला, 27-28. रुप्पी य होति चत्तारि / 29-30. भास, 31-32. तिलपुष्फवण्णे, 33-34. दग-पणवण्णे य, 35. काय, 36. काकंधे // 4. 37. इंदग्गि, 38. धूमकेऊ, 36. हरि, 40 पिंगलए, 41. बुहे य, 42. सुक्के य। 43. बहस्सई,४४. राह, 45 अगत्थी, 46. माणवए, ४७कास, 48. फासे य।। 5. 46 धूरे, 50. पमुहे, 51. वियडे, 52. विसंधि, 53. णियले, 54. तहा पयल्ले य / 55. जडियाइलए, 56. अरुणे, 57 अग्गिल्ल, 58. काले, 59 महाकाले य // 6. 60. सोस्थिय, 51. सोबत्थिय, 62. बद्धमाणगे, 63. तहा पलंबे य / 64. णिच्चालोए, 65. णिच्चुज्जोए, 66 सयंपभे, 67. चेव ओभासे / / 7. 68. सेयंकर, 69. खेमंकर, 70. आभंकर, 71. पभंकरे व बोद्धब्वे / 72. अरए, 73. विरए य तहा, 74. असोगे, 74. वीयसोगे य / 8. 76. बिमल, 77. वितत्त, 78. वितथे, 79. विसाल, 80. तह साल, 81. सुब्बए चेव / 82. अनियट्टी, 83. एगजडी य, 84. होइ बिजडी य बोद्धन्धे // 9. 85. करकरए, 86. रायग्गल, 87. बोद्धध्वे पुप्फ, 88. भावकेऊ य / अट्ठासीई गहा खलु यन्वा प्राणुपुम्बीए / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवासंहारो 107. इइ एस पाहुडत्था, अभन्वजणहिययदुल्लाहा इणभो / उक्कित्तिया भगवई, जोइसरायस्स पण्णत्ती / / एस गहियाऽवि संता, थद्धे गारबिय माणि-पडिणीए / अबहुस्सए ण देया, तस्विवरीए भवे देया / / सद्धा-धिति-उट्ठाणच्छहह-कम्म-बल-विरिय-पुरिसकारेहि / जो सिक्खिओऽधि संतो, अभायणे पक्खिबेज्जाहि // सो पवयण-कूल-गण-संघबाहिरो णाण-विणय-परिहीणो। प्ररहंत-थेर-गणहरमेरं किर होइ वोलीणो॥ तम्हा धितिउट्ठाणुच्छाह कम्म-बल-विरियसिक्खिरं गाणं / धारेयव्वं णियमा ण य अविणएसु दायव्वं // वीरवरस्स भगवओ, जर-मरण-किलेस-दोसरहियस्स / वंदामि विणयपणओ, सोक्खुप्पाए सया पाए / // सूरियपणती समत्ता // 10 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयशविरपणीयं चंदपज्जत्तिसुत्तं नमो अरिहंताम् / / जयइ नव-नलिण-कुवलय-वियसिय-सयवत्त-पत्तलदलच्छो / वीरो गइंद-मयगल-सललिय-गयविक्कमो भयवं // 1 // नभिऊण असुर-सुर-गरुल-भुयग-परिवंदिए गयकिलेसे / अरिहे सिद्धायरिय-उवज्झाए सव्वसाहू ये // 2 // फुड-विय ड-पागडत्थं, वुच्छं पुन्व-सुय-सार-नीसंदं / सुहमं गणिणोवइट्ठ, जोइस-गणरायपत्ति // 3 // नामेण इंदभूइति गोयमो वंदिऊण तिविहेणं / पुच्छइ जिणवर-वसहं, जोइसरायस्स पत्ति // 4 // कइ मंडलाइ वच्चइ 1, तिरिच्छा कि च गच्छई 2 / ओभासइ केवइयं 3, सेयाइ कि ते संठिई 4 // 5 // कहिं पडिहया लेसा 5, कहं ते ओयसंठिई 6 / / के सूरियं वरयते 7, कहं ते उदयसंठिई 8 // 6 // कइकट्ठा पोरिसीच्छाया 9, जोगेत्ति कि ते आहिए 10 / / कि ते सवच्छराणाई 11, कइ संवच्छराइ य 12 / / 7 // कहं चंदमसो वुड्डी 13, कया ते दो (जो) सिणा बहू 14 / के सिग्धगई वुत्ते 15, किं ते दो (जो) सिणलक्खणं 16 // 8 // चयणोववाय 17, उच्चत्ते 18, सूरिया कइ आहिया 19 / अणुभावे केरिसे वुत्ते 20, एवमेयाइं वीसई // 9 // सूत्र 1 // वडोवड्डी 1, मुहत्ताण-मद्धमंडलसंठिई 2 / के ते चिण्णं परियरइ 3, अंतरं किं चरंति य 4 // 10 // ओगाहइ केवइयं 5, केवइयं च विकंपइ 6 / मंडलाण य संठाणे 7, विक्खंभो 8 अट्ठ पाहुडा // 11 // सूत्र 2 // छप्पंच य सत्तेव य, अट्ट य तिन्नि य हवंति पडिवत्ती। पढमस्स पाहुडस्स उ, हवंति एयाओ पडिवत्ती // 12 // सूत्र 3 // Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] [सूर्यप्राप्तिसूत्र पडिवत्तीग्रो उदए, अदुव अत्थमणेसु य। भेयघाए कण्णकला, मुहताण गईइ य // 13 // निक्खममाणे सिग्घगई, पविसंते मंदगईइ य। चुलसीइसयं पुरिसाणं, तेसि च पडिवत्तीओ // 14 // उदयम्मि अट्ट भणिया, भेयग्घाए दुवे च पडिवत्सी।। चत्तारि मुहत्तगईए, होति तइयम्मि पडिवत्ती // 15 // सूत्र 4 आवलिय 1, मुहत्तग्गे 2, एवंभागा 3 य, जोगस्सा 4 / कुलाई 5, पुण्णमासी 6 य, संनिधाए 7 य संठिई 8 // 16 / तारगं 9, च णेता य, 10, चंदमग्गत्ति 11 यावरे / देवताणं य अज्झयणा 12, मुहत्ताणं नामया 13 इय // 17 // दिवसा राई य वत्ता 14 य, तिहि 15, गोत्ता 16 भोयणाणि य 17 / आइच्चचार 18, मासा 19 य, पंच संवच्छरा 20 इय / / 18 / / जोइसस्स य दाराई 21, नक्खत्तविचए 22 विय / दसमे पाहुडे एए, बावीसं पाहुड-पाहुडा // 19 // सूत्र 5 // तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिला णामं णयरी होत्था रिद्धस्थिमियसमिद्धा पमुइयजणजाणवया जाव पासादीया, वण्णओ॥१॥ तीसे गं मिहिलाए णयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थ णं माणिभद्दे णामं चेइए होत्था चिराईए, वण्णओ // 2 // तीसे गं मिहिलाए गयरीए जियसत्तणामं राया, धारिणी देवी, वण्णओ // 3 // तेणं कालेणं तेणं समएणं तंमि माणिभद्दे चेइए सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया जाव राया जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए // 4 // सूत्र 6 // तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे गोयमगोत्ते णं सत्तुस्सेहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी // सूत्र 7 // प० ता कहं ते वड्ढोवड्ढो मुहुत्ताणं आहितेत्ति वदेज्जा ? उ० गोयमा ! ता अट्ट एगूणवोसे मुहत्तसते सत्तावीसं च सत्तविभागो मुहत्तस्स आहितेत्ति वदेज्जा / / सूत्र 8 // जाव"........ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [209 सूर्य चन्द्रसूत्र] इय एस पागडत्था, अभश्वजहियय-दुल्लभा इणमो। उक्कित्तिया भगवती जोइसरायस्स पण्णत्ती // 1 // एस गहियावि संती, थद्धे गारवियमाणपडिणीए। अबहुस्सुए ण देया, तबिवरीए भवे या // 2 // (सद्धा) घिइउट्ठाणुच्छाह-कम्मबलविरिय-पुरिसकारेहिं / जो सिक्खियोवि संतो, अभायणे पविखविज्जाहि // 3 // सो पवयण-कुल-गण-संघबाहिरो णाणविणय-परिहीणो। अरहंत-थेरगणहरमेरं किर होइ बोलीणो॥ 4 // तम्हा घिउट्ठाणुच्छाह-कम्मबलवीरियसिक्खियं नाणं / धारेयव्वं णियमा, ण य अविणएसु दायब्वं // 5 // वीरवरस्स भगवतो, जरमरण-किलेस-दोसरहियस्स / वंदामि विणयपणतो सोक्खुप्पाए सया पाए // 6 // सूत्र 107 // वीसइमं पाहुडं समत्तं // चंदपन्नत्ती समत्ता // Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट श्री सूर्य-चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र का गणित विभाग सूत्रसंख्या 8 मुहूर्त के परिमाण को हानि-वृद्धि : नक्षत्रमास के मुहूर्त का परिमाण एक युग के अहोरात्र 1830 होते हैं। एक युग के नक्षत्रमास की संख्या 67 है। एक नक्षत्रमास के दिवस 1830-67 करने से 27 दिन 21/67 मुहर्त प्रमाण होता है। वह इस प्रकार 67)1830(27 134 490 469 21 21/67 के मुहूर्त करने के लिए 30 से गुणा करने पर 214 30 - 630 होते हैं / उनको 67 से भाग देने पर ( 63067 ) 9 मुहर्त 27/67 भाग होते हैं। अर्थात नक्षत्रमास 27 दिवस 9 मुहूर्त 27/67 भाग होता है / उसके मुहूर्त करने पर 27 4 308810 होते हैं। उनमें 9 जोड़ने से 819 होते हैं। अतएव नक्षत्रमास के मुहूर्तों की संख्या 819 / 27/67 होती है / सूर्यमास के मुहतों की संख्या एक युग के दिवस 1830 हैं और एक युग के सूर्यमास 60 हैं। सूर्यमास के दिवस करने के लिए 1830 को 60 से भाग देने पर 30 दिन और 30/60 होंगे। उनके मुहूर्त करने के लिए सूर्यमास के दिनों को 30 से गुणा करने पर 304 30 = 900 होते हैं और 30/60 को 30 से गुणा करने पर 30 x 3060 करने पर 15 मुहूर्त होते हैं। इनको 900 में जोड़ने पर 915 मुहूर्त होते हैं। अर्थात् सूर्यमास के मुहूर्तों की संख्या 915 होती है / चन्द्रमास के मुहूतों की संख्या ___एक युग के चन्द्रमास 62 होते हैं और एक युग के दिवस 1830 हैं / चन्द्रमास के दिन बनाने के लिए 1830 : 62 करने से 29 दिन 32/62 प्राप्त होते हैं। इनके मुहूर्त बनाने के लिए 30 से गुणा करने पर 294 30 =870 होंगे और 32/62 x 30 करने पर 960/62 होंगे एवं मुहूर्त के Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [211 रूप में 15 मुहूर्त 30/62 होंगे। इस संख्या को पूर्वोक्त 870 में मिलाने पर 885 मुहूर्त पूर्ण एवं 30/62 मुहूर्त की संख्या होगी। कर्ममास के मुहूर्तों की संख्या एक युग में 30 दिन का एक कर्ममास होता है। उसके मुहूर्त बनाने के लिए 30 से गुणा करने पर 304 30 =900 होते हैं / यह कर्ममास के मुहूतों की संख्या है। मास मुहूतों की संख्या 1 नक्षत्रमास 8194 27/67 मु. 2 सूर्यमास 3 चन्द्रमास 885 / 30/62 मु. 4 कर्ममास 900 म. प्रथम प्राभूत का पाठवां सूत्र समाप्त सूत्रसंख्या 6, 10, 11 366 रात्रि-दिवस का प्रमाण सर्वाभ्यंतरमंडल से सर्वबाह्य मंडल में गमन करने पर एवं सर्वबाह्य मंडल से सर्वाभ्यंतर मंडल में गमन करने पर सूर्य को ( 366 रात्रि दिवस ) लगते हैं / —सूत्र सं. 9 सूर्य 366 दिवस में 184 मंडल में संचार करता है। -सूत्र सं. 10 रात्रि-दिवस की हानि-वृद्धि का प्रमाण सूर्य 366 दिवस में सर्वाभ्यन्तर मंडल में से सर्वबाह्य मंडल में, सर्वबाह्य मंडल में से सर्वाभ्यन्तर मंडल में परिक्रमा करता है / सर्वाभ्यन्तर मंडल में से सर्वबाह्य मंडल तक 183 दिवस में परिक्रमा करता है। जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल में होता है तब 18 मुहूर्त का दिन एवं 12 मुहूर्त की रात्रि होती है। सर्वाभ्यन्तर मंडल में से सर्वबाह्य मंडल तक जाने में 183 दिन होते हैं और उस समय में 6 मुहूर्त की हानि-वृद्धि होती है। एक दिवस में मुहर्त के 2/61 भाग की वृद्धि-हानि होती है। अर्थात् दिवस के परिमाण में मुहूर्त के 2/61 भाग की हानि होती है और रात्रि के परिमाण में मुहूर्त के 2/61 भाग की वृद्धि होती है। सूर्य जैसे-जैसे बाह्यमंडल की ओर गमन करता है वैसे-वैसे दिवस के परिमाण में हानि और रात्रि के प्रमाण में वृद्धि होती है / सूर्य जब सर्वबाह्यमंडल में वर्तमान होता है तब 12 मुहूर्त का दिन और 18 मुहूर्त की रात्रि होती है / सूर्य जैसे-जैसे सर्वाभ्यन्तरमंडल की तरफ गमन करता है वैसे-वैसे दिन में वृद्धि और रात्रि में हानि होती है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [सूर्यप्रशप्तिसूत्र प्रथम 6 मास में दिवस घटता है और रात्रि बढ़ती है। दूसरे 6 मास में दिवस बढ़ता है और रात्रि घटती है। हानि-वृद्धि का प्रमाण मुहूर्त के 2/61 भाग जितना होता है। -सूत्र 11 प्रथम प्राभूत का प्रथम प्राभूत-प्राभृत समाप्त तृतीय प्राभुत-प्राभूत में 'सयमेगं चोयाले' गाथा अपूर्ण होने से अर्थ नहीं कर सकते हैं। शेष व्यवच्छेद है / इस प्रकार श्री अमोलक ऋषिजी ने सूर्यप्रज्ञप्ति की भाषा में लिखा है तथा टीकाकार मलयगिरिकृत टीका से भी यथार्थ गणित 144 आता नहीं है। जिनके ध्यान में गणित की प्रक्रिया हो यदि वे बताने की कृपा करेंगे तो श्रुतसेवा मानी जायेगी। प्रथम प्राभूत का तृतीय प्राभृत-प्राभूत समाप्त / सूत्र 15 दो सूर्यों के ( भरत और ऐरवत के ) संचरण समय में परस्पर अन्तर ___ संचरण करते समय दोनों सूर्यों के बीच प्रत्येक मंडल में 5 योजन 35/61 भाग अन्तर होता है / जब दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तरमंडल में वर्तमान हों तब दोनों सूर्यों के बीच 99640 योजन अन्तर होता है। ___ जम्बूद्वीप क्षेत्र एक लाख योजन के विष्कम्भ वाला है / प्रत्येक सूर्य 180 योजन अवगाहन करके संचार करता है। 100000 योजन में से दोनों सूर्य का अवगाहन क्षेत्र 180 और 180 योजन कुल मिलाकर 360 योजन कम करने पर 99640 योजन शेष रहते हैं। जो सर्वाभ्यन्तरमंडल में वर्तमान दोनों सूर्यों का अन्तर होता है / 184 सूर्यमंडल के 183 अन्तर होते हैं और एक मंडल का दूसरे मंडल तक 2 योजन 48/61 भाग का अन्तर होता है / अतः जब सूर्य एक मंडल से दूसरे मंडल में जाता है तब दोनों ओर के मंडल के अन्तर 2 योजन 48/61 और 2 योजन 48/67 का जोड़ करने पर 5 योजन 35/61 भाग होता है। सर्वबाह्यमंडल में वर्तमान दोनों सूर्यों का परस्पर अन्तर दोनों सूर्यों की अपेक्षा प्रतिमंडल 5 योजन 35/61 भाग अन्तर पूर्व में बताया है / सर्वआभ्यन्तर मंडल से सर्वबाह्यमंडल 183 वां होता है / 183 को 5 योजन 35/61 से गुणा करने पर 3 4 340 इस प्रकार 1020 योजन अन्तर आता है। इस 1020 योजन अन्तरको 996/40 में मिलाने पर 100660 योजन होता है। जो सर्वबाह्यमंडल में वर्तमान दो सूर्यों का परस्पर अन्तर है। -सूत्र 15 प्रथम प्राभृत का चौथा प्राभृत-प्राभृत समाप्त / Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [213 एक अहोरात्र में सूर्य का संचरण-क्षेत्र सूर्य एक अहोरात्र में 2 योजन 48/61 भाग संचरण करता है / सूर्य 183 दिवस में 510 योजन संचरण करता है, जिससे एक दिवस में 2 योजन 48/61 भाग संचरण करता है / 183 मंडल का 183 दिवस में सूर्य संचरण करता है। एक दिवस में एक मंडल में संचार करता है / सूर्य के सर्वमंडलों का संचरण क्षेत्र 510 योजन का है। एक मंडल का एक दिवस का संचरण 2 योजन 48/61 भाग होता है। ----सूत्र 18 प्रथम प्राभृत का छठा प्राभृत-प्राभूत समाप्त / सूत्र 20 प्रत्येक मंडल का विष्कम्भ-आयाम जब सूर्य सर्वाभ्यन्तरमंडल में हो तब 1 लाख योजन का 48/61 भाग बाहल्य से 99640 योजन आयाम-विष्कम्भ से 315089 योजना परिक्षेप से संक्रमण करता है तब 18 मुहूर्त का उत्कृष्ट दिवस और जघन्य 12 मुहूर्त की रात्रि होती है / __ जब सूर्य सर्वाभ्यन्तरमंडल के अनन्तरवर्ती मंडल में संक्रमण करता है तब 1 योजन का 48/61 भाग बाहल्य से 99645 योजन 35/61 भाग आयाम विष्कम्भ से, 315107 योजन किंचित् विशेष न्यून परिक्षेप से चार (गति) करता है / तव दिवस और रात्रि का प्रमाण सर्वाभ्यन्तरमंडल के समान ही होता है। सर्वाभ्यन्तरमंडल में आयाम-विष्कम्भ का प्रमाण एक सूर्य 180 योजन अवगाहन करके गति करता है / जम्बूद्वीप के दोनों सूर्य की अपेक्षा 360 योजन अवगाहना जम्बूद्वीप क्षेत्र के 1 लाख योजन प्रमाण में से कम करने पर 99640 योजन रहते हैं / जो सर्वाभ्यन्तरमंडल का आयाम-विष्कम्भ है / सूत्र 20 सर्वाभ्यन्तरमंडल का परिक्षेप सर्वाभ्यन्तरमंडल का परिक्षेप ( 315089) योजन है / वह इस प्रकार है ( सर्वाभ्यन्तर मंडल का विष्कम्भ )2 x 10 इस सूत्र से परिक्षेप का विचार करने पर निम्न प्रकार से होगा ) (99640)24 10) 9928129600 x 10 ) 99281296000 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र / / / / / / 99281296000 315089 योजन परिक्षेप 3 92281296000 +3 9 +1 61 625 3181 -5 3125 - 63000 00562960 504064 - - 05689600 +9 5671521 630178 0018079 उक्त प्रकार से गणित करने पर सर्वाभ्यंतरमंडल का परिक्षेप 315089 योजन होता है और 18079 शेष रहते हैं। प्रत्येक मंडल का परिक्षेप प्रत्येक मंडल में 5 योजन 35/61 भाग आयाम-विष्कम में वृद्धि होती है / तदनुसार सर्वाभ्यंतरमंडल के अनन्तरवर्ती मंडल का आयाम विष्कम 99645 योजन 35/61 भाग है / प्रत्येक मंडल का परिक्षेप निकालने के लिये (जानने के लिये) 5 योजन के इकसठिया भाग करने पर 5461 = 305 पाते हैं। उनमें 35 भाग और मिलाने पर 340 होते हैं / परिक्षेप निकालने की विधि (विष्कंभ का)२४ 10 ) (340)2410 ) 1156004 10 ) 1156000 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [211 1075 1 )1156000 207 01560 7 1449 2145 5 011100 10725 2150 00375 1075 के योजन बनाने के लिये 61 से भाग देने पर [1075 :-61] 17 योजन 38/61 पाएंगे / प्रत्येक मंडल में 17 योजन 38/61 भाग परिक्षेप बढ़ता है। प्रत्येक परिमंडल का परिक्षेप व्यवहार से 18 योजन और निश्चय से 17 योजन 38161 भाग है / प्रत्येक मंडल के परिक्षेप में 18 योजन मिलाने पर दूसरे मंडल का परिक्षेप होता है। ऐसा करने पर सूर्य संक्रमण करता-करता सर्वबाह्य मंडल में आता है तब आयाम विष्कंभ 100660 होता है। सर्वबाह्य मंडल का परिक्षेप 3183 14.869 है व्यवहार से 318315 योजन होता है। सर्वबाह्य मंडल का आयाम-विष्कम-परिक्षेप निकालने की विधि प्रत्येक मंडल में 5 योजन 35 / 61 भाग बढ़ता है जिससे सर्वबाह्यमंडल में कितनी वृद्धि होगी? परिमंडल 183 होने से 5 योजन 35/61 भाग से गुणा करने पर 183 मंडल x 5 योजन = 915 योजन होते हैं। 35 भाग x 183 मंडल - 6405 होते हैं। इनके योजन बनाने के लिये 6405 को 61 से भाग देने पर 105 योजन आते हैं। पूर्वोक्त 915 योजन में 105 योजन मिलाने से 1020 योजन होते हैं / सर्वाभ्यंतरमंडल के आयाम 99640 योजन में 1020 योजन जोड़ने से सर्वबाह्यमंडल का 100660 योजन प्रायाम होता है। सर्वबाह्य मंडल का परिक्षेप 318315 योजन है / जिसको प्राप्त करने की विधि इस प्रकार हैसर्वबाह्यमंडल का परिक्षेप निकालने की विधि परिक्षेप निकालने के लिये Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र / (मायाम)' x 10 ) (100660)24 10 ) 10132435600 4 10 318314. 869 योजन परिक्षेप ) / / / / / / 101324356000 113 61 628 5224 5024 6363 020035 19089 0094660 636624 3099900 2546496 6366288 055340400 50930304 63662966 0441009600 381975796 636629729 5903380400 5629667561 इस प्रकार 869 हजार से कम हैं, परन्तु 'अर्धादूर्ध्वमेकं ग्राह्यम्' इस न्याय से 314 के स्थान पर 315 ग्रहण किये हैं। इस प्रकार सर्वबाह्यमंडल का परिक्षेप 318315 योजन (व्यवहार से) होता है। सर्वाभ्यंतरमंडल का परिक्षेप 315089 योजन है / पूर्व में बताई गई रीति से प्रत्येक मंडल के परिक्षेप में 17 योजन 38161 भाग की वृद्धि होती है तो 183 मंडल में कितने योजन परिक्षेप की वृद्धि होती है ? Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [217 183 मंडल x 17 योजन = 3111 योजन होते हैं / 183 मंडल x 38 (योजन का भाग) करने पर 6954 भाग पायेंगे। 6954 भाग के योजन करने के लिये 61 से भाग देने पर 114 योजन होंगे। 3111 योजन में 114 योजन मिलाने पर 3225 योजन 163 परिमंडल की परिक्षेप वृद्धि होती है। ___ सर्वाभ्यंतरमंडल के परिक्षेप 315089 योजन में 3225 योजन के मिलाने पर सर्वबाह्य मंडल का परिक्षेप 318314 होगा। ___ इस सूत्र के मूल पाठ में 318315 योजन सर्वबाह्यमंडल का परिक्षेप कहा है / वह व्यवहार से समझना चाहिये / क्योंकि पूर्व में प्रत्येक मंडल का परिक्षेप निकालने पर 375 शेष बढ़ते हैं / उनको 183 मंडल से गुणा करने पर 68625 पाते हैं / इस संख्या को 2150 से भाग देने पर 31 आते हैं। जो 61 के अर्धभाग की अपेक्षा विशेष होने से व्यवहार से पूर्ण मानकर 318315 कहे हैं। प्रत्येक मंडल का अंतर 2 योजन 48 / 61 भाग है। दोनों सूर्य के मंडल का अन्तर 5 योजन 35/61 भाग है। सर्वमंडल का क्षेत्र 510 योजन है / --सूत्र 20 प्रथम प्राभृत का अष्टम प्राभृत-प्राभृत समाप्त / सूत्र 23 सूर्य की प्रत्येक मंडल में प्रतिमुहूर्त को गति सूर्य जब मंडल में संक्रमण करता है तब अपनी एक विशेष गति से संक्रमण करता है। भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र के दोनों सूर्य अपनी विशिष्टगति से संक्रमण करके 60 मुहूर्त में 1 मंडल की परिक्रमा पूर्ण करते हैं। अर्थात् 2 अहोरात्र में दोनों सूर्य 1 मंडल की परिक्रमा पूर्ण करते हैं। प्रत्येक मुहर्त की सूर्य की विशेष गति इस सूत्र से ज्ञात की जा सकती है-- 1 मुहूर्त की गति = मंडल की परिधि-: 2 अहोरात्र के मुहूर्त 1 अहोरात्र के 30 मुहूर्त के अनुसार 2 अहोरात्र के 60 मुहूर्त होते हैं। सर्वाभ्यंतरमंडल की परिधि 315089 योजन है / सर्वाभ्यंतरमंडल की परिक्रमा दोनों सूर्य 60 मुहूर्त में पूर्ण करते हैं / सर्वाभ्यंतरमंडल में सूर्य की 1 मुहूर्त की गति सर्वाभ्यंतरमंडल की परिधि :60 मुहूर्त = 1 मुहूर्त की गति / 315089 योजन:६० मुहूर्त-५२५१ योजन 29/60 भाग सूर्य की 1 मुहूर्त की गति है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र प्रत्येक मंडल की परिधि में व्यवहार से 18 योजन का अंतर होता है / अर्थात् सर्वाभ्यंतर मंडल की परिधि में 18 योजन मिलाने पर सर्वाभ्यंतरमंडल के अनन्तरवर्ती दूसरे में उसकी परिधि अाती है / तदनुसार दूसरे मंडल की परिधि में 18 योजन मिलाने पर तीसरे मंडल की परिधि पाती है। इस प्रकार प्रत्येक मंडल की परिधि ज्ञात की जा सकती है। प्रत्येक मंडल में सूर्य की एक मुहूर्त में कितनी गतिवृद्धि होती है, यह जानने के लिये इस सूत्र का उपयोग करना चाहिये प्रत्येक मंडल में परिधि की वृद्धि : 60 मुहूर्त / प्रत्येक मंडल में 18 योजन परिधि में वृद्धि होती है। उसे 60 मुहूर्त से भाग देने पर 1 मुहूर्त में होने वाली गतिवृद्धि प्राप्त होगी। 18 योजन प्रत्येक मंडल की परिधि में होने वाली वृद्धि : 60 मुहूर्त = 18 / 60 योजन 1 मुहूर्त में गति में वृद्धि होती है। सूर्य के दृष्टिपथ क्षेत्र का अंतर ज्ञात करने की विधि उस-उस मंडल में विद्यमान सूर्य दृष्टिपथ के क्षेत्र का अंतर ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित सूत्र का उपयोग करना चाहिये सूर्य की उस-उस मंडल में एक मुहूर्त की गति 4 दिनमान का अर्धभाग। सर्वाभ्यन्तर मंडल में सूर्य के दृष्टिपथ क्षेत्र का प्रमाण 47263 योजन 21160 भाग है। उसको जानने के लिये उपर्युक्त सूत्र का उपयोग करने पर-५२५१ योजन 29 / 60 भाग। (सर्वाभ्यंतरमंडल में सूर्य की एक मुहूर्त की गति) x 9 मुहूर्त (दिनमान का अर्धभाग) 31508949 2835801 = 47263 योजन 21 / 60 भाग सर्वाभ्यंतर मंडल में सूर्य का दृष्टिपथ क्षेत्र है। सर्वाभ्यंतर मंडल में सूर्य का दृष्टिपथ क्षेत्रप्रमाण जानने की दूसरी विधि उस-उस मंडल की परिधि x दिनमान का अर्धभाग सर्वाभ्यंतरमंडल की परिधि दिनमान का अर्धभाग 315089-9 60 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [219 = 2835801 = 47263 योजन 2160 भाग सर्वाभ्यंतरमंडल में सूर्य का दृष्टिपथ क्षेत्र है / सर्वबाह्यमंडल में सूर्य का दृष्टिपथ क्षेत्र का प्रमाण सर्वबाह्यमंडल में सूर्य की एक मुहूर्त की गति सर्वबाह्यमंडल की परिधि 318315 योजन मंडल की परिक्रमा करते हुए लगता समय == 60 महल = 5305 योजन 15 // 60 भाग 1 मुहूर्त में सूर्य की गति / सर्वबाह्यमंडल में सूर्य का दष्टिपथ क्षेत्रप्रमाण ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित सूत्र का उपयोग करना चाहियेसर्वबाह्यमंडल में सूर्य को 1 मुहूर्त में गति 4 दिनमान का अर्धभाग = 3183154 6 मुहूर्त दिनमान का अर्धभाग 1909890 60 = 31831 योजन 30 / 60 भाग सर्वबाह्यमंडल में दृष्टिपथ क्षेत्र का प्रमाण / द्वितीय विधि-- परिधि दिनमान का अर्धभाग 31831546 1909890 60 = 31831 योजन 3060 भाग सर्वबाह्यमंडल में दृष्टिथप क्षेत्र का प्रमाण १-उस-उस मंडल में सूर्य की 1 मुहर्त की गति निकालने के लिये उस-उस मंडल की परिधि को 60 से भाग देने पर 1 मुहूर्त की गति प्राप्त होती है / Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र २-दृष्टिपथ क्षेत्र का प्रमाण निकालने के लिये 1 मुहूर्त की गति को (सूर्य की) दिनमान के अर्धभाग से गुणा करने पर जो लन्धि आये वह दृष्टिपथ क्षेत्र का प्रमाण जानना चाहिये / -सूत्र 23 दूसरा प्राभृत समाप्त। सूत्र 24 सूर्य द्वारा प्रकाशमान क्षेत्र का प्रमाण जब सूर्य सर्वाभ्यंतरमंडल में वर्तमान होता है तब जंबूद्वीप के कल्पित पाँच चक्रवाल में से डेढ भाग प्रकाशित करता है और एक भाग अप्रकाशित होता है / जम्बूद्वीप में वर्तमान दोनों सूर्य की अपेक्षा पाँच चक्रवाल में से तीन भाग प्रकाशित करते हैं और दो भाग अप्रकाशित होते हैं / अर्थात् जम्बूद्वीप के कल्पित पाँच भाग में से तीन भाग दिन होता है और दो भाग रात्रि होती है / जम्बूद्वीप के 366 भाग की कल्पना करने पर 1 भाग (चक्रवाल) के 732 भाग होते हैं, : चक्रवाल के 2196 भाग होते हैं / अर्थात् 3660 भाग में से 2196 भाग का दिवस होता है 1464 भाग रात्रि होती है, अथवा दोनों सूर्य 60 मुहूर्त में 1 मंडल की परिक्रमा पूर्ण करते हैं / जम्बूद्वीप के पाँच चक्रवाल की कल्पना करने पर 1 चक्रवाल 12 मुहर्त्तात्मक होता है। 12 मुहूर्त का काल जम्बूद्वीप के 3660 भाग की कल्पना में 732 भागात्मक होता है। सर्वाभ्यंतर मंडल से सूर्य जब सर्वबाह्यमंडल की ओर गमन करता है तब प्रतिमंडल में अहोरात्र में 2 / 61 भाग हानि-वृद्धि होती है / सर्वाभ्यन्तर मंडल को कम करने पर सर्वबाह्य मंडल 183 वां पाता है। जिससे 18342 करने पर 366/61 भाग की हानि-वृद्धि अहोरात्र में होती है / अर्थात् 6 मुहर्त दिवस में हानि और रात्रि में वृद्धि होती है / दोनों सूर्य की अपेक्षा 12 मुहूर्त की हानि-वृद्धि होती है। सर्वबाह्यमंडल में सूर्य 1 भाग प्रकाशित करता है और डेढ़ भाग अप्रकाशित रहता है / पूर्व में बताये गये अनुसार एक-एक सूर्य की अपेक्षा 1 भाग दिवस और डेढ़ भाग रात्रि रहती है। दोनों सूर्य की अपेक्षा 2 भाग दिवस और तीन भाग रात्रि होती है / सर्वाभ्यन्तरमंडल में 3 भाग दिवस और 2 भाग रात्रि होती है / सर्वबाह्यमंडल में 2 भाग दिवस और 3 भाग रात्रि होती है / 1 भाग 12 मुहूर्तात्मक जानना चाहिए। जम्बूद्वीप के 5 चक्रवाल की परिकल्पना करने पर 1 चक्रवाल 12 मुहूर्तात्मक होता है। क्योंकि दोनों सूर्य की अपेक्षा 60 मुहूर्त का काल 5 भागात्मक होता है। तीसरा प्राभृत समाप्त ।-सूत्र 24 समाप्त / Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट [221 सूत्र 25 तापक्षेत्र को संस्थिति तापक्षेत्र की संस्थिति की आभ्यन्तर-बाह्य का परिक्षेप 9486 योजन 9/10 भाग है / उसका गणित निम्न प्रकार हैपरिक्षेप = ) ( आयाम )24 10 ) ( विष्कम्भ )24 10 ( उसका विष्कम्भ )2- 10 (10000 x 10 / ) 100000000x10 ) 1000000000 3 162 2 0 77 6 | / / 1. 1000000000 61 3600 3756 6322 014400 12644 63242 0175600 126484 632447 04611600 4427126 6324547 048447100 44271826 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 63245546 0427527100 376473276 63245552 48053824 776 एक हजार के अर्धभाग ( 500 ) की अपेक्षा अधिक है। 'अर्धदूर्ध्वमेकं ग्राह्यम्' के विधान से पूर्व संख्या गिन कर व्यवहार से 31623 योजन बतलाये हैं। उनके तिगुने करने से 64869 होते हैं। उनको 10 से भाजित करने पर 6486 योजन 6/10 भाग सर्वाभ्यन्तर तापक्षेत्र संस्थिति की सर्वाभ्यन्तर-बाहा का परिमाण है / जम्बूद्वीप के परिक्षेप से सर्वबाह्य बाहा का परिमाण परिक्षेप = (विष्कम्भ )24 10 जम्बूद्वीप का परिक्षेप प्रसिद्ध है। उसे 3 से गुणा करके 10 से भाग देने पर 64868 योजन 4/10 होते हैं। जम्बूद्वीप का परिक्षेप 316227 योजन, 3 गव्यूति 128 योजन और 133 अंगुल है / परन्तु व्यवहार से 316228 योजन मानकर इसे गुणा करने पर 648684 योजन होते हैं / उनको 10 से भाग देने पर 94868 योजन 4/10 भाग सर्वबाह्य बाहा का परिमाण होता है / उत्तर-दक्षिण दिशा से तापक्षेत्र का आयाम पायाम = उत्तर-दक्षिण दिशा का अन्तर विष्कम्भ - पूर्व-पश्चिम दिशा का अन्तर तापक्षेत्र का पायाम परिमाण 78333 योजन 1/3 भाग है / मेरुपर्वत से जम्बूद्वीपपर्यन्त 45000 योजन है / लवणसमुद्र के विस्तार का छठा भाग 33333.333 योजन है। दोनों का जोड़ करने पर तापक्षेत्र का आयाम परिमाण 78333.333 योजन होता है / अन्धकार संस्थिति की सर्वाभ्यन्तर बाहा का परिमाण अन्धकार संस्थिति की सर्वाभ्यन्तर बाहा का परिमाण 6324 योजन 6/10 भाग है। मेरुपर्वत के परिक्षेप को 2 से गुणा कर 10 से भाजित करने पर प्राभ्यन्तर बाहा का परिमाण ज्ञात होता है। __ मेरुपर्वत की परिधि 31623 योजन है / उसे 2 से गुणा करने पर 63246 योजन होते हैं। उन्हें 10 से भाग देने पर 6324 योजन 6/10 अन्धकार संस्थिति की सर्वाभ्यन्तर बाहा आती है। लवणसमुद्र की निकटवर्ती जम्बूद्वीप तक की अन्धकार संस्थिति को सर्वबाह्य बाहा जम्बूद्वीप की परिधि के 2 से गुणा कर 10 से भाग देने पर सर्वबाह्य बाहा का परिमाण Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [223 प्राप्त होता है। जम्बूद्वीप की परिधि 316228 योजन है। उसे 2 से गुणा करने पर 632456 योजन होते हैं / जिन्हें 1063245 योजन 6/10 भाग सर्वबाह्य बाहा का परिमाण होता है। अन्धकार संस्थिति की लम्बाई तापमान की लम्बाई जितनी जाननी चाहिए। सर्वाभ्यन्तरमंडल में जो तापमान की स्थिति है वह सर्वबाह्य मंडल में अन्धकार की स्थिति जानना चाहिये। सर्वाभ्यन्तरमंडल में जो अन्धकार की स्थिति है वह सर्वबाह्यमंडल में ताप की स्थिति चाहिए। अथर्थात सर्वबाह्यमंडल में तापमान की प्राभ्यान्तर बाहा 6324 योजन६/१० भाग है / सर्वबाह्य बाहा 63245 योजन 6/10 भाग है / तापमान की लम्बाई 78333.333 योजन है। अन्धकार की संस्थिति सर्वबाह्य मंडल में आभ्यान्तर बाहा 6486 योजन 9/10 भाग है। शेष बाहा 64868 योजन 4/10 भाग है / अन्धकार संस्थिति की लम्बाई 78333.333 योजन है। सूत्र 25 समाप्त चतुर्थ प्राभृत समाप्त / दसवें प्राभूत का दूसरा प्राभूत-प्राभत अहोरात्र के 67 भाग की कल्पना करनी चाहिये। अहोरात्र के 67 भाग नक्षत्र संख्या चन्द्र के साथ में से भाग संख्या योग मुहूर्त 21 9 मु. 27/67 नक्षत्रनाम अभिजित 33 भाग 1/2 6 15 मु. शतभिषा भरणी, प्रार्दा आश्लेषा, स्वाति ज्येष्ठा 67 15 30 मु. 30 मु. श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वा भा० रेवती, अश्विनी, कृतिका मृगशिर, पुष्य, मघा, पू० फा० हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढा उ० भा० रोहिणी पुन० उ. फा. विशाखा. उत्तराषाढा. 100 भाग 1/2 45 मु. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र ____ उपर्युक्त कोष्ठक नक्षत्र का चंद्र के साथ कितने मुहूर्त का योग होता है, यह बतलाने के लिये हैं। नक्षत्रों का सूर्य के साथ योग नक्षत्र संख्या सूर्य के साथ योग नक्षत्रों का नाम दिवस मुहूर्त अभिजित शतभिषा, भरणी, आर्द्रा आश्लेषा, स्वाति, जेष्ठा श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वा भा. रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, पू. फा., हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल. पूर्वाषाढा उ. भा., रोहिणी, पुनर्वसु उ. फा., विशाखा, उ. षाढा। जो नक्षत्र चन्द्रमा के साथ 1 दिवस के 67 भाग में से अथवा उससे विशेष जितने भाग गमन करता है, उसके पाँचवें भाग प्रमाण सूर्य के साथ दिवस और मुहूर्त के परिमाण से गमन करता है। जैसे कि अभिजित नक्षत्र चन्द्र के साथ 21167 भाग गमन करता है तो सूर्य के साथ कितना गमन करता है ? यह जानने के लिये 21 भाग को 5 से भाग देने पर 4 दिवस 115 भाग मुहूर्त अाते हैं / 115 के मुहूर्त निकालने के लिये 30 से गुणा करने पर 6 मुहूर्त आते हैं। जिसका प्राशय यह हुआ कि अभिजित नक्षत्र सूर्य के साथ 4 दिवस 6 मुहूर्त योग करता है / इस प्रकार अन्य स्थान पर भी समझना चाहिये। 15 मुहूर्त चन्द्र के साथ योग करने पर नक्षत्र का सूर्य के साथ योगकाल शतभिषा नक्षत्र चन्द्र के साथ 1 दिवस के 67 भाग में से 333 भाग योग करता है, तो सूर्य के साथ कितने दिवस और कितने मुहर्त योग करता है ? 67 67 67 -:5= -x = Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [225 अत: 6 दिवस 7 / 10 मुहूर्त सूर्य के साथ योग करता है / * के मुहूर्त जानने के लिये 30 से गुणा करने पर 21 मुहर्त आते हैं। अर्थात् शतभिषा नक्षत्र का सूर्य के साथ 6 दिवस और 21 मुहूर्त योग होता है / इसी प्रकार अन्य नक्षत्रों के लिये जानना चाहिये / 30 मुहूर्त चन्द्र के साथ योग करने पर नक्षत्र का सर्य के साथ योगकाल श्रवण नक्षत्र चन्द्र के साथ 1 दिवस के 67 भाग योग करता है तो सूर्य के साथ कितने समय योग करता है ? सूर्य के साथ होने वाले योग का समय जानने के लिये चन्द्र के साथ होने वाले योग के समय को 5 से भाग देने पर जो भाज्य-भाजक भाव से उपलब्ध होता है वह नक्षत्र का सूर्य के साथ का योगकाल समझना चाहिये। 67 : 5 = 133 दिवस 2 / 5 के मुहूर्त निकालने के लिये 30 से गुणा करने पर 12 मुहूर्त होते हैं। अतएव उस प्रकार से 13 दिवस 12 मुहूर्त अन्य नक्षत्र के साथ भी सूर्य का योगकाल जानना चाहिये। 45 मुहूर्त चन्द्र के साथ योग करने पर नक्षत्र का सूर्य के साथ योगकाल उत्तर भाद्रपद नक्षत्र चन्द्र के साथ 20. भाग योग करता है। उसका सूर्य के साथ कितने समय योग होता है, यह समझने के लिये 5 से भाग देने पर 23.45 करने पर 4. आयेगा। उनके दिवस बनाने पर 20 दिवस और 3 मुहूर्त समय होंगे। जो उत्तरभाद्रपद नक्षत्र का सूर्य के साथ योगकाल है। -सूत्र 34 समाप्त दसर्व प्राभृत का दूसरा प्राभृत-प्राभृत समाप्त। सूत्र 40 र अमावस्या का चन्द्र योग को अधिकार कर सन्निपात पूर्णिमा अमावस्या कुल नक्षत्र उपकुल नक्षत्र कुलोपकुल नक्षत्र माघ धनिष्ठा श्रवण अभिजित 1. श्रावणी 2. भाद्रपदी उ. भाद्रपद पू. भाद्रपद शतभिषा फाल्गुनी चैत्री 3. अश्विनी रेवती 4. कार्तिक वैशाखी अश्विनी कृत्तिका मृगशिर भरणी रोहिणी 5. मार्गशीर्षी जेष्ठा Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रजाप्तिसूत्र पुष्य पुनर्वसु 226] 6. पौषी 7. माध्वी 8. फाल्गुनी आषाढ़ी श्रावणी मघा आश्लेषा भाद्रपदी उ. फाल्गुनी पू. फाल्गुनी 9. चैत्री अश्विनी चित्रा कार्तिकी विशाखा स्वाति 10. वैशाखी 11. ज्येष्ठा 12. आषाढी मार्गशीर्षी ज्येष्ठा अनुराधा पौषी उ.षाढा पू. षाढा '--सूत्र 40 समाप्त दशम प्राभूत का सातवाँ प्राभृत-प्राभृत समाप्त / दशम प्राभूत का दसवाँ प्राभूत-प्राभृत 6. पौष दक्षिणायन मास पौरुषी वद्धि 1. श्रावण 2 पाद 4 अंगुल 4 अंगुल 2. भाद्रपद २पाद 8 अंगुल 8 अंगुल 3. प्रासौज 3 पाद 4. कार्तिक 3 पाद 4 अंगुल 1 पाद 4 अंगुल 5. मार्गशीर्ष 3 पाद 8 अंगुल 1 पाद 8 अंगुल 4 पाद 2 पाद उत्तरायण मास पौरुषी हानि 1. माघ 3 पाद 8 अंगुल 4 अंगुल 2. फाल्गुन 3 पाद 4 अंगुल 8 अंगुल 3. चैत्र 3 पाद 1 पाद 4. वैशाख 2 पाद 8 अंगुल 1 पाद 4 अंगुल 5 जेष्ठ 2 पाद 4 अंगुल १पाद 8 अंगुल 6 आषाढ़ 2 पाद 2 पाद -सूत्र 43 समाप्त दशम प्राभृत का दसवाँ प्राभृत-प्राभूत समाप्त / Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [227 दसवें प्राभूत का 22 (बाईसवाँ) प्राभूत-प्राभूत सूत्र 62 नक्षत्रसंख्या सीमाविष्कभ भाग नक्षत्र का नाम दो अभिजित अर्धक्षेत्र नक्षत्र 12 1005 दो शतभिष यावत् दो ज्येष्ठा समक्षेत्र नक्षत्र 30 2010 दो श्रवण यावत् दो पूर्वाषाढ़ा द्वयर्धक्षेत्र नक्षत्र 12 3015 दो उत्तराभाद्रपद यावत् दो उत्तराषाढ़ा 56 (नक्षत्र के नाम दसवें प्राभृत के दूसरे प्राभूत-प्राभृत में देखें) 1 अहोरात्र के 67 भाग की कल्पना करना चाहिये / --सूत्र 62 समाप्त। सूत्र 72 : बारहवाँ प्राभूत संवत्सरों का प्रमाण संवत्सर 5 प्रकार के कहे गये हैं--- 1. नक्षत्र संवत्सर 2. चन्द्र संवत्सर 3. ऋतु संवत्सर 4. आदित्य संवत्सर 5. अभिवर्धित संवत्सर। 1 नक्षत्र संवत्सर-नक्षत्र मास में 27 दिवस 21/67 मुहूर्त होते हैं। नक्षत्रमास 119 मुहूर्त 27/67 भागात्मक है / नक्षत्र संवत्सर के दिवस कितने ?-327 दिवस 51/67 भाग होते हैं / नक्षत्र संवत्सर 9832 मुहूर्त 56/67 भागात्मक है। 1 युग के 67 नक्षत्र होते हैं / 1 युग के 1830 दिवस होते हैं / नक्षत्रमास के दिवस ज्ञात करने के लिये 1830 को 67 से भाग देने पर 27 दिवस 21/67 भाग आते हैं। नक्षत्रमास के मुहूर्त जानने के लिये 1 दिवस के 30 मुहूर्त से नक्षत्रमास के दिवसों को गुणा करने पर मुहूर्तों की संख्या प्राप्त होगी१८३०४ 30 54900 --=819 मुहूर्त 27/67 भाग 6767 नक्षत्रसंवत्सर के दिवस ज्ञात करने के लिये नक्षत्रमास के दिवसों को 12 से गुणा करना चाहिये। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 18304 12 21660 - ---327 दिवस 51/67 मुहूर्त 67 67 नक्षत्रसंवत्सर के दिवस होते हैं। नक्षत्रसंवत्सर के मुहूर्त बनाने लिये नक्षत्रसंवत्सर के दिवसों को 30 से गुणा करना चाहिये। 21660 30 658800 / ऐसा करने पर - -x------------6832 मुहूर्त 56/67 भाग नक्षत्रसंवत्सर के मुहूर्त हैं। 2. चन्द्रसंवत्सर चन्द्रमास के 26 दिवस 32/62 मुहूर्त हैं / चन्द्रमास 885 मुहूर्त 30/60 भागात्मक है / चन्द्रसंवत्सर 354 दिवस 12/62 महात्मक है। चन्द्रसंवत्सर 10625 मुहूर्त 50/62 भागात्मक है। 1 युग के चन्द्रमास 62 हैं / 1 युग के दिवस 1830 हैं। 1 चन्द्रमास के दिवस जानने के लिये 1830 को 62 से भाग देना चाहिये / 183062 = 26 दिवस 32/62 मुहूर्त होते हैं। चन्द्रमास के मुहूर्त जानने के लिये चन्द्रमास के दिवसों की संख्या को 30 से गुणा करना चाहिये 183043054900 ------------- -----885 --885 मुहूर्त 30/62 भाग होते हैं। चन्द्रसंवत्सर के दिवस जानने के लिये चन्द्रमास के दिवसों को 12 से गुणा करना चाहिये। 18304 12 21660 = 354 दिवस 12/62 मुहूर्तात्मक चन्द्रसंवत्सर होता है / चन्द्रसंवत्सर के मुहूर्त जानने के लिये वर्ष के दिवसों को 30 से गुणा करना चाहिये। 21660430 658800 ----- 10625 मुहूर्त 50/62 भाग होते हैं / 62 3. ऋतुसंवत्सर 1 युग के ऋतुमास 61 हैं / 1 ऋतुमास के दिवस 30 हैं। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 229 1 ऋतुमास के मुहूर्त 600 हैं। 1 ऋतुवर्ष के दिवस 360 हैं। 1 ऋतुवर्ष के मुहूर्त 10800 हैं / 4. आदित्यसंवत्सर 1 युग के आदित्यमास 60 हैं। 1 आदित्यमास के 30 दिवस हैं। 1 आदित्यमास के 915 मुहूर्त होते हैं / 1 आदित्यसंवत्सर के 366 दिवस होते हैं / 1 आदित्यसंवत्सर के 10980 मुहूर्त होते हैं / 5. अभिवधितसंवत्सर 1 अभिवधित मास के 31 दिवस 29 मुहूर्त 17/62 भाग होते हैं / 1 अभिवधित मास के 959 मुहूर्त 17/62 भाग। 1 अभिवधित संवत्सर के 383 दिवस 21 मुहूर्त 15/62 भाग होते हैं। 1 अभिवधित संवत्सर के 11511 मुहूर्त 18/62 भाग होते हैं। सूत्र 72 समाप्त / चूणित भाग सूत्र 73 नो युग के अहोरात्र का प्रमाण दिवस मुहूर्त वासठिया भाग 1. नक्षत्रसंवत्सर 327 22 2. चन्द्रसंवत्सर 354 3. ऋतुसंवत्सर 4. प्रादित्यसंवत्सर / 5. अभिधितसंवत्सर 383 mr xxx m रxxxx mr 57 1761 नो युग के मुहर्त 1791 4 30 = 53730+16-537491555/67 चूणित भाग / नो युग में कितने दिवस मिलाने पर युग पूर्ण होता है ?38 दिवस 10 मुहूर्त 1 भाग 12/67 चूणित भाग मिलाने से युग पूर्ण होता है। कितने मुहूर्त मिलाने से युग के मुहूर्त पूर्ण होते हैं ? 384 30 = 1040+10 = 11 मुहूर्त 1150 मुहूर्त भाग 12/67 चूर्णित भाग मिलाने पर युग के मुहूर्त पूर्ण होते हैं / युग के दिवस कितने ? Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 1830 दिवस / युग के मुहुर्त कितने ? 1830 x 30 -54900 मुहूर्त / 54900 मुहूर्त के कितने वासठिया भाग होते हैं ? 54900 x 62-3403800 वासठिया भाग। --सूत्र 73 समाप्त / बारहवाँ प्राभत समाप्त / सूत्र ७६तेरहवां प्राभूत चन्द्रमा की हानि-वृद्धि शुक्लपक्ष में वृद्धि होती है और कृष्णपक्ष में हानि होतो है। शुक्लपक्ष में 442 मुहूर्त 46/62 भाग की वृद्धि होती है / कृष्णपक्ष में 442 मुहूर्त 46/62 भाग को हानि होती है। चन्द्रमास का प्रमाण एवं चन्द्रमास के मुहूर्तों का प्रमाण सूत्र 72 के अनुसार जानना चाहिये / शुक्लपक्ष 442 मुहूर्त 46/62 भाग हैं। कृष्णपक्ष में 442 मुहूर्त 46/62 भाग हैं / एकपक्ष 14 दिवस 47/62 भागात्मक है / -सूत्र 79 समाप्त। सूत्र 80--- 1 युग में 62 पूणिमा और 62 अमावस्या होती हैं। अमावस्या और पूर्णिमा तक 442 मुहूर्त 46/62 भाग होते हैं / पूर्णिमा से अमावस्या तक 442 मुहूर्त 46/62 भाग होते हैं।। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक 885 मुहूर्त 30/62 भाग होते हैं। अमावस्या से अमावस्या तक 885 मुहूर्त 30/62 भाग होते हैं। तेरहवाँ प्राभत समाप्त / सूत्र 80 समाप्त / सूत्र 83 पन्द्रहवां प्राभूत एक मुहूर्त में चन्द्र की गति एक मुहर्त में चन्द्र उस-उस मंडल के 1768 भाग गति करता है। 1 युग के अर्धमंडल 1768 हैं / 1 युग के 1830 दिवस हैं। दो अर्धमंडल अर्थात् एक मंडल की परिक्रमा चन्द्र कितने रात्रि-दिवस में पूर्ण करता है ? यह ज्ञात करने के लिये Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [231 1830 दिवस - 2 अर्धमंडल _ 3660 1768 भाग = 2 दिवस 124/1768 भाग आते हैं। 124/1768 भाग के मुहूर्त बनाने के लिये उन्हें 30 से गुणा करने पर१२४४३० - 3720 - 465 1768 1768 221 = 2 दिवस 2 मुहूर्त 23/221 भाग में चन्द्र एक मंडल पूर्ण करता है / एक मुहूर्त की गति कितनी ? 62 मुहूर्त 23/221 भाग में चन्द्र 109800 भाग (मंडल का परिक्षेप) गति करता है तो एक मुहूर्त की गति जानने के लिये 2214 109800 - 24265800 13725 13725 1768 भाग चन्द्र एक मुहूर्त में 1768 भाग गमन करता है / सूर्य एक मुहूर्त में 1830 भाग गति करता है / सूर्य दो दिवस में एक मंडल पूर्ण करता है / अर्थात् 60 मुहूर्त में 109800 भाग गमन करता है / एक मुहूर्त में कितने भाग गमन करता है ? 109800 --1830 60 सूर्य एक भाग में 1830 भाग गमन करता है। नक्षत्र एक मुहूर्त में 1835 भाग गमन करता है। मुहूर्त जानने के लिये एक मंडल का संक्रमण काल निकालना जरूरी है। 1835 अर्धमंडल पूर्ण करने में 1830 दिवस लगते हैं। दो अर्धमंडल पूर्ण करने पर कितने दिवस लगते है ? 241830 = 1 दिवस 1825/1835 मुहूर्त 1825 भाग के मुहूर्त बनाने के लिये . 18254.30 = 50750-=29 मुहूर्त 307/367 आते हैं। 1835 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232] [सूर्यप्राप्तिसूत्र अर्थात् नक्षत्र को एक मंडल पूर्ण करने में 1 दिवस 29 मुहूर्त 307/367 भाग समय लगता अर्थात् 59 मुहूर्त में 307/367 भाग समय लगता है / अर्थात् 59 मुहूर्त में 106800 भाग परिक्षेप करता है / एक मुहूर्त में कितने भाग परिक्षेप करेगा? 11.307 367 21960 367 3674109800 21960 1835 भाग एक मुहर्त में गमन करता है। सूर्य-चन्द्र की गति में क्या विशेषता है ? सूर्य-चन्द्र की अपेक्षा 62 भाग विशेष गमन करता है। सूर्य १८३०---चन्द्र 1768362 भाग जब चन्द्र गति समापन्न हो तब नक्षत्र की गति से क्या विशेष है ? नक्षत्र 67 भाग विशेष गति करता है / क्योंकि नक्षत्र 1835 भाग गमन करता है / चन्द्र 1768 भाग गमन करता है। नक्षत्र १८३५-चन्द्र 1768 = 67 भाग अधिक गमन करता है। सूत्र 85-- नक्षत्रमास में चन्द्र कितने मंडल गति करता है ? चन्द्र एक नक्षत्रमास में 13 मंडल 13/67 भाग गति करता है। इसका कारण यह है कि एक युग के नक्षत्रमास 67 हैं। चन्द्र मंडल 884 है / 67 नक्षत्रमास में 884 चन्द्रमंडल चन्द्र गति करता है / एक नक्षत्रमास में कितने मंडल गति करता है ? 884-67 = 13 मंडल 13/67 भाग गति करता है / नक्षत्रमास में सूर्य कितने मंडल गति करता है ? 13 मंडल 44/67 भाग गति करता है। एक युग के 67 नक्षत्रमास में 915 सूर्य मंडल की गति करे तो एक मास में कितने मंडल गति करता है? 915 -13 मंडल 44/67 भाग गति करता है। नक्षत्रमास में नक्षत्र कितने मंडल गति करता है ? Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [233 एक युग के 67 नक्षत्रमास में 1835 अर्धमंडल गति करता है। 1835 = 27 अर्धमंडल 26/67 भाग उनके मंडल बनाने के लिये 2 से भाग देने पर 1835 : 2 = 13 46. मंडल चन्द्रमास में चन्द्र कितने मंडल गति करता है ? 124 पर्व में 884 मंडल गति करता है। २पर्व में कितने मंडल गति करता है ? 24884 .. 1768 = 14-15 124 124124 10 124 14 मंडल तथा पन्द्रहवें मंडल के 32/124 भाग / चन्द्रमास में सूर्य कितने मंडल गति करता है ? 15 मंडल में चौथा भाग न्यून तथा 124 भाग का एक अंश / 14 मंडल तथा पन्द्रहवें मंडल के 94/124 भाग / वह किस प्रकार से ? 124 पर्व में 915 सूर्य मंडल गति करता है तो 2 पर्व में कितने सूर्यमंडल गति करता है ? 124 -124 = 14- - मंडल गति करता है / चन्द्रमास में नक्षत्र कितने मंडल गति करता है ? 14 मंडल तथा 15 वे मंडल के - 94. .. भाग / 124 पर्व में 1835 नक्षत्र अर्धमंडल गति करता है। तो 2 पर्व में कितने नक्षत्र अर्धमंडल गति करता है ? 24 1835 _ 3670 = 22 74.. 124 124 दो अर्धमंडल का एक मंडल होता है तो दो से भाग देने पर३६७० : 2 = 14 मंडल तथा 99/124 भाग / 124 ऋतुमास में चन्द्र कितने मंडल गति करता है ? 61 कर्ममास में 884 चन्द्रमंडल गति करता है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] [सूर्यप्रशप्तिसूत्र तो कर्ममास में कितने चन्द्रमंडल गति करेगा? 61 61 884 = 14-30 14 मंडल तथा पन्द्रहवें मंडल के 30/61 भाग / ऋतुमास में सूर्य कितने मंडल की गति करता है ? 61 कर्ममास में 915 सूर्यमंडल गति करता है / 1 कर्ममास में कितने सूर्यमंडल गति करेगा? 915 15 मंडल गति करता है। ऋतुमास में नक्षत्र कितने मंडल गति करता है ? 122 ऋतुमास में 1835 नक्षत्रमंडल गति करता है। तो 1 ऋतुमास में कितने नक्षत्रमंडल गति करेगा? 1835 -15. 5 मंडल गमन करता है। 122 सूर्यमास में चन्द्र कितने मंडल गमन करता है ? 60 सूर्यमास में 884 चन्द्रमंडल गति करता है। में कितने चन्द्रमंडल गति करेगा? *122 60 15 14 मंडल पन्द्रहवें मंडल का 11/15 भाग सूर्यमास में सूर्य कितने मंडल गमन करता है ? 60 सूर्यमास में 915 सूर्यमंडल गमन करता है। तो एक सूर्यमास में कितने सूर्यमंडल गमन करेगा? 915 = 15 15 15 मंडल 1/4 भाग। सूर्यमास में नक्षत्र कितने मंडल गमन करता है। 120 सूर्यमास में 1835 नक्षत्रमंडल गमन करता है / तो 1 सूर्यमास कितने नक्षत्रमण्डल गमन करेगा? 1835 -- 15. 35- मंडल 120 11 120 15 मण्डल 16 वें के 35/120 भाग / Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [235 अभिवधित मास में चन्द्र कितने मण्डल गमन करता है ? एक युग के अभिवधित मास 57 33 हैं / क्योंकि एक अभिवधित मास के मुहूर्त पूर्व में बताये गये अनुसार-- 959 1 मुहूर्त का एक मास / 9594 62+17 = 59475 62 युग के मुहूर्त 1830 X 30-54900 मुहूर्त / उनके 62 भाग करना चाहिये 549004 62 = 3403800 भाग / 59475/62 मुहूर्त का 1 अभिवधित मास होता है / 54900 मुहूर्त के कितने मास होंगे? 549004 62 - 3403800 56475 59475 57-13725 56475 57.3(4575 से छेद चलता है।) 57 अभिवधित मास 3/13 भाग / 57.3 अभिवधित मास में 884 चन्द्रमण्डल गमन करता है / तो 1 अभिवधित मास में कितने चन्द्रमण्डल गमन करेगा? 57-3. = 744/13 होते हैं। 13 83 744/13 अभिवधित मास में कितने चन्द्रमण्डल गमन करेगा? 884413 .. 11492 744 744 15 मण्डल चन्द्र गति करता है / 83/186 भाग। अभिवधित मास में सूर्य कितने मण्डल गमन करता है / एक युग के अभिवधित मास 744/13 हैं, उनमें 915 सूर्यमण्डल गति करता है तो एक अभिवधित मास में सूर्य कितने मण्डल गमन करेगा? Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र 74412 9154 13 = 11895 = 15.245 744 15 मण्डल तथा १६वें मण्डल में 3 भाग न्यन अभिवधित मास में नक्षत्र कितने मण्डल गमन करता है ? एक युग के 744/13 अभिवधित मास हैं / उसमें 1835 - मण्डल गमन करता है / तो एक अभिवधित मास में नक्षत्र कितने मण्डल गमन करेगा? 134 1835 - 23855 .. 18 =16..-. मण्डल परिभ्रमण करेगा। 24744 1488 1488 -~सूत्र 85 समाप्त। सूत्र 86 प्राभूत 15 चन्द्र रात्रि में कितने मण्डल परिभ्रमण करता है ? एक युग के अहोरात्र 1830 हैं। उनमें 1768 अर्धमण्डल गति करता है। तो एक अहोरात्र में कितने अर्धमंडल गति करेगा? 884- = 650 एक अर्धमण्डल के 31 भाग न्यून गति करता है। 615 915 सूर्य एक अहोरात्र में कितने अर्धमण्डल गति करता है ? एक यग के दिवस 1830 हैं, उनमें 1830 अर्धमण्डल गति करता है। तो एक अहोरात्र में कितने अर्धमण्डल गति करेगा ? 1830 = 1 अर्धमण्डल गति करेगा। 1830 नक्षत्र कितने अर्धभण्डल गति करता है ? एक युग के दिवस 1830 हैं। उनमें 1835 अर्धमण्डल गति करता है। तो एक अहोरात्र में कितने अर्धमण्डल गति करेगा? 1835 = 1 अर्धमण्डल 5/1830 भाग गति करता है। 1830 एक मण्डल गति करने पर चन्द्र को कितना समय लगता है ? 884 मण्डल गति करने पर चन्द्र को 1830 दिवस लगते हैं तो एक मण्डल की गति करने पर कितने दिवस लगेंगे? Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [237 1830 = 2.31 = दो दिवस और 31/442 भाग में एक मण्डल गति करता है। 884 एक मण्डल सूर्य कितने रात्रि-दिवस में गमन करता है ? 915 मण्डल गति करने पर सूर्य को 1830 दिवस लगते हैं, तो एक मण्डल की गति करने पर कितने दिवस लगते हैं ? 11.30 = 2 अहोरात्र नक्षत्र कितने दिवस में एक मण्डल गति करता है ? 1835/2 मण्डल गति करने पर नक्षत्र को 1830 दिवस लगते हैं तो एक मण्डल की गति करने पर नक्षत्र को कितने दिवस लगेंगे? 1830 x 2 = 367 _ 732 = 12 1835 दो अहोरात्र में दो भाग कम एक अहोरात्र के 367 भाग। युग में चन्द्र कितने मण्डल गति करता है ? चन्द्र एक मुहूर्त में मण्डल के 109800 भाग में से 1768 भाग गति करता है। युग के मुहूर्त 54900 हैं। एक मुहूर्त में 1768/109800 गति करता है / तो 54900 मुहूर्त में कितनी गति करेगा ? ___54900 1768 = 97063200 =884 109800 109800 =884 मण्डल गति करता है। युग में सूर्य के मण्डलों की संख्या ? अर्थात् एक युग में सूर्य कितने मण्डल गति करता है ? सर्य एक मुहर्त में 1830/109800 भाग गति करता है तो 54900 मुहूर्त में कितनी गति करेगा? 549004 1830 = 915 मण्डल गति करता है। 109800 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238] [सूर्यप्राप्तिसूत्र युग में नक्षत्रों की संख्या ? अर्थात् एक युग में नक्षत्र कितने मण्डल गति करता है ? नक्षत्र एक मुहूर्त में 1835/109800 भाग गति करता है तो 54900 मुहूर्त में कितनी गति करेगा? 54900x1835 - =9173 मण्डल 109800 917 मण्डल 1/2 भाग गति करेगा। O0 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ सूर्याप्रज्ञप्तिसूत्र सूत्र 20 व 24 सरमंडलस्स प्रायाम-विक्खंभो परिक्खेवो बाहल्लं च प. सूरमंडले णं भंते ! केवइयं आयाम-विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं केवइयं बाहल्लेणं पणते ? उ. गोयमा ! सूरमंडले अडयालीसं एगसद्विभाए जोयणस्स आयाम-विक्खंभेणं' तं तिगुणं सविसेसं परिकलेवेणं चउवीसं एगसद्विभाए जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते / -जंबु. वक्ख. 7, सु. 130 जंबुद्दीवे सूरिया पडुप्पन्न खेत्तं प्रोभासंति प. जंबहीवे णं भंते ! दीवे सूरिया कि तीयं खेत्तं ओभासंति, पड़पन्न खेत्तं ओभासंति, अणागयं खेत्तं ओभासंति ? उ. गोयमा ! नो तोयं खेत्तं ओमासेंति, पड़प्पन्न खेत्तं ओभासेंति, नो अणागयं खेत्तं ओभासेति / प. तं भंते ! कि पुढें ओभासेंति, अपुळं ओमासेंति ? उ. गोयमा ! पुढे ओभासेंति, नो प्रपुळं ओभासें ति जाव / प. तं भंते ! कि एगदिसि ओभासेंति, छदिसि ओभासेंति ? 1. (क) सूरमंडले णं अडयालीसं एगसद्विभाए जोयणस्स विक्खंभेणं पण्णत्ते, -सम, 48, सु. 3 (ख) सूरमंडलं जोयणे णं तेरसहि एगट्ठिभाएहि जोयणस्स ऊणं पण्णत्त, -सम. 13, सु. 8 2. यावत् पद से संग्रहीत सूत्र प. तं भंते ! कि योगा प्रोभासें ति, अणोगा प्रोभासें ति ? उ. गोयमा ! प्रोगाढं प्रोभासें ति, नो अणोगाढं प्रोभासें ति, प. तं भंते ! कि अणंतरोगाढ प्रोभासेंति, परंपरोगाढ प्रोभासेंति ? उ. गोयमा! अणंतरोगाढं प्रोभासेंति, नो परंपरोगाढं प्रोभासेंति, प. तं भंते ! कि अणं प्रोभासेति, बायरं प्रोभासेंति? उ. गोयमा ! अणुपि अोभासेंति, बायरं पि अोभासेंति, प. तं भंते ! कि उडढं प्रोभासें ति, तिरियं प्रोभासेंति अहे प्रोभासेंति ? उ. गोयमा ! उडढं पि, तिरियं पि, अहे विप्रोभासें ति / (क्रमशः) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24.] [सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र उ. गोयमा ! नो एगदिसि ओभासेंति, नियमा छद्दिसि ओमासेंति।'—विया. स. 8, उ. 8, सु. 39, 40 जंबुद्दीवे सूरिया पडुप्पन्नं खेत्तं उज्जोति प. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया कि तीयं खेतं उज्जोति, पडुप्पन्नं खेत्तं उज्जोति, अणागयं खेत्तं उज्जोवेंति ? उ. गोयमा ! नो तीये खेत्तं उज्जोवेति, पडुप्पन्नं खेत्तं उज्जोवेंति, नो अणागयं खेत्तं उज्जोवेंति, एवं तवेंति, एवं भासंति जाव नियमा छहिसिं भासंति / / जंबुद्दीवे सूरियाणं ताव खेत्त पमाणं -विया. स. 8, उ. 8, सु. 41-42 प. जंबुद्दोवे गं भंते ! दोवे सूरिया केवइयं खेत्तं उडढं तवंति ? केवइयं खेत्तं अहे तवंति ? केवइयं खेत्तं तिरियं तवंति? उ. गोयमा ! एग जोयणसयं उड्ढं तवंति, अद्वारसजोयणसयाई अहे तवंति, सीयालीसं जोयणसह प. तं भंते ! कि आई प्रोभासें ति, मज्भे प्रोभासेंति, अंते प्रोभासेंति ? उ. गोयमा ! प्राई पि, मझे वि, अंते वि श्रोभासेंति, प. तं भंते ! कि सविसए प्रोभासें ति, अविसए प्रोभासेंति ? उ. गोयमा ! सविसए प्रोभासेंति, नो अविसए प्रोभासें ति, प. तं भंते ! कि प्राणब्धि प्रोभासेंति, अणाणधि प्रोभासेंति ? उ. गोयमा ! प्राणपूवि प्रोभासेंति, नो अणाणपब्बि प्रोभासेंति, प. तं भंते ! कइ दिसि प्रोभासेंति ? उ. गोयमा ! नियमा छहिसि प्रोभासें ति, -विया. स. 8, उ.८, सु.३९ टिप्पण [प. त भंते ! कि एगदिसि प्रोभासेंति, छहिसि प्रोभासेंति ? उ. गोयमा ! नो एगदिसि प्रोभासें ति, नियमा छद्दिसि प्रोभाति / / (पाठान्तर) 1. जंबु. वक्ख. 7, सु, 137 2. जंबु वक्ख. 7, सु. 137 3. (क) जंबु. वक्ख. 7, सु. 139 (ख) सूरिय. पा. 4, सु. 25 सूर्य के विमान से सौ योजन ऊपर शनैश्चर ग्रह का विमान है और वहीं तक ज्योतिष चक्र की सीमा है, अत: इससे ऊपर सूर्य का तापक्षेत्र नहीं हैं। जंबूद्वीप के पश्चिम महाविदेह से जयंतद्वार की ओर लवणसमुद्र के समीप क्रमश: एक हजार योजन पर्यन्त भूमि नीचे है, इस अपेक्षा से एक हजार योजन तथा मेरु के समीप की समभूमि से 800 योजन ऊँचा सूर्य का विमान है, ये आठ सौ योजन संयुक्त करने पर अठारह सौ योजन सूर्य विमान से नीचे की ओर का तापक्षेत्र है, अन्य द्वीपों में भूमि सम रहती है। इसलिए वहाँ सर्य का नीचे का तापक्षेत्र केवल पाठ सौ योजन का है। अठारह सौ योजन नीचे की ओर के तापक्षेत्र के और सौ योजन ऊपर की ओर के तापक्षेत्र के, इन दोनों संख्याओं के संयुक्त करने पर 1900 योजन का सर्य का तापक्षेत्र है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२] [241 स्साई दोणि तेवढे जोयणसए एक्कवीसं च सद्विभाए जोयणस्स तिरियं तवंति / / --विया. स.८, उ.८, सु. 45 O यहां तिरछे तापक्षेत्र का कथन पूर्व-पश्चिम दिशा की अपेक्षा से कहा गया है, अर्थात् उत्कृष्ट इतनी दूरी पर स्थित सूर्य मानव चक्षु से देखा जा सकता है। उत्तर में 180 योजन न्यून पंतालीस हजार योजन तथा दक्षिण दिशा में द्वीप में 180 योजन और लवणसमुद्र में तेतीस हजार तीन सौ तेतीस योजन तथा एक योजन के तृतीय भाग संयूक्त दूरी से सूर्य देखा जा सकता है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० आचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म. द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है। मनुस्मृति ग्रादि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी पागमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा- उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, विज्जुते. निग्धाते, जुवते, जक्खालित्ते धूमिता, महिता, रयउग्घाते / दसविहे पोरालिते असज्झातिते, तं जहा--अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते. चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा चउहि महापाडिवएहि सज्झायं करित्तए, तं जहाप्रासाढपाडिवए, इंदमहपाडिवए, कत्तिपाडिवए सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा—पढिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढ रत्ते / कप्पइ निग्गंथाणं वा, निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा---पुवण्हे अवरण्हे, परोसे, पच्सूसे / -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस प्रौदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं, जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेआकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन—यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है. तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 3. गजित-बादलों के गर्जन पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / 4. विद्युत-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए / क्योंकि वह Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल] [243 गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु-स्वभाव से ही होता है / अतः पार्दी से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्घात–बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जना होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। 6. यूपक शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 7. यक्षादीप्त—कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है, वह यक्षादीप्त कहलाता है / अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धूमिका-कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धुम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध पड़ती है / वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है / जब तक यह धुंध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 9. मिहिकाश्वेत--शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। 10. रज-उद्घात-वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है / जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी प्रस्वाध्याय के हैं। औदारिक शरीर सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13. हड्डो, मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से ये वस्तुएँ उठाई न जाएँ, तब तक अस्वाध्याय है / वृत्तिकार आस-पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है / स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक। बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है / 14. अशुचि मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15. श्मशान–श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है / 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 17. सूर्यग्रहण--सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः पाठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244] [अनध्यायकाल 18. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो, तब तक शनै: शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 19. राजव्युग्रह–समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेबर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पडा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण प्रोदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढ-पूर्णिमा, आश्विन-पूणिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं / इन पूर्णिमाओं के पश्चात् पाने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं / इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 29-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि---प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे। सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्र अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। OD Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमप्रकाशन-समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजो महता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री श० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरड़िया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलाल जी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचंदजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी। चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरड़िया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 9. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 9. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास चंदजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरड़िया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K. G. F.) जाड़न 15. श्री पार. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर डिया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजो लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी होराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खबचन्दजी गादिया. व्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपूर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनादगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी चोरडिया, मद्रास 19. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा८. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर टोला 9. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m m m m 246] सदस्य-नामावली 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 9. श्री के. पुखराजजो बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 29. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमे रमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भवरलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 19. श्री बादरमलजी पखराजजी बंट, कानपर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सन्दरबाई मोठी w/o श्री ताराचन्दजी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास 22. श्री घेवर चंदजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, अागरा 24. श्री जवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी ब्यावर 39. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी. मेडतासिटी 40. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजय राजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठो, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 29. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री पासूमल एण्ड कं०, जोधपुर सहयोगी सदस्य 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर 33. श्रीमती सुगनीबाई w/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़ता सिटी 2. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर / सांड, जोधपुर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजो कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] [247 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 69. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्तमान स्थानकवासी जैन धावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजो कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मुथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 49. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पालो 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 79. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेड़तासिटी 53. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल. 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरडिया, भैरूंदा 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंबरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमल जी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 59. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी होरालाल जी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 86. श्री धूख राजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 90. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 91. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 92. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 93. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, 94. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलौर राजनादगांव 65. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई स्व. पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, 96. श्री अखेचंदजी लूणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 97. श्री सुगन चन्दजी संचेती, राजनादगांव Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248] [सदस्य-नामावली 98. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 99. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सुराणा, ___ लोढ़ा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा. औरंगाबाद कुचेरा 119. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदडमलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. सम्पतराजजी चोरड़िया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजो भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास धूलिया 108. श्री दुले राजजो भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 109 श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला. 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरडिया, सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैनश्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128, श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुलीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 129. श्री मोतीलालजी प्रासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 00 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत डॉ. भागचन्द्र जैन एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट. आगम प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित अठारह भाग प्राप्त हुए। धन्यवाद / इन ग्रन्थों का विहंगावलोकन करने पर यह कहने में प्रसन्नता हो रही है कि संपादकों एवं विवेचक विद्वानों ने नियुक्ति, चूणि एवं टीका का प्राधार लेकर आगमों की सयुक्तिक व्याख्या की है। व्याख्या का कलेवर भी ठीक है। अध्येता की दृष्टि से ये ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी हैं। इस सुन्दर उपक्रम के लिए एतदर्थ हमारी बधाइयाँ स्वीकारें। For Private & Personal use only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्य 25) 25) 120 30) 25) प्रागमप्रकाशन समिति द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम प्रयांक नाम पृष्ठ अनुवादक-सम्पादक 1. आचारांगसूत्र [प्र. भाग] 426 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 30) 2. आचारांगसूत्र [द्वि. भाग] 508 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 35) 3. उपासकदशांगसूत्र 250 डॉ. छगनलाल शास्त्री 4. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र 640 पं० शोभाचन्द्रभारिल्ल 45) 5. अन्तकृशांगसूत्र 240 साध्वी दिव्यप्रभा 6. अनुत्तरोपपातिकसूत्र साध्वी मुक्तिप्रभा 7. स्थानांगसूत्र 524 पं० हीरालाल शास्त्री 50) 8. समवायांगसूत्र पं० हीरालाल शास्त्री 9. सूत्रकृतांगसूत्र [प्र. भाग] 562 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 10. सूत्रकृतांगसूत्र [द्वि. भाग] 280 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 25) 11. विपाकसूत्र 206 अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री 25) सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 12. नन्दीसूत्र 252 अनु. साध्वी उमरावकबर 'अर्चना' 28) सम्पा, कमला जैन 'जीजी' एम. ए. 13, औयपातिकसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री 14. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र. भाग] 568 अमरमुनि 50) 13, राजप्रश्नीयसूत्र 284 वाणीभूषण स्तनमुनि 16. प्रज्ञापनासूत्र [प्र. भाग] जैनभूषण ज्ञानमुनि 17. प्रश्नव्याकरणासूत्र 356 अनु. मुनि प्रवीणऋषि 35) सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 18. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [द्वि. भाग] 266 अमरमुनि 45) 19. उत्तराध्ययनसूत्र 842 राजेन्द्रमुनि शास्त्री 65) 20. प्रज्ञापनासूत्र [द्वि. भाग] 542 जैनभूषण ज्ञानमुनि 45) 21. निरयावलिकासूत्र देवकुमार जैन 22. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तृ. भाग] अमरमुनि 23. दशवैकालिकसूत्र 532 महासती पुष्पवती 24. आवश्यकसूत्र 188 महासती सुप्रभा एम. ए., शास्त्री 25) 25. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चतुर्थ भाग] 908 अमरमुनि 26. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 478 डॉ. छगनलाल शास्त्री 27. प्रज्ञापनासूत्र त. भाग] जैनभूषण ज्ञानमुनि 28. अनुयोगद्वारसूत्र 502 उपा. श्री केवलमुनि 29. सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति मुनि श्री कन्हैयालाल 'कमल' शीत्रप्रकाश्य३०. जीवाजीवाभिगमसूत्र [प्रथम खण्ड] 30) 45) 65) 45) ,