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अभिनव प्राकृत-व्याकरणा
तारा पब्लिकेशन्स वाराणसी
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Abhinava PRĀKRTA VYĀKARANA
The rules of Phonetic changes; combinations of Vowels and Consonants ; Declension ; Faminine bases ; Government of Cases ; Compounds ; Primary and Secondary Suffixes ; Moods and Tenses; Degrees of Comparison ; Canjugation of various roots; Denominative, Desiderative, Causative and Frequentative verbs; list of roots; tendencies of Sauraseni, Māgadhi, ArdhaMāgadhī, Jain Mahārāstrī;
Paiśāci; Cūlika-Paisāci Prakrits Apabhransa etc. etc.]
BY
DR. N. C. SHASTRI M.A. PH.D. (GOLD MEDALIST)
Dept. of Sanskrit f Prakerit H. D. Jain College Arrah
(Magadh University)
TARA PUBLICATIONS
Varanasi 1963,
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FIRST EDITION 1963
Rs. 151
Printed at The Tara Printing Works, Varanasi
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
[ ध्वनि-परिवर्तन, सन्धि, सुबन्त, स्त्रीप्रत्यय, कारक, समास, तद्धित, तिङन्त कृदन्त, नामधातु सम्बन्धी अनुशासनों के साथ धातु कोष ; शौरसेनी, अर्धमागधी, अपभ्रंश प्रभृति विभिन्न प्राकृतों के विशिष्टानुशासनों एवं भाषावैज्ञानिक सिद्धान्तों से समलंकृत ]
डा. नेमिचन्द्र शास्त्री
ज्यौतिषाचार्य, न्यायतीर्थ, एम० ए० ( संस्कृत, हिन्दी और प्राकृत एवं
. जैनोलॉजी), पी-एच०डी०, गोल्डमेडलिस्ट संस्कृत एवं प्राकृत विभाग, एच०डी० जैन कालेज, आरा
(मगध विश्वविद्यालय)
तारा पब्लिकेशन्स..
कमच्छा, वाराणसी ...
..
.. १६६३-----
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प्रथम संस्करण १६६३ मूल्य रुपये
तारा प्रिण्टिग वर्क्स, वाराणसी
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प्राच्य भारतीय भाषाओं एवं उनके वाङ्मय
' पारङ्गत विद्वान्
समादरणीय डा. हीरालालजी जैन
___एम०ए०, एल-एल०बी०, डी.लिट.
को
सादर
-श्रद्धावनत नेमिचन्द्र शास्त्री
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विषय-सूची
प्रस्तावना
अध्याय १
.
वर्ण विचार और संज्ञाएँ स्वर व्यञ्जन वर्णो के उच्चारण स्थान प्रयत्न विचार
घोष
अघोष अल्पप्राण महाप्राण स्पर्श अयोगवाह
अन्तःस्थ स्व-विभक्ति-हा-दि-स-शु-खु-स्तु-ग-फु-तु संज्ञाएँ बहुल-रित-लुक्-उवृत्तस्वर संज्ञाएँ
अध्याय २ सन्धि-विचार सन्धि परिभाषा सन्धि के भेद और उनके विश्लेषण स्वर सन्धि के भेद दीर्घ सन्धि : नियम और उदाहरण दीर्घसन्धि : निषेध और विशेष उदाहरण गुणसन्धि : नियम और उदाहरण विशिष्ट उदाहरण गुणसन्धि : अपवाद और सन्धि अभाव हस्व-दीर्घ विधान सन्धि : नियम और उदाहरण प्रकृतिभावसन्धि : नियम और उदाहरण ....
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११-१२
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२१-८२
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प्रकृति-भाव सन्धि : अपवाद नित्यसन्धि : नियम और उदाहरण व्यञ्जन सन्धि : नियम और उदाहरण पदान्त के मकार की व्यवस्था : नियम और उदाहरण अनुस्वार की व्यवस्था अनुस्वरागम : नियम और उदाहरण अनुस्वार लुक : नियम और उदाहरण - अव्यय सन्धि : स्वरूप, व्यवस्था और उदाहरण अव्यय सन्धि के अपवाद .
अध्याय ३ वर्ण विकृति वर्ण विकृति के सामान्य नियम और उदाहरण अन्त्य हल व्यञ्जन को व्यवस्था समृद्धिगण के शब्दों में हस्व-दीर्घ स्वर व्यवस्था आकृति गण और स्वप्नादि गण : स्वर विकृति प्रथम प्रभृति शब्द : स्वरविकृति पानीयगण : स्वर विकृति मुकुलादि गण : स्वर विकृति कृपादिगण : स्वर विकृति ऋतु प्रकृति शब्दों में ऋकार विकृति दैत्यादि और पैरादिगण : स्वर विकृति सौन्दर्यादि गण : स्वर विकृति कौक्षेय ओर पाशदि गण: स्वर विकृति व्यञ्जन विकृति : नियम और उदाहरण मध्यवर्ती क-ग-व-ज-त लोप : उदाहरण मध्यवर्ती द-प-य-व लोप : उदाहरण लोप के अपवाद ख-घ-थ-ध-भ के स्थान पर ह : उदाहरण ट-ठ-ड के स्थान पर ड-ढ-ल : उदाहरण त के स्थान पर ड : उदाहरण ऋत्वादि गण में तकार के स्थान पर द : उदाहरण ने के स्थान पर ण : निगम और उदाहरण
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८३-१३८
विषय-सूची .. विशेष-विशेष शब्दों के विशेष-विशेष' नियम और उदाहरण वर्ण द्वित्व नियम और उदाहरण क्ष के स्थान पर ख या छ : नियम और उदाहरण संयुक्त व्यञ्जन विकृति : नियम और उदाहरण उकारान्त ङी प्रत्ययान्त शब्दों में विकृति : नियम और उदाहरण
अध्याय ४ वर्ण परिवर्तन अ = आ : नियम और उदाहरण अ = इ: " अ = ई : " " अ = उ, ऊ: , " अ = ए, ओ: , , अ = अइ, आइ : , . , आ = अ : नियम और उदाहरण आ = इ, ई, उ, ऊ, ए : नियम और उदाहरण आ = ओ : नियम और उदारण इ = अ : नियम और उदाहरण
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इ = ए, ओ , " ई = अ, आ, इ, उ, ऊ, ए : नियम और उदाहरण उ = इ, ई, ऊ, ओ : नियम और उदाहरण ऊ = अ, इ, ई, उ, ए, ओ : नियम और उदाहरण + = अ, आ, इ, उ, ऊ, ए ओ, अरि, रि : नियम और उदाहरण ए = इ, ऊ : नियम और उदाहरण ऐ = अअ, इ, ई, अइ, ए : नियम और उदाहरण ओ = अ, ऊ, अउ, आअ : " ".. औ = अउ, आ, उ, आव, ओ: ,, , क= ख, ग, च, भ, म, व, ह, :, ख = क: ग = म, ल, व: • च = ज, ट, ल, स: = भ:
.......... "
१०५ १०७
१०८
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
नियम और उदाहरण
११२ ११२
११२
११४
११७
११८ ११८
११८
१२०
त = च, छ, ट, ड, ण, र, ल, व, ह. थ= ढ, ध, ह ६%Dड, ध, र, ल, व, ह: ध = ढ, ह : नियम और उदाहरण न = ण, ग्रह, ल. प% फ, म, व, र: ब = भ, म, य : भव, ह म = ढ, व, स: य = ज, ज, त, ल, व, ह: २= ड, ण,ल: ल = र, ण : . व = भ, म: श= छ, स, ह । प= छ, ण्ह, स, ह : स= छ,ह: ध्वनि लोप : उदाहरण क्ष = ख, छ, क:
नियम और उदाहरण पक, स्क = ख, क्ख: त्य% च, च : . . त्व = च, थ्व = छ, ज, ध्व = क : नियम और उदाहरण थ्य, श्व, त्स, प्स = च्छ : ध, य्य, ये = ज: ध्य, ह्य = झ:
१२१
१२१ १२२
१२२
१२३ १२४ १२५
१२६ १२७ १२७ १२८ १२९ १२९
म्न, श=ण: स्त = थ, स्थ:
१२
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१३०
o
१३१
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o
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Mor MoroM. MMMMMMMM
o
१३५ १३५ १३७
विषय-सूची इम, क्म =प:
नियम और उदाररण प, स्प-फ, फ: ह = भ, ब्भ: न्म, ग्म = म:
" " श्म, म, स्म, ह्म, क्ष्म = म्ह :
__"
" श्न, ष्ण, स्न, हू, ह, क्ष्ण, क्ष्म = ण्ह :
=ल्ह : नियम और उदाहरण , ज्ञ=ज, ज: है, शें, , क्ल = रिह, रिस, किल : नियम और उदाहरण र्य = रिअ : . नियम और उदाहरण संयुक्त व्यञ्जनों में विशेष परिवर्तन : उदाहरण द्वित्व : उदाहरण अनियमित परिवर्तन : उदाहरण आमूल परिवर्तन, वर्णव्यत्यय : उदाहरण
अध्याय ५ लिङ्गानुशासन संस्कृत के कुछ नपुंसक शब्द प्राकृत में पुल्लिङ्ग : उदाहरण विशिष्ट-विशिष्ट शब्दों की विशेष लिङ्क व्यवस्था स्त्री प्रत्यय पुंलिङ्ग से स्त्रीलिङ्ग बनाने के नियम और उदाहरण कतिपय मध्ययनीय शब्द
अध्याय ६ शब्दरूप शब्द और पद : परिभाषा प्राकृत शब्दों का वर्गीकरण विभक्ति चिह्न जोड़ने के नियम अकारान्त शब्दों में जोड़े जानेवाले विभक्ति चिह्न देव शब्द की रूपावली वीर, जिण, वच्छ : रूपावली धम्म : रूपावली हाहा : रूपावली इकारान्त, उकारान्त, शब्दों में विभक्तियों के जोड़ने के नियम
१३६-१४२
१३९
१-४१ १४२-१४७
१४२ १४५
१४८-२१२
१४८ १४९ १४९
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१६२ १५३
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१५५
१५६ १५७ १५८ १५९ १६०
१६०
१६२ १६३ १६४ १६५
१६६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण इकारान्त-उकारान्त विभक्ति चिह्न हरि : रूपावली गिरि, णरवइ, इसी : रूपावली अग्गि, भाणु : रूपावली . वाउ : रूपावली पही, गामणी, खलपू : रूपावली सयंभू : रूपावली अकारान्त शब्दों में विभक्ति चिह्न जोड़ने के नियम • कत्तार, रूपावली भत्तार, भायर, : रूपावली पिउ, दाउ : रूपावली सुरेअ : रूपावली गिलोअ : रूपावली स्वरान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों की व्यवस्था आकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों में जोड़े जानेवाले विभक्ति चिह्न लदा, माला : रूपावली छिहा, हलिद्दा, मट्टिा : रूपावली इकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के विभक्ति चिह्न मई : रूपावली मुत्ति, राइ : रूपावली इकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के विभक्ति चिह्न लच्छी, रुपिगी : रूपावली बहिणी, धेगु : रूपावली तणु, रज्जू, बहू : रूपावली सासू , चमू : रूपावली • माआ, ससा, नणन्दा : रूपावली माउसिआ, धूआ , गावी, नावा नपुंसकलिङ्ग के विभक्ति चिह्न वग, धण : रूपावली दहि, वारि, सुरहि, महु : रूपावली जाणु, अंसु : रूपावली
१६७
१६९ १६९
१७०
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१७२
१७९
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अप्पाण, अप्प, अन्त्त : रूपावली राय, महव, मुद्ध : रूपावली जम्मो, चन्दमों : रूपावली जसो, उसको : रूपावली हसन्त, हसमाण : रूपावली भगवन्तो, सोहिल्लो : रूपावली
नेहाल, तिरिन्छ, भिसअ, सरअ, कम्मा : रूपावली
महिमा, गरिमा, अचि : रूपावली
सई : रुपावली
भगवई, सरिआ : रूपावली
afs, पडिवआ, संपया, क्षुहा : रूपावली
उद्दा, गिरा, दिसा, अच्छा, तिरच्छी : रूपावली
विज्जु, दाम : रुपावली
विषय-सूची
नाम, पेम्म, अह, सेयं, वयं : रूपावली
हसन्त, भगवन्त, आउसो, आउ : रूपावली
सव्व, सुव : रूपावली
अन्न, पुव्व, पुरिम :
ण, त ( तत् ), ज ( यदू) : रुपावली
क (किम् ), एत, एअ ( एतद् ) : रूपावली
असु, इम (इदम्) : रूपावली
सव्वा :
"
अस्मद् :
"
संख्यावाचक शब्द : रूपावली
सुवा, अण्णा,
दाहिणा
सा (तद् ), जा (यद् ) :
""
का (किम् ), एई, एआ ( एतद् ) : रुपावली अमु ( अदस् ) इमी, इमा ( इदम् ) :
अव्यय और निपात अव्यय परिभाषा और भेद
""
""
नपुंसक सब्ब, सुव, पुत्र :
""
त ( तद् ), ज ( यदू ), किं ( किम् ), एअ, अमु, इम : रूपावली युष्मद् : रूपावली
""
अध्याय ७
१७९
१८१
१८२
१८३
१८३
१८४
१८५
१८६
१८७
१८८
१८९
१६०
६६१
१९२
१९३
१९४
१९५
१९६
१९७
१९८
१९८
१९९
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२०१
२०२
२००३
२०४
२०५
२०६
२०७
२१३-२३३
२१३
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८
अभिनव प्राकृत व्याकरण
२१९
२२१
उपसर्ग : विश्लेषण
२१३ प्राकृत के बीस उपसर्ग सोदाहरण
२१४ क्रियाविशेषण
२१५ समुच्चय बोधक अव्यय
२१९ मनोविकार/सूचक अव्यय निपातों की अनुक्रणिका
अध्याय ८ कारक, समास और तद्धित
२३४-२६२ कारक परिभाषा और व्यवस्था प्रथमा विभक्ति : नियम और उदाहरण
२३५ कर्मकारक की परिभाषा और द्वितीया विभक्ति : नियम और उदाहरण २३५ करण कारक की परिभाषा और तृतीया विभक्ति : नियम और उदाहरण सम्प्रदान कारक की परिभाषा और चतुर्थी विभक्ति : नियम और उदाहरण २३९ अपादान कारक की परिभाषा और पञ्चमी विभक्ति : नियम और उदाहरण २४० षष्टी विभक्ति : नियम और उदाहरण
२४१ अधिकरण कारक का स्वरूप और सप्तमी विभक्ति : नियम और उदाहरण २४२ समास : परिभाषा और भेद
२४४ अव्ययीभाव : नियम और उदाहरण
२४४ तत्पुरुष : नियम और उदाहरण
२४५ प्रादितत्पुरुष, उपपद और कर्मधारय : नियम और उदाहरण
२४८ द्विगु : परिभाषा, भेद और अनुशासन बहुब्रीहि : अनुशासन द्वन्द्व : अनुशासन तद्धित : परिभाषा और भेद
२५५ ईदमर्थक प्रत्यय, उदाहरण
२५५ व्व, इमा, तण, हुत्तं, आलु, इल्ल, उल्ल, आल, वन्त, मन्त : प्रत्यय और उदाहरण २५६ तो, दो : प्रत्यय और उदाहरण
२५७ हि, स्वार्थिक इल्ल, अ, उल्ल; इत्तिअ : प्रत्यय और उदाहरण
२६८ एत्तिअ, एत्तिल, एपह, सि, सिअं, इआ : प्रत्यय और उदारण
२५९ अय, इय, आलिअ, ल, ल्लो, इअ, णय : प्रत्यय और उदाहरण
२६० तर, तम : प्रत्यय और उदाहरण
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विषय-सूची
२६३-३८२ - २६३
२६४ २६७ २६८ २६९ २७० २७१ २७२ २७३
२७४
अध्याय. क्रिया विचार क्रियारूपों की जानकारी के आवश्यक नियम कर्तरि धातुओं के विकरण सम्बन्धी नियम वर्तमान, भूत, भविष्यत् , विधि-आज्ञा एवं क्रियाविपत्ति में प्रत्यय हस् धातु : सभी कालों की रूपावली
हो (भू): रूपावली .ठा (स्था) ,
झा (ध्ये) : , ने (नी) : , उड्डे (उड्डी) , पा : रूपावली पहा (स्ना) : रूपावली गा (ग) : रूपावली विकरण भिन्नता से हो (भू) : रूपावली रव (रु): रूपावली कर (कृ) रूपावली अस् : रूपावली पूस ( पुष): रूपावली धुण (स्तु): हरिस ( हृष्): गच्छ ( गम् ): वोल्ल, जप, कह ( कथ): धुव (धू) : " कर्मणिहस:
रूपावली हो (भू):
२७७ २७८ २७९ २८०
२८१
२८२
२८४ २८५ २८६
२८७
२८८
२८९
झा ( ध्यै ) : चिव चि): ठा (स्था) : पा: भण : ..
२९० २९० २९३
२९२ २९३
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अभिनय प्राकृत-व्याकरण
२९५
३०३ ३०३
____
लिब्भ : रूपावली प्रेरणार्थक - हस : रूपावली कर (कृ): ,
२९८ ढक्क ( छदू): " हो ( भू):
३०१ कुछ क्रियाओं के प्रेरणार्थक रूपों का संकेत कर्मणि और भाव में प्रेरकरूप प्रेरक भाव और कर्मणि-हास, हसावि : रूपावली साम, खमावि (क्षम् ):
३०५ पिवास ( पा): खन्नन्त-लिच्छ (लभ ):
३०९ जुगुच्छ (गुप् ):
३०९ बुहुक्ख ( भुज):
३१० सुस्सूस (श्रु): यङन्त : विश्लेषण और उदाहरण यङलुगन्त : विश्लेषण और उदाहरण
३१२ नाम धातु बनाने के नियम और उदाहरण कृत् प्रत्यय वर्तमान कृयन्त ; प्रत्यय और उदाहरण भावि वर्तमान कृदन्त ,, " कर्मणि वर्तमान कृदन्त , , कर्तरि प्रेरक, प्रेरक भावि और प्रेरक कर्मणि वर्तमान कृदन्त : प्रत्यय और उदाहरण. ३१.८ भूतकृदन्त : प्रत्यय और उदाहरण
. ३२० प्रेरणार्थक, अनियमित भूत कृदन्त भविष्यत्कृदन्त
३२३ हेत्वर्थ कृत् : प्रत्यय और उदाहरण
३२३. प्रेरणार्थक हेतु कृदन्त : प्रत्यय और उदाहरण अनियमित हेत्वर्थ कृदन्त : " "
३२४ सम्बन्ध भूत कृदन्त : " "
३२५ प्रेरणार्थक सम्बन्ध सूचक कृदन्त : प्रत्यय और उदाहरण
३२६ अनियमित सम्बन्धक भूत कृदन्त : " ..
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३२९
३३२
३३३
३२४
३८३
विषय-सूची विध्यर्थक कृत् प्रत्यय और उदाहरण प्रेरक विध्यर्थ कृदन्त : प्रत्यय और उदाहरण अनियमित विध्यर्थ कृदन्त : शीलधर्मवाचक : " " अनियमित शीलधर्मवाचक कृदन्त धातु कोष
अध्याय १० अन्य प्राकृत भाषाएँ शौरसेनी : प्रवृत्तियां और अनुशासन शौरसेनी : शब्दरूपावली शौरसेनी : क्रियारूपावली शौरसेनी : कृत् प्रत्यय शौरसेनी की कुछ धातुएँ जैन शौरसेनी : ध्वनि परिवर्तन, नियम और उदाहरण मागधी : ध्वनिपरिवर्तनसम्बन्धी नियम और उदाहरण मागधी : शब्दरूपावली मागधी : धातुरूपावली मागधी के कतिपय विशेष शब्द अर्धमागधी : परिभाषा और व्यवस्था अर्धमागधी : ध्वनि परिवर्तन सम्बन्धी नियम और उदाहरण अर्धमागधी : शब्दरूपावली अर्धमागधी : तद्धित प्रत्यय और उदाहरण विकारार्थक और सम्बन्धार्थक प्रत्यय और उदाहरण अर्धमागधी : धातुरूपावली अर्धमागधी : कुछ धातु रूपों का संकेत अर्धमागधी : कृत् प्रत्यय और उदाहरण जैन महाराष्ट्री : मूल प्रवृत्तियां जैन महाराष्ट्री : धनि परिवर्तन सम्बन्धी नियम और उदाहरण पैशाची : ध्वनि परिवर्तन सम्बन्धी नियम और उदाहरण --- पैशाची : शब्दरूपावली पैशाची : धातु रूपावली पैशाची : कृदन्त
४०७
४०८
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१२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४५०
४६२
४६४ ४५४
४२५
४६९
४७०
४७१
पैशाची के कुछ शब्द चूलिका पैशाची : ध्वनि परिवर्तन सम्बन्धी नियम और उदाहरण
अध्याय ११ अपभ्रंश : इतिहास और व्यवस्था अपभ्रंश : ध्वनि परिवर्तन सम्बन्धी नियम और उदाहरण अपभ्रंश : वर्णागम, वर्णविपर्यय और वर्णविकार अपभ्रंश : शब्दरूपावली के नियम अपभ्रंश : रूपावली [ देव, वीर, इसि, गिरि, भाणु, ] स्त्रीलिङ्ग [ माला, मई, पइट्टी, घेणु, बहू ] नपुंसकलिङ्ग-कमल रूपावली सर्वनाम-सव्व, तुम, हउं, एह, जु, सो, क, आय, जा, सा, का, जं, तं, किं, इमु : रूपावली सर्वनामशब्दों से निष्पन्न विशेषण[ परिमाणवाचक, गुणवाचक, सम्बन्धवाचक, स्थानवाचक, समयवाचक ] अन्य अव्यय-तालिका तद्धित : प्रत्यय और उदाहरण क्रियारूपों के नियम धात्वादेश क्रियाओं में जुड़नेवाले प्रत्यय करधातु की रूपावली कृदन्त : प्रत्यय और उदाहरण भूतकृदन्त सम्बन्धक कृदन्त : प्रत्यय और उदाहरण हेत्वर्थ कृदन्त : , विध्यर्थ कृदन्त : प्रत्यय और उदाहरण शीलार्थक कृदन्त : " " क्रियाविशेषण
'४७४
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४७६ ४७७
४७९
४७९
४८०
४८०
४८१
४८१ ४८२
४८२
४८२
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प्रस्तावना
भाषा-परिज्ञान के लिए व्याकरण ज्ञान की नितान्त आवश्यकता है। जब किसी भी भाषा के वाङ्मय की विशाल राशि संचित हो जाती है, तो उसकी विधिवत् व्यवस्था के लिए व्याकरण ग्रन्थ लिखे जाते हैं। प्राकृत के जनभाषा होने से आरम्भ में इसका कोई व्याकरण नहीं लिखा गया । वर्तमान में प्राकृत भाषा के अनुशासन सम्बन्धी जितने व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे सभी संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं । आश्चर्य यह है कि जब पालि भाषा का व्याकरण पालि में लिखा हुआ उपलब्ध है, तब प्राकृत भाषा का व्याकरण प्राकृत में ही लिखा हुआ क्यों नहीं उपलब्ध है ? अर्धमागधी के आगमिक ग्रन्थों में शब्दानुशासन सम्बन्धी जितनी सामग्री पायी जाती है, उससे यह अनुमान लगाना सहज है कि प्राकृत भाषा का व्याकरण प्राकृत में लिखा हुआ अवश्य था, पर आज वह कालकवलित हो चुका है । यहां उपलब्ध फुटकर सामग्री पर विचार करना आवश्यक है ।
प्राकृत भाषा में प्राकृत व्याकरण के सिद्धान्त
9
रांग में (द्वि०४, १ रू० ३३५ ) तीन वचन-लिंग-काल-पुरुष का विवेचन किया गया है। ठाणांग ( अष्टम ) में आठ कारकों का निरूपण पाया जाता है । इन सारी बातों के अतिरिक्त अनेक नये तथ्य अनुयोगद्वार सूत्र में विस्तारपूर्वक वर्णित हैं । इस ग्रन्थ में समस्त शब्दराशि को निम्न पांच भागों में विभक्त किया है १ - नामिक- सुबन्तों का ग्रहण नाम में किया है। जितने भी प्रकार के संज्ञा शब्द हैं वे नामिक के द्वारा अभिहित किये गये हैं २ – नैपातिक — अव्ययों को निपातन से
।
यथा अस्सो, अस्से । अश्वः आदि । सिद्ध माना है । अतः अव्यय तथा
अव्ययों के समान निपातन से सिद्ध अन्य देशी शब्द नैपातिक कहे गये हैं । यथा
खलु, अक्कंतो, जह, जहा आदि ।
३- आख्यातिक— धातु से निष्पन्न क्रियारूपों की गणना आख्यातिक में की है । यथा
धाव, गच्छ आदि ।
४
- औपसर्गिक — उपसर्गों के संयोग से निष्पन्न शब्दों को औपसर्गिक कहा गया है । यथा-परि, अणु, अव आदि उपसर्गों के संयोग से निष्पन्न अणुभवइ प्रभृति पद ।
१ - पंचनामे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा – (१) नामिकं, (२) नैपातिकं,
(३) श्राख्यातिकं, (४) प्रौपसर्गिकं, (५) मिश्रम् । अणुभोगदार सुत्तं १२५ सूत्र
-
Page #21
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण .
५-मिश्न-मिश्र शब्दावली के अन्तर्गत इस प्रकार के शब्दों की गणना की गयी है, जि हे हम समास, कृदन्त और तद्धित के पद कह सकते हैं। इस कोटि के शब्दों के उदाहरणों में 'संयत' पद प्रस्तुत किया है। वस्तुतः विशेषण शब्दों को मिश्र कहना अधिक तर्कसंगत है।
नाम शब्दों की निष्पत्तियां चार प्रकार से वर्णित हैं। आगम, लोप, प्रकृतिभाव और विकार ।'
१. वर्णागम-वर्णागम कई प्रकार से होता है। वर्णागम भाषाविकास में सहायक होता है। इस वर्णागम का कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं है। दुर्गाचार्य ने निरुक्त का लक्षण बतलाते हुए वर्णागम, वर्णविपर्यय ( Metathesis ) वर्ण विकार ( Change of Syllable ) वर्णनाश ( Elision of Syllable ) और अर्थ के अनुसार धातु के रूप की कल्पना करना-इन छ: सिद्धान्तों को परिगणित किया है। अनुओदार सुत्त में इसका उदाहरण कुण्डानि आया है।
२. लोप-भाषा के विकास को प्रस्तुत करनेवाला दूसरा सिद्धान्त लोप है । प्रयत्न लाघव की दृष्टि से इस सिद्धान्त का महत्वपूर्ण स्थान है। वर्णलोप के भी कई भेद होते हैं-आदि वर्णलोप, मध्यलोप और अन्त्य वर्णलोप। यहां पर पटो + अत्र = पटोऽत्र, घटो + अन = घटोत्र उदाहरण उपस्थित किये गये हैं।
३. प्रकृति भाव में दोनों पद ज्यों के त्यों रह जाते हैं, उनमें संयोग होने पर भी विकार उत्पन्न नहीं होता। यथा-माले + इमे = माले इमे, पटू इमौ आदि।
४. वर्णविकार-दो पदों के संयोग होने पर उनमें विकृति होना अथवा ध्वनिपरिवर्तन के सिद्धान्तों के अनुसार वर्गों में विकार का उत्पन्न होना वर्णविकार है । यथा
वधू > बहू, गुफा > गुहा, दधि + इदं = दधीदं, नदी + इह = नदीह ।
नाम-पदों के स्त्रीलिङ्ग, पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग की अपेक्षा से तीन भेद होते हैं। आकारान्त, इकारान्त, उकारान्त और ओकारान्त शब्द पुंलिङ्ग होते हैं। स्त्रीलिङ्ग शब्दों में ओकारान्त शब्द नहीं होते। नपुंसक लिङ्ग शब्दों में अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त शब्द ही परिगणित हैं । यथा
तं एण णाम तिविहिं इत्थी पुरिसं णपुंसगं चेव । एएसि तिण्हं पि अंतम्मि अ परूवणं वोच्छ ।।१।। तत्थ पुरिसस्स अंता आ-इ-उ ओ हवंति चत्तारि । ते चेव इत्थिआओ हवति ओकार परिहीणा ॥२॥
१. चउणामे चउन्विहे पएणत्ते । तं जहा-( १ ) प्रागमेणं ( २ ) लोवेणं
( ३ ) पयइए, (४) विगारेणं । -अणु मोगदार सुत्तं १२४ सू० ।
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प्रस्तावना
अंतिम इंतिअ - उतिअ अंताउ णपुंसगस्स बोद्धव्वा । एते स तिन्हं पि अ वोच्छामि निदंसणे एतो ॥३॥ आगारंतो 'राया' ईगारंतो गिरी अ सिहरी अ । उमारंतो विन्हू दुमो अ अंताउ पुरिसाणं ||४|| आगारंता माला ईगारंता 'सिरी' अ 'लच्छी' अ । ऊगारंता 'जंबू' 'बहू' अ अंता इत्थीणं ॥ ५ ॥ अंकारंतं 'धन्नं इंकारंतं नपुंसगं 'अस्थि' । उकारंतं पीलुं 'महुँ' च श्रंता णपुंसाणं || ६ ||
- अरणगदार सुत्त, व्यावर संस्करण सं० २०१० सूत्र १२३ ।
इसी ग्रन्थ में भावनाम के चार भेद किये हैं- समास, तद्धित, धातु और निरुक्त । समास के सात भेद बतलाये हैं" - द्वन्द्व बहुब्रीहि, कर्मधारय, द्विगु तत्पुरुष, अव्ययीभाव और एकशेष । यथा -
दंदे अ बहुबीहि, कम्मधारय दिग्गु अ । तप्पुरिस अम्बई भावे, एक्कसेसे अ सत्तमे ॥१॥
१.५०
बहुव्रीहि का उदाहरण देते हुए लिखा है - फुल्ला इमंमि गिरिम्मि कुडयकयंबा सो इमो गिरीफुल्लिय कुडुयकयंबो ।
कर्मधारय — धवलो वसहो = धवलवसहो, किहो मियो = किण्ह मियो । द्विगु-तिण्णि कड़गाणि तिकडुगं, तिथिग महुराणि तिमधुरं, तिष्णि गुणाणि = तिगुणं, सत्त गया= सत्तगयं, नवतुरंगा = नवतुरंगं ।
=
तत्पुरुष - तित्थे कागो = तित्थकागो, वणे इत्थी = वणहत्थी, वणे मयूरो
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वणमयूरो, वणे वराहो = वणवराहो, वणें महिसो वणमहिसो ।
अव्ययीभाव - अमुगामं, अणुणइयं, अणुचरियं ।
एकशेष - जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा, जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा जहा एगो साली तहा बहवे साली |
तति के आठ भेद बतलाये हैं
१. कर्म नाम - तणहारए, कट्ठहरिए, पत्तहारए, कोला लिए ।
२. शिल्प नाम - तंतुवाए, पट्टकारे, मुंजकारे, छत्तकारे, दंतकारे ।
३. सिलोक नाम - समणे, माहणे, सव्वातिही ।
४. संयोग नाम - रण्णो, ससुरए, रण्णो जामाउए, रण्णो साले ।
५. समीप नाम - गिरिसमीवे णयरं गिरिणयरं, वेन्नायड 1
२. वही सूत्र १३० ।
१. श्रणुभोगदारसुत्तं - सूत्र १३० ।
=
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६. समूह नाम-तरंगवइक्कारे, मलयवइक्कारे। ७. ईश्वरीय नाम-स्वाम्यर्थक-राईसरे, तलवरे, इन्भे, सेट्ठी। ८. अपत्य नाम-अरिहंतमाया, चक्कवट्टिमाया, रायमाया ।
कम्मे सिप्पसिलोए संजोग समीवो अ संजूहो। ___ इस्सरिक्ष अवच्चेण य तद्वितणामं तु अट्टविहं ॥ चाप उपयुक्त सन्दर्भ तद्वितान्त नामों के वर्णन के समय आया है, तो भी तद्धित प्रकरण पर इससे प्रकाश पड़ता है। इन्हें कर्मार्थक, शिल्पार्थक, संयोगार्थक, समूहार्यक, अपत्यार्थक आदि रूप में ग्रहण करना चाहिए।
___ इस ग्रन्थ में आठों विभक्तियों का उल्लेख है तथा ये विभक्तियां किस-किस अर्थ में होती हैं, इसका भी निर्देश किया गया है।
निदेसे पढमा होइ, बित्तिया उवएसणे । तइया करणम्मि कया, चउत्थी संपयावणे ॥१॥ पंचमी अ अवायाणे, छट्ठी सस्सामिवायणे । सत्तमी सण्णिहाणत्थे, अट्ठमाऽऽमंतणी भवे ॥२॥
-प्रणुप्रोगदार सुत्त, सू० १२८ । अर्थात-निर्देश-क्रिया का फल कर्ता में रहने पर प्रथमा विभक्ति होती है। यथा--- स, मो, अहं आदि प्रथमान्त रूप हैं। उपदेश में-क्रिया के द्वारा कर्ता जिसको सिद्ध करना चाहता है, द्वितीया विभक्ति होती है। यथा-भण कुणसु इम व तं व आदि। करण अर्थ में तृतीया विभक्ति होती है। यथा तेण कयं, मए वा कयं आदि । स-प्रदान में चतुर्थी और अपादान में पंचमी विभक्ति होती है। स्वामिस्वामित्व भाव में षष्टी, सन्निधानार्थ-अधिकरणार्थ में सप्तमी और आमन्त्रण-सम्बोधन में अष्टमी विभक्ति होती है।
इस प्रकार प्राकृत भाषा में लिखित शब्दानुशासन सम्बन्धी सिद्धान्त पाये जाते हैं। संस्कृत भाषा में लिखित प्राकृत व्याकरण
संस्कृत भाषा में लिखे गये प्राकृत भाषा के अनेक शब्दानुशासन उपलब्ध हैं। भरत मुनि का नाट्यशास्त्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसके १७ वें अध्याय में विभिन्न भाषाओं का निरूपण करते हुए ६-२३ वें पद्य तक प्राकृत व्याकरण के सिद्धान्त बतलाये हैं और ३२वें अध्याय में उदाहरण प्रस्तुत किये हैं । पर भरत के ये अनुशासन सम्बन्धी सिद्धान्त इतने संक्षिप्त और अस्फुट हैं कि इनका उल्लेखमात्र इतिहास के लिए ही उपयोगी है। प्राकृतलक्षण
कुछ विद्वान् पाणिनि का प्राकृतलक्षण नाम का प्राकृत व्याकरण बतलाते हैं। डा० पिशल ने भी अपने प्राकृत व्याकरण में इस ओर संकेत किया है, पर यह मन्थ न
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प्रस्तावना
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तो आजतक उपलब्ध ही हुआ है और न इसके होने का ही कोई सबल प्रमाण मिला है । उपलब्ध शब्दानुशासनों में वररुचि के प्राकृतप्रकाश को कुछ विद्वान् प्राचीन मानते हैं और कुछ चण्डकृत प्राकृतलक्षण को । प्राकृतलक्षण संक्षिप्त रचना है । इसमें प्राकृत सामान्य का जो अनुशासन किया गया है, वह प्राकृत अशोक की धर्मलिपियों की भाषा और वररुचि द्वारा प्राकृतप्रकाश में अनुशासित प्राकृत के बीच की प्रतीत होती है । इस शब्दानुशासन के मत से मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का लोप नहीं होता है, वे वर्तमान रहते हैं। वर्ग के प्रथम वर्णों में केवल क और तृतीय वर्णों में ग के लोप का विधान मिलता है । मध्यवर्ती च, ट, त, और प वर्ण ज्यों के त्यों रह जाते हैं । भाषा की यह प्रवृत्ति महाकवि अश्वघोष और भास के नाटकों में पायी जाती है । अत: प्राकृतलक्षण का रचनाकाल ईस्वी सन् द्वितीय तृतीय शती मानने में कोई बाधा नहीं आती है ।
में
इस ग्रन्थ में कुल सूत्र ९९ या १०३ हैं और चार पादों में विभक्त हैं। आरम्भ प्राकृत शब्दों के तीन रूप - तद्भव, तत्सम और देशज बतलाये हैं। तीनों लिङ्ग और विभक्तियों का विधान संस्कृत के समान ही पाया जाता है । प्रथम पाद के दवें सूत्र
अन्तिम ३५ वें सूत्र तक संज्ञाओं और सर्वनामों के विभक्तिरूपों का निरूपण किया है । द्वितीयपाद के २९ सूत्रों में स्वर-परिवर्तन, शब्दादेशों एव अव्ययों का कथन किया गया है । पूर्वकालिक क्रिया के रूपों में तु, त्ता, च, ह, तु, तूण, ओ एवं प्पि प्रत्ययों को जोड़ने का नियमन किया हैं। तृतीय पाद के ३५ सूत्रों में व्यञ्जनपरिवर्तन के नियम दिये गये हैं । चतुर्थ पाद में केवल चार सूत्र ही हैं, इनमें अपभ्रंश का लक्षण, अधोरेफ का लोप न होना, पैशाची की प्रवृत्तियाँ, मागधी की प्रवृत्ति र और स् के स्थान पर लू और शू का आदेश एवं शौरसेनी में तू के स्थान पर बिकल्प से दू का आदेश किया
है 1
गया
प्राकृत प्रकाश
चण्ड के उत्तरवर्ती समस्त प्रावृत्त वैयाकरणों ने रचनाशैली और विषयानुक्रम की दृष्टि से प्राकृतलक्षण का अनुकरण किया है । चण्ड के पश्चात् प्राकृत शब्दानुशासकों में वररुचि का नाम आदर के साथ लिया जा सकता है । प्राकृतमंजरी की भूमिका में वररुचि का गोत्र नाम कात्यायन कहा गया हैं । डा० पिल अनुमान किया था कि प्रसिद्ध वार्त्तिककार कात्यायन और वररुचि दोनों एक व्यक्ति हैं; किन्तु इस कथन की पुष्टि के लिए एक भी सबल प्रमाण उपलब्ध नहीं है । एक वररुचि कालिदास के समकालीन भी माने जाते हैं, जो विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे । प्रस्तुत प्राकृतप्रकाश चण्ड के पीछे का है, इसमें कोई सन्देह नहीं । प्राकृत भाषा का शृङ्गार काव्य के लिए प्रयोग ईस्वी सन् की प्रारम्भिक शतियों के पहले ही होने लगा था। हाल कवि ने गाथासप्तशती
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
में : ८४ प्राकत कवियों की रचनाओं का संकलन किया है । याकोबी का मत है कि महाराष्ट्री प्राकत का व्यापक प्रयोग ईस्वी तीसरी शताब्दी के पहले ही होने लगा था। अतः प्राकृतप्रकाश में वर्णित अनुशासन पर्याप्त प्राचीन है अतएव वररुचि को कालिदास का समकालीन मानना अनुचित नहीं है।
प्राकृत प्रकाश में कुल ५०९ सूत्र हैं । भामहवृत्ति के अनुसार ४८७ और चन्द्रिका टीका के अनुसार ६०९ सूत्र उपलब्ध हैं। प्राकतप्रकाश की चार प्राचीन टीकाएँ उपलब्ध हैं
१. मनोरमा-इस टीका के रचयिता भामह हैं । २. प्राकृतमअरी-इस टीका के रचयिता कात्यायन नामक विद्वान हैं। ३. कृतसंजीवनी-यह टीका वसन्तराज द्वारा लिखित है।
४. सुबोधिनी-यह टीका सदानन्द द्वारा विरचित है और नवम परिच्छेद के नवम सूत्र की समाप्ति के साथ समाप्त हुई है।
___ इस ग्रन्ध में बारह परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में स्वर विकार एवं स्वरपरिवर्तन के नियमों का निरूपण किया गया है। विशिष्ट-विशिष्ट शब्दों में स्वरसम्बन्धी जो विकार उत्पः हाते हैं, उनका ४४ सूत्रों में विवेचन किया गया है। दूसरे परिच्छेद का आर. मध वर्ती व्यजनों के लोप से होता है। मध्य में आनेवाले क, ग, च, ज, त, द, प, 4 और व का लोप विधान किया है। तीसरे सूत्र से विशेष, विशेष शब्दों के असंयुक्त व्यजनों के लोप एवं उनके स्थान पर विशेष व्यञ्जनों के आदेश का नियमन किया गया है। यह प्रकरण अन्तिम ४७वे सूत्र तक चला है। तीसरे परिच्छेद में संयुक्त व्यञ्जनों के लोप, विकार एवं परिवर्तनों का निरूपण है। इस परिच्छेद में ६६ सूना है और सभी सूत्र विशिष्ट-विशिष्ट शब्दों में संयुक्त व्यञ्जनों के परिवर्तन का निर्देश करते हैं। चौथे परिच्छेद में ३३ सूत्र हैं, इनमें संकीर्णविधि-निश्चित शब्दों के अनुशासन वर्णित हैं। इस परिच्छेद में अनुकारी, विकारी और देशी इन तीनों प्रकार के शब्दों का अनुशासन आया है। पाचवें परिच्छेद के ४७ सूत्रों में लिङ्ग और विभक्ति-आदेश वाणत है। छठव परिच्छेद में ६४ सूत्र हैं, इन सूत्रों में सर्वनामविधि का निरूपण है अर्थात् सर्वनाम शब्दों के रूप एवं उनके विभक्ति प्रत्यय निर्दिष्ट किये गये हैं। सप्तम परिच्छेद में तिङन्त विधि है, धातुरूपों का अनुशासन संक्षेप में लिखा गया है। इसमें कुल ३४ सूत्र हैं। अष्टम परिच्छेद में धात्वादेश निरूपित है। इसमें कुल ७१ सूत्र हैं । संस्कृत की किस धातु के स्थान पर प्राकृत में कौन सी धातु का आदेश होता है, इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। प्राकृत भाषा का यह धात्वादेश सम्बन्धी प्रकरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। नौवां परिच्छेद निपात का है। इसमें अव्ययों के अर्थ और प्रयोग दिये गये है। इस परिच्छेद में १८ सूत्र हैं। दसवें परिच्छेद में पैशाची भाषा का अनुशासन है। इसमें १४ सूत्र हैं। ग्यारहवें परिच्छेद में मागधी
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प्रस्तावना
प्राकृत का अनुशासन वर्णित है। इसमें कुल १७ सूत्र हैं। बारहवां परिच्छेद शौरसेनी प्राकृत के नियमन का है। इसमें ३२ सूत्र हैं और इनमें शौरसेनी प्राकृत को विशेषताएँ वर्णित हैं। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर अवगत हाता है कि वररुचि ने चण्ड का अनुसरण किया है। चण्ड द्वारा निरूपित विषयों का विस्तार अवश्य इस ग्रन्ध में पाया जाता है। अतः शैली और विषय विस्तार के लिये वररुचि पर चएड का ऋण मान लेना अनुचित नहीं कहा जायगा।
इस सत्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि भाषा ज्ञान की दृष्टि से वररुचि का प्राकत प्रकाश बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संस्कत भाषा की ध्वनियों में किस प्रकार के ध्वनि-परिवर्तन होने से प्राकृत भाषा के शब्दरूप गठित हैं, इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया गया है। उपयोगिता की दृष्टि से यह ग्रन्थ प्राकत अश्वेताओं के लिये ग्राह्य है। सिद्धहेम शब्दानुशासन
- इस व्याकरण में सात अध्याय संस्कृत शब्दानुशासन पर हैं और आठ अध्याय में प्राकृत भाषा का अनुशासन लिखा गया है। यह प्राकृत व्याकरण उपलब्ध समस्त प्राकृत व्याकरणों में सबसे अधिक पूर्ण और व्यवस्थित है । इसके ४ पाद हैं । प्रथम पाद में २७१ सून हैं। इनमें सन्धि, व्यञ्जनान्त शब्द, अनुस्वार, लिङ्ग, विसर्ग, स्वर-व्यत्यय
और व्यञ्जन-व्यत्यय का विवेचन किया गया है। द्वितीय पाद के २१८ सूत्रों में संयुक्त व्यञ्जनों के परिवर्तन, समीकरण, स्वरभक्ति, वर्णविपर्यय, शब्दादेश, तद्धित, निपात और अव्ययों का निरूपण है। तृतीय पाद में १८२ सूत्र हैं, जिनमें कारक विभक्तियों तथा क्रियारचनासम्बन्धी नियमों का कथन किया गया है। चौथे पाद में ४४८ सूत्र हैं। आरम्भ के २६९ सूत्रों में धात्वादेश और आगे क्रमशः शौरसेनी, मागधी, पैशाची. चूलिका पैशाची और अपभ्रंश भाषाओं को विशेष प्रवृत्तियों का निरूपण किया गया है । अन्तिम दो सूत्रों में यह भी बतलाया गया है कि प्राकत में उक्त लक्षणों का व्यत्यय भी पाया जाता है तथा जो बात यहां नहीं बतलायी हैं, उसे संस्कृतवत् सिद्ध समझना चाहिए। सूत्रों के अतिरिक्त वृत्ति भी स्वयं हेम की लिखी है। इस वृक्ति में सूत्र गत लक्षणों को बड़ी विशदता से उदाहरण देकर समझाया गया है।
___ आचार्य हेम ने प्राकृत शब्दों का अनुशासन संस्कृत शब्दों के रूपों को आदर्श मानकर किया है। हेम के मत से प्राक्त शब्द तीन प्रकार के हैं—तत्सम, तद्भव
और देशी। तत्सम और देशी शब्दों को छोड़ शेष तद्भव शब्दों का अनुशासन इस ध्याकरण द्वारा किया गया है। ____ आचार्य हेम ने 'आर्षम्' ८१११३ सूत्र में आर्ष प्राकृत का नामोल्लेख किया है और बतलाया है कि 'आषं प्राकृतं बहुलं भवति, तदपि यथास्थानं दर्शयिष्यामः ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण आणे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते” अर्थात् अधिक प्राचीन प्राकृत आर्ष-आगमिक प्राकृत में प्राकृत के नियम विकल्प से प्रवृत्त होते हैं ।
हेम का प्राकृत व्याकरण रचना शैली और विषयानुक्रम के लिए प्राकृतलक्षण और प्राकृतप्रकाश का अभारी है। पर हेम ने विषय विस्तार में बड़ी पटुता दिखलायी है। अनेक नये नियमों का भी निरूपण किया है। ग्रन्थन शैली भी हेम की चण्ड और वरुचि की अपेक्षा परिष्कृत है। चूलिका पैशाची और अपभ्रंश का अनुशासन हेम का अपना है। अपभ्रंश भाषा का नियमन ११८ सूत्रों में स्वतन्त्र रूप से किया है। उदाहरणों में अपभ्रंश के पूरे दोहे रद्धत कर नष्ट होते हुए विशाल साहित्य का संरक्षण किया है। इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य हेम के समय में प्राकृत भाषा का बहुत अधिक विकास हो गया था और उसका विशाल साहित्य विद्यमान था। अतः उन्होंने व्याकरण की प्राचीन परम्परा को अपनाकर भी अनेक नये अनुशासन उपस्थित किये हैं। त्रिविक्रमदेव का प्राकृत शब्दानुशासन
जिस प्रकार आचार्य हेम ने सर्वाङ्गपूर्ण प्राकृत शब्दानुशासन लिखा है, उसी प्रकार त्रिविक्रमदेव ने भी। इनकी स्वोपज्ञवृत्ति और सूत्र दोनों ही उपलब्ध हैं। इस शब्दानुशासन में तीन अध्याय और प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं, इस प्रकार कुल बारह पादों में यह शब्दानुशासन पूर्ण हुआ है। इसमें कुल सूत्र १०३६ हैं। त्रिविक्रमदेव ने हेम के सूत्रों में ही कुछ फेर-फार करके अपने सूत्रों की रचना की है। विषयानुक्रम हेम का ही है। इ, दि, स और ग आदि संज्ञाएँ त्रिविक्रम की नयी है, पर इन संज्ञाओं से विषयनिरूपण में सरलता की अपेक्षा जटिलता ही उत्पन्न हो गयी है। इस व्याकरण में देशी शब्दों का वर्गीकरण कर हेम की अपेक्षा एक नयी दिशा की सूचना दी है। यद्यपि अपभ्रंश के उदाहरण हेम के ही हैं, पर संस्कृत छाया देकर इन्होंने अपभ्रंश के दोहों को समझने में पूरा सौर्य प्रदर्शित किया है।
त्रिविक्रम ने अनेकार्थक शब्द भी दिये हैं। इन शब्दों के अवलोकन से तात्कालिक भाषा की प्रवृत्तियों का परिज्ञान तो होता ही हैं, पर इससे अनेक सांस्कृतिक बातों पर भी प्रकाश पड़ता है। यह प्रकरण हेम की अपेक्षा विशिष्ट है इनका यह कार्य शब्द शासक का न होकर अर्थशासक का हो गया है। षड्भाषाचन्द्रिका
लक्ष्मीधर ने त्रिविक्रमदेव के सूत्रों का प्रकरणानुसारी संकलन कर अपनी नयी वृत्ति लिखी है। इस संकलन का नाम ही षड्भाषाचन्द्रिका है। इस संकलन में सिद्धान्तकौमुदी का क्रम रखा गया है। उदाहरण सेतुबन्ध, गउडवहो, गाहासत्तसई, कप्पूरमंजरी आदि ग्रन्थों से दिये गये हैं । लक्ष्मीधर ने लिखा है- .
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प्रस्तावना
वृत्ति त्रैविक्रमीं गूढां व्याचिख्यासन्ति ये बुधाः । षड्भाषाचन्द्रिका तैस्तद् व्याख्यारूपा विलोक्यताम् ॥
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अर्थात् - जो विद्वान् त्रिविक्रम की गूढ वृति को समझना और समझाना चाहते हैं, वे उसकी व्याख्यारूप षड्भाषाचन्द्रिका को देखें ।
प्राकृत भाषा की जानकारी प्राप्त करने के लिए षड्भाषाचन्द्रिका अधिक उपयोगी है। इसकी तुलना हम भट्टोजिदीक्षित की सिद्धान्तकौमुदी से कर सकते हैं ।
प्राकृतरूपावतार
fatosमदेव के सूत्रों को ही लघुसिद्धान्त कौमुदी के ढंग पर संकलित कर सिंहराज ने प्राकृतरूपावतार नामक व्याकरण ग्रन्थ लिखा है। इसमें संक्षेप में सन्धि, शब्दरूप, धातुरूप, समास, तद्धित आदि का विचार किया है। व्यावहारिक दृष्टि से आशुबोध कराने के लिए यह व्याकरण उपयोगी है। हम सिंहराज की तुलना वरदाचार्य से कर सकते हैं
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प्राकृतसर्वस्व
मार्कण्डेय का प्रातसर्वस्व एक महत्त्वपूर्ण व्याकरण है। इसका रचनाकाल १५ वीं शती है । मार्कण्डेय ने प्राकृत भाषा के भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाची— ये चार भेद किये हैं । भाषा के महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी; विभाषा के शाकारी, चाण्डाली, शावरी, आभीरिकी और शाक्की; अपभ्रंश के नागर, ब्राचड और उपनागर एवं पैशाची के कैकयी, शौरसेनी और पांचाली आदि भेद किये हैं ।
मार्कण्डेय ने आरम्भ के आठ पादों में महाराष्ट्री प्राकृत के नियम बतलाये हैं । इन नियमों का आधार प्रायः वररुचि का प्राक्तप्रकाश ही है । ९ वें पाद में शौरसेनी के नियम दिये गये हैं। दसवें पाद में प्राच्या भाषा का नियमन किया गया है । ११ अवन्ती और वाह्रीकी का वर्णन । १२ वें में मागधी के नियम बतलाये गये हैं, इनमें अर्धमागधी का भी उल्लेख है । ९ से १२ तक के पादों का भाषाविवेचन नाम का एक अलग खण्ड माना जा सकता है । १३ वें से १६ वें पाद तक विभाषा का नियमन किया है । १७वें और १८वें में अपभ्रंश भाषा का तथा १९वें और २०वें पाद में पैशाची भाषा के नियम दिये हैं। शौरसेनी के बाद अपभ्रंश भाषा का नियमन करना बहुत ही तर्कसंगत है।
ऐसा लगता है कि हेम ने जहाँ पश्चिमीय प्राकृत भाषा की प्रवृत्तियों का अनुशासन उपस्थित किया है, वहां मार्कण्डेय ने पूर्वीय प्राकृत की प्रवृत्तियों का नियमन प्रदर्शित किया है ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण इन व्याकरण ग्रन्थों के अतिरिक्त रामतर्कवागीश का 'प्राकृतकल्पतरु' शुभचन्द का शब्दचिन्तामणि, शेषकष्ण का प्राकत चन्द्रिका और अप्पय दीक्षित का 'प्राकृतमणिदीप' भी अच्छे ग्रन्थ हैं। ___आधुनिक प्राकत व्याकरणों में ए० सी० वुल्नर का 'इण्टोडक्शन टु प्राक्त' ( १९३६ सन् ), दिनेशचन्द्र सरकार का 'ए ग्रामर ऑव दि प्राकृत लैंग्वेज (१९४३ सन् ), ए० एन० घाटगे का 'एन इण्ट्रोडक्शन टु अर्धमागधी' ( १९४० सन् ), होएफर का 'डे प्राकृत डिआलेक्टो लिनि दुओ' ( बलिन १८३६ सन् ), लास्सन का 'इन्स्टीट्यूसीओनेस लिगुआए प्राकृतिकाए' (बौन ई० १८३९ ), कौवे का 'ए शौर्ट इण्ट्रोडक्शन टु द ऑर्डनरी प्राकृत ऑव द संस्कृत ड्रामाज विथ ए लिस्ट ऑव कॉमन् इरेगुलर प्राकृत वर्डस्' ( लन्दन ई० १८७५ ) हृषीकेश का 'ए प्राक्त ग्रामर विथ इंगलिश टान्सलेशन ( कलकत्ता ई० १८८३ ) रिचर्ड पिशल का 'प्राकृत भाषाओं का ध्याकरण' ( पटना ई० १९५८ ) पं० वेचरदास दोशी का 'प्राकृत व्याकरण' (अहमदाबाद ई० १९२५ ; डा. सरयूप्रसाद अग्रवाल का 'प्राकृत विमर्श' ( १९५३ ई० ) आदि उपयोगी ग्रन्थ हैं। इन्हीं प्राचीन और नवीन ग्रन्थों से सामग्री ग्रहण कर 'अभिनव प्राकृत व्याकरण' लिखा गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ
उपयुक्त व्याकरण ग्रन्थों के रहने पर भी सर्वाङ्गापूर्ण प्राकृत व्याकरण की आवश्यकता बनी हुई थी, ऐसा एक भी प्राकत व्याकरण नहीं, जिसका अध्ययन कर जिज्ञासु ध्याकरण सम्बन्धी समस्त अनुशासनों को अवगत कर सके। हां, दस-पांच ग्रन्थों को मिलाकर अध्ययन करने पर भले ही विषय की पूर्ण जानकारी प्राप्त की जा सके, पर एक ग्रन्थ के अध्ययन से यह संभव नहीं है। अतएव संस्कृत व्याकरण 'सिद्धान्त कौमुदी' की शैली के आधार पर प्रस्तुत व्याकरण ग्रन्थ लिखा गया है। इस ग्रन्थ में निम्न विशेष दृष्टिकोण उपलब्ध होंगे :
(१) सन्धि और समास के उदाहरणों में विभिन्न प्राकृत भाषाओं के पदों को रखा गया है। इनके अवलोकन से इस प्रकार की आशंका का होना स्वाभाविक है कि सामान्य प्राकृत से लेखक का क्या अभिप्राय है ? उदाहरणों में अनेकरूपता रहने से सन्धि और समास के नियम किस प्राकृत भाषा के हैं ? इस आशंका के निराकरण हेतु हमारा यही निवेदन है कि सन्धि और समास के नियम सभी प्राकृतों में समान हैं। जो नियम महाराष्ट्री प्राकृत में लागू होते हैं, वे ही अर्धमागधी या अन्य प्राकृत भाषाओं में भी। अत: सन्धिप्रकरण और समासप्रकरण में महाराष्ट्री, अर्धमागधी और शौरसेनी के उदाहरण मिलेंगे; यत: विभिन्न प्राकृतों के अनुशासन में ध्वनि और वर्णविकार सम्बन्धी अन्तर ही सबसे प्रधान है। कृत प्रत्यय और तद्धित प्रत्यय सम्बन्धी
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प्रस्तावना
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विशेषताएँ भी पायी जाती हैं। शेष बातें समस्त प्राकृतों में प्राय: समान रहती हैं । उदाहरणार्थ दीर्घसन्धि जिन परिस्थितियों में महाराष्ट्री प्राकृत में होती है उन्हों परिस्थितियों में अर्धमागधी भाषा में भी । अतएव सामान्य प्राकृत से महाराष्ट्री प्राकृत का ग्रहण होने पर भी सन्धि, समास और स्त्रीप्रत्यय प्रकरण के उदाहरणों में समान नियमों से अनुशासित होनेवाले अर्धमागधी और महाराष्ट्री भाषाओं के उदाहरण संकलित हैं ।
( २ ) पद, वाक्य, सन्धि, समास, स्त्री प्रत्यय, कृत्, तद्धित आदि की परिभाषाएँ दी गयी हैं । इन परिभाषाओं में संस्कृत व्याकरण सरणि की गन्ध पायी जा सकती है । पर इस तथ्य को सदा ध्यान में रखना चाहिए कि किसी भी प्राच्य भाषा के अनुशासन प्रसंग में उक्त परिभाषाएँ वे ही रहेंगी, जो संस्कृत में हैं । यतः संस्कृत व्याकरण har सर्वाधिक प्रभाव अन्य भारतीय भाषाओं के व्याकरण ग्रन्थों पर है ।
( ३ ) स्त्रीप्रत्यय और कारक के नियम संस्कृत व्याकरण के आधार पर ही प्रस्तुत व्याकरण में निबद्ध किये गये हैं । प्रत्ययों के रूप भी संस्कृत व्याकरण के समान ही हैं । ( ४ ) जितने प्राकृत व्याकरण उपलब्ध हैं, उनसे तभी कोई व्यक्ति अनुशासन सम्बन्धी नियमों की जानकारी प्राप्त कर सकता है, जब संस्कृत व्याकरण की जानकारी हो। संस्कृत व्याकरण की जितनी अच्छी जानकारी रहेंगी, उक्त व्याकरण ग्रन्थों से प्राकृत भाषा सम्बन्धी अनुशासनों को उतने ही व्यापक और गम्भीर रूप में अवगत कर सकेगा । पर इस व्याकरण में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि कोई भी व्यक्ति अन्य भाषा के व्याकरण को जाने बिना भी मात्र इस व्याकरण ग्रन्थ के अध्ययन से प्राकृत भाषा के अनुशासन सम्बन्धी समस्त नियमों को जान जाये ।
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( ) इस व्याकरण में स्त्रीप्रत्यय, कारक, शब्दरूप, धातुरूप, कृदन्त, तद्धित एवं धातुकोष विस्तृत रूप में दिये गये हैं । ये प्रकरण इतने व्यापक रूप में अन्य किसी व्याकरण प्रन्थ में उपलब्ध नहीं हो सकेंगे ।
( ६ ) शौरसेनी, जैन शौरसेनी, मागधी, अर्धमागधी, जैन महाराष्ट्री, पैशाची, चूलिका पैशाची एवं अपभ्रंश भाषा का अनुशासन भी दिया गया है, जिससे महाराष्ट्री के सिवा अन्य भाषाओं की प्रवृत्तियों की जानकारी भी प्राप्त की जा सकती है ।
(७) पाद-टिप्पणियों में हेम, वररुचि और त्रिविक्रम के सूत्र भी दिये गये हैं, जिससे अनुशासन सम्बन्धी नियमों को हृदयंगम करने में सरलता रहेगी ।
( ८ ) परिशिष्टों में उदाहरण शब्दानुक्रमणिका के साथ विभिन्न प्रयोगसूचियां दी गयीं हैं, जिनसे पाठकों को प्राकृत भाषा के अध्ययन में सरलता प्राप्त होगी ।
( 2 ) इस शब्दानुशासन में एक विशेषता और उपलब्ध होगी कि जिस विषय को उठाया है, उसका अनुशासन सभी दृष्टिकोणों से पूर्णरूपेण उपस्थित किया है। जहां
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
तक हमारा विश्वास है इस एक व्याकरण के अध्ययन के उपरान्त अन्य व्याकरणों की जानकारी की अपेक्षा नहीं रहेगी। मध्यकालीन आर्यभाषाओं की प्रमुख प्रवृत्तियों के साथ आधुनिक आर्यभाषाओं की उत्पत्ति के बीज सिद्धान्तों को भी जाना जा सकेगा।
( १० ) भाषाविज्ञान के अनेक सिद्धान्त भी इस व्याकरण में समाविष्ट हैं । स्वरलोप, व्यञ्जनलोप, स्वरागम, व्यञ्जनागम, स्वर-व्यञ्जन-विपर्यय, समीकरण, विषमोकरण, घोषीकरण, अघोषीकरण, अभिश्रुति, अपश्रुति और स्वरभक्ति के नियम इसमें अन्तहित हैं। अत: भाषाविज्ञान के अध्ययनार्थियों के लिए इस व्याकरण की उपयोगिता कम नहीं है। आभार
इस व्याकरण को लिखने की प्रेरणा श्री भाई विनयशंकर जी, तारा पब्लिकेशन्स, वाराणसी एवं मित्रवर डा० राममोहनदास जी एम० ए०, पी-एच० डी० आरा से प्राप्त हुई है। आप दोनों के आग्रह से यह कृति एक वर्ष में लिखकर पूर्ण की गयी है, अत: मैं उक्त दोनों भाइयों के प्रति हृदय से कृतज्ञता ज्ञापन करता हूँ।
___ आदरणीय डा० एन. टाटिया, निर्देशक प्राकृत जैन विद्यापीठ, मुजफ्फरपुर ने विषयसम्बन्धी सुझाव दिये हैं, जिनके लिए उनका आभारी हूँ। उदाहरणानुक्रमणिका एवं प्रयोगसूची तैयार करने में प्रिय शिष्य श्री सुरेन्द्रकुमार जैन ने अथक श्रम किया है, अत: उन्हें हृदय से आशीर्वाद देता हूँ। भाई प्रो. राजारामजी तथा स्वामी द्वारिकानाथ शास्त्री, व्याकरण-पालि-बौद्धदर्शनाचार्य, वाराणसी से प्रूफ-संशोधन में सहयोग प्राप्त होता रहा है, अत: उनके प्रति भी आभारी हूँ।
उन समस्त ग्रन्थकारों का भी आभारी हूँ , जिनकी रचनाओं के अध्ययन से प्रस्तुत प्राकृत व्याकरण सम्बन्धी सामग्री ग्रहण की गयी है।
भूलों का रहना स्वाभाविक है, अत: त्रुटियों के लिए क्षमायाचना करता हूँ।
एच० डी० जैन कालेज, पारा )
(मगध विश्वविद्यालय) नावरण, वीर नि० सं० २४८६ ।
नेमिचन्द्र शास्त्री
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
पहला अध्याय
वर्ण-विचार और संज्ञाएँ भाषा की मूल ध्वनियों तथा उन ध्वनियों के प्रतीक स्वरूप लिखित चिह्नों को वर्ण कहते हैं। प्राकृत की वर्णमाला संस्कृत की अपेक्षा कुछ भिन्न है। ऋ, ल, ऐ और औ स्वर प्राकृत में ग्रहण नहीं किये गये हैं। व्यंजनों में श, ष और स इन तीन वर्षों में से केवल स का ही प्रयोग मिलता है। न का प्रयोग विकल्प से होता है। अत: प्राकृत की वर्णमाला में निम्न वर्ण पाये जाते हैं।
स्वर-जिन वर्णों के उच्चारण में अन्य वर्गों की सहायता अपेक्षित नहीं होती, वे स्वर कहलाते हैं । प्राकृत में स्वर दो प्रकार के हैं-हस्व और दीर्घ ।
अ, इ, उ, ए, ओ ( ह्रस्व )। आ, ई, ऊ, ऐ, औ ( दीर्घ )।
व्यंजन-जिन वर्गों के उच्चारण करने में स्वर वर्णों की सहायता लेनी पड़ती है, वे व्यंजन कहलाते हैं। प्राकृत में व्यंजनों की संख्या ३२ है ।
क ख ग घ ङ (कवर्ग) च छ ज झ ज (चवर्ग) ट ठ ड ढ ण (टवर्ग) त थ द ध न (तवर्ग) प फ ब भ म (पवर्ग) __य र ल व (अन्तःस्थ)
स ह (ऊष्माक्षर)
(अनुस्वार ) अनुस्वार को भी व्यंजन माना गया है, यतः अनुस्वार म या न् का रूपान्तर है। प्राकृत में विसर्ग की स्थिति नहीं है । विसर्ग सर्वदा ओ या ए स्वर में परिवर्तित हो जाता है। असंयुक्त अवस्था में ङ और ज का व्यवहार भी नहीं पाया जाता है। अत: व्यंजन ३० हैं।
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Eio ho
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
वों के उच्चारण
कण्ठ्य -अ, आ, क, ख, ग, घ, ङ और ह का उच्चारण स्थान कंठ है। अतः ये वर्ण कला कहलाते हैं।
तालव्य- इ, ई, च, छ, ज, झ, ञ और य का उच्चारण स्थान तालु है, अत: ये वी तालव्य कहलाते हैं। .
मूर्धन्य-2, ठ, ड, ढ, ण और र का उच्चारण स्थान मूर्धा है, अतः ये वर्ण मूर्धन्य कहलाते हैं।
दन्त्य -- त, थ, द, ध, न, ल और स का उच्चारण स्थान दन्त है, अत: ये वर्ण दन्त्य कहलाते हैं।
ओष्ठ्य-उ, ऊ, प, फ, ब, भ और म का उच्चारण स्थान ओष्ठ है, अत: ये वर्ण ओष्ठ्य कहलाते हैं।
अनुनासिक-अ, म, ङ, ण, न और म का उच्चारण स्थान नासिका है, अत: ये वर्ण अनुनासिक कहलाते हैं।
ए और ए का कण्ठ-तालु, औ और ओ का कंठ-ओष्ठ, वकार का दन्तोष्ट और अनुस्वार का नासिका उच्चारण स्थान है ।
प्रयत्न विचार वर्णोचारण के लिए ध्वनियंत्र को जो आयास करना पड़ता है, उसे प्रयत्न कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है-आभ्यन्तर और बाह्य ।।
वर्णोच्चारण के पूर्व हृदय में जो आयास-प्रयत्न होता है, उसे आभ्यन्तर और मुख से ; निकलते समय जो आयास करना पड़ता है, उसे बाह्य प्रयत्न कहते हैं। आभ्यन्तर प्रयत्न का अनुभव बोलनेवाले को ही होता है, किन्तु बाह्य का अनुभव श्रोता भी करते हैं। ___आभ्यन्तर प्रयत्न पाँच प्रकार का होता है-स्पृष्ट, ईषत्स्पृष्ट, ईषद्विवृत, विवृत और संवृत।
क से म पर्यन्त वर्णो का स्पृष्ट; य, र, ल और व का ईषत्स्पृष्ट; स और ह का ईषद्विवृत औ स्वरों का विवृत प्रयत्न होता है। ह्रस्व उकार का प्रयोगावस्था-परिनिष्ठित सिकरूप, में संतृत प्रयत्न होता है; किन्तु प्रक्रिया दशा-साधनावस्था, में विवृत प्रयत्न ही रहता है।
बाह्य प्रयत्न ग्यारह प्रकार का है-विवार, संवार, श्वास, नाद, घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उदात्त, अनुदात्त और स्वरित ।
जिन वी का उच्चारण करते समय कण्ठ का विकास हो, उन्हें विवार; जिनके उच्चारण में कंठ का विकास न हो, उन्हें संवार; जिनका उच्चारण करते समय श्वास
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण चलती रहे, उन्हें श्वास: जिनका उच्चारण नाद से हो, उन्हें नाद; जिन वर्णों का उच्चारण करते समय गूंज हो, उन्हें घोष; जिनके उच्चारण में गूंज न हो, उन्हें अघोष; जिनके उच्चारण में प्राणवायु का अल्प उपयोग हो, उन्हें अल्पप्राण एवं जिनके उच्चारण में प्राणवायु का अधिक उपयोग हो, उन्हें महाप्राण कहते हैं ।
___ क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ और स का विवार, श्वास और अघोष प्रयत्न है।
ग, ज, ड, द, ब, घ, झ, ढ, ध, भ, ण, न, य, र, ल, व और ह का संवार, नाद और घोष प्रयत्न है।
वर्गों के प्रथम, तृतीय और पंचम वर्ण तथा य, र, ल, व का अल्पप्राण प्रयत्न है। वर्गों के द्वितीय, चतुर्थ वर्ण तथा स और ह का महाप्राण प्रयत्न है।।
क से म पर्यन्त पञ्चीस वर्ण स्पर्श कहलाते हैं। इनके उच्चारण में जीभ का अगला, पिछला या मध्यभाग कंठ, तालु प्रति स्थानों का स्पर्श करता है। अतः ये वर्ण स्पर्श वर्ण कहलाते हैं।
य, र, ल और व ये चार वर्ण अन्तस्थ कहलाते हैं । इनके अन्त:स्थ कहलाने का कारण यह है कि ये चारों स्पर्श और ऊष्म के मध्यवर्ती हैं।
स और ह ऊष्म वर्ण हैं। इन वर्गों के उच्चारण में अधिक वायु निकलती है, अतः ये ऊष्म कहलाते हैं। - अनुस्वार की अयोगवाह संज्ञा है।
क से म पर्यन्त जिन वर्णों को स्पर्श कहा गया है, उनके उच्चारण के लिए आनेवाला श्वास स्वरतन्त्रियों के प्रभाव से घोष या अघोष होकर आता है। अत: इन पांचों में प्रत्येक के मोटे-मोटे दो भेद हो गये-(१) घोष स्पर्श और (२) अघोष स्पर्श । अघोष स्पर्श के भी प्राणत्व के आधार पर दो भेद हैं-(१) अघोष अल्पप्राण स्पर्श और (२) अघोष महाप्राण स्पर्श । घोष स्पर्श के तीन भेद हैं-(१) घोष अल्पप्राण स्पर्श (२) घोष महाप्रण स्पर्श और (३) घोष अनुनासिक । घोष अनुनासिकों के उच्चारण में कौवा ( कण्ठपिटक ) बीच में रहता है, जिसके फलस्वरूप थोड़ी श्वास मुँह और नाक दोनों से निकलती है । अनुनासिक वर्णी के अतिरिक्त अन्य स्पर्शी के उच्चारण में कौवा नासिकाविवर को बन्द किये रहता है, अत: श्वास केवल मुँह से निकलती है।
१. वर्गाणां प्रथमतृतीयपञ्चमा यणश्वाल्पप्रारणाः । २. वर्गाणां द्वितीयचतुर्थी शलश्च महाप्राणाः । ३. कादयो मावसानाः स्पर्शाः ।
४. योऽन्तःस्थाः ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण इस प्रकार कण्ठ्य, मूर्धन्य, तालव्य, दन्त्य और ओष्ठ्य इन पांचों स्पर्श वर्गों में से प्रत्येक वर्ग के निम्न पांच भेद होते हैं
१ अघोष अल्पप्राण-क, त, प आदि। २. अघोष महाप्राण-ख, थ, फ आदि । ३. घोष अल्पप्राण-ग, ६, व आदि । ४. घोष महाप्राण-घ, ध, भ आदि।
५. अनुनासिक या घोष अल्पप्राण अनुनासिक-ङ, न, म आदि । स्व संज्ञा-जिस वर्ण का जिस वर्ण के साथ तालु आदि स्थान और आभ्यन्त र प्रयत्न एक हो, वह वर्ण स्व या सवर्ण संज्ञक होता है।'
विभक्ति संज्ञाएँ-सु आदि विभक्तियों में अन्त्य इत्संज्ञक वर्ण के साथ उच्चरित आदि वर्ण अपने तथा मध्यवर्ती वर्गों का भी बोधक होता है। जैसे प्रथमा विभक्ति में सु और जस् की सस् संज्ञा, द्वितीया विभक्ति में अम् और शस् की अस् संज्ञा, तृतीया विभक्ति में टा और भिस् की टास संज्ञा, चतुर्थी विभक्ति में 3 और भ्यस् की डेस् संज्ञा, पंचमी में सि और भ्यस् की उसिस् संज्ञा, षष्ठी में ङस् और आम् की उम् संज्ञा एवं सप्तमी में ङि और सुप की डिप् संज्ञा होती है।
ह संज्ञा-हस्व वर्गों की "ह" संज्ञा होती है। - दि संज्ञा दीर्घ वर्णो की "दि” संज्ञा होती है। स संज्ञा-समास की "स" संज्ञा होती है। शु संज्ञा-श, ष और स की "शु" संज्ञा होती है।
खु संज्ञा -आदि वर्ण की "खु” संज्ञा होती है। यथा “खोः कन्दुक-" इत्यादि में खुशब्द से आदि वर्ण का बोध होता है।
स्तु संज्ञा-दो संयुक्त व्यञ्जनों की "स्तु" संज्ञा होती है। __ग संज्ञा -गणप्रधान जो आदि शब्द होता है, उसकी "ग" संज्ञा होती है। जैसे- 'क्लीवे गुणगाः' में गुणगा शब्द गुणादि का बोधक है ।
फु संज्ञा-शब्द के द्वितीय वर्ण की “फु" संज्ञा होती है। तु संज्ञा"-विकल्प विधान की "तु" संज्ञा होती है ।
१. तुल्यस्थानस्य प्रयत्नः स्वः १।१।१७ हे०। २. सुप्स्वादिरन्त्यहला १।१।४ त्रि० । ३. हो ह्रस्वः १।१।५ त्रि० ।
४. दि दीर्घः १।१।६ त्रि० । ५. सः समासः १।१७ त्रि० ।
६. शषसाः शुः १११८ त्रि० । ७. प्रादिः वुः १।१।६ त्रि० ।
८. संयुक्तं स्तु १।१।१२ त्रि० । ६. गा गणपरः १।१।१० त्रि० । १०. द्वितीयः फु: १।१।११ त्रि० । ११. तु विकल्पे १।१।१३ त्रि० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरणे
बहुल संज्ञा-विकल्प की "बहुल" संज्ञा भी होती है। रित संज्ञा रेफ की "रित' संज्ञा होती है। लुकू संज्ञा-लोप की "लुक्" संज्ञा होती है।
उवृत्त स्वर व संज्ञा-व्यंजन घटित स्वर से व्यंजन का लोप हो जाने पर जो स्वर शेष रह जाता है, उसकी “उवृत्त स्वर" संज्ञा होती है।
२. रितो द्वित्वल १।४।८५ त्रि० ।
१. बहुलम् १।१।१७ त्रि० । ३. स्वरस्योवृत्ते ८।१।८ हे०1
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दूसरा अध्याय
सन्धि विचार प्राकृत भाषा का व्याकरण प्राकृत में ही लिखा हुआ उपलब्ध नहीं होता है । जितने भी प्राकृत वैयाकरण हैं, उन्होंने संस्कृत शब्दों में विकार के नियमों का निरूपण कर प्राकृत शब्दों की निष्पत्ति दिखलायी है। अतः यहां सन्धि के उन्हीं नियमों का विवेचन किया जायगा, जिनका प्रयोग प्राकृत साहित्य में पाया जाता है।
सन्धि-जब किसी शब्द में दो वर्ण निकट आने पर मिल जाते हैं, तो उनके मेल से उत्पन्न होनेवाले विकार को सन्धि कहते हैं ।
संयोग और सन्धि में इतना भेद है कि जहां वर्ण अपने स्वरूप से बिना किसी विकार के मिलते हैं, उसे संयोग और जहाँ विकृत होकर उनके स्थान में कोई आदेश होने से मिलते हैं, उसे सन्धि कहते हैं।
समास और सन्धि में यह अन्तर है कि समास में प्रायः दो या अधिक पद विभक्तियों का त्याग कर मिलते हैं, पर सन्धि में विभक्तियों सहित पदों का संयोग होता है । संक्षेप में वर्णविकार सन्धि है और शब्दविकार समास ।
प्राकृत में सन्धि को व्यवस्था विकल्प से होती है, नित्य नहीं। सन्धि के तीन भेद हैं-स्वर सन्धि, व्यंजन सन्धि और अव्यय सन्धि ।
स्वर सन्धि-दो अत्यन्त निकट स्वरों के मिलने से जो ध्वनि में विकार उत्पन्न होता है, उसे स्वर सन्धि कहते हैं। जैसे–मगह + अहिवई = मगहाहिवई (मगधाधिपतिः)।
व्यञ्जन सन्धि-व्यंजन वर्ण के साथ व्यंजन या स्वर वर्ण के मिलने से जो विकार होता है, उसे व्यंजन सन्धि कहते हैं; जैसे- उसभम् + अजियं = उसभमजियं (ऋषभम् ।
जितम्)। प्राकृत में विसर्ग सन्धि का कोई स्थान नहीं है; क्योंकि विसर्ग के स्थान पर ओ या ए हो जाता है।
अव्यय सन्धि-संस्कृत में इस नाम की कोई सन्धि नहीं है, पर प्राकृत में अनेक अव्यय पदों में यह सन्धि पायी जाती है । यह सन्धि दो अव्यय पदों में होती है। यथा-कि + अपि कि पि। इसमें सन्देह नहीं कि प्राकृत में अव्यय और निपात का महत्वपूर्ण स्थान है । यही कारण है कि इस सन्धि को अलग मानना पड़ता है।
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
स्वर सन्धि
प्राकृत में प्रधानतः चार प्रकार की स्वर सन्धियाँ पायी जाती हैं - दीर्घ, गुण, हस्वदीर्घं और प्रकृतिभाव या सन्धि-निषेध | वृद्धि सन्धि के भी विकृत रूप मिलते हैं ।
9
(१) दीर्घ सन्धि - हस्व या दीर्घ अ, इ और उ से उनका स्व-सवर्ण स्वर परे रहे तो दोनों के स्थान में सवर्ण दीर्घ होता है । उदाहरण-
क
अ + अ = आ-दंड + अहीसो = दंडाहीसो, दंड अहीसो (दंडाधीश:) अ + आ = आ–विसम + आयवो = विसमायवो, विसम आयवो (विषमातदः) आ + अ = आरमा + अहीणो=रमाहीणो, रमा अहीणो ( रमाधीन :) आ + आ = आ-रमा + आरामो = रमारामो, रमा आरामो (रमारामः) ण + अल्लिअइ = णाल्लिअइ
ण + आगअ = णागअ ( नागत: )
ण + आलवइ = णालवइ ( नालयति )
न + अभिजाणइ = नाभिजाणइ ( नाभिजानाति )
न + अइदूर = नाइदूर ( नातिदूरम् )
ण + अलंकिदा = णालंकिदा ( नालंकृता )
धम्मकहा + अवसान = धम्मकहावसान ( धर्मकथावसानम् ) महा + आक्खंद = महाक्खंद, महाआक्खंद ( महाकुन्दः )
बहु + उदग = बहूद्ग, बहुउद्ग ( बहूदकम् )
कअ + अवराह = कआवराह ( कृतापराध: )
आरक्ख + अधिकते = आरक्खाधिकते ( आरक्षाधिकृताम् ) जेण + अहं = जेणाहं ( येनाहं )
महाराअ + अधिराओ = महाराआधिराओ ( महाराजाधिराजः )
इह + अडवीए = इहाडवीए ( इहाव्याम् )
सहस्स + अतिरेक = सहस्सातिरेक ( सहस्रातिरेक: )
इंगिय + आगार = इंगियागार ( इंगिताकार : ) किलेस + अणल = किलेसाणल ( क्लेशानल: )
दूदिअल + अवमाण - दूदि लावमाण ( द्यूतकरावमानम् )
=
अद्द + अवरा = अहावरा ( अथापरा )
सांस + अणल = सासाणल ( श्वासानलः )
१. समानानां तेन दीर्घः १ २ ।१ हे० ।
4
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८
इस सन्धि के निषेध -
अभिनव प्राकृत व्याकरणं
अइरेग + अट्ठवास = अइरेगअट्ठवास ( अतिरेकाष्टवर्षः )
सयल + अत्थमियजियलोअ = सयल अत्थमियजियलोअ ( सकलास्तमितजीवलोक: )
सव + अत्थेषु = सव्व अत्थेसु ( सर्वार्थेषु )
सेलग जक्ख + आरुहृण = सेलग जक्खआरुहण ( शैलक यक्षारोहणम् ) ण + आणामि = ण आणामि ( न जानामि )
ण + आणासि = ण आणासि ( न जानासि ) + आणीर्यादि = ण आणीयदि ( न आनयति ) अ + आणतेण = अ आणतेण ( अजानता ) अ + आणिअ = अ आणिअ ( अज्ञात्वा )
विशेष
प्राकृत में प्रथम पद के अ और अण के स्थान पर ण आदेश होता है । यथा— अ + अणसद्दिआलोअ = णसहिआलोअ ( असोढालोक: )
अ + अणसहिअ पडिबोह = णसहिअपडिबोह ( असोदप्रतिबोध : )
अ + अणपहुप्पंत = णपहुप्पंत, णवहुत्त ( अप्रभवत् )
(ख) इ + इ = ई - मुणि + इणो = मुनीणो, मुणिइणो ( मुनीनः ) इ + ई = ई - मुणि + ईसरो = मुणीसरो, मुणि ईसरो ( मुनीश्वरः ) दहि + ईसरो = दहीसरो, दहि ईसरो ( दधीश्वर: ) ई + इ = ई—गामणी + इइहासो गामणीइहासो, गामणी इइहासो ( ग्रामणीतिहास : ) + ई = ई - गामणी + ईसरो = गामणीसरो, गामणी ईसरो ( ग्रामणीश्वर: ) पुहवी + ईस = पुहवीस ( पृथिवीश : )
--
(ग) उ + उ = ऊ—भाणु + उवज्झाओ = भाणूवज्झाओ, भाणु उवज्झाओ ( भानूपाध्याय: )
साउ + उअयं = साऊअयं, साउउअयं ( स्वादूदकम् ) उ + ऊ = ऊ – साहु + ऊसको =साहूसवो, साहु ऊसवो ( साधूत्सव : ) ऊ + उ = ऊ—बहू + उअरं = बहूअरं, बहू उअरं ( बधूदरम् ) ऊ + ऊ = ऊ – कणेरू + ऊसिअं = कणेरूसिअं, कणेरू ऊसि
( कणेरूच्छ्रतम् )
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अभिनव प्रकृत-व्याकरण (२) गुण सन्धि'- अ या आ वर्ण से परे हस्व या दीर्घ इ और उ वर्ण हों तो पूर्व
पर के स्थान में एक गुण आदेश होता है । उदाहरण(क) अ + इ = ए–वास + इसी = वासेसी, वास इसी ( व्यासर्षिः )
आ + इ = ए—रामा + इअरो = रामेअरो, रामा इअरो ( रामेतरः ) अ + ई = ए.-वासर + ईसरो = वासरेसरो, वासर ईसरो (वासरेश्वरः)
आ + ई = ए-विलया + ईसो = विलयेसो, विलयाईसो (वनितेश:) (ख) अ + उ = ओ-गूढ़ + उअरं = गूढोअरं, गूढ उअरं ( गूढोदरम् ) आ + उ = ओ-रमा + उवचिों = रमोवचिअं, रमाउवचित्रं
__ (रमोपचितम्) अ + अ = ओ-सास + ऊसासा = सासोसासा, सासऊसासा
(श्वासोच्छवासो) आ + ऊ = ओ-विज्जुला + उसु भिरं = विज्जुलोसुभिअं, विज्जुला
ऊसुंभित्रं ( विद्युदुल्लसितम्)
गुण सन्धि के अन्य उदाहरण दिसा + इभ = दिसेभ संदट + इभमा त्तिअ = संदट्टेभमो त्तित्र ( संदष्टेभमौक्तिकः ) पाअड + उरु = पाअडोरु ( प्रकटोरु:) सामा + उअ = सामोअअं ( श्यामोदकम् ) गिरि लुलिअ + उअहि = गिरिलुलिओअहि (गिरिलुलितोदधि ) महा + इसि = महेसि ( महर्षिः) राम + इसि = राएसि ( राजर्षि: ) सव्व + उउय = सव्वोउय ( सर्वतुकः ) णिच्च + उउग = णिच्चोउग ( नित्यर्तुक:) .. करिअर + उरु = करिअरोरु ( करिभोरू) अण + उ उय = अणोउय ( अनृतुकः )
१. अवर्णस्येवर्णादिनैदोदरल १।२।६ हे० ।
२. पदयोः सन्धिर्वा ८।११५–संस्कृतोक्तः सन्धिः सर्वः प्राकृते पदयोर्व्यवस्थितविभाषया भवति ।
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१०
अभिनव प्राकृत - व्याकरा
अपवाद - सन्धि निषेध
पढमसमय + उवसंत = पढमसमयउवसंत ( प्रथमसमयोपशान्त: ) आयरिय + उवज्झाप = आयरिय उवज्झाय ( आचार्योपाध्यायः ) हेट्ठिम + उवरिय = हेट्ठिमउवरिय (अधस्तोपरि )
कंठसुत्त + उरस्थ = कंठसुत्तउरत्थ ( कंठसूत्रोरस्थ : )
अप्प + उदय = अप्पउदय ( अल्पोदकम् )
दीवदिसा + उदहीणं = दीवदिसा उदहीणं ( द्वीपदिगुदधीनाम् )
सन्धि अभाव -
महा + उद्ग = महाउद्ग ( महोदकम् )
हामिग + उसभ = ईहामिगाउसभ ( ईहामृगर्षभ: ) खग्ग + उसभ = खग्गउसभ ( खंगर्षभः )
पत्रयण + उवघोयग = पवयणउवघोयग ( प्रवचनोपघातक : ) संजम + उषघाय = संजमउवघाय ( संयमोपघातः ) वसंतुस्सव + उवायण = वसंतुस्सवउवायण ( वसन्तोत्सवोपायण )
(३) विकृत वृद्धि सन्धि
१ - ए ओ से पहले; किन्तु उस ए, ओ से पहले नहीं जो संस्कृत ऐ और औ से निकले हों, अ और आ का लोप हो जाता है । अर्थात् मूल ए और ओ से परे अ और आ का लोप होता है । उदाहरण
गाम + एणी = गामेणी
व + एला = णवेला
खुड्डग + गावलि = खुड्डगेगावलि फुल्ल + एला = फुल्लेला
जाल + ओलि = जालोलि ( ज्वालावलि: )
वण + ओलि = वणोलि ( वनावलि: ) वाअ + ओलि = वाओलि ( वातावलिः ) पहा + ओलि = पहोलि ( प्रभावलि: ) उदअ + ओल्ल = उदओल्ल ( उदकाई: ) वासेण + ओल वासेणो ल्ल (वर्षा:)
=
माला + ओहड = मालोहड ( मालापहृत: )
महिअ + ओलित = मट्टिओलित्त ( मृत्तिकावलिप्तः )
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
६५
जल + ओह = जलोह ( जलौघः ) संठाण + ओसप्पिणी = संठाणोसप्पिणी ( संस्थानावसर्पिणी) गुड + ओदन = गुडोदन ( गुडौदनम् ) कररुह + ओरंप = कररुहोरंप वाअंदोलण + ओणविअ = वाअंदोलणोणविअ (वातान्दोलनावनमित) खंथुक्ख + एव = खंधुक्खेव ( स्कन्धोत्क्षेपः)
पातुक्ख + एव = पातुक्खेव ( पादोत्क्षेप:) (४) ह्रस्व दीर्घ विधान सन्धि'-प्राकृत में सामासिक पदों में हस्व का दीर्घ और दीर्घ का हस्व होता है। इस हस्व या दीर्घ के लिए कोई निश्चित नियम नहीं है। यह हस्व स्वर का दीर्घ और दीर्घ स्वर का ह्रस्व विधान कभी बहुल-विकल्प से और कभी नित्य होता है । यथा-- ह्रस्व स्वर का दीर्घ
अन्त+ई = अन्तावेई (अन्तर्वैदिः) सत्त + वीसा = सत्तावीसा (सप्तविंशतिः) पह + हरं = पईहरं, पइहरं (पतिगृहम्) वारि + मई = वारीमई, वारिमई (वारिमती) भुअ + यंत=भुआयंतं, भुअयंतं (भुजायन्त्रम्)
वेलु + वणं = वेलूवणं, वेलुवणं ( वेणुवनम् ) दीर्घ स्वर का ह्रस्व
जउँणा + यडं = जउँणयडं, जउँणायडं ( यमुनातटम् ) नई + सोत्तं = नइसोत्तं, नईसोत्तं (नदीस्रोत:) मणा + सिला = मणसिला, मणासिला (मन:शिला) गोरी + हरं = गोरिहरं, गोरीहरं ( गौरीगृहम् ) बहू + मुहं - बहुमुहं, बहूमुहं (बधू मुखम् )
सिला + खलिअं = सिलखलिश्र, सिलाखलिअं (शिलास्खलितम् ) (५) प्रकृतिभाव सन्धि–सन्धि कार्य के न होने को प्रकृति-भाव कहते हैं । प्राकृत में संस्कृत की अपेक्षा सन्धि निषेध अधिक मात्रा में पाया जाता है। अतः यहाँ इस सन्धि के आवश्यक नियमों का विवे वन किया जायगा ।
१. दीर्घह्रस्वौ मिथो वृत्तौ ८।१।४-वृत्तौ समासे स्वराणां दीर्घह्रस्वौ बहुलं भवतः । मिथः परस्परम् । तत्र ह्रस्वस्य दीर्घः ।..--.
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१२
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
१
(१) इ और उ का विजातीय स्वर के साथ सन्धि कार्य नहीं होता ।' जैसेपहावलि + अरुणो = पहावलिअरुणो ( प्रभावल्यरुण:)
बहु + अवऊढो = वहुअवऊढो (बध्ववगूढः )
न वेरिवग्गे वि + अवयासो = न वेरिवग्गे वि अवयासो ( न वैरिवर्गेऽप्यवकाशः) दणु + इन्दरुहिर लित्तो = दणुइन्दरुहिरलित्तो ( दनुजेन्द्ररुधिर लिसः)
वि + अ = विअ (इव)
महु + हूँ = महुइँ (मधूनि )
वन्दामि + अज्जवइरं = वन्दामि अज्जवइरं
(२) ए और ओ के आगे यदि कोई स्वर वर्ण हो तो उनमें सन्धि नहीं होती है । यथा
२
रुक्खादो + आअओ = रुक्खादो आअओ ( वृक्षादागत: )
वगे + अडइ = वणे अडइ ( वनेऽति)
लच्छीए + आणंदो = लच्छीएआणंदो (लक्ष्म्या आनन्दः )
देवीए + एत्थ = देवीएएत्थ (देव्या अन्न)
एओ + एत्थ = एओएत्थ ( एकोन)
वहुआइनहुलिहणे + आबन्धतीएँ कञ्जुअं अंगे = बहुआइनहुलिहणे आबन्धती एँ कनु अंगे (वध्वा नखोल्लेखने आबध्नत्या कञ्चुकमङ्गे) तं चेत्र मfor विरुदण्ड विरसमालक्खिमो + एहि = तं चेव मलिअविरुदण्ड विरसमाल क्खिमो एहि ( तदेव मृदितविरुदण्डविरसमालक्षयामः इदानीम् )
अहो + अच्छरिअं = अहो अच्छरिअं ( अहो आश्चर्यम् )
३
यथा
(३) उद्वृत्त स्वर का किसी भी स्वर के साथ सन्धि कार्य नहीं होता । निसा + अरो = निसा अरो ( निशाचरः ) - यहां चर शब्द के च का लोप होने से अ स्वर उदवृत्त है ।
गन्ध + उडि = गन्ध उडिं ( गन्धकुटीम् ) - 'कु' में क व्यञ्जन का लोप होने
है
1
निसि + अरो = निसि अरो ( निशिचरः ) - 'च' का लोप होने से अ स्वर उदवृत्त है। रयणी + अरो = रयणी अरो (रजनीचर: )
मणु + अत्तं = मणु अत्तं ( मनुजस्वं ) - 'ज' का लोप होने पर अ उद्वृत्त है ।
१. न युवर्णस्यास्वे ८।१।६. इवर्णस्य उवर्णस्य च अस्वे वर्णे परे सन्धिर्न भवति । हे० ।
२. एदोतोः स्वरे ८ १७ एकार - प्रोकारयोः परे सन्धिर्न भवति । हे० ।
३. स्वरस्योद्वृत्ते ८।१।८. स्वरस्य उवृत्ते स्वरे परे संधिर्न भवति । हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१३
अपवाद - कहीं-कहीं इस नियम के प्रतिकूल उदवृत्त स्वर का दूसरे स्वर के साथ विकल्प से सन्धि कार्य होता है और कहीं नियमत: सन्धि होती है । यथा
कुम्भ + आरो = कुम्भारो, कुम्भआरो (कुम्भकारः ) - इस उदाहरण में ककार का लोप होने से अवशिष्ट आ स्वर उदवृत है । अत: उवृत्त स्वर की म्भकारोत्तरवर्ती अकार के साथ विकल्प से सन्धि हुई है ।
सु + उरिसो= सूरिसो, सुउरिसो (सुपुरुषः ) – 'पु' के प व्यञ्जन का लोप होने पर 'उ' उदवृत्त स्वर है। इसकी 'सु' के साथ विकल्प से सन्धि हुई है । नित्य सन्धि - चक्क + आओ = चक्काओ (चक्रवाक : ) - ' वाक : ' में से 'वा' का लोप होने से 'आ' उदवृत्त स्वर है, इसी के साथ नित्य सन्धिकार्य हुआ है I
साल + आहणो = सालाहणो (सातवाहनः ) – 'व' का लोप होने से 'आ' उद्वृत्त स्वर है और लकारोत्तरवर्ती अकार के साथ उदवृत्त स्वर की सन्धि हुई है । (४) ' तिप्' आदि प्रत्ययों के स्वर की अन्य किसी भी स्वर के साथ सन्धि नहीं होती' । जैसे
१
होइ + इह = होइइह ( भवतीह)
(५) किसी स्वरवर्ण के पर में रहने पर उसके पूर्व के स्वर (उदवृत्त अथवा अनुवृत्त) का विकल्प से लोप होता है - सन्धिकार्य नहीं होता । यथा
तिअस + ईसो = तिअसीसो (त्रिदशेशः ) - तिअस (त्रिदश) के सकार के आगेवाले अकार का 'ईसो' (ईशः) के ई के पर में रहने पर लोप हो गया है । अतः स् और ई के मिल जाने से तिअसीसो हुआ है । विकल्पाभाव पक्ष में 'तिअस ईसो' भी होता है । इसी प्रकार -
राअ + उलं = राउलं ( राजकुलम् ) – यहाँ उदवृत्त स्वर का लोप नीसास + ऊसासा = नीसासूसासा ( निश्वासोच्छ्वासौ ) नर + इंद - नरिंद (नरेन्द्रः)
महा + इंद = महिंद (महेन्द्रः )
देव + इंद = देविंद (देवेन्द्रः) जोइस + इंद = जोइसिंद (ज्योतिषेन्द्रः) जिण + इंद = जिणिंद (जिनेन्द्रः)
मअ + इंद = मईंद (मृगेन्द्रः)
गअ + इंद = गईंद ( गजेन्द्रः) माअ + इंदजाल = माइंद्रजाल (मायेन्द्रजालम् )
१. व्यादेः ८।१६. तिबादीनां स्वरस्य स्वरे परे सन्धिर्न भवति । हे० ।
२. लुक् ८।१।१०. स्वरस्य स्वरे परे बहुलं लुग् भवति । हे० ।
हुआ
है
I
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१४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
एग + इंदिय = एगिंदिय (एकेन्द्रिय:) सोअ + इंदिय = सोइंदिय ( श्रोत्रेन्द्रियम् ) घाण + इंदिय = घाणिदिय ( घ्राणेन्द्रियम् ) जिभ + इंदिय = जिभिदिय ( जिह्न े न्द्रियम् ) फास + इंदिय = फासिंदिय ( स्पर्शनेन्द्रियम् ) तद्दिअस + इंदु = तद्दिअसिंदु ( तद्दिवसेन्दुः ) राअ + ईसर = राईसर ( राजेश्वरः ) कण्ण + उप्पल = कण्णुप्पल ( कर्णोत्पलम् ) णील + उप्पल = णीलुप्पल ( नीलोत्पलम् )
ह + उप्पल = णहुप्पल ( नखोत्पलम् )
रयण + उज्जल = रयणुज्जल ( रलोज्ज्वलम् ) पव्वद + उम्मूलिदं = पव्त्रदुम्मूलिदं ( पर्वतोन्मूलितम् ) कअ + ऊसासा = कऊसासा ( कृतोच्छ्वास: )
गमण + ऊसुअ = गमणूसुअ ( गमनोत्सुकः ) एग + ऊ = एगूण ( एकोन: )
= भागूण ( भागोनः )
पंच + ऊ = पंचूण (पञ्चोन: ) भाग + ऊ महा + ऊ वसंत + ऊसव = वसंतूसव ( वसन्तोत्सवः ) देव + इड्ढि = देविड्ढि ( देवद्धिः )
= महूसव ( महोत्सव : )
उत्तम + इड्ढि = उत्तमिड्ढि (उमर्दि : )
महा + इड्ढिय = महिड्ढिय ( महर्द्धितः ) विसेस + उवओगो = विसेसुवओगो ( विशेषोपयोगः )
व्यंजन सन्धि
प्राकृत में व्यंजन सन्धि का विस्तृत प्रयोग नहीं मिलता है; यत: प्राय: अन्तिम हलन्त व्यञ्जनका लोप हो जाता है । व्यञ्जन का विकारमात्र अनुनासिक वर्णों में ही उपलब्ध होता है । इस सन्धि का प्रमुख नियमों सहित विवेचन किया जाता है ।
( १ ) अ के बाद आये हुए संस्कृत विसर्ग के स्थान में उस पूर्व "अ" के साथ ओ हो जाता है' । यथा—
१
१. तो डो विसर्गस्य ८ । १।३७ संस्कृतलक्षणोत्पन्नस्यातः परस्य विसर्गस्य स्थाने डो इत्यादेशो भवति । हे० ।
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
अनतः>अग्गओ
अन्त: + विस्तम्भ:>अन्तोवीसंभो पुरतः > पुरओ
मन: + शिला > मणोसिला ।
सर्वतः सव्वओ |
मार्गतः > मग्गओ |
भवतः > भवओ ।
I
भवन्तः> - भवन्तो सन्तः> सन्तो । कुतः>कुदो ।
9
(२) पद के अन्त में रहने वाले मकार का अनुस्वार होता है । जैसे—
गिरिम् > गिरिं
जलम् > जलं
फलम् फलं
वृक्षम् >वच्छं
(३) मकार से परे स्वर रहने पर विकल्प से अनुस्वार होता है । यथाउसभम् + अजिअं = उसभमजिअं, उसभंअजियं (ऋषभमजितम् )
यम् + आहु = यमाहु, य आहु
धणम् + ए = धणमेव, धणं एव (धनमेव )
(x) बहुलाधिकार रहने से हलन्त अन्त्य व्यञ्जन का भी मकार होकर अनुस्वार हो जाता है । यथा—
साक्षात् > सक्खं
यत् > जं
तत् > तं
विष्वक् > वीसुं
पृथक्>पिहं
सम्यक्>सम्मं
१५
१. मोनुस्वारः ८।१।२३. अन्त्यमकारस्यानुस्वारो भवति । हे० ।
२. वा स्वरे मश्च ८।१।२४. अन्त्यमकारस्य स्वरे परेनुस्वारो वा भवति । हे० । ३, बहुलाधिकाराद् अन्यस्यापि व्यञ्जनस्य मकारः ८।१।२४ सूत्र की वृत्ति । हे० ।
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१६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
() , ज् , ण और न के स्थान में पश्चात् व्यंजन होने से सर्वत्र अनुस्वार हो जाता है। उदाहरण
ङ–पङक्ति>पंति, पंती; पराङ्मुख:>परंमुहो। अ-कञ्चक:>कंचुओ; लाञ्छनम्>लंछणं । ण—षण्मुख:>छंमुहो; उत्कण्ठा> उक्कंठा ।
न-विन्ध्यः>विझो, सन्ध्या>संझा। (६) शौरसेनी प्राकृत में इ और ए के परे रहने से अन्त्य म के स्थान पर विकल्प से 'ण' आदेश होता है। जैसे
युक्तम् + इदम् = जुत्त + इणं = जुत्तमिणं, जुत्तंणिणं, जुत्तं इणं । सदृशम् + इदम् = सरिसम् + इणं = सरिसमिणं, सरिसंणिणं, सरिसं इणं । किम् + एतत् = किं + एअं = किमेअं-किणेदं, किमेदं ।
एवम् + एतत् = एवं + ए = एवमेअं, एवंणेदं, एवमेदं । (७) अनुस्वार के पश्चात् कवर्ग, चवर्ग, वर्ग, तवर्ग और पवर्ग के अक्षर होने से क्रम से अनुस्वार को ङ्, ज, ण , न और म् विकल्प से होते हैं। यथाक- पं+ को = पङ्को, पंको (पङः)
सं + खो = सङ्को, संखो (शंख:) अं+ गणं = अङ्गणं, अंगण ( अङ्गनम् ) लं + घणं = लक्षणं, लंघणं ( लडनम् ) कं + चुओ = कञ्चओ, कंचुओ (कञ्चक:) लं + ठणं = लछणं, लंकणं ( लाञ्छनम् ) अं+ जिअं = अञ्जिअं, अंजिअं ( अन्जितम् ) सं+ झा = सञ्झा, संझा (संध्या) कं + टओ= कण्टओ, कंटओ (कण्टकः) उ+ कंठा = उक्कण्ठा, उत्कंठा (उत्कण्ठा) क + डं = कण्डं, कंडं ( काण्डम् ) सं+ ढो = सण्ढो, संढो (पण्ड:) अं + तर = अन्तरं, अंतरं ( अन्तरम् ) पं + थो - पन्थो, पंथो (पन्थाः )
ख
4
4.
१. ङ-अ-ण-नो व्यञ्जने ८।१।२५. ङ ञ, ण, न इत्येतेषां स्थाने व्यञ्जने परे अनुस्वारो
भवति । हे। २. वगैन्त्यो वा ८।१।३०. अनुस्वारस्य वगै परे प्रत्यासत्तेस्तस्यैव वर्गस्यान्त्यो वा
भवति । हे।
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भ
अभिनव प्राकृत-व्याकरण चं+ दो = चन्दो, चंदो (चन्द्रः) ध- बं+ धवो=बन्धवो, बंधवो (बान्धवः)
क + पह = कम्पइ, कंपइ (कम्पते)
वं + फइ = वम्फइ, वंफइ (वम्फते) ब- कलं + बो=कलम्बो, कलंबो (कलम्बः)
आरं + भो = आरम्भो, आरंभो (आरम्भ:) (८) प्राकृत में कितने ही शब्दों के प्रयोगानुसार पहले, दूसरे या तीसरे वर्ण पर अनुस्वार का आगम होता है।' यह अनुस्वारागम भी सन्धि कार्य के अन्तर्गत है। उदाहरण :प्रथम स्वर के ऊपर अनुस्वार
अंसु (अश्रु) = अंसुं तंस (त्र्यस्त्रम् )=तंसं वंक ( वक्रम )= वंकं मसू (श्मश्रु) = मंसू पुछ (पुच्छम् )= पुंछ गुठं ( गुच्छम् ) = गुंछं मुडं ( मूर्द्धा) = मुंडं फसो ( स्पर्शः ) = फंसो बुधो ( बुघ्न: ) = बुंधो ककोडो ( कर्कोट: ) = ककोडो दसणं ( दर्शनम् ) = दंसणं विछिओ ( वृश्चिक:)- विछिओ गिठी या गुठी ( गृष्टिः ) = गिठि या गुंठी
मज्जारो ( मार्जारः )=मंजारो, मज्जारो द्वितीय स्वर के ऊपर अनुस्वारागम
इह = इहं पडसुआ = पडंसुआ ( प्रतिश्रुत् ) मणसी ( मनस्वी ) = मणंसी। मणसिणी ( मनस्विनी ) = मणंसिणी। मणसिला ( मनःशिला )=मणसिला, मणसिला
१. वक्रादावन्तः ८।१।२६ हे० । वक्र, व्यत्र, वयस्य, अश्रु, श्मश्रु, पुच्छ, अतिमुक्तक,
गृष्टि, मनस्विनी, स्पर्श, श्रुत, प्रतिश्रुत, निवसन और दर्शन प्रभृति शब्द वक्रादि गण पठित हैं। संस्कृत में यह गरा प्राकृति गण कहलाता है।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
वयसो ( वयस्यः ) = वयंसो
पडिसुदं ( प्रतिश्रुतम् ) - पडिंसुदं। तृतीय स्वर के ऊपर अनुस्वारागम
अणिउतयं ( अतिमुक्तकम् ) = अणिरंतयं, अइमुंतयं, अइमुत्तयं उवरि ( उपरि ) = उवरिं
अहिमुको ( अभिमुक्तः ) = अहिमको (९) जिन शब्दों के अन्त्य व्यंजन का लोप होता है उनके अन्त्य स्वर के ऊपर अनुस्वार का आगम होता है। जैसे-पृथक् = पिहं-इस उदाहरण में अन्त्य व्यंजन क् का लोप हुआ है और में संयुक्त कार के स्थान पर इकारादेश हुआ है, तथा 'थ' के स्थान पर 'ह' हो जाने से 'पिह' बना है। पश्चात् उपर्युक्त नियमानुसार अनुस्वार का आगम हो गया है। - (१०) जहाँ स्वरादि पदों की द्विरुक्ति हुई हो, वहां दो पदों के बीच में 'म्' विकल्प से आ जाता है । यथा
एक + एक = एकमेकं, एकेक ( एकैकम् ) एक + एक्केण = एकमेकेण, एकेकेण ( एकैकेन )
अंग + अंगम्मि = अंगमंगम्मि, अंगअंगम्मि ( अङ्ग, अङ्ग ) (११) उण एवं स्यादि के ण और सु के आगे विकल्प से अनुस्वार का आगम होता है । यथा
काउण ( कृत्वा ) = काउणं, काउण काउआण = काउआणं, काउआण कालेण ( कालेन ) = कालेणं, कालेण वच्छेण ( वृक्षण) = वच्छेणं, वच्छेण वच्छेसु ( वृक्षेसु ) = वच्छेसु, वच्छेसु
तेण = ( तेन ) तेणं, तेण (१२) प्राकृत में अनुस्वारागम जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही अनुस्वार लोप भी। अतः व्यंजन सन्धि कार्य के अन्तर्गत अनुस्वार लोप का प्रकरण भी आया है। यहाँ कुछ नियमों का निरूपण किया जायगा।
(१३) संस्कृत के विंशति, त्रिंशत् , संस्कृत, संस्कार और संस्तुत शब्दों के अनुस्वार का लोप होता है।
१. क्त्वा-स्यादेणं-स्वोर्वा ८।१।२७. क्त्वायाः स्यादीनां च यो णसू तयोरनुस्वारोन्तो वा
भवति । है। २. विंशत्यादेलु ८।१।२८. विंशत्यादीनाम् अनुस्वारस्य लुग् भवति । हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
विंशतिः = वीसा त्रिंशत् = तीसा संस्कृतम् = सक संस्कारः = सकारो
संस्तुतम् = सत्तुअं (१४) मांसादिगण के शब्दों में अनुस्वार का लुक विकल्प से होता है। जैसे--- (क) प्रथम स्वर के आगे अनुस्वार का लोप
मासं, मंसं ( मांसम् ) मासलं, मंसलं ( मांसपम् ) कि, किं (किम् ) कासं, कंसं ( कांसम् ) सीहो, सिंघो ( सिंहः )
पासू, पंसू ( पांसुः-शुः ) (ख) द्वितीय स्वर के आगे अनुस्वार का लोप
कह, कहं ( कथम् ) एव, एवं ( एवम् )
नूण, नूणं ( नूनम् ) (ग) तृतीय स्वर के आगे अनुस्वार का लोप
इआणि, इआणि ( इदानीम् ) संमुह, संमुहं ( सम्मुखम् ) किंसुअ, किंसुअं ( किंशुकम् )
अव्यय सन्धि अव्यय पदों में सन्धिकार्य करने को अव्यय सन्धि कहा गया है। यद्यपि यह सन्धि भी स्वर सन्धि के अन्तर्गत ही है, तो भी विस्तार से विचार करने के लिए इस सन्धि का पृथक् उल्लेख किया गया है। यहां अव्यय सन्धि के नियमों का विवेचन किया जाता है।
(१) पद से परे आये हुए अपि अव्यय के अ का लोप विकल्प से होता है । लोप होने के बाद अपि का प यदि स्वर से परे हो तो उसका व हो जाता है। यथा
केण + अपि = केणवि, केणावि ( केनापि )
कह + अपि = कहंपि, कहमवि ( कथमपि) १. मांसादेर्वा ८।१।२६. मांसादीनामनुस्वारस्य लुग वा भवति । हे० । २. पदादपेर्वा ॥१॥४१. पदात् परस्य अपेरव्ययस्यादेलुग वा भवति । हे० ।
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२०
अभिनव प्राकृत व्याकरण
किं + अपि = किंपि किमवि ( किमपि ) तं + अपि = तंपि, तमवि (तदपि ) -
(२) पद से उत्तर में रहनेवाले इति अव्यय के आदि इकार का लोप विकल्प से होता है और स्वर के परे रहनेवाले तकार को द्वित्व होता है । यथा
किं + इति = किंति ( किमिति ) जं + इति = जंति ( यदिति )
दिनं + इति = दिट्ठति ( मिति )
न जुत्तं + इति = न जुत्तंति ( न युक्तमिति )
स्वर से परे रहने पर तकार को द्वित्व
तहा + इति
तहात्ति, तहत्ति ( तथेति )
पिओ + इति = पित्ति, पिउत्ति ( प्रियइति )
पुरिसो + इति = पुरिसोत्ति, पुरिसुति (पुरुषइति )
(३) त्यद् आदि सर्वनामों से पर में रहनेवाले अव्ययों तथा अव्ययों से पर में
=
रहनेवाले त्यदादि के आदि-स्वर का विकल्प से लोप होता है ।
एस + इमो = एसमो ( एषोऽयम् )
अम्हे + एत्थ = अम्हेत्थ ( वयमत्र )
जर + एत्थ = जइत्थ ( यद्यन्न )
जइ + अहं = जइहं ( यद्यहं )
जइ + इमा = जइमा ( यदीयम् ) अम्हे + एव्व = अम्हेव्व ( वयमेव )
अपवाद - पद से पर में इ के न रहने पर इकार का लोप नहीं होता और न तकार को ही होता है । यथा
'इअ विज्झ-गुहानिलयाए' में इअ - इति के इकार का लोप नहीं हुआ और न तकार को वही हुआ है । इति शब्द जब किसी वाक्य के आदि में प्रयुक्त होता है, तो तकारवाले इकार को अकार हो जाता है । जैसे– ' इति यत् प्रियावसाने' संस्कृत वाक्य के स्थान पर 'इआ जंपि अवसाणे' हो जाता है ।
१. इते: स्वरात् तच द्वि: ८ । १।४२. पदात् परस्य इतेरादेलु ग् भवति स्वरात् परश्च तकारो द्विर्भवति । हे० ।
२. त्यदाद्यव्ययात् तत्स्वरस्य लुक् ८ १ ४०. त्यदादेरव्ययाच्च परस्य तयोरेव त्यदाद्यव्यययोरादेः स्वरस्य बहुलं लुग् भवति । हे० ।
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तीसरा अध्याय
वर्ण विकृति
प्राकृत शब्दावलि को जानने के पूर्व संस्कृत वर्णों में होनेवाली उस विकृति को भी जान लेना आवश्यक है, जिसके आधार पर प्राकृत शब्दराशि खड़ी की जा सकती है । यहाँ वर्णविकृति के साधारण और आवश्यक नियमों का विवेचन किया जाता है ।
1
(१) विजातीय - भिन्न वर्गवाले संयुक्त व्यंजनों का प्रयोग प्राकृत में नहीं होता । अतः प्रायः पूर्ववर्ती व्यंजन का लोप होकर शेष को द्वित्व कर देते हैं। उदाहरण
१
-
उत्कण्ठा = उक्कंठा – इस उदाहरण में विजातीय त् और क् का संयोग है, अतः पूर्ववर्ती तू का लोपकर शेष कू को द्वित्व कर दिया है । ण् का अनुस्वार हो जाने से 'उक्कंठा' शब्द बना है ।
नक्तञ्चरः =
कचरो – यहां भी त् + क् में से तू का लोप हो गया है और कू को द्वित्व हो गया है ।
याज्ञवल्क्येन = जण्णवक्केण - में ज् + न् = ज्ञ में से ज् का लोपकर न् + ण् को द्विश्व कर दिया तथा ल् + क् + य् = ल्क्य में से विजातीय वर्ग ल् + यू का लोपकर शेष क् को द्वित्व कर दिया है ।
7
शक्रः > सक्को - र् + क्— में र् का लोप और क् को द्वित्व । धर्मः > धम्मो - र् + मू में से र् का लोप और म् को द्वित्व । विक्लवः > विक्कवो-क् + ल् में से ल् का लोप और क् को द्विस्व । उल्का > उक्का—ल् + क् में लू का लोप और क् को द्वित्व ।
-
पक्कम् > पक्कं पिक्कं — व् + क् में से व् का लोप और क् को द्विस्व । खड्गः खग्गो - ड् + ग् में से ड् का लोप और ग्को द्विस्व । अग्नीन् > अग्गिणी — ग्+ न् में से नू का लोप और ग को द्वित्व । योग्यः जोग्गो - ग् +य् में से यू का लोप और ग् को द्वि
ग्
।
१. क-ग-टं-ड-त-द-प-श-ष-सनामूध्वंस्थितानां लुग्भवति । हे० ।
नादौ शेषादेशयद्वित्वम् ८२८६ पदस्यानादौ वर्तमानस्य शेषस्यादेशस्य च द्वित्वं भवति । ० ।
पामूर्ध्वं लुक् ८।२।७७ एषां संयुक्तवर्णसंबंधि
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण कचग्रहः > कअग्गहो---ग् + र् में से २ का लोप और ग् को द्वित्व । मार्गः >मग्गो- + ग में से र का लोप और ग को द्वित्व । वल्गा वग्गा-ल् + ग में से ल का लोप और ग् को द्वित्व । सप्तविंशतिः > सत्तावीसा- + त् में से का लोप और तू को द्वित्व । कर्णपुरम् > कण्णउरं-र् + ण में से र् का लोप और ण को द्वित्व । मित्रम् > मित्त-त् + र् में से र् का लोप और त को द्वित्व । कर्म>कम्म-र+म् में से र का लोप और म् को द्वित्व । चर्म>चम्म-र+म् में से र का लोप और म् को द्वित्व । उत्सवः > उस्सवो-त् + स् में से तू का लोप और स् को द्वित्व । उत्पलम् । उप्पलं-त् + प् में से तू का लोप और प् को द्वित्व । उद्गति > उग्गइ-दू + ग में से दू का लोप और ग को द्वित्व । अभिग्रहः > अहिंग्गहो-ग+ र् में से र् का लोप और ग् को द्वित्व । भुक्तं > भुत्तं- का लोप हुआ और तू को द्वित्व । मुद्गु>मुग्गू-दू का लोप और ग को द्वित्व । दुग्धम् > दुद्धं-ग का लोप और धू को द्वित्व । कट्फलम् > कफ्फलं-ट का लोप और फ को द्वित्व । षड्जः > सज्जो-ड् का लोप और ज् को द्वित्व । सुप्तः > सुत्तो-प्का लोप और त को द्वित्व । गुप्तःगुत्तो-प्का लोप और तू को द्वित्व । निश्चलः >णिञ्चलो-श का लोप और च को द्वित्व । गोष्ठी गोटी- का लोप और ठ को द्वित्व । षष्ठः > छट्ठो-का लोप और ट को द्वित्व । निठुर:> निठुरो-ए का लोप और ट को द्वित्व । स्खलितः + खलिओ-स् का लोप । स्नेहः> नेहो-स् का लोप।
अन्तःपात: > अन्तप्पाओ-विसर्ग का लोप और प को द्वित्व । अपवाद–म्ह, ग्रह, न्ह, ल्ह, यह और द्र।
(२) वर्ग के पांचवें अक्षरों का अपने वर्ग के अक्षरों के साथ भी कहीं-कहीं संयोग देखा जाता है । यथा--
अङ्क:> अङ्को, अंको-ङ् + क् का संयोग है । अङ्गारः > इङ्गालो। तालवृन्तम् >तालवेण्टं।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरणं
वञ्चनीयम् >वञ्चणीयम्। स्पन्दनम् > फन्दनं ।
उदुम्बरं > उम्बरं। (३) शब्दों के अन्त में रहनेवाले हलन्त व्यंजन का सर्वत्र लोप होता है। जैसे
जाव< यावत्- अन्तिम हलन्त व्यंजन तू का लोप हुआ है। ताव< तावत् , जसो< यशस्- हलन्त स् का लोप हुआ है। . णहं < नभस् सिरंद शिरस् " " .
तम< तमस् (४) श्रत् और उत् इन दोनों शब्दों के अन्त्य व्यंजन का लोप नहीं होता। यथा
सद्धार श्रद्धा-श्रत के अन्तिम हलन्त व्यंजन त् का लोप नहीं हुआ है। उण्णय < उन्नयम्-उत् के अन्तिम हलन्त व्यंजन त् का लोप नहीं हुआ है। (६) निर् और दुर् के अन्तिम व्यंजन र् का लोप विकल्प से होता है। जैसेनिस्सह, नीसह < निर् + सहम् -यहां निर् के र् का लोप विकल्प से हुआ है।
दुस्सहो, दूसहो< दुस्सहः-दुर के र का लोप होने पर दूसहो और लोपाभाव में दुस्सहो शब्द बनता है।
(६) स्वर वर्ण के पर में रहने पर अन्तर् , निर् और दुर् के अन्त्य व्यंजन का लोप नहीं होता। जैसे
अन्तरप्पा < अन्तरात्मा-अन्तर् के र् का लोप नहीं हुआ है। अन्तरिदा< अन्तरिता ,, णिरुत्तरं< निरुत्तरम्-निर के र् का लोप नहीं हुआ है। णिराबाधं < निराबाधम् ..
" निरवसेसं< निरवशेषम् ,
१. अन्त्यव्यञ्जनस्य ८।१।११. शब्दानां यद् अन्त्यव्यञ्जनं तस्य लुग् भवति । हे० । २. न श्रदुदोः ८।१।१२. श्रद् उद् इत्येतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य लुम् न भवति । हे० । ३. निर्दुरोर्वा ८।१।१३. निर् दुर् इत्येतयोरस्त्यव्यञ्जनस्य वा लुग् भवति । हे । ४. स्वरेन्तश्च ८।१।१४. अन्तरो निर्दुरोश्चान्त्यव्यञ्जनस्य स्वरे परे लुग न भवति । हे० ।
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________________
३४
अभिनव प्राकृत व्याकरण
दुरुत्तरं दुरुत्तरम् - दुर् के र् का लोप नहीं हुआ
है
<
दुरागदं दुरागतम् दुरवगाहं 4 दुरवगाहम् विशेष - कहीं कहीं निर के रेफ का लोप देखा जाता है । जैसे
39
""
१
-
अन्तोवरि < अन्तर् + उपरि – यहाँ अन्तर् के रेफ का लोप हुआ है । णिउक्कण्ठं < निरुत्कण्ठम् - निर् के रेफ का लोप हुआ है ।
( ७ ) विद्युत् शब्द को छोड़कर स्त्रीलिंग में वर्तमान सभी व्यंजनान्त शब्दों के अन्त्य व्यञ्जन का आत्व होता है । ईषत्स्पृष्टतर होनेवाली यश्रुति के अनुसार आ के स्थान पर या भी हो जाता है । जैसे- सरिया, सरिअ सरित् — अन्तिम हलन्त व्यञ्जन तू का लोप न होकर उसके स्थान पर आ हो गया है ।
19
संपया, संपआ < संपद्— अन्तिम हलन्त व्यज्ञ्जन का लोप न होकर उसके स्थान पर आ हो गया है ।
د.
""
"
वाया, वा वाक्
अच्छरा < अप्सरस्
"
"
पडिवया, पडिवप्रतिपद् वाआच्छलंद वाक्छलम् - क् के स्थान पर आ हुआ है। वाआविवो वाग्विभवः - ग् के स्थान पर आ हुआ है । विशेष - विद्युत् शब्द का प्राकृत में विज्जू होता है ।
४
( ८ ) स्त्रीलिंग में वर्तमान रेफान्त शब्दों के अन्तिम र् को रा आदेश होता है। जैसे—
गिरा < गिर् (गी: ) इलन्त व्यंजन र् के स्थान पर रा हो गया है ।
थुरा-धुर् (धूः ) पुरापुर (पू) - महुअमर गिरा मधूकमथुर गिरः
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55
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६
( ९ ) क्षुध् शब्द के अन्त्य व्यंजन का 'हा' आदेश होता है ।
यथा
१. क्वचिद् भवत्यपि । १ । १४ की वृत्ति हे० ।
२. स्त्रियामादविद्युतः ८।१।१५. स्त्रियां वर्तमानस्य शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य प्रात्वं भवति विद्युच्छ्न्दं वर्जयित्वा । ॰ ।
३. बहुलाधिकाराद् ईषत्स्पृष्टतरयश्रुतिरपि - ८ । १ । १५ की वृत्ति । हे० ।
४. अविद्युत इति किम् - उपर्युक्त सूत्र की वृत्ति ।
५. रोरा ८।१।१६. स्त्रियां वर्तमानस्यान्त्यस्य रेफस्य रा इत्यादेशो भवति । श्रात्त्वापवादः । हे०
६. क्षुधो हा ८१ । १७. क्षुध् शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य हादेशो भवति । हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२५
छहार क्षुत् या क्षुध-अन्त्य व्यञ्जन त् या ध के स्थान पर 'हा' हुआ है।
(१०) शरत् प्रभृति शब्दों के अन्तिम हलन्त्य व्यञ्जन के स्थान पर अ आदेश होता है। यथा
सरअ<शरत्-तू के स्थान पर अ हुआ है। भिसअ< भिषक्– के स्थान पर अ हुआ है।
(११) दिश् और प्रावृष् शब्दों के अन्तिम व्यञ्जनों के स्थान में स आदेश होता है। जैसे
दिसा< दिक- के स्थान पर स आदेश हुआ है। पाउसो< प्रावृट-ट् के स्थान पर स आदेश हुआ है। (१२) आयुष और अप्सरस् के अन्त्य व्यजनों का विकल्प से स आदेश होता
है। यथा
दीहाउसो, दीहाऊ< दीर्घायुस् , दीर्घायुः । अच्छरसा, अच्छरा< अपसरस् , अप्सराः । ( १३ ) ककुभ शब्द के अन्त्य व्यञ्जन को ह आदेश होता है। जैसेकउहा< ककुभ, ककुप्-भ के स्थान में ह हुआ है।
(१४) धनुष शब्द के अन्स्य व्यञ्जन के स्थान में विकल्प से ह आदेश होता है। यथा
धणुह, धण<धनुष, धनुः- के स्थान पर विकल्प से ह हआ है। विकल्पाभाव पक्ष में ष् का लोप हो गया है और पूर्व स्वर को दीर्घ कर दिया है।
(१५) म् के अतिरिक्त अन्य व्यञ्जनों के स्थान पर भी विकल्प से अनुस्वार होता है। यथा
सक्खं साक्षात्-त् के स्थान पर अनुस्वार हुआ है। जंयत्-त् के स्थान पर अनुस्वार ।.
तं
तत्-
"
"
१. शरदादेरत् ८।१।१८. शरदादेरन्त्यव्यञ्जनस्य अत् भवति । हे० । २. शरदो दः ४।१०. शरच्छब्दस्यान्त्यहलो दो भवति । यथा-सरदो-वर० । ३. दिक् प्रावृषोः सः ८।१।१६ . एतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य सो भवति । हे । ४. आयुरप्सरसोर्वा ८।१।२०. एतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य सो वा भवति । हे० । ५. ककुभो हः ८।१।२१ . ककुभ् शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य हो भवति । हे० । ६. धनुषो वा ८।१।२२. धनुःशब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य हो वा भवति । हे० । ७. बहुलाधिकाराद् अन्यस्यापि व्यञ्जनस्य मकारः । ८।१।२४ सूत्र की वृत्ति-हे ।
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२६
अभिनव प्राकृत व्याकरण
वीसु विष्वक् क् के स्थान पर अनुस्वार होता है ।
पिहं < पृथकू—
""
सम्मं सम्यक
39
99
(१६) व्यञ्जन वर्णों के पर में रहने पर, ङ अनुस्वार होता है । जैसे—
१
पंत्ती < पङ्क्तिः परंमुह पराङ्मुखः कंचुओकञ्चुकः
रहने वाले निर् और प्रति के
Q
( १७ ) माल्य शब्द और स्थाधातु के पूर्व में स्थान में विकल्प से ओत और परि का आदेश होता है । जैसेओमल्ल, ओमालं, निम्मलं < निर्माल्यम् - निर् के स्थान में ओत होने से ओमल्लं या ओमालं होता है और ओ के अभाव में निम्मलं बनता है ।
परिट्टि, पट्टि
आदेश के अभाव में पइट्टि
"
ܗ
परिट्ठा, पट्टा प्रतिष्ठा - प्रति के स्थान में परि आदेश होने से परिट्ठा और परि आदेश के अभाव में पट्टा रूप बनता है ।
प्रतिष्ठितम् परि आदेश होने से परिट्टि और परि रूप बनता है ।
और स् से पूर्व अथवा पर में रहने
( १८ ) जिन शू, षू अ और सवर्णो ' का प्राकृत के नियमानुसार लोप हुआ हो उन
""
वीसमइ << विश्राम्यतिर् का लोप और दीर्घ । वीसामो< विश्रामः - मीसंमिश्रम् -
""
और नू
33
-
ष,
सकारों के आदि स्वर को दीर्घ होता है। उदाहरण
पासइ = परसइ | पश्यति - ' पश्यति' के य का लोप होने से स् को द्विस्व होता है । सरलीकरण की क्रिया द्वारा अन्तिम व्यञ्जन त् का लोप होने से स्वर इ शेष
रहता है और सू का लोप होने से इस नियम द्वारा दीर्घ हो गया है ।
कासव कस्सवो = काश्यपः - य का लोप और दीर्घ ।
95
के स्थान में
वाले य्, र्, व्, श्,
शकार, षकार और
१. ङ - ञ-ण-नो व्यञ्जने ८।१।२५ ङ, ञण, न इत्येतेषां स्थाने व्यञ्जने परे अनुस्वारो भवति । हे० ।
२. निष्प्रतीोत्री माल्यस्थोर्वा ८|१| ३८. निर् प्रति इत्येतौ माल्यशब्दे स्थाधातौ च परे यथासंख्य श्रोत् परि इत्येवं रूपौ वा भवतः । हे० ।
३. लुप्त-य-र-व-श-ष-सां श ष सां दीर्घः ८ १ ४३. प्राकृत लक्षरणवशाल्लुप्ता याद्या उपरि धो वा येषां शकारषकारसकाराणां तेषामादेः स्वरस्य दीर्घो भवति । हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण संफासोकसंफस्सो = संस्पर्श:- का लोप और स् को द्वित्व, पश्चात्
स लुक और दीर्घ । आसो< अस्सो = अश्वः-व लोप, द्विस्व, सलोप और दीर्घ । वीससइ< विस्ससइ = विश्वसिति- " " वीसासो< विस्सासो = विश्वासः- " " दूसासणो< दुश्शासन:-श का लोप और दीर्घ मणासिला<मन:शिला- " " सीसोसिस्सो-शिष्यः-य लोप, द्वित्व, स् लोप और दीर्घ । पूसो पुस्सो = पुष्यः- " " " " मणसो<मणुस्सो = मनुष्य-" " " .. " कासओ< कस्सओ = कर्षक:-र लोप, द्वित्व, स् लोप और दीर्घ । वासारवस्सा = वर्षा- " " " " वासोर वस्सो = वर्षः- " , , , वीसागो< विस्साण = विष्वाणः-व लोप " " वीसुंर विस्सुं = विष्वक् -- लोप, उत्व, स को द्वित्व, स् लोप और दीर्घ । निसित्तो निस्सित्तो = निषिक्तः - ए लोप, द्वित्व, स् लोप और दीर्घ । सासंद सस्सं = सस्यम् –य लोप, द्वित्व, सू लोप और दीर्घ । कासइ<कस्सइ = कस्यचित्- " " " ऊसो = उस्सो> उस्मः-र लोप, स् द्वित्य; स् लोप और दीर्घ । वीसंभो = विस्संभो' विभ:-व लोप, " " विकासरो = विकस्सरो-विकस्वरः- " " " नीसो = निस्सोदनिःस्वः- " " "
नीसहो< निस्सहः-स लोप और दीर्घ ( १९ ) समृद्धयादि गण के शब्दों में आदि अकार को विकल्प से दीर्घ होता है। उदाहरण
सामिद्धी, समिद्धी ८ समृद्धिः। पाअडं, पमडं< प्रकठम् ।
१. अतः समृद्धयादौ वा ८।१।४४. समृद्धि इत्येवमादिषु शब्देषु आदेकारस्य दीर्घो वा भवति । समृद्धि गण के शब्द निम्न हैं.
समृद्धिः प्रतिसिद्धिश्च प्रसिद्धिः प्रकटं तथा । - प्रसुप्तञ्च प्रतिस्पर्धी प्रतिपच्च मनस्विनी ॥ अभिजातिः सदृक्षश्च समृद्धयादिरयं गणः । -कल्पलतिका
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
पासिद्धी, पसिद्धी प्रसिद्धिः। --- पाडिवआ, पडिवआ< प्रतिपदा । पासुत्तं, पसुत्तं प्रसुप्तम् । पाडिसिद्धी, पडिसिद्धी प्रतिसिद्धि । सारिच्छो, सरिच्छो< सदृक्षः । माणंसी, मणंसी मनस्वी। माणंसिनी, मणंसिनी मनस्विनी । आहिआई, अहिआई < अभियाति । पारोहो, परोहो< प्ररोहः। पावासू, पवासू< प्रवासी।
पाडिप्फद्धी, पडिप्फद्धी< प्रतिस्पर्धी । विशेष-प्राकृत प्रकाश में इस गण को आकतिगण माना गया है। हेमचन्द्र ने भी आकतिगण होने से निम्न शब्दों की भी निष्पत्ति बतलायी है।
आफैसो < अस्पर्शः पारकेरं, पारक्कंद परकीयम् । पावयणं प्रवचनम्।
चाउरन्त < चतुरन्तम् । (२०) दक्षिण शब्द में आदि अकार को ह के पर में रहने पर दीर्घ होता
दाहिणो = दक्षिण:-क्ष के स्थान पर ह होने से दीर्घ हुआ है । क्ष के स्थान पर ह नहीं होने पर 'दक्षिणः' का दक्खिणो यह रूप बनता है। ( २१ ) स्वप्न आदि शब्दों में आदि अ का इकार होता है। उदाहरण
सिविणो, सिमिणो, सुमिणो< स्वप्नः । इसिर ईषत् । वेडिसो बेतस: विलिअंदव्यलीकम् ।
विअणं < व्यजनम् । १. या समृद्धयादिसु वा ११२ -प्राकृतिगणोयम् । वर० । २. प्राकृतिगणोयम् तेन अस्पर्शः, आफंसो-इत्यादि ८।१।४४ सूत्र की वृत्ति हे । ३. दक्षिणे हे ८।१।४५. दक्षिणशब्दे प्रादेरतो हे परे दी? भवति । ४. इः स्वप्नादौ ८।१।४६. स्वप्न इत्येवमादिषु प्रादेरस्य इत्वं भवति । हे ।
इदीषत्पक्व स्वप्नवेतसव्यजनमृदङ्गाङ्गारेसु १।३ वर० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
मुइंगो< मृदङ्गः। किविणो< कपणः। उत्तिमोर उत्तमः । मिरिअं<मरिचम् ।
दिएणं<दत्तम् । ( २२ ) पक्व, अङ्गार और ललाट शब्द को विकल्प से इकार होता है । जैसे
पिक्कं, पक्कं< पक्वम् इंगालो, अङ्गारो< अङ्गार:
णिडालं, णडालं< ललाटम् ( २३ ) मध्यम और कतम शब्द में द्वितीय अकार के स्थान पर इत्व होता
है। जैसेमज्झिमो< मध्यमः
कइमो< कतमः ( २४ ) सप्तपर्ण शब्द में द्वितीय अकार के स्थान पर विकल्प से इत्व
होता है । यथा
छत्तिवण्णो, छत्तवण्णो< सप्तपर्ण: (२६) हर शब्द में आदि अकार के स्थान पर विकल्प से ईकार होता है । यथा
हीरो, हरो< हरः ( २६ ) धनि और विष्व शब्द में अकार के स्थान पर उकार होता है। जैसे
झुणी<ध्वनिः-ध के स्थान पर झ हुआ है और व का सम्प्रसारण होने से उ हुआ है।
वीसु< विष्वम्-यहां पर भी व् का संप्रसारण हुआ है। । (२७) वन्द्र और खण्डित शब्दों में आदि अकार का विकल्प से णकार सहित उत्व होता है। यथा
१. पक्वाङ्गार-ललाटे वा ८।१।४७. एज्ज्वादेरत इत्वं वा भवति । हे० । २. मध्यमकतमे द्वितीयस्य ८।१।४८. मध्यमशब्दे कतमशब्दे च द्वितीस्यात इत्वं
भवति । हे० । ३. सप्तपणे वा ८।१।४६. सप्तपणे द्वितीयस्यात इत्वं वा भवति । हे० । ४. ईहरे वा ८।१।५१. हरशब्दे आदेरत ईर्वा भवति । हे। ५. ध्वनि विष्वचोरुः ८।१।५२. अनयोरादेरस्य उत्वं भवति । हे० । ६. वन्द्रखण्डितेरणा वा ।।११५३. अनयोरादेरस्य णकारेण सहितस्य उत्वं वा भवति। हे।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण वुन्द्र,वन्द्र < वन्द्रं—अकार के स्थान पर न ( प ) सहित उत्व हुआ है।
खुड्डिओ, खण्डिओ<खण्डित:- -, , (२८) गवय शब्द में वकार के प्रकार के स्थान पर उत्व होता है। जैसेगउओ, गउआ< गवयः।
( २६ ) प्रथम शब्द में पकार और थकार के स्थान पर युगपत् और क्रमश: उकार होता है । जैसे
पुढुमं, पुढम, पदुमं, पढम< प्रथमम् (३०) अभिज्ञ आदि शब्दों में पत्र करने पर ज्ञ के आकार का उत्व होता है। जैसे
अहिण्णू < अभिज्ञः सवण्ण र सर्वज्ञः-शौरसेनी में सव्वगो और पैशाची में सव्वनो।
आगमण्णू < प्रागमज्ञः। विशेष-स्वाभाव में अहिज्जो< अभिज्ञः, सव्वज्जो सर्वज्ञ होते हैं । ( ३१ ) शय्या आदि शब्दों में आदि अकार का एकार आदेश होता है। जैसे—सेज्जा< शय्या प्रकार का एकार और य्या का ज्जा ।
संदेरं< सुन्दरम्-दकारोत्तर अकार का एकार । उक्केरो< उत्कर:-त का लोप और क को द्वित्व तथा अ को एकार । तेरहो< योदश:- त के र का लोप, अकार को एकार तथा दश के स्थान में रहा। अच्छेरं< आश्चर्यम् –पूर्ववर्ती आ को ह्रस्व कर दिया और श्च के अ को एकार तथा श्च के स्थान पर उछ । पेरंतं< पर्यन्तम्-प्रकार को एकार । वेल्ली< वल्लि:- ,
१. गवये वः ८।१।५४. गवयशब्दे वकाराकरस्य उत्वं भवति । हे। २. प्रथमे पथोर्वा ८११५५. प्रथमशब्दे पकारथकारयोरकारस्य युगपत् क्रमेण च उकारो
वा भवति । हे। ३. ज्ञो णत्वेभिज्ञादो ८।१।१६. अभिज्ञ एवं प्रकारेषु ज्ञस्य गत्वे कृते ज्ञस्यैव अत
उत्वं भवति । हे। ४. एच्छय्यादौ ८।१।५७. शय्यादिषु आदेरस्य एत्वं भवति । हे० । शय्यात्रयोदशाश्चयं
पर्यन्तोत्करवल्लयः । सौन्दयं चेति शय्यादिगणः शेषस्तु पूर्ववत् ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३१
गेड कन्दुकम्—क के स्थान पर ग और अकार को एकार, दन्त्य द के स्थान पर मूर्धन्य ड, क का लोप और स्वर शेष ।
एत्थ < अत्र-अ का एत्व तथा त्र का त्थ । (३२) ब्रह्मचर्य शब्द में चकारोत्तरवर्ती अ के स्थान पर एत्व होता है। जैसे
बम्हचेरं< ब्रह्मचर्यम् । (३३ ) अन्तर् शब्द में तकारोत्तरवर्ती अकार के स्थान पर एत्व होता है।
अन्तेउरं< अन्तःपुरं । अन्तेआरी< अन्तश्चारी। कहीं अन्तर शब्द में तकारोत्तरवर्ती अकार को एत्व नहीं होता है। जैसे
अन्तगयं अन्तर्गतम् ।
अन्तो-वीसम्भनिवेसिआणं < अन्त:विस्रम्भनिवेसितानाम् । ( ३४ ) पद्म शब्द के आदि के अकार के स्थान पर ओत्व होता है । जैसे
पोम्म, पउमं< पद्मम् । ( ३५ ) नमस्कार और परस्पर शब्द में द्वितीय अकार के स्थान पर ओत्व होता है। यथा
नमोक्कारो< नमस्कारः, परोप्परं< परस्परम् । ( ३६ ) अर्पि धातु में आदि के अ को विकल्प से ओ होता है। जैसे
ओप्पेइ, अप्पेइ< अर्पयति–ओत्व के अभाव में एत्व होता है।
ओप्पिअं, अप्पिअं< अर्पितम् । ( ३७ ) स्वप् धातु में आदि के अ के स्थान पर ओत और उत् आदेश होते हैं। जैसे सोवइ, सुवइ - स्वपिति ।
(३८) नज के बाद में आनेवाले पुनर् शब्द के अ के स्थान में आ और आइ विकल्प से आदेश होते हैं। जैसे
१. ब्रह्मचर्य चः ८।१।५६. ब्रह्मचर्यशब्दे चस्य अत एत्वं भवति । हे० । २. तोन्तरि ८।१।६०. अन्तरशब्दे तस्य अत एत्वं भवति । हे। ३. क्वचिन्न भवति । हे० । ४. प्रोत्पद्म ८।१।६१. पद्म शब्दे आदेरत प्रोत्वं भवति । हे। ५. नमस्कार-परस्परे द्वितीयस्य ८।१।६२. अनयोद्वितीयस्य अत प्रोत्वं भवति । हे० । ६. वापौ ८।१।६३. अपंयतौ धातौ आदेरस्य प्रोत्वं वा भवति । हे० । ७. स्वपावुच्च ८।१।६४. स्वपितौ धातौ आदेस्स्य प्रोत् उत् च भवति । हे० । ८. नात्पुनर्यादाई वा ८।१।६५. नत्रः परे पुनः शब्दे आदेरस्य मा आइ इत्यादेशौ
वा भवतः । हे०।---
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
ण उणा<न पुन:—आ आदेश हुआ है। ण उणाई <न पुन:-आइ आदेश हुआ है।
ण उण <न पुनः-विकल्प भाव पक्ष में । (३९) अव्ययों में और उत्खात, चामर, कालक, स्थापित, प्रतिस्थापित, संस्थापित, प्राकृत, तालवृन्त, हालिक, नाराव्य, बलाका, कुमार, खादित, ब्राह्मण एवं पूर्वाह्न शब्दों में आदि आकार का अकार विकल्प से होता है।' मज्जारो माज्जारो (मार्जार:
मरलो, मरालो<मरालः पत्थरो, पत्थारो प्रस्तार: पहरो, पहारो< प्रहारः
जह, जहा< यथा तह, तहा< तथा
अहव, अहवा< अथवा उक्खअं, उक्खाअं< उत्खातम् चमरं, चामरं< चामरम् कलओ, कालओ< कालकः ठविअं, ठाविअं< स्थापितम् परिठविअं, परिठाविर प्रतिष्ठापितम् संठविअं, संठाविअं< संस्थापितम् पउअं, पाउअं< प्राकृतम् तलवेण्ट, तालवेण्टं < तालवृन्तम् हलिओ, हालिओ< हालिका णराओ, णराओ< नाराय: वलाआ, वलाआ< बलाका कुमरो, कुमारो<कुमारः खइअं, खाइअं< खादितम् । बम्हणो, बाम्हणो ब्राह्मणः पुव्वण्हो, पुव्याण्हो< पूर्वाः दवग्गी, दावग्गी<दवाग्निः चाडू , चडू< चाटुः
(४०) घन को निमित्त मानकर जहां आ रूप वृद्धि हुई हो, उस आदि आकार का विकल्प से अत्व होता है। जैसे
पवहो, पवाहो< प्रवाहः पअरो, पआरो< प्रकारः पत्थवो, पत्थावो< प्रस्ताव:
अपवाद--कुछ घान्त शब्दों में यह नियम लागू नहीं होता। जैसेराओ< राग: ( ४१ ) मांस आदि शब्दों में अनुस्वार रहने पर आदि आकार का अत्व होता
१. वाव्ययोत्खातादावदातः ७।१।६८. अव्ययेषु उत्खातादिषु च शब्देषु आदेराकारस्य अद् ___ वा भवति। हे। २. घन वृद्धर्वा ८।१।६८. घन निमित्तो यो वृद्धिरूप आकारस्तस्यादिभूतस्य अद् वा
भवति। हे। ३, मांसदिष्वनुस्वारे ८।१७०. मांसप्रकारेषु अनुस्वारे सति प्रादेरातः अद् भवति । हे ।
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
पंसू <पांशु:
मंसं मांसम् पंसणोपांसनः कंसिओ < कांसिकः
सम्
कंसं वसिओ <वांसिकः
संसिद्धिओ < सांसिद्धिकः
संजत्तिओ सांयात्रिकः
( ४२ ) श्यामाक में मकार के आकार को अत् होता है ।' यथा-
सामओ < श्यामाक:
२
( ४३ ) महाराष्ट्र शब्द में आदि के आकार को अत् होता है । यथामरहट्ठ, मरहट्ठो महाराष्ट्र: - यहां वर्णं विपर्यय भी हुआ है ।
(४४) सदा आदि शब्दों में विकल्प से आकार के स्थान पर इकार आदेश होता है । उदाहरण
सइ, स
तइ त
"
""
जइ, जआ यदाय के स्थान पर ज होता है ।
णिसिअरो, णिसाअरो ८ निशाचरः - द्वितीय रूप विकल्पाभाव का है ।
सदा - द्वितीय रूप विकल्पाभाव पक्ष का है।
तदा
३३
( ४५ ) यदि आर्या शब्द श्रु (सास) के अर्थ में प्रयुक्त हो तो 'र्य' के पूर्ववर्ती आकार के स्थान में ऊ होता है। जैसे—
अज्जू आर्या - सास के अर्थ में;
अज्जा <आर्या- - श्रेष्ठ अर्थ में
( ४६ ) आचार्य शब्द में चकारोत्तरवर्ती आकार के स्थान पर इत्व और अस्त्र होता है । यथा
आइरिओ, आयरिओ आचार्यः
(४७) स्त्यान और खल्वाट शब्द में आदि आकार के स्थान पर ईकार आदेश होता है । जैसे
ठीणं, थीणं, थिणं स्त्थानम् - स्त के स्थान में थ और थ के स्थान में विकल्प ठहुआ है।
खल्लीडो खल्वायः
१. श्यामाके मः ८।१।७१. श्यामाके मस्य प्रातः श्रद् भवति । हे० ।
२. महाराष्ट्र ८।१।६६. महाराष्ट्रशब्दे श्रादेराकारस्य श्रद् भवति । हे० ।
३. इः सदादौ वा ८ । १।७२. सदादिषु शब्देषु प्रात इत्वं वा भवति । हे०
४. श्रार्यायां यः श्वश्वाम् ८।१।७७. आर्याशब्दे श्वश्वां वाच्यायां यंस्यात ऊभवति । हे ।
५. प्राचार्ये चोच्च ८।१।७३. प्राचार्यशब्दे चस्य श्रात इत्वं प्रत्वं च भवति । हे० ।
६. ईः स्त्यान खल्वाटे ८|१|७४. स्त्यानखत्वाटयोरादेरात ईर्भवति । हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण ( ४८ ) आसार शब्द में आदि आकार के स्थान पर विकल्प से ऊदू होता है। जैसे
ऊसारो, आसारो< आसारः (४९) द्वार शब्द में आकार के स्थान में विकल्प से एदू होता है। यथा
देरं, दुआरं, दारं, वारं< द्वारम्-प्रथम को छोड़, शेष विकल्पाभाव पक्ष के रूप हैं।
(५०) पारापत शब्द में रकारोत्तरवर्ती आकार के स्थान में एद होता है। यथा
पारेवओ, पारावओ< पारापतः
(९१) आई शब्द में आदि के आत के स्थान पर विकल्प से उकार और ओकार होते हैं। यथा
उल्लं, ओल्लं, अल्लं, अई - आर्द्रम्-उत्तरवर्ती रूप विकल्पाभाव पक्ष के हैं। (१२) आली शब्द में पंक्तिवाची अर्थ होने पर आकार को ओकार होता
ओली< आली, पंक्तिवाची अर्थ न होने पर आली-सखी ही रहता है।
( ५३ ) संयोग से अव्यवहित पूर्ववर्ती दीर्घ का कभी-कभी हस्व रूप हो जाता है। यथाअंबं<आम्रम्
तंबं< ताम्रम् विरहग्गी-विरहाग्नि:
अस्संद आस्यम् मुनिंदो< मुनीन्द्रः
तित्थं ८ तीर्थम् गुरुल्लावा<गुरुल्लापा
चुण्णोर चूर्णः नरिंदो< नरेन्द्रः
मिलिच्छो< म्लेच्छः अहरुटुं८ अधरोष्टम्
नीलुप्पलं< नीलोत्पलम् विशेष-संयोग नहीं रहने से आयासं, ईसरो, ऊसवो आदि शब्दों में उक्त नियम की प्रवृत्ति नहीं होती।
१. ऊद्वासारे ८।११७६. प्रासारशब्दे आदेरात ऊद् वा भवति । हे । २. द्वारे वा ८१७६. द्वारशब्दे आत एद् वा भवति । हे० । ३. पारापते रो वा ८।१।८०. पारापतशब्दे रस्थस्यात एद् वा भवति । हे० ।। ४. उदोद्वा ८।१।८२. प्राशब्दे आदेरात ऊद् अोच वा भवतः । हे । ५. अोदाल्यां पंक्तौ ८।१।८३. पालीशब्दे पंक्तिवाचिनि प्रात प्रोत्वं भवति । हे० ६. ह्रस्वः संयोगे ८।१।८४. दीर्घस्य यथादर्शनं संयोगे परे ह्रस्वो भवति । हे।
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
३५
(१४) आदि इकार का संयोग के पर में रहने पर विकल्प से एकार होता है ।
यथा
पेण्डं, पिण्डं पिण्डम् — द्वितीय रूप विकल्पाभाव पक्ष का है ।
णेद्दा, णिद्दा निद्रा -
<
सेंदूर, सिंदूरं < सिन्दूरम् -
धम्मेलं, धम्मिलं < धम्मिलम् - वेहू, विहू विष्णु:
,,
"
33
ވމެ
३. प्रो बदरे देन १।६. वर० ।
४. लवणनवमल्लिकयोर्तेन १1७. वर० ।
99
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पेट्ठ, पिट्ठ < पृष्ठम् – चेन्हं, चिन्हं चिह्नम् - वेल्लं, विल्लं < विल्लम्
""
39
विशेष - शौरसेनी में पिण्डादि शब्दों में एत्व नहीं होता । अतः पिण्डं, णिद्दा और धम्मिलं ये ही रूप पाये जाते हैं ।
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(१५) पथि, पृथिवी, प्रतिश्रुत्, मूषिक, हरिद्वा और विभीतक में आदि इकार के स्थान पर अकार होता है । उदाहरण
पहोथि
पुहई, पुढवीपृथिवी -ह के स्थान पर ढ होने से पुढवी रूप बना है । पसुआ प्रतिश्रुत्
मूसओ मूषिकः
<
हलद्दी, हलद्दा हरिद्रा - हरिद्रा शब्द में रेफ का ल होता है । बहेडओ विभीतकः - 'वि' की ई के स्थान पर अ हुआ है 1
विशेष- कुछ वैयाकरणों के मत में हरिद्रा शब्द में ईकार के स्थान पर अकार नहीं होता है । अत: हलिद्दी, हलिद्दा ये रूप बनते हैं ।
३
(५६) बदर शब्द में दकार सहित अकार के स्थान पर ओकार होता है । यथाबोरं बदरम् - बदरोत्तर अकार और दकार के स्थान पर ओकार हुआ है ।
(१७) लवण और नवमल्लिका शब्द में वकार सहित आदि अकार को ओकार
४
होता है । यथा
लोणंदवणं
णोमल्लिआ नवमल्लिका
९. इत एद्वा८।१८५. प्रादेरिकारस्य संयोगे परे एकारो वा भवति । हे० ।
२. पथि - पृथिवी - प्रतिश्रुन्मूषिक - हरिद्रा - विभीतकेष्वत् ८६६८ । हैं ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण (५८) मयूर और मयूख शब्द में 'यू' के सहित आदि वर्णस्थ अकार को विकल्प से मोकार होता है।' उदाहरण
मोरो, मऊरो मयूर:—यू सहित मकारोत्तर अकार को ओकार हुआ है । विकल्पाभाव पक्ष में यकार का लोप होने से मजरो बना है।
मोहो, मऊहो < मयूख:- , (९९) चतुर्थी और चतुर्दशी शब्द में 'तु' के सहित आदि अकार को विकल्प से ओकार होता है। यथा
चोत्थी, चउत्थी < चतुर्थी -तु सहित चकारोत्तर अकार को ओ हुआ है और रेफ का लोप होने से थ को द्वित्व तथा पूर्ववर्ती थ् को त् हुआ है।
चोदसी, चउद्दशी - चतुर्दशी–तु सहित चकारोत्तर अकार को ओ हुआ है और रेफ का लोप होने से द को द्वित्व हुआ है।
(६० ) इक्षु और वृश्चिक शब्द के इकार को उकार होता है। यथा-उच्छू इक्षु:-क्ष के स्थान पर छादेश, छ को द्वित्व, पूर्ववर्ती छ को च किया है तथा इस सूत्र से इकार को उकार हुआ है।
विच्छुओ< वृश्चिक:-ऋकार को इकार, श्व के स्थान पर च्छ और इकार के स्थान पर उकार हुआ है।
(६१) जब इति शब्द किसी वाक्य के आदि में प्रयुक्त होता है, तब तकारवाले इकार का अकार हो जाता है। जैसेइअजं, पिआवसाणे < इति यावत् प्रियावसाने-इति के स्थान पर इअ हुआ है।
इअ विअसिअ-कुसुमसरो< इति विकसितकुसुमशरः- ,,,
इअ उअह अण्णह वअणं< इति पश्यतान्यथा वचनम् ,, , विशेष—इति शब्द के वाक्यादि में प्रयुक्त नहीं रहने पर अत्व नहीं होता । जैसे
पिओत्ति < प्रिय इति–वाक्य के आदि में इति शब्द के न पाने से इअ नहीं हुआ, बल्कि इ का लोप होकर तू को द्वित्व हो गया है। पुरिसोत्ति < पुरुष इति- ,
, ( ६२ ) जहां निर् के रेफ का लोप होता है, वहां नि के इकार का ईकार हो जाता है। जैसे
१. मयूरमयूखयोर्वा वा १८, वर० । २. चतुर्थी चतुर्दशयोस्तुना ११६. वर० । ३. उदिक्षुवृश्चिकयोः १।१५ । वर० । ४. इतौ तो वाक्यादौ ८।१।६१ । हे । ५. लुकि निरः ८।१।६३. निर्, उपसर्गस्य रेफलोपे सति इत ईकारो भवति। हे० ।
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हो गया है।
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
३७
णीसहो निस्सहः – निर् के र. का लोप होने से नि, णि को दीर्घ
णीसासो निःश्वास: -
""
विशेष – रेफ का लोप नहीं होने पर ईकार नहीं होता । जैसेरिओ द निरयः — रेफ का लोप न होने से णि को दीर्घं नहीं हुआ है
--
1
---
"
99
"
णिस्सहो < निस्सह:( ६३ ) द्विशब्द और नि उपसर्ग के इकार का उ आदेश होता है । कहींकहीं यह नियम लागू भी नहीं होता और कहीं विकल्प से उत्व और ओत्व होता
1
१
है । उदाहरण
-
99
णिवडइ < निपतति-नि उपसर्ग के विषय ( ६४ ) कृ धातु के प्रयोग में द्विधा शब्द के होता है। जैसे
39
K
है 1
दुवाई, दुवे - द्वि शब्द में नित्य उत्व हुआ दुवअनं < द्विवचनम् -
39
99
दुअणो, दिउणो द्विगुणः - विकल्प से उत्व होने पर दुअणो और विकल्पाभाव पक्ष में दिउणो ।
दुइओ, दिउओ द्वितीयः - विकल्पाभाव पक्ष में दिउओ बनता है । दिओ <द्विजः - द्विशब्द के विषय में नियम की अप्रवृति । दिरओ द्विरदः
"
99
दोवअणम् [ द्विवचनम् - द्वि शब्द को ओत्व हुआ है। मज्जइनिमज्जति नि उपसर्ग के इकार को उत् । णुमण्णो निमग्नः -
--
"
99
में नियम की अप्रवृत्ति ।
इकार का ओस्व और उत्व
दोहाकअं द्विधा कृतम् - ओकार हुआ है । दुहाकअं द्विधा कृतम् - उकार हुआ है । दोहा किज्जइद्विधा क्रियते-ओकार हुआ है । दुहा - किज्जइद्विधा क्रियते — उकार हुआ है।
विशेष — कृज् का प्रयोग नहीं रहने से दिहा-गर्म द्विधागतम् में यह नियम लागू नहीं होता । कहीं-कहीं केवल (क्रून् रहित ) द्विधा में भी उत्व पाया जाता है । यथा
१. द्विन्योरुत् ८ १ ४. द्विशब्दे नावुपसर्गे च इत उद् भवति । हे० ।
२.
श्रोच्च द्विधाकृगः ८ २११६७. द्विधाशब्दे कृग्धातोः प्रयोगे इत प्रोत्वं चकारादुत्वं च भवति । हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण दुहा वि सो सुर-धहू-सत्थो = द्विधापि स सुरवधूसार्थ : (६६) पानीय गण के शब्दों में दीर्घ ईकार के स्थान में हस्व इकार होता है। 'जैसेपाणिअंदपानीयम्-बहुल अधिकार होने से पाणीअं भी होता है। अलिअं< अलोकम्
अलीअं भी होता है जिअइ< जीवति
जीआइ जिअउ< जीवतु
जीअउ विलिअं< वीडितम्
विली करिसोर करीषः
करीसो सिरिसोरशिरीष:
सिरीसो दुइअं< द्वितीयम्
दुई तइअं< तृतीयम्
तई गहिरं गभीरम्
गहोरं उवणिअं८ उपनीतम्
उवणीअं आणिअं<आनीतम्
आणी पलिविअं< प्रदीपितम्- ,
पलीविरं ओसिअन्तो< अवसीदन्-,
ओसीअन्तो पसिअप्रसीद
पसीअ गहिअं< गृहीतम्
गही वम्मिओ< वल्मीक:
वम्मीओ तयाणिं < तदानीम्
तयाणी
१. पानीयादिष्वित् ८।१।१०१. पानीयादिषु शब्देषु ईत इद् भवति । हे० । 'कल्पलतिका' के अनुसार पानीयगण में निम्नलिखित शब्द हैं--
पानीयवीडितालीकद्वितीयं च तृतीयकम् । यथागृहीतमानीतं गम्भीरञ्च करीषवत् ।।
इदानों च तदानी च पानीयादिगणो यथा। 'प्राकृत मञ्जरी' के अनुसार-पानीयवीडितालीकद्वितीयकरीषकाः ।
- गम्भीरञ्च तदानीञ्च पानीयादिरयं गणः ॥ - 'प्राकृप्र प्रकाश में उपनीत, पानीत, जीवति, जीवतु, प्रदीपित, प्रसीद, शिरीष, गृहीत, वल्मीक और अवसीदन् शब्दों का उल्लेख नहीं है।
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
१
(४६) जीर्ण शब्द में, ईकार और उकार दोनों होते हैं । जुण्णो, जिणोजीर्णः
-
(६७) हीन और विद्दीन शब्दों में ईकार और ऊकार होते हैं। जैसेहूणो, हीणहीनः विहूणो, विहीणो विद्दीनः
;
(६८) तीर्थ शब्द के ईकार का ऊकार तब होता है, र्थ ह हो गया हो । यथा
३
यथा
कार ।
तूहं तीर्थम् - र्थ के स्थान में ह हुआ है और ईकार को तित्थं < तीर्थम् —र्थ के स्थान में ह नहीं होने से ऊकार का अभाव है ।
-
जब कि उसके आगे का
(६९) पीयूष, आपीड, विभीतक, कीदृश और ईदृश शब्दों में ईकार को एकार होता है। जैसे
ऊसं पीयूषम्
आमेलो <आपीड:- पकार को मकार और ईकार को एकार तथा ड को ल । बहेडओ < विभीतक:रिसो< कीदृश:
रसोईदृश:
३९
( ७०) नीड और पीठ शब्दों में ईकार को विकल्प से एत्व होता है ।" जैसेडं, नीडं नीडम् पेढं, पीढं पीठम् - (ठ को ढ हुआ है । ( ७१ ) मुकुलादिगण के शब्दों में आदि उकार के स्थान में अकार आदेश होता है। जैसे
१. उजीर्णे ८।१।१०२. जीर्णशब्दे इत उद् भवति । हे० ।
२. ३ ऊर्हीन विहीने वा ८।१।१०३. अनयोरीत ऊत्वं वा भवति । हे० ।
३. तीर्थे हे ८।१।१०४. तीर्थशब्दे हे सति ईत उत्वं भवति । हे० ।
प्राकृत प्रकाश में इसे मुकुटादिगरण कहा है।
मडलं
4 मुकुलम् - क का लोप होकर उकार शेष है ।
गरुइ गुर्वी — व् के स्थान पर उ हुआ है और र तथा इ पृथक् हो गये हैं ।
मउडं मुकुटम् – का का लोप और ट के स्थान पर ड हुआ है ।
K
जह्नुट्ठिलो, जहिट्ठिलो 4 युधिष्ठिर:रः य के स्थान पर ज, इकार के स्थान पर उत्व ।
-
४. एपीयूषापीड - विभीतक - कीदृशेदृशे ८।१।१०५. एषु ईत एत्वं भवति । हैं० ।
५. नीड-पीठे वा ८।१।१०६. अनयोरीत एत्वं वा भवति । हे० ।
६. उतो मुकुलादिष्वत् ८।१।१०७, मुकुल इत्येवमादिषु शब्देषु श्रादेरुतोत्वं भवति । ० । मुकुटं मुकुलं गुर्वी सुकुमारो युधिष्ठिरः ।
गुरूपरि शब्दौ च भुकुदादिरयं गरणः । प्राकृतमंजरी ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
सोअमल्लं सौकुमार्यम् - र्य के स्थान पर ल, लकार का द्विस्व, क का लोप और शेष उकार के स्थान पर अ ।
गलोई गुडुची - गकारोत्तरवर्ती उकार के स्थान पर अ, ड के स्थान पर ल, उकार का ओ और च का लोप ।
४०
विशेष – कहीं-कहीं प्रथम उकार का आकार भी होता है । यथाविद्दाओ विद्रुतः - द्र में से रेफ का लोप और द को द्वित्व तथा उकार को आ हुआ है।
K
( ७२ ) यदि गुरु शब्द के आगे स्वार्थ में क प्रत्यय किया गया हो, तो उस गुरु शब्द के आदि उकार को विकल्प से अ आदेश होता है । जैसे
9
गरुओ, गुरुओ 4 गुरुक:
स्वार्थिक क के अभाव में गुरुओ (गुरुकः) होता है ।
(७३) भ्रुकुटी शब्द में उकार के स्थान पर इकार होता है। जैसे
भिउडि भ्रुकुटी - भ्रु के रेफ का लोप और उकार के स्थान पर इत्व, क का लोप तथा ट के स्थान पर ड ।
में
(७४) पुरुष शब्द में रु के उकार को इस्त्र होता है । जैसे
पुरसो पुरुष:-रु के स्थान पर रि हुआ है
I
परिसं पौरुषम् - पौ के स्थान पर प + उ रु के स्थान पर रि ।
"
४
(७५) क्षुत शब्द में आदि के उकार को ईत्व होता है । छीअंतम् - क्षु के स्थान पर छी और त का लोप ।
( ७६ ) सुभग और मुसल शब्दों में उकार को विकल्प से ऊत्व होता है ।" यथासूहओ, सुहओ सुभगः सु के स्थान पर सू, भ के स्थान पर ह और
ग का लोप ।
त्स
यथा
मूसलं, मुसलं
मुसलम् - विकल्पाभाव पक्ष में मुसलं ।
( ७७ ) उत्साह और उच्छन्न शब्दों को छोड़कर इसी प्रकार के अन्य शब्दों
और छके पर में रहने पर पूर्व के आदि उकार का दीर्घ ऊकार होता है। जैसे
१. गुरौ के वा ८।१।१०६. । हैं० ।
२. इभ्रुकुटौ ८।१।११०. । हे० ।
३. पुरुषे रोः ८।१।१११. । हे० ।
४. ई: क्षुते । १ । ११२. । हे० ।
५. ऊत्सुभग-मुसले वा ८।१।११३. । हे० । ६. श्रनुत्साहोत्सन्ने सच्छे ८।१।११४. | ० |
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण सुओ< उत्सुक:-उ के स्थान पर ऊ, तू का लोप तथा क का लोप और विसर्ग को ओत्व ।
ऊसुवो< उत्सव:- , , व का लोप और विसर्ग को ओत्व ।
ऊसित्तो< उत्सित्त:-उ के स्थान पर ऊ तू का लोप और संयुक्त क्त में से क का लोप तथा अवशेष तू को द्वित्व।
अच्छुओ< उच्छुक:-उ के स्थान में उत्व और क का लोप, विसर्ग को ओत्व । विशेष-उच्छाहो < उत्साह-यहां दीर्घ उकार नहीं हुआ है।
उच्छण्णो< उच्छन्न- , , , (७८) दुर् उपसर्ग के रेफ का लोप हो जाने पर हस्व उ का दीर्घ ऊ विकल्प से होता है। जैसे
दूसहो, दुसओ< दुस्सहः--दूसरा रूप विकल्पाभाव पक्ष का है।
दूहओ, दुहओ<दुर्भगः(७९) संयुक्त अधरों के पर में रहने पर पूर्ववर्ती प्रथम उकार का ओकार होता है। जैसे
तोण्डं तुण्डम्-उकार के स्थान पर ओकार हुआ है। मोण्डमुण्डम्
पोक्खरं ८ पुष्करम्-पु में रहनेवाले उकार के स्थान पर ओकार तथा एक के स्थान पर क्ख ।
कोट्टिमंद कुटिमम्-उकार के स्थान पर ओकार ।
पोत्थअं< पुस्तकम्-उकार के स्थान पर मोकार तथा स्त के स्थान पर स्थ और क का लोप, शेष अ ।
लोद्धओ< लुब्धकः-उकार के स्थान पर ओत्व, ब् का लोप और ध को द्वित्व।
मोत्तादमुक्ता-उकार के स्थान पर ओकार, संयुक्त क् का लोप और त् को द्वित्व ।
६. लुकि दुरो वा ८।१।११५. । हे० । १. प्रोत्संयोगे ८।१।११५. हे०
तुण्डादिगरण के शब्द-- तुण्डकुट्टिमकुद्दालमुक्तामुद्गरलुब्धकाः । . पुस्तकन्चैवमन्येऽपि कुग्मीकुन्तलपुष्कराः ॥ कल्पलतिका
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण वोक्कन्तं< व्युत्क्रान्तम्-व्यु के स्थान पर वो, तू और र् का लोप, क को द्वित्व ।
कोन्तलो< कुन्तल:-उकार को ओकार ।
पोग्गलम् < पुद्गलम्-उकार को ओकार, द का लोप और ग को द्वित्व। (८०) शब्द के आदि में ऋकार का अकार होता है। जैसे
घअं< घृतम्-में रहने वाली प्रकार के स्थान पर अ और त का लोप होने से अ शेष ।
तणं तृणम्-तृ में रहनेवाली ऋ के स्थान पर अ। कअं< कृतम्-कृ में रहनेवाली के स्थान पर अ तथा त का लोप, शेष अ।
वसहो< वृषभ:--वृ की ऋकार के स्थान पर अ और भ के स्थान पर ह, विसर्ग का ओत्व ।
मओ< मृगः-मृ की ऋ के स्थान पर और ग का लोप, अ शेष ।
घट्रो<घृष्ट:- की ऋ के स्थान पर अ और पका लोप, ट को द्वित्व तथा द्वितीय ट को ठ।
वड्ढी< वृद्धिः-द्धि के स्थान पर ड्ढी। ... (८१) कृपादिगण के शब्दों में आदि ऋकार का इत्व होता है। उदाहरणकिवा < कृपा-कृ में रहनेवाली ऋ के स्थान पर इ तथा पा के स्थान पर वा।
दिटुं< दृष्टम् की क के स्थान पर इ, संयुक्त स का लोप, ट को हित्व तथा द्वितीय ट के स्थान पर ''।
सिट्टी सृष्टि:-स की क्र के स्थान पर इ, संयुक्त का लोप, को द्वित्व और द्वितीय ट के स्थान पर ठ।
भिऊ र भृगुः-भृ की के स्थान पर इ तथा ग का लोप, उ शेष । सिंगारो<शृंगार:- की ऋ के स्थान पर है। घुसिणं < घुसृणम् –स की ऋ के स्थान पर इ। इडढी र ऋद्धिः- के स्थान पर इ, द्धि के स्थान पर ड्ढी । किसाणू< कृशानु:-कृ की - के स्थान पर इ। किई< कृति:-कृ की ऋके स्थान पर इ, त् का लोप और ई शेष। किवणो कृपणः कृ की ऋ के स्थान पर इ और प के स्थान पर व।
१. ऋतोत् ८.१।१२६. प्रादेकारस्य अत्वं भवति । हे० । २. इत्कृपादौ ८।१।१२८. कृपा इत्यादिषु, शब्देषु प्रादेऋत इत्वं भवति ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
भिंगारो भृंगारः - भृ की ऋ के स्थान पर इ ।
किसो कृशः कृ की ॠ के स्थान पर इ ।
विञ्चुओ वृश्चिक: - वृ की ऋ के स्थान पर इ और श्च के स्थान पर ञ्च तथा इकार को उकार |
विहिओ वृंहित:- -वृ की ऋ के स्थान पर वि ।
तिप्पं तृप्तम् - तृ की ॠ के स्थान पर इ, त का लोप और प को द्वित्व | किश्वं कृत्यम् - कृ की ऋ के स्थान पर इ और स्य के स्थान पर च । हिअं हृतम् — हृ की ऋ के स्थान पर इ, त का लोप तथा अ स्वर शेष । वित्तंवृत्तम् - वृ की ऋ के स्थान पर इकार ।
-
वित्तीवृत्तिः वृ की ऋ के स्थान पर इकार और त्ति को दीर्घादेश । विसी वृषि: वृ की ऋ के स्थान पर इकार और षि को दीर्घ तथा दन्त्य । सइ सकृत् — कृ की ऋ के स्थान पर इ तथा अन्तिम हलन्त व्यंजन तू का लोप हिअअं हृदयम् - हृ की ऋ के स्थान पर इकार, द और य का लोप और स्वर शेष |
1
दिट्ठी दृष्टि: की ऋ के स्थान पर इत्व तथा संयुक्त ष का लोप और ट
को द्वित्व, द्वितीयट को ठ ।
गिट्ठी गृष्टि: – गृ की
-
""
भिंगोदभृंगः -भु की ऋ के स्थान पर इकार ।
सियालो < शृगालः – ४ की ऋ के स्थान पर इत्व, ग का लोप और स्वर शेष । विड्ढी वृद्धिः - त्रृ की ऋ के स्थान पर इकार, दन्त्य के स्थान पर मूर्द्धन्य वर्ण और दीर्घ
४३
99
घिणा घृणा - घृ की ऋ के स्थान पर इकार |
किच्छं < कृच्छ्रम् - कृ की ऋ के स्थान पर इकार ।
निवो नृपः नृ की ऋ के स्थान पर इकार और प को व ।
39
विहाहा - संयुक्त को लोप, पृ की ऋ के स्थान पर इ और प को व । गिड्ढी गृद्धिः – गृ की ऋ के स्थान पर इ और दन्त्य वर्णों का मूर्धन्य । किसरो < कृशर:- कृ की ऋ के स्थान पर इ ।
धिई < धृतिः - ट की ऋ के स्थान पर इ, तकार का लोप और स्वर शेष । किवाणं कृपाण - कृ की ऋ के स्थान पर इ और त का लोप, स्वर शेष । वाहित्तं व्याहृतम् -व्या के स्थान पर वा, हृ की ऋ के स्थान पर इकार । इसी ऋषि:: ऋ के स्थान पर इ और षि के स्थान पर दीर्घ सी । वितिहो वितृष्णः - तृ की ऋ के स्थान पर इ और ध्ग के स्थान पर ण्द | मिट्ठ< मृष्टम् - मृ की ऋ के स्थान पर इकार ।
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४४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण सिट्ठर सृष्टम् -स की क्र के स्थान पर इ तथा संयुक्त सकार का लोप, ट को
..
...
द्वित्व।
पित्थी८ पृथ्वी-पृ की ऋ के स्थान पर इ तथा थ्वी के स्थान पर स्थी। समिद्धी< समृद्धिः-मृ की ऋ के स्थान पर इकार और हस्व को दीर्घ । किवो< कप:-कृ की ऋ के स्थान पर इ और प का व ।
उक्किट्र उत्कृष्टम्- की ऋ के स्थान पर उत्व, तू का लोप और क को द्वित्व, प का लोप तथा ट को द्वित्व ।
विकल्प से इत्वविसो, वसो< वृषः किण्हो, कण्हो - कृष्ण:
महिविट्ठ < महीपृष्ठम् -यहां उत्तरपद रहने से पृष्ठ शब्द में विकल्प से इत्व नहीं हुआ।
( ८२ ) ऋतु प्रभृति शब्दों में आदि ऋकार को उकार होता है। उदाहरण'-- उदू < ऋतु:-ऋकार के स्थान पर उ और त के स्थान पर द।
पउत्ती< प्रवृत्तिः-प्र के स्थान पर प, व का लोप और ऋ के स्थान पर उ तथा ति को दीर्घ ।
परामुट्ठोर परामृष्टः-मृ की + के स्थान पर उकार, ष का लोप, ट को द्विस्व और द्वितीय ट को ठ।
पाउसो< प्रावृट-प्र का प, व का लोप, ऋ के स्थान पर उ और ट् को स परहुओ< परभृत:-भृ की ऋ के स्थान पर उत्व, भ के स्थान पर ह ।
णिव्वुअं, णिव्वुदंर निर्वृतम्-रेफ का लोप, व को द्वित्व, ऋ के स्थान पर उ, त का लोप और स्वरशेष ।
उसहो<ऋषभ:- के स्थान पर उ और भ के स्थान पर ह ।
भाउओ< भ्रातृक:-भ्रा में से रेफ का लोप, तृ में त का लोप, के स्थान पर उ।
पहदिरप्रभृति-प्र का प, भृ के स्थान पर हु और त के स्थान पर द। संवुदंर संवृत्तम्-वृ की ऋ के स्थान पर उ तथा त को द। वुड्ढोर, वृद्धः-वृ की ऋ के स्थान पर उ तथा दन्त्यवों को मूर्धन्य । . मुडालं मृणालम्--मृ की क के स्थान पर उ तथा ण के स्थान पर ड ।
पाहुडं< प्राभृतम्-प्र के स्थान पर प, भ के स्थान पर ह और त के स्थान पर ड।
१. उदृत्वादौ ८।१।१३१. ऋतु इत्यादिषु शब्देषु प्रादेऋत उद् भवति । हे० ।
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४५
अभिनव प्राकृत-व्याकरण पुढे< पृष्टम्-पृ की ऋ के स्थान पर उ, ष का लोप, ट को द्विस्व तथा द्वितीय ट को ठ।
पुहइ, पुहवी< पृथिवी-पृ की ऋके स्थान पर उ और थ के स्थान पर है।
पाउअं< प्रावृतम्-प्रा के स्थान पर पा, वृ के व का लोप, के स्थान पर उ, त का लोप तथा विसर्ग को मोत्व।
भुई < भृतिः-भृ की के स्थान पर उ तथा तकार का लोप । विउअं< विवृतम्-व के व का लोप, इसी के के स्थान पर उत्व । बुंदावणं वन्दावनम् -व के के स्थान वर उत्व ।
जामाउओ, जामादुओ< जामातृक:-तृ के तकार का लोप, * के स्थान पर उ और क का लोप तथा स्वरशेष। .
पिउओ< पितृक:-तृ के त का लोप, के स्थान पर उ और क का लोप, तथा ओत्व ।
णिहुअं, णिहुदं< निभृतम्-भृ में भ के स्थान पर ह और ऋ के स्थान पर उ। णिव्वुइदनि ति:- में से रेफ का लोप, ऋ को उत्व तथा व को द्वित्व। वुड्ढी< वद्धि:-व के ऋ के स्थान पर उत्व और दन्त्य वर्णो को मूर्धन्य। माउआ<मातृका-तृ के त का लोप, के स्थान पर उ और क का लोप,
स्वरशेष।
णिउअंद निवृतम् = वृ के व का लोप, ऋ का उत्व तथा त का लोप, स्वरशेष । वुत्तान्तो< वृत्तान्त:- का उत्व । उजू<ऋजु:- ऋ का उत्व । पुहुवी<पृथिवी-पृ में के स्थान पर उत्व, थ का को ह आदेश । बुंदं< वृन्दम्-व के के स्थान पर उत्व ।
माऊ, मादु<मातृ-तृ में से तकार का लोप, * के स्थान पर उत्व । तकार का लोप न होने पर द।।
(८३) निवृत्त और वृन्दारक शब्द में ऋ के स्थान पर विकल्प से उत्व होता है। यथा
निवुत्तं, निअत्तं< निवृत्तम्-विकल्पाभाव पक्ष में ऋ के स्थान पर अ हुआ है। वुन्दारया, वन्दारया< वृन्दारका- ,
( ८४ ) वृषभ शब्द में ऋ के स्थान पर विकल्प से वकार सहित उत्व होता है। यथा
उसहो, वसहोवृषभः-विकल्पाभाव पक्ष में ऋ के स्थान में अ हुआ है। १. निवृत्त-वृन्दारके वा ८।१।१३२. । हे० ।- २. वृषभे वा वा ८।१।१३३: । हे० ।
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४६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण (८५) समास आदि में जो पद प्रधान न होकर गौण होता है, उसके अन्तिम ऋ के स्थान में उकार आदेश होता है । जैसे___ माउमंडलं, मादुमंडलं<मातृमण्डलम् - तकार का लोप न होने पर त का द हुआ है और ऋ के स्थान पर उकार ।
माउहरं, मादुहरं<मातृगृहम् पाउवणं< पितृवनम् तकार का लोप और अ के स्थान पर उकार । ( ८६) गौण- अप्रधान मातृशब्द के ऋकार को विकल्प से इकार होता है। जैसेमाइ-हरं, माउ-हरं<मातृगृहम् माइ-मंडलं, माउ-मंडलं, मादु-मंडलं < मातृमंडलम् ( ८७ ) मृषा शब्द में ऋकार के स्थान पर उत् , ऊत् और ओत् होते हैं। जैसेमुसा, मूसा, मोसा< मृषा मुसा-वाओ, मुसा-वाओ, मोसा-वाओ< मृषावादः
( ८८ ) वृष्ट, वृष्टि, पृथक् , मृदङ्ग और नतृक शब्दों में ऋकार के स्थान पर इकार और उकार होते हैं। जैसे
विट्ठो, वुट्ठो-वृष्टः विट्ठी, वुट्ठी< वृष्टिः पिहं, पुहं < पृथक
मिइंगो, मुइंगो< मृदङ्गः नत्तिओ, नत्तुओ< नप्तृकः
(८९ ) वृहस्पति शब्द में प्रकार के स्थान पर विकल्प से इकार और उकार होते हैं। जैसे
विहफ्फई, बुहफ्फइ, वहफ्फई ८ बृहस्पतिः ( ९० ) वृन्त शब्द में ऋकार के स्थान पर इत् एत् और ओत होते हैं। जैसेविण्टं, वेण्टं, वोण्टं < वृन्तम्
( ९१ ) व्यञ्जन के सम्पर्क रहित-केवल + के स्थान पर रि आदेश होता है । यह कहीं विकल्प से और कहीं नित्य होता है। जैसेरिद्धी ऋद्धिः
रिणं ऋणम् रिज्जू, उज्जू<ऋजु: रिसहो, उसहो< वृषभ: १. गौणान्त्यस्य ८।१।१३४. । हे० । २. मातुरिद्वा ८1१।१३५. । हे । ३. उदूदोन्मृषि ८।१।१३६. । हे। ४. इदुतौ वृष्ट-घृष्टि-पृथङ मृदङ्ग-नप्तृके ८।१।१३७. । हे० । ५. वा बृहस्पतौ ८।१।१३८. । हे०। ६. इदेदोद्वन्ते ८।१।१३६. । हे। ७. रिः केवलस्य ८।२।१४०. । हे० ।
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४७
अभिनव प्राकृत-व्याकरण रिऊ, उदू ऋतुः रिसी, इसी = ऋषि: रिद्धी<ऋद्धिः
( ९२ ) जिस दृश् धातु के आगे कृत् , क्विप, स्क् और सक प्रत्यय आये हों, उसके ऋ का रि आदेश होता है। जैसे
एआरिसो< एतादृशः-त् का कोप स्वर शेष, दू का लोप और ऋ के स्थान पर 'रि'।
तारिसोद तादृश:-ह में से दू का लोप और के स्थान पर रि। सरिसोरसदृशः- "
" सरिच्छो< सदृक्षः , ,, क्ष के स्थान पर च्छ । भवारिसोरभवाश:- दू का लोप और ऋ के स्थान पर रि। जारिसो< यादृशः- , केरिसो< कीदृश:-की के स्थान पर के और दू का लोप, ऋ के स्थान पर रि।
अम्हारिच्छो< अस्मादृक्ष:-दू का लोप, ऋ के स्थान पर 'रि', क्ष के स्थान पर छ।
अन्नारिसो< अन्यादृशः-न्या के स्थान पर न्ना, दू का लोप, ऋ के स्थान पर 'रि'।
अम्हारिसो< अस्माईश:-स्मा के स्थान पर म्हा, दू का लोप, ऋ के स्थान पर रि।
तुम्हारिसो<युष्मादृशः-मा के स्थान पर म्हा, दू का लोप, र के स्थान पर रि। विशेष-शौरसेनी में उक्त शब्दों के रूप निम्नप्रकार होते हैं।
जादिसंरयारशम् तादिसं<तादृशम् पैशाची में-जातिसं< यादृशम् तातिसं< तादृशम् अपभ्रंश में-जइसं< यादृशम् तइसं< तादृशम्
(९३ ) किसी भी शब्द में आदि ऐकार का एकार होता है। यथासेलो = शैलः-श के स्थान पर स और ऐकार को एकार ।
तेल्लुकं, तेल्लोकं < त्रैलोक्यम्-न में से र् का लोप, ऐकार को एकार, च का लोप और क को द्वित्व।
सेच्चंदशैत्यम्-ऐकार का एकार, त्य के स्थान पर च । एरावणो< ऐरावत:-ऐकार का एकार और त के स्थान पर ण ।
१. दृशः क्विप-ट क्सकः ८।१।१४२. । हे० । २. ऐतु एतु ८।१।१४८. । हे०। ......
.
..
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४८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
केला सो कैलाश : - ऐकार का एकार ।
केढवो कैतव :- ऐकार का एकार और त के स्थान पर ढ ।
वेहव्वं वैधव्यम् — ऐकार का एकार, ध के स्थान पर है, और य लोप तथा व् को द्वित्व |
१
( ९४ ) दैत्यादि गण में ऐ के स्थान में अइ आदेश होता है । यह नियम ए का अपवाद है । ज
जैसे
-
दचं दैत्यम् - ऐ के स्थान पर अइ, त्य के स्थान पर च ।
K
न्य के स्थान पर oण |
<
दइणं दैन्यम्— अइसरिअं ऐश्वर्यम्भइरवो भैरव : - ऐकार का एकार
">
दइवअं दैवतम् - ऐकार का एकार, त लोप ओर स्वरशेष । इआलीओ वैतालिक: ऐकार का एकार त लोप, स्वर शेष तथा क लोप और स्वर शेष ।
99
व का लोप और र्यम् का रिअं ।
"
वइएसो वैदेश : - ऐकार का अइ, द लोप और स्वर शेष । वइएहो < वैदेह—
"
99
वइअब्भो वैदर्भ :- ऐकार का अइ, द लोप, स्वर शेष, रेफलोप और भको द्वित्व, पूर्ववर्ती भ को ब ।
इस्सारो < वैश्वानर : - ऐकार का अइ, व लोप, स को द्वित्व, न
कोण ।
कइअवं कैतवम् - ऐकार का अइ, त लोप, स्वर शेष ।
वइसाहो < वैशाख : - ऐकार का अइ, ख के स्थान में ह । वइसालो | वैशाल: - ऐकार का अह ।
--
( ९५ ) वैरादिगण में ऐकार के स्थान में विकल्प से अइ आदेश होता है । यथावइरं, वेरं < वैरम् – ऐकार के स्थान पर अइ, विकल्पाभाव में ए । कइलासो, केलासो< कैलाश:कइरवं, केरवं < कैरवम्
;,
""
१. श्रइदैत्यादौ च ८ । १ । १५१. हे० । दैत्यादि गरण के शब्द
दैत्यादौ वैश्यवैशाख वैशम्पायनकैतवाः ।
२.
वैरादौ वा ८ । १ । १५२. हे० । वैरादिगरण के शब्द -
22
""
स्वैर वैदेहवै देशक्षेत्र वैषयिका श्रपि ।
दैत्यादिष्वपि विज्ञेयास्तथा वैदेशिकादयः ॥ कल्पलतिका
दैत्यः स्वैरं चैत्यं कैटभवैदेहको च वैशाख ।
वैशिकभैरव वैशम्पायन वैदेशिकाश्च दैत्यादिः ॥ - प्राकृत मंजरी ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
वइसवणो, वेसवणोवैश्रवणः - ऐकार के स्थान पर अइ, श्र के र का लोप,
अभाव पक्ष में ए ।
वइसंपाअणो, वे संपाअणो वैशम्पायन:वइआलिओ वेआलिओ < वैतालिक:वइसिओ, वेसिओ वैशिक:चइत्तो, चेत्तो चैत्र:
:
द्वित्व |
=
कोसिओ कौशिक:--
J
यथा
""
99.99
"
""
"
( ९६ ) शब्द के आदि औकार को ओकार आदेश होता है । जैसेकोमुई कौमुदी - औ के स्थान पर ओकार, द लोप और स्वरशेष । जोव्वणं यौवनम् - य के स्थान पर ज, औ का ओ और व को द्विस्व । कोत्थुहो< कौस्तुभः – औकार का ओ, स्तु के स्थान पर त्थु और भ के स्थान
दोहग्गं दौर्भाग्यम् -
""
"
गोदमोद गौतम : - औकार का ओ और त का द ।
कोसंबी कौशाम्बी - औकार का ओ हुआ है I कोंचो <क्रौञ्चः—
पर ह ।
सोहग्गं सौभाग्यम् — औकार का ओ, भ के स्थान पर छ, य् लोप और ग
को द्वि ।
१. श्रौत श्रोत ८ । १ । १५९. । हे० । २. उत्सौन्दर्यादौ ८।१।१६०. हे० ।
य लोप और स्वरशेष |
""
" "
कु का लोप और स्वरशेष |
"
और क का लोप तथा स्वर शेष ।
२
(९७) सौन्दर्यादिगण के शब्दों में औ के स्थान पर उत्तू आदेश होता है ।
""
""
त्र के र का लोप और त को
"
ܕܕ
सुन्दरं, सुंदरिअं सौन्दर्यम् - औ के स्थान पर उ होने से 1 सुंडो शौण्ड:- -औ के स्थान पर उत् आदेश ।
दुवारिओ दौवारिक: - औ के स्थान पर उत् और क का लोप, स्वर शेष । मुंजायमानः – औ के स्थान पर उतू आदेश ।
सुगंधत्तणं द सौगन्ध्यम्-औ के स्थान पर उत् आदेश । पुलोमी<पौलोमी सुवण्णिओ सौवर्णिकः,
४९
"
99
""
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
( ९८ ) कौक्षेयक और पौरादिगण के शब्दों में औ के स्थान पर अउ आदेश होता है । यथा
१
कक्खेअओ, कुक्खेअओ कौक्षेयकः ।
पउरो <पौर:
परिसं पौरुषम् rests:
उणं मौनम्
कउला कौला:
( ९९ ) अब और अप उपसर्गों के आदि स्वर का आगेवाले सस्वर व्यंजन के साथ विकल्प से ओत् होता है। जैसेअसो, अवआसो
-
अवकाशः - अब के स्थान पर ओ और क का लोप,
स्वर शेष |
ओसरइ, अवसरइ < अपसरति - अप के स्थान पर ओ, त का लोप और
स्वर शेष |
ओहणं, अअहणं <अपघनम् — अप के स्थान पर ओ तथा घ के स्थान पर छ । विशेष - निम्न रूपों में यह नियम लागू नहीं होता
करवो कौरव:
अवगअं < अपगतम् - प के स्थान पर च ।
अवसदो < अपसदः
( १०० ) आगेवाले सस्वर व्यञ्जन के साथ उप के आदि स्वर के स्थान में विल्प से तू और ओत् आदेश होते हैं। जैसे
29
सउहं सौम्
मउली < मौलि
सउरा दसौरा:
१. उः पौरादौ च ८ । १ । १६२. हे० ।
सौन्दर्यादिगरण के शब्द -
पौरादिगरण के शब्द - पौरपौरुषशैलानि,
ऊहसिअं, ओहसिअं < उपहसितम् - उप के स्थान पर ऊ और ओ हुआ है I ऊआसो, ओआसो उपवासः - उप के स्थान पर ऊ और ओ, व का लोप
और स्वर शेष |
इन सामान्य स्वरविकृति नियमों के पश्चात् व्यञ्जनविकृति के नियमों का निर्देश किया जाता है
( १०१ ) स्वर से पर में रहनेवाले अनादिभूत तथा दूसरे किसी व्यञ्जन से
"
सौन्दर्यं शौण्डिको दौवारिकः शौराडोपरिष्टकम् |
कौक्षेयः पौरुषः पौलोमि मौजदौस्याधिकादयः ॥ कल्पलतिका ।
गौडक्षौरितकौरवाः ।
कल मौलिवौचित्यं, पौराकृतिगरणा मता । - कल्पलतिका । २. श्रवापोते ८।१।१७२. हे० ।
३. ऊच्चोपे ८।१।१७३. हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण संयोगरहित क, ग, च, ज, त, द, प, य और व वर्णों का प्राय: लोप होता है।' उदाहरणक लोप
लोओ< लोक:-क का लोप, स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व । सअढं शकेटम्-क का लोप, स्वर शेष और ट के स्थान पर ढ । मउलं< मुकुलं-मु के उ के स्थान पर अ, क का लोप और उ स्वर शेष । णउलोर नकुलः-न का ग और क का लोप, स्वरशेष । णोआ<नौका-न का ण और औ का ओ तथा क का लोप, स्वरशेष ।
तित्थयरो< तीर्थकरः-ती को हस्व, रेफ का लोप, थ को द्वित्व, क लोप और स्वरशेष, य भुति । ग लोप
णओ< नग:-ग लोप, स्वरशेष । णअरं, नयरं, णयरं< नगरम्-ग लोप और शेष स्वर के स्थान में य श्रुति । मयंको< मृगाङ्कः-मृ का म, ग का लोप और शेष स्वर को य श्रति । साअरो, सायरोदसागर:-ग लोप और शेष स्वर को य श्रुति ।
भाइरही< भागीरथी-ग लोप, स्वर शेष और थ के स्थान पर है। च लोप
सई < शची-श को स और चकार का लोप, स्वर शेष । कअग्गहो, कयग्गहो< कचगृहः-च लोप, शेष स्वर को य श्रुति । सई< सूची-च लोप और स्वर शेष। रोअदि< रोचते-च लोप और स्वर शेष । उइदं उचितम्-च लोप और स्वर शेष, त को द।
सूअअं< सूचकम् । नलोप
रअओर रजक:-ज और क दोनों का लोप और स्वर शेष। पआवई < प्रजापति:-ज लोप, स्वर शेष और प के स्थान पर व । गओ<गज:-ज लोप और स्वर शेष।
रअढं रजतम्-ज का लोप, स्वर शेष और त के स्थान पर ढ । त लोप
विआणं< वितानम्-त लोप और स्वर शेष। किअं< कृतम्-कृ में रहनेवाली के स्थान पर अ और त लोप, स्वर शेष । रसाअलं< रसातलम्-त लोप और स्वर शेष ।
१. क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक ८।१।१७७. हे ।
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५२
"
अभिनव प्राकृत-व्याकरण रअणं, रयणं< रत्नम् -त लोप और स्वर शेष, स्वर शेष के स्थान में य श्रुति । दलोप
जइ< यदि-प को ज और द लोप । नई ८ नदी-द लोप और स्वर शेष । गआ< गदा- , मअणो< मदनः-, वअणं वदनम्-,
मओ< मदः- , प लोप
रिऊ८ रिपुः–प लोप और उ शेष तथा उकार को दीर्घ । सुउरिसो< सुपुरुष:कई < कपि:-प लोप और स्वर शेष ।
विउलं< विपुलं-, , य लोप
दआलू < दयालुः—य लोप, स्वर शेष और लु को दीर्घ । णअणं< नयनम्-
" विओओ< वियोगः–य और ग का लोप स्वर शेष ।
वाउणा< वायुना–य लोप और स्वर शेष। व लोप
जीओ< जीप:-व लोप और स्वर शेष । दिअहो< दिवसः- लोप, स्वर शेष और स के स्थान पर ह। लाअण्णं < लावण्यम्-व लोप, स्वर शेष, य लोप और ण को द्वित्व । विओहोर विवोध:-व लोप, स्वर शेष और ध के स्थान पर ह।
वडआणलो< वडवानल:-व लोप, स्वर शेष । विशेष-प्रायः शब्द का प्रयोग होने से कहीं-कहीं लोप नहीं होता । यथासुकुसुमं< सुकुसुमम्
पयागजलं< प्रयागजलम्। पियगमणं-प्रियगमनम् सुगओ< सुगतः अगरु< अगर
सचावंसचापम् समवाओ< समवायः ( क ) स्वर से पर में नहीं रहने के कारण उक्त वर्गों का लोप नहीं हुआसंकरो<शंकरः
णकंचरो< नक्तंचर: धणंजओ<धनञ्जयः पुरंदरो< पुरन्दरः संवरो< संवरः
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
(ख) निम्न शब्दों में संयुक्त होने के कारण लोप नहीं हुआ
वग्गो वर्गः
मग्गो मार्गः
अको अर्क अग्घो अर्घः
( ग ) निम्न शब्दों में आद्यक्षर होने के कारण उक्त वर्णों का लोप नहीं हुआ -
गंधो गन्धः
कालो < काल:
चोरो < चौरः - औकार के स्थान पर ओकार ।
जारो <जारः
तरू तरुः—रु के हस्व उकार को दीर्घ हुआ है
1
दवो दवः
पावं पापम् - द्वितीय प के स्थान पर व हुआ है ।
(घ) समास में उत्तरपद के आदि का विकल्प से लोप होता है
सहअरो, सहचरो सहचर :
जलअरो, जलचरो < जलचर:
सहआरो, सहकारी सहकार :
(ङ) कुछ विद्वानों के मत में क का लोप नहीं होता, बल्कि उसके स्थान पर ग होता है । जैसे
एगो एकः आगारो <आकार:
५३
एगत्तणं < एक्त्वम्
अमुगो <अमुकः आगर आकर्षः
(च) कहीं कहीं आदि में आनेवाले कादि वर्णों का भी लोप देखा जाता है
स उ स पुनः
सोय, सो सोअ दस च-च का लोप होने पर शेष स्वर अ के स्थान में य श्रुति होने से च काय होता है ।
इन्धं चिह्नम् – आदि च का लोप ओर ह के स्थान पर ध ।
<
(छ) आर्ष प्राकृत में च के स्थान पर ट पाया जाता है । यथा
आउण्टणं आकुञ्चनम्
( १०२ ) क, ग, छ, ज, त, द, प, य और व का लोप होने पर अवशिष्ट स्वर
अ या आके स्थान में लघु प्रयत्नतर यकार का उच्चारण होता है । यथानयरं नगरम् - ग का लोप होने पर अवशेष अ के स्थान पर य ।
कयग्गहो कचग्रहः —च का लोप होने पर अवशेष अ के स्थान पर य ।
कायमणीकाचमणि:
99
१७
""
रययं रजतम् - ज और त का लोप होने पर अवशेष स्वर अ के स्थान में य ।
१. श्रवण यश्रुतिः ८।१।१८०. हे० ।
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५४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
पयावई ८ प्रजापति:--ज का लोप और अवशेष आ के स्थान में या, ५ का व और त का लोप, दीर्घ।
रसायलंदरसातलम् –त का लोप और अवशेष अ को य । पायालं < पातालम् - त का लोप और अवशेष आ को या ।
(१०३ ) असवर्ण से पर में अनादि प का लोप लुक नहीं होता, बल्कि पकार को वकार होता है। उदाहरण
उवसग्गो< उपसर्ग:-का व, रेफ का लोप और ग को द्वित्व । कवालो < कपाल:—यहां प का लोप नहीं हुआ, उसके स्थान पर व हुआ है। उल्लाओ< उल्लाप:कवोलो< कपोल:महिवालो<महिपाल:उवमा< उपमापावं< पापम्-५ का व हुआ है। सवहो < शपथः-५ का व तथा थ का ह हुआ है।
सावो<शाप:–प का व हुआ है। विशेष—(क ) संयुक्त होने पर प का व नहीं होता । यथा
विप्पोद विप्रः-प्र में + + अ का संयोग है अत: रेफ का लोप और प को द्वित्व।
सप्पो< सर्पः-रेफ का लोप और प को द्वित्व। ( ख ) आदिस्थ होने पर प का न तो लोप होता है और न उसके स्थान में व ही होता है। यथा
पई पति:--त का लोप तथा इकार को दीर्घ ।। पंडिओ< पण्डितः-त का लोप और विसर्ग को ओत्व । ( १०४ ) आपीड शब्द में पकार को म होता है। यथाआमेलो आपीड:-4 का म और ड को ल हुआ है।
( १०६ ) स्वर से पर में रहनेवाले असंयुक्त और अनादि ख, घ, थ, ध और भ वर्गों के स्थान में प्राय: ह आदेश होता है। वास्तविकता यह है कि इन व्यंजनों में ह संयुक्त है। जैसे
ख = क् + ह, घ = ग+ ह्, थ् = त् + ह्, ध = द् + ह्, फ= प् + ह्, भ = + ह। अतः उक्त व्यजनों में विजातीय का लोप होकर ह शेष रह जाता है। उदाहरण
१. पो वः २।१५. वर० । २. आपीडे मः २।१६. वर० । ३. ख-च-थ-ध-भाम् ८।१।१८७. हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
मुहंमुखम्-ख का ह हुआ है। महोदमख:-ख का ह हुआ है। मेहला< मेखला--, " लिहइ८ लिखति--, और तू का लोप तथा इ शेष । पमुहेण प्रमुखेण–प्र के स्थान पर प और ख का ह हुआ है।। सही< सखी--ख के स्थान पर है। अलिहिदाद अलिखिता-ख के स्थान पर ह और त के स्थान पर द। मेहोद मेघः-घ के स्थान पर ह हुआ है। जहणंद जघनम्-, माहो<माघ:-- , लाहअं< लाघवम्-घ के स्थान पर ह और व का लोप तथा स्वर अ शेष । लहु< लघु:-घ के स्थान पर है। नाहो<थ:--थ के स्थान पर ह । गाहा<गाथा-, , मिहुणं< मिथुनम्--, " सवहो< शपथ:--प के स्थान पर व और थ के स्थान पर है। कहेहि < कथय--थ के स्थान पर है। कह कथम्-- " " मणोरहोद मनोरथ:--, " साहू <साथुः --ध के स्थान पर ह। राहा< राधा-- , वाहावबाधा--, " वहिरो<बधिर:--, वाहइ< बाधते--ध के स्थान पर ह और विभक्ति चिह्न इ । इंदहणू < इन्द्रधनु:--रेफ का लोप और ध के स्थान पर ह ।
अहिअंर अधिकम्--ध के स्थान पर है। माहवीलदा<माधवीलता--ध के स्थान पर ह तथा त के स्थान पर द। महुअर<मधुकर:--ध के स्थान पर ह तथा क का लोप, अ शेष । सहा<सभा--भ के स्थान पर है। सहावोस्वभावः-व का लोप और भ के स्थान पर है। णहं< नभ:- भ के स्थान पर ह । . सोहइशोभते--म के स्थान पर ह और विभक्ति चिह्न इ । सोहणं< शोभनम् -भ के स्थान पर ह ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
आहरणं< आभरणम्-भ के स्थान पर है।
दुल्लहो<दुर्लभः- रेफ का लोप और ल को द्वित्व तथा भ के स्थान पर ह । विशेष—(क) स्वर से पर में नहीं रहने से
संखो< शङ्खः-यहां ख स्वर से पर नहीं है, बल्कि अनुस्वार व्यञ्जन से परे है। संघो< सङ्कः-, घ , " " कंथा कन्था-, थ ,. " "
खंभो< स्तम्भ:-, भ .. , ( ख ) उपयुक्त वर्णों के असंयुक्त होने पर है आदेश होता है, संयुक्त होने से नहीं । जैसे
अक्खइ< अक्षति–ख के स्थान पर ह नहीं हुआ। अग्घइ< अर्घति-घ के स्थान पर कत्थइ< कथयति—थ के , , बन्धइ बन्धति-ध के ,
लब्भइ < लभते-भ के , (ग) गज्जइ घणो< गर्जयति धनः- प्रादि में रहने से ह नहीं हुआ।
गज्जन्ते खे मेहा< गर्जयन्ते खे मेघाः-ख आदि . , , पखलो< प्रखल:-प्रायः कथन के कारण ह नहीं हुआ। पलंबघणो< प्रलम्बघ्नः- , " अधीरो< अधीर:अधण्णो अधन्य:- , जिणधम्मो< जिनधर्म:- , पणट्ठभओ< प्रनष्टभय:- ,
( १०६ ) स्वर से पर में रहनेवाले असंयुक्त और अनादि ट, ठ और ड के स्थान में क्रमशः ड, ढ और ल आदेश होते हैं ।' उदाहरण
मढो< मठ:-3 के स्थान में ढ हुआ है। सढो< शठः- " " कमढोर कमठ:- , " कुढारो< कुठार:-, णडो< नट:–ट के स्थान में ड हुआ है। भडो< भट:
१. ठो ढः ८।१।१९६; टो डः ८।१।१९५; डो लः ८।१।२०२. हे। .
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
विडवो विटपट के स्थान पर ड और प के स्थान पर व । घडो घटट के स्थान पर ड ।
घडइ घटते-ट के स्थान पर ड और विभक्ति चिह्न वलया -मुँहं वडवामुखम्< पर य श्रुति तथा ख के स्थान पर ह ।
गरुलो गरुडः — ड के स्थान पर ल ।
कीलइ क्रीडति — रेफ का लोप, ड के स्थान पर ल और विभक्ति चिह्न छ । तलायो < तडागः- ड के स्थान पर ल ग लोप और अ स्वर के स्थान में यश्रुति । बलही बडधि:-ड के स्थान में ल और ध के स्थान में ह तथा दीर्घ । घंटा घण्टा - स्वर से पर में ट के न होने से ट के स्थान में ड नहीं हुआ । वैकुंठो < वैकुण्ठः - स्वर से पर में ठ के न होने से ढ नहीं हुआ । मोंडं मुण्डम् – स्वर से पर में ड के न होने से ल नहीं हुआ । कोंडं कुण्डम् -
।
(- ड के स्थान पर ल, व लोप और आ स्वर के स्थान
"
""
"
खट्टा खट्टा- संयुक्त रहने के कारण ट का ड नहीं हुआ । चिट्ठइतिष्ठति - संयुक्त रहने से ठ का ढ नहीं हुआ ।
K
ठ को ढ
खड्गो < खड्ग: – संयुक्त रहने से ड का ल नहीं हुआ । टक्को टङ्क:- अनादि -आदि भिन्न होने से ट को ड नहीं हुआ । ठाई स्थायीडिंभो डिम्भ:ड को ल ( १०७ ) प्यन्त पट धातु में ट का ल आदेश त्रिकल्प से होता है ।' यथाचबिला, चविडा < चपेटा - प के स्थान पर व और ट के स्थान में ल तथा विकल्पाभावपक्ष में ड ।
19
99
39
फालेइ, फाडेइ < पाटयति- —ट काल तथा विकल्पाभाव में ड और विभक्ति चिह्न छ ।
( १०८ ) सटा, शकट और कैटभ शब्द में ट को ढ होता है । यथा
सढा सटाट के स्थान पर ढ ।
सयढो <शकटः—क का लोप और अ स्वर के स्थान पर य श्रुति, तथा ट
५७
""
""
१. चपेटा-पाटौ वा ८|१|१६८ | हे० |
२. सटा शकट-कैटभे ढः ८।१।१६६. हे० ।
का ढ ।
केवो कैटभ: - ऐकार का एकार और ट का ढ तथा भ का व 'कैटभे वः' २।२९. सूत्र से ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण ( १०९ ) स्फटिक में टकार के स्थान पर ल होता है । यथाफलिहो< स्फटिकः–ट का ल और क का ह। ..
(११० ) प्रति उपसर्ग में तकार के स्थान में प्रायः डकार आदेश होता है। जैसे
पडिवण्णंद प्रतिपन्नम्-प्र के स्थान पर प, त के स्थान पर ड और प का व।
पडिहासोर प्रतिभासः-प्र के स्थान पर प, त के स्थान पर ड और भ के स्थान पर है।
पडिहारो< प्रतिहार:-प्र को प और त को छ ।
पाडिप्फद्धी प्रतिस्पर्धी–त के स्थान पर ड, स्प के स्थान पर प्फ, रेफ का लोप और ध को द्वित्व ।
पडिसारो< प्रतिसार:-त के स्थान पर ड । पाडिसरो:< प्रतिसर:-त के स्थान पर ड। पडिसिद्धि< प्रतिसिद्धिः- " "
पडिनिअत्तं< प्रतिनिवृत्तम्-त के स्थान पर ड, व का लोप और ऋ के स्थान पर अ।
पडिमा< प्रतिमा-त के स्थान पर ड।
पडिवया ८ प्रतिपत्त के स्थान पर ड, प को व और अन्त्य व्यंजन त् के स्थान पर आ तथा य श्रुति ।
पडंसुआ< प्रतिश्रुत्त के स्थान पर ड, रेफ का लोप और अन्तिम व्यंजन त् के स्थान में आ।
पडिकरइ प्रतिकरोति–त के स्थान में ड, क्रियापद करह । पहुडि < प्रभृति-भ के स्थान पर ह, ऋ के स्थान में उकार और त का ड । पाहुडं< प्राभृतम्-भ के स्थान में ह और त के स्थान में ड ।
वावडो< व्यापृत:-ध्या के स्थान में वा, य के स्थान में व और ऋ के स्थान में अ तथा त कोड।
पडाया< पताका-त को ड, क का लोप और आ स्वर के स्थान में य श्रुति ।
वहेडओ<विभीतक:-भ के स्थान पर ह, ईकार को एकार, त को 3 और क लोप तथा अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व ।। । हरडई व हरीतकी-त को ड, क का लोप और ई स्वर शेष ।
१. स्फटिके लः ८।१।१६७. हे । २. प्रत्यादौ डः ८।१।२०६. हे ।
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
दुक्कडं दुष्कृतम् - आर्ष में ष लोप, क को द्वित्व, ऋ को अ तथा त को ड । सुकडं सुकृतम् - आर्ष में ऋ के स्थान पर अ और त का ड ।
आहडं <आहृतम्अवहडं 4 अवहृतम् —
99
"
पइसमयं प्रतिसमयं -ति के स्थान पर ड नहीं हुआ और त का लोप हो जाने से इ स्वर शेष ।
""
पईवं प्रतीपम् —त के स्थान पर ड नहीं हुआ, तू का लोप होने से ई शेष | संपइ सम्प्रति त लोप और इ स्वर शेष ।
""
-
पइट्ठाणं प्रतिष्ठानम् – तू लोप और इकार शेष तथा ष्ठा में सेष का लोप ठ को द्वि । पट्ठा < प्रतिष्ठा
"
""
पइण्णा प्रतिज्ञा - त लोप और ज्ञ के स्थान पर ण्ण ।
-
( १११ ) ऋत्वादि गण के शब्दों में तकार का दकार होता है । जैसेउदू ऋतु: - ऋ के स्थान पर उ और त के स्थान में द तथा उ को दीर्घ । रअदं < रजतम् —ज का लोप और उसके स्थान पर अ स्वर शेष तथा त कोद
आअदो आगतः - ग का लोप और उसके स्थान पर अ स्वर शेष तथा त
99
को द ।
निव्वुदी 4 निर्वृतिः - रेफ का लोप, व को द्वित्व और ऋ के स्थान पर उ तथा त को द ।
आउदी आवृत्तिः - व का लोप, ऋ के स्थान पर उ और त को द । संवुदी 4 संवृतिः - ऋ के स्थान पर उ तथा त को द ।
सुइदी सुकृतिः - क का लोप, ऋ के स्थान पर इ औरत को द एवं दीर्घ । आइदी < आकृति:
99
हदो हतःत के स्थान पर द ।
संजदो संयत::-य के स्थान पर ज और त के स्थान पर द
-
""
29
१. ऋत्वादिषु तो दः २७ वर०; ऋत्वादि गरण में निम्न शब्द परिगणित है
ऋतुः किरातो रजतञ्च तातः सुसंगतं संयत साम्प्रतञ्च । सुसंस्कृतिप्रीतिसमानशब्दास्तथाकृतिर्निर्वृतितुल्यमेतत् ॥
उपसगं समायुक्त कृतिवृती वृतागतौ । ऋत्वादिगरणने नेया श्रन्ये शिष्टानुसारतः ॥
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण विउदं< विवृतम्-व का लोप, के स्थान पर उ और त के स्थान में द। संजादो< संयातः-य के स्थान पर ज और त को द । संपदि ८ संप्रति-प्र के स्थान पर प और त को द।
पडिवही ८ प्रतिपत्तिः-प्रति उपसर्ग की ति के स्थान पर डि, ५ को व और त को द तथा इकार को दीर्घ ।
विशेष-त के स्थान पर द होना शौरसेनी की विशेषता है। साधारण प्राकृत में शब्दरूप निम्न प्रकार बनेंगे।
उऊ <ऋतु:- के स्थान पर उ और त का लोप तथा उ को दीर्घ । रअअं< रजतम्-ज और त का लोप तथा इनके स्थान पर अ, अ स्वर शेष । एअं< एतम्--- त का लोप और उसके स्थान पर अ स्वर शेष ।
गओ< गतः–त का लोप और उसके स्थान पर अ स्वर शेष, विसर्ग का ओत्वा
संपअं< साम्प्रतम् - म् का अनुस्वार, प्र के स्थान पर प और त का लोप, अ स्वर शेष।
जओ< यतः—य का ज और त का लोप, अ स्वर शेष, विसर्ग का ओत्व । तओ< ततः-त का लोप, अ स्वर शेष और ओत्व । कअं<कृतम्-त का लोप, अ स्वर शेष और म् का अनुस्वार । हआसो< हताश:-त का लोप, अ स्वर शेष तथा श का स । ताओ< तात:-त का लोप अ स्वर शेष और विसर्ग का ओत्व ।
( ११२) दंश और दह, प्रदीपि और दीप धातुओं के दकार के स्थान में क्रमश: ड, ल और वैकल्पिक ध आदेश होते हैं। जैसे
डसइ< दशति-द के स्थान पर ड, तालव्य श के स्थान पर दन्त्य स तथा तकार का लोप और इकार स्वर शेष ।
डहइ<दहति-द के स्थान पर ड, त और इ स्वर शेष।
पलीवेइ< प्रदीपयति-द के स्थान पर ल, प का व और य का संप्रसारण इ, गुण तथा त का लोप और इ स्वर शेष ।
पलित्तं< प्रदीप्तम्-द का ल, हस्व, प का लोप और त को द्वित्व ।
धिप्पइ, दिप्पइदीप्यति-द के स्थान पर वैकल्पिक ध, य लोप और प को द्वित्व, त लोप और इ स्वर शेष ।
१. दंश-दहोः ८।१।२१८. हे०। प्रदिपि-दोहदे लः ८११।२२१. हे० । दीपौ धो वा
८।१।२२३. हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
। (११३) स्वर से पर में रहनेवाले असंयुक्त और अनादि न का ॥ आदेश होता है।' पर आदि में वर्तमान असंयुक्त न का विकल्प से ण आदेश होता है। उदाहरण
सअणं शयनम्-य का लोप और अ स्वर शेष तथा स्वर से पर अनादि और असंयुक्त न का ण।
कणअं< कनकम् -स्वर से पर अनादि और असंयुक्त न का ण, क लोप और अ स्वर शेष।
वअणं वचनम् –च लोप और अ स्वर शेष और न का ण । माणुसो< मानुषः-- का ग और मूर्धन्य प का दन्त्य स । णरो, नरो< नरः-न के स्थान पर विकल्प से ण। णई, नई ८ नदी-न के स्थान पर ण तथा द का लोप और ई स्वर शेष ।
( ११४ ) स्वर से पर में रहनेवाले असंयुक्त और अनादि फ के स्थान में कहीं भ, कहीं ह और कहीं दोनों -भ और ह होते हैं। उदाहरण
रेभर रेफः–फ के स्थान पर भ। सिभार शिफा-तालव्य श के स्थान पर दन्त्य स और फ के स्थान पर भ । मुत्ताहलं< मुक्ताफलम्-फ के स्थान पर ह।
सेभालिआ, सेहालिआ< शेफालिका-विकल्प से फ के स्थान पर भ और ह तथा क लोप और आ स्वर शेष ।
सभरी, सहरी< सफरी–फ के स्थान में भ और ह ।
सभलं, सहलंद सफलम् -फ के स्थान में भ और ह। विशेष
गुंफइ ८ गुम्फति-स्वर से पर में नहीं रहने के कारण फ का भ नहीं हुआ। पुप्फं< पुष्पम् -संयुक्त रहने के कारण उक्त नियम लागू नहीं हुआ। फणी< फनिः-आदि में होने से फ को भ या ह नहीं हुआ।
( ११९ ) स्वर से पर में रहनेवाले असंयुक्त और अनादि ब का विकल्प से व आदेश होता है। जैसे
अलावू, अलाऊ < अलावू–ब के स्थान पर विकल्प से व और विकल्पाभावपक्ष में व का लोप तथा ऊ शेष ।। सवलो< सबल:- के स्थान पर व।
१. नो रणः ८।१।२२८. हे०। ३. फो भ-हौ ८।१।२३६. हे ।
२. वादौ ८।१।२२६ हे । ४. बो वः ।।११२३७. हे ।
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६२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
(११६ ) विसिनी शब्द के व के स्थान पर भ आदेश होता है। यथा भिसिणी< विसिनी-व के स्थान पर भ और न के स्थान पर ण ।
(११७) कबन्ध शब्द में व के स्थान पर म और य होते हैं। यथा
कमन्धो, कयन्धो< कबन्ध:-ब के स्थान पर म होने से कमन्ध और य होने से कयन्ध रूप बना है।
( ११८ ) विषम शब्द में म के स्थान पर विकल्प से द होता है। यथाविसढो, विसमो< विषमः-म के स्थान पर विकल्प से ढ हुआ है । (११९) मन्मथ शब्द में म के स्थान पर विकल्प से व होता है। यथा
वम्महोद मन्मथः–म के स्थान व, संयुक्त न का लोप और म को द्वित्व तथा थ के स्थान पर है।
( १२० ) अभिमन्यु शब्द में म के स्थान पर व और म विकल्प से होते हैं । यथा
अहिवन्नू , अहिमन्नू < अभिमन्युः-भ के स्थान पर ह, म के स्थान पर विकल्प से व, विकल्पाभाव पक्ष में म तथा संयुक्त य का लोप और न को द्वित्व, दीर्घ ।
(१५१ ) भ्रमर शब्द में म के स्थान पर विकल्प से स आदेश होता है। यथा
भसलो, भमरो भ्रमरः-संयुक्त रेफ का लोप, म के स्थान पर विकल्प से स और रेफ के स्थान पर लत्व ।
(१२२ ) पद के आदि में य का ज आदेश होता है । यथाजसो< यश:-य के स्थान पर ज और तालव्य श को दन्त्य स । जमोदयमः–य के स्थान पर ज हुआ है।
जाइ< याति–य के स्थान पर ज और त का लोप, इ स्वर शेष । विशेष
अवयवोअवयवः-पद के आदि में न रहने के कारण उक्त नियम चरितार्थ नहीं हुआ।
संजमो< संयम:-उपसर्ग युक्त होने से अनादि य का ज हुआ है। संजोओ संयोगः- "
प्रवजसो< अपयशः-५ का व हुआ है और य का ज तथा तालव्य श का दन्त्य स।
१. विसिन्यां भः ८।१।२३८. हे०। २. कबन्धे म-यौ ८।१।२३६. हे । ३. विषमे मो ढो वा८।१।२४१. हे०। ४. मन्मथे वः ८।१।२४२. । हे० । ५. वाभिमन्यौ ८।१।२४३. हे । ६. भ्रमरे सो वा ८।१।२४४. हे। ७. आदेर्यो जः ८।१।२४५. हे० ।।
..
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण गाढ-जोव्वणा< गाढयौवना-कल्पलतिका के नियमानुसार सामान्यतः उत्तर'पदस्थ य का भी ज होता है।
अजोग्गो अयोग्यः
अहाजाअं< यथाजातम्-आदि य का लोप हुआ है और अ स्वर शेष है, थ के स्थान पर ह तथा त का लोप और अ स्वर शेष ।
(१२३ ) तीय एवं कृत् प्रत्ययों के यकार के स्थान में द्विरुक्त ज (ज) विकल्प से आदेश होता है। यथादीज्जो, दीओ< द्वितीयः-तीय प्रत्यय के यकार के स्थान पर ज । उत्तरिज्ज, उत्तरीअं< उत्तरीयः-य के स्थान पर ज ।
करणिज्जं, करणीअं< करणीयम् -अनीय प्रत्यय के य के स्थान पर विकल्पाभाव पक्ष में य का लोप और अ स्वर शेष । रमणीज्जं, रमणीअं< रमणीयम्- ,
, विम्हयणिज्जं, विम्हयणीअं< विस्मयनीयम्- , जवणिज्जं, जवणीअं< यवनीयम् - , . , , बिइज्जो, बीओ< द्वितीयः-तीय प्रत्यय के य के स्थान पर ज ।
पेज्जा, पेआर पेया-यत् प्रत्यय के य के स्थान पर विकल्प से ज, विकल्पाभावपक्ष में य का लोप और आ स्वर शेष ।
( १२५ ) युष्मद् शब्द के य के स्थान में त आदेश होता है । जैसे
तुम्हारिसोदयुष्मादृशः–य के स्थान में त तथा म के स्थान में म्ह तथा दृशः के स्थान पर रिसो हुआ है।
( १२५ ) यष्टि शब्द में य के स्थान पर ल आदेश होता है । यथालट्ठी- यष्टिः–य के स्थान पर ल और ष का लोप और ट को द्वित्व तथा ट
को ठ।
जोगव्यष्ट्रि
वेणु-लट्ठी< वेगु-यष्टि उच्छःलट्री ८ इक्षु-यष्टिः-इक्षु के स्थान पर उच्छु तथा शेष पूर्ववत् ।
महु-लट्ठी< मधु-यष्टिः–ध के स्थान पर ह, य को ल और ष का लोप, ट को द्वित्व, उत्तरवर्ती के ट स्थान पर ठ तथा दीर्घ ।
१. वोत्तरीयानीय-तीय-कृद्ये जः ८।१।२४८, हे०।२. युष्मद्यर्थपरे तः ८।१।२४६. हे । ३. यष्ट्या लः ८।१।२४७. । हे० । ...
.
.
.
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
(१२६ ) छविहीन अर्थ में छाया शब्द में यकार के स्थान पर विकल्प से हकार आदेश होता है । यथा
छाहा< छाया-या के स्थान पर हा । वच्छस्सच्छाहा< वृक्षस्य छाया–य के स्थान पर ह । मुहच्छाया < मुखच्छाया-कान्ति अर्थ होने से छाया शब्द के य को ह नहीं
. (१२७ ) हरिद्रादि गण के शब्दों में असंयुक्त र के स्थान में ल आदेश होता है। उदाहरण---
हलिही- हरिद्रा–र के स्थान पर ल और संयुक्त रेफ का लोप तथा द को द्वित्व और आकार को ईकार ।
दलिद्दाइ< दरिद्राति–र के स्थान पर ल, संयुक्त रेफ का लोप और द को द्विस्व तथा त का लोप और इ स्वर शेष ।
दलिदो < दरिद्रः-र के स्थान पर ल, संयुक्त रेफ और य का कोप तथा द को द्वित्व।
दालिदं व दारिद्रयम्-र के स्थान पर ल, संयुक्त रेफ और य का लोप तथा द को द्वित्व ।
हलिहो< हरिद्रः-र को ल और संयुक्त रेफ का लोप तथा द को द्वित्व । __ जहुट्ठिलो< युधिष्ठिर:-य के स्थान पर ज, ध के स्थान पर ह, ष का लोप और ठ को द्वित्व और र कोल ।
सिढिलो शिथिरः-तालव्य श को दन्त्य स, थ के स्थान पर ढ और रेफ कोल।
मुहलो ६ मुखरः-ख के स्थान पर ह और र को ल। चलगोचरण:-र के स्थान पर ल। वलुणो< वरुण:- , " कलुणोरकरण:इंगालो< अंगार:--अ के स्थान पर इ और र को ल । सक्कालो< सत्कार:-संयुक्त त का लोप और क को द्वित्व तथा रेफ को ल। सोमालो< सुकुमार:-क का लोप, उ की सन्धि और र कोल।
चिलाओ<किरातः-किरात शब्द में 'किराते च: ८११८३ से क को च हुआ है, र के स्थान पर ल।
१. छायायां होकान्तौ वा ८।१।२४६. । हे० । २. हरिद्रादौ लः ।१।२५४. । हे ।
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अभिनव प्राकृत व्याकरण फलिहा < परिवार के स्थान पर ल, ख के फलिहोपरिघः --र के स्थान पर ल और घ फालिहद्दो < पारिभद्रः -- र के स्थान पर ल तथा द को द्वित्व |
काहलो < कातरः- त को ह और र को ल हुआ है ।
लुक्को रुग्ण- र के स्थान पर ल, ग्ण को क्क हुआ है। अवद्दालं < अपद्वारम् - -अप के स्थान पर अव, व् का लोप, द को द्वित्व और र को ल ।
भसलो भ्रमरः – संयुक्त रेफ का लोप, म के स्थान पर स और र को ल ।
-
जढलं << जरठम् --र के स्थान पर ल और ठ को ढ होता है तथा यहाँ वर्णविपर्यय होने से जढलं हुआ है ।
बढलो वरः - ठ को ढ तथा र को ल हुआ है ।
निठुलो (१२८) स्थूल शब्द के लकार को र होता है । यथा
थोर स्थूलम् - संयुक्त स का लोप और ल के स्थान पर र ।
(१२९) लाद्दल, लाङ्गल और लाङ्गूल शब्दों में विकल्प से ल को ण आदेश होता है । यथा
< निष्ठुर:- बू का लोप ठ को द्वित्व तथा र को ल हुआ है ।
:-ल के स्थान पर ण होता है ।
णाइलोलाहल:णङ्गलं <लंगलम् —
""
३
णाङ्गूलं < लंगूलम् – ( १३० ) ललाट शब्द में आदि ल को ण होता है । णिडालं, णडालं ललाटम् - ल
यथा-
के स्थान पर ण, उ का ड और वर्णविपर्यय । ( १३१ ) स्वप्न और नीवी शब्द में व को विकल्प से म होता है। यथा
सिमिणो, सिविणो स्वप्नः ।
नीमी, नवी नवी ।
( १३२ ) संस्कृत वर्णमाला के श और ष के स्थान में प्राकृत में स आदेश होता है । यथा
99
० ।
४. स्वप्नीव्र्वा ८।१।२५६. ५. श-षोः सः ८।१।२६०, हे० ।
"
स्थान पर ह ।
के स्थान पर ह ।
भ को ह और संयुक्त र का लोप
دو
१. स्थूले लो रः ८।१।२५५. हे० ।
२. लाहल - लाङ्गल- लाङ्ग ले वादे ८।१।२५६, हे ।
३. ललाटे च ८ । १ । २५७. हे० ।
६५
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
कुसोर कुश:-तालव्य श के स्थान पर दन्त्य स। सेसो शेष:-तालव्य और मूर्धन्य दोनों के स्थान पर दन्त्य स । सद्दो< शब्दः-तालव्य श को दन्त्य स, संयुक्त ब का लोप और द को द्वित्व । निसंसो< नृशंस:-नकारोत्तर ऋ को इ और तालव्य श को दन्त्य स । वंसोवंश:- तालव्य श को दन्त्य स । दस < दश- , "
सोहइ दशोभते -तालव्य श को दन्त्य स, भ के स्थान पर ह और विभक्ति चिह्न इ।
सण्डो<षण्ड:-मूर्धन्य ष को दन्त्य स। कसाओ< कषाय:- , , विसेसो< विशेषः-दोनों ही श, ष को दन्त्य स । ( १३३ ) दसन् और पाषाण शब्दों में श और ष के स्थान पर विकल्प से ह होता है। यथा
दसमुहो, दहमुह <दशमुखः । दहबलो, दसबलो< दशबलः । दहरहो, दसरहो<दशरथः। '
पहाणो< पाषाणः। ( १३४ ) अनुस्वार से पर में रहने वाले ह के स्थान में विकल्प से घ आदेश होता है । यथा
सिंघो, सीहो< सिंहः ।
संघारो, संहारो< संहारः। (१३५ ) व्याकरण, प्राकार और आगत शब्दों में क, ग और स्वर का विकल्प से लोप होता है।
वारणं, वायरणं < व्याकरणम् –प्रथम् रूप व्य का सर्वापहारी लोप होने से बनता है और द्वितीय में अ स्वर शेष तथा इसके स्थान पर य ।
पारो, पयारो< प्राकारः- ,
आओ, आगओ<आगत:-प्रथम रूप ग का सर्वापहारी लोप होने से और द्वितीय लोप न होने से बनता है।
१. दश-पाषाणो हः ८।१।२६२. हे । २. हो घोनुस्वारात् ८।१।२६४. हे । ३. व्याकरण-प्राकारगते कगोः ८।१।२६८. हे ।
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
( १३६ ) किसलय, कालायस और हृदय शब्दों में स्वर सहित यकार का लोप होता है । यथा
१
किसलं, किसलयं किसलयम् ।
कालासं, कालायसं < कालायसम् ।
महणवसमा सहिआ < महार्णवसमा सहृदया ।
जाला ते सहिअएहिं घेप्पन्ति जाला ते सहृदयभिः ग्रह्णन्ति ।
संयुक्त व्यञ्जन विकृति–
( १३७ ) क, ग, ट, ड, त, द, प, श, ष और स व्यञ्जन वर्ण जब किसी संयोग
के प्रथम अक्षर हों तो उनका लुक् हो जाता है, और अनादि में वर्तमान शेष वर्ण को
२
द्वित्व होता है । उदाहरण
।
भुक्तं भुक्तम् —क लोप और द्वि
ㄡˇˋ
सित्थं सिक्थम् —क लोप और थ को द्वित्व ।
मुत्तं मुक्तम् — लोप और त को द्वित्व ।
सिणिद्धो दग्धम् —ग लोप और घ को द्वित्व तथा पूर्ववर्ती ध को द । :-ट लोप और प को द्वित्व |
सप्पओ षट्पदःसज्जो षड्जो - ड लुक् और ज को द्वित्व ।
निट् ठुरो निष्ठुर : - प लुक और ठ को द्वित्र ।
( १३८ ) म, न और न ये व्यञ्जन यदि संयुक्त के अन्तिम अक्षर हों तो उनका होता है और अनादि में वर्तमान शेष वर्णों को द्वित्व हो जाता है । जैसे
लुकू
जुग्गंयुग्मम् – म लुक् और ग को द्वित्व ।
रस्सी रश्मि:- म लोप और स को द्वित्व | सरो स्मरः - म लोप और द्वित्वाभाव । नग्गोग्नः - न लुक् और ग को द्वित्व ।
भग्गो भग्न: -
,,
در
99
99
लग्गो लग्न: - सोमो दसौम्यः - य लुक् और म् को द्वित्व ।
६७
--
१. किसलय - कालायस - हृदये यः ८।१।२६९. हे०
२. उपरिलोपः कगडतदपशषसाम ३ । १. वर० ।
३. अधो मनयाम् ३।२ वर० ।
( १३९ ) ल, व, र ये व्यञ्जन संयुक्त के आद्यक्षर हों अथवा — अन्त्याक्षर चन्द्रशब्द को छोड़कर सर्वत्र - संयुक्त के आदि और अन्त में उक्त व्यज्जनों का लुक् होता है और अनादि में स्थित शेष वर्णों को द्वित्व होता है । उदाहरण
४. सर्वत्र लवराम ३।३ वर० ।
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६८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
उक्का < उल्का — संयुक्तादि ल लुक् और क को द्वित्व ।
वक्कलं < वल्कलम्
12.
"
""
सहं < श्लक्ष्णम् — संयुक्तान्त्य ल लुक् और द्वित्वाभाव । विक्कवो विक्लवः - संयुक्तान्त्य ल लुक् और क को द्वित्व । सद्दो शब्दः - संयुक्तादिव लुक् और द को द्वित्व । अद्दो <अब्द:
99
99
पिक्कं पक्त्रम् - संयुक्तान्ध्य व लुक् और क को द्वित्व, पकारोत्तर अको
इकार |
"
धत्थं ध्वस्तम् — संयुक्तान्त्य लुक् ध को द्वित्वाभाव, स्त में संयुक्तादि स् लोप औरत को द्वित्व, उत्तरवर्ती त को थ ।
अक्को अर्क:- रेफ का लोप और क को द्वित्व |
--
वग्गो वर्गः – संयुक्तादि र लुक् और ग को द्वित्व | चक्कं < चक्रम् — संयुक्तादि र लुक् और ग को द्वित्व । हो ग्रहः – संयुक्तान्त्य र लुक् और द्वित्वाभाव ।
रत्ती रात्रिः — संयुक्तान्त्य र लुक् और त को द्वित्व ।
K
चंदो, चंद्रो चन्द्रः - संयुक्तान्त्य रेफ का लोप और द्वित्वाभाव; मतान्तर से चन्द्र भी बनता है ।
१
( १४० ) द्र के रेफ का विकल्प से लुक् होता है । यथा
दोहो, द्रोहीद्रोह: - संयुक्तान्त्य रेफ का विकल्प से लोप
1
रुद्दो, रुद्रो रुद्रः – संयुक्तान्त्य रेफ का विकल्प से लोप, लोप होने पर द को
fara |
भद्दं, भद्रं <भद्रम्—संयुक्तान्त्य रेफ का लोप और द को द्विस्त्र, विकल्पाभाव में लोपाभाव ।
समुद्दो, समुद्रो समुद्रः – संयुक्तान्तय रेफ का लोप और द को द्विस्व । हदो, हृदो हद - संयुक्तान्त्य रेफ का विकल्प से लोप |
( ११ ) ज्ञा धातु सम्बन्धी न् का लोप विकल्प से होता है एवं अनादि ज को द्वित्व होता है । यथा
२
सव्वज्जो, सव्वण्णू< सर्वज्ञः - संयुक्तादि रेफ का लोप, व द्वित्व, न लोप और ज को द्वित्व; ज् लोपाभाव पक्ष में ण को द्वित्व, अ को ऊ ।
१. द्रेरो वा ३।४. वर० ।
२. सर्वज्ञतुल्येषु नः ३।५. वर० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण अप्पज्जो, अप्पण्ण < अल्पज्ञ:-संयुक्तादि ल लुक् , प द्वित्व; ज्ञ के ज का लोप और ज द्वित्व; ज लोपाभावपक्ष में ण द्वित्व और अकार को ऊकार ।
अहिजो, अहिण्णू < अभिज्ञ:—भ को ह, ज् लोप, ज को द्वित्व; विकल्पाभाव पक्ष में ण को द्वित्व, अकार को ऊकार ।
जाणं, णाणं< ज्ञानम्-अ लोप और ज शेष, नकार को णत्व, विकल्पाभाव में ज्ञ के स्थान पर ण ।
दइवज्जो, दइवण्णू < दैवज्ञः-ऐ के स्थान पर अइ, ज लोप और ज को द्वित्व ।
इंगिअज्जो, इंगिअण्ण, इंगितज्ञः-त लोप और अ स्वर शेष; ज लोप, ज द्वित्व ।
मणोजं, मणोण्णं - मनोज्ञम् - लोप और ज को द्वित्व ।
पज्जा, पण्णा८ प्रज्ञा-अ लोप, ज को द्वित्व, विकल्पाभाव पक्ष में ज लोप और ण को द्वित्व ।
अजा, अण्णा< आज्ञा
संजा, सण्णा < संज्ञा—ज लोप और ज शेष, स्वर से पर न होने से द्वित्वाभाव; विकल्पाभाव पक्ष में ज लोप और अवशेष ण को द्वित्व।
(१४२ ) वर्ग के द्वितीय और चतुर्थ वर्गों के द्वित्व होने पर द्वितीय वर्ण के पूर्व उसी वर्ण के प्रथम और तृतीय अक्षर हो जाते हैं। यथा
वक्खाणं < व्याख्यानम् –य लोप, शेष ख को द्वित्व तथा पूर्ववर्ती ख को क ।
अग्यो अर्घः-संयुक्त रेफ का लोप, घ को द्वित्व और पूर्ववर्ती घ को ग । ( १४३ ) दीर्घ स्वर एवं अनुस्वार से पर में रहनेवाले संयुक्त शेष व्यञ्जन का द्वित्व नहीं होता। जैसे
ईसरो< ईश्वरः-संयुक्तान्त्य व का लोप और पूर्ववर्ती दीर्घ स्वर होने से स को द्वित्व का अभाव।
लासंदलास्यम्-संयुक्तान्त्य य का लोप, पूर्व में दीर्घ स्वर होने से द्विस्वाभाव ।
संकेतो< संक्रान्त:-संयुक्तान्त्य र का लोप, पूर्व में अनुस्वार रहने से द्वित्वाभाव ।
संझा < सन्ध्या-संयुक्तान्त्य य का लोप, , ,
१. द्वितीय-तुर्ययोपरि पूर्वः ८।२।६०. हे । २. न दीर्घानुस्वारात् ८।२।६२. हे० । ...
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण (१४४ ) रेफ और हकार को द्वित्व नहीं होता है।' यथा
सुंदेरं< सौन्दर्यम्-संयुक्तादि य का लोप होने पर रेफ को द्वित्व नहीं हुआ। बम्हचेरं< ब्रह्मचर्यम्- , धीरं धैर्यम्-
, विहलो< विह्वलः-संयुक्तान्त्य व का लोप और ह को द्वित्वाभाव ।
कहावणो< कार्षापणः-संयुक्तादि रेफ का लोप, ष के स्थान पर ह और ह को द्वित्वाभाव तथा प को व।
(१४६ ) समासान्त पदों में पूर्वोक्त नियम की प्रवृत्ति विकल्प से होती है । यथा
नइ-ग्गामो, नइ-गामो< नदी-नामः-द लोप, ई स्वर शेष, संयुक्तान्त्य रेफ का लोप और विकल्प से ग को द्वित्व ।
__कुसुमप्पयरो, कुसुम-पयरोद कुसुम-प्रकर:-रेफ का लुक् होने पर प को विकल्प से द्वित्व ।
देव-त्थुई, देव-थुई ८ देव-स्तुति:-स लोप, त को विकल्प से द्वित्व, द्वितीय त के स्थान पर थ।
तेल्लोक्क, तेलोकं त्रैलोक्यम्-र लोप, ल को विकल्प से द्वित्व।
आणालक्खम्भो, आणाल-खम्भो< आलानस्तम्भः-समास होने से विकल्प से द्वित्व एवं वर्णव्यत्यय।
मलय-सिहरक्खण्ड, मलय-सिहर-खण्डं - मलयशिखरखण्डम्-समास में विकल्प से ख को द्वित्व ।
पम्मुक्कं, पमुक्कंद प्रमुक्तम्-समास होने से म को विकल्प से द्वित्व हुआ है। (१४६ ) तैलादिगण के शब्दों में प्राचीन प्राकृत आचार्यों के निर्णयानुसार कहीं अनन्त्य और अन्त्य व्यञ्जनों को द्वित्व होता है। उदाहरण
तेल्लं - तैलम् - अन्त्य व्यन्जन ल को द्वित्व ।
१. र-होः ८।२।६३. हे । २. समासे वा ८।२।६७. हे। ३. तैलादौ ८।२।६८. हे । ४. प्राकृत प्रकाश में तैलादिगण के बदले नीडादि गण का उल्लेख मिलता है। 'नीडादिषु'
३।५२ में इस गण के शब्दों का नियमन किया है। 'कल्पलतिका' में नीडादिगण के शब्द निम्न बतलाये गये हैं
नीडव्याहृतमण्डूकस्रोतांसि प्रेमयौवने । ऋजुः स्थूलं तथा तैलं त्रैलोक्यं च गणो यथा ॥
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
मंडुक्को मंडूकः - अन्त्य व्यञ्जन क को द्वित्व । उज्जू < ऋजु—अन्त्य व्यञ्जन ज को द्वित्व । सोत्तम् स्रोतम् - अन्त्य व्यञ्जन त को द्वित्व । पेम्म प्रेमम् — अन्त्य व्यञ्जन म को द्वित्व । विड्डाव्रीडा - अन्त्य व्यञ्जन ड को द्वित्व । जोव्वणं यौवनम् - अनन्त्यमध्य व्यञ्जन व को द्वित्व । बहुत्तं < बहुत्वम् — अन्त्य व्यञ्जन त को द्वित्व ।
( १४६ ) सेवादिगण के शब्दों में प्राचीन प्राकृत आचार्यों के मतानुसार कहीं अस्य और कहीं अनन्त्य व्यञ्जनों को विकल्प से द्वित्व होता है ।
१
उदाहरण
७१
सेव्वा < सेवा - अन्त्य व्यञ्जन व को द्वित्व |
K
विहित्तो, विहिओ विहितः - अन्त्य व्यञ्जन त को विकल्प से द्वित्व | विकल्पाभाव में त लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओर ।
कोहलं, को उहलं कौतूहलम् - अन्त्य व्यन्जन ल को द्वित्व |
वाउल्लो, वाउलो < व्याकुल: — संयुक्तान्त्य य का लोप, क का लोप, उ स्वर शेष और विकल्प से ल को द्वित्व ।
ड्डु, नीडं, नेडं नीडम्- — अन्त्य व्यञ्जन ड को विकल्प से द्वित्व । नक्खा, नहा < नखा: - अन्त्य व्यञ्जन ख को विकल्प से द्वित्व |
माउक्कं, माउअं < मृदुकम् — ऋ को आ, द का लोप, शेष ऋ के स्थान पर उत्व और विकल्प से क को द्वित्व |
एक्को, एओ एकः - अन्त्य व्यञ्जन क को द्वित्व, विकल्पाभावपक्ष में क का लोप अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत् ।
थुल्लो, थोरो स्थूल :- संयुक्तादि स् का लोप, ल को द्वित्व ।
<
हुत्तं - हूअं हुतम्-त को द्वित्व, विकल्पाभाव पक्ष में त का लोप, अ स्वर
K
शेष |
१. सेवादौ वा ८२६. हे० । सेवादि गरण में निम्न शब्द परिगणित हैंसेवा कौतूहलं देवं विहितं मखजानुनी । पिवादयः नखा शब्दा एतादाद्या यथार्थंकाः || त्रैलोक्यं करिणकारश्च वेश्या मूर्जं च दुःखितम् । रात्रिविश्वासनिश्वासा मनोऽस्तेश्वररश्मयः ॥ दीर्घे शिवतूष्णीक मित्र पुष्पादिदुर्लभाः । दुष्करोनिष्कृपः कर्मकरेष्वासपरस्परम् । नायकाद्यास्तथा शब्दाः सेवादिगरणसम्मताः ॥ कल्पलतिका ॥
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
दइव्वं, दइवं दैवम् --अन्त्य व्यञ्जन व को विकल्प से द्वित्व ।
तुहिक्को, तुण्हिओर तूष्णीक: ---ण के स्थान पर पह और अन्स्य व्यञ्जन क को विकल्प से द्वित्व।
मुक्को, मूओर मूक:—अन्त्य व्यञ्जन क को विकल्प से द्वित्व, विकल्पाभाव में क का लोप और अ स्वर शेष। .
खण्ण , खाण< स्थाणुः-स्था के स्थान पर ख तथा अन्त्य व्यंजन को द्वित्व । थिण्णं, थीणं<स्त्यानम्-स्त्या के स्थान पर थी, अन्त्य व्यंजन ण को द्वित्व । अम्हकरें, अम्हकेरंद अस्मदीयम्-अन्त्य व्यंजन क को विकल्प से द्वित्व ।
तं च्चेअ, तं चेअरतं चेव-अनन्त्य --- आदि व्यंजन च को द्वित्व, व का लोप और अ स्वर शेष ।
सोच्चिअ, सोचिअ< सो चेव , , , (१४७ ) क्ष के स्थान पर ख आदेश होता है, किन्तु कुछ स्थानों में छ और क भी आदेश होते हैं। यथा
खओर क्षयः-क्ष के स्थान पर ख, य लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग का ओत्व।
लक्खणं< लक्षणम्-क्ष के स्थान पर ख, ख को द्वित्व और पूर्व के ख को क ।
छीणं, खीणंदक्षीणम्-क्ष के स्थान पर ख होने से खीणं, छ होने से छीणं और झ होने झीणं रूप बनता है।
मिजइ< विद्यति—क्ष के स्थान पर झ, द लोप और य का ज तथा द्वित्व । (१५८ ) अक्ष्यादि गण के शब्दों में क्ष के स्थान पर ख न होकर छ आदेश होता है। आदि में क्ष का छ और मध्य या अन्त्य क्ष के स्थान में च्छ होता है। यथा
अच्छी < अक्षि-क्ष के स्थान पर छछ आदेश हुआ है।
उच्छू < इक्षुः-के स्थान पर उ और क्ष के स्थान पर च्छ हुआ है तथा दीर्घ ।
लच्छी लक्ष्मी:-क्ष के स्थान पर छ हुआ है। कच्छो< कक्ष:छीअं<क्षीतम्-क्ष के स्थान पर छ और त का लोप तथा अ स्वर शेष। छोरं< क्षीरम्- , वच्छोर वृक्ष:- के स्थान पर अ और क्ष के स्थान पर च्छ हुआ है।
१. क्षः खः क्वचित्तु छ-झौ ८।२।३. हे०।
२ छो क्ष्यादौ ८।२१७. हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण मच्छिआ< मक्षिका–क्ष के स्थान पर च्छ और क लोप तथा आ स्वर शेष ।
सरिच्छो< सदृक्षः-६ लोप और ऋ के स्थान पर रि तथा क्ष को च्छ हुआ है।
छेत्तं< क्षेत्रम्-क्ष को छ तथा त्र में से र लोप और त को द्विस्व । छुहा<क्षुधा-क्ष को छ और ध को ह हुआ है। दच्छो< दक्षः-क्ष को च्छ हुआ है। कुच्छी ८ कुक्षिः- , , वच्छं< वक्षम् - " " छुण्णोरक्षुण्ण:-क्ष के स्थान पर छ हुआ है। कच्छा< कक्षा-क्ष के स्थान पर च्छ हुआ है। छारोक्षार:-क्ष के स्थान पर छ हुआ है। कुच्छेअयं कौक्षेयक–क्ष के स्थान पर च्छ और य लोप तथा अ स्वर शेष । छुरो<क्षुर:-क्ष को छ हुआ है। उच्छा < उक्षन्-क्ष को च्छ हुआ है। छयं<क्षतम्-क्ष को छ हुआ है।
सारिच्छं साक्ष्यम्-क्ष के स्थान पर च्छ । (१४९) उत्सव अर्थ के वाचक छ शब्द में क्ष के स्थान पर छ आदेश होता है। यथा
छणोरक्षण:-उत्सव अर्थ होने से क्ष के स्थान पर छ हुआ है।
खणोरक्षगः-समय वाचक होने से क्ष के स्थान ख हुआ है। (१५० ) पृथ्वी अर्थ होने पर क्षमा शब्द में क्ष के स्थान पर छ आदेश होता है। यथा
छमारक्षमा-पृथ्वी अर्थ होने से क्ष के स्थान पर छ।
खमा<धमा-माफी मांगना अर्थ होने से क्ष के स्थान में ख । (१५१) ऋक्ष शब्द में क्ष के स्थान पर छ विकल्प से होता है। यथा
रिच्छं, रिक्खं ऋक्षम् – के स्थान पर रि, क्ष के स्थान पर च्छ तथा विकल्पाभाव पक्ष में क्ख हुआ है। (१५२ ) संयुक्त क्म और डम के स्थान में प आदेश होता है। यथारुप्पं, रुप्पिणी < रुक्मम् , रुक्मिणी-क्म के स्थान पर प्प आदेश हुआ है।
कुप्पलं<कुडमलम्-डम के स्थान पर प्प आदेश हुआ है। १. क्षण उत्सवे ८।२।२०. हे। २. क्षमायां कौ ८।२।१८. हे । ३. ऋक्षे वा ८।२।१६. हे० । ......४. ड्मक्मोः ८।२।५२. हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण (१५३ ) एक और स्क के स्थान में ख-आदेश होता है, यदि उन संयुक्ताक्षरों से घटित शब्द द्वारा किसी संज्ञा की प्रतीति होती हो ।' यथा
पोक्खरं पुष्करम् -क के स्थान पर क्ख हुआ है । पोक्खरिणी< पुष्करिणी , " खंधो< स्कन्धः-स्क के स्थान पर ख । खंधावारो< स्कन्धावार:-स्क के स्थान पर ख । अवक्खंदो< अपस्कन्दः-स्क के स्थान पर क्ख हुआ है ।
दुक्करं<दुष्करम्-संज्ञा न होने से एक के स्थान पर ख आदेश नहीं हुआ, किन्तु संयुक्त प का लोप और क को द्वित्व ।
निकाम< निष्कामम् -
सक्कयं< संस्कृतम्-संज्ञा न होने से स्कृ के स्थान पर क्ख नहीं हुआ, किन्तु स का लोप और क को द्वित्व ।
निकंपं< निष्कम्पम्-क के स्थान पर ख नहीं हुआ किन्तु ए लोप, क को द्वित्व ।
निक्कओ< निष्कृत:-कृ के स्थान पर क्ख नहीं हुआ, किन्तु ष् का लोप, क को द्वित्व, ऋ का अ।
नमोक्कारो < नमस्कार:-स्क को क, अ को ओ, स लोप और क को द्वित्व । सक्कारो(सत्कार:-त् लोप और क को द्वित्व । तक्करो तस्कर:-स्क के स्थान पर ख नहीं, स लोप और क को द्वित्व । (१५४ ) अष्ट्र, इष्ट और संदष्ट शब्द के ष्ट को छोड़कर अन्य ट के स्थान में 3 आदेश होता है। यथा
लट्ठी < यष्टि—य के स्थान पर ल और ष्ट के स्थान पर ठ तथा द्वित्व, पूर्व ठ के स्थान पर ट एवं ईकार को दीर्घ ।
मुट्ठी< मुष्टिः-ट के स्थान पर ट्ट और ह इकार को दीर्घ ।
दिदी दृष्टिः-दृ में रहनेवाली ऋ के स्थान पर इकार; ट के स्थान में ? और इकार को दोघं। .
सिट्टी< श्रेष्ठिः-संयुक्त रेफ का लोप, तालन्य श के स्थान पर दन्त्य स, एकार को इकार तथा ष्ठ को 8 और इकार को दोर्घ ।
१. ष्क-स्कयो म्नि ८।२।४. हे० । २. टस्यानुष्ट्रष्टासंदष्टे ८।२।३४-हे.
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७५
अभिनव प्राकृत-व्याकरण पुट्ठो< पृष्ठः-पृ में रहनेवाली के स्थान पर उकार और ष्ट के स्थान पर छ, विसर्ग को ओत्व।
कटुं< कष्टम्-ष्ट के स्थान पर छ।
सुरटो< सुराष्ट्र:-रा को हस्व, ष्ट के स्थान पर ट्ट, रेफ का लोप और विसर्ग को ओत्व ।
इटो< इष्ट:-ष्ट को टु, विसर्ग को ओत्व । अणिट्रंद अनिष्टम् -न को ण, ष्ट के स्थान पर ह। उट्टो< उष्ट्रः-ट के ष् का लोप और ट को द्वित्व ।
संदट्टो< संदृष्ट:-दृ में रहनेवाली के स्थान पर अ, ष् का लोप और ट को द्वित्व ।
( १५५) चैत्य शब्द के त्य को छोड़कर अन्य त्य के स्थान में च आदेश होता है।' जैसे
सञ्चं < सत्यम् - त्य के स्थान पर च हुआ है।
पञ्चओर प्रत्ययः-त्य के स्थान पर च और य लोप और अ स्वर शेष. ओत्व।
णिचं, निचं< नित्यम् --न के स्थान पर वैकल्पिक ण और त्य को च । पञ्चच्छं< प्रत्यक्षम्-त्य को च और क्ष के स्थान पर छ । (१५६ ) प्रत्यूष शब्द में त्य को च और ष को विकल्प से ह होता है। जैसे
पञ्चहो, पञ्चूसो< प्रत्यूष:-त्य को च और ष को ह । ( १६७ ) कुछ स्थलों में त्व, थ्व, द्व और ध्व के स्थान में क्रमशः च, छ, ज्ज और ज्झ आदेश होते हैं। यथा
भोच्चा< भुक्त्वा -त्व के स्थान पर च्व और क का लोप। . णच्चा< ज्ञात्वा-त्व के स्थान पर च ।
सोच्चार श्रुत्वारेफ का लोप, तालव्य श को दन्त्य स, उकार को ओत्व और त्व को च ।
पिच्छी< पृथ्वी-थ्व को च्छ हुआ है और पृ की ऋ को इकार । विज< विद्वान् -द्वा के स्थान पर ज और न को अनुस्वार । बुज्झा< बुवा-व के स्थान पर ज्झ हुआ है।
१. त्यो चैत्ये ८।२।१३. हे। .. २. प्रत्यूषे षश्च हो वा ८।२।१४. हे० । ३. त्व थ्व द्व-ध्वां च-छ-ज-झाः क्वचित ८१२।१५. हे ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
( ११८ ) धूर्तादिगण के शब्दों को छोड़कर - अन्य होता है । यथा
9
केवट्टो कैवर्त्तः -- ऐकार को एकार, र्त्त को ह और ओव । वट्टी < वर्तिः– र्त के स्थान पर ह और इकार को दीर्घ ईकार । णट्टओ नर्तकः - न कोणकार, र्त को ह और क लोप, अ स्वर शेष
और ओव
संवट्टि
पयट्टइ
के स्थान पर ट्ट
संवर्तिकम् - र्त को ह और क लोप तथा अ स्वर शेष ।
प्रवर्तते
-प्र के स्थान पर प, व लोप और अ स्त्रर शेष, यश्रुति, और विभक्ति चिह्न इ ।
वटू टुलं
वर्तुम् के स्थान पर ह ।
रायवट्टयं राजवर्तकम् - ज का लोप और अ स्वर के स्थान पर यश्रुति, र्त को ह तथा क लोप और अ स्वर के स्थान पर यश्रुति ।
विशेष - धूर्तादिगण के निम्न शब्दों में यह नियम लागू नहीं होता ।
K
धुत्तो धूर्त :- संयुक्त रेफ का लोप और त को द्वित्व और ऊकार को हस्व । कित्ती < कीर्त्तिः रेफ का लोप, त को द्वित्व और इकार को दीर्घं । वत्ता वार्त्ता - रेफ का लोप, वा के आकार को ह्रस्व ।
आवत्तणं आवर्तनम् - संयुक्त रेफ का लोप, त को द्वित्व और न कोण । निवत्तणं निवर्तनम् -
""
पयत्तणं प्रवर्त्तनम् - प्र को प
"
संवत्तणं संवर्त्तनम् - आवसओ आवर्तकः
अ स्वर शेष तथा ओत्व |
-
निवत्तओ निवर्तकःपवत्तओ प्रवर्तकः
-
"
39
99
35
काट आदेश विकल्प से
,,
"
י,
19
19
"
""
4
"
""
99
संवत्तओ संवर्तकःवत्तिओ वर्तकःवत्तिआ < वर्तिका - संयुक्त रेफ का लोप, त को द्वित्व और क लोप तथा
""
""
"
आ स्वर शेष ।
99
कलोप
"
39
123
""
कत्तिओ कर्त्तकः - रेफ का लोप, ऋकार का इ, त को द्वित्व, क लोप और अ स्वर शेष तथा ओत्व ।
८
१. स्याधूर्तादौ ८ २ ३०. | हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण उक्कत्तिओ< उत्कर्तकः–त लोप और क को द्वित्व, रेफ का लोप, ऋ को इकार, त को द्वित्व, क लोप, अ स्वर शेष और ओत्व ।
कत्तरी< कर्तरी-रेफ का लोप । मुत्तीरमूर्तिः–रेफ का लोप और इकार को दीर्घ । मुत्तो< मूर्त:-रेफ का लोप, त को द्वित्व और विसर्ग को ओत्व ।
मुहुत्तोर मुहूर्त:-हू के दीर्घ ऊकार को हस्व, रेफ का लोप, विसर्ग को ओत्व।
( १९९) हस्व से पर में वर्तमान थ्य, श्च, त्स और प्स के स्थान में छ आदेश होता है । पर निश्चल शब्द के श्च को छ आदेश नहीं होता है। उदाहरण
पच्छंदपथ्यम्-थ्य के स्थान पर च्छ हुआ है। पच्छा< पथ्या- , मिच्छा< मिथ्या- ,
"
" रच्छा< रथ्या- , पच्छिमं< पश्चिमम्-श्व के स्थान पर छ आदेश हुआ है। अच्छेरं< आश्चर्यम्उच्छाहो< उत्साहः स के स्थान पर च्छ आदेश हुआ है। मच्छरो मत्सरवच्छो< वत्सःलिच्छइ< लिप्सति- के स्थान पर च्छ आदेश । जुगुच्छइ< जुगुप्सति- , " अच्छरा< अप्सराऊसारिओर उत्सारितः-हस्व से पर में रहने से उक्त नियम नहीं लगा। णिच्चलो< निश्चल:-निश्चल शब्द में भी उक्त नियम नहीं लगता।
तत्थं, तच्चं<तथ्यम्-आर्ष रूप होने से उक्त नियमन ही लगता। ( १६० ) संयुक्त द्य, प्य और र्य के स्थान में ज आदेश होता है। यथा
मज्जं< मद्यम्-द्य के स्थान पर ज । अवज्जं< अवद्यम्- " " वेज्जम् < वेद्यम्- " " विज्ञादविद्या- " "
१. ह्रस्वात् थ्य-श्च-त्स-प्सामनिश्चले ८।२।२१. । हे। २. द्य-य्य य जः ८।२।२४, । हे।
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७८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
जजो< जय्य:-य्य के स्थान पर ज । सेज्जा<शय्या- , , भज्जाभा --- के स्थान पर ज । कजं कार्य्यम्- , , वज्ज-वर्य्यम्-र्य के स्थान में ज्ज । पन्जाओ< पर्यायः
पज्जन्तंरपर्यन्तम्विशेष-शौरसेनी में र्य के स्थान पर प्य भी पाया जाता है।
( १६१ ) ध्य के स्थान में झ एवं म्न और ज्ञ के स्थान में ण आदेश होते हैं। यथा
माणं<ध्यानम्-ध्य के स्थान पर झ आदेश
उवभाओ< उपाध्यायः-५ का व, ध्य का झ, य लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व।
समाओ< स्वाध्यायः-ध्य के स्थान पर ज्झ । मझ< मध्यंअज्झाओ< अध्याय:-
, तथा य लोप अ स्वर शेष और ओत्व।
निण्णं निम्नम्-म्न के स्थान पर ण ।
पज्जुण्णो < प्रद्युम्न:-प्र के स्थान पर प, यु के स्थान पर ज्जु और म्न के स्थान पर पणो ।
णाणं ज्ञानम् - ज्ञ के स्थान पर पण आदेश । संण्णा< संज्ञापण्णा< प्रज्ञाविण्णाणं< विज्ञानम्- , , और न के स्थान पर हैं। (१६२ ) समस्त और स्तम्ब शब्द के स्त को छोड़कर अन्य स्त के स्थान में थ आदेश होता है । यथा
हत्थोर हस्त:--स्त के स्थान पर स्थ आदेश हुआ है।
थोत्तं< स्तोत्रम्-स्तो के स्थान पर थ तथा त्र में संयुक्त त + र में से र का लोप और त को द्वित्व।
१. साध्वस-ध्य-ह्यां ज्ञः ८।२।२६. हे० तथा म्नज्ञोणः ८।२।४२. हे । २. स्तस्य थोसमस्त-स्तम्बे ८।२।४५. हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण थोअंदस्तोकम्-स्तो के स्थान पर थो, क लोप और अ स्वर शेष । पत्थरो< प्रस्तरः-स्त के स्थान पर स्थ, विसर्ग को ओत्व । थुई <स्तुतिः-स्तु के स्थान पर थु और त का लोप, इकार को दीर्घ । समत्तं समस्तम्-स्त संयुक्त में से आदि वर्ण स् का लोप और त को द्वित्व । तंबो< स्तम्बः-आदि संयुक्त स का लोप, म् को अनुस्वार और विसर्ग को ओत्व । ( १६३ ) संयुक्त न्म के स्थान में म आदेश होता है । तथा- .
जम्मोजन्म-म को म्म आदेश ।
मम्महो< मन्मथः-न्म के स्थान पर म्म और थ के स्थान पर ह, विसर्ग को ओत्व। (१६४ ) प और स्प के स्थान में फ आदेश होता है। जैसे
पष्फं< पुष्पम् -प के स्थान पर प्फ आदेश । सप्फं<शष्पम्निप्फेसो< निष्पेष: फंदणं स्पन्दनम् -स्प के स्थान में फ आदेश और न को णत्व ।।
पडिफ्फद्दी< प्रतिस्पर्धी-स्प के स्थान पर फ्फ, संयुक्त रेफ का लोप । प्रति को पडि।
फंसो<स्पर्श:-स्प के स्थान पर फ, संयुक्त रेफ का लोप, ओत्व और अकारण अनुस्वार ।
(१६६ ) संयुक्त श्न, ग, स्न, हू, और सूक्ष्म शब्द के क्ष्म के स्थान में ण्ह आदेश होता है। उदाहरण
विण्हू द विष्णुः -- ण के स्थान पर ण्ह तथा उकार को दीर्घ । कण्हो< कृष्ण:-कृ में रहनेवाली के स्थान पर अ और षण को ण्ह उण्हीसं उष्णीषम् –ण के स्थान में पह, मूर्धन्य ष को सत्व । जोण्हारज्योत्स्ना-संयुक्तान्त्य य का लोप और त्स्ना के स्थान पर पहा ।
एहाऊ< स्नायुः-स्न के स्थान पर ण्ह, य कार का लोप और ऊ स्वर शेष तथा दीर्घ ।
रहाणं< स्नानम्-स्न के स्थान में ण्ह और न को णत्व। वहीर वह्निः-ह्न के स्थान में ग्रह तथा ह्रस्व इकार को दोर्घ । जएहू < जह्न :-
, तथा ह्रस्व उकार को दीर्घ ।
१. न्मो मः ८।२।६१. हे०। २. ष्प-स्पयोः फः ८।२।५३. हे । ३. सूक्ष्म-श्न-ष्ण-स्न-ह-छु-क्ष्णां एहः-८।२७५. हे० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
ह |
पुव्वहो पूर्वाह्न - संयुक्त रेफ का लोप, व को द्विश्व, हू के स्थान में अवरहो < अपराह्न - अप के स्थान पर अब और द्व के स्थान में ह । ( १६६ ) संयुक्त श्म, ष्म, स्म और ह्म के स्थान में म्ह आदेश होता । उदाहरण
१
८०
कम्हारो काश्मीर:- श्म के स्थान पर म्ह आदेश ओर ईकार का आकार । पम्हाइ पक्ष्म - क्ष्मन् में से संयुक्त क् का लोप और स्म के स्थान पर म्ह | कुम्हाणो कुश्मान: श्म के स्थान पर म्ह और न को स्त्र ।
K
कम्हारा कश्मीरा :- श्म के स्थान पर म्ह और ईकार के स्थान पर आकार । गिम्हो ग्रीष्मः -ष्म के स्थान पर म्ह और विसर्ग को ओव । उम्हा ऊष्मदा - ऊकार को उ और ष्म के स्थान पर म्ह ।
अम्हारिसो< अस्मादृशः - स्म के स्थान पर म्ह और दृश: के स्थान पर रिसो । विम्हओ - विस्मय:- स्म के स्थान पर म्ह और म लोप, अ स्वर शेष और ओत् ।
बम्हा < ब्रह्मा- -संयुक्त रेफ का लोप, ह्म के स्थान पर म्ह आदेश ।
सुम्हा सुह्मा -ह्म के स्थान में म्ह आदेश ।
भो, म्हणो ब्राह्मणः
विकल्पाभाव में बंभ होता है ।
संयुक्त रेफ का लोप, ह्म के स्थान में म्ह और
बंभचेरं, बम्हचेरं ब्रह्मचर्यम् -ह्म के स्थान पर म्ह तथा चर्यम् का चेरं । रस्सी रश्मिः - उक्त नियम लागू न होने से म लोप और स को द्वित्व | सरो स्मरः - उक्त नियम लागू न होने से म लोप ।
३
( १६७ ) संयुक्त हा के स्थान पर झ आदेश होता है । यथा
समोसा - ह्य के स्थान पर झ ।
ममं मह्यम्
गुज्भं गुह्यम्—
""
"
""
१. पक्ष्म-श्म-म-स्म ह्मां म्हः ८|२|७४. हे० ।
२. ह्ये ह्योः ८।२।१२४. हे० ।
"
( १६८ ) संयुक्त के स्थान में ल्ह आदेश होता है । जैसे
कल्हारं कहारम् - संयुक्त ह्ल के स्थान में ल्ह आदेश । पल्हाओ प्रह्लादः – संयुक्त रेफ का लोप, ह्ल के स्थान में ल्ह अ स्वर शेष तथा ओत्व ।
३. हो ल्हः ८२७६. दे० ।
और द का लोप
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
( १६९ ) जिस संयुक्त अक्षर का अन्त लंकार से होता है, उसका विप्रकर्षपृथक्करण हो जाता है और पूर्व के अक्षर को इस्व भी होता है ।' यथा-
किलिएणं <क्लिन्नम् - क और ल को अलग-अलग कर दिया तथा इत्व किया। किलिट्टे <क्कष्टम् - क और ल का पृथक्करण, इत्व और संयुक्त प का लोप और ट को द्विस्व ।
सिलिट्टं <श्लिष्टम् - स और ल का पृथक्करण, प् लोप और ट को द्वित्व । पिलुट्टं स्लम् - प और ल का पृथक्करण, इत्व, प् लोप और ट को द्वि सिलोओ श्लोकः -- श और ल का पृथक्करण, इत्व, क का लोप और अ स्वर शेष तथा ओत्व ।
।
किलेसो क्लेश:- क और ल का पृथक्करण, श को स, इत्व, और तालव्य श को दन्त्य स ।
मिलानं < म्लानम् – म और ल का पृथक्करण, इत्व, नका त्व । किलिस्सइ << क्लिश्यति क और ल का पृथक्करण, इस्त्र, य लोप और स
को fara |
विशेष - कमोक्लमः पवो दल और सुक्कपक्खो शुक्लपक्षः में उक्त नियम लागू नहीं होता ।
( १७० ) उकारान्त, किन्तु ङी प्रत्यान्त तन्वी सदृश शब्दों में वर्तमान संयुक्ताक्षरों का विप्रकर्ष - पृथक्करण होता है और पूर्व के अक्षर में उकार योग हो जाता है । यथा
तिणुवी, तणुई - तन्वी = त और न (ण) का पृथक्करण और उत्व, व का लोप होने पर ई स्वर शेष |
लहुवी, लहुई लध्वीगुरुवी, गुरुपुहुवी पृथ्वी
""
,,
"
सुहुमं सूक्ष्मम् -- सूक्ष्मम् के स्थान पर सुहुम हो जाता है ।
-
१. लात् - - ८।२।१०६. हे० ।
२. तन्वीतुल्येषु ८ । २।११३. हे
३. एकस्वरे श्वः स्वे ८।२ । ११४. हे० ।
६
८१
99
10
99
""
99
""
,"
در
39
( १७१ ) जब श्वस् और स्व शब्द किसी समास के अंग न होकर पृथकू ही एक पद हों तो उनका विप्रकर्ण - पृथक्करण हो जाता है और पूर्व के व्यञ्जन में उ स्वर का योग भी हो जाता है । यथा-
३
د.
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण सुवे कर श्वः कृतम्-श और व् का पृथक्करण, श को स, उत्व ।
सुवे जना< स्वे जनाः-स् और व का पृथक्करण एवं उत्व । ( १७२ ) ज्या शब्द में पृथक्करण और अन्त्य व्यंजन से पूर्व ईकार होता है। यथा
जीआ<ज्या-ज और या का पृथक्करण, ईत्व और य लोप तथा आ स्वर शेष।
१. ज्यायामीत् ८।२।११५. हे।
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चौथा अध्याय
वर्ण- परिवर्तन
वर्ण विकृति अध्याय में वर्ण परिवर्तन (स्वर और व्यंजनों का परिवर्तन) दिखलाया गया है, पर वह इतना वैयक्तिक और शास्त्रीय है, जिससे प्राकृतभाषा की शब्दावली को अवगत करने में जिज्ञासुओं को आयास करना होगा। अतः इस अध्याय में सरलतापूर्वक ध्वनि परिवर्तन के नियमों का सोदाहरण विवेचन किया जायगा । तथ्य यह है कि संस्कृत ध्वनियों में परिवर्तन कर प्राकृत शब्द गढ़े जाते हैं । अतः प्राकृत भाषा के वैयाकरणों ने प्राकृत की शब्दावली संस्कृत को प्रकृति - मूल शब्द मानकर सिद्ध की है ।
स्वर-परिवर्तन
( १ ) संस्कृत की अध्वनि प्राकृत में आ, इ, ई, उ, ए, ओ, अइ और आइ में परिवर्तित हो जाती है। उदाहरण
( क ) अ = आ - संस्कृत की अ ध्वनि का विकल्प से आ में परिवर्तन 1
आहिआई, अहिआई द अभियाति — अ को विकल्प से दीर्घ, मध्य और अन्स्य य तथा त का लोप, अ और ह स्वर शेष, दीर्घ ।
आफंसो, अफंसो अस्पर्शः - अ को विकल्प से दीर्घं, संयुक्त स का लोप, प को फ, संयुक्त रेफ का लोप, तालव्य श को दन्त्य स, विसर्ग को ओत्व |
चाउरंतं, चउरंतं चतुरन्तम् - चकारोत्तर अ को दीर्घ, त लोप, उ शेष । दाहिणो, दक्खिणो दक्षिणः - दकारोत्तर अ को विकल्प से दीर्घ क्ष को विकल्प से ह, विकल्पाभावपक्ष में क्ख ।
"
पारकेरं, परकेरं परकीयम् पकारोत्तर अ को विकल्प से दीर्घ, कीयं के स्थान पर केरं ।
-
पारक्कं परक्कं < परकीयम् - पकारोत्तर अ को विकल्प से दीर्घ, कीर्यं कोकं ।
पुणा, पुण<पुन:
कोण एवं विकल्प से दीर्घ ।
पायडं पयडं 4 प्रकटम् - प्र के संयुक्त र का लोप, पकारोत्तर अ को विकल्प सेदीर्घ, क लोप, अस्वर और य श्रुति, द कोड +
पाडवआ, पडिव प्रतिपत् — प्र के संयुक्त र का लोप, पकारोत्तर अ को विकल्प से दीर्घ, पकाव और तू का आ ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
पाडिसिद्धी, पडिसिद्धी प्रतिसिद्धिः-प्र के संयुक्त रेफ का लोप और अ को विकल्प से दीर्घ, अन्तिम हकार को दीर्घ । . .
पाडिफदी, पडिफदी< प्रतिस्पर्धी-प्र के संयुक्त रेफ का लोप, अ को विकल्प से दीर्घ, स लोप और प को फ तथा संयुक्त रेफ का लोप, ध को द्वित्व और पूर्व को द।
पावयणं, पवयणं< प्रवचनम्-प्र के संयुक्त रेफ का लोप, अ को विकल्प से दीर्घ, च लोप और स्वर को य श्रुति, न को ण।
पारोहो, परोहोः प्ररोहः—प्र के संयुक्त रेफ का लोप और अ को विकल्प से दीर्घ । पावासू, पयासू प्रवासीपासिद्धी, पसिद्धी प्रसिद्धिः- , " " पासुत्तो पसुत्तो< प्रसुप्त:
" , संयुक्त ५ लोप और त को द्वित्व ।
माणंसी, मणंसी< मनस्वी—मकारोत्तर अ को विकल्प से दीर्घ, न को ण, अनुस्वार और संयुक्त व का लोप ।
माणंसिणी, मणंसिणी< मनस्विनी
सामिद्धी, समिद्धी< समृद्धि:-सकारोत्तर अ को विकल्प से दीर्घ, मकारोत्तर ऋ को इ और इकार को ईकार । ___ सारिच्छो, सरिच्छो< सदृक्ष:-सकारोत्तर अ को दीर्घ और दृक्षः के स्थान पर रिच्छो। ( ख ) अ = इ संस्कृत की अ ध्वनि का इ में परिवर्तन ।
इसि< ईषत्-दीर्घ ईकार को हस्व इकार, षकारोत्तर अ को इकार और अन्तिम हलन्त्य व्यंजन त् का लोप ।
उचिमो< उत्तमः-त्तकारोत्तर अकार को इकार और विसर्ग का ओत्व। कइमो<कतमः-तकारोत्तर अकार को इकार और विसर्ग को ओत्व।।
किविणो कपण:-क में रहनेवाली ऋ को इ, ५ को व और अकार को इकार, विसर्ग को ओत्व।
दिण्णं <दत्तं-कारोत्तर अकार को इत्व तथा तं के स्थान पर णं। मिरिअं< मरिचम्म कारोत्तर अकार को इकार, च का लोप और अ स्वर शेष ।
मझिमो< मध्यमः-संयुक्त य का लोप, ध के स्थान पर झ, द्वित्व और पूर्ववर्ती झ को ज् तथा अ को इकार ।
मुइंगो< मृदङ्ग:--म में रहनेवाली ऋ के स्थान पर उ, द लोप और अ स्वर के स्थान पर इत्व।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
वे डिसो वेतसःत को ड और अकार के स्थान पर इस्व ।
-
विअणं << व्यजनम् —– संयुक्त य का लोप और अ को इत्व, ज लोप तथा अं स्वर शेष |
विलीअं<व्यलीकम् – संयुक्त य का लोप और अ को इस्व, क लोप और अं
स्वर शेष ।
सिविणो स्वप्नः - स्व का पृथक्करण, अ को इत्व तथा न कोणत्व, विसर्ग का ओ |
इंगारो, अंगारो << अङ्गारः - विकल्प से अ के स्थान पर इव ।
पिक्कं, पक्कं < पक्वम् — पकारोत्तर अकार को विकल्प से इस्व, संयुक्त वका लोप और क को द्वित्व |
णिडालं, णडालं < ललाटम् — लकारोत्तर अ को विकल्प से इत्व, ट को ड । छत्तिवण्णो, छत्तवण्णो < सप्तपर्णः - सप्त के स्थान पर छत्त, अकार को इत्र, व तथा संयुक्त रेफ का लोप, ण को द्विस्त्र एवं विसर्ग का ओ |
को
प
८५
( ग ) अ = ई - शब्द के आदि में रहनेवाली संस्कृत की अध्वनि ई में परिवर्तित हो जाती है ।
हीरो, हरो < हरः - इकारोत्तर अकार को ईव ।
(घ) अ = उ - संस्कृत की अ ध्वनि का उ ध्वनि में परिवर्तन अर्थात् संप्रसारण । गउओ < गवयः - पकारोत्तर अ के स्थान पर उ और य लोप, अशेष, विसर्ग को ओव ।
गउआ <गवया: - वकारोत्तर अ के स्थान पर उ, य लोप और स्वर शेष, स्त्रीलिंग |
भुणी ध्वनि: - संयुक्त व का लोप, ध को झ, अकार को उत्त्र, न कोण । वीसुं विष्वक — संयुक्त व लोप, अ को उत्व ।
<
तुरिअं - स्वरितम् — संयुक्त व लोप, अ को उत्व ।
सुअइ, सुत्रइ स्वपिति — संयुक्त त लोप, अ को उत्व |
खुडिओ, खंडओ खण्डितः - विकल्प से खकारोत्तर अकार को उ त लोप और अ स्वर शेष |
चुडं, चंडं < चण्डम् — चकारोत्तर अकार को वैकल्पिक उ ।
पुढमं, पदुमं, पुदुमं, पढमं थकारोत्तर अकार को क्रमशः दोनों अकार को उ तथा थ के स्थान पर ढ ।
प्रथमम् - विकल्प से पकारोत्तर अकार को उ
(ङ
ङ) अ = ऊ – संस्कृत की अ ध्वनि का ऊ में परिवर्तन ।
--
अहिण्णू< अभिज्ञ: -भ के स्थान पर ह, ज्ञ के स्थान पर ण्णू तथा अकाऊ |
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
आगमण्णू <आगमज्ञः - ज्ञ के स्थान पर ण्ण् और अ को ऊत्व ।
कयण्णू कृतज्ञः -त का लोप, इ के स्थान पर ण और अ को ऊस्व ।
<
विष्णू विज्ञः - ज्ञ को ण्ण और अ को ऊत्व ।
सव्वण्णू< सर्वज्ञः – संयुक्त रेफ का लोप, व को द्वित्व, ज्ञ कोण्ण तथा अको
-
ऊत्व ।
(च) अ = ए - संस्कृत की अ ध्वनि का प्राकृत में एकार परिवर्तन होता है ।
एत्थ अत्र - अ के स्थान पर ए, न के स्थान पर हथ ।
अंते उरं -
< अन्तःपुरम् - तकारोत्तर अकार को एकार, पकार का लोप और उ
स्वर शेष |
अंतेआरी < अन्तश्चारी—तकारोत्तर अकार को एकार, चकार लोप और आ स्वर शेष ।
गेंदु कन्दुकम् - क के स्थान पर ग तथा अकार को एकार और क लोप, अ स्वर शेष ।
-
,
बम्हचेरं ब्रह्मचर्यम् — संयुक्त रेफ का लोप ह्म के स्थान पर म्ह, चकारोत्तर अकार को एकार, संयुक्त य का लोप ।
सेज्जा शय्या - तालव्य श को दन्त्य स, अकार को एकार और य को ज । सुंदेरं सौन्दर्यम् - सकारोत्तर औकार को उकार, दकारोत्तर अको एकार और संयुक्त य का लोप |
अच्छे अच्छ रिअं < आश्चर्यम् — श्व के स्थान पर च्छ तथा विकल्प से अकार को एकार |
उकेरो, उक्करो < उत्कर:- संयुक्त त का लोप, का को द्वित्व और ककारोत्तर अकार को एकार |
पेरंतो, पज्जतो पर्यन्तः - पकारोत्तर अकार को विकल्प से एकार, विकल्पाभाव में ये के स्थान पर ज्ज ।
वेल्ली, वल्ली दवल्ली - कारोत्तर अकार को विकल्प से एकार |
(छ) अ = ओ - संस्कृत की अ ध्वनि प्राकृत में ओ रूप में परिवर्तित होती है । नमोक्कारो < नमस्कारः – मकारोत्तर अकार को ओकार, संयुक्त स का लोप और क कोहि ।
परोप्परं परस्परम् — रकारोत्तर अकार को ओकर, संयुक्त स का लोप और पको द्वित्व ।
ओप्पेइ, अप्पेइ अर्पयति — अ को विकल्प से ओ, संयुक्त रेफ का लोप, प stara और य को gea तथा त लोप और इ स्वर शेष ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण सोवइ, सुवइ< स्वपिति-संयुक्त व का लोप, पश्चात् सकारोत्तर अकार को ओकार, प को व और विभक्ति चिह्न इ।
ओप्पिअं, अप्पिअं< अर्पितम्-विकल्प से अकार को ओकार, रेफ का लोप और प को द्वित्व, त लोप और अ स्वर शेष ।
पोम्मद पद्मम्-पकारोत्तर अकार को ओकार, दूम के स्थान पर म्म । (ज) अ अइ-संस्कृत के मय प्रत्ययान्त शब्दों में विकल्प से मकारोत्तर अकार को प्राकृत में अइ होता है।
जलमइअं, जलमअं< जलमयम्-मकारोत्तर अकार के स्थान पर विकल्प से अइ, य लोप और अ स्वर शेष ।
विसमइअं, विसमअं< विषमयम्-मकारोत्तर अकार के स्थान पर विकल्प से अइ, य लोप और अ स्वर शेष ।
दुहमइअं, दुहम<दुःखमयम्-ख के स्थान पर ह, मकारोसर अकार के स्थान पर विकल्प से अइ, य लोप, अ स्वर शेष तथा अ के स्थान पर यभुति ।
सुहमइअं, सुहमअं< सुखमयम्- ,, (झ) अ = आइ-संस्कृत की अ धनि प्राकृत में आइ भी होती है ।
उणाइ, न उणो<न पुनः-५ का लोप, उ स्वर शेष तथा नकारोत्तर अकार को विकल्प से आइ।
पुणाइ, पुणो< पुनः
( २ ) संस्कृत की आ ध्वनि प्राकृत में अ, इ, ई, उ, ऊ, ए और ओ में परिवर्तित हो जाती है।
(क) आ = अ-संस्कृत की आ ध्वनि निम्नलिखित शब्दों में अ रूप में परिवर्तित हो जाती है।
आचरिओर आचार्यः-च लोप, अ स्वर शेष और य श्रुति, चा में रहनेवाले आ को अ, र्य को रिओ। ।
कंसिओ< कासिक:-कां के स्थान पर के आकार को अकार। कंसं<कांस्यम्-
.
, संयुक्त य लोप। पंडवो< पाण्डवः–पा के स्थान पर प। पंसमोर पांसन:-, " पंसू< पांसुः- ,
मरहट्रोदमहाराष्ट्र:-हा और रा के स्थान पर हर तथा वर्णव्यत्यय, संयुक्त प और रेफ का लोप, ट को द्वित्व ।
मंसं<मांस-मां के आकार को अकोर ।
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८८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण वंसियो-वांशिका-वां के आकार को अकार, तालव्य श को दन्त्य स, के लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व । .. सामओ< श्यामाक:- संयुक्त मा का लोप, मा के आकार को अकार, क लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व। .
संजत्तिओ< सांयत्रिका-सां के स्थान पर स, य को ज, संयुक्त रेफ का लोप त को द्वित्व, क लोप, अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व ।
संसिद्धिओ सांसिद्धिकः-सां के स्थान पर स, क लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को आत्व। . .
उक्खयं, उक्खायं उत्खातम्-संयुक्त त का लोप, ख को द्वित्व, पूर्ववर्ती क को ख तथा विकल्प से खा को ख, त लोप, अ स्वर शेष, य श्रुति । ____ पुव्वण्हो, पुव्वाण्होपूर्वाह्न :- संयुक्त रेफ का लोप, व को द्वित्व, आ को विकल्प से अ। ___कलओ, कालओ-कालक:-का में रहनेवाले आ को विकल्प से अ, क लोप और अ स्वर शेप, विसर्ग को ओत्व ।
कुमरो, कुमारो-कुमार:-मा में रहनेवाले आ को विकल्प से अ । ... खइरं, खाइरंद खादिरम्-खा के स्थान पर विकल्प से ख, द लोप और इ स्वर शेष।
चमरो, चामरो< चामरः-चा को विकल्प से च । तलवेटे, तालवेटेर तालवृन्तम्-ता को विकल्प से त तथा वृन्तम् को वेट ।
नराओ, नाराओ< नाराच:-विकल्प से ना को न, च लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व।
पययं, पाययं< प्राकृतम्-संयुक्त रेफ का लोप, आ को विकल्प से अ, त लोप, स्वर शेष तथा यश्रुति ।
बलया, बलाया< बलाका-ला के स्थान पर विकल्प से ल, क लोप, मा स्वर शेष और यश्चति ।
बम्हणो, बाम्हणो< ब्राह्मणः-संयुक्त रेफ का लोप, आ को विकल्प से अ, ह्म को म्ह।
ठविओ, ठाविओ< स्थापित:-संयुक्त स का लोप, थ को ठ तथा आकार को विकल्प से अकार, ५ को व, त लोप, अ स्वर शेष, ओत्व ।
परिविओ, परिहाविओ< परिष्ठापित:-ठा को विकल्प से ठ। - संठविओ, संठाविओ< संस्थापित:--संयुक्त स का लोप, था को विकल्प से य और थ के स्थान पर ।
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
हलिओ, हालिओ हालिक:- हा के स्थान पर विकल्प से द, क लोप, स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व ।
अहव, अहवा< अथवा -थ के स्थान पर ह और वा को विकल्प से व । -थ के स्थान पर ह और था में रहनेवाले आकार को विकल्प
तह, तहा < तथा --:
से अकार ।
जह, जहा यथा
"
19
व, वावा में रहने वाले आकार को विकल्प से व ।
८९
"
ह, हाहाहा
"
99
: ( ख ) आ = इ - संस्कृत की आ ध्वनि निम्नलिखित शब्दों में इ के रूप में परिवर्तित
हो जाती है।
आइरिओ, आयरिओ < आचार्य:- -च का लोप, आ स्वर शेष और इस आ के स्थान पर विकल्प से इत्व |
K
कुप्पिसो, कुप्पासो << कूर्पास: - ऊकार के स्थान पर उकार, संयुक्त रेफ का लोप और प को द्वित्व तथा आकार को विकल्प से इकार ।
( ग ) आ
निसिअरो, निसारो निशाकरः - तालाव्य श को दन्ध्य स तथा सा में रहने वाले आ को विकल्प से इकार, क लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व ।
ई - निम्नलिखित शब्दों में संस्कृत की आ ध्वनि ई में परिवर्तित
होती है।
खल्लीडो खल्वाट:- संयुक्त व का लोप, ल को द्वित्व और आकार को ईकार तथा कोड, विसर्ग को ओत्व ।
ठीणं, थीणं स्यानम् — संयुक्त स का लोप, स्य के स्थान में थ और थ को ठ तथा आकार को ईकार, न कोण ।
(घ) आ = उ
उल्लं आर्द्रम्-आ के स्थान पर उ, व़ को छु ।
सुरहा साना-सा में रहने वाले आ को उकार और स्ना के स्थान पर पहा । थुवओ स्तावकः स्त के स्थान पर थ और आकार को उकार, क लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओस्व ।
(ङ) आ = ऊ
अज्जू आर्या - सासू अर्थ होने से र्यं के स्थान पर ज और आकार को ऊकार |
ऊसारो, आसारो आसार : - आ के स्थान पर विकल्प से ऊ ।
(च) आ = ए - निम्नलिखित शब्दों में होती है।
संस्कृत की अ ध्वनि ए में परिवर्तित
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
गेज् माम् — संयुक्त रेफ का लोप, आकार को एकार, ह्य के स्थान पर ज्झ । असहेज्जो, असहज्जो < असहाय्यः -- हा के स्थान पर विकल्प से हे और य्य विसर्ग को ओ
को ज्ज,
1
एत्तिअमेत्तं, एत्तिअमत्तं एतावन्मात्रम् - एतावन् के स्थान पर एतिअ, मा के स्थान पर विकल्प से मे, संयुक्त रेफ का लोप, त को द्वित्व ।
भोअणमेत्तं, भोअणमत्तं < भोजनमात्रम् —ज का लोप और अ स्वर शेष, मा के स्थान पर मे, संयुक्त रेफ का लोप, त को द्वित्व ।
देरं, दारं द्वारम् – संयुक्त व का लोप, आकार को विकल्प से एकार | पारेवओ, पारावओ < पारापतः -रा में रहने वाले आ के स्थान पर विकल्प से ए, प के स्थान पर व, त लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओव ।
पच्छेकम्मं, पच्छाकम्मं < पश्चात्कर्म - पश्चात् के स्थान पर पच्छा और आकार को विकल्प से एकार |
(छ) आ = ओ
( ३ ) संस्कृत की इ ध्वनि प्राकृत में अ, इ, उ, ए और ओ के रूप में परिवर्तित होती है ।
ओलं आर्द्रम्-भा के स्थान पर ओ, द्व के स्थान पर ल ।
--
ओली <आली - आ के स्थान पर ओ 1
( क ) इ = अ - निम्नलिखित शब्दों में इ ध्वनि प्राकृत में अ हो जाती है। इइति -तकार का लोप और इ स्वर शेष तथा इ के स्थान पर अ । तित्तिरो तित्तिरि::-रकार में रहने वाली इकार के स्थान पर अ ध्वनि ।
पहो पथिन्-थ के स्थान पर ह और इकार के स्थान पर अ, हलन्त्य अन्त्य व्यंजन का लोप |
प
<
पुहई पृथिवी में रहने वाली ऋ के स्थान पर उ, थ के स्थान पर ह हकार को अकार और व लोप, ई स्वर शेष ।
इ
को
स्थान पर है,
ए,
बहेडओ < विभीतक : -व में रहने वाली इ के स्थान पर अ, भ त के स्थान पर ड, क लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत् । मुसओ मूषिकः - मूर्धन्य व को दन्त्य स तथा इकार को अकार, क लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व ।
पडंसुआ प्रतिश्रुत्प्रति के स्थान पर पड संयुक्त रेफ का लोप, तालव्य श और तू को आ ।
हलद्दा द हरिद्राहार के स्थान पर ल, इकार को अकार और द्वा में से रेफ का लोप और द को द्वित्व |
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
इंगुअं, अंगुअं< इंगुदम् -- इ के स्थान पर विकल्प से अ, द लोप और अ स्वर शेष ।
सिढिलं, सढिलं शिथिलम् - तालव्य श का दन्त्य स, स में रहनेवाली इ के स्थान पर विकल्प से अ तथा थ को ढ।
पसिढिलं, पसढिलं< प्रशिथिलम् संयुक्त रेफ का लोप, तालव्य श को दन्त्य स, विकल्प से इ के स्थान पर अ, थ को ढ । ( ख ) इ ई—निम्नलिखित शब्दों में संस्कृत की इ ध्वनि प्राकृत में ई हो जाती है।
जीहा< जिह्वा-जि में रहने वाली इ के स्थान पर ईकार, संयुक्त व का लोप ।
वीसारविशति-वि में रहने वाली इकार के स्थान पर ईकार, अनुस्वार का लोप।
तीसार त्रिंशत्-त्रि में से संयुक्त रेफ का लोप, इकार को ईकार, अनुस्वार लोप। सीहोर सिंहः-सिं में संयुक्त इकार को ईकार, अनुरवार लोप । नीसरई, निस्सरइ< निस्सरति-नि में रहनेवाली इकार को विकल्प से दीर्घ ।
नीसह, निस्सहं निस्सहम्- , (ग) इ = उ-निम्न शब्दों में संस्कृत की इ ध्वनि प्राकृत में उ हो जाती है ।
उच्छू < इक्षुः-इ के स्थान पर उ और क्षु के स्थान पर च्छू । दु< द्वि-संयुक्त व का लोप और इकार को उकार ।
दुविहो< द्विविध:-संयुक्त व का लोप और इकार को उकार तथा ध के स्थान पर ह, विसर्ग को ओत्व।
गुःनिनि में रहने वाली इकार के स्थान पर उकार, न को ण।
दुआई< द्विजातिः-संयुक्त व का लोप और इकार के स्थान पर उकार, ज लोप और आ स्वर शेष, त लोप और इकार को दीर्ध ।
नुनि -इकार को उकार । दुहा< विधा—संयुक्त व का लोप, इकार को उकार, ध को ह। गुमज्जइ ८ निमजति–नि में रहनेवाली इ के स्थान पर उ और न को णत्व, त का लोप, इ स्वर शेष। दुमत्तो<द्विमात्रः- संयुक्त व का लोप, इकार को उकार, मात्रः को मत्तो।
णुमन्नोर निमग्न:-नि में रहनेवाली इकार के स्थान पर उकार, संयुक्त ग का लोप और न को द्वित्व ।
दुरेहोर द्विरेख:- संयुक्त व का लोप, इकार को उकार, ख को ह ।
पावासुद प्रवासिन्- संयुक्त रेफ का लोप, ५ को दीर्घ, सि में रहनेवाली इ के स्थान पर उ। .........
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण दुवयणं < द्विवचनम् - संयुक्त व का लोप, इकार को उकार, च के स्थान पर य, न को णत्व।
पावासुओ< प्रवासिक:- संयुक्त रेफ का लोप, अ को दीर्घ, सि में रहने वाली इकार को उ कार, क लोप और विसर्ग को ओत्व।
जहुटिलो, जहिहिलो< युधिष्ठिरः-य को ज, ध को ह तथा इकार के स्थान पर विकल्प से उकार, संयुक्त ष का लोप, ठ को द्वित्व, पूर्व ठ को ट और र को ल।
द उणो, विउणो< द्विगुणः-संयुक्त व का लोप, इकार को उकार, ग लोप और उ स्वर शेष। विकल्प से द का लोप होने पर विउणो रूप बनेगा।
दुइओ, विइओ<द्वितीयः- संयुक्त व का लोप, इकार को उत्व, त लोप, ई शेष और हस्व, य लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग का ओस्व । (घ) इ=ए
मेरा: मिरा-मि में रहनेवाली इ को एकार ।
केसुअं, किंसुअंकिंशुकम्-इकार को एकार, क लोप और अ स्वर शेष । इकार को एत्व न होने पर किंसुअं रूप बनता है। (ङ) इ = ओ
दोवयणं । द्विवचनम् - संयुक्त व का लोप और इकार को ओत्व, मध्यवर्ती च लोप, अ स्वर शेष और य श्रुति ।
दोहा, दुहा< द्विधा-संयुक्त व का लोप, इकार को विकल्प से ओत्व, ध को ह । (च) नि = ओ
ओझरो, निज्मरो< निर्भर:-निर्भर शब्द में विकल्प से नि के स्थान पर ओ होता है, तथा संयुक्त रेफ का लोप, झ को द्वित्व, पूर्ववर्ती झ को ज ।
( ४ ) संस्कृत की ई ध्वनि प्राकृत में अ, आ, इ, उ, ऊ और ए में परिवर्तित होती है।
हरडई <हरीतकी—री में की ई के स्थान पर अ, त को ड और क लोप तथा ई स्वर शेष ।
ई आकम्हारा कश्मीरा:-श्म के स्थान पर म्ह तथा ईकार के स्थान पर आ। इ = इ-निम्न शब्दों में संस्कृत की ई ध्वनि प्राकत में इ हो जाती है।
ओसिअंतं<< अवसीदत्-अव =ओ, सी के स्थान पर सि, दत् = अंतं । . आणि आनीतम्-नी के स्थान पर हस्व इकार होने से णि, त लोप और भ स्वर शेष ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण :: गहिरंगभीरम् -म के स्थान पर ह, दीर्घ इकार को हस्त्र इकार ।
जिवउदजीवतु-जी को हस्व इ करने से जि, त लोप और उ स्वर शेष । तयाणि < तदानीम्-द लोप और आ स्वर शेष, यश्रुति, नी को नि, गत्व ।
सइअं< तृतीयम्-तृ में रहनेवाली * को अ, त लोप, ईकार को इकार, य लोप और प्र स्वर शेष ।
दुइअं< द्वितीयम् - संयुक्त व का लोप, इकार को उकार, त लोप और ईकार को इकार, य लोप और अ स्वर शेष ।
पलिविअंक प्रदीपितम्-संयुक्त रेफ का लोप, दी के स्थान पर ली और ईकार को हस्व, प को व, त लोप और अ स्वर शेष। - पसिओ< प्रसीदः-संयुक्त रेफ का लोप, सी को हस्व, द लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व।
वम्मिओ<वस्मीक: संयुक्त ल का लोप, म को द्वित्व, दीर्घ ईकार को हस्त्र, क लोप, अ स्वर शेष, विसर्ग को ओस्व ।
विलियं<बीडितम् - संयुक्त रेफ का लोप, दीर्घ ईकार को हस्त्र, ड को ल, त लोप और अ स्वर शेष।
सिरिसोद शिरीषः-तालव्य श को दन्त्य स, री को हस्व, मूर्धन्य को दन्त्य स, विसर्ग को ओत्व।
- अलिअं , अलीअं अलीकम्-ल में रहनेवाली दीर्घ ईकार को हस्व, क लोप और अ स्वर शेष।
उवणिरं, उवणीअं< उपनीतम्-५ को व, न को ण, ईकार को विकल्प से हस्व, त का लोप और अ स्वर शेष ।
करिसो, करीसोर करीष:-री के स्थान पर विकल्प से रि, मूर्धन्य ष को दन्त्य स, विसर्ग को ओत्व ।
जिवइ, जीवइ जीवति–जकारोत्तर ईकार को विकल्प से इकार, तकार का लोप, इ स्वर शेष।
पाणि,पाणीअं८ पानीयम्-न को ण, नकारोत्तर ईकार को विकल्प से इकार, यकार का लोप और अ स्वर शेष।
___ जुण्णं, जिण्णं < जीर्णम्-जकारोत्तर ईकार के स्थान पर विकल्प से उकार और उकाराभावपक्ष में ह, संयुक्त रेफ का लोप, ण को द्वित्व । (ङ) ई = ऊ
तूह ८ तीर्थम्-तकारोत्तर ईकार के स्थान पर ऊकार, संयुक्त रेफ का लोप, थ के स्थान पर हैं।
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
K
विहूणो, विहीणो विहीनः – इकारोत्तर ईकार को विकल्प से ऊकार तथा न कोणत्व, विसर्ग को ओत्व ।
९४
हूणो, हीणहीन:
19
"
(च) ई = ए - संस्कृत के निम्न लिखित शब्दों में ई ध्वनि को ए हो जाता है I आमेलो आपीडः - पकारोत्तर ईकार को एकार और ड को ल ।
केरिस कीदृशः - ककारोत्तर ईकार को एकार, दृश: के स्थान पर रिसो । एरिसोईदृश: - ई के स्थान पर एकार, दृश: के स्थान पर रिसो । पेऊसं <पीयूषम् – पकारोत्तर ईकार को एत्व, य लोप और ऊ स्वर शेष, मूर्धन्य को दन्त्य स ।
वहेडओ विभीतक : — इकार को अकार, भकारोत्तर ईकार को एकार, भ के स्थान पर ह, त कोड और क लोप, अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व |
नेडं, नीडं < नीडम् – नकारोत्तर ईकार को विकल्प से एकार |
पेढं, पीठं पीठम् — पकारोत्तर ईकार को विकल्प से एकार तथा ठ को ढ ।
(१) संस्कृत की उ ध्वनि प्राकृत में अ इ, ई, ऊ और ओ में परिवर्तित हो जाती है । उ = अ - निम्न लिखित शब्दों में संस्कृत की उ ध्वनि प्राकृत में अ में परिवर्तित होती है।
अगरुं < अगुरुम् -- गकारोत्तर उकार के स्थान पर अ ।
गलोइ 4 गुडूची - गकारोत्तर उकार को अ,
"
मउरं मुकुरम् – मउलो 4 मुकुल:
का लोप, ई स्वर शेष, पश्चात् हस्त्र ।
गरुई - गुर्वी - गकारोत्तर उकार को अ वीं का पृथक्करण अतः रुई । उडो मुकुट :- मकारोत्तर उकार को अ, क लोप और ट को ड ।
"
""
उ को ल और ऊ को ओ, चकार
""
22
मउलं <मुकुलम् -
""
""
सोअमल्लं < सौकुमार्यम् — औ को ओकार होने से सो, क का लोप और उसके स्थान में उ स्वर शेष, उकार को अ तथा मार्यं का मल्लं ।
अवरिं, उवरिं उपरि —उ के स्थान पर विकल्प से अ, प को व
ओ, गुरुओ गुरुकः - गकारोत्तर उ के स्थान पर विकल्प से अ, क लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व ।
( ख ) उ - इ - संस्कृत के निम्न लिखित शब्दों की उ ध्वनि का प्राकृत में इ हो जाता है ।
पुरिसो 4 पुरुषः -रकारोत्तर उकार के स्थान पर इ, मूर्धन्य प को दस्य स ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
परिसं< पौरुषम् – औ के स्थान पर ओ, पश्चात् अ + उ,
९५
को इव ।
भिउडी भ्रुकुटि :- संयुक्त रेफ का लोप, उकार को इकार, क लोप, उ स्वर शेष
और ट कोड ।
कारोत्तर उ
(ग) उ = ई
छीअं
क्षुतम् -क्ष के स्थान पर छ, उकार को ईकार, त लोप और अ स्वर शेष । (घ) उ = ऊ
दूहवो, दुहओ < दुर्भग: - दकारोत्तर उकार को विकल्प से ऊकार, संयुक्त रेफ का लोप, भ को ह और ग लोप, अ स्वर शेष तथा ओत्व ।
(ङ) उ =
मूसलं, मुसलं मुसलम् - मकारोत्तर उकार को विकल्प से ऊत्व । दूस हो, दुस्सहो 4 दुस्सह: - दकारोत्तर उकार को विकल्प से त्व । सुहवो, सुहओ सुभगः - सकारोत्तर उकार को विकल्प से ऊकार, भ को छ, ग लोप और अ स्वर शेष ।
K
= ओ
को उहलं, कुऊहलं कुतूहलम् — ककारोत्तर उकार को ओव, तकार का लोप, ऊ स्वर शेष तथा ऊ को विकल्प से ह्रस्व । ( ६ ) संस्कृत की ऊ ध्वनि प्राकृत में अ, जाती है.
ई, उ, ए और ओ रूप में बदल
1
( क ) ऊ = अ - निम्न लिखित प्राकृत शब्दों में संस्कृत की ऊ ध्वनि विकल्प से अ में परिवर्तित होती है ।
दुअल्लं, दुऊलं दुकूलम् - मध्यवर्ती क लोप, ऊ स्वर शेष और ऊ के स्थान पर विकल्प से अ ।
सहं, सुहं सूक्ष्मम् — सकारोत्तर ऊकार के स्थान पर विकल्प से अकार, क्ष्म के स्थान पर ह ।
( ख ) ऊ = ई
निउरं, नुउरं नूपुरम् – ऊकार के स्थान पर विकल्प से इकार, प का लोप उ शेष ।
( ग ) ऊ = ई
<
उव्वीढं, उव्वूढं उदद्व्यूढम् – द्य् का लोप और व को द्वित्व और ऊकार को विकल्प से ईकार ।
(घ ) ऊ = उ – निम्न लिखित शब्दों में ऊकार के स्थान पर उत्व होता है । कंडुअइ < कण्डूयते – ऊकार के स्थान पर उकार और यकार का लोप, अ स्वर शेष, विभक्त चिह्न इ ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
कंडुया< कण्डूया-उकार के स्थान पर उकार । कंड्यणं< कण्डूयणम्-उकार को उत्व तथा न को णत्व । भुमया भ्रूः-ऊकार के स्थान पर उत्व ।। वाउलोर वातूल:-तकार का लोप और ऊ स्वर शेष, ऊ के स्थान में उत्व । हणुमंतोर हनूमान्-नकार को णत्व और ऊकार को उत्व। ....
कोउहलं, कोऊहलं< कुतू हलम् -ककारोत्तर उकार को ओकार, तकार का लोप और ऊकार के स्थान पर विकल्प से उत्व । __ महुअं, महूर मधूकम् -ध के स्थान पर ह और ऊकार को विकल्प से उत्व । (ङ) ऊ = ए
नेउरं, नूउरं नूपुरम्-उकार के स्थान पर एत्व और पकार का लोप और उ स्वर शेष। (च) ऊ= ओ-निम्न लिखित शब्दों में ऊ को ओ होता है।
कोप्परं<कूर्परम्-ऊकार को ओकार, संयुक्त रेफ का लोप, प को द्वित्व । कोहण्डी कूष्माण्डी-ककारोत्तर उकार को ओत्व, ष्मा के स्थान पर है।
गलोई < गुडूची-डकार के स्थान पर ल, डकारोत्तर ऊकार को ओ एवं चकार . का लोप, ई शेष।
तंबोलं<ताम्बूलम्–ता को हस्त्र, बकारोत्तर उकार को ओत्व । तोणीरंतूणीरम् ऊकार को ओत्व ।
मोल्लं< मूल्यम्-मकारोत्तर उकार को ओत्व, संयुक्त य का लोप और ल को द्वित्व ।
थोरं<स्थूलम्—संयुक्त स का लोप, थकारोत्तर उकार को ओत्व एवं ल को रकार ।
तोणं, तूणं<तू णम्-तकारोत्तर ऊकार को विकल्प से ओस्व । _थोणा, थूणा< स्थूणा-संयुक्त स का लोप और थकारोत्तर ऊकार को विकल्प से ओत्व।
(७) प्राकत वर्णमाला में ऋ को स्थान नहीं दिया गया है। अत: संस्कत की ऋ का परिवर्तन अ, आ, इ, उ, ऊ, ए, ओ, अरि और रि के रूप में होता है।
( क ) ऋ = आ-निम्न लिखित शब्दों में आदि में आनेवाली ऋम के रूप में बदल जाती है। ___ कयं कृतम्-ककारोत्तर क्र के स्थान पर अ, त लोप, अ स्वर शेष और य श्रुति ।
घयं<घृतम्-धकारोत्तर
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
घट्ठो<घृष्टः-धकारोत्तर ऋ के स्थान पर अ, संयुक्त ष का लोप, ट को द्वित्व । तणं< तृणम्-तकारोत्तर के स्थान अ ।
मओ< मृगः-मकारोत्तर के स्थान पर अ, ग लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग का ओत्व। ___मटुं< मृष्टम् -मकारोत्तर क्र के स्थान पर अ, संयुक्त प का लोप और ट को द्वित्व ।
वसहो< वृषभ:-वकारोत्तर क्र के स्थान पर अ, मूर्धन्य ष को दन्त्य स, भ के स्थान पर ह और विसर्ग का ओत्व।
दुक्कडं < दुष्कृतम्-संयुक्त ष का लोप, क को द्वित्व, ऋ के स्थान पर अ एवं त के स्थान पर ड।
पुरेकडं < पुरस्कृतम्-रकारोत्तर अ को एत्व, संयुक्त स का लोप, ऋ के स्थान पर अ, त को ड। - मट्टिया < मृत्तिका-मकारोत्तर के स्थान पर अ, त को ट तथा ककार का लोप, आ स्वर शेष, य श्रुति।
णिअत्तं< निवृत्तम्-न को णत्व, वकारोत्तर प्रकार को अ। मञ्चु< मृत्यु-मकारोत्तर - को अ और त्य के स्थान पर च।
मउओ< मृदुक:-, , ,, द लोप, उ स्वर शेष, क लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व।
वन्दारओ< वृन्दारकः-वकारोत्तर के स्थान पर अ, क लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व ।
वगी< वृकी–वकारोत्तर के स्थान पर अ तथा क को ग।
कसणपक्खो < कृष्णपक्ष:-ककारोत्तर के स्थान पर अ, पण का पृथक्करण मुर्धन्य ष को दन्त्य स तथा क्ष को क्ख ।
पाययं< प्राकृतम्-ककारोत्तर ऋ के स्थान पर अ और इस अ को य श्रुति, त लोप, अ स्वर शेष और अ को य।
वहफ्फई वृहस्पति:-वकारोत्तर प्रकार को अत्व, स्प के स्थान पर प्फ ।
सिलवटो< शिलापृष्ठः-तालव्य श को दन्त्य स, लकार को हस्व, प का व और क्र को अ।
मअलांछणं< मृगलाञ्छनम्-मकरोत्तर ऋकार को अत्व, ग लोप और अ स्वर शेष ।
मअवहू मृगवधू-मकरोत्तर ऋ के स्थान पर अ, ध के स्थान पर ह । रामकण्हो< रामकृष्ण:-ककारोत्तर ऋकार को अ और ष्ण को ण्ह ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
(ख) ऋ = आ-निम्न शब्दों में विकल्प से ऋ के स्थान पर आ आदेश होता है।
कासा, किसांद कृशा-ककारोत्तर ऋकार को विकल्प से आत्व । माउक्कं, मउत्तणं< मृदुत्वम्-मकरोत्तर ऋकार को विकल्प से आत्व ।
माउक्क, मउअं< मृदुकम्(ग) ऋ = इ-निम्न शब्दों में संस्कृत की ध्वनि इ में परिवर्तित होती है। - उक्किट्रं< उत्कृष्टम्-संयुक्त त का लोप, क को द्वित्व और के स्थान पर है। इद्धी<ऋद्धिः- के स्थान पर है। इसी ऋषि:- के स्थान पर इ, मूर्धन्य प को सत्व और इकार को दीर्घ । किच्छम् < कृच्छम् -क ककारोत्तर ऋ के स्थान पर है। किविणो<कृपण:- ,
, तथा प का व और विसर्ग का ओत्व ।
किई <कृति:-ककारोत्तर के स्थान पर इ, त लोप और इ स्वर को दीर्घ । किच्ची कृत्ति:-क में रहनेवाली के स्थान पर इ, त के स्थान पर च । किच्चा< कृत्या-क में रहने वाली ऋ के स्थान पर इ, त्य के स्थान पर च । किवोर कृपः-ककारोत्तर प्रकार के स्थान पर इ और प को व। किवा<कृपा- ,
" " किवाणं कृपाणम्-, , , किदो< कृश:- , , , श के स्थान पर 'द' । किसाणू< कृशानु:-,
, तालव्य श को स, उकार को ऊत्व।
किसिओ< कृषित:-ककारोत्तर ऋकार के स्थान पर इ, मूर्धन्य ष लोप, त लोप और स्वर शेष तथा ओत्व ।
किसरा < कृसरा-ककारोत्तर ऋकार के स्थान पर है। गिट्ठी< गृष्टि:-गकारोत्तर ऋकार को इत्व, मूर्धन्य ष लोप, ट को द्वित्व । गिद्धीगृद्धिः-गकारोत्तर ऋकार को इत्व । घुसिणं घुसृणम्-सकारोत्तर ऋ को इत्व । घिणा<घृणा-घकारोत्तर - के स्थान पर है। तित्तं तृप्तम्-तकारोत्तर प्रकार के स्थान पर है। संयुक्त प लोप और त
को द्वित्व ।
दिटुं< दृष्टम्—दकारोत्तर क्र के स्थान पर इ, संयुक्त ष लोप, ट को द्वित्व, द्वितीय ट को ठ।
दिदी<दृष्टि:
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण धिई ८ ति:-धकारोत्तर ऋकार को इकार, त लोप और शेष स्वर इ को दीर्घ ।
नत्तिओ< नप्तृक:- संयुक्त प का लोप, त को द्वित्व, ऋकार को इत्व, क लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व।
नियो नृपः-नकारोत्तर ऋकार को इत्व और प को व, विसर्ग को ओत्व ।
निसंसो< नृशंसः-नकारोत्तर ऋकार को इत्व, तालव्य श को दन्त्य स, विसर्ग को ओत्व।
पिहं ८ पृथक-पकारोत्तर ऋकार को इत्व, थ को ६, अन्त्य हलन्त का लोप, अनुस्वारागम।
पिच्छी< पृथ्वी-पकारोत्तर क को इत्व, थ्वी के स्थान पर च्छी।
विहिओ हित:—वकारोत्तर ऋकार को इत्व, त का लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व।
भिंगो< भृङ्गः-भकारोत्तर ऋकार को इत्व, विसर्ग को ओत्व । भिंगारो<भृङ्गारः- , , . "
भिऊ < भृगुः-भकारोत्तर ऋकार को इत्व, ग का लोप और उ स्वर, शेष, दीर्घ ।
माई < मातृ-तकारोत्तर - को इस्व तथा दीर्घ ।
मिइँगो<मृदंग:-मकारोत्तर ऋकार को इत्व, द का लोप, अ स्वर शेष तथा शेष अ को इत्व, विसर्ग को ओत्व ।
मिटुं< मृष्टम्-मकारोत्तर ऋकार को इत्व, संयुक्त प का लोप, ट को द्वित्व तथा द्वितीय ट को ठ।
विइण्हो< वितृष्ण:-तकारोत्तर ऋकार को इत्व, ष्ण: के स्थान पर ण्हो ।
विञ्चुओ< वृश्चिक:-वकारोत्तर ऋकार को इत्व, श्च के स्थान पर ञ्च तथा इ को उत्व, क लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व ।
वित्तं वृत्तम्-वकारोत्तर ऋ के स्थान पर इत्व । वित्ती< वृत्ति:-वकारोत्तर ऋको इत्व, तकारोत्तर इकार को दीर्घ ।
विद्धकई < वृद्धकविः-वकारोत्तर ऋ को इत्व, व का लोप और शेष स्वर इ को दीर्घ। . विट्ठो< वृष्ट:-वकारोत्तर ऋ को इत्व, संयुक्त पका लोप, ट को द्वित्व तथा द्वितीय ट को ठ।
विट्ठी वृष्टिःविसी< वृसी-चकारोत्तर ऋ को इत्व।
वाहिअं< व्याहृतम्-संयुक्त य का लोप, हकारोत्तर ऋकार को इत्व, त का लोप और अ स्वर शेष ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
सिआलो शृगालः – तालव्य श को दन्त्य स, शकारोत्तर ऋकार को इत्व, ग का लोप और आ स्वर शेष, विसर्ग को ओव ।
१००
सिंगारो शृंगार : - तालव्य श को दन्त्य स, शकारोत्तर ऋ को इत्व, और विसर्ग को ओत्व |
सइ सकृत् - क का लोप और ककारोत्तर ऋकार को इत्व, अन्त्य हलन्त त् का लोप ।
समिद्धी समृद्धि : मकारोत्तर ऋकार को इत्व, कारोत्तर इकार को दीर्घं । सिहं सृष्टम् – सकारोत्तर ऋकार को इत्व, संयुक्त ष का लोप ट को द्वित्व
और द्वितीय ट को ठ | सिट्ठी सृष्टि:
K
अन्तिम
इकार को दीर्घ ।
"
""
93
छिहा स्पृहा - स्प में रहनेवाली ऋ को इत्व, रूप के स्थान पर छ । हिअयं हृदयम् - हृ में रहने वाली ऋ को इत्व तथा द का लोप और अ स्वर शेष ।
माइहरं < मातृगृहम् – तकारोत्तर ऋ का इत्व और गृह को हरं ।
-
मियतण्हा मृगतृष्णा - मकारोत्तर ऋकार को इत्व, ग का लोप, अ स्वर शेष और य श्रुति, तकारोत्तर ऋ को अ तथा ष्ण के स्थान पर ह ।
मियंको, मयंको मृगाङ्क: - मकारोत्तर ऋकार को इत्व, ग का लोप और अ स्वर को यश्रुति ।
६
इहामियो इहामृग:- मकारोत्तर ऋ को इस्त्र, ग का लोप, अस्वर शेष तथा य श्रुति, विसर्ग को ओव ।
मिसराओ मृगशिरा:- मकारोत्तर ऋकार को इत्व, ग लोप, अ स्वर शेष तथा श्रुति, तालव्य श को दन्त्य स ।
K
इसिगुत्तो ऋषिगुप्तः - ऋकार को इत्व, मूर्धन्यष को स, संयुक्त प का लोप, aatara |
इसिदत्तं ऋषिदत्तम् - ऋकार को इत्व, मूर्धन्य ष को दन्त्य स ।
धिट्टो, घट्टो टष्टः - धकारोत्तर ऋकार को विकल्प से इत्व, संयुक्त ष का लोप, ट को द्वित्व, द्वितीयट को ठ, विसर्ग को ओत्व ।
पिट्ठ, पठ्ठे पृष्टम् - पकारोत्तर ऋकार को विकल्प से इत्व, संयुक्त ष का लोप, ट atra तथा द्वितीय ट को ठ ।
विफई, बहरफई 4 बृहस्पतिः - वकारोत्तर ऋकार को विकल्प से हत्व, स्प को फ, तकार का लोप और इ स्वर शेष को दीर्घ ।
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________________
अभिनव प्राकृत व्याकरण
१०१
माइमंडलं, माउमंडलं < मातृमण्डलम् - तकारोत्तर अकार को विकल्प से इत्व | मिच्चू, मच्चू<मृत्युः— मकारोत्तर ऋकार को विकल्प से इत्व और त्यु:
को च्चू |
विद्धो, वुड्ढो वृद्धः - कारोत्तर ऋकार को विकल्प से इस्त्र ।
विंट, वेंट वृन्तम्-वकारोत्तर ऋकार को विकल्प से इस्व तथा त कोट ।
K
सिंगं, संगं शृङ्गम् - तालव्य श को दन्त्य स, शकारोतर ऋकार को विकल्प
से
(घ) ऋ = उ — निम्न प्राकृत शब्दों में संस्कृत की ऋ ध्वनि उकार में परिवर्तित है । उऊऋतु: - ऋकार को उ तथा तकार का लोप और शेष स्वर उ को दीर्घं । उसहों ऋषभः - ऋ को उत्व, मूर्धन्य ष को दन्त्य स भ को को ओत्व ।
६, विसर्ग
-
जामाउओ जामातृकः – तकारोत्तर ऋकार को उत्व, तकार का लोप, क लोप, अ स्वर ओर विसर्ग को ओत्व ।
नतुओ नप्तृकः संयुक्त प का लोप, त को द्वित्व, ऋकार को उत्व, क का लोप और शेष स्वर अ को ओत्व ।
निहुअं अ स्वर शेष ।
निउअं < निवृतम् — वकारोत्तर ऋकार को उत्व, व का लोप, तकार का लोप और और अ स्वर शेष
1
< निभृतम्भकार को ह तथा ऋ को उत्व, तकार का लोप और
निव्वुअं निवृतम् — संयुक्त रेफ का लोप, व द्वित्व, ऋकार को उत्व, त लोप और अ स्वर शेष
1
निव्वुई < निर्वृप्ति :- संयुक्त रेफ का लोप, व को द्वित्व, ऋकार को उत्व, त लोप और इकार शेष तथा इसको दीर्घ ।
परहुओ परभृतः - भकारोत्तर ऋकार को उत्व, भ को छ, त लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओव |
परामुट्ठो परामृष्टः - मकारोत्तर ऋकार को उत्त्र, संयुक्त ज का लोप, ट को द्वित्व, द्वितीयट को ठ, विसर्ग को ओस्व ।
पिउओ पितृकः - तकारोत्तर ऋकार को उत्व, क का लोप अ स्वर शेष और विसर्ग का ओत्व |
पुहई < पृथिवी - पकारोत्तर ऋकार को जल्न, थ के स्थान पर ह, इ स्वर को अ, वकार का लोप और ई स्वर ।
पहुडि प्रभृति संयुक्त रेफ का लोप, भकारोत्तर ऋकार को उत्व, त को ड ।
chys
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१०२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण पउत्ती< प्रवृत्ति:-संयुक्त रेफ का लोप, वकारोत्तर ऋकार को उत्व, व का लोप, अन्तिम स्वर इ को दीर्घ ।
पउद्यो< प्रवृ:-संयुक्त रेफ का लोप, वकारोत्तर ऋकार को उत्व, व का लोप, संयुक्त ष का लोप, ट को द्वित्व, द्वितीय ट को ठ।
पाहुडं< प्राभृतम् - संयुक्त रेफ का लोप, भ को ह, ऋकार को उत्व, त को ड।
पाउओ< प्रावृतः-संयुक्त रेफ का लोप, वकार का लोप और अवशेष ऋ को उत्व, त का लोप, अ स्वर शेष तथा विसर्ग को ओत्व ।
पाउसो< प्रावृषः-संयुक्त रेफ लोप, व लोप और अवशेष ऋकार को उत्व, मूर्धन्य ष को दन्त्य स, विसर्ग को ओत्व ।
भुई ८ भृति:-भकारोत्तर ऋकार को उत्व, तकार का लोप और शेष स्वर इ को दीर्घ ।
भाउओ<भ्रातृकः-संयुक्त रेफ का लोप, तकार का लोप, ऋकार को उत्व, क का लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व ।
माउओ<मातृक:-तकार का लोप, ऋकार को उत्व, क का लोप, अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व।
माउआ< मातृका-तकार का लोप, शेष स्वर ऋ को उत्व, क का लोप और आ स्वर शेष।
मुणालं, मृणालम् -मकारोत्तर ऋकार को उत्व । वुत्तंतो< वृत्तान्त:-वकारोत्तर ऋकार को उत्व ।
वुड्ढोवृद्धः-वकारोत्तर ऋकार को उत्व, दन्त्य वर्गों को मूर्धन्य, विसर्ग का ओत्व ।
वुड्ढी वृद्धिः--वकारोत्तर ऋकार को उत्व, दन्त्य वर्गों को मूर्धन्य, इकार को दर्घ । -बुंदं< वृन्दम्-वकारोत्तर ऋकार को उत्व ।
बुंदावणोद वृन्दावन:-वकारोत्तर ऋकार को उत्व, न को गत्व और विसर्ग जो ओत्व।
विउअं< विवृतम् - मध्यवर्ती वकार का लोप, शेष ऋ को उत्व, त लोप और अ स्वर शेष।
वुट्ठो< वृष्ट:---वकारोत्तर ऋकार को उत्व, संयुक्त ष का लोप, ट को द्वित्व तथा द्वितीय ट को ठ।
वुद्दी< वृष्टिः–वकारोत्तर, ऋकार को उत्व, संयुक्त प का लोप, ट को द्विस्व तथा द्वितीय ट को ठ, इकार दीर्घ ।
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अभि प्राकृत-व्याकरण
१०३
पुट्ठो स्पृष्टः संयुक्त स का लोप, पकारोत्तर ऋकार को उत्व, संयुक्त ष का लोप ट को द्वित्व, द्वितीय ट को ठ, विसर्ग को ओत्व ।
संवुअं संवृतम् - वकारोत्तर ऋकार को उत्व, तकार का लोप, अ शेष । मुसा, मोसादमृष - मकारोकर ऋकार को विकल्प से उ, उ के अभाव में ओ तथा मूर्धन्य ष को दन्त्य स ।
उस हो, वसहोदवृषभः- त्रकारोत्तर ऋकार को विकल्प से उत्व, विकल्पाभाव पक्ष में ऋकार को अ ।
(घ ) ऋ = ऊ ।
मूसा, मुसा, मोसादमृषा -- मकारोत्तर ऋकार के स्थान पर विकल्प से ऊकार, विकल्प भाव पक्ष में उकार तथा ओकार होने से तीन रूप बनते हैं ।
(ङ) ऋ = ए –
-
वेंट, विटं<वृन्तम् — कारोत्तर ऋकार को विकल्प से एकार, में इकार तथा त कोट ।
: ओ
(च) ऋ =
विकल्पाभावपक्ष
मोसा मृषा - मकारोत्तर ऋ को विकल्प से ओश्व । वोटं वृन्तम्- - वकारोत्तर ऋकार को विकल्प से ओत्व । (छ) ऋ = = अरिदरिओ < दृप्तः दकारोत्तर ऋकार को अरि, संयुक्त प और अन्तिम ता लोप, अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व ।
(ज) ऋ = दि
आढिओ आहत : - मध्यवर्ती दकार का लोप और शेष ऋ के स्थान पर दि त लोप, अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व ।
( झ ) ऋ = रि- निम्न प्राकृत शब्दों में वर्तमान भाषा प्रवृत्ति के समान संस्कृत की ऋ के स्थान पर रि मिलता है ।
रिच्छो ऋक्षः - ऋ के स्थान पर रि और क्ष को च्छ, विसर्ग को ओत्व । अन्नारिसो< अन्यादृशः — संयुक्त य का लोप, न को द्वित्व, दकार का लोप और शेष स्वर ऋ को रि, श को स, विसर्ग को ओस्व ।
अन्नारिच्छो << अन्यादृक्षः - संयुक्त य का लोप, न को द्वित्व, दकार का लोप और शेष स्वर ऋ को रि, क्ष को च्छ तथा विसर्ग को ओत् ।
अमूरिसो < अमूहश:- - दकार का लोप, शेष स्वर ऋ को रि, तालव्य श को विसर्ग को ओत्व ।
दन्त्य स
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१०४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण अमरिच्छो< अमूहक्ष:-दकार का लोप, शेष स्वर ऋ को रि, क्ष को च्छो ।
अम्हारिसो< अस्मादृशः-दकार का लोप, शेष स्वर ऋ को रि, तालव्य श को दन्त्य स, विसर्ग को ओत्व । __अम्हारिच्छो< अस्मादृक्ष:-दकार का लोप, शेष स्वर ऋ को रि, क्ष को च्छ, विसर्ग को ओत्व।
एरिसोईदृश:-ई के स्थान में ए, दकार का लोप और शेष स्वर के स्थान में रि, तालव्य श को दन्त्य स, विसर्ग को ओत्व ।
एरिच्छो< ईदृक्ष:-ई के स्थान में ए, दकार का लोप और शेष स्वर ऋ के स्थान में रि, क्ष को च्छ और विसर्ग को ओत्व ।
एआरिसो< एतादृशः-मध्यवर्ती तकार का लोप, आ स्वर शेष, दकार का लोप और शेष स्वर ऋ को रि, तालव्य श को दन्त्य स, विसर्ग को मोत्व ।
एआरिच्छोर एतादृक्षः-मध्यवर्ती तकार का लोप, आ स्वर शेष, दकार का लोप और शेष स्वर ऋ को रि, क्ष को उछ और विसर्ग को ओत्व ।
केरिसो< कीदृशः—ककारोत्तर ईकार को एकार, दकार का लोप और शेष स्वर ऋकार को रि।
केरिच्छोर कीदृक्षा- ,
तारिसो< तादृश:-दकार का लोप, शेष स्वर ऋकार को रि, श को स, विसर्ग को ओत्व।
तारिच्छो तादृक्षः-दकार का लोप, शेष स्वर ऋकार को रि, क्ष को च्छ तथा विसर्ग का ओत्व।
तारिक्< तादृक्-दकार का लोप, शेष स्वर ऋ को रि, अन्त्य हलन्त्य क् का लोप । भवारिसो<भवादृशः-
श को दन्त्य स विसर्ग को ओत्व। भवारिच्छो< भवादृक्षः-, क्ष को च्छ, विसर्ग को ओत्व। भवारि < भवाहक-
, अन्त्य हलन्त्य क् का लोप । जारिसो< यादृश:-आदि यकार को जकार, द का लोप, शेष स्वर ऋ के स्थान पर रि, तालव्य श को दन्त्य स विसर्ग को ओत्व ।
जारिच्छो, यादृक्षः-आदि यकार को जकार, द का लोप, शेष स्वर ऋ के स्थान पर रि, क्ष को च्छ, विसर्ग को ओत्व ।
जारि यादृक्-आदि य को ज, दकार का लोप, शेष स्वर क को रि, अन्त्य हलन्त्य क का लोप।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१०५
तुम्हारिसो<युष्मादृशः-युष्मा के स्थान पर तुम्हा, दकार का लोप, शेष स्वर र को रि, तालव्य श को दन्त्य स।
तुम्हारिच्छो युष्मादृशः- , ,क्ष को च्छ, विसर्ग को ओत्व । तुम्हारि-युष्मादृक्-
, अन्त्य हलन्त्य क् का लोप । सरिसो< सदृश:-दकार का लोप, शेष स्वर २ को रि, तालव्य श को दन्त्य स विसर्ग का ओत्व ।
सरिच्छो< सदृक्षः- , क्ष को च्छ, विसर्ग को ओत्व । सरि< सदृक्-
, अन्त्य हलन्त्य क् का लोप । रिज्जू, उज्जूर ऋजु:-ऋ के स्थान में विकल्प से रि, विकल्पाभाव में उ । रिणं, अणं< ऋणम्- , , विकल्पाभाव में अ ।
रिऊ, उऊ <ऋतु:- , , तकार का लोप, शेष स्वर उ को दीर्घ ।
रिसहो, उसहो<ऋषभः-, , विकल्पाभाव पक्ष में उ। रिसी, इसी<ऋषि:- , , विकल्पाभाव पक्ष में है। (८) प्राकृत में संस्कृत की एकार ध्वनि इ और ऊ में बदल जाती है । ( क ) ए = इकिसर, केसरं< केसरम्-ककारोत्तर एकार को विकल्प से इत्व । चविडा, चवेडाद चपेटा-प को व, पकारोत्तर ए को विकल्प से इ।
दिअरो, देयरो< देवर:-दकारोत्तर एकार को इत्व, वकार का लोप और अ स्वर शेष ।
विअणा, वेअणा-वेदना- वकारोत्तर एकार को इत्व, इकार का लोप और अ स्वर शेष ।
(ख)ए = ऊ
थूगो, थेगो< स्तेन:-स्त के स्थान पर थ और एकार के स्थान पर विकल्प से ऊकार ।
(९) प्राकृत में संस्कृत की ऐकार ध्वनि का अ अ, इ, ई, अइ और ए में परिवर्तन होता है। (क) ऐ=अ।
उच्चअं< उच्चैस्-चकारोत्तर ऐकार के स्थान पर अअ । नीचअं< नीचैस - .. ,
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१०६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण (ख ) ऐ-इ
सणिच्छरो< शनैश्चर:-तालव्य श को दन्त्य स, न को ण, नकारोत्तर ऐकार को इत्व, श्च को च्छ, विसर्ग को ओत्व ।
सिन्धवं< सैन्धवम्-सकारोत्तर ऐकार को इकार ।
सिन्नम् , सेन्नं< सैन्यम्-सकारोत्तर ऐकार को विकल्प से इकार, संयुक्त य का लोप और न को द्वित्व। (ग ) ऐ = ई
धीरं धैर्यम्-धकारोत्तर ऐकार को ईत्व, संयुक्त यकार का लोप और र शेष । (घ) ऐ = अइ
अइसरिअं< ऐश्वर्यम्-ऐकार को अइ, संयुक्त व का लोप, तालव्य श को स, र्यम् को रिझं।
कइअवं < कैतवम्—ऐकार को अइ, तकार का लोप और अ स्वर शेष ।
चइत्तं चैत्यम्-चकारोत्तर ऐकार को अइ, संयुक्त य का लोप और त को द्वित्व ।
दइच्चोद दैत्य:-दकारोत्तर ऐकार को अइ, त्य कोच, विसर्ग को ओत्व । दइअवं< दैवतम् - , , , वर्णविपर्यय से वतम् का अवं । भइरवो< भैरव:-भकारोत्तर ऐकार को अइ । वइजवणो< वैजवन:-वकारोत्तर ऐकार को अइ । वइआलीअं< वैतालीयम्- ,,
तकार का लोप और आ स्वर शेष ।
वइदब्भोः वैदर्भ:- , संयुक्त रेफ का लोप, भ को द्वित्व और पूर्ववर्ती भ को ब।
वइएसो< वैदेश:–वकारोत्तर ऐकार को अइ, मध्यवर्ती कार का लोप, एकार शेष। वइएहोद वैदेहः-
" " " . वइसाहो< वैशाख:-
, श को स, ख के स्थान में ह और विसर्ग को ओत्व।
वइसालो< वैशालः–वकारोत्तर ऐकार को अइ, श को स। वइस्साणरोद वैश्वानरः-
, संयुक्त व का लोप, स को द्वित्व न को ण तथा विसर्ग को ओत्व।
सरस्वैरम्- संयुक्त व का लोप, सकारोत्तर ऐ को अइ ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण कइरवं, केरवं ८ कैरवम् – ककारोत्तर ऐकार को विकल्प से अइ तथा विवल्पाभाव पक्ष में ए।
कइलासो, केलासोर कैलास:
चइत्तो, चेत्तोः चैत्रः-चकारोत्तर ऐकार को विकल्प से अइ तथा विकल्पाभाव में ए।
वइरं, वेरं< वैरम्-वकारोत्तर ऐकार को विकल्प से अइ तथा विकल्पाभाव में ए।
वइसंपायणो, वेसंपायणो< वैशम्पायन:- , , , वइसवणो, वेसवणो वैश्रवणः
वइसिअं, वेसिअं<वैशिमम्(ङ) ऐ = ए
एरावणो ऐरावण:-ऐकार को एकार ।
केढवो< कैटभ:-ककारोत्तर ऐकार को एकार, ट को ढ और भ को व, विसर्ग का ओत्व।
तेलुक्कं ८ त्रैलोक्यम्-संयुक्त रेफ का लोप, तकारोत्तर ऐकार को एत्व, संयुक्त य का लोप और क को द्वित्व ।
वेज्जो वैद्य:-वकारोत्तर ऐकार को एत्व, द्य के स्थान पर ज्ज।
वेहव्वं वैधव्यम्-वकारोत्तर ऐकार को एत्व, ध को ह, संयुक्त य लोप और व को द्वित्व।
सेलारशैला-सकारोत्तर ऐकार को एत्व ।
(९) प्राकृत में संस्कृत की ओ ध्वनि का अ, ऊ, अउ और आअ में परिवर्तन होता है।
( क ) ओ = अ- अन्नन्नं, अन्नुन्नं ८ अन्योन्यम् - संयुक्त य का लोप, न को द्वित्व और ओ के स्थान पर विकल्प से अ, विकल्पाभाव में उ।
आवज्जं, आउज्जंद आतोद्यम्-तकारोत्तर ओकार के स्थान पर विकल्प से अ, विकल्पाभाव में उ, द्य के स्थान पर ज्ज ।
पवद्रो, पउट्ठो< प्रकोष्ठ:-क का लोप और शेष ओ के स्थान पर अ, विकल्पाभाव में उ, संयुक्त ष का लोप और 3 को द्वित्व।।
मणहरं, मणोहरं< मनोहरम्-नकारोत्तर ओ के स्थान पर विकल्प से अ ।
सिरविअणा, सिरोविअणार शिरोवेदना-रकारोत्तर ओ के स्थान में विकल्प से अ।
सररुह, सरोरुहं सरोरुहम्- , , ,
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१०८
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
( ख ) ओ - ऊ -
सुसासो - सोच्छ्वासः - सकारोत्तर ओकार को ऊकार ।
( ग ) ओ = अउ -
गउओ <गोक: —गकारोत्तर ओकार को अउ, क लोप, अ स्वर शेष, विसर्ग
को ओत् ।
गउआगोका - गकारोत्तर ओकार को अउ, क लोप, आ स्वर शेष ।
गउ, गऊ <गो—
(घ) ओ = आऊ -
गाऊ गो-ओकार को आऊ हुआ है।
99
-
39
( १० ) संस्कृत की औ ध्वनि का प्राकृत में अउ, आ, उ, आव और ओ में परिवर्तन होता है ।
( क ) औ = अउ -
करवो कौरवः - ओकार के स्थान पर अउ तथा विसर्ग को ओत्व । कउलो < कौल:—
"
"
""
कउसलं < कौशलम् - ककारोत्तर औकार को अउ, तालव्य श को दन्त्य स । गउडो गौडः - गकारोतर औकार को अउ । गडरवं< गौरवम् —,,
""
पउरो < पौर:- पकारोत्तर औकार के स्थान पर अउ । परिसं पौरुषम्
"
,"
""
उणं मौनम् - मकारोत्तर औकार के स्थान में अउ, न कोण । मउली < मौलि:
99
23
सउहंद सौधम् - सकारोत्तर औकार को अउ तथा ध के स्थान पर ह । सउरा < सौरा:
,, मूर्धन्य ष को स तथा रु को रि ।
"2
"
( ख ) औ = आ
गारवम् <गौरवम् - औकार के स्थान आकार ।
( ग ) औ = उ
दुवारिओ दौवारिकः - दकारोत्तर औकार के स्थान पर उ, क का लोप, अ स्वर शेष तथा विसर्ग को ओत्व ।
पुलोमी ८ पौलोमी - पकारोत्तर औकार को उत्व ।
मुंजाणो मौज्जायन :- मकारोत्तर औकार को उत्व |
सुंडो शौण्डः -शकार के स्थान में दन्ध्य स तथा औकार को उत्व |
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१०९ सुद्धोअणीदशौरोदनि:-तालव्य श को दन्त्य स, औकार को उत्व, द का लोप, अ स्वर शेष, न को ण। सुगंधत्तणं < सौगन्ध्यम्-औकार को उत्व ।
सुन्देरं< सौन्दर्यम्सुपण्णिओ< सौर्णिकः-औकार को उत्व । (घ) औ = आव
नावा< नौ:-औकार के स्थान पर आवादेश । (ङ) औ = ओ
गोरी गौरी-गकारोत्तर औकार को ओत्व ।
कोमुई < कौमुदी-ककारोत्तर औकार को ओत्व, दकार का लोप और ई स्वर शेष।
कोसंबी ८ कौशाम्बी-ककारोचर औकार को ओत्व, तालव्य श को दन्त्य स । कोसिओ< कौशिक:- , ,
, क लोप, अस्वर शेष, विसर्ग को ओत्व।
कोत्थुहोर कौस्तुभः–ककारोत्तर औकार को ओत्व, स्तु के स्थान में त्थु, भ को ह और विसर्ग का ओत्व ।
जोव्वणं< यौवनम्-यकार को ज और औकार को ओव। कोंचोर क्रौञ्चः-ककारोत्तर औ को ओत्व ।
व्यंजन परिवर्तन (११) संस्कृत की क ध्वनि का प्राकृत में ख, ग, च, भ, म, व और ह में .. परिवर्तन होता है। (क) क = ख
खप्परं कर्परम् -क के स्थान पर ख, संयुक्त रेफ का लोप और प को द्वित्व । खीलो< कील:-क के स्थान पर ख, विसर्ग को ओत्व ।
खीलओ-कीलक:-क के स्थान पर ख, अन्त्य क का लोप अ स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व।
खुजो< कुब्जः-क के स्थान पर ख, संयुक्त व का लोप और ज को द्वित्व । (ख) क =ग
अमुगो< अमुक:-क के स्थान पर ग और विसर्ग को ओल्व । असुगो< असुक:आरिसो<आकर्ष:-क के स्थान पर ग, र्ष के स्थान पर रिस, विसर्ग का
ओत्व ।
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११०
अभिनव प्राकृत व्याकरण आगारो< आकर:-क के स्थान पर ग और दीर्घ । उवासगो< उपाशक:-प के स्थान पर व, तालव्य श को दन्त्य, क को ग। एगो< एक:-क के स्थान पर ग, विसर्ग को ओत्व ।
गेंदुअं< कन्दुकम्-क के स्थान पर ग और अकार को एकार अन्तिम क का लोप, अ स्वर शेष।
दुगुल्लं< दुकूलम्-क का ग और ऊकार को हस्त्र उकार । मयगलोर मदकल:-द का लोप, अ स्वर शेष तथा य श्रुति, क के स्थान में ग । मरगयं < मरकतम्-क के स्थान में ग, त लोप और शेष अ स्वर को य ।
सावगो< श्रावकः-संयुक्त रेफ का लोप, तालव्य श को दन्त्य स, क को ग तथा विसर्ग को ओत्व। .
लोगो< लोका-क को ग, विसर्ग को भोत्व । (ग) क = च
चिलाओ< किरात:-क के स्थान पर च और र को ल। (घ) क = भ
सीमरो, सीअरो<शीकर:-तालव्य श को दन्त्य स, क को विकल्प से म, विकल्पाभाव में क का लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग का ओत्व । ( 3 ) क = म
चंदिमा< चन्द्रिका—संयुक्त रेफ का लोप और क को म। (च) क = व
पवट्ठोद प्रकोष्टः-संयुक्त रेफ का लोप, क के स्थान पर व, संयुक्त पका लोप, ठ को द्वित्व और पूर्ववर्ती ठ को ट । (छ) क = ह
चिहुरोदचिकुर:-क को ह, विसर्ग को ओत्व । निहसो< निकष:-क को ह, मूर्धन्य ष को दन्त्य स, विसर्ग को ओत्व।
फलिहो< स्फटिकः-संयुक्त स का लोप, ट का लोप, क के स्थान पर ह, विसर्ग को ओत्व।
सीहरोदशीकर:-तालव्य श को दन्त्य स, क को ह और विसर्ग को ओत्व । (१२) संस्कृत की ख ध्वनि प्राकृत में क में बदल जाती है। ख = क
संकलंदशृंखलम्-संयुक्त रेफ का लोप, तालव्य श को दन्त्य स और ख के स्थान पर क।
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
१११
संकला शृंखला - संयुक्त रेफ का लोप, तालव्य श को दन्त्य स और ख के
स्थान पर क ।
( १३ ) संस्कृत की ग ध्वनि का प्राकृत में म ल और व में परिवर्तन होता है ।
( क ) ग = म
-ग
पुंनामाई 4 पुंनागानि के स्थान पर म तथा न लोप और इ स्वर, अनुस्वार । भामिणी भगिनी - ग के स्थान पर म और न को णत्व ।
( ख ) ग = ल–
छालो छाग:-ग के स्थान पर ल और विसर्ग को ओस्व । छाली < छागी-ग के स्थान पर ल ।
(ग) ग = व
•
दूहवो दुर्भग: - उपसर्ग के दुर को दीर्घ, भ को द और ग के स्थान में व तथा विसर्ग को ओव ।
सुहवो सुभग: - उपसर्ग के
K
सु
को दीर्घ, भ को द्द और ग के स्थान पर व तथा
विसर्ग को ओव ।
( १४ ) प्राकृत में संस्कृत का च वर्ण ज, ट, ल और स में परिवर्तित होता है ।
(क) च - ग -
पिसागी <पिशाची - तालव्य श को दन्त्य स और च को ग ।
(ख) च = ट -
आउंटणं <आकुञ्चनम् —क का लोप, उ स्वर शेष तथा च के स्थान पर टत्व, न को णत्व |
( ग ) च = ल -
पिसल्लो पिशाच:- तालव्य श को दन्त्य स और च के स्थान में ल, विसर्ग को ओत्व |
(घ) च = स
खसिओ खचित:च के स्थान पर स, अन्तिम त का लोप, अ स्वर शेष, विसर्ग का ओ |
1
( ११ ) संस्कृत का ज वर्ण प्राकृत में झ में परिवर्तित होता है ।
झडिलो, जडिलो < जटिल::- ज के स्थान पर विकल्प से झ आदेश, ट के में ड तथा विसर्ग का ओत्व ।
स्थान
( १६ ) संस्कृत का
वर्ण
और ल के रूप में परिवर्तित होता है।
ढ में प्राकृत ड,
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________________
११२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
(क) ट= ड
घडोर घटा-2 के स्थान में ड, विसर्व का ओत्व । नडोर नटः
भडोर भट:- , (ख) ट = ढ
केढवो कैटभः-ऐकार को एकार, ट को ढ और भ को व, विसर्ग को ओत्व ।
सयढो< शकट:-तालव्य श को स, ककार का लोप, अ स्वर शेष और य श्रुति तथा ट को ढ।
सढा< सटा-ट को ढ। (ग) ट%ल
फलिहोर स्फटिकः-संयुक्त स का लोप, ट के स्थान पर ल और क को ह। चविला< चपेटा-प को व, एकार को इत्व और ट कोल।
फालेइ८ पाटयति-पा के स्थान पर फा, ट को ल, अकार को एकार तथा विभक्ति चिह्न इ।
( १७ ) संस्कृत की ठ ध्वनि का प्राकृत में ल, ट और ढ में परिवर्तन हो जाता है। ( क ) ठ = ल
अंकोल्लो अङ्कोठ:- के स्थान पर ल हुआ है।
अंकोल्लतेलं अङ्कोठतैलम्-ठ के स्थान पर ल, तकारोत्तर ऐकार को एकार । ( ख ) ठ -ह
पिहडोव पिठर:–ठ का ह और र का ड हुआ है। (ग ) ठ = ढ
पढ , पठठ का ढ हुआ है। पिढरो < पिठरः-3 को ढ तथा विसर्ग का ओत्व । ( १८ ) संस्कृत का ड वर्ण प्राकत में ल हो जाता है। वलयामुहं < वडवामुखम् --ड के स्थान पर छ । तलायं< तडागम्कीला< क्रीडा( १६ ) संस्कृत का ण वर्ण प्राकृत में विकल्प से ल में बदल जाता है । वेलू , वेणू < वेणु:
(२०) संस्कृत के त वर्ण का प्राकृत में च, छ, ट, ड, ण, र, ल, व और ह में परिवर्तन होता है।
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
( क ) त = च -
चुच्छंद तुच्छम् - त के स्थान पर च आदेश हुआ है I
(ख) त = छ
छुच्छंद तुच्छम् — त के स्थान पर छ आदेश हुआ है । ( ग ) त = ट
टगरो तगर :-त के स्थान पर ट और विसर्ग को ओत्व ।
ܕܕ
टूबरोबर :
,"
टमरोत्रसरः – संयुक्त रेफ का लोप, शेष त के स्थान पर ट, विसर्ग को ओत्व ।
-
११३
(घ) त = ड -
पडाया < पताकात के स्थान पर ड, क का लोप, अ स्वर शेष और य श्रुति । पडिकरइ < प्रतिकरोति- -त के स्थान पर ड और करोति का करइ ।
पडिनिअत्तं प्रतिनिवृत्तम्-त के स्थान पर ड, व का लोप, ऋ के स्थान पर अ । पडिवयाप्रतिपत्- त के स्थान पर ड, प को व और तू के स्थान पर आ तथा यति होने से या ।
पडिहासो प्रतिभास: -त को ड, भ को ह और विसर्ग को ओश्व । पडिमा प्रतिमा-त को ड ।
पंडसुआ प्रतिश्रुत्त के स्थान पर ड ।
पडसारो प्रतिसार:परिहासो प्रतिहास:
""
पहुडि प्रभृति - भ के स्थान पर छ, संयुक्त ऋ को उ, त कोड । पाहुडं प्राभृतम् भ के स्थान पर ह, संयुक्त ऋ को उ, स को ठ । मडयं मृतकम् - मृ की ऋ के स्थान पर अ, त को ड, क लोप, अ स्वर शेष और श्रुति ।
अवहडं, अवह्यं 4 अवहृतम् - हृ में रहनेवाली ऋ को अ, त को विकल्प से ड, विकल्पाभाव में तका लोप और यति ।
ओहडं, ओह अवहृतम् अत्र के स्थान पर ओ, त का ड, त्रिकल्प भाव में त लोप और य श्रुति ।
--- ""
ور
कडं, कथं कृतम् - ककारोत्तर ऋ को अ, विकल्प से त को ड विकल्पाभाव में त लोप, अ स्वर शेष और यश्रुति ।
दुक्कडं, दुक्कदुष्कृतम्- - संयुक्त पू. का लोप, क को द्वित्व, ऋ को अ औरत के स्थान पर विकल्प से ख ।
5
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________________
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
---
मई, मयं मृतम् - ऋ को अ, त को ड, विकल्पाभावे में तकार का लोप तथा अ स्वर को श्रुति । वेडिसो, वेअसो
वेतसः -त को ड और इत्व, विकल्पाभाव पक्ष में का
लोप और अ स्वर शेष ।
११४
सुकडं, सुकयं सुकृतम् — ककारोत्तर ऋकार को अ, त कोड, विकल्पाभाव में त का लोप, अ स्वर शेष तथा यश्रुति ।
(ङ) त = ण -
अणिउँतयं अतिमुक्तकम् —त के स्थान पर ण, मकार का लोप, शेष उ को अनुनासिक, संयुक्त क का लोप, अन्तिम क का लोप, अ स्वर शेष और यश्रुति । गब्भिणो गर्भितः - संयुक्त रेफ का लोप, भ को द्वित्व, पूर्ववर्ती महाप्राण के स्थान पर अल्पप्राण त कोण विसर्ग को ओत्व ।
(च) त = र
सत्तसप्ततिः - संयुक्त प का लोप, त को द्वित्व और ति के स्थान पर रि
तथा दीर्घ ।
( छ ) त = ल
अलसी अतसी - त के स्थान पर ल ।
सालवाहणो सातवाहनः —त के स्थान पर ल, न को स्व, विसर्ग को ओस्त्र | पलिलं, पलिअं पलितम् —त के स्थान पर विकल्प से ल, विकल्पाभाव पक्ष मेंत का लोप, अ स्वर शेष ।
( ज ) त = व—
आवज्जं, आज्जं आतोद्यम्-त के स्थान पर विकल्प से व और द्य को ज्जा । पीवलं, पीअलं < पीतलम् —त के स्थान पर विकल्प से व, विकल्पाभाव पक्ष मेंत का लोप और अ स्वर शेष ।
( झ ) त = ह -
विहत्थी < वितस्तिः—त के स्थान पर ह और स्ति के स्थान पर थी । काहलो, कायरो कातर: - त के स्थान पर विकल्प से ह माहुलिंगं, माउलिंगं मातुलिङ्गम्-त को विकल्प से ह, त का लोप और उ स्वर शेष ।
का
और रेफ को ल ।
विकल्पाभाव पक्ष में
वसही, वसई वसतिः -त को विकल्प से ह, विकल्पाभाव पक्ष में तकार
लोप और इ स्वर शेष तथा दीर्घ ।
(२१) संस्कृत का थ वर्ण प्राकृत में ढ, ध और ह में परिवर्तित हो जाता है । ( क ) थ = ढ–
पढमो प्रथमः-थ को ढ और अनुस्वार को ओत्व ।
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(
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
ढ,
मेढी: मेथि::-थ को ढ और इकार को दीर्घ । सिढिलो शिथिरः — तालव्य श को दन्त्य स, थ को निसीढो निशीथः:- तालव्य श को दन्त्य स तथा थ को ढ । पुढवी पृथिवी -- पकारोत्तर ऋकार को उकार और थ को ढ ।
ख) थ = ध
रेफ को ल ।
पिधं पृथक् – पकारोत्तर ऋ को इत्व तथा थ के स्थान पर ध, अनुस्वार और अन्त्य हलन्त व्यंजन क का लोप ।
( ग ) थ = ह—
निसीहो < निशीथः - तालव्य श को दन्त्य स और थ को छ । कहइ कथयतिथ के स्थान पर ह, विभक्ति चिह्न इ । नाहो नाथ को ह ।
मिहुणं मिथुनम्-थ के स्थान पर ह और न को णत्व | आवसहो < आवसथः -थ के स्थान पर ह ।
वर्ण
( २२ ) संस्कृत का द प्राकृत मेंड, ध, र, ल, व और ह में परिवर्तित हो जाता है ।
( क ) द = ड–
डंस दंश - द के स्थान पर ड और तालव्य श को दन्त्य स ।
११५
दह दह - द के स्थान पर ड ।
कडणं, कयणं कदनम् - द के स्थान पर विकल्प से ड, विकल्पाभाव में द का लोप, अ स्वर शेष और य श्रुति ।
डड्ढो दग्धः - द के स्थान में ड और ग्ध के स्थान पर ड्ड ।
डंडो दण्ड - द के स्थान पर ड और विसर्ग को ओत्व ।
---
डंभो दम्भ:
""
""
""
डब्भो <दर्भ: - द के स्थान पर ड, संयुक्त रेफ का लोप, भ को द्वित्व और महाप्राण को अल्पप्राण ।
डरोदरः - द को ड और विसर्ग को ओ ।
डसणं < दशनं- द को ड, तालव्य श को दन्त्य स तथा न को णत्व ।
हो दाहः - द को और विसर्ग को ओस्व ।
ड
डोला दोला - विकल्प से द कोड ।
डोहलो, दोहलो दोहदः - द के स्थान में विकल्प से ड और अन्तिम द
को छ ।
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११६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
(ख) द =ध
धीप<दीप-द को ध। धिप्पइ<दीप्यते-द के स्थान में ध, दीर्घ ई को ह्रस्व और विभक्ति चिह्न इ । (ग ) द =र-संख्यावाचक शब्दों में अनादि और असंयुक्त संस्कृत का द वर्ण प्राकृत में र हो जाता है।
एआरह < एकादश-क का लोप और आ स्वर शेष, द के स्थान पर र और श को है।
बारह < द्वादश-संयुक्त द का लोप, द के स्थान पर र, श को ह । तेरह मोदश-नय के स्थान पर ते, द को र, श को ह। करली < कदली-द को र। (घ)द = ल
पलीवेइ < प्रदीपयति--संयुक्त रेफ का लोप, द को ल, प को व, अकार को ए और विभक्ति चिह्न इ।
पलित्तं< प्रदीप्तम् - संयुक्त रेफ का लोप, द को ल, संयुक्त प का लोप और त को द्वित्व ।
दोहलो< दोहदः-अन्तिम द को ल।
कलंबो, कयंबोर कदम्ब:-विकल्प से द को ल और विकल्पाभाव पक्ष में द का लोप, अ स्वर शेष और य श्रुति । (ङ) द = व
कवट्टिओ< कदर्थितः-६ के स्थान पर व, रेफ का लोप और थ को ट तथा द्वित्व, तकार का लोप, अ स्वर शेष, विसर्ग का ओत्व । (च) द = E
कउहं ककुदम्-मध्यवर्ती क का लोप, उ शेष तथा द के स्थान पर है। ( २३ ) प्राकृत में संस्कृत का ध वर्ण ढ और ह में परिवर्तित होता है। (क) ध = ढनिसढो< निषध:-मूर्धन्य ष को दन्त्य स और ध को ढ ।
ओसढं< औषधम्-औकार को ओकार, मूर्धन्य प को दन्त्य स तथा ध को ढ। (ख) ध%ह
इंदहणू - इन्द्रधनु:- संयुक्त रेफ का लोप, ध को ह, न को णत्व और उकार को दीर्घ ।
बहिरो बधिर:-ध को ह और विसर्ग को ओत्व ।
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११७
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
११५ बाहइ< बाधते-ध के स्थान में ह और विभक्ति चिह्न है। वाहो< व्याधः-संयुक्त य का लोप और ध को ह। साहू साधुः–ध को ह और ह्रस्व उकार को दीर्घ । ( २४ ) प्राकृत में संस्कृत के न वर्ण का ण, "ह और ल में परिवर्तन होता है। ( क ) न = ण-स्वर परवर्ती, एकपदस्थित और असंयुक्त न को ण होता है। कणयं< कनकम-न को णत्व, क लोप और अ स्वर को य श्रुति । नयणं नयनम्-न को णत्व ।
मयणोद मदन:-मध्यवर्ती द का लोप, और शेष अ स्वर के स्थान पर य श्रुति न को णत्व ।
वयणं ववनम्-मध्यवर्ती च का लोप, अ स्वर के स्थान पर य, न को गत्व । वयणं< वदनम् -मध्यवर्ती द का लोप, अ के स्थान पर य तथा न को णत्व। . मई < नदी-न को णत्व, दकार का लोप और ईस्वर शेष। जरो< नर:-न को णत्व, विसर्ग को ओत्व ।
णेइ< नयति-न को णत्व और विभक्ति चिह्न इ । (ख ) न = बह
हाविओ< नापित:-न के स्थान पर विकल्प से ण्ह, प को व, तकार का लोप अ स्वर शेष तथा विसर्ग को ओत्व, विकल्पाभाव में-नाविओ रूप । (ग) नललिंबो< निम्बः-न को ल, विसर्ग को ओत्व ।
( २५ ) संस्कृत के प वर्ण का प्राकृत में फ, म, व और र में परिवर्तन होता है । (क) प= फ
फणसो< पनस:-4 के स्थान पर फ, न को णत्व और विसर्ग को ओत्व ।
फलिहो< परिध:-4 के स्थान पर फ, र को ल, ध को ह और विसर्ग को ओस्व ।
फलिहा< परिखा-प के स्थान पर फ, र को ल और ख के स्थान में ह। फरुसो परुष:--' को फ और मूर्धन्य ष को दन्त्य स । फाडि पाटि-4 को फ और ट को ड ।
फालिहदो पारिभद्रः-4 को फ, र को ल, भ को ह और संयुक्त रेफ का लोप, ६ को द्वित्व तथा विसर्ग को ओत्व।
(ख) पम___आमेलो< आपीड:-4 के स्थान पर म, ईकार को एकार, ड को ल, विसर्ग को ओस्व
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११८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण नीमो< नीप:-५ को म, विसर्ग को ओत्व । (ग) पव
वहुत्तं< प्रभूतम् - संयुक्त रेफ का लोप और प को व, भ को ह तथा त को द्वित्व । (घ) पर
पारद्धी-पापद्धि:-यहां प के स्थान पर र, संयुक्त रेफ का लोप और दीर्घ ।
( २६ ) संस्कृत के ब वर्ण का प्राकृत में, भ, म और य में परिवर्तन होता है। (क) ब = भ
भिसिणी< बिसिनी-ब के स्थान पर भ हुआ है। (ख) बम
कमंधो< कबन्धः-मध्यवर्ती ब को मकार । (ग) ब = य
कयन्धो< कबन्ध:--ब के स्थान पर य और विसर्ग को ओत्व । (२७) संस्कृत के भ वर्ण का प्राकृत में व और ह में परिवर्तन होता है। ( क ) भ = व
केढवो कैटभ:-ऐकार को एत्व, ट को ढ और भ को व । ( ख ) भ =ह
नहं< नभस्-भ के स्थान पर ह । पहा< प्रभा-संयुक्त रेफ का लोप और भ को ह। सहा< सभा-भ को ह। सहावो स्वभावः-संयुक्त व का लोप, भ के स्थान पर ह और विसर्ग को
ओत्व ।
सोहइ शोभते-तालव्य श को दन्त्य स, भ को ह और विभक्ति चिह्न इ ।
( २८ संस्कृत का म वर्ण प्राकृत में ढ, व और स में परिवर्तित होता है । (क) म% ढ
विसढो< विषमः-मूर्धन्य ष को दन्त्य स और म को ढ। (ख ) म=व--
वम्महो< मन्मथ:-म के स्थान पर व तथा संयुक्त न का लोप और म को द्वित्व, थ को ह।
अहिवन्नू ८ अभिमन्युः-भ को ह और म को व, संयुक्त य का लोप, न को द्वित्व और ह्रस्व को दीर्घ । (ग) मस
भसलो भ्रमरः-संयुक्त रेफ का लोप, म को स और रेफ को ल।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
' ११९ (घ) म = अनुनासिक-निम्न शब्दों में मु के मकार का लोप हो जाता है और शेष स्वर उ के स्थान में अनुनासिक ऊँ हो जाता है।
अणिऊँतयं अतिमुक्तम्-मकार का लोप और शेष स्वर उ को अनुनासिक ॐ। काउँओ< कामुकः-मकार का लोप और शेष स्वर उ को अनुनासिक ॐ । चाउँडा< चामुण्डा- , जउँणा < यमुना- ,
(२९) संस्कृत के य वर्ण का प्राकृत में आह, ज, ज, त, ल, व और ह में परिवर्तन होता है।
( क ) य = आह___कइवाह - कतिपयम्-तकार का लोप, इ स्वर शेष, प के स्थान में व और य को आह । (ख) य = ज
उत्तरिजं< उत्तरीयम्-री को ह्रस्व और य को ज ।
तइज्जोर तृतीय:-तकारोत्तर ऋकार को अ, त का लोप और शेष स्वर ई को हस्त्र और य को ज।
विइज्जो< द्वितीयः-- संयुक्त द का लोप, मध्यवर्ती त का लोप, शेष स्वर ई को हस्व, य को ज ।
(ग) य = ज-संस्कृत शब्दों में आदि में आनेवाला य प्राकृत में ज में बदल जाता है।
जमो< यमः—य के स्थान पर ज, विसर्ग को ओत्व ।। जसो< यश:- , तालव्य श को दन्त्य स और विसर्ग को ओत्व ।
जाइ< याति–य को ज, त का लोप और इ स्वर शेष । (घ) य% त
तुम्हकेरो< युष्मदीयः-युष्मद् के स्थान पर तुम्ह और ईय को केर । तुम्हारिसोयुष्माश:-युष्मद् के स्थान पर तुम्ह और दृश के स्थान पर रिस।
तुम्ह - युष्मद्-युष्मद् के स्थान पर तुम्ह। (ङ) य = ल
लट्ठी< यष्टिः-य के स्थान पर ल, संयुक्त पू का लोप, ट का द्वित्व और द्वितीय. अल्पप्राण को महाप्राण, इकार को दीर्घ । (च) यव
कइअवंद कतिपयम्-त का लोप और इ स्वर शेष, प का लोप और अ स्वर शेष तथा ५ का व।
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१२०
अभिनव प्राकृत व्याकरण
(छ) य = ह -
छाही छायाय के स्थान पर ह और आकार को ईव ।
सच्छाहं 4 सच्छायम्- य को ह ।
( ३० ) संस्कृत का र वर्ण प्राकृत में ड ण और र में बदल जाता है । ( क ) र = ड -
किडी < किरि:- र के स्थान पर ड, इकार को दीर्घं । :-ढ के स्थान पर ह और र को ड ।
पिहडो पिढर:
<
भेडो मेर:-र के स्थान पर ड ।
(ख) र = ण
कणवीरो करवीर:- र के स्थान पर ण ।
K
(ग) र = ल -
--
अवद्दालं4 अपद्वारम् — संयुक्त व का लोप और द को द्वित्व, र को ल । इंगालो अङ्गार : - अकार को इकार और र को ल ।
कलुणो करुणः -र को ल ।
काहलोकातरः - त को ह और र को ल ।
दलिदो दरिद्रः - र को ल, संयुक्त रेफ का लोप और द को द्वित्व |
""
दलिद्दा दरिद्राति दालिदं दारिद्र्यम् - और य का लोप फलिहा परिखा- -पका फ, र कोल और ख को छ ।
,,
99
"
""
फलिहोपरिघः प को फ, र को ल और घ को ह ।
फालिहो पारिभद्रः - प को फ, र कोल, भ को ह तथा संयुक्त रेफ का लोप और दो ।
भसलो भ्रमरः – संयुक्त रेफ का लोप, म को स और र को ल ।
मुहलो खरः - ख को ह और र को ल ।
जहुट्ठलो युधिष्ठिर::-य को ज, घ को ह, संयुक्त प का लोप ठ को द्वित्व और पूर्ववर्ती महाप्राण को अल्पप्राण, र को ल ।
लुक्को < रुग्णः - कोल और ग्ण को क्क ।
वलुणो वरुणः -र को ल ।
सिढिलो शिथिर: – तालव्य श को दन्त्य स, थ को ढ और र को ल ।
-
सक्कालो << सत्कारः – संयुक्त त का लोप, क को द्वित्व और र को ल ।
सोमालो सुकुमारः - क का लोप, शेष स्वर उ का लोप तथा पूर्व स्वर उ को
ओ, कोल
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१२१ थूलो-स्थूरः-संयुक्त स का लोप और र कोल।
थूलभद्दो, स्थूरभद्रः-संयुक्त स का लोप, र को ल, संयुक्त र का लोप तथा द को द्वित्व।
हलिदो ८ हरिद्रः-र को ल, संयुक्त रेफ का लोप और द को द्वित्व । हलिदा< हरिद्रा-, जढलं, जढरं< जठरम्-ठ को ढ और र को विकल्प से ल।
निठुलो, निट ठुरो< निष्ठुरः-संयुक्त ष का लोप, ट को द्वित्व द्वितीय अल्पप्राण को महाप्राण और र को ल।
(३१) संस्कृत का ल वर्ण प्राकृत में ण और र में परिवर्तित होता है। (क) णडालं, णिडालं < ललाटम्-ल के स्थान पर ण, ट को ड, वर्ण व्यत्यय होने से णडालम् , अकार को इत्व होने से णिडालं ।।
णंगलं, लंगलं < लाङ्गलम् -ल को ग तथा हस्व। .
णाहलो, लाहलो< लाहल:-ल को ण । (ख) ल = र
थोरं स्थूलम् – संयुक्त स का लोप, ऊकार को ओत्व, र को ल।
( ३२ ) संस्कृत के व वर्ण का प्राकृत में भ और म में परिवर्तन होता है । ( क ) व = भ
भिन्भलो, विब्भलो, विहलो विह्वल:-व के स्थान पर भ। (ख ) व = म
समरोरशवर:-तालव्य श के स्थान पर दन्त्य स, व को म ।
वेसमणोद वैश्रवण:-ऐकार को एकार, संयुक्त रेफ का लोप, तालव्य श को दन्त्य स, व को म और विसर्ग को ओस्व ।
नीमीनीवी-व के स्थान पर म ।
सिमिणो स्वप्न:- संयुक्त वर्णों का पृथक्करण, इकारागम और व को म तथा न को गत्व।
( ३३ ) संस्कृत के श वर्ण का छ, स और ह में परिवर्तन होता है । (क) शछ
छमी शमी
छिरादशिरा
छावोदशाव: (ख)श स
कुसोर कुशः--श को स! दस-दश
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१२२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण निसंसो< नृशंस:--संयुक्त ऋकार को इत्व और श को स। . . . विसइ<विंशति—अनुस्वार को लोप, श को स और त का लोप, इ शेष । बंसोवंश:--श के स्थान पर स। सद्दो<शब्द:-श को स, संयुक्त ब का लोव और द को द्वित्व । सामा< श्यामा संयुक्त या का लोप, श को स। सुद्धं< शुन्द्वम्-श को स।
सोहइ< शोभते-श को स, भ को ह और विभक्ति चिह्न इ । (ग) शहएआरह - एकादश-क लोप, अ स्वर शेष, द को र और श को ह । दह ८ दश–श को ह। दहबलो<दशबल:-, दहमुहो< दशमुख:-, और ख को ह। दहरहो < दशरथ:-श को ह और थ के स्थान में भी ह। बारह - द्वादश-संयुक्त द का लोप, द को र, श को ह । तेरह - त्रयोदश-त्रय के स्थान में ते, द को र, श को ह।
( ३४ ) संस्कृत के ष वर्ण का प्राकृत में छ, 'ह, स और ह में परिवर्तन होता है। (क ) ष% छ
छप्पहो<षटपदः-षट के स्थान पर छ और द को ह। छमुहो< षण्मुहः
छट्टो< षष्ठः- के स्थान पर छ, संयुक्त ष का लोप और 3 को द्वित्व तथा प्रथम महाप्राण का अल्पप्राण ।
छट्ठीषष्ठी( ख ) ष = बह
सण्हा< स्नुषा-संयुक्त न का लोप और ष के स्थान में पह। . (ग) ष% स
कसायो< कषाय:- के स्थान में स । निहसो< निकष:-क को ह और ष को स । संडोरपण्डः–प को स। ( ३६ ) संस्कृत के स वर्ण का प्राकृत में छ और ह में परिवर्तन होता है। (क) स= छ
छत्तपण्णो ८ सप्तपर्ण:-स को छ, संयुक्त प का लोप, त को द्विस्व, प को व, संयुक्त रेफ का लोप और ण को द्वित्व ।
"
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण छुहार सुधा–स के स्थान में छ आदेश और ध को ह। ( ख ) सह--
दिवहो< दिवस:-स के स्थान पर ह और विसर्ग को ओत्व । (३६ ) संस्कृत का ह वर्ण प्राकत में घ और र में बदलता है। सिंघ< सिंह:-~ह के स्थान पर घ। उत्थारो< उत्साहः-त्स को स्थ और ह के स्थान पर र।
( ३७ ) संस्कृत की कई ध्वनियों का प्राकृत में लोप हो जाता है। (क ) स्वर लोपरणं< अरण्यम्-अ का लोप।
लाऊ < अलाबू- , (ख) व्यञ्जन लोप
पारो< प्राकार:-के का लोप । वारणं< व्याकरणम्-,, आओ< प्रागत:-ग का लोप । दणू< दनुज:-ज का लोप । दणुवहो< दनुजबध:-, भाणं-भाजनम्- , राउलं< राजकुलम् - ,, उंवरोद उदुम्बरः-द का लोप । दुग्गावी< दुगादेवी- , पावडणं< पादपतनम्- , पावीढं< पादपीठम् - , किसलं किसलयम् –य का लोप कालासं<कालायसम् - , हिअं< हृदयंसहिओ सहृदयः- , अडो< अवडो-व लोप। अत्तमाणो< आवर्तमान:-,, एमेव< एवमेव-व कोप जीअंदजीवितम्-, देउलंद देवकुलम्-" पारओ प्रावारक:जा<यावत--- ,
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१२४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
संयुक्त व्यञ्जन परिवर्तन (३८ ) संस्कृत की क्ष ध्वनि का प्राकृत में ख, छ और कम होता है; परन्तु पद के मध्य या अन्त में क्ष के आने पर क्ख, च्छ और ज्झ हो जाता है। (क) क्ष = खखओ<क्षय:-क्ष के स्थान पर ख और य लोप, अ स्वर शेष, विसर्ग का ओत्व। खीणं < क्षीणम्-क्ष के स्थान पर ख । खीरं< क्षीरम्- , "
खेडओ<क्ष्वेटक:-क्ष को ख, ट को ड और क लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग को उत्व।
खोडओ< वोटक:इक्खू< इक्षुः-पद के मध्य में क्ष के होने से क्ख और उकार को दीर्घ । रिक्खो<ऋक्ष:- को रि
, विसर्ग को ओस्व । रिक्खं< ऋक्षम्
मक्खिआ< मक्षिका-पद मध्य में रहने से क्ष को क्ख, ककार का लोप और आ स्वर शेष।
लक्खणं< लक्षणम्-पद के मध्य में रहने से क्ष को क्ख । पक्खीणं प्रक्षीणम्-संयुक्त रेफ का लोप, पद के मध्य में रहने से क्ष को क्ख । पक्खेवो प्रक्षेप:
सारिक्खंद साहक्ष्यम्-ह के स्थान पर रि और पद के मध्य में रहने से क्ष्य का क्ख।
जक्खोर यक्षः-य को ज और क्ष का क्ख । (ख) क्ष छ
छणोरक्षण:-क्ष के स्थान पर छ । छयं दक्षतम्-क्ष के स्थान पर छ, तकार का लोप, अस्वर शेष और यश्रुति । छमा<क्षमा-क्ष के स्थान छ । छारो<क्षारः- , , . छीणंरक्षीणम्-, " छीरं< क्षीरम्- , , छण्णो <क्षुण्ण:-, , छौयं - क्षुतम्- , और त लोप, अ स्वर शेष तथा य श्रुति । छुहा<क्षुधा-क्ष को छ तथा ध को ह। छुरो<क्षुर:-क्षको छ।
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१२५
अभिनब प्राकृत-व्याकरण छेत्तं क्षेत्रम्-क्षको छ। अच्छि < अक्षि-पद के मध्य में क्ष के रहने से क्ष के स्थान पर च्छ । उच्छू र ईक्षुः-इ के स्थान पर उत्व, पद के मध्य में क्ष के होने से उछ । उच्छा < उक्षा-पद के मध्य में होने से क्ष के स्थान में उछ । रिच्छो<ऋक्ष:- के स्थान पर रि और पद के मध्य में होने से क्ष को च्छ । कच्छो ८ कक्षः-पद के मध्य में होने से क्ष के स्थान में छछ । कच्छा कक्षा- , " " कुच्छी <कुक्षि:- "
" " कुच्छेअयं कौक्षेयकम्-औकार को उत्व, पके मध्य में ध के होने से च्छ, य और क का लोप, अ स्वर शेष अन्तिम में य श्रुति ।
दच्छो< दक्षः-पद के मध्य में होने से क्ष को उछ । पच्छीणं< प्रक्षीणम्- , " मच्छिआ< मक्षिका- " " लच्छी< लक्ष्मी:वच्छं < वक्षस्वच्छो-वृक्षःसरिच्छो< सदृक्ष:- ..
सारिच्छंद सादृश्यम्(ग)क्ष = झ
मीण क्षीणं-क्ष के स्थान पर झ ।
झिज्जइ<क्षीयते-क्ष के स्थान पर झ, ईकार को हस्व, य को ज और द्वित्व, विभक्ति चिह्न इ।
पज्झीणं प्रक्षीणम्-पद मध्य में होने से क्ष के स्थान पर ज्झ । ( ३९ ) संस्कृत के संयुक्त वर्ण एक और स्क के स्थान में ख होता है, पर पद के मध्य में आने से क्ख हो जाता है। (क) क = खनिक्खं<निष्कम्-पद के मध्य में ष्क रहने से क्ख । पोक्खरं पुष्करम् - पोक्खरिणी< पुष्करिणी-, " (ख) स्क = क्खअवक्खन्दो< अवस्कन्दः-पद के मध्य में स्क रहने से क्ख । खंदो< स्कन्दः-पद के आदि में स्क रहने से ख आदेश । खंधो-८ स्कन्ध:खंधावारोस्कन्धावार:-...
"
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
(४०) संस्कृत के संयुक्त वर्ण त्य का प्राकृत में च होता है, पर पद के मध्य में
आने से च
१२६
(क) त्य = च ।
चाओ त्याग:- पदादि में रहने से त्य के स्थान में च ।
त्यागी
चाई चयइदस्यजति—
91
""
पच्चओ प्रत्यय: - पद के मध्य में रहने से त्य के स्थान में च्च ।
पच्चूसो प्रत्यूष:
सच्चंद सत्यम् -
(क) त्व = च्चकिच्चा कृत्वा -
"
चच्चरं चत्वरम्—
""
99
""
""
""
( ४१ ) प्रयोगानुसार स्व को च, थ्व को छ, द्व को ज और ध्व को झ आदेश होता है, किन्तु पद के मध्य में इनके आने से उक्त वर्ण च, च्छ, जऔर ज्म हो जाते हैं ।
"
"
"9
1- -पद के मध्य में होने से त्व के स्थान पर च ।
""
णच्चा< ज्ञात्वा - ज्ञ के स्थान में ण तथा पद के मध्य में होने से त्वा के स्थान
पर च्चा ।
दच्चा दत्वा - पद के मध्य में होने से त्व के स्थान में च ।
भोच्चा<भुक्त्वा
""
""
सोच्चा< श्रुत्वा - संयुक्त रेफ का लोप, तालव्य श को दस्य स तथा उकार को ओत्व, पद मध्य में स्व के होने से ।
(ख) ध्व = छ—
पिच्छी < पृथ्वी-प में संयुक्त ऋ के स्थान पर इत्व और पद के मध्य में थ्व के होने पर च्छ ।
( ग ) द्व = ज
K
विज्जं विद्वान् - पद के मध्य में होने से द्व के स्थान पर ज्ज और आ को हस्त्र अन्त्य हलन्त्य व्यंजन नू का अनुस्वार |
(घ) ध्व = झ
ओ ध्वजः - पदादि में होने से ध्व का झ, ज का लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग का ओत्व |
बुज्झा बुध्वा - पद के मध्य में होने से ध्व के स्थान पर ज्झ ।
सज्झसं साध्वसम् - सा को हस्व, पद के मध्य में होने से ध्व को ज्झ ।
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१२७
अभिनव प्राकृत-व्याकरण ( ४२ ) हस्व स्वर से परे संस्कृत के संयुक्त वर्ण थ्य, श्व, त्स और प्स को प्राकृत में च्छ होता है। (क) थ्य = च्छ
पच्छंदपथ्यम्-थ्य के स्थान पर च्छ । पच्छादपथ्या- " " मिच्छादमिथ्या- , ,
सामच्छं< सामर्थ्यम्-,, ,, (ख) श्च = च्छ
अच्छेरं आश्चर्यम्-आ को ह्रस्व, श्च को च्छ, को इरं । पच्छा < पश्चात्-श्व के स्थान पर च्छा और अन्त्य का लोप । पच्छिमं< पश्चिमम् - श्च के स्थान पर छ।
विछिओ< वृश्चिक:-व में संयुक्त ऋ को इ, श्च को छ तथा क लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व। (ग ) त्स = च्छ
संवच्छरो< संवत्सरः-स के स्थान पर च्छ । उच्छवो< उत्सव:- " , उच्छाहो< उत्साहः- " " उच्छुओ< उत्सुकः- "
मच्छरो< मत्सरः- " " (घ ) प्स = च्छ
अच्छरा< अप्सरा-प्स के स्थान पर च्छ । जुगुच्छइ जुगुप्सति- ,, लिच्छइ<लिप्सति- ,
( ४३ ) पद के आदि में रहने वाले संस्कृत के संयुक्त वर्ण द्य, ण्य और र्य को प्राकत में ज होता है, पर पद के मध्य में इन वर्गों के आने पर ज हो जाता है। (क) द्य- ज
जुई । द्युतिः-पदादि में द्य के रहने से ज, तकार का लोप और हस्व इकार को दीर्घ ईकार ।
जोओ द्योत:-पदादि में रहने से द्य के स्थान में ज, त का लोप, अ स्वर शेष, विसर्ग का ओत्व ।
.
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१२८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
अवजं ८ अवद्यम्-पद के मध्य में रहने से छ का ज्ज । मज्ज< मद्यम्- " __ -"- "
वेजो< वैद्य:- " " " (ख) य्य = जजजो< जय्य:-य्य के पद मध्य में होने से ज। सेज्जा < शय्या-
तालव्य श को दन्त्य स और अकार को एत्व। (ग) य = ज
कजं < कार्यम्-पद के मध्य में 2 के रहने से ज ।
पज्जत्तं-पर्याप्तम्- , , , तथा संयुक्त ५ का लोप और त को द्वित्व।
पन्जाओ< पर्याय:-पद के मध्य में रहने से र्य को ज । भज्जाभार्या–भा को हस्व और पद के मध्य में होने से र्य को ज ।
मजाया< मर्यादा-पद के मध्य में होने से र्य को ज तथा द का लोप, आ स्वर शेष और य श्रुति ।
वजं < वर्यम् –पद के मध्य होने से र्य को ज ।
( ४४ ) पद के आदि में रहनेवाले संस्कृत के संयुक्त वर्ण ध्य और ह्य को प्राकत में झ होता है, किन्तु पद के मध्य में इन वर्गों के आने पर ज्झ होता है। ( क ) ध्य = झ
झाणं < ध्यानम्-पदादि में ध्य के रहने से उसके स्थान में झ तथा न को णत्व।
मायइ< ध्यायति-पदादि में ध्य के रहने से उसके स्थान में झ। विंझो विन्ध्य:-पद के मध्य में ध्य के रहने से ज्झ । सझ< साध्या-सा को हस्व और पद के मध्य में रहने से ध्य को ज्झ ।
सज्झाओ स्वाध्याय:-संयुक्त व का लोप और हस्व, पद के मध्य में रहने से ध्य को ज्झ । (ख) ह्य = झ
गुज्झं गुह्यम्-पद के मध्य में रहनेवाले ह्य के स्थान पर ज्झ । नज्मइ नातिमज्झ<मयम् - सज्झो सहाः
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण ( ४६ ) संस्कृत का संयुक्ताक्षर त सामान्यत: प्राकृत में दृ हो जाता है। . केवट्टोर कैवर्तः–ऐकार को एकार और त को दृ तथा विसर्ग को ओत्व । जट्टोर जत:-त के स्थान पर ट्ट और विसर्ग का ओत्व ।। नट्टई र नर्तकी-तं के स्थान पर दृ तथा ककार का लोप, ई स्वर शेष । पयट्टइ< प्रवर्तते-संयुक्त रेफ का लोप, य को व, त को दृ, विभक्ति चिन्ह इ ।
रायवट्टयंदराजवर्तकम् -ज का लोप, अ स्वर शेष, य श्रुति, त को दृ तथा क का लोप अ स्वर को य श्रुति ।
वट्टीवर्ती- को ह। वट्टलं ८ वर्तुलम् -- , वट्टा(वार्ता- , संवट्टि संवर्तितम्-,
( ४६ ) संस्कत के संयुक्ताक्षर म्न और ज्ञ के स्थान पर प्राकृत में ण होता है, पर पद के मध्य में इन वर्गों के आनेपर इनके स्थान में पण होता है। व्यञ्जन से आगे रहने या दीर्घ स्वर के परे रहने से ण ही होता है। ( क ) म्न = णनिण्णंद निम्नम् -पद के मध्य में म्न के आने से इसके स्थान में ण्ण । पज्जुण्णोः प्रद्युम्न:- संयुक्त रेफ का लोप, यु को ज्जु और म्न के स्थान
में
।
(ख) ज्ञ=णआणा आज्ञा-दोर्घ स्वर से परे ज्ञा के रहने से ज्ञ के स्थान में ण । पण्णा< प्रज्ञा–पदमध्य में ज्ञा के होने से पण। विण्णाणंदविज्ञानम्णाणं र ज्ञानम् – पदादि में ज्ञ के होने से ण । संणाद संज्ञा-अनुस्वार-म् के परे रहने के कारण ज्ञ को ण ।
( ४७ ) संस्कृत का संयुक्त वर्ग स्त प्राकृत में थ हो जाता है, पर पदमध्य में आने पर त्थ होता है।
थवो< स्तवः-पदादि में स्त के होने से, उसके स्थान में थ । थंभोरस्तम्भ:
" " " थद्धोवस्तब्ध:थुई स्तुति:थोर स्तोकम्थोत्तं स्तोत्रम्थीणंद स्त्यानम्- - - -
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१३०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण अस्थि र अस्ति-पदमध्य में स्त के होने से स्थ हुआ है। पल्लथोपर्यस्त:--., -, , पसत्थो< प्रशस्त:- , " पत्थरो प्रस्तर:- " " " हत्थोर हस्त:विशेष—कुछ शब्दों में स्त का ख हो जाता है । यथा
खंभोर स्तम्भ:-यहाँ स्त के स्थान पर ख हुआ है।
( ४८ ) संस्कृत का संयुक्त वर्णष्ट प्राकृत में ठ हो जाता है, पर पदमध्य में आने से ष्ट का होता है।
अणिटुंद अनिष्टम्-पदमध्य में रहने से ष्ट के स्थान पर ह । इटो< इष्ट:कटुं< कष्टम्कटुं< काष्ठम्दट्ठो दृष्टःदिट्टी-दृष्टि:पुट्ठो पुष्ट:मुट्ठी मुष्टि:लट्री यति:-पदमध्य में रहने से ष्ट के स्थान पर ह। सुरद्वादसुराष्ट्रासिट्ठी सृष्टिःकोटागारं कोठागारम्- , सुट्ठुर सुष्टु
(४९) संस्कृत के संयुक्त वर्ण ड्म और क्म के स्थान पर प्राकत में प हो जाता है, पर पदमध्य में इन वर्गों के आने से प्प हो जाता है।
कुंपलं<कुड्मलम् -डम के स्थान पर पहुआ है। रुप्पिणी र रुक्मिणी-पदमध्य में होने से क्म के स्थान में प हुआ है।
(५०) संस्कृत के संयुक्त वर्ण ष्प, स्प को प्राकृत में फ होता है, किन्तु पदमध्य में इन वर्गों के आने से ८फ हो जाता है।
(क) ष्प = फनिप्फाओ निष्पाव:-पद मध्य में रहने से ष्प के स्थान पर प्फ हुआ। निप्फेसोर निष्पेष:पुप्फरपुष्पम् - सप्फंद शष्पम्
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१३१ . (ख) स्प= फफंदणंदस्पन्दनम्-पदादि में रहने से स्प के स्थान पर फ। पडिप्फदी र प्रतिस्पर्धी–पद के मध्य में रहने से स्प के स्थान में प्फ । वुहप्फईबृहस्पतिः
(५१) संस्कृत का संयुक्त वर्ण ह प्राकत में भ हो जाता है, पर पदमध्य में आने पर विकल्प से ब्भ होता है।
जिब्भा, जीहा< जिह्वा-पद मध्य में रहने से ह्व के स्थान में विकल्प से ब्भ, विकल्पाभाव में संयुक्त व का लोप और पूर्व इकार को दीर्घ ।
विब्भलो, विहलो< विह्वल:-पदमध्य में रहने से ह को विकल्प से ब्भ तथा विकल्पाभाव पक्ष में संयुक्त व का लोप और विसर्ग का ओत्व ।
(६२ ) संस्कृत का संयुक्त वर्ण न्म प्राकृत में म्म हो जाता है। जम्मो< जन्म-न्म के स्थान पर म्म ।
बम्महोद मन्मथ:-न्म के स्थान पर म्म तथा थ के स्थान में ह, विसर्ग को ओत्व ।
मम्मणं मन्मन:-न्म के स्थान पर म्म तथा नकार को गत्व ।
( ५३ ) संस्कृत के संयुक्त वर्ण ग्म के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से म्म का परिवर्तन हो जाता है।
तिम्म, तिग्गं< तिग्मम् -ग्म के स्थान पर विकल्प से म्म, विकल्पाभाव में संयुक्त म का लोप और ग को द्वित्व ।
जुम्मं, जुग्गं< युग्मम्-य को ज, ग्म को विकल्प से म्म, विकल्पाभाव में संयुक्त म का लोप और ग को द्वित्व ।
(५४) संस्कृत के संयुक्त वर्ण श्म, म, स्म, ह्म और क्ष्म के स्थान पर प्राकृत में म्ह हो जाता है। ( क ) श्म = म्ह
कम्हारा < कश्मीरा:-श्म के स्थान में म्ह तथा ईकार को आकार ।
कुम्हाणो कुश्मान:-श्म के स्थान में म्ह आदेश और नकार को णत्व। (ख) म = म्ह
उम्हा< ऊष्मा-म के स्थान पर म्ह तथा ऊ को हस्व । गिम्हो< ग्रीष्म:-5म को म्ह, संयुक्त रेफ का लोप और ईकार को हस्व । (ग ) स्म = म्ह
अम्हारिसो< अस्मादृशः-स्म के स्थान पर म्ह, दृश के स्थान पर रिस, विसर्ग को ओत्व।
a
H
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१३२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण विम्हओ< विस्मयः-स्म के स्थान में म्ह, यकार का लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व । (घ) म = म्ह
बम्हार ब्रह्मा-ह्म के स्थान पर म्ह, संयुक्त रेफ का लोप । बम्हणो< ब्राह्मण:-
, , और आ को ह्रस्व । बम्हचेरं ब्रह्मचर्यम् —ह्म के स्थान पर म्ह, ब्र के संयुक्त रेफ का लोप और चर्य को चेरं ।
सुम्हा< सुझा:-ह्म के स्थान पर म्ह । (ङ) क्ष्म = म्ह
पम्हलंद पक्ष्मलम्-क्ष्म के स्थान पर म्ह। पम्हाइं< पक्ष्माणि- , ,
( ५५ ) संस्कृत के संयुक्त वर्ण श्न, ग, स्न, हू, ह, क्ष्ण और सूक्ष्म शब्द के क्ष्म के स्थान में प्राकृत में ग्रह हो जाता है। ( क ) श्न = बह
पण्हो प्रश्नः-प्र में से संयुक्त रेफ का लोप, और श्न के स्थान पर ण्ह, विसर्ग को ओत्व। - सिण्हो<शिश्न:-तालव्य श के स्थान में दन्त्य स तथा श्न के स्थान पर पह। ( ख ) ष्ण = ण्ह
उण्हीसं< उष्णीषम् - Gण के स्थान में पह, मूर्धन्य ष को दन्त्य स ।
कण्होरकष्णः-क में रहनेवाली ऋ के स्थान में अ और bण के स्थान में पह, विसर्ग का ओत्व।
जिण्हू रजिष्णुः-6ण के स्थान पर ह, उकार को दीर्घ । विण्हू < विष्णु:-
" (ग ) स्न = प्रह
जोण्हा ज्योत्स्ना-संयुक्त य का लोप तथा संयुक्त त का लोप और स्न के स्थान में ग्रह।
पण्हुओर प्रस्तुत:-प्र में से संयुक्त रेफ का लोप, स्न के स्थान पर पह, त का लोप और अ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व ।
___ हाओस्नातः-स्न के स्थान में पह, त का लोप और अ स्वर शेष तथा विसर्ग को ओत्व ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१३३
(घ ) ह्र = ण्ह
जण्हू < जगुः-हू के स्थान पर ग्रह और उकार को दीर्घ ।
वरही< वह्निः- , , और इकार को दीर्घ । (ङ) ण = बह
अवरोहोर अपराह:-4 के स्थान पर व, ह के स्थान पर ण्ह ।
पुव्वण्हो पूर्वाह्नः-संयुक्त रेफ का लोप, व को द्वित्व और आ को अत्व तथा इ. के स्थान में ग्रह । (च) क्ष्ण = ण्हतिण्हं<तीक्ष्णम्-ती को हस्व, क्ष्ण के स्थान में ह ।
सण्हं ८ श्लक्षणम्-संयुक्त ल को लोप, मूर्धन्य ५ को दन्त्य स, क्षण के स्थान में पह।
क्ष्म = ण्ह - सहं सूक्ष्मम्-सू के स्थान पर स और क्ष्म को ह । ( ५६ ) संस्कृत का संयुक्त वर्ण ह प्राकृत में ल्ह हो जाता है । कल्हारं< कलारम्-ह्र के स्थान में ल्ह । पल्हाओ< प्रह्लादः- ,
( ५७ ) संस्कृत का ज्ञ वर्ण प्राकृत में विकल्प से ज होता है, पर पदमध्ध में आने से ज्ज होता है।
अहिज्जो, अहिण्णो अभिज्ञः - भ के स्थान पर ह, पदमध्य में रहने से ज्ञ के स्थान पर विकल्प से ज्ज, विकल्पाभाव में ण्ण ।
अज्जा, आणा< आज्ञा-पदमध्य में रहने से ज्ञ के स्थान पर ज, विकल्पाभाव में णा।
अप्पज्जो, अप्पण्णू आत्मज्ञः- आत्म के स्थान पर अप्प, ज्ञ के स्थान पर पदमध्य में रहने से ज, विकल्पाभाव में ण्ण ।
इंगिअज्जो, इंगिअण्ण <इंगितज्ञ:-पदमध्य में ज्ञ के रहने से विकल्प से ज. विकल्पाभाव में ण्ण।
देवज्जो, देवण्णू - दैवज्ञः- ऐकार को एकार, पदमध्य में रहने से ज्ञ के स्थान पर विकल्प से ज्ज, विकल्पाभाव में ण्ण ।
पज्जा, पण्णा< प्रज्ञा-पदमध्य में ज्ञ के रहने से ज्ञ को विकल्प से ज्ज तथा विकल्पाभाव में ण्ण।
पज्जो, पण्णो< प्राज्ञः- ... - मणोज्जं, मणुण्णं < मनोजम्- .... सव्वज्जो, सव्वण्णू सर्वज्ञ:--
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
संजा, संणा संज्ञा--व्यञ्जन से परे रहने के कारण ज्ञ को ज, विकल्पाभाव में हैं। ( १८ ) संस्कृत का संयुक्त वर्ण है प्राकृत में रिह हो जाता है। अरिहइ ८ अर्हति--अर्ह के स्थान पर रिह, त का लोप और इ शेष । अरिहोद अर्ह:गरिहार गहरे-- वरिहो वहः--
(५९) संस्कृत के संयुक्त ब्यञ्जन र्श और र्ष के स्थान पर प्राकृत में रिस होता है। ( क ) श = रिस
आयरिसो आदर्श:---र्श के स्थान पर रिस हुआ है। दरिसणं< दर्शनम्- ,
सुदरिसणंसुदर्शनम् , ( ख ) ष = रिस
वरिसंवर्षम् -र्ष के स्थान पर रिस हुआ है। वरिससयं वर्षशतम्-, परिसा < वर्षा( ६० ) संकृत के संयुक्त ल के स्थान पर प्राकृत में इल होता है ।
अंबिलं ( अम्लम्-संयुक्त ल के स्थान पर इल हुआ है, म के स्थान पर पूर्व स्वर पर अनुस्वार के साथ ब हुआ है।
किलम्मइ ५ क्लाम्यति --संयुक्त ल के स्थान पर इल, म्य को म्म, विभक्ति इ । किलंतं<क्लाम्यत्-संयुक्त ल को इल । किलिटुं<क्लिष्टम्किलिन्नं< क्लिन्नम्किलेसोर क्लेश:गिलाइ<ग्लायतिगिलाणंग्लानम्पिलुटुं< प्लुटम्पिलोसोरप्लोषःमिलाइ<म्लायति मिलाणं म्लानम्सिलेसोर श्लेष:
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सिलिम्हा श्लेष्मा - संयुक्त ल को इल । सिलोओ श्लोक:सिलिट्ठ शिष्टम्
सुइलं शुक्लम् -
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
संयुक्त क का लोप, तालव्य श को दन्त्य स ।
( ६१ ) संस्कृत के 'र्य' संयुक्त व्यञ्जन को प्राकृत में रिअ होता है । आयरिओ <आचार्य:: - चकार का लोप, आ शेष, य भूति, हस्व और र्य के
स्थान पर रिअ ।
"
गंभीरिअं गाम्भीर्यम् — दीर्घं को हस्व और र्यं को रिअ ।
"
गहीरिअंगाभीर्यम् —
""
चोरिअं चौर्यम् - औकार को ओकार और र्य के स्थान पर रिअं ।
धीरिअं धैर्यम् - ऐकार को ईत्व और र्य को रिअं ।
,"
99
(ङ) त्त = श्व
बम्हचरिअं << ब्रह्मचर्यम् — संयुक्त रेफ का लोप, ह्म को म्ह और र्य को रिअ । भरिआ < भार्यार्य को रिअ ।
वरिअं वर्यम् -
K
वीरिअं वीर्यम्थेरिअं <स्थैर्यम्सूरिओ सूर्य:- को रिअ ।
K
सुन्दरिअं सौन्दर्यम् – औकार को उकार, र्य को रिअ । सोरिअं शौर्यम् को रिअ ।
किच्ची < कृत्ति:
"
(च) थ्य = च -
""
-
- संयुक्त स का लोप, ऐकार को एकार, र्य को रिअ ।
(६२) संस्कृत के संयुक्त व्यंजनों में कुछ विशेष परिवर्तन भी होता है ।
( क ) ग्ण =क्क—
लुक्कोण:-ग्ण के स्थान पर क्क और रु को लु ।
(ख) क्ष्ण = क्ख
तिक्खं तीक्ष्णम् -ती को ह्रस्व तथा क्ष्ण के स्थान पर क्ख ।
(ग) स्त = ख
खंभो स्तम्भ - स्त के स्थान पर ख ।
(घ) स्फ = ख
खेडओ <स्फेटक: – स्फ के स्थान पर ख ।
१३५
-प्त के स्थान पर च ।
तश्चं < तथ्यम् —थ्य के स्थान पर डच ।
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१३६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण (छ) स्प= छ
छिहा< स्पृहा(ज) त्त = दृ
पट्टणं< पत्तनम्-त्त के स्थान पर ह।
मट्रिआ< मृत्तिका-त्त के स्थान पर ह। (झ) र्थ=8
अट्ठो अर्थ:-र्थ के स्थान पर छ ।
चउट्ठो< चतुर्थः , ( अ ) त = डु___ गड्डो< गर्तः–त के स्थान पर ड्ड। ( ट ) ई = ड्ड
कवड्डो र कपर्दः-द के स्थान पर ड्ड । छड्डो< छर्द:- , , छड्डी<छदिः- " " मड्डिओ< मर्दित:-,, , विच्छड्डो< विच्छदः- ,
संमड्डो< संमर्दः- , , (ठ) ध, द्ध, ग्ध, ब्ध = ड्ढ़
अड्ढं ८ अर्धम्-र्ध के स्थान पर ड्ढ । ईड्ढी ऋद्धिः-द्ध के स्थान पर ड्ढ । दड्ढो< दग्ध:-ग्ध के स्थान पर ड्ढ । विअड्ढो< विदग्धः-,, , वुड्ढोर वृद्धः-द्ध के स्थान पर ड्ढ । वुडढी < वृद्धिः - , " सडढा<श्रद्धा- " "
ठड्ढो< स्तब्ध:-ब्ध के स्थान पर ड्ढ । (ड) ञ्च = ण्ण
पण्णरह < पञ्चदश-ज्च के स्थान पर ण ।
पण्णासा< पञ्चाशत्- " (ढ) त्त = ण्ण
दिण्णं< दत्तम्-त्त के स्थान पर ण ।
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(ण) त्म= प्प -
अप्पा
अप्पाणो आत्मानः —
आत्मात्म के स्थान पर प्प |
( त ) म्र = म्ब
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
99
= भ्म
अब < आम्रम् - म्र के स्थान पर म्ब |
तंबं <ताम्रम् —
""
99
99
( थ ) ह्म
बम्भणो ब्राह्मण:--ह्म के स्थान पर म्भ | बंभचेरं ब्रह्मचर्यम्
""
99
( द ) क्ष, ख, र्थ, र्घ, र्ष, प्य और ष्म = ६दाहिणो दक्षिण:-क्ष के स्थान पर ह ।
दुहं दुःखम् -- ख के स्थान पर ह ।
K
K
तूहं तीर्थम् — के स्थान पर ह । दीहो दीर्घः - के स्थान पर ह । काहावणो कार्षापणः – र्ष के स्थान पर ह । वाहो वाष्पः - प के स्थान पर ह । कोहण्डी कुष्माण्डी—ष्म के स्थान पर ह । कोहण्डं कुष्माण्डम् -
""
( ६३ ) निम्न वर्गों को प्राकृत में द्वित्व हो जाता है।
केलं, कयलं 4 कदलम् । चोग्गुणो चतुर्गुणः । चोत्थी, चउत्थी < चतुर्थी ।
उज्जू ऋजु :- ज को द्वित्व | तेल्लं तैलम् -ल को द्वित्व । पेम्मं प्रेम-म को द्वित्व | विड्डाव्रीडा- -ड को द्वित्व | कण्णिआरो कर्णिकारः - ण को द्वित्व | को उहलं — कुतूहलं -ल को द्वित्व ।
बहुत्तं प्रभूतम्- -त को द्वित्व । मंडूक्को मण्डूकः - क को द्वित्व | एक्को
एकः - क को द्वित्व |
तुहिको तूष्णीकः - क को द्वित्व | नक्खो इव्यो दैवः - को द्वित्व |
नखः – ख को द्वित्व । नेडुंनीडम्ड को द्वित्व ।
मुक्को मूकः क को द्वित्व |
जोव्वणं यौवनम् — व को द्वित्व ।
( ६४ ) निम्न शब्दों में अनियमतः परिवर्तन होते हैं
अच्छअरं, अच्छरिअं, अच्छ्ररिज्जं, अच्छरीअं आश्चर्यम् ।
कोहलं कुतूहलम् । चोत्थो, चउत्थो चतुर्थः । चोद्दह, चउद्दह चतुर्दश ।
१३७
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१३८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण चोदसी, चउद्दसीदचतुर्दशी। . चोव्वारो, चउव्वारो< चतुर्वारः । तेत्तीसा<त्रयस्त्रिंशत् । तेरह < त्रयोदश । तेवीसा< त्रयोविंशतिः। तीसा< त्रिशत् । नोणीअं, लोणीअं< नवनीतम् । नोहलिआ< नवकलिका। नोमालिआ< नवमल्लिका। पोप्फलं - पूगफलम् । पोरोरपूतरः।
पाउरणं, पगुरणं < प्रावरणम् । बोरं बदरम् ।
मोहो, मऊहो< मयूखः । रुण्णं रुदितम् ।
लोणं लवणम् । वीसार विंशतिः।
सोमालो<सुकुमारः। थेरो र स्थविरः। ( ६८ ) निम्न शब्दों में आमूल परिवर्तन हो जाता है। हेटुं< अधस् ।
ओ, अव < अप। अच्छरसा< अप्सरस्।
आउसं< आयुः। आढत्तो< आरब्धः।
धूआ<दुहिता । दाढादंष्ट्रा।
हरो< हृदः। धणुहं<धनुष्।
इसि< ईषत् । ओ< उत ।
ओ< उप। अवह उवहं < उभयस
कउहा< ककुम् । छूदं< क्षिप्तम् ।
घरं< गृहम् । घिको ८ धुप्तः।
तिरिच्छि<तिर्यक् । पाइको ८ पदाति।
बहिणी< भगिनी। मइलं< मलिनम् ।
मंजरो<मार्जारः विलयादवनिता।
रुक्खो< वृक्षः । वेसलिअं< वैडुर्यम् ।
सिप्पी< शुक्तिः। थेवं, थोवं, थोकं< स्तोकम् । सुसाणं, मसाणं< श्मशानम् । (६६ ) निम्न शब्दों में वर्णव्यत्यय हुआ है। अलचपुरं अचलपुरम् । आणालो<आलानः। कणेरू< करेणूः ।
मरहट्ट (महाराष्ट्रम् । हलुअं< लघुकम् ।
णडालं ललाटम् । वाणारसी< वाराणसी।
हलिआरो< हरिताल: । दहो<द्रह, हृदः ।
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पाँचवाँ अध्याय
लिंगानुशासन प्राकृत में संस्कृत के समान पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग ये तीन ही लिङ्ग माने गये हैं । प्राणिवाचक और अप्राणिवाचक समस्त संज्ञाएँ उक्त तीनों लिङ्गों में विभक्त हैं। साधारण लिङ्गव्यवस्था संस्कृत के समान ही है, किन्तु जिन शब्दों में अन्तर है, उन्हींका यहां निर्देश किया जाता है।
(१) प्रावृष , शरद् और तरणि शब्दों का पुल्लिंग में प्रयोग होता है । यथापाउसो< प्रावृष-संस्कृत में यह शब्द स्त्रीलिंग है। सरओ< शरदू- ". " तरणी<तरणी
( २ ) दामन्, शिरस् और नभस को छोड़ कर शेष सकारान्त तथा नकारान्त शब्द पुल्लिंग में प्रयुक्त होते हैं। (क) सकारान्त शब्द
जसो यशस्-यश:-संस्कृत में यह शब्द नपुंसकलिंग है। पओ< पयस्-पय:तमो<तमस्-तमःतेओ< तेजस-तेज:
सरो< सरस्-सरः( ख ) नकारान्त शब्द
जम्मो<जन्मन्-जन्मनम्मो < नर्मन्-नर्मकम्मोद कर्मन्-कर्मवम्मो< वर्मन्-वर्मविशेष(क) वयं वयस्-वयः-संस्कृत में यह नपुंसकलिंग है और प्राकृत में भी इसे नपुंसकलिंग ही माना गया है।
१. प्रावृटशरत्तरणयः पुंसि-८।१।३१. है । २. स्नमदाम-शिरो-नमः-८१६३२. है ।
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१४०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण सुमणं < सुमनस्-सुमन:- संस्कृत में यह नपुंसकलिंग है और प्राकृत में भी इसे नपुंसकलिंग ही माना गया है।
सम्मं शर्मन्–शर्म
चम्म< चर्मन्—चर्म- , ( ख ) दामं< दामन्-दाम-संस्कृत के समान नपुंसकलिंग ही है । सिरं< शिरस-शिरः- , नहं < नभस्-नभ:
( ३ ) अक्षि (आंख) के समानार्थक शब्द तथा निम्न निर्दिष्ट वचनादिगण के शब्द पुलिंग में विकल्प से प्रयुक्त होते हैं।' अक्षि शब्द का पाठ अन्जल्यादि गण में भी होने से इसका प्रयोग स्त्रीलिंग में भी होता है। यथा
अच्छी < अक्षिणी-संस्कृत में नपुंसकलिंग, पर यहां विकल्प से पुलिंग । अच्छीइं< अक्षिणी - संस्कृत में नपुंसकलिंग, यहां भी विकल्प से नपुंसकलिंग । एसा अच्छी ८ एतदक्षि—यहाँ स्त्रीलिंग में व्यवहार है। चक्खू - चक्षुषी-संस्कृत में नपुंसकलिंग किन्तु प्राकृत में पुल्लिग।
अणो (पुल्लिंग) । नयनम्-संस्कृत में नपुंसकलिंग, किंतु प्राकृत में विकल्प णअणं (नपुंसकलिंग ) से पुल्लिग। लोअणो (पुल्लिग) लोवनम्लोअगं (नपुंसक) । वअणो (पुल्लिग) वचनम्वअणं (नपुंसक) । कुलो (पुल्लिंग) । कुलं (नपुंसक) ।
माहप्पो (पुल्लिग) | माहात्म्यम् -
माहप्पं (नपुंसक) " छन्दो ( पुल्लिंग) । छन्दं (नपुंसक) । दुक्खा (पुल्लिग) लाल दुक्खाहं (नपुंसक) 3
भायणा (पुल्लिग)भाजनानि
भायणाहं (नपुंसक)
१. वाक्ष्यर्थ-वचनाद्याः ८।१।३३. हे० । २. अजल्यादिपाठादक्षिशब्दः स्त्रीलिङ्गेपि ८।१।३३. की वृत्ति ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१४१ ( ४ ) किसी-किसी आचार्य के मत से पृष्ठ, अक्षि और प्रश्न शब्द विकल्प से स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं । यथा
पुट्ठी ( स्त्रीलिंग ) , पृष्ठम्-संस्कृत में नपुंसकलिंग है, पर प्राकृत में विकल्प पुढे (नपुंसक ) से स्त्रीलिंग भी है । अच्छी (स्त्रीलिंग),
अक्षि- अच्छं ( नपुंसक )
" . पण्हा (स्त्रीलिंग), प्रश्नः-संस्कृत में यह पुल्लिंग है, पर प्राकृत में विकल्प
पण्हो ( नपुंसक ) से स्त्रीलिंग भी होता है। ( ५ ) गुणादि शब्द विकल्प से नपुंसकलिंग में प्रयुक्त होते हैं।'
गुणं ( नपुंसक ) ) गुण:-संस्कृत में गुण शब्द पुल्लिंग है, पर प्राकृत में इसका गुणो (पुल्लिंग ) । व्यवहार पुल्लिंग और नपुंसकलिंग दोनों में होता है । देवाणि (नपुंसक), देवाः-संस्कृत में देव शब्द नित्य पुल्लिंग है, पर प्राकृत देवा (पुल्लिंग ) में यह विकल्प से नपुंसकलिंग भी होता है । खग्गं (नपुंसक),
पाखड्गः-खड्ग शब्द संस्कृत में पुल्लिंग है पर प्राकृत विकल्प से। मंडलग्गं ( नपुंसक ), मंडलग्गो (पुल्लिंग ) मंडलान:- , कररूहं ( नपुंसक ), कररूहो ( पुलिंग ) < कररुहः--
रुक्खाइं ( नपुंसक ), रुक्खा ( पुलिंग )< वृक्षाः-- . (६) इमान्त–इमन् प्रत्यय जिनके अन्त में आया हो और अञ्जल्यादि गण के शब्द विकल्प से स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं। इमान्त शब्द
एसा गरिमा ( स्त्रीलिंग ), एसो गरिमा ( पुल्लिंग ) < एष गरिमा। एसा महिमा ( स्त्रीलिंग ), एसो महिमा ( पुल्लिंग )< एष महिमा । एसा धुत्तिमा ( स्त्रीलिंग ), एसो धुत्तिमा ( पुल्लिंग )< एष धूर्तता।
१. पृष्ठाक्षिप्रश्नाः स्त्रियां वा ४।२०. वर० । २. गुणाद्याः क्लीबे वा ८।१।३४. हे । ३. वेमाजल्याद्याः स्त्रियाम् ८।१।३५. हैं ।
अजल्यादिगण में अजलि, पृष्ठ, अक्षि, प्रश्न, चौर्य, कुक्षि, बलि, निधि, विधि, रश्मि और ग्रन्थि शब्द गृहीत हैं। कल्पलतिका के अनुसार रश्मि शब्द विकल्प से स्त्रीलिंग ही है।
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१४२
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
अञ्जल्यादिगण के शब्द -
एसा अंजली (स्त्री), एसो अंजली ( पु० ) ८ एष अञ्जलिः ।
चोरिआ (स्त्री० ). चोरिओ ( पु० ) ८८ चौर्यम् ।
निही (स्त्री), निही (पु० ) < निधिः ।
विधिः ।
विही (स्त्री० ), विही (पु० ) गंठी (स्त्री० ), गंठी (पु० ) रस्सी स्त्री०), रस्सी ( पु०
)
एसा बाहा (
ग्रन्थिः ।
रश्मिः ।
( ७ ) जब बाहु शब्द स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होता है, तब उसके उकार के स्थान में आकार होता है । पर जब पुल्लिंग में प्रयुक्त होता है तब आकार आदेश न होकर बाहु रूप ही रह जाता है । यथा
स्त्री एसो बाहू (पु० ) एष बाहुः ।
"
स्त्रीप्रत्यय
स्त्रीलिंग शब्द दो प्रकार के होते हैं—मूल स्त्रीलिंग शब्द और प्रत्यय के योग से बने स्त्रीलिंग शब्द | जिन शब्दों का अर्थ मूल से ही स्त्रीवाचक है और रूप पुल्लिंग और नपुंसकलिंग में नहीं होते, उनको मूल स्त्रीवाचक शब्द कहते हैं। यथा-लदा, माला, छिहा, हलिद्दा, मट्टिआ, लच्छी, सप्पिणी आदि ।
प्रत्यय के योग से ने स्त्रीलिंग शब्द मूल से स्त्रीलिंग नहीं होते, किन्तु स्त्रीप्रत्यय जोड़ देने से उनमें स्त्रीत्व आता है। ऐसे शब्द जोड़ीदार होते हैं अर्थात् पुल्लिंग और स्त्रीलिंग दोनों लिंगों में व्यवहृत होते हैं । अतः स्त्रीप्रत्यय - वे प्रत्यय हैं, जिनके लगने पर पुल्लिंग शब्द स्त्रीलिङ्ग हो जाते हैं । संस्कृत में टापू, डाप्, चाप् ( आ ); ङीप, ङोष_ ङीन् ( ई ); ऊङ ( ऊ ) और ति ये आठ स्त्रीप्रत्यय हैं; पर प्राकृत में
9
आई और ऊ प्रत्यय ही होते हैं । अधिकांश प्राकृत शब्दों में संस्कृत के समान ही arrar का विधान किया गया है।
( १ ) सामान्यतया प्राकृत में अकारान्त शब्दों से स्त्रीलिंग बनाने के लिए आ प्रत्यय लगता है । यथा—
अअ + आ = अआ 4 अजा; चडअ + आ चडआ < चटका | मू|सअ + आ = मूसिया < मूषिका; बाल + आ = बाला < बाला । वच्छ + आ वच्छा <वत्सा, होड + आ = होडा ( छोकरी ) कोइल + आ = कोइला < कोकिला; चवल < चपला; कुसल < कुशला ।
१. बाहोरात् ८।१।३६, हे० ।
=
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१४३ निउण-निउणा, अचल-अचला, मलिण-मलिणा, चउर-चउरा, पढम-पढमा।
वीय-वीया।
( २ ) स्त्रीलिंग में सस-स्वस्त्र आदि शब्दों से पर में आ प्रत्यय जोड़ने से ससा आदि रूप होते हैं।'
(३) संस्कृत के नकारान्त शब्दों से स्त्रीलिङ्ग बनाने के लिए ई प्रत्यय होता है । यथा-राया + ई = राणी, माहण + ई = माहणी; बंभण + ई-वभणी। हस्थिहत्थिणी।
( ४ ) रकारान्त, तकारान्त और भय, अज, ठक् और ठञ् प्रत्ययों से बने संस्कृत शब्दों से प्राकत में प्रायः स्त्रीलिङ्ग बनाने के लिए ई प्रत्यय जुड़ता है । यथा
रकारान्त-कुंभआर + ई = कुंभआरी, कुम्हारी; लोहआर--लोहारी; कुमार-कुमारी।
तकारान्त-सिरीमअ + ई = सिरीमई; पुत्तवअ-पुत्तवई ; धणवअधणवई।
( ५ ) संस्कृत के पित् शब्दों-- नर्तक, खनक, पथिक प्रभृति तथा गौर, मनुष्य, मत्स्य, शृंग, पिङ्गाल, हय, गवय, ऋष्य, द्रुण, हरिण, कोकण अणक, आपलक, शक्कुल, वदर, उभय, नर और मंगल शब्दा में स्त्रीलिंग बनाने के लिए प्राकृत में ई प्रत्यय जोड़ा जाता है। यथा
गट्टअ + ई = गट्टई, खणअ + ई = खणई, पहिअ + ई = पहिई, कुमार + ई = कुमारी, किसोर-किसोरी, सुन्नर-सुन्नरी, णअ-णई, पड--पडी, कअलकअली, थल-थली, काल-काली, मंडल-मंडली आदि। . (६ ) जाति अर्थ में जातिवाचक अकारान्त शब्दों से स्त्रीलिङ्ग बनाने के लिए ई प्रत्यय जोड़ा जाता है। यथा
सीह + ई = सीही, वग्य+ई = वग्घी , मअ + ई = मई, हरिणहरिणी, कुरंग-कुरंगी, सूअर-सूअरी, जंबुअ-जंबुई, सिपाल-सियाली, विडाल-विडाली, घोड-घोडी, महिस-महिसी, हंस-हंसी, सारससारसी, गोव - गोवी, चंडाल-चंडाली, बंभण-बंभणी, रक्खस-रक्खसी, निसाअर-निसाअरी।
(७) पाणिनि के 'टिड्ढाणज्' इत्यादि (४।१।१५) से अण आदि प्रत्यय निमित्तक डीप होता है, पर प्राकृत में विकल्प से ई होता है। यथा-साहणी- साहणा; कुरुचरी—कुरुचरा आदि।
१. स्वस्रादेा ८।३।३५ हे०। २. प्रत्यये डीनं वा ८।३।३१.
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
( ८ ) संस्कृत के अजातिवाचक पुलिङ्ग शब्दों से प्राकृत में स्त्रीलिंग बनाने के लिए विकल्प से ई प्रत्यय होता है । यथा
१४४
नीली — नीला; काली — काला इसमाणी - इसमाणा, सुवणही - सुप्पणहा; इमीए - इमाए; इमीणं – इमाणं, एईए – एआए, एई – एआणं ।
( C ) संस्कृत के छाया और हरिद्रा शब्दों को प्राकृत में स्त्रीलिङ्ग बनाने के लिए विकल्प से है प्रत्यय जुड़ता है । यथा
२
छाही - छाया; हलद्दी - हलद्दा |
( १० ) सु, अम् और आम्, सुप् (सभी विभक्तियों) के पर में रहने पर किम्, यद् और तद् शब्दों से प्राकृत में स्त्रीलिङ्ग में ई प्रत्यय विकल्प से होता है। * यथा
कीओ -- काओ; कीए - काए; कीलु — कासु; जीओ – जाओ; तीओ - ताओ ।
( ११ ) पुल्लिंग शब्द जो नर का द्योतक है, उससे स्त्रीलिंग बनाने के लिए ई प्रत्यय जोड़ा जाता है । पर पालकान्त शब्दों में ई प्रत्यय नहीं जुड़ता है । बंभणस्सा जाया बंभणी, सुद्दस्स जाया सुद्दी, गणअस्स जाया गणई, णाविअस्स जाया णाविई, सिाअस्स जाया णिसाई ।
( १२ ) संस्कृत के जानपद, कुण्ड, गोण, स्थल, भाग, नाग, कुश, कामुक आदि - शब्दों से प्राकृत में स्त्रीलिंग बनाने के लिए विकल्प से ई प्रत्यय जोड़ा जाता है। ई प्रत्यय के अभाव में आ होता है । यथा
जाणवद + ई - जाणवदी; कुंडी-कुंडा, थली-थला, गोणा - गोणी, भागा - भागी, कुसी – कुसा |
मातुल
―――
( १३ ) संस्कृत के इन्द्र, वरुण, भव, शर्व, रुद्र, मृड, आचार्य, हिम, अरण्य, यवन, और उपाध्याय शब्दों से प्राकृत में ई लगने के पूर्व आण जोड़ दिया जाता हैइंद + ई = इंदाणी; भव + ई = भवाणी; सव्व + ई = सव्वाणी, रुद्राणी, मिडाणी, आयरियाणी, जवणाणी, माउलाणी, उवज्झायाणी ।
(१४) धर्मविधि से पाणिग्रहण (विवाह) अर्थ प्रकट हो तो संस्कृत के पाणिग्रहण शब्द से प्राकृत में ई प्रत्यय होता है । यथा
पाणिगहीदी - धर्मविधिपूर्वक विवाह की गयी पत्नी । पाणिगहीदा - अन्य किसी प्रकार से विवाह की गयी पत्नी ।
१. प्रजातेः पुंसः ८।१।३२.
३. किं यत्तदोस्यमामि ८ | ३ | ३३.
२. छाया - हरिद्रयोः ८।३।३४.
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१४५
(१५) आर्य और क्षत्रिय शब्दों से ई प्रत्यय और आन का आगम विकल्प से होता है । यथा
अय्या - अय्याणी, खत्तिया - खत्तिआणी ।
( १६ ) बहुब्रीहि समास होने पर अवयववाचक शब्द के उत्तर में विकल्प से ई प्रत्यय होता है । यथा—
चन्दमुही - चन्दमुहा, सुएसा -सुएसी, तंबणहा तंबनही |
( १७ ) नखान्त और मुखान्त शब्दों से प्राकृत में विकल्प से ई होता है । यथावज्जणा - वाजणही, गोरमुहा— गोरमुद्दी, कालमुहा— कालमुद्दी ।
( १८ ) जिन शब्दों के उत्तरपद में पाक, कर्ण, पर्ण, पुष्प, फल, मूल हों, उन शब्दों से स्त्रीलिङ्ग बनाने के लिए ई प्रत्यय होता है । यथा
अण्णी; सालवण्णी; संखपुप्फी, दामीहली, दब्भमूली, गोवाली ।
( १९ ) नासिका, उदर, ओष्ठ, जंघा, दन्त, कर्ण और शृंग शब्दों से विकल्प से ई प्रत्यय होता है । यथा
तुंगनासिआ, तुंगनासिई, दोहोअरा, दोहोअरी, ।
पुल्लिङ्ग
राया राजा विउसो विद्वान्
माणुसो मनुष्यः माउलो < मातुलः
मच्छो मत्स्यः गिहवइ गृहपतिः अहिवइ अधिपतिः
तुअ तुदन्
सहा सखा
मुण मुनि:
साहु साधुः
कतिपय अध्ययनीय शब्द
स्त्रीलिङ्ग
राणी रानी
विउसी विदुषी
माणुसीदमानुषी
माउली माउलाणी < मातुलानी
"
मच्छीमत्सी
जुवा युवा
सुएसो सुकेश: धीवरोधोवरः
सुद्दो शूद्रः
१०
गिवण्णी गृहपत्नी
K
अहिवण्णी अधिपत्नी तुती तुदन्ती सही सखी
और वाल
मुणीमुनिः
साहू साधुः
जुई युवती
सुएसी, सुरसाद सुकेशी, सुकेशा
धीवरी धीवरी
सुद्दा, सुद्दी शूद्रा, शूद्री
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१४६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
आयरिओ<आचार्य:
खत्तियो< क्षत्रियः उवज्झायो< उपाध्यायः
पढ< पठन् अय्य धीवर <धीवरो कुंभआरोद कुम्भकार: सुवण्णआरोदस्वर्गकारः बालओ< बालकः पुरिसोर पुरुष: किन्नरोकिन्नरः माहणो ब्राह्मणः गोवो< गोप: मऊरो< मयूरः पिओ< पिता भाया<भ्राता कच्छवो कच्छपः सुत्तगारो< सूत्रकारः वुत्तिगारो< वृत्तिकार: सीसो< शिष्य: हत्थिर हस्तिः सेट्टि< श्रेष्ठी गंधिओ< गन्धिकः पइ< पति: नडो< नट: चन्दमुहो< चन्द्रमुख: पीवरो< पोवरः इंदोर इन्द्रः गोवालओ<गोपालक: कामुओ८ कामुकः
-- आयरिआणी, आयरिआ< आचार्यानी,
आचार्या खत्तिया,खत्तियाणी< क्षत्रिया,क्षत्रियाणी उवझाया, उवज्झायाणी< उपाध्याया, उपाध्यायानी पढन्ती< पठन्ती अज्जआ धीवरी<धीवरी कुंभआरी<कुम्भकारी सुवण्णआरी स्वर्णकारी बालिआ<बालिका इत्थी< स्त्री किन्नरी< किन्नरी माहणी< ब्राह्मणी गोवी< गोपी; गोवा < गोपा मऊरी< मयूरी माआ< माता बहिणी, भगिनी कच्छवी कच्छपी सुत्तगारी< सूत्रकारी वुत्तिगारी वृत्तिकारी सीसा<शिष्या हस्थिणी हस्तिनी सेदिनी श्रेष्ठिनी गंधिआ< गन्धिका भज्जाभार्या नडी< नटी चन्दमुही< चन्द्रमुखी पीवरी पीवरी इंदाणी< इन्द्राणी गोवालिआ<गोपालिका कामुआ<कामुका कामुई ८ कामुकी
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१४७
पढमोर प्रथमः बीयो< द्वितीयः निउणो< निपुणः चवलो< चपल: अयलो< अचल: सुप्पणहो< शूर्पनखः
महिसो< महिषः अओ अजः चडओ< चटक: भवो< भवः संखपुप्फो<शंखपुष्पः तरुणो< तरुणः णायओ< नायकः रुद्दो रुद्रः
पढमा < प्रथमा वीयार द्वितीया निउणा निपुणा चवला चपला अयला< अचला सुप्पणहा, सुप्पणही< शूर्पनखी, शूर्पनखा महिसी<महिषी अआ<अजा चडआ< चटका भवाणी< भवानी संखपुप्फीशंखपुष्पी तरुणी< तरुणी णायिआ< नायिका रुदाणी रुद्राणी
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छठवाँ अध्याय
सुवन्त या शब्दरूप प्रकरण भाषा का आधार वाक्य है और वाक्य का आधार शब्द। शब्दों की रचना वर्णो के मेल से होती है। ___ जो कान से सुनायी पड़ता है, वह शब्द है। एक या एक से अधिक अक्षरों के योग से बनी हुई स्वतन्त्र सार्थक ध्वनि को शब्द कहते हैं । जैसे-'देवा पितं नमसंति' वाक्य में देवा, पि---अपि, तं और नमसंति शब्द हैं। शब्द दो प्रकार के होते हैंसार्थक और निरर्थक । सार्थक शब्द की पदसंज्ञा होती है । व्याकरणशास्त्र में सार्थक शब्द का ही विवेचन किया जाता है । पद—सार्थक शब्द मूलतः दो प्रकार के हैं-संज्ञा और क्रिया।
प्राकृत में रूपान्तर के अनुसार पदों के दो भेद हैं-विकारी और अविकारी । जिस सार्थक शब्द के रूप में विभक्ति या प्रत्यय जोड़ने से विकार या परिवर्तन होता है, उसे विकारी कहते हैं। यथा-देवो, देवा, पढइ, पढन्ति आदि । विकारी-परिवर्तनशील सार्थक शब्दों के संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया और विशेषण ये चार मूल भेद हैं। अविकारी पद अव्यय कहलाते हैं।
प्राचीन वैयाकरणों ने नाम, आख्यात और अव्यय ये तीन ही प्रकार के शब्द माने हैं। सर्वनाम, संख्यावाचक और विशेषण भी नाम के अन्तर्गत हैं। नाम को प्रातिपदिक कहा गया है। प्रातिपदिकों के साथ सुप् प्रत्यय लगाने से संज्ञा पद बनते हैं। प्रत्येक संज्ञा के पुल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग ये तीन लिङ्ग होते हैं।
प्राकृत भाषा में संस्कृत के समान लिंगभेद स्वाभाविक स्थिति पर निर्भर नहीं है, बल्कि यह लिंगभेद कुन्निम हैं। उदाहरणार्थ स्त्री का अर्थ बतलाने के लिए दारी, भज्जा और कलत्तं-ये तीन शब्द प्रचलित हैं। इनमें दारो पुँल्लिग, भज्जा स्त्रीलिंग और कलत्तं नपुंसकलिंग हैं। इसी प्रकार शरीर का बोध करानेवाले शब्दों में लिंगभेद वर्तमान है। यथा-तणू स्त्रीलिग, देहो पुंल्लिंग और सरीरं नपुंसकलिंग हैं। कई शब्द ऐसे हैं, जिनके रूप एक से अधिक लिंगों में चलते हैं। किन्हीं पुल्लिग शब्दों में प्रत्यय जोड़ने से भी स्त्रीलिंग शब्द बनते हैं और किन्हीं प्रत्ययों के याग से नपुंसक लिंग के शब्द बन जाते हैं। इतना होने पर भी प्राकृत में संस्कृत के समान ही शब्द प्रायः नियतलिङ्गी हैं-शब्दों के लिङ्ग निर्धारित है।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१४९ प्राकृत में लिङ्ग तीन, पर वचन दो हो-एकवचन और बहुवचन होते हैं । इसमें द्विवचन को स्थान प्राप्त नहीं हैं।
प्राकृत में तीन पुरुष होते हैं-उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष और प्रथमपुरुष । प्रथमपुरुष को अन्यपुरुष भी कहा जाता है। कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, संबंध और अधिकरण इन सात कारकों को प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी और सप्तमी विभक्ति कहा जाता है; किन्तु प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । इसके स्थान पर षष्ठी विभक्ति का ही प्रयोग मिलता है। .
विभिन्न विभक्तियों को प्रकट करने के लिए प्रातिपदिकों में जो प्रत्यय लगाये जाते हैं, उन्हें 'सुप्' कहते हैं । इसी प्रकार विभिन्न काल की क्रियाओं का अर्थ प्रकट करने के लिए जो प्रत्यय जोड़े जाते हैं, उन्हें 'तिङ) कहते हैं। सुप और तिङ को चैयाकरण 'विभक्ति' ही कहते हैं।
प्राकृत में चार प्रकार के शब्द पाये जाते हैं
अकारान्त-अ और आ से अन्त होने वाले शब्द; इकारान्त-इ और ई से अन्त होनेवाले शब्द, उकारान्त-उ और ऊ से अन्त होनेवाले शब्द, एवं हलन्तजिनके अन्त में व्यंजन अक्षर आये हों।
पर विशेषता यह है कि प्रयोग में हलन्त शब्द उपलब्ध नहीं हैं; अतः इनके स्थान पर भी शेष तीन प्रकार के शब्दों में से ही किसी प्रकार के शब्द का प्रयोग होता है। इस प्रकार प्राकृत में तीन ही प्रकार के शब्द-अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त व्यवहृत होते हैं।
(१) पुंलिंग में ह्रस्व अकारान्त शब्दों के आगे आनेवाली प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सुप्रत्यय के स्थान में ओ आदेश होता है। यथा
देवोद देवः; हरिअंदो< हरिश्चन्द्रः; जिणो जिनः; वच्छो वृक्षः आदि ।
(२) पुंलिंग के ह्रस्व अकारान्त शब्दों में जस् (प्रथमा बहुवचन ), शस् (द्वितीया बहुवचन ), ङसि ( पंचमी एकवचन ) और आम् (षष्ठी बहुवचन ) विभक्तियों में अन्त्य अ के स्थान में आ आदेश होता है तथा जस् और शस् विभक्तियों का लोप होता है । शस् प्रत्यय के रहने पर विकल्प से एत्व होता है । यथा
देव + जस् = देवा देवाः; देव + शस् = देवा, देवे - देवान् । . गउल + जस् = णउला ८ नकुलाः; पउल + शस् = णउला, णउले < नकुलान् ।
१. अत: सेडों: ८।३।२. हे। ३. टाण-शस्येत् पाश१४. हे०।
२. जस-शसोलुक ८।३।४. हे । ४. प्रमोस्य ८।३।५. हे ।
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१५०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण () ह्रस्व अकारान्त शब्दों से पर में आनेवाले अम् के अकार का लोप होता है। यथा
देव + अम् = देवं देवम्, णउल + अम् = णउलं< नकुलम् ।
( ४ ) हस्व अकारान्त शब्दों से पर में आनेवाले टा-तृतीया विभक्ति के एकवचन और आम्-षष्ठी के बहुवचन के स्थान में ण आदेश होता है और ट प्रत्यय के रहने से अ को एत्व हो जाता है। तृतीया एकवचन और पष्ठी के बहुवचन में ण के ऊपर विकल्प से अनुस्वार हो जाता है'। यथा
देव + दा = देवेण, देवेणं < देवेन; देव + आम् = देवाण, देवाणं ८ देवानाम् ।
(५) ह्रस्व अकारान्त शब्दों से पर में आनेवाले भिस् के स्थान में हि आदेश होता है और अकार को एत्व हो जाता है, तथा हि के ऊपर विकल्प से अनुनासिक और अनुस्वार भी होते हैं । यथा
देव + भिस् = देवेहि, देवेहि, देवहि देवैः। णउल + भिस् = णउलेहि, णउलेहि, णउलेहिं - नकुलैः ।
(६ ) ह्रस्व अकारान्त शब्दों से पर में आनेवाले ङसि—पंचमी एकवचन के स्थान में तो, दो, दु, हि और हिन्तो आदेश होते हैं। दो और दु के दकार का लुक भी होता है। जैसे
देव + ङसि = देवत्तो, देवादो-देवाओ, देवादु-देवाउ, देवाहि और देवाहिन्तो< देवात्य हाँ नियम २ के अनुसार अ का आत्व हुआ है।
(७ ) ह्रस्व अकारान्त शब्दों से पर में आनेवाले भ्यस-पंचमी बहुवचन के स्थान में तो, दो, दु, हिं, हिंतो और संतो आदेश होते हैं । तथा विकल्प से दीर्घ होता है। यथा
देव + भ्यस् = देवत्तो, देवादो-देवाओ, देवाउ,-देवाउ, देवाहि, देवेहि, देवाहितो, देवेहितो, देवेसुंतो, देवासुंतो देवेभ्यः ।
(८) ह्रस्व अकारान्त शब्दों से पर में आनेवाले डस्--षष्टी एकवचन के स्थान में 'स्स' आदेश होता है । यथा
देव + ङस् = देवस्सा देवस्य; णउल + ङस् = णउलस्सर नकुलस्य ।
(९) ह्रस्व अकारन्त शब्दों से पर में आनेवाले ङि–सप्तमी एकवचन के स्थान में ए और म्मि आदेश होते हैं तथा अकार को एत्व होता है । यथा
१. टा-प्रामोर्णः ८।३।६. हे०। ३. उसेस् त्तो-दो-दु-हि-हिन्तो लुकः
८।३।८ हे। ५. ङसः स्सः ८।३।१० हे।
२. भिसो हि हिँ हि ८।३।७. हे । ४. भ्यसस् त्तो-दो दु-हि-हिन्तो सुन्तो
८।३।६ हे। ६. डे म्मि : ८।३।११ हे।
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
देव + डि = देवे, देवेम्मद देवे; णउले, णउलम्मि (१०) हस्व अकारान्त शब्दों से पर में आनेवाले बहुवचन में हलन्त्यका लोप हो जाता है और अकार को विकल्प से अनुस्वार होता है । यथा
देव + सुप्= देवेसु, देवेसुं < देवेषु ।
( -११ ) उक्त नियमों के अनुसार पुंल्लिंग अकारान्त शब्दों के लिए विभक्तिचिह्न निम्नांकित हैं—
Ято
सं०
पढमा प्रथमा- - ओ
वीआ द्वितीया - तइआ < तृतीया - ण णं
प्राकृत विभक्ति चिह्न
एक०
बहु ०
चउत्थी < चतुर्थी – [य, आ,
ए विकल्पसे ] पंचमी - < पञ्चमी - त्तो, ओ, उ हि, हिंतो
एकवचन
K
छट्ठी षष्ठी - स सत्तमी सप्तमी - ए, म्मि संबोहण 4 संबोधन - आ, ओ, लुक् आ
<
सु, सु
छ - देवस्स
प० – देवो
वी० - देव
तदेवेण, देवेगं
च० – देवरस, (देवाय ) पं० — देवत्तो, देवाओ, देवाउ,
देवाहि, देवाहितो,
देवा
एक०
आ
सु
ए, आ
अम्
fa, fa, få 21 (371)
ण णं
ङ (ए)
स० – देवे, देवम्मि
-
सं हे देवो, हे देवा
त्तो, ओ, उ, ङसि (अ:) हि, हितो, सुतो
σ1, vi
डस् (अ:)
ङि (इ)
सु
अकारान्त शब्दों के रूप देव
नकुले ।
सुप् - सप्तमी विभक्ति के ऊपर
एत्व तथा सु
बहुवचन
संस्कृत विभक्ति चिह्न
बहु ०
जस् (आ: )
शस् ( आनू ) भिस् (भि:)
भ्यस् (भ्यः)
भ्यस् (भ्यः)
१५१
देवे, देवे
हे देवा
आम्
सुप् (स)
जस्
देवा
देवा, देवे
देवेद्द, देवेहि, देवेहि
देवाण, देवाण
देवत्तो, देवाओ, देवाउ, देवाहि, देवेहि, देवाहितो, देवेहितो, देवासुंतो, देवेसुंतो देवाण, देवाण
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एकवचन
१५२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण वीर
बहुवचन प०-वीरो
वीरा वी०-वीरं
वीरे, वीरा त०-बोरेण, वीरेणं
वीरेहि, वीरेहि, वीरेहि च-वीरस्स ( वीराय ) वीराण, वीराणं पं०-वीरत्तो, वीराओ, वीराउ, वीरत्तो, वीराओ, वीराउ, वीराहि, वीरेहि,
वीराहि, वीराहितो, वीरा । वीराहितो, वीरेहितो, वीरासुंतो, वीरेसुंतो छ०-वीरस्स
वीराण, वीराणं स०-वीरे, वीरम्मि ( वीरंसि ) वीरेसु, वीरेसं सं० हे वीरो, हे वीरा
हे वीरा
जिण (जिन) एकवचन
बहुवचन प०-जिणो
जिणा वी०-जिणं
जिणा, जिणे त:-जिणेण, जिणेणं जिणेहि, जिणेहि, जिणेहि च०-जिणस्स, जिणाय जिणाण, जिणाणं ५०-जिगत्तो, जिणाओ, जिणाउ, जिणत्तो, जिणाओ, जिणाउ, जिणाहि, जिणाहि, जिणाहितो, जिणा जिणेहि, जिणाहितो, जिणेहितो,
जिणासंतो, जिणेसंतो छ॰—जिणस्स
जिणाण, जिणाणं स०-जिणे, जिणम्मि, जिणंसि जिणेसु, जिणेसु सं०-हे जिणो, हे जिणा हे जिणा
वच्छ - वृक्ष
बहुवचन प०-वच्छो
ସ8 वी०-वच्छं
वच्छा, वच्छे त०-वछेण, वच्छेणं
वच्छेहि, वच्छेहि , वच्छेहि च०-वच्छस्स, वच्छाय
वच्छाण, वच्छाणं पं०-वच्छत्तो, वच्छाओ, बच्छाउ, वच्छत्तो, वच्छाओ, वच्छाउ, वच्छेहि, वच्छाहि, वच्छाहितो, वच्छा वच्छाहि, वच्छाहितो, वच्छेहितो,
वच्छासंतो, वच्छेसुंतो
एकवचन
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
__ १५३
१५३
छ०-वच्छस्स स०-वच्छे, वच्छम्मि, वच्छंसि सं० हे वच्छो, हे वच्छा
वच्छाण, वच्छाणं वच्छेसु, वच्छेसु हे वच्छा
धम्म <धर्म एकवचन
बहुवचन प०-धम्मो
धम्मा वी०-धम्म
धम्मा, धम्मे त०-धम्मेण, धम्मेणं धम्मे है, धम्मेहि", धम्मेहि च०-धम्मस्स, धम्माय धम्माण, धम्माणं पं०-धम्मत्तो, धम्माओ, धम्माउ धम्मत्तो,धम्माओ,धम्माउ,धम्माहि,धम्मेहि,
धम्माहि, धम्माहितो, धम्मा धम्माहितो,धम्मेहितो, धम्मासंतो, धम्मसंतो छ०-धम्मस्स
धम्माण, धम्माणं स०-धम्मे, धम्मम्मि, धम्मसि धम्मेसु, धम्मसु सं०-हे धम्मो, हे धम्मा हे धम्मा
अवमाण (अपमान), अलोग (अलोक), आयार (आचार), उज्जम (उद्यम), उवएस (उपदेश), कुढार (कुठार), कोह (क्रोध), चन्द (चन्द्र), जिणेसर, देह, नाय (न्याय), नरिंद (नरेन्द्र), निरय (नरक), बहिर (बधिर), बंभण (ब्राह्मण), भाव (भाव), मणोरह (मनोरथ), महिवाल (महिपाल), मिग, म. (मृग), मुक्ख, मोक्ख (मोक्ष), मेह (मेघ), रोस (रोष), लोभ (लोक), वह (वध), वम्मह (मन्मथ), बाह (व्याध), विणय (विनय), वीयराअ (वीतराग), संघ (सङ्घ), सज्जण (सज्जन), रूढ (सठ), सहाव (स्वभाव), सर (शर), सग्ग (स्वर्ग), सावग (श्रावक), हत्थ (हस्त), पायव (पादप), कच्छव (कच्छप), अहिव (अधिप), गिहत्थ (गृहस्थ), सुत्तगार (सूत्रकार), बुत्तिगार (वृत्तिकार), भासगार (भाष्यकार), सूरिअ (सूर्य), वरिअ (वर्य), सोरिअ (शौर्य), कसण, कसिण (कृष्ण), पज्जुण्ण (प्रद्युम्न), नमोक्कार (नमस्कार), सीह, (सिंह), वग्घ (व्याघ्र), सियाल, सिगाल (शृगाल), गय (गज), वसह (वृषभ), ओह (ओष्ठ), दंत (दन्त), कुंभार (कुंभकार), चम्मार (चर्मकार), लोह (लोभ), दोस (द्वेष), राग (राग), घड (घट), पड (पट), मढ (मठ) एवं मड आदि अकारान्त शब्दों के रूप देव, धम्म, वीर, वच्छ के समान ही चलते हैं। . साधारणत: चतुर्थी के रूप षष्ठी के समान ही होते हैं, पर संस्कृत के प्रभाव के कारण य और ए प्रत्यय संयुक्त रूप भी मिलते हैं। यथा-वहाय और वहाए।
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१५४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
एकवचन
आकारान्त शब्द (१२ ) आकारान्त शब्दों के रूप प्रायः ह्रस्व अकारान्त शब्दों के समान ही होते हैं, पर पंचमी विभक्ति में हि प्रत्यय नहीं जुड़ता है। तृतीया में एत्व भी नहीं होता।
आकारान्त हाहा शब्द
बहुवचन प०-हाहा
हाहा वी०-हाहां
हाहा त०-हाहाण, हाहाणं
हाहाहि, हाहाहिँ, हाहाहिं च०-हाहस्स, हाहणो हाहाण, हाहाणं पं०-हाहत्तो, हाहाओ, हाहाउ, हाहत्तो, हाहाओ, हाहाउ, हाहाहितो
हाहाहितो, हाहासुतो छ.-हाहणो, हाहस्स
हाहाण, हाहाणं स०-हाहम्मि
हाहासु, हाहासु सं०-हे हाहा
हे हाहा इसी प्रकार किलालवा (किलालपा), गोवा (गोपा) और सोमवा (सोमपा) शब्दों के रूप चलते हैं।
इकारान्त और उकारान्त शब्द ( १३ ) इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में सु, जस् , भिस् , भ्यस् और सुप् विभक्तियों के पर में रहने पर अन्त इ और उ को दोर्घ होता है।'
(१४ ) आचार्य हेमचन्द्र के मतानुसार इकारान्त और उकारान्त शब्दों में द्वितीया विभक्ति बहुवचन में शस् प्रत्यय का. लोप और अन्तिम स्वर को दीर्घ हो जाता है।
( १९) इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग शब्दों से पर में आनेवाले जस् के स्थान में ओ और णो आदेश होते हैं । कही-कहीं जस् का लुक भी हो जाता है।
(१६ ) आचार्य हेम के मतानुसार इकारान्त पुल्लिग शब्दों में जस् के स्थान में डित् , अउ, अओ आदेश और उकारान्त से केवल डित् , अओ आदेश होते हैं। णो
२. लुप्ते शसि ८।३।१८ हे।
१. इदुतो दीर्घः ८।३।१६ हे०। ३. जस्-शसोणों वा ८।३।२२ हे ।
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________________
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
१५५
आदेश भी होता है । डित् से यहाँ यह तात्पर्य है कि अन्त के इकार और उकार का लोप हो जाता है ।
१
( १७ ) इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग शब्दों से पर में आनेवाले शस और डस् के स्थान में विकल्प से णो आदेश होता है ।
२
( १८ ) इकारान्त और उकारान्त शब्दों से पर में आनेवाले टा - तृतीया एकवचन के स्थान में 'णा' आदेश होता है।
३
( १९ ) उकारान्त चउ < चतुर् शब्द से पर में आनेवाले भिस्, भ्यस् और सुप् विभक्ति को विकल्प से दीर्घ होता है ।"
४
( २० ) हेम के मत में इकारान्त और उकारान्त शब्दों में ङसि और ङस् के के परे रहने में विकल्प से णो आदेश होता है ।"
( २१ ) शेष रूपों की सिद्धि अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के समान ही होती है । इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग शब्दों के विभक्तिचिह्न
एकवचन
पढ़मा — प्रत्यय लुक्, दीर्घ
बीआ
तइया
-णा
उत्थी - णो, स
पंचमी - णो, तो, ओ, उ, घट्टी - णो, स्स
सत्तमी - मि, सि
-
"
संबोहण - ई, प्रत्ययलुक्
--
"
एकवचन
व-हरी
बी० - हरिं
-CP
हिंतो
- हरिणा
च० - हरिणो, हरिस्स पं - हरिणों, हरितो, हरीओ, हरी, हरीहितो
बहुवचन
अउ, अओ, णो, ई
oit, &
हि, हिँ,
हिं
ण, Οι
तो, ओ, उ, हिंतो, सुंतों
ण णं
सु, सु
अउ, अओ, गो, ई
इकारान्त हरि शब्द के रूप
बहुबचन
हरउ, हरओ, हरिणो, हरी
हरिणो, हरी
हरीहि, हरीहि, हरीक्षि
हरीण, हरीणं
हरितो, हरीओ, हरीउ, हरीहितो
हरीसंतो
१. पुंसि जसो डउ डग्रो वा ८।३।२० हे० । २. ङसो वा ५। १५ वर० ।
३. टोणा ८ । ३ । २४ हे० ।
४. चतुरो वा ८।३।१७ हे० ।
५. ङसि - ङसो: पुं-क्लीबे वा ८।३।२३ हे ।
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________________
१५६
छ० - हरिणो हरिस्स
स० - हरिम्मि, हरिसि हरि
सं० - हरी,
एकववच
प० - गिरी
वी० — गिरिं त—– गिरिणा
--
छ० –
च - गिरिणो, गिरिस्स
पं० - गिरिणो, गिरित्तो, गिरीओ, गिरीउ, गिरीति
- गिरिणो, गिरिस्स
स० - गिरिम्मि, गिरिंसि
सं० - गिरी, गिरि
एकवचन
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
इकारान्त गिरि शब्द के रूप
प० - रवई
वी० - नरवई
इकारान्त णरवइ (नरपति) शब्द के रूप
एकवचन
नवउ, णरवओ, णरवइणो, रवणो णरवई
"
त० - णरवइणा
च० - रवइणो, णरवइस्स
पं० - नरवणो णरत्रइन्तो,
परवईओ, नरवईड, नरवईहिंतो
छ० - णरवइणो, णरवइस्स सरवइम्मि, णरवइंसि
सं० - हे णरवई, हे णरवइ
प० - इसी वी० - इसिं
हरीण, हरीयां
हरी हरी
हरउ, हरओ, हरिओ, हरी
एकवचन
बहुवचन
गिरी, गिरओ, गिरड, गिरिणो गिरिणो, गिरी
गिरिहि, गिरिहि, गिरीहिं गिरीण, गिरीणं
गिरितो, गिरीओ, गिरीउ, गिरीहिंतो, गिरीसंतो गिरीण, गिरीणं
गिरी, गिरीसु
गिरड, गिरओ, गिरिणो, गिरी
णरवहि, णरवहिं णरवईहिं नरवईण, नरवईणं
णरवतो, णरवईओ, णरवईड, णरवईहिंतो नरवईसुतो णवण, व
णरवई, णरवसु
इकारान्त इसी रिसी (ऋषि)
हे णरवउ, हे परवओ, हे णरवहणो, हे णरवई
9
बहुवचन
इसओ, इसिणो, इसी
इस उ,
इस, इ
वई
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१५७
त०-इसिणा
इसीहि, इसीहि, इसीहिं च०-इसिणो, इसिस्स
इसीण, इसीणं पं०-इसिणो, इसित्तो, इसीओ, इसीउ, इसित्तो, इसीओ,
इसीहितो, इसीसुतो इसीउ, इसीहितो, इसीसुतो छ०-इसिणो, इसिस्स. इसीण इसीणं स०-इसिसि इसिम्मि इसीसु, इसी सं०-हे इसि, हे इसी हे इसउ, हे हसओ, हे इसिणो, हे इसी
इकारान्त अग्गि ( अग्नि) एकवचन
- बहुवचन प०-अग्गी
अग्गउ, अग्गओ, अग्गिणो. अग्गी वी०-अग्गि
अग्गिणो, अग्गी त०-अग्गिणा
अग्गीहि. अग्गीहि, अग्गीहिं च०-अग्गिणो, अग्गिस्त अग्गीण, अग्गीणं पं०-अग्गिणो, अग्गित्तो, अग्गीओ, अग्गित्तो, अग्गीओ, अग्गीउ,
अग्गीउ, अग्गिहितो अग्गिहितो, अग्गिसंतो छ०-अग्गिणो, अग्गिस्स अग्गीण, अग्गीणं स०-अग्गिसि, अग्गिम्मि अग्गीसु, अग्गीसु सं०-हे अग्गि, हे अग्गी हे अग्गउ, हे अग्गओ, हे अग्गिणो,
हे अग्गी
इसी प्रकार मुणि (मुनि), बोहि (बोधि), संधि, रासि (राशि), रवि, कइ (कवि) कवि (कपि), अरि, तिमि, समाहि (समाधि), निहि (निधि), विहि (विधि), दंडि ( दण्डिन् ) करि ( करिन् ), तवस्सि ( तपस्विन् ), पाणि (प्राणिन् ), पहि (प्रधी), सहि (सुधी) आदि शब्दों के रूप चलते हैं। प्राकृत में पहि, सुहि, गामणि प्रभृति कुछ शब्द हस्त्र और दीर्घ इकारान्त माने गये हैं। अत: विकल्प से इनके रूप अग्गि के समान भी चलते हैं।
एकवचन
उकारान्त भाणु (भानु) शब्द
बहुवचन भाणुणो, भाणवो, भाणओ, भाणउ, भाणू भाणुणो, भाणू
प०-भाण वी०-भाएं
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१५८
त-भाणुणा च० - भाणुणो, भाणुस्स पं० - भाणूणो, भाणुत्तो, भाणूओ भाणू, भाणूर्हितो छ० - भाणुणो, भाणुस्स
स-- भाणुंसि, भाणुम्मि
',
सं० - हे भाणु, हे भाणू
एकवचन
अभिनव प्राकृत व्याकरण
प०- वाऊ
वी० - वाउं
त-वाउणा
च० - वाउणो, वाउस्स पं० - वाउणो, वाउत्तो, वाउओ वाऊ, वाऊहिंतो
छ० - वाउणो, वाउस्स
स० - वाउंसि, वाउम्मि
सं०-हे वाउ, हे वाऊ
भागृह, भाहिँ, भाणू हिं
भाणूण, भाजू
भाणुत्तो, भाणूओ, भाणूड, भाणूहितो,
भाणूस तो
भाभा
उकारान्त वाउ (वायु) शब्द
बहुवचन
वाणो, वाउचो, वाउओ, वाऊ
वाणो, वाऊ
वाहि, आऊहिँ, वाऊहिं वाऊणं
वाऊण,
वाउत्तो, वाऊओ, वाऊउ, वाऊहितो,
वाऊसुतो
भाणूस, भाणूसु
हे भाणुणो, हे भाणवो, हे भाणओ,
हे भाणउ
वाऊण, वाऊणं
वासु, वाऊ
हे वाउलो, हे वाउवो; हे वाउसो, हे वाऊ
इसी प्रकार जउ (यदु ), धम्मण्णु (धर्मज्ञ), सव्वण्णु (सर्वज्ञ) दवण्णु (दैवज्ञ ), गउ (गो), गुरु, साहु (साधु), बन्धु, वपु ( वपुष् ), मेरु, कारू, धणु ( धनुष ), सिंधु, के (केतु), विज्जु (विद्युत), राहु, संकु (शङ्कु), उच्छु (इक्षु), पवासु ( प्रवासिन् ), वेल (वेगु), सेउ (सेतु), मच्चु (मृत्यु), खरुपु ( खलपू ), गोत्तभु (गोत्रभू), सरभु (शरभू), अभिभु ( अभिभू ) और सयंभु (स्वयम्भू) आदि शब्दों के रूप चलते हैं । प्राकृत में खलपू, गोत्तभू, सरभू, अभिभू, और संयभू शब्द विकल्प से हस्व उकारान्त होते हैं । अतः इन शब्दों के रूप वाउ के समान भी चलते हैं ।
ईकारान्त और ऊकारान्त शब्दों के रूप भी इकारान्त और उकारान्त शब्दों के समान होते हैं । हेमचन्द्र ने दीर्घ ई, ऊ के लिए हस्व का विधान किया है और संबोधन के एकवचन में अपने नियम को वैकल्पिक माना है ।
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प० -पही
वी० - पहि
एकवचन
त०- - पहिणा
च० - पहिणो, पहिस्स
पं० – पहिणो, पहित्तो, पहीओ पहीहिंतो
पहीउ,
अभिनव प्राकृत व्याकरण
दीर्घ ईकारान्त पही (प्रधी) शब्द
बहुवचन
पहउ, पहओ, पहिणो, पद्दी पहिणो, पही
पीहि, पद्दीहि, पहीहिं
पहीण, पहीणं
पहित्तो, पीओ, पीउ
पहीहिंतो, पहीसुतो पक्षीण,
पही
पी, पीसु
हे पहउ, हे पहओ, हे पहिणो, हे पही ।
छ० – पहिणो, पहिस्स
स०- - पहिम्मि, पहिसि सं० - हे पहि
प०
दीर्घ ईकारान्त गामणी ( ग्रामणी )
बहुवचन
एकवचन
पः - गामणी
वी० - गामणि
त- गामणिणा
च० -- गामणिणो, गामणिस्स पं: - गामणिणो, गामणित्तो, गामणीओ, गामगीउ, गामणीहिंतो
छ० - गामणिणो, गामणिस्स स० - गामणिम्मि, गामजिसि सं०- हे गामणी
खलपू
एकवचन
वी० - खलपुं
त० - खलपुणा
गामण, गामणओ, गामणिणो, गामणी गामणिणो, गामणी
१५९
गामगीदि, गामणिद्दि, गामणीहि गामणीण, गामणी
गामणित्तो, गामणीओ, गामणीउ, गामणीहितो, गामणी संतो ग्रामीण, गामणी
गामी, गामणीसु
हे गामण, हे गामणओ, हे गामणिणो, हे गामणी
दीर्घ ऊकारन्त खलपू शब्द
बहुवचन
खलपत्रो, खलपउ, खलपओ,
खलपुणो, खलपू
खलपू,
पुणो, पूहि, खलपूर्हि, खलपूर्हि
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१६०
च - खलपुणो, खलपुस्स पं० – खलपुणो, खलपुत्तो, खलपूओ खलपूर, खलपूर्हितो
अभिनव प्राकृत व्याकरण
छ० - खलपुणो, खलपुस्स स० - खलपुम्मि, खलपु सि
सं०-हे खलपू
एकवचन
प० – सयंभू
दीर्घ ऊकारान्त सयंभू (स्वयम्भू ) शब्द
बहुवचन
सभवो, सयंभर, सभओ, सयंभुणी,
सभू
बी० - सयंभुं तसभुणा
च० - सयंभुणो, सयंभुस्स
पं० -- सयंभुणो, सयंभुत्तो, सयंभूओ, भू, सयंभूद्दितो
छ० - सयंभुणो, सयंभुस्स
स० – सयंभुमि, सयंभु सि
सं० - हे सयंभु
-
खलपूर्ण, खलपूर्ण खलपुत्तो, खलपूओ, खलपूर, खलपूर्छितो, खलपूसंतो
खलपूण, खलपूर्ण
खलपूसु, खलपू सु हे खपवो, हे खलप
हे खलपओ, हे खलपुणो, हे खलपू
१. श्रारः स्यादौ – ८ । ३।४५ हें० ।
२. ऋतामुदस्य मौसुवा - ८।३।४४ हे० |
भुणो, सभू
भू, भूसभूहिं
सभूण, सयंभूणं
सयंभुत्तो, सयंभूओ, सयंभूउ, सयंभूहितो, सयंभू संतो
भूण, भू सयंभू, सयंभू
हे सभवो, सयंभ, सयंभओ, भुसभू
ऋकारान्त पुल्लिंग शब्द
(२२) ऋकारान्त शब्दों के आगे किसी भी विभक्ति के आने पर अन्त्य ऋ के स्थान पर 'आर' आदेश होता है और उसके रूप अकारान्त शब्दों के समान चलते हैं।
३
1
( २३ ) सु और अम् को छोड़कर शेष सभी विभक्तियों में ऋकारान्त शब्द के अन्त्य ऋ के स्थान में विकल्प से उकार होता है । उत्वपक्ष में उकारान्त शब्दों के समान रूप होते हैं।
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१६१
( २४ ) सम्बोधन एकवचन में प्रकारान्त शब्दों के अन्तिम के स्थान पर विकल्प से अ आदेश होता है। पर जो ऋकारान्त शब्द विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है, उसके स्थान पर यह नियम लागू नहीं होता। अकारान्त शब्दों में सु विभक्ति के परे विकल्प से 'आ' आदेश होता है । .
( २६ ) पितृ, भ्रातृ और जामातृ शब्दों से पर में किसी भी विभक्ति के आने पर प्रकार के स्थान में भार आदेश न होकर अर आदेश होता है । अर आदेश होने पर भी रूप अकारान्त के समान ही चलते हैं।
(२६ ) प्रथमा एकवचन में अकारान्त शब्दों के ऋ के स्थान पर विकल्प से आ आदेश होता है।
(२७) अकारान्त होने पर ऋकारन्त शब्दों के रूप अकारान्त जिण के समान और उकारान्त हो जाने पर 'भाणु' के समान होते हैं। विभक्तिचिह्न भी अकारान्त और उकारान्त शब्दों के समान ही जोड़े जाते हैं।
ऋकारान्त कत शब्द--कत्तार और कत्त एकवचन
बहुवचन प०-कत्ता, कत्तारो
कत्तारा, कत्तवो, कत्तओ, कत्तउ,
कत्तुणो, कत्तू बी० कत्तारं
कत्तारे, कत्तारा, कत्तुणो, कत्तू त०-कत्तारेण, कत्तारेणं, कत्तुणा कत्तारेहि, कत्तारेहि", कत्तारेहि, कत्तहि,
कत्तूहि, कत्तूहि च०-कत्ताराय, कत्तारस्स, कत्तुणो, कत्ताराण, कत्ताराणं, कत्तूण, कत्तूणं
पं०-कत्तारत्तो, कत्ताराओ, कत्ताराउ, कत्तारत्तो, कत्ताराओ, कत्ताराउ,
कत्ताराहि, कत्ताराहितो, कत्तारा, कत्ताराहि, कत्ताराहितो, कत्तारासुतो, कत्तुणो, कत्तुत्तो, कत्तुओ, कत्तूउ, कत्तारेहि, कत्तारेहितो, कत्तारेसुतो, कत्तूहितो
कत्तुत्तो, कत्तुओ, कत्तूड, कत्तूहिन्तो,
कत्तसुन्तो छ०-कत्तारस्स, कत्तणो, कत्तुस्स कत्ताराण, कत्ताराणं, कत्तूण, कत्तूणं स-कतारे, कत्तारम्मि, कत्तुम्मि कत्तारेसु, कत्तारेसु, कत्तूसु, कतूमुं सं०-हे कत्त, हे कत्तारो हे कत्तारा, हे कत्तवो, हे कत्तओ, हे कत्तउ,
कत्तणो, कत्त १. ऋतोद्वा ८।३।३६ हे० ।
२.प्रा सौ न वा ८।३।४८. हे० । ३. पितृभ्रातृजामातुणामर: ५।३४. वर०। ४. पाच सौ ५॥३५. वर० ।
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________________
१६२
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
भर्तृ - - भत्तार, भत्तर, भत्त शब्द
बहुवचन
भत्तणो, भत्तरा, भत्तवो, भत्तओ,
भत्तउ,
भत्त
भत्तारे, भन्तरे, भन्तारा, भत्तू, भन्तुनो भत्तारेहि, भन्तरेद्दि भत्तारेद्दि भत्तरेद्दि, भत्तारेहिं, भत्तरेद्दि, भस्तूद्दि भत्तूहि ",
एकवचन
प० - भत्ता, भत्तारो, भत्तरो
वी० - भत्तारं, भत्तरं त०–भत्तरेण, भत्तारेण, भन्तुना
भत्तर्हि
च०-भत्तारस, भन्त्तरस्स, भत्तणो, भत्तणं, भत्तण, भत्ताराणं, भत्ताराण,
भत्तराखं, भन्तराण
भत्तुस्स पं० – भत्तरत्तो, भत्तराओ, भत्तराउ, भत्तराहि, भन्तराहिन्तो, भत्तृणो, भसुतो, भराओ, भत्तउ, भत्तूहिन्तो, भत्ताराओ, भत्ताराउ, भत्ताराहि भत्ताराहिन्तो, भत्तारा
छ० - भत्तरस्स, भत्तारस्स, भत्तणो,
भत्तुस्स
सभन्तरे, भत्तरम्मि, भत्तारे, भत्तारम्मि, भत्तुमि
सं०—हे भत्त, हे भत्तर, हे भन्तरो,
हे भत्तार
एकवचन
प० - भाया,
भायरो
ܘ
7
वी० - भायरं
त० - भायरेण, भायरेणं, भाउगा
भत्तरतो, भत्तराओ, भत्तराउ, भत्तराहि भत्तराद्दिन्तो, भत्तरासुन्तो, भन्तरेद्दि, भत्तरे हिन्तो, भत्तरेसुन्तो, भत्तुत्तो, भत्तओ, भत्तूउ, भत्तूहिन्तो, भत्तसुन्तो
भ्रातृ-- भायर भाउ शब्द
बहुवचन
भायारा, भाअवो, भाअओ, भाअउ, भाणो, भाऊ
भायरे, भायरा, भाउणो, भाऊ
भायरेहि, भायरेहि, भायरेहिं, भाऊ हि,
भत्तराण, भत्तराणं, भत्ताराण, भत्ताराणं, भत्तूण, भत्तू
भत्तरेसु भत्तरेसु, भत्तारेसु, भत्तारेसु', भत्तू, भत्त
हे भन्तरा, भत्तारा, हे भत्तणो, त
भाऊ,
भाऊ
च० - भायराय, भायरस्स, भाउणो, भायराण, भायराणं, भाऊण, भाऊणं
भाउस्स
Page #194
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१६३ पं०-भायरत्तो, भायराओ, भायराउ, भायरत्तो, भायराओ, भायराउ, भायराहि,
भायराहि, भायराहिन्तो, भायराहिन्तो, भायरासुन्तो, भायरेहि, भायरा, भाउणो, भाउत्तो, भायरेहिन्तो, भायरेसुन्तो, भाउत्तो,
भाऊओ, भाऊउ, भाऊहिन्तो भाऊओ, भाऊउ, भाऊहिन्तो, भाऊसुन्तो छ०–भायरस्स, भाउणो, भाउस्स भायराण, भायराणं, भाऊण, भाऊणं स०–भायरे, भायरम्मि, भाउम्मि भायरेसु, भायरेसु, भाऊसु, भाऊतुं सं०-हे भाय, भायर, भायरो, भायरं भायरे, भायरा, भाअवो, भाअओ,
भाअउ, भाऊणो, भाऊ
पितृ--पिउ, पिअर शब्द एकवचन
बहुवचन प०-पिअरो, पिआ (पिता) पिअरा, पिउणो, पिअवो, पिअभो,
पिअउ. पिऊ वी०-पिअरं
पिअरे, पिअरा, पिउणो, पिऊ त०-पिअरेण, पिअरेणं, पिउणा पिअरेहि, पिअरेहि, पिअरेहि, पिऊहि,
पिऊहिं, पिऊहि च०-पिअरस्स, पिउणो, पिउस्स पिअराण, पिअराणं, पिऊण, पिऊणं पं०-पिअराओ, पिअराउ, पिअरा, पिअराओ, पिअराउ, पिअरादि, पिअरेहि, पिउणो, पिऊओ, पिऊउ पिअराहितो, पिअरेहितो, पिअरासुंतो,
पिअरेसंतो, पिऊओ, पिउसंतो, पिउउ,
पिऊहितो छ०-पिअरस्स, पिउणो, पिउस्स पिअराण, पिअराणं, पिऊण, पिऊणं स०-पिऊरंसि, पिअरम्मि, पिअरे, पिअरेसु, पिअरेसुं, पिऊसु, पिऊसुं
पिउसि, पिउम्मि सं०-पिअरं, पिअ, पिअरो, पिअरा, पिउणो, पिअवो, पिअओ, पिअउ, पिउ पिअर
दातृ--दाउ, दायार शब्द एकवचन ५०-दायारो, दाया ..---दायारा, दाउणो, दायवो, दायओ, दायर,
दाऊ
बहुवचन
Page #195
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________________
१६४
वी० - दायारं
त० - दायारेण, दायारेणं, दाउणा
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
च० - दायारम्स. • दाउणो, दाउस्स पं० - दायाराओ, दायाराउ, दायारा, दाउणो, दाऊओ, दाऊड
,
सं० - दायार, दाय, दायारो, दायारा
--
छ० - दायारस्स, दाउणो, दाउस्स
दायाराण, दायाराणं, दाऊण, दाऊ
स - दायारंसि, दायारम्मि, दायारे दायारेसु, दायारे, दाऊ, दाऊ
दाउसि दाउम्म
एकवचन
दायारा, दाउणो, दायवो, दायओ,
दाय, दाऊ
एकारान्त, ऐकारान्त, ओकारान्त और औकारान्त
प०
- सुरेओ वी० - सुरेअं
दायारे, दायारा, दाउणो, दाऊ दायारेहि, दायारेहिं, दायारेहि, दाऊद्दि, दाऊहिं, दाऊ
पुल्लिंग शब्द
( २८ ) प्राकृत में एकारान्त और ओकारान्त शब्दों का प्रायः अभाव 1 संस्कृत के एकारान्त और ओकारान्त शब्दों में स्वार्थिक क - अ प्रत्यय जोड़ने से प्राकृत शब्द बनते हैं, पर उनके रूप जिण शब्द के समान होते हैं ।
( २ ९ ) संस्कृत के ऐकारान्त और औकारान्त शब्द प्राकृत में अकारान्त हो जाते हैं, अतः इनके रूप प्रायः वीर या जिण शब्द के समान चलते हैं ।
दायाराण, दायाराणं, दाऊण, दाऊयां दायाराओ, दायाराउ, दायाराहि, दायारेहि, दायाराहिन्तो, दायारेहितो, दायारासुंतो, दायारेसंतो, दाऊओ, दाऊड, दाऊहितो, दाऊसुंतो
त० - पुरेपण, सुरेएणं
च० - सुरेअस्स, सुरेआय
पं० सुरेअन्तो. सुरेआओ, सुरेआउ, सुरेाहि, सुरेआर्हितो, सुरेआ
ऐकारान्त सुरै सुरेअ शब्द
K
बहुवचन
छ० – सुरेअस्ल
स० – सुरेअंसि, सुरेअम्मि सं० - हे सुरेओ
सुरेआ
सुरे, सुरेए
सुरेएहि, सुरेएहि, सुरे एहि सुरेआण, सुरेआ
सूरेअन्तो, सुरेआयो, सुरेआउ, सुरेआहि सुरेएहि, सुरेआहिन्तो, सुरेआसुन्तो सुरेआण, सुरेआ
सुरे, सुरे हे सुरेआ
Page #196
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
- १६५
औकारान्त ग्लौ<गिलोअ शब्द एकवचन
बहुवचन प०-गिलोओ
गिलोआ वी०-गिलो
गिलोए, गिलोआ त०-गिलोएण, गिलोएणं गिलोएदि, गिलोएहि, गिलोएहिँ च०-गिलोअस्स, गिलोआय गिलोआण, गिलोआणं पं०-गिलोअत्तो, गिलोआओ, गिलोअत्तो, गिलोआओ, गिलोआउ,
गिलोआउ, गिलोआहि, गिलोआहि, गिलोएहि, गिलोआहितो,
गिलोआहिन्तो, गिलोआ गिलोआसुतो, गिलोएहितो, गिलो सुतो छ-गिलोअस्स
गिलोआण, गिलोआणं स.-गिलोअंसि, गिलोअम्मि गिलोएसु, गिलोएसं सं०-हे गिलोओ
हे गिलोआ स्वरान्त पुंल्लिङ्ग शब्दरूप समाप्त ।
स्वरान्त स्त्रीलिङ्ग ( ३० ) स्त्रीलिंग शब्दों से पर में आनेवाले जस् और शस् के स्थान में विकल्प से उत् और ओत आदेश होते हैं और उनसे पूर्व के ह्रस्व स्वर को विकल्प से दीर्घ हो जाता है।
(३१) स्त्रीलिङ्ग में टा, डस् और डि में प्रत्येक के स्थान में अत् , आत् , इत् और एत् ये चार आदेश होते हैं। पूर्व के ह्रस्व स्वर को दीर्घ हो जाता है। पर उस् प्रत्यय के स्थान में आदेश होनेपर पूर्व के हस्व स्वर को विकल्प से दीर्घ होता है।
( ३२ ) अम् विभक्ति में-द्वितीया एकवचन में अन्तिम दीर्घ को विकल्प से हस्व होता है।
(३३ ) स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान दीर्घ ईकारान्त शब्द से पर में आनेवाले सु, जस् और शस् के स्थान में विकल्प से आ आदेश होता है ।
(३४ ) संबोधन में आकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों में आ के स्थान पर एत्व होता है।
१. स्त्रियामुदोतौ वा ८।३।२७ हे० २. टा-ङस्-ङरदादि देद्वा तु ङसेः ८।३।२६ हे०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में जोड़े जानेवाले विभक्ति चिह्न
एकवचन
प०- (लुक् ) वी० -
त० - अ, इ, ए
च०-अ, इ, ए,
पं० - अ, इ, ए, तो, ओ, उ, हिन्तो त्तो, ओ, उ, हिन्तो, सुन्तो
छ० - अ, इ, ए
ण णं
स० - अ, इ, ए
सं०- ( लुक् )
एकवचन
प० - लदा वी० लं
------
तलदाए, लदाइ, लढाअ
च० -- लदाए, लदाइ, लदाअ
)
पं० - लदाए, लदाइ, लदाअ, लदत्तो, लदाओ, लदाउ, लदाहिन्तो
छ० - लदाए, लदाइ, लदाअ
स० - लदाए, लदाइ, लदाअ सं०-हे लदे हे लदा
एकवचन
प० - माला वी० - माल
बहुबचन
उ, ओ, (लुक् )
उ, ओ, (लुक् ) हि, हिं, हि
σ, oi
लदा <लता शब्द
सु, सु
उ, ओ, ( लुक् )
त० - मालाअ, मालाइ, मालाए च० मालाअ, मालाइ, मालाए पं० - मालाअ, मालाइ, मालाए, मालत्तो, मालाओ, मालाउ, माला हितो
बहुवचन
लदा, लाओ, लदाउ
लदा, लदाओ, लदाउ
दाह, दाहिं, दाहिं
लदाण, लदाणं
लदत्तो, लदाओ, लदाउ, लदाहिन्तो,
लदासुन्तो
लदाण,
लदा, दा
हे लदा, हे लदाओ, हे लदाउ
माला
लदाणं
बहुवचन
मालाड, मालाओ, माला मालाउ, मालाओ, माला मालाहि मालाहिं, मालाहि मालाण, मालाणं मालतो, मालाओ, मालाउ, मालाहिन्तो, मालान्तो
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१६७
एकवचन
छ०-मालाअ, मालाइ, मालाए मालाण, मालाणं स०- , , , मालासु, मालासुं सं०-माले, माला
मालाओ, मालाउ, माला छिहा (स्पृहा)
बहुवचन प०-छिहा
छिहाउ, छिहाओ, छिहा वी०-छिहं त–छिहाभ, छिहाइ, छिहाए छिहाहि, छिहाहि , छिहाहि च०-, , , छिहाण, छिहाणं प०-छिहाअ, छिहाइ, छिहाए, छिहतो, छिहाओ, छिहाउ, छिहाहिन्तो,
छिहत्तो, छिहाओ, छिहाउ, छिहासुन्तो
छिहाहिन्तो छ०-छिहाअ, छिहाइ, छिहाए छिहाण, छिहाणं
" " " छिहासु, छिहासं सं०-छिहे, छिहा
छिहाउ, छिहाओ, छिहा ____ हलिद्दा, हलद्दा (हरिद्रा) एकवचन
बहुवचन प०-हलिहा
हलिहाउ, हलिहाओ, हलिहा वी०-हलिई त०-हलिहाअ, हलिद्दाइ, हलिहाए हलिहाहि, हलिहाहि, हलिहाहि
हलिहाण, हलिहाणं .
हलिहत्तो, हलिहाउ, हलिदाओ, हलिहत्तो, हलिहाओ, हलिदाउ, हलिहाहिन्तो, हलिहासुन्तो
हलिहाहिन्तो छ०-हलिद्दाअ, हलिहाइ, हलिहाए हलिहाण, हलिहाणं स०- , , , हलिहासु, हलिहासं सं०-हलिहे, हलिहा . हलिहाउ, हलिहाओ, हलिहा
मट्टिआ (मृत्तिका) एकवचन
बहुवचन प०--महिआ
महिआट, मट्टिआओ, मट्टिा पी०--महि..
" " "
च०- पं०-
, ,
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण त०-मट्टिाअ, मटिआइ, महिआए - मद्विआहि, मट्टिआहिं, मट्ठिआहि' च०- , , , महिआण, मट्टिआणं पं०- , , , मटिअत्तो, मट्टिआओ मटिअत्तो, अटिआओ, मटिआउ, मटिआउ, मट्टिआहिन्तो, मट्टिआसुन्तो
मट्टिआहिन्तो छ०–मटिआअ, मटिआइ, महिआए महिआण, मटिआणं स०- , , , मट्टिआसु, मट्टिआसं सं-हे मट्टिए, मट्टिा हे मटिआउ, मटिआओ, मट्टिआ
इकारान्त स्त्रीलिंग विभक्तिचिह्न-प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प०-( लुक् )
उ, ओ, (लुक्) वी०-म् त०-अ, आ, इ, ए च०- , ". पं०- ,, ,, तो, ओ, उ, हिन्तो तो, ओ, उ, हिन्तो, सुन्तो छ०- , ,
ण, णं स०- , सं०-ई ( लुक् )
उ, ओ ( लुक् ) . ___ मई (मति) एकवचन
बहुवचन प०-मई
मईउ, मईओ, मई वो०-मई
, , , त०-मईअ, मईआ, मईइ, मईए मईहि, मईहि, मईहिं च०- , , , मईण, मईणं पं०- , . , . , मइत्तो, मईओ, मईउ, ____ मइत्तो, मईओ, मईउ, मईहितो मईहिन्तो, मईसुन्तो छ०-मईभ, मईमा, मईइ, मइए मईण, मईणं स०- , .
मईसु, मईस सं०-हे मई, मइ
हे मईउ, मईओ, मई
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१६९
मुचि (मुक्ति) प०-मुत्ती
मुत्तीउ, मुत्तीओ, मुत्ती वी०-मुर्ति त०-मुत्तीअ, मुत्तीआ, मुत्तीइ, मुत्तीहि, मुत्तिहि, मुत्तीहि
मुत्तीए च०- , " "
मुत्तीण, मुत्तीर्ण पं०- , ,
मुत्तित्तो, मुत्तीओ, मुत्तीउ, मुत्तित्तो, मुत्तीओ, मुत्तोउ, मुत्तीहिन्तो, मुत्तीसुन्तो
मुचीहिन्तो छ०-मुनीम, मुत्तीओ, मुत्तीइ, मीत्तए, मुत्तीण, मुत्तीअं स०- , , , मुत्तीसु, मुत्तसं सं०-हे मुत्ती, मुत्ति
मुत्तीउ, मुत्तीओ, मुत्ती
राइ (रात्रि) एकवचन
बहुवचन प०-राई
राईओ, राईउ, राई वी०-राई
, , त०-राईभ, राईआ, राईइ, राईए. राईहि, राईहि, राईहिं च०- , , , , राईण, राईणं पं०-राईअ, राईआ, राईइ, राईए, राइतो, राईओ, राईउ, राईहिन्तो,
राईतो, राईओ, राईउ, राईहिन्तो राईसुन्तो छ०-राईअ, राईआ राईइ, राईए राईण, राईणं स०- , , , , राईसु, राईसु सं०-हे राई, राइ
हे राईउ, राईओ, राई ईकारान्त स्त्रीलिंग विभक्तिचिह्न-प्रत्यय एकवचत
बहुवचन प०-[लुक् ], आ
आ, उ, ओ, [ लुक्] वी०-में त०-अ, आ, इ, ए हि, हि, हिं च०-, , ,"
ज, पंपं०-, , ,"
तो, ओ, उ, हिन्तो, सुन्तो तो, ओ, उ, हिन्तो -...
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
छ० - अ, आ, इ, ए
स० –,,
"
सं० - [ लुक् ]
एकवचन
प० - लच्छी, लच्छीआ वी० - लछि
59 27
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
01, oi
सु, सुं
आ, उ, ओ [ लुक् ]
"
स० – ”
सं०-हे लच्छि
35
""
त०.
० लच्छीअ, लच्छीआ, लच्छीइ, लच्छीए लच्छीहि, लच्छीहिँ,
लच्छीण, लच्छीणं
च० "
पं०—,,
लच्छितो, लफडीओ, एडीड,
लच्छी (लक्ष्मी)
""
"
"
"
"
"
लच्छतो, लच्छिओ, लच्छीउ, लच्छी हिन्तो, लच्छी सुंतो
लच्छतो
""
"
बहुवचन
लच्छी, लच्छीउ, लच्छीओ, लच्छी
छ० लच्छीअ, लच्छीओ, लच्छीड़, लकडीए लच्छीण, लकड़ीणं
छी, ली
हे लच्छीओ, एफडी, लकड़ीओ, लकड़ी
एकवचन
प० - रुप्पिणी, रुप्पिणीआ
वी० रुप्पिणि
त० - रुप्पिणीअ, रुप्पिणीआ, रुपिणी, रुप्पणीए
च० - रुप्पिणीअ, रुप्पिणीआ, रुपिणी, रुप्पिणी
पं० - रुप्पिणीअ, रुप्पिणीआ,
""
99
लच्छि
रुप्पिणी ( रुक्मिणी)
99
बहुवचन
रुप्पिणीआ, रुप्पिणीउ, रुप्पिणीओ, रुपिणी
रुप्पिणीआ, रुप्पिणीउ, रुप्पिणीओ, रुपिणी रुप्पिणीहि रुप्पिणीहि, रुप्पिणी हिं
रुपिणीण, रुपिणी
रूपिणित्तो, रुपिणीओ,
रुपिणी, रुपिणीए रुप्पिणित्तो, रुप्पिणीउ, रुप्पिणी हिन्तो,
रुपिणी सुन्तो
रूपिणीओ, रुपिणीओ, रुपिणीउ, रुपिणी हिन्तो
रुप्पिणीण, रुप्पिणीनं
छ० - रुप्पिणीअ, रुप्पिणीआ, रुपिणी, रुप्पिणीए
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
स० रुप्पिणीअ, रुप्पिणीआ, रुपिणी, रुपिणीए
सं०—हे रुप्पिणि
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
एकवचन
प० - बहिणी, बहिणीआ वी० - बहिण
●
""
"
त० - बहिणीअ, बहिणीआ, बहिणीह, बहिणीहि, बहिणीहि, बहिणीहिं
बहिणीए
च० - बहिणीअ, बहिणीआ, बहिणीइ, बहिणीण, बहिणीणं
बहिणीए
एकवचन
बहिणी ( भगिनी)
रुपिणी, रुपिणीसु
"
च०
पं०
"
बहिणित्तो, बहिणीओ, बहिणीउ, बहिणीसुन्तो, बहिणीहिंतो बहिणीहितो
हे रुप्पिणी, रुप्पिणीउ, रुप्पिणीओ, रुपिणी
छ० - बहिणीअ, बहिणीआ, बहिणीइ, बहिणीण, बहिणीनं
बहिणी
स०- बहिणीअ, बहिणीआ, बहिणीह, बहिणीस, बहिणीसु
बहिणी सं०—हे बहिण
बहुवचन
बहिणीआ, बहिणीउ, बहिणीओ, बहिणी
बहिणित्तो, बहिणीओ, बहिणीउ,
39
29
वेणुत्तो, घेणूओ, घेणूड, पेणूद्दिन्तो
बहिणी, बहिणीउ, बहिणीओ,
बहिणी
उकारान्त स्त्रीलिंग घेणु - शब्द
बहुवचन
घेणूड घेणूओ, घेणू
प० - घेणू
वी० - धेनुं
""
"
"
त० - घेणून घेणूभा, घेणूह, घेणू घेणूद्दि, घेणू हि घेणू हि
वेणूण घेणूणं
घेतो, पेणूओ, पेणूड, घेणू हिन्तो,
घेणू सुन्तो
१७१
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
छ० - घेणूअ, घेणूआ, घेणूइ, घेणूए घेणूण, घेणूणं
घेणू सु, घेणू सु
स०
सं० – हे घेणू,
एकवचन
101
पंः
99
प०-- तणू
वी० - तनुं
""
"
त०-तणूअ, तणूआ, तणूह, तणूए तणूहि, तणूहि, तर्हि
دو
वेणु
एकवचन
च०पं०
27
99
तणुसो, तणूओ, तणू, तद्दिन्तो
छ०-- तणूअ, तणूआ, तणूइ, तणूए
स०
"
सं०- हे तणू, तणु
19
""
29
39
रज्जु
एकवचन
प० - बहू, बहूआ वी० - - बहु
19
"
39
39
प० -- रज्जू
वी० - रज्जुं
"
"
93
त० – रज्जूअ, रज्जूआ, रज्जूइ, रज्जूए रज्जूहि, रज्जूद्दि, रज्जूर्हि
95
तणु
"
रज्जुत्तो, रज्जूओ, रज्जूउ, रज्जूहिंतो
"
रज्जु
"
छ० - रज्जूअ, रज्जूआ, रज्जूइ, रज्जूए
स०
""
सं०-हे रज्जू,
उ घेणूओ, वेणू
"
बहुवचन
तणूर, तणूओ, तणू
39
त
तणुत्तो, तणूओ, तणूर, तणू हिन्तो,
तणूसुन्तो तणूण, तणूणं
तणू सु
हेत, तणूओ, तणू
बहुवचन
रज्जूर, रज्जूओ, रज्जू
रज्जूण, रज्जूणं
रज्जुत्तो, रज्जूओ, रज्जूड, रज्जूद्दिन्तो, रज्जू संतो
रज्जूण, रज्जूर्ण
रज्जू, रज्जू
हे रज्जूड, रज्जूओ, रज्जू
ऊकारान्त स्त्रीलिंगशब्द
बहू
बहुवचन
बहूआ, बहूउ, बहूओ, बहू
"
33
"
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
त० - बहूअ, बहूआ, बहूद्द, बहूए
च० – ”
पं०
च०
-ob
,,
बहूत्तो, बहूओ, बहूउ, बहूहिन्तो
""
छ० - बहूअ, बहुआ, बहूद्द, बहुए स०
सं० - हे बहु
""
""
""
99
एकवचन
प० - सासू, सासूआ बी० - सासु
त० पासू, सासूआ, सासू, सासूए
""
""
""
,,
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
""
."
""
""
"
99
9.5
छ० – सासू, सासूआ, सासू, सासूए
स०
सं० - सासु
99
सासुत्तो, सासूओ, सासू, सासूद्दिन्तो
सासू ( श्वश्रू )
७
""
एकवचन
प०--चमू, चमूआ
वी० चमुं
त० - चमूअ, चमूआ, चमूह, चमूए
च०
पं०
99
""
""
बहूण, बहू
बहूबहू हे बहुआ, बहूउ,
छ०-- चमूअ, चमूआ, चमूह, चमूए
""
स०
सं० - है, चमु
बहूहि, बहू बहूि
"
बहूण, बहूणं
बहुत, बहूओ, बहुउ, बहू हिन्तो,
बहून्तो
चमू
""
99
चमुत्तो, चमूओ, चमूड, चमूद्दिन्तो
बहुवचन
सासूआ, सासू, सासूओ, सासू
""
बहूओ,
""
सासू, सासू, सासू हिं
सासू, सासू
सासुत्तो, सासूओ, सासू, सासूद्दिन्तो, सासूसुन्त
सासूण, सासूनं
सासूसु, सासू
हे सासू, सासू, सासूओ, सासू
29
बहुवचन
चमूआ, चमूउ, चमूओ, चमू
3.3
99
99
- चमूहि, चमूहि, चमूहि चमूण, चमू
चमुत्तो, चमूओं, चमूउ, चमूहिन्तो, चमन्तो
१७३
मूण, चमू
चमूख, चमूख
हे चमूआ, चमूड, चमूओ, चमू
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
एकवचन
ऋकारान्त स्त्रीलिंग शब्दमाआ
बहुवचन प०-माआ
माआओ, माआउ, माआ वी०-मा त०-माआअ, माइ, माआए , माआहि, माआहिँ , माआहिं च.- " " " माआण, माआणं पं०- " . " माआओ, माआउ,माआहिन्तो,
माअत्तो, माअत्तो, माआओ, माआसुन्तो
माआउ, माआहिन्तो छ०-माआअ, माआइ, माआए माआण, माआणं स.- " "
माआसु, माआसु सं०-हे माआ
हे माआओ, माआउ, माआ
ससा ( स्वस ) एकवचन
बहुवचन प०-ससा
ससाओ, ससाउ, ससा वी०-ससं
" " " त०-ससाअ, ससाइ, ससाए ससाहि, ससाहिँ, ससाहिं च०- " " " ससाण, ससाणं पं०- " " ससत्तो, ससाओ, ससाउ, ससाहिन्तो, - ससत्तो, ससाओ, ससाउ, ससाहिन्तो ससासुन्तो छ०-ससाअ, ससाइ, ससाए ससाण, ससाणं सं०- " " " -- ससास, ससासु सं०-हे ससा
हे ससाओ, ससाउ, ससा
नणन्दा (ननन्द) एकवचन
बहुवचन प०-नणन्दा
नणन्दाओ, नणन्दाउ, नणन्दा वी०-नणन्दं । त०-नणन्दाअ, नणन्दाड, नणन्दाए नणन्दाहि, नणन्दाहिँ, नणन्दाहिं च०- " " " नणन्दाण, नणन्दाणं पं०-- " " " नणन्दत्तो, नणन्दाओ, नणन्दाउ,
नणन्दत्तो, नणन्दाओ, नणन्दाउ, नणन्दाहिन्तो, नणन्दासंतो नणन्दाहितो
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७५
अभिनव प्राकृत-व्याकरण छ०-नणन्दाअ, नणन्दाइ, नणन्दाए नर्णन्दाण, नणन्दाणं स०- , " " नणन्दासु, नणन्दासं सं०-हे नणन्दा
हे नणन्दाओ, नगन्दाउ, नणन्दा माउसिआ (मातृष्वस) एकवचन
बहुवचन प०-माउसिमा
माउसिआओ, माउसिआउ, माउसिआ वी०-माउसि त०-माउसिआअ, माउसिआइ, माउसिाहि, माउसिआहि, माउसिआहि
माउसिआए च०- " " माउसिआण, माउसिआणं पं०
" माउसिअत्तो, माउसिआओ,माउसिआउ, - माउसिअत्तो, माउसिआओ, माउसिआहितो, माउसिआसुन्तो
माउसिआउ, माउसिआहिन्तो छ०-माउसिआअ, माउसिआइ, . माउसिआण, माउसिआणं
माउसिआए स०- ,
, माउसिआसु, माउसिंआसं
माउत, सं०-हे माउसिआ
हे माउसिआओ, माउसिआउ,
माउसिआ
धूआ (दुहित) एकवच
बहुवचन प०-धूआ
धूआओ, धूआउ, धूआ वी०-धू त०-धूआअ, धूभाइ, धूआए धूआहि, धूआदि, धूआदि च०-, " "
धूआण, धूआणं पं०- , "
धूअत्तो, धूआओ, धूआउ, धूमाहिन्तो, धूअचो, धूभाओ, धूाउ,
धूभासुन्तो धूआहिन्तो छ. - धूआअ, धूआइ, धूआए धूआण, धूआणं स०-,, , , धूआसु, धूआसुं सं०-हे धूआ
हे धूआओ, धूआउ, धूआ
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
एकवचन
प० - गावी, गावीआ वी० गावि
त० - गावीअ, गावी, गावीइ,
गावीए
च० - "
पं० "
स०
सं०.
PETE
गावित, गावीओ, गावीउ, गावहितो
छ० - गावीअ, गावीआ, गावीइ,
गावीए
""
एकवचन
च० -
12
गावि
"
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
अकारान्त स्त्रीलिंग शब्द
गावी (गो)
पं०–१
"
در
प० - नावा
वी० नावं
त० - नावाअ, नावाइ; नावाए
""
99
"
नावत्तो, नावाओ, नावाड, नावाद्दिन्तो
93
छ० - नावाअ, नावाइ, नावार स०”
सं० - हे नावा
बहुवचन
गावी, गावी, गावीओ, गावी
"
औकारान्त स्त्रीलिंग शब्द
नावा (नौ)
"9
"
गावी, गावी, गावीहिं
गावी, गाव
गावतो, गावीओ, गावीउ, गावीहिन्तो, गान्तो
गावीण, गावीणं
गावी, गावी
गावी, गावी, गावीओ, गावी
बहुवचन नावाओ, नावाउ, नावा
در
"
नावाह, नावाहि नावाहि
नावाण,
नावाणं
नावतो, नावाओ, नावाउ, नावाद्दिन्तो नावासुन्तो
नावाण, नावाणं
नावा
हे नावाओ, नावाड, नावा
स्वरान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दरूप समाप्त ।
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
स्वरान्त नपुंसक लिंग शब्द
( ३५ ) नपुंसक लिंग में स्वरान्त शब्दों से पर में आनेवाले सु के स्थान में प्रथमा एकवचन में म् होता है ।
( ३६ ) नपुंसक लिंग में स्वरान्त शब्दों से पर में आनेवाले जस और शस के स्थान में प्रथम और द्वितीया के बहुवचन में हूँ, इं और णि आदेश होते हैं ।
(३७) नपुंसक लिंग के सम्बोधन एकवचन में 'सु' का लोप होता है । ( ३८ ) सुके पर में रहने पर प्रथमा के एकवचन में इकारान्त और उकारान्त शब्दों के अन्तिम ह और उ को दीर्घ नहीं होता ।
नपुंसकलिंग के विभक्तिचिह्न
बहुवचन णि, इँ, इं
णि, इँ, इं
एकवचन
प०- म्
वी० - म्
सं०-०
एकवचन
29
शेष विभक्तियों में पुल्लिंग के समान विभक्ति चिह्न होते हैं
वण (वन) शब्द
प०वणं
वी० - वर्ण
त०
- वणेण
च० - वणस्स
पं० - वणत्तो, वणाओ, वणाउ,
वाह, वणाहिन्तो, वणा
- वणस्स
छ०. स०―वणे, वणम्मि
सं० - हे वण
एकवचन
प० धणं
वी० -धणं
१२
"
बहुवचन
वाइँ, वणाई, वाणि
39
वणे, व
T
33
वणत्तो, वणाओ, वणाउ, वणाहि, वणाद्दिन्तो, वणासुन्तो
वणाणं
वणे, वणेस
वाइँ, हे वणाईं, हे वाणि
धण (धन) शब्द
१७७
बहुवचन
धणाणि
इँ, धाई, घणाइँ, घणाई, धणाणि
इसके आगे वीर शब्द के समान रूप होते हैं ।
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८९
एकवचन
प० - दहिं
वी० - हिं
त० - दक्षिणा
च० - दहिणो, दहिस्स
पं० -- दहिणो, दहित्तो, दहीओ, दहीउ, दहीहिन्तो छ० - दहिणो, दहिस्स
स० - दहम्म सं० - हे दहि
एकवचन
प० - वारि
वी० - वारिं
एकवचन
प० - सुरहिं
वी० सुरहिं
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
इकारान्त दहि ( दधि ) शब्द
बहुवचन
दही, दहीहं, दहीणि
वही हैं, दहीहं, वहीणि
दहीहं
बहुवचन
वारीहूँ, वारी, वारीणि वाइँ, वाई, वारीणि
इसके आगे इकारान्त पुल्लिंग शब्दों के समान रूप होते हैं ।
एकवचन
प० - महुं वी० - महुं
दहीण, दहीणं
दहित्तो, दहीओ, दहीउ, दहीहिन्तो, दहीसुन्तो
दहीण दहीणं
दही, दहीसु
वारि
दही, दही, दहीणि
त० - महुणा च० - महुणो, महुस्स पं० - महुणो, महत्तो, महूओ,
सुरहि (सुरभि )
बहुवचन
सुरहीहूँ, सुरहीहूं, सुरहीणि सुरहीहूँ, सुरहीहं, सुरद्दीणि
इसके आगे पुल्लिंग शब्दों के समान रूप होते हैं।
1
उकारान्त महु ( मधु ) शब्द
बहुवचन
हू, महू, म महू, मह, महणि
महूहि, महद्दि, महूि
महूण, महू
महतो, महूओ, महूड, महुद्दिन्तो,
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________________
सं०-हे महु
एकवचन
एकवचन
अभिनव प्राकृत-व्याकरण महूड, महूहिन्तो
महसुन्तो छ०-महुणो, महुस्स
महूण, महूणं स०-महुम्मि
महूसु, महसू
हे महू., महूई, महूणि जाणु (जानु)
बहुवचन प०-जाणु
जाणूई, जाणूई, जाणूणि वी०-जाणु
जाणूइँ, जाणूई, जाणूणि इसके आगे महु के समान रूप होते हैं। अंसु ( अश्रु ) शब्द
बहुवचन प०-अंसु
अंसूई, अंसूई, अंसूणि वी०-अंसु
अंसुइँ, अंसूई, अंसूणि इसके आगे. महु के समान रूप होते हैं। स्वरान्त नपुंसक लिङ्ग शब्द समाप्त ।
व्यञ्जनान्त पुल्लिङ्ग शब्द प्राकृत में व्यञ्जनान्त या हलन्त शब्द नहीं होते। कुछ हलन्त शब्दों के अन्त्य व्यञ्जनों का लोप होता है और कुछ हलन्त शब्द अजन्त-स्वरान्त के रूप में परिणत हो जाते हैं। अतः हलन्त शब्दों के साधनार्थ स्वरान्त शब्दों के समान ही नियम समझने चाहिए।
अप्पाण, अत्ताण, अप्प और अत्त (आत्मन् )
एकवचन प०--अप्पाणो, अप्पा, अप्पो; अप्पागो, अप्पाणा, अप्पा;
अत्ताणो, अत्ता, अत्तो अत्ताणो, अत्ताणा, अत्ता वी०-अप्पाणं, अप्पं, अत्ताणं, अत्त अप्पाणो, अप्पाणे, अप्पाणा, अप्पे,
अप्पा; अत्ताणो, अत्ताणे, अत्ताणा, अत्त, अत्ता।
बहुवचन
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________________
८०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण त०-अप्पणिआ, अप्पणइआ, अप्पाणेहि-हि-हि, अप्पेहि-हि-हि;
अप्पणा, अप्पाणेण, अप्पाणेणं, अत्ताणेहि-हि-हि, अत्तहि-हि-हि अप्पेण, अप्पेणं; अत्तणा, अत्ताणेण, अत्ताणेणं, अत्तण,
अत्तण च-अप्पाणस्स, अप्पणो, अप्पस्स; अप्पाणाण, अप्पाणाणं, अप्पाण, अत्ताणस्स, अत्तणो, अत्तस्स अप्पाणं; अत्ताणाण, अत्ताणाणं, अत्ताण,
अत्ताणं पं०-अप्पाणत्तो, अप्पाणाओ, अप्पाणत्तो, अप्पाणाओ, अप्पाणउ,
अप्पाणाउ, अप्पाणाहि, अप्पाणाहि, अप्पाणाहिन्तो, अप्पाणाअप्पाणाहिन्तो, अप्पाणा, सुन्तो, अप्पाणेहि, अप्पाणेहिन्तो,
अप्पाणेसुन्तो, अप्पाणो, अप्पत्तो, अप्पाओ, अप्पत्तो, अप्पाओ, अप्पाउ, अपाहि, अप्पाउ, अप्पाहि, अप्पाहिन्तो, अप्पाहिन्तो, अप्पासुन्तो, अप्पेहि, अप्पा
अप्पेहिन्तो, अप्पेसुन्तो; अत्ताणत्तो, अत्ताणाओ, अत्ताणत्तो, अत्ताणाओ, अत्ताणाउ, अत्ताणाउ, अत्ताणाहि, अत्ताणाहि, अत्ताणाहिन्तो, अत्ताणासुन्तो, अत्ताणाहिन्तो, अत्ताणा अत्ताणेहि, अत्ताणेहिन्तो, अत्ताणेसुन्तो; अत्ताणो, अत्तणो, अत्ताओ, अत्तत्तो, अत्ताओ, अत्ताउ, अत्ताहि, अत्ताउ, अत्ताहि, अत्ताहिन्तो, अत्ताहिन्तो, अत्तासुन्तो, अत्तेहि, अत्ता
अत्तेहिन्तो, अत्तेसुन्तो छ०-अप्पाणस्स, अप्पणो, अप्पस्स; अप्पाणाण, अप्पाणाणं, अप्पाण, अप्पाणं;
अत्ताणस्स, अत्तणो, अत्तस्स अत्ताणाण, अत्ताणाणं, अत्ताण, अत्ताणं स०-अप्पाणम्मि, अप्पाणे, अप्पम्मि, अप्पाणेसु, अप्पाणेसु, अप्पेसु, अप्पेसु
अप्पे, अत्ताणम्मि, अत्ताणे, अत्ताणेसु, अत्ताणेसु, अत्तेसु, अत्त सु
अत्तम्मि, अत्ते सं०-हे अप्पाणो, अप्पाण, अप्पो, हे अप्पाणो, अप्पाणा, अप्पा;
अप्पा, अप्प, हे अत्ताणा, हे अत्ताणो, अत्ताणा, अत्ता अत्ताण, अत्तो, अत्ता, अत्त
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१८१
एकवंचने
एकवचन
राय (राजन) शब्द
बहुवचन प०-राया
राया, रायाणो, राइणो वी०-राय, राइणं
राए, राया, रायाणो, राइणो त०-राहणा, रगणा, राएण, राएणं राएहि-हि-हिं; राईहि-हि-हिँ च०-रणो, राइणो, रायस्स राईण, राईणं, रायाण, रायाणं पं०-रणो, राहणो, रायत्तो रायत्तो, राइत्तो, राईउ, राईओ, राईहिन्तो,
रायोओ, रायाउ, रायाहि, राईसुन्तो, रायाओ, रायाउ, रायाहिन्तो, __रायाहिन्तो
रायासुन्तो छ.-रणो, राइणो, रायस्स राईण, राईणं, रायाण, रायाणं स०-राये, रायम्मि, राइम्मि राईसु, राईसं, राएसु, राएK सं०-हे राया, राय
हे राया, रायाणो, राइणो महव, महवाण (मधवन्) शब्द
बहुवचन प.-महवा, महवो .. महवा वी०-महवं
महवे, महवा त.-महवणा, महवेण, महवेणं महवेहि-हि-हि च० -- महवणो, महवस्स, महवाण, महवाणं पं०-महवाणो, महवत्तो, महवाओ, महवत्तो, महवाओ, महवाउ, महवाहि,
महवाउ, महवाहि,महवाहिन्तो, महवाहिन्तो, महवासुन्तो, महवेहि, महवा
महवेहिन्तो, महवेसुन्तो छ.-महवणो, महवस्स महवाण, महवाणं स०-महवे, महवम्मि
महवेसु, महवेसं सं०-हे महवा, महवो
सुद्ध, मुद्धाण (मूर्धन्) एकवचन
बहुवचन प०-मुद्धा, मुद्धो .
मुद्धा वी०-मुद्धं
- मुद्धे, मुद्धा
हे महवा
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________________
१८२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण त०-मुद्धणा, मुद्ध'ण, मुढेणं मुद्धोहि-हि-हिँ च०-मुद्धणो, मुद्धस्स मुद्धाण, मुद्धाणं पं०-मुद्धत्तो, मुद्धाओ, मुद्धाउ, मुद्धत्तो, मुद्धाओ, मुद्धाउ, मुद्धाहि,
मुद्घाहि, मुद्घाहिन्तो, मुद्धा मुद्धा हन्तो, मुद्धासुन्तो छ०-मुद्धणो, मुद्धस्स मुद्धाण, मुद्धाणं स-मुद्ध, मुद्धम्मि मुद्ध सु, मुद्ध सुं सं०-हे मुद्धा, मुद्ध, मुद्धो हे मुद्धा
जम्मो (जन्मन्) शब्द एकवचन
बहुवचन प०-जम्मो
जम्मा वी०-जम्म
जम्मे, जम्मा त०-जम्मेण, जम्मेणं जम्मेहि-हि-हिँ च.-जम्माय, जम्मस्स
जम्माण, जम्माणं पं0-जम्मत्तो, जम्माओ, जम्माउ, जम्मत्तो, जम्माउ, जम्माओ, जम्माहि, जम्माहि, जम्माहिन्तो, जम्मा जम्माहिन्तो, जम्मासुन्तो, जम्मेहिन्तो,
जम्मेसुन्तो छ०--जम्मस्स
जम्माण, जम्माणं स.-जम्मे, जम्मम्मि सं०-हे जम्म, जम्मा, जम्मो हे जम्मा
जुओ, जुवाणो (युवन), बम्हो, बम्हाणो (ब्रह्मन् ), अद्धो, अद्धाणो (अध्वन्) उको उच्छाणो, ( उक्षन् ), गावो, गावाणो ( प्रावन् ), पुसो, पुसाणो (पुषन् ), तक्खा, तक्खाणो, तक्षन् ), सुकम्मो, सुकम्माणो ( सुकर्मन् ), सो, साणो ( चन् ) इत्यादि शब्दों के रूप अप्पाण, आत्मन् ) के समान और नम्मो ( नर्मन् ), मम्मो ( मर्मन् ), वम्मो, ( वर्मन् ), कम्मो ( कर्मन् ), अहो ( अर्हन् ) पम्हो ( पक्ष्मन् ) आदि शब्दों के रूप जम्मो ( जन्मन् ) शब्द के समान होते हैं।
चन्दमो ( चन्द्रमस् ) शब्द एकवचन
बहुवचन प०-चन्दमो
चन्दमा वी०-चन्दन
चन्दमे, चन्दमा
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
जसा
त०-चन्दमेण, चन्दमेणं चन्दमेहि, हिं-हिँ च०-चन्दमाय, चन्दमस्स चन्दमाण, चन्दमाणं प०-चन्दमत्तो, चन्दमाओ, चन्दमाउ, चन्दमत्तो, चन्दमाओ, चन्दमाउ, चन्दमाहि,
चन्दमाहि, चन्दमाहिन्तो, चन्दमाहिन्तो, चन्दमासुन्तो आदि
चन्दमा छ०-चन्दमस्स
चन्दमाण, चन्दमाणं स०-चन्दमे, चन्दमम्मि चन्दमेसु, चन्दमेखें सं०-हे चन्दम, चन्दमा, चन्दमो हे चन्दमा
जसो (यशस् ) शब्द एकवचन
बहुवचन प०-जसो वी०-जसं
जसे, जसा इससे आगे चन्दमो के समान रूप होते हैं।
उसणो ( उशनस् ) शब्द एकवचन
बहुवचन प०-उसणो
उसणा वी०-उसणं
उसणे, उसणा शेष रूप चन्दमो के समान होते हैं ।
वर्तमानकृदन्त पुल्लिंग हसन्तो, हसमाणो (हसत् , हसमाण) शब्द एकवचन
बहुवचन प०-हसन्तो, हसमाण हसन्ता, इसमाणा वी०-हसन्तं, हसमाणं
हसन्ते, हसन्ता, हसमाणे, हसमाणा त०-हसन्तेण, हसन्तेणं हसन्तेहि-हि-हि
हसमाणेण, हसमाणेणं हसमाणेहि-हिं-हि' - च०-हसन्तस्स, हसमाणस्स हसन्ताण, हसमाणाण, हसन्ताणं,
हसमाणाणं
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________________
१८४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण प०-हसन्तत्तो, हसन्ताओ, हसन्तत्तो, हसन्ताहि, हसन्ताहिन्तो,
हसन्ताउ०; हसमाणत्तो,- - इसन्तासुन्तो, हसमाणत्तो, हसमाणाहि,
हसमाणाओ, हसमाणाउ० हसमाणाहिन्तो, हसमाणासुन्तो छ०-हसन्तस्स, हसमाणस्स
हसन्ताणं, हसन्ताण, हसमाणाण,
हसमाणाणं
एकवचन
स०-हसन्ते, हसन्तम्मि, हसमाणे, हसन्तेसु, हसन्तेसु', हसमाणेसु, इसमासु
हसमाणम्मि - सं० हे हसन्तो, हे हसमाणो हे हसन्ता, हे हसमाणा
वत्प्रत्ययान्त पुल्लिंग भगवन्तो (भगवत् ) शब्द
बहुवचन प०-भगवन्तो
भगवन्ता वी०-भगवन्तं
भगवन्ते, भगवन्ता त-भगवन्तेण, भगवन्तेणं भगवन्तेहि-हि-हि च०-भगवन्तस्स
भगवन्ताण, भगवन्ताणं पं०-भगवन्तत्तो, भगवन्ताओ, भगवन्तत्तो, भगवन्ताओ, भगवन्ताहि,
भगवन्ताउ, भगवन्ताहि, भगवन्ताहिन्तो, खगवन्तासुन्तो इत्यादि
भगवन्ताहिन्तो छ०-भगवन्तस्स
भगवन्ताण, भगवन्ताणं स-भगवन्ते, भगवन्तम्मि भगवन्तेसु, भगवन्तेसु सं०-हे भगवन्त, भगवन्तो हे भगवन्ता
सोहिल्लो (शोभावत् ) शब्द एकवचन
बहुवचन प०-सोहिल्लो
सोहिल्लो शेष रूप भगवन्तो शब्द के समान होते हैं। इसी प्रकार धणवन्तो ( धनवान् ), पुण्णमन्तो ( पुण्यवान् ), भत्तिमन्तो ( भक्तिवान् ), सिरीमन्तो ( श्रीमान् ), जडालो ( जटवान् ), जोण्हासो ( ज्योत्स्नावान् ), दप्पुलो ( दर्पवान् ), सद्दालो (शब्दवान् ), कव्वइत्तो (काव्यवान् ), माणइत्तो ( मानवान् ) आदि शब्दों के रूप चलते हैं ।
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________________
एकवचन
प० - नेहालू
वी० नेहालुं
इसी प्रकार दयालु ( दयावान् ), ईसालु ( ईर्ष्यावान् ), लज्जालु ( लज्जावान् ) प्रभृति शब्दों के रूप बनते हैं ।
तिरिच्छ, तिरिक्ख, तिरिअ, तिरिअंच ( तिर्यञ्च ).
एकवचन
बहुवचन
प० - तिरिच्छो, तिरिक्खो, तिरिओ तिरिच्छा, तिरिक्खा, तिरिआ, तिरिचा, तिरिअंचो
वी० - तिरिच्छं, तिरिक्ख, तिरिअं,
तिरिअंचं
एकवचन
प० - भिसओ
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
नेहाल ( स्नेहवान् ) शब्द
बहुवचन
नेहालओ, नेहालवो, नेहालउ, नेहालुणो,
नेहालू
इससे आगे सभी रूप देव शब्द के समान होते हैं ।
एकवचन
नेहाणो, नेहाल
शेष रूप माणु शब्द के समान होते हैं ।
प० -- सरओ
एकवचन
प० कम्मा वी० कम्म
तिरिच्छे, तिरिच्छा, तिरिक्खे, तिरिक्खा, तिरिए, तिरिआ, तिरिअंचे, तिरिअंचा
भिसओ ( भिषज् ) शब्द
बहुवचन
भिआ
शेष शब्द देव के समान होते हैं ।
सरओ ( शरद् ) शब्द
बहुवचन
सरआ
आगे के सभी रूप देवशब्द के समान होते हैं।
1
१८५
.
हलन्त स्त्रीलिंग शब्द
कम्मा ( कर्मन् )
बहुवचन
कम्माओ, कम्माउ, कम्मा कम्माओ, कम्माउ, कम्मा
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________________
१८६
त०
कम्माअ, कम्माइ, कम्माए:
च०.
-कम्माअ, कम्माइ, कम्माए
पं० - कम्माअ, कम्माइ, कम्माए, कम्मत्तो, कम्माओ, कम्माउ, कम्मा हिन्तो
-
छ० कम्माअ, कम्माह, कम्माए
स० कम्माअ, कम्माइ, कम्माए सं०-हे कम्मा
एकवचन
प० - महिमा
वी० - महिमं
एकवचन
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
प० - गरिमा
वी० - गरिमं
एकवचन
-कम्माहि-हि-हि
कम्माण, कम्माणं कम्मत्तो, कम्माओ, कम्माउ, कम्मासुन्तो
कम्माण, कम्माणं
कम्मासु, कम्मासुं हे कमाओ, कम्मा,
महिमा ( महिमन् )
बहुवचन
महिमाओ, महिमा, महिमा महिमाओ, महिमा, महिमा
अवशिष्ट रूप कम्मा के समान होते हैं ।
प० - अच्ची वी० -अचि
त०—अच्चीअ, अच्चीभ, अच्चीह, अवीए
अवशिष्ट रूप कम्मा के समान होते हैं ।
गरिमा (गरिमन् )
बहुवचन
गरिमाओ, गरिमाड, गरिमा गरिमाओ, गरिमा, गरिमा
अचि (अर्चिस् )
च० --अच्चीअ, अच्चीआ, अच्चीह, अच्चीए
कम्मा
कम्मा हिन्तो,
बहुवचन
अच्ची
अच्चीओ, अच्ची, अच्चीओ, अच्चीड, अच्ची
अच्चीहि, अच्चीहिं, अच्चीहि "
अच्चीण, अच्ची
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________________
एकवचन
हसन्ता,
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
१८७ पं०-अच्चीअ, अच्चीआ, अच्चीइ, अच्चित्तो, अच्चीओ, अच्चीउ, अच्चीहिन्तो,
अच्चीए, अच्चित्तो, अच्चीओ, अच्चीसुन्तो
अच्चीउ, अच्चीहिन्तो छ०–अचीअ, अच्चीआ, अच्चीइ, अच्चीण, अच्चीणं
अच्चीए स०-अच्चीअ, अच्चीआ, अच्चीइ, अच्चीसु, अच्चीसु
अच्चीए सं० हे अच्चि, अच्ची
हे अच्चीओ, अच्चीउ, अच्ची वर्तमानकृदन्त स्त्रीलिंग हसई, हसन्ती, हसमाणी ( हसन्ती)
बहुवचन प०-हसई, हसईआ, हसन्ती, हसईआ, इसईउ, हसईओ, हसई,
हसन्तीआ, हसमाणी, हसन्तीआ, हसन्तीउ, हसन्तीओ, हसमाणीआ
हसन्ती, हसमाणीआ, हसमाणीउ,
हसमाणीओ, हसमाणी वी०-इसई; हसन्ति; हसमाणिं हसईआ, हसईउ, हसईओ, हसई;
हसन्तीआ, हसन्तीठ, हसन्तीओ, हसन्ती; हसमाणीआ, हसमाणीउ,
हसमाणीओ, हसमाणी त०-हसईअ, हसईआ, हसईइ, हसई हि-हि-हि; हसन्तीहि-हि-हि';
हसईए; हसन्तीअ, हसन्तीआ, हसमाणीहि-हि-हि हसन्तीइ, हसन्तीए; हसमाणीस, हसमाणीआ, हसमाणीइ,
हसमाणीए च०-हसईअ, हसईआ, हसईइ, हसईग, हसईणं, हसन्तीण, हसन्तीणं,
हसइए; हसन्तीअ, हसन्तीआ, हसमाणीण, हसमाणीणं हसन्तीइ, हसन्तीए; हसमाणीभ, हसमाणिआ, हसमाणीइ, हसमाणीए
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________________
छ
१८८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण ५०-हसईअ, हसईमा, हसईइ, हसईए, हसइत्तो, हसईओ, हसईउ, इसईहिन्तो,
हसइत्तो, हसईओ, हसईउ, हसईसुन्तो; हसन्तित्तो, हसन्तीओ, हसहसई हिन्तो;हसन्तीअ,हसन्तीआ, न्तीउ, हसन्तीहिन्तो, हसन्तीसुन्तो; हसहसन्तइ, हसन्तीए, हसन्तित्तो, माणित्तो, हसमाणीओ, हसमाणीउ, हसहसन्तीओ, हसन्तीउ, हसन्ती- माणीहिन्तो, हसमाणीसुन्तो हिन्तो; इसमाणीअ, हसमाणीआ हसमाणीइ, हसमाणीए, हसमाणित्तो, हसमाणिओ, हसमाणिउ, हसमाणीहिन्तो -हसईअ, इसईआ, हसईइ, हसईण, हसईणं; हसन्तीण, हसन्तीणं; हसईए; हसन्तीअ, हसन्तीआ, हसमाणीण, समाणीणं, हसन्तीइ, हसन्तीए, हसमाणीअ, हसमाणीआ,
हसमाणीइ, हसमाणीए स०-हसईअ, हसईआ, हसईइ, हसईसु, हसईसुं, हसन्तीसु, हसन्तीसु
हसईए; हसन्तीअ, हसन्तीआ, हसमाणीसु, हसमाणीसु, हसमाणीसं हसन्तीइ, हसन्तीए; हसमाणीअ, हसमाणिआ, हसमाणीइ,
हसमाणीए सं० हे हसह; हे हसन्ति; हे हसमाणि हे हसईआ, हसईउ, हसइओ, हसइ हे
हसन्तीआ, हसन्तीउ, हसन्तीओ, हसन्ती, हे हसमाणिया, हसमाणीउ, हसमाणीओ,
हसमाणी
भगवई (भगवती) एकवचन
बहुवचन प०-भगवई, भगवईआ भगवईआ, भगवईउ, भगवईओ, भगवई
शेष रूप लच्छी के समान होते हैं।
सरिआ ( सरित) एकवचन
- बहुवचन प०-सरिआ
सरिआओ, सरिआउ, सरिआ शेष शब्दरूप माला के समान होते हैं।
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
१८९
एकवचन
तडिआ, तडि ( तडित् ) एकवचन
__ बहुवचन प०-तडिआ
तडिआओ, तडिआउ, तडिआ 'तडिआ' शब्द के शेष रूप माला के समान होते हैं।
तडि
बहुवचन प०-तडी
तडीओ, तडीउ, तडी वी०-तर्डि
तडीओ, तडीउ, तडी त०-तडीअ, तडीआ, तडीइ, तडीए -तडीहि-हि-हि च०-तडीअ, तडीआ, तडीह, तडीए तडीण, तठीणं प०-तडीअ, तडीआ, तडीइ, तडीए तडीओ, तडीउ, तडीहिन्तो, तडीसुन्तो छ०-तडीअ, तडीआ, तडीइ, तडीए तडीण. तडीणं स-तडीअ, तडीआ, तडीइ, तडीए तडीसु तडीसं सं०-हे तडि, तडी
___तडीओ, तडीउ तडी पाडिवआ, पडिवआ (प्रतिपद् ) एकवचन
बहुवचन प०-पाडिवआ
पाडिवाओ पाडिवआउ, पाडिवा ब-पडिवआ
पडिवआओ, पडिवआउ, पडिवा शेष रूप कम्मा के समान होते हैं ।
संपया ( संपद् ) एकवचन
बहुवचन प०-संपया
संपयाओं, संपयाउ, संपया शेष रूप कम्मा के समान हैं क्षुहा (क्षुध )
बहुवचन प०-छुहा
छुहाओ, छुहाउ, छुहा वी०-छुहं
छुहाओ, छुहाउ, छुहा . शेष रूप कम्मा के समान होते है।
एमवचन
-
-
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१९०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
कउहा ( ककुम् )
एकवचन
बहुवचन
एकवचन
एकवचन
प०-कउहा
कउहाओ, कउहाउ, कउहा शेष रूप कम्मा के समान होते हैं। मिरा [ गिर ]
बहुवचन प०-गिरा
गिराओ, गिराउ, गिरा शेष रूप कम्मा के समान होते हैं। गिरा के समान थुरा ( थुर् ) और पुरा ( पुर् ) शब्द के रूप होते हैं।
दिसा [ दिश्]
बहुवचन प०-दिसा
दिसाओ, दिसाउ, दिसा शेष रूप कम्मा के समान होते हैं। अच्छ रसा, अच्छ रा ( अप्परस् )
बहुवचन
अच्छरसाओ, अच्छरसाउ, अच्छरसा, बी०-अच्छरा
अच्छराओ, अच्छराउ, अच्छरा अवशिष्ट रूप कम्मा के समान होते हैं।
तिरच्छो ( तिरश्ची) एकवचन
बहुवचन प०-तिरछी, तिरच्छीआ तिरच्छीआ, तिरच्छीओ, तिरच्छीउ,
तिरच्छी वी०-तिरच्छि
तिरच्छीआ, तिरच्छीओ, तिरच्छीउ,
तिरच्छी अवशिष्ट रूप नइ शब्द के समान होते हैं।
एकवचन
10-अच्छरसा
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________________
अभिनव [कृत-व्याकरण
१९१
एकवचन
विज्जु (विधुत् )
बहुवचन प०-विज
विजओ, विउ, विजू वी०-विजं.
विजूओ, विजूउ, विज त०-विजअ, विजआ, विजइ, विजूहि-हिं-हि
विजए च०-विज्जूअ, विजा, विजूह, विजण, विजूणं
विजए पं०-विज्जूभ, विजूआ, विजूइ, -विजुत्तो, विजूओ, विजउ, विजूहिन्तो,
विजए; विजुत्तो, विजओ, विजू सुन्तो
विजउ, विजूहिन्तो छ०-विजअ, विजुआ, विजूद, विजूण, विजूणं
विजए स०-विजुअ, विजूआ, विजूइ, विजू सु, विजसं .
विजूए सं०-हे विजू , विजु हे विजूओ, विजउ, विज्जू .
व्यञ्जनान्त नपुंसकलिंगशब्द
दाम (दामन्)
एकवचन
बहुवचन
प०-दामं
दामाई, दामाइँ, दामाणि वी-दामं
दामाई, दामाई, दामाणि त०-दामेण, दामेणं
दामेहि, दामेहि, दामेहि च०-दामाये, दामस्स
दामाण, दामाणं पं०-दामत्तो, दामाओ, दामाउ; दामत्तो, दामाओ, दामाउ, दामाहि,
दामाहिन्तो, दामा दामाहि, दामाहिन्तो, दामासुन्तो छ०-दामस्स
दामाण, दामाणं स०-दामे, दामम्मि
दामेसु, दामेसु सं०-हे दाम ........ - हे क्षमाइं, दामा, दामाणि
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________________
एकवचन
१९२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
नाम ( नामन् ) एकवचन
बहुवचन प०-नामं
नामाई, नामाइँ, नामाणि वी०-नाम
नामाई, नामा, नामाणि इससे आगे के रूप दाम के समान होते हैं।
पेम्म (प्रेमन् ) एकवचन
बहुवचन प०-पेम्म
पेम्मई, पेम्मा, पेम्माणि वी०-पेम्म
पेम्माई, पेम्माई, पेम्माणि शेष शब्दरूप दाम के समान होते हैं। अह ( अहन् )
बहुवचन प०-अहं
अहाई, अहाइँ, अहाणि वी०-अहं
अहाई, अहाइँ, अहाणि अवशेष रूप दाम के समान हैं। सान्त नपुंसकलिङ्ग शब्द सेयं ( श्रेयस )
बहुवचन प०-सेयं
... सेयाई, सेयाइँ, सेयाणि वी०-सेयं
सेयाई सेयाइँ, सेयाणि इससे आगे के रूप वन शब्द के समान होते हैं। वयं [ वयस ]
बहुवचन प०-वयं
वयाई, वयाइँ, वयाणि वी-वयं
वयाई, वयाइँ, वयाणि इससे आगे के रूप वन शब्द के समान होते हैं।
हकवचन
एकवचन
Page #224
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________________
१९३
अभिनव प्राकृत-व्याकरण वर्तमान कृदन्त नपुंसक लिङ्ग-हसन्त, हसमाण एकवचन
बहुवचन प०-हसन्तं
हसन्ताई, हसन्ताइँ, हसन्ताणि हसमाणं
हसमाणाई, हसमाणाइँ, हसमाणाणि वी०-हसन्तं
हसन्ताई, हसन्ताइँ, हसन्ताणि हसमाणं
हसमाणाई, हसमाणाई, हसमाणाणि अवशिष्ट रूप वण शब्द के समान होते हैं। इसी प्रकार वेवन्तं, वेवमाणं; धरन्तं, धरमाणं; सवन्तं, सवमाणं; महन्तं, महमाणं आदि शब्दों के रूप भी होते हैं।
वत्प्रत्ययान्त नपुंसकलिङ्ग
भगवन्तं ( भगवत् ) शब्द एकवचन
बहुवचन 'प०-भगवन्तं
भगवन्ताइँ, भगवन्ताई, भगवन्ताणि शेष रूप वण के समान होते हैं। . आउसो, आउ ( आउष् )
बहुवचन प०-आउसं
आउसाई, आउसाइँ, आउसाणि वी०-आउसं
आउसाई, आउसाइँ, आउसाणि शेष रूप वण शब्द के समान होते हैं ।
आउ एकवचन
बहुवचन प०-आउं
आउई, आऊइँ, आऊणि वी०-आउं
आउइं, आउइँ, माऊणि त०-आउणा
आऊहि-हिं-हि च०-आउणो, आउस्स
प्राऊण, आऊणं प०-आउणो, आउत्तो, आऊओ, आउत्तो, आऊओ, आऊउ, आऊहिन्तो,
आऊउ, आऊहिन्तो - आऊसुन्तो
एकवचन
Page #225
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________________
१९४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण छ०-आउणो, आउस्स
आऊग, आऊणं स०-आउम्मि
-आऊसु, आऊसु सं—हे आउ
हे आजई, आऊ, आऊणि
एकवचन
सर्वनाम शब्द सव्व (सर्व)
बहुवचन प०-सव्वो
सव्वे वी०-सन्ध
सव्वे, सव्वा त०-सव्वेण, सम्वेणं
सव्वेहि-हि-हि च.-सव्वाय, सव्वस्स
सव्वेसि, सव्वाण, सव्वाणं ५०-सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वाहि, सव्वाहि, सवाहिन्तो, सव्वा सव्वाहिन्तो, सव्वासुन्तो, सव्वेहिन्तो,
सम्वेसुन्तो छ०-सव्वस्स
सम्वेसि, सव्वाण, सव्वाणं स०-सम्वहिं, सव्वम्मि, सव्वस्सि सव्वेसु, सव्वेसु सं०-हे सव्व, हे सव्वो हे सव्वे
सुव (स्व)
बहुवचन प०-सुवो
सुवे वी०-सुवं
सुवे, सुवा त०-सुवेण, सुवेणं
सुवेहि-हि-हिँ च:-सुवाय, सुवस्स
सुवेसि, सुवाण, सुवाणं प० -सुबत्तो, सुवाओ, सुवाउ, सुवाहि, सुवत्तो, सुवाओ, सुवाउ, सुवाहि, सुत्रासुवाहिन्तो, सुवा हिन्तो, सुवासुन्तो, सुवेहि, सुवेहिन्तो,
सुवेसुन्तो छ०-सुवस्स
सुवेसि, सुवाण, सुवाणं स०-सुवहि, सुवम्मि, सुवस्सि, सुवत्थ सुवेसु, सुवेतुं सं०-हे सुव, हे सुवो
हे सुवो
एकवचन
-
Page #226
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
अन्ने
अन्न (अन्य) एकवचन
बहुवचन प०-अन्नो वी०-अन्नं
अन्ने, अन्ना त-अन्नेण, अन्नेणं
अन्नेहि-हि-हि च०-अन्नाय, अन्नस्स . अन्नेसि, अन्नाण, अन्नाणं प०-अन्नत्तो, अन्नाओ, अन्नाउ, अन्नत्तो, अन्नाओ, अन्नाउ, अन्नाहि, अन्नादि, अन्नाहिन्तो, अन्ना अन्नाहिन्तो, अन्नेहिन्तो, अन्नासुन्तो,
अन्नेसन्तो छ०-अन्नस्स
अन्नेसि, अन्नाण, अन्नाणं स.-अन्नहि, अन्नम्मि, अन्नासि, अन्नेसु, अन्नेसु
अन्नत्थ सं०-हे अन्न, हे अन्नो हे अन्ने
पुव्व, पुरिम (पूर्व) एकवचन
बहुवचन ५०-पुष्यो
पुत्वे पुरिमो
पुरिमे वी०-पुव्वं
पुग्वे, पुवा . पुरिमं
पुरिमे, पुरिमा त०-पुव्वेण, पुव्वेणं
पुव्वेहि-हि-हि पुरिमेण, पुरिमेणं पुरिमेहि-हि-हि च०-पुवाय, पुवस्स
पुव्वेसिं, पुवाण, पुव्वाणं पुरिमाय, पुरिमस्स पुरिमेसि, पुरिमाण, पुरिमाणं पं०-पुव्वत्तो, पुध्धाओ, पुवाउ, पुव्वत्तो, पुवाओ, पुव्वाउ, पुवादि, पुधाहि, पुवा
पुवाहिन्तो, पुवासुन्तो, पुब्वेहिन्तो, पुरिमत्तो, पुरिमाओ, पुरिमाउ, पुब्वेसुन्तो पुरिमाहि, पुरिमाहिन्तो, पुरिमा पुरिमत्तो, पुरिमाओ, पुरिमाउ,
पुरिमाहि, पुरिमाहिन्तो, पुरिमासुन्तो,
.
..... --- पुरिमा
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________________
एकवचन
१९६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण छ०--पुवस्स; पुरिमस्स . पुव्वेसि, पुव्वाण, पुव्वाणं
पुस्मेिसि, पुरिमाण, पुरिमाणं स०-पुव्वेहि, पुच्चम्मि, पुव्वस्सि, पुव्वेसु, पुव्वेसु; पुरिमेसु, पुरिमेसु
पुव्वस्थ पुस्मिहि, पुरिमम्मि, पुरिमस्सि,
पुरिमस्थ सं०-हे पुवो, हे पुच
हे पुन्वे हे पुरिम, हे पुरिमो . हे पुरिमे वीस ( विश्व ), उह, उभ ( उभ ), अवह, उवह, उभय ( उभय ), अण्ण, अन्न (अन्य ), अण्णयर ( अन्यतर ), इअर ( इसर ), कयर, ( कतर ), कहम (कतम ), णेम, नेम ( नेम ), सम, सिम, अवर ( अपर ), दाहिण, दक्खिण ( दक्षिण ), उत्तर, अवर, अहर ( अधर ), स और अंतर शब्दों के 'रूप' सव्व के समान होते हैं ।
पुल्लिंग ण, त (तत्)
बहुवचन प०-सो, ण
ते, णे वी०-तं, णं
ते, ता, णे, णा त-तिणा, तेण, तेणं; णिणा, तेहि-हि-हि); णेहि-हि-हि
णेण, णेणं च०-तास, तस्स, से
तास, तेसि, सि; ताण, ताणं पं०-तो, तम्हा, तत्तो, तामओ, ताउ, तत्तो, ताओ, ताउ, ताहि, ताहिन्तो,
___ताहि, ताहिन्तो, ता तासुन्तो, तेहि, तेहिसुन्तो, तेहिन्तो छ०-तास, तस्स, से तास, तेसि, सिं, ताण, ताणं स-ताहे, ताला, तइआ, तर्हि तेसु, तेसु तम्मि, तम्सि, तत्थ
ज (यद्) एकवचन
बहुवचन प०-जो वी०-जं.
जे, जा त-जिणा, जेण, जेणं जेहि-हि-हि.
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१९७
एकवचन
अभिनव प्राकृत-व्याकरण च०-जास, जस्स
जे, जाणं, जाणं पं०-जम्हा, जत्तो, जाओ, जाउ, जत्तो, जाओ, जाउ, जाहि, जाहिन्तो,
जाहि. जाहिन्तो, जा जासुन्तो, जेहि, जेहिन्तो, जेसुन्तो छ०-जास, जस्स
जेसि, जाण, जाणं स०-जाहे, जाला, जइमा, जहिं, जेसु, जेसु जम्मि, जस्सि, जत्थ
क (किम्)
बहुवचन प.-को वी०-के त-किणा, केण, केणं __ केहि-हि-हि च०-कास, कस्ल
कास, केसि, काण, काणं. पं०-किणो, कीस, कम्हा, कत्तो, कत्तो, काओ, काउ, काहि, काहिन्तो,
काओ, काउ, काहि, कासुन्तो, केहि, केहिन्तो, केसुन्तो
काहिन्तो, का छ०-कास, कस्स
कास, केसि, काण, काणं स-काहे, काला, कइआ, कहि, केसु, केसु कम्मि, कस्सि, कस्थ
एत, एअ (एतद् ) एकवचन
बहुवचन प०-एसो, एस, इणं, इणमो एते, एए वी०–एतं, एअं
एते, एता, एस, एआ त०-एतेणा, एतेण, एतेणं; एइणा, एतेहि-हि-हि एएण, एएणं
एएहि-हिं-हि च०-से, एतस्स, एअस्स सिं, एतेसिं, एताण, एताणं, एएसिं,
एमआणं, एयाणं पं०-एत्तो, एत्ताहे, एतत्तो, एताओ, एतत्तो, एताओ, एताउ, एताहि,
एताउ, एताहि, एताहिन्तो, एताहिन्तो, एतासुन्तो, एतेहि, एतेहिन्तो, एता; एअत्तो, एआओ, एआउ, एतेसुन्तो, एअत्तो, एआओ, एआउ, एआहि, एआहिन्तो, एआ .. .. एआहि, एआहिन्तो, एआसुन्तो
Page #229
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________________
१९८
एकवचन
अभिनव प्रकृित-व्याकरण छ०–से, एअस्स, एतस्स ......सि, एतेसिं, एताण, एआणं, एएसि,
एआण, एआणं स०-आयम्मि, इअम्मि, एतम्मि, एतेसु, एतेसं, एएसु, एएसं ___ एतस्मि, एअम्मि, एअस्सि, एल्थ
अमु ( अदस् )
वहुवचन प०-अमू
अमुणो, अमणो, अमओ, अमउ, अम् वी०-अमुं
अमू, अमुणो तक-अमुणा
अमूहि-हिं-हि च०- अमुणो, अमुस्स
अमूण, अमूणं पं०-अमुणो, अमुत्तो; अमूओ, अमुत्तो, अमूओ, अमूउ, अमूहिन्तो, ___अमूड, अमूहिन्तो अमू सुन्तो छ०-अमुणो, अमुस्स अमूण, अमूणं स०-अयम्मि, इअम्मि, अमुम्मि अमूसु, अमूसं
इम (इदम् )
बहुवचन-- प०-अयं, इमो . वी०-इणं, इम, गं
इमे, इमा, णे, णा त०-इमिणा, इमेण, इमेणं, णिणा, इमेहि-हिं-हि; णेहि-हि-हि; एहि-हि-हि
णेण, गेणं च०-से, इमस्स, अस्स सिं, इमेसि, इमाण, इमाणं ५०-इमत्तो, इमाओ, इमाउ, इमत्तो, इमाओ, इमाउ, इमाहि, ___ इमाहि, इमाहिन्तो, इमा इमाहिन्तो, इमासुन्तो छ०-से, इमस्स, अस्स सिं, इमेसि, इमाण, इमाणं स०-अस्सि, इमम्मि, इमस्सि, इह इमेसु, हमेसं, एसु, एK
स्त्रीलिङ्ग सर्वनाम शब्द
___ सव्वा (सर्वा) एकवचन
बहुवचन प०-सव्वा
सवाओ, सव्वाउ, सव्वा वी०-सव्वं
सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वा
एकवचन
इमे
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
त-सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए . सव्वाहि-हि-हि च०-सव्वाअ, सवाइ, सव्वाए सव्वेसि, सवाण, सवाणं प०-सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए, सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ, सवाहिन्तो,
सव्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वासुन्तो
सव्वाहिन्तो छ०-सव्वाअ, सव्वाइ, सव्वाए सव्वेसि, सव्वाण, सव्वाणं स-सव्वाअ, सव्वाह, सवाए सव्वासु, सव्वासं सं०-हे सव्वे, सव्वा
हे सव्वाओ, सव्वाउ, सव्वा
सुवा (स्वा) एकवचन
बहुवचन प०-सुवा
सुवाओ, सुवाउ, सुवा वी०-सुवं
सुवाओ, सुवाउ, सुवा त०-सुवाअ, सुवाइ, सुवाए सुवाहि-हि-हि च०-सुवाअ, सुकाइ, सुवाए सुवेसि, सुवाण, सुवाणं ५०-सुवाम, सुवाइ, सुवाए, सुवत्तो, सुक्त्तो, सुवाओ, सुवाउ, सुवाहिन्तो,
सुवाओ, सुवाउ, सुवाहिन्तो सुवासुन्तो, छ०-सुवाअ, सुवाइ, सुवाए सुवेसि, सुवाणं, सुवाणं स-सुवाअ, सुवाइ सुवाए सुवासु, सुवासं सं०-हे सुवे, सुवा
हे सुवाओ, सुवाउ, सुवा अण्णा-अन्ना ( अन्या.) एकवचन
बहुवचन प०-अण्णा
अण्णाओ, अण्णाउ, अण्णा वी०-अण्णं
अण्णाओ, अण्णाउ, अण्णा शेष रूप सव्वा शब्द के समान होते हैं ।
दाहिणा, दक्षिणा ( दक्षिणा) एकवचन
बहुवचन प०-दाहिणा; दक्षिणा दाहिणाओ, दाहिणाउ, दाहिणा
-- दक्खिगाओ, दक्खिणाउ, दक्खिणा
Page #231
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________________
१००
वी० - दाहिणं, दक्खिणं
एकवचन
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
प०-सा, णा
वी० – तं,
त० तीअ, तीआ, तीइ, तीए, ताअ, ताइ, ताए
णाअ, गाइ, णाए
च० - तिस्सा, तीसे, तीअ, तीआ ती, ती, तास, से, ताअ ताइ, ताए
पं० - तीअ, ताआ, तीइ, तीए; तितो, तीओ, तीउ, तीहिन्तो; ताभ, ताइ, ताए, तो, तम्हा, तो, ताओ, ताउ, ताहिन्तो
शेष रूप सव्वा शब्द के समान हैं।
सा (तद् )
एकवचन
साइ, ताए
स० - तीअ, तीआ, तीइ, तीए
ताअ, ताइ, ताए
प०-जा
दाहिणाओ, दाहिणाउ, दाहिणा दक्खिणाओ, दक्खिणा, दक्खिणा
छ० - तिस्सा, तोसे, तीअ, तीआ, सिं, तेसिं, ताण, ताणं, तास
तीइ, तीए, तास, से, ताअ,
बहुवचन
at
ateit, åter, áls, át, aixì, ans, ओ, ती, ती, ती, ताओ, ता हि-हि-हि ; ताहि-हि- हि, णाहि-हि-हि
वी० - जं
त० - जीअ, जीआ, जीइ, जीएं; जाओ, जाइ, जाए
सिं, तेसिं, ताण, ता, तास
तित्तो, तीओ, तीड, तीहिन्वो, तिसुन्तो, तत्तो, ताओ, ताउ, ताहिन्तो, तासु सो
तीसुतीसु
तासु तासु
जा ( यद् )
बहुवचन
siteit, aiter, als; aît, araì,
जाउ, जा
जीओ, जीआ, जीउ, जी; जाओ,
जाउ, जा
जी, जीहिं, जीहि ; जाहि-हि-हिं
Page #232
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________________
२०१
अभिनव प्राकृत-व्याकरण च०-जिस्सा, जीसे, जीअ, जीआ, जेसि, जाण, जाणं
जीइ, जीए; जाअ, जाइ, जाए। पं०-जीअ, जीआ, जीइ, जीए, जत्तो, जाओ, जाउ, जाहिन्तो, जासुन्तो
जित्तो, जीओ, जीउ, जीहिन्तो;
जाअ, जाइ, जाए, जम्हा, जत्तो, जाओ, जाउ, जाहिन्तो छ०-जिस्सा, जोसे, जीअ, जीए, जेसि, जाण, जाणं
जाअ, जाए स०-जीभ, जीए, जाअ, जाइ, जाए जीसु, जीसु, जासु, जासुं
का (किम् ) एकवचन
बहुवचन प०-का
कीओ, काउ, की, काओ, काउ, का वी०-कं
कीओ, काउ, की, काओ, काउ, का त०-कोअ, कीए, काअ, काए कीहि-हि-हि; काहि-हि-हि च०-किस्सा, कीसे, कीअ, केसि, काण, काणं, कास
कास, काए पं०-कीअ, कीए, कित्तो, कीओ, कित्तो, कीओ, कीउ, कीहिन्तो, कीसुन्तो; ___कीहिन्तो, काअ, कत्तो, काओ, कत्तो, काओ, काउ, काहिन्तो, कासुन्तो
काहिन्तो छ०-किस्सा, कीसे, कीए, कास, केसि, काण, काणं
काइ, काए स०-कीअ, कीआ, कीइ, काअ, कीसु, कीसु; कासु, कासु काइ, काए
एई, एआ ( एतद् ) एकवचन
बहुवचन ५०-एसा, एस, इणं, इणमो, एई, एईआ, एई, एआओ, एआ
एईआ वी०-एई, एअं
एईआ, एईओ, एआओ, एआउ त–एईअ, एईआ, एईइ, एईए; एईहि-हि-हि; एआहि-हि-हि
एमाअ, एआए
Page #233
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________________
२०२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
एकवचन
च०-एईअ, एआअ, एइ, एआए - एईण, एईणं; सिं, एआण, एआणं पं०-एअ, एईआ, एईइ, एहत्तो, एअत्तो, एआओ, एआउ, एआहिन्तो,
एईहिन्तो, एआअ, एअत्तो, एआसुन्तो
एआहिन्तो छ०-एईअ, एईआ, एईइ, एआअ, एईण, सिं, एआण, एआणं
एआए स०-एई, एईआ, एआभ, एआइ एईसु, एईसु; एआसु, एआसु
अमु ( अदस )
बहुवचन प०-अमू
अमूओ, अमूड, अमू वी०-अमुं
__ अमूओ, अमूर, अमू तः-अमूअ, अमूआ, अमूह, अमूए अमूहि-हि-हि च०-अमूअ, अमूआ, अमूह, अमूए अमूग, अमूणं पं०-अमूअ, अमूह, अमूए, अमुत्तो, अमुत्तो, अमूओ, अमूउ, अमूहिन्तो, अमूओ
अमू सुन्तो छ०-अमूअ, अमूआ, अमूह, अमूए अमूण, अमूणं स०-अमूम, अमूआ, अमूह, अमूए अमू सु, अमू सु
इमी, इमा ( इदम् ) एकवचन प०-इमी, इमीअ, इमिमा, इमा, इमोआ, इमीभो, इमाओ, इमाउ, इमा वी०-इमि, इम, इणं, गं . इमीआ, इमीओ, इमाओ, इमाउ,
णाओ, गाउ त०-हमीअ, इमीआ, इमाअ, इमीहि-हि-हि; हमाहि-हि-हि, णाहि-हिं
इमाए, णाअ, णाये च०-इमीअ, इमीइ, इमाअ, इमीण, इमीणं, इमेसि, इमाण, इमाणं
इमाइ, इमाए पं०-इमीअ, इमीआ, हमीए, इमित्तो, इमीहिन्तो, इमीसुन्तो; इमत्तो,
इमित्तो, इमाओ, इमाअ, इमाइ, इमाओ, इमाहिन्तो, इमासुन्तो इमाउ, इमत्तो, इमाहिन्तो
बहुवचन
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२०३ छ०-इमीअ, इमीइ; इमीए, इमीण, इमीणं, इमेसिं, इमाण, इमाणं
इमाअ, इमाए स.-इमीअ, इमीआ, इमीए, · इमीसु, इमीसु'; इमा, इमासु इमाअ, इमाए
नपुंसकलिंग सर्वनाम शब्द
सव्व ( सर्व ) एकवचन .
बहुवचन प०-सव्वं
सम्बाई, सव्वाइँ, सव्वाणि वी०-सव्वं
सव्वाई, सव्वाइँ, सव्वाणि त०-सव्वेण, सव्वेणं
सव्वेहि-हि-हि च०-सव्वाय, सव्वस्स
सव्वेसि, सव्वाण, सव्वाणं पं० सम्वत्तो, सव्वाओ, सव्वाउ, सञ्चत्तो, सचाओ, सब्वाउ, सव्वाहि, सव्वाहि, सवाहिन्तो, सव्वा । सव्वाहिन्तो, सवासुन्तो, सधेहिन्तो
सन्चेसुन्तो छ०-सध्वाय, सव्वस्स
सव्वेखि, सव्वाण, सव्वाणं स०-सहि, सव्यसि, सव्वम्मि सम्वेसु, सम्वेसु,
सव्वस्थ, हे सव्व
हे सब्बाइ, सव्वाई, सवाणि
सुव (स्व) एकवचन .
बहुवचन प०-सुवं
सुवाई, सुवाइँ, सुवाणि . वी०-सुवं
सुवाई, सुवाइँ, सुवाणि शेष रूप पुल्लिंग के समान होते हैं।
पुत्व, पुरिम (पूर्व ) एकवचन
बहुवचन प०-पुव्वं
पुवाइं, पुव्वाइँ, पुवाणि पुरिम
पुरिमाइं, पुरिमाइँ, पुरिमाणि वी०-पुवं
पुवाई, पुव्वाइँ, पुवाणि
पुरिमाइं, पुरिमाइँ, पुरिमाणि . शेष रूप पुल्लिग के समान होते हैं।
पुरिमं
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________________
२०४
अभिनव प्राकृत व्याकरण
एकवचन
एकवचन
त (तद्) एकवचन
बहुवचन .... .. प०-तं, णं
ताई, ताइँ, ताणि, गाई, गाई, गाणि वी०-तं, णं
ताई, ताइँ, ताणि, गाई, गाइँ, णाणि शेष रूप पुल्लिंग के समान होते हैं। ज (यद् )
बहुवचन प०-जं
जाई, जाइँ, जाणि वी०.
जाई, जाई, जाणि शेष रूप पुल्लिंग के समान होते हैं। किं (किम् )
बहुवचन प०-कि
काई, काइँ, काणि वी०-कि
काई, काइँ, काणि शेष रूप पुल्लिंग के समान होते हैं।
एअ ( एतद् ) ... एकवचन
बहुवचन प०-अं, एस, इणं, इणमो एआई, एआई, एआणि वी०-एअं
एआई, एआइँ, एआणि शेष रूप पुल्लिग के समान होते हैं। अमु ( अदस्)
बहुवचन प०-अमुं
अभूई, अमूहूँ, अमूणि वी०-अमुं
अमूई, अमूइँ, अमूणि शेष रूप (लिङ्ग के समान होते हैं ।
___इम ( इदम् ) एकवचन
बहुवचन प०-इदं, इणमो, इणं
इमाई, इमाइँ, इमाणि बी०-इदं, इणमो, इणं इमाई, इमाइँ, इमाणि
शेष रूप पुंलिङ्ग के समान होते हैं।
एकवचन
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________________
२०५
तुवे
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२०५ .. तीनों लिङ्गों में समान-युष्मद् शब्द एकवचन
बहुवचन प०-तुम, तं, तुं, तुवं, तुह भे, तुब्भे, तुज्झ, तुम्ह, तुय्हे, उय्हे, तुम्हे,
... तुझे, उन्हे वी०–तं, तुं, तुवं, तुम, तुह, तुमे, वो, तुज्झ, तुझे, तुम्हे, तुह्ये, तुय्हे,
उय्हे, भे . त-भे, दि, दे, ते, तइ, तुए, तुम, भे, तुब्भहिं, तुम्हेहि, तुज्ोहिं, उज्झेहि,
तए, तुमइ, तुमए, तुमे, तुमाइ उम्हेहिं, तुम्हेहिं, उव्हेहि च०, छ०-तइ, तु, ते, तुम्हं, तुह, तु, वो, भे, तुब्भ, तुम्ह, तुज्झ, तुभं,
तुहं, तुव, तुम, तुमे, तुमो, तुम्हं, तुझ, तुब्भाण, तुम्हाण, तुज्माण, तुमाइ, दि, दे, इ, ए, तुब्भ, तुवाण, तुमाण, तुहाण, उम्हाण, उम्हाणं, तुम्ह, तुज्झ, उन्भ, उम्ह, तुब्भाणं, तुम्हाणं आदि .
उज्झ, उयह पं०-तइत्तो, तईओ, तईउ, तईहिन्तो, तुम्भत्तो, तुब्भाहिन्तो, तुब्भासुन्तो;
तुवत्तो, तुवाओ, तुवाउ, तुवाहि, तुम्हत्तो, तुम्हाहिन्तो, तुम्हासुन्तो; तुवाहिन्तो; तुव, तुमत्तो तुम्हेहि; तुज्झत्तो, तुज्झाओ, तुज्झातुहत्तो, तुहाओ, तुहादि; हिन्तो, तुज्झासुन्तो; तुम्हत्तो, तुम्हाउ; तुब्भत्तो, तुब्भाहिन्तो; तुम्हत्तो, उहत्तो, उय्यासुन्तो; उम्हत्तो, उम्हाओ, तुम्हाहिन्तो, तुज्झाउ, उम्हाहिन्तो, उम्हासुन्तो तुज्झाहि, तुम्ह,, तुब्भ, तुम्ह,
तुज्झ
स०-तुमे, तुमए, तुमाइ, तइ, तए तुसु, तुसुं, तुवेसु, तुवेसुं, तुमेसु, तुमेसं,
तुम्मि, तुवम्मि,तुवस्सि, तुवत्थ, तुहेसु, तुद्देखें, तुब्भेसु, तुब्भेसं, तुम्हेस, तुमम्मि, तुमस्सि, तुमत्थ, तुम्हेसुं, तुज्झेसु, तुझसुं, तुमसु, तुमसुं, तुम्मि, तुस्सि, तुहत्थ, तुम्हसु, तुम्हसुं, तुज्झास, तुज्झासं, तुब्भम्मि, तुब्भस्ति, तुब्भत्थ, तुम्हासु, तुम्हासुं तुम्हम्मि, तुम्हम्सि, तुम्हस्थ, तुज्झम्मि, तुज्झस्सि, तुज्झत्थ
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२०६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
तीनों लिङ्गो में समान अस्मद्' शब्द . एकवचन
बहुवचन प०--म्मि, अम्मि, अम्हि, हं, अहं, अम्ह, अम्हे, अम्हो, मो, वयं, भे
अहयं वी०-णे, णं, मि, अम्मि, अम्ह, अम्हे, अम्हो, अम्ह, णे
मम्ह, मं मम, मिमं, अहं त०-मि, मे, मम, ममए, ममाइ, अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह, अम्हे, णे
मइ, मए, णे. च०, छ०-मे, मइ, मम, मह, मझ, णे, णो, मझ, भम्ह, अम्हं, अम्हे, मज्झ, मम्ह, अम्ह, अम्हं अम्हो, अम्हाण, ममाण, ममाणं, महाण,
मज्झाणं, महाणं पं.-मइत्तो, मईओ, मईउ, मईहिन्तो; ममत्तो, ममाओ, ममाउ, ममाहि, ममा
ममत्तो, ममाओ, ममाउ, ममाहि, हिन्तो, ममासुन्तो, अम्हत्तो, अम्हाओ, ममाहिन्तो, ममा; महत्तो, अम्हाउ, अम्हाहि, अम्हाहिन्तो, अम्हामहाओ, महाउ, महाहि, महा- सुन्तो, अम्हेहि, अम्हेहिन्तो, अम्हेसुन्तो हिन्तो, महा; मज्झत्तो, मज्भाओ, मज्झाउ, मज्झाहि, मज्झाहिन्तो,
मझा स-मि, मइ, ममाइ, मए, मे, अम्हेसु अम्हेसु; ममेसु, ममे ; महेसु,
अम्हम्मि, अम्हस्सि, अम्हत्य; महेस; मज्झेसु, मज्झेखें; ममसु, ममसं ममम्मि, ममस्सि, ममस्थ; महसु, महसू; मज्मसु, मज्झसं महम्मि, महस्सि, महत्थ; मज्झम्मि मज्झस्सि, मज्झस्थ
संख्यावाचक शब्द संख्यावाचक शब्दों में अट्ठारस (अष्टादश) संख्यावाचक शब्द तक षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में ण्ह और ण्हं प्रत्यय जुड़ते हैं।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२०७
पुल्लिङ्ग इक, एक, एग, एअ (एक) एकवचन
बहुवचन प०-एगो, एओ, एक्को; एक्कल्लो एगे, एए; एक्के; एकल्ले वी०-एगं, एअं; एवं, एक्कल्लं एगे, एगा, एए, एआ; एक्के, एक्का;
एक्कल्ले, एक्काला शेष रूप सव्व शब्द के समान होते हैं। स्त्रीलिङ्ग एगा, एआ, एका, एकल्ला (एका) एकवचन
बहुवचन प०–एगा, एआ; एक्का, एक्ला एगाओ, एगाउ, एगा; एआओ, एआर,
एआ, एक्कामो एक्काड, एक्का;
एक्कालाओ, एक्कल्ला वी०–एगं, एअं
एगाओ, एगाउ, एगा; एआओ, एआउ, एक्कं, एक्कल्लं एआ; एक्काओ, एक्काउ, एक्का,
एक्कल्लाओ, एक्कल्ला शेष रूप सव्वा शब्द के समान होते हैं। नपुंसकलिङ्ग--एग, एअ, एक, एकल्ल (एक) एकवचन
बहुवचन प०-एग
एगाई, एगाइँ, एगाणि एअं
एआइ, एआई, एआणि
एक्काई, एक्काई, एक्काणि एक्कल्लं
एक्कालाई, एकलाई , एक्कल्लाणि वी०-एगं
एगाई, एगाइँ, एगाणि एअं
एआई, एआई, एआणि
एक्काई, एक्काइँ, एक्काणि एक्कल्लं
एक्कल्लाई, एक्कल्लाई, एक्लाणि सं० हे एग
हे एगाई, एगाई, एगाणि हे एअ
हे एआई, एआइ, एआणि हे एक्क
हे एक्काई, एक्काई, एक्काणि
हे एककल्लाई, एक्कलाइँ, एककल्लाणि शेष रूप पुल्लिङ्ग के समान होते हैं।
हे एकल
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२०८
बहुवचन
प० - उभं
वी–उभे, उभा
त - उभेहि, उभेहिं, उभेहि
च०, छ०– उभण्हं, उभण्ह
पं० - उभत्तो उभाओ, उभाउ, उभाहि, उभाहिन्तो, उभासुन्तो, उभेहि ।
स० — उभे, उभे
-
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
उभ, उह (उभ)
दु, दो. वे (द्वि) तीनों लिङ्गों में
बहुवचन
प० - दुवे, दोण्णि, दुण्णि, वेण्गि, विष्णि, दो, वे वी० - दुवे, दोण्णि, दुण्णि, वेण्णि, विण्णि, दो, वे त० - दोहि- हिं हि ; वेहि-हिं-हि
च० छ० - दोह, दोन्हं, दुण्ह, दुण्हं, वेण्ह, वेण्द्दं, विन्ह, विहं ।
"
पं०-दुत्तो, दोओ, दोड, दोहिन्तो, दोसुन्तो वित्तो, बेओ, वेड, वेद्दिन्तो,
बहुवचन
सुन्तो
स० [दोसु, दोसं, बेसु, वेस
-
ति (त्रि) तीनों लिङ्गों में
प० - तिण्णि वी० - तिणि
त० - तीहि तीहिं, तीहि
च० छ० – तीन्ह, तीहं
"
पं० - तितो, तीआ, तीड, तीहिन्तो, तीसुन्तो
सं०-ती, ती सुं
चउ ( चतुर ) -- तीनों लिङ्गों में
बहुवचन
प० - चत्तारो, चउरो, चत्तारि वी० - चत्तारो, चउरो, चत्तारि
त० - चऊहि, चऊहिं, चऊद्दि
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
. २०९ चल्छ०-चउण्ह, चउण्हं पं०-चउत्तो, चऊओ, चऊउ, चअहिन्तो, चऊसुन्तो, चउओ, चउहिन्तो,
चउसुन्तो स० - चऊस, चउसु, चउसु, चउसु
पंच ( पश्चन् ) तीनों लिङ्गों में बहुवचन प०-पंच वी०-पंच त०-पंचहि-हि-हि चल्छ०-पंचण्ह, पंचण्हं पं०-पंचत्तो, पंचाओ, पंचाउ, पंचाहि, पंचाहिन्तो, पंचासुन्तो पंचेहि स०-पंचसु, पंचसु
छ (षष ) तीनों लिङ्गों में बहुवचन प०-छ वी०-छ त०-छहि, छहिं, छहि चल्छ०-छण्ड, छह पं०-छओ, छउ, छहिन्तो, छसुन्तो स-सु, छK
सत्त (सत्तन् ) तीनों लिङ्गों में बहुवचन प -सत्त वी०-सत्त त०-सत्तहि-हि-हि चल्छ०–सत्तण्ह, सत्तण्हं पं०-सत्तओ, सत्तउ, सत्तहिन्तो, सत्तसुन्तो स०-सत्तसु, सत्त ..१४
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२१०
बहुवचन
प०
वी०
त०
अट्ठ
० अट्ठ
अहि-हि-हि
च०छ० - अट्टह, अट्टह
पं० - अट्ठाओ, अट्टाउ, अट्ठाहिन्तो, अट्ठासुन्तो
स० - अट्ट, अट्ठ
बहुवचन
णव, नव ( नवन) तीनों लिंगों में
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
अट्ट ( अष्टन् ) तीनों लिंगों में
प० -- णव
वी०.
-णव
त० - वहि- हिं. हि
च०छ० - वह, णवण्हं
पं० - णवाओ, णवाउ, णवाहिन्तो, वासुन्तो
सं० - वसु, णवसु
बहुवचन
दह, दस (दशन) तीनों लिंगों में
प० - दह, दस
वी० - दह, दस
त० - दहहि - हिं-हि ँ, दस हि-हि-हि
प० - तेरह वी० - तेरह
च०छ० - दहह, दहहं, दसह, दसह
पं० - दहाओ, दहाउ, दहाद्दिन्तो, दद्दासुन्तो दसाओ, दसाउ, दलाद्दिन्तो,
दसान्तो
स- दहसु, दहसु; दलसु, दससु
बहुवचन
तेरह (त्रयोदश ) तीनों लिंगों में
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२११
त०-तेरहहि-हि-हि चल्छ०-तेरहण्ह, तेरहण्हं पं०-तेरहओ, तेरहउ, तेरहहिन्तो, तेरहसुन्तो स०-तेरहसु, तेरह
इसी प्रकार चउद्दह, पण्णरह, सोलह, छद्दह, सत्तरह और अट्ठारह शब्दों के रूप होते हैं।
कइ ( कति ) तीनों लिंगों में समान
बहुवचन प०-का वी०-कह त०-कईहि-हि-हि चल्छ०–कइण्ह, कइण्हं पं०-कइत्तो, कईओ, कई उ, कईहिन्तो, कईसुन्तो स०-कईसु, कईसु
वीसा (विंशति ) तीनों लिगों में एकवचन
बहुवचन प०-वीसा
वीसाओ, वीसाउ, वीसा वी०-वीसं
वीसाओ, वीसाउ, वीसा त०-वीसाअ, वीसाइ, वीसाए वीसाहि-हि-हि चल्छ०-वीसाअ, वीसाइ, वीसाए वीसाण, वीसाणं, पं०-वीसाअ, वीसाइ, वीसाए, वीसत्तो, वीसाओ, वीसाउ, वीसाहिन्तो,
वीसत्तो, वीसाओ, वीसाउ, वीसासुन्तो
वीसाहिन्तो स०-वीसाअ, वीसाइ, वीसाए वीसासु, वीसासु सं०-हे वीसा
हे वीसाओ, वीसाउ, वीसा इसी प्रकार एगूणवीसा, एगवीसा, दुवीसा, तेवीसा, चउवीसा, पण्णवीसा, छव्वीसा, सत्तवीसा, अट्ठावीसा, एगूणतीसा, तीसा, एगतीसा, दुतीसा, दोतीसा, तेतीसा, चउतीसा, पण्णतीसा, छत्तीसा, सत्ततीसा, अडतीसा, एगूणचत्तालीसा, चत्तालीसा, एगचत्तालीसा, बायाला, तेआलीसा, चउआलीसा, पण्णचत्तालीसा, छचत्तालीसा, सत्तचत्तालीसा, अडआलीसा, एगूणवन्ना, पन्नासा, एगावन्ना, दोवन्ना, तेवन्ना, चउवन्ना, पणवन्ना, छपन्ना, सत्तावन्ना, अट्ठावण्णा एवं अडवन्ना शब्दों के रूप होते हैं।
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२१२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
सहि (पष्टि) तीनों लिगों में एकवचन
- बहुवचन प०-सट्ठी
सट्ठीओ, सट्ठीउ, सट्ठी वी०-सर्टि
सट्ठीओ, सट्टीउ, सट्ठी त०-सट्ठीअ, सट्ठीआ, सट्टीइ, सट्टीए सट्ठीहि-हि-हि चल्छ०–सहीअ, सट्ठीआ, सट्ठीइ, सट्ठीण, सट्ठीणं
सट्ठीए
पं०-सट्टित्तो, सट्टोअ, सट्टीआ, सहित्तो, सट्ठीओ, सट्ठीउ, सट्ठीहिन्तो,
सट्ठीइ, सट्टीए . सट्टीसुन्तो स-सट्टीअ, सट्टीआ, सट्टीइ, सट्टीए, सट्ठीसु, सट्ठी सं०-हे हे सहि, सट्टी हे सट्ठीओ, सट्टीउ, सट्टी
इसी प्रकार एगसट्टि, दोसटि, तेपट्टि, चउसह, पणसहि, छसट्टि, सत्तसट्टि, अडसट्टि, एगूणसत्तरि, सत्तरि, सयरी, एगसत्तरि, दोसत्तरि, तेपत्तरि, तेवसत्तरि, चउसत्तरि, चउसयरि, पणसत्तरि, छस्सयरि, सत्तसपरि, अडसयरि, एगूगासीइ, असीइ, एगासीइ, दोसीइ, तेसीइ, चउरासीइ, पणसीइ, छासीइ, सत्तासीइ, सगसीइ, अठासीइ, एगूणउइ, णवइ, एगणवइ, दोणवइ, तेणवइ, चउणवइ, पंचणवइ, छण्णवइ, सत्ताणवइ, अट्ठाणवइ और नवणवइ शब्दों के रूप होते हैं ।
नपुंसकलिंग सय ( शत) एकवचन
बहुवचन प०-सयं
सयाई, सया, सयाणि वी०-सयं
सयाई, सयाइँ, सयाणि सं०--हे सय
हे सयाई, सयाइँ, सयाणि शेष शब्द अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के समान होते हैं। दुसर, तिसय, ( त्रिंशत ), वेसयाई-वेसं (द्विशतः , तिण्णि सयाई-त्रणसे (त्रिंशत), चत्तारिसयाई-चारसे ( चतुश्शत ), सहस्स ( सहस्र ), दहसहस्स ( दशसहस्र ), अयुअ ( अयुत ), लक्ख ( लक्ष ), दहलक्ख ( दशलक्ष ), पयुअ (प्रयुत ), कोडि ( कोटि ), कोडाकोडि ( कोटाकोटि ) आदि शब्दों के रूप भी इन्हीं शब्दों के समान होते हैं। सय आदि शब्दों के रूप केवल नपुंसकलिंग में होते हैं, अन्य लिंगों में नहीं।
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सातवाँ अध्याय
अव्यय और निपात ऐसे शब्द, जिनके रूप में कोई विकार–परिवर्तन उत्पन्न न हो और जो सदा एकसे-सभी विभक्ति, सभी वचन और सभी लिङ्गों में एक समान रहें, अव्यय कहलाते हैं। - अव्यय शब्द का शाब्दिक अर्थ है कि लिङ्ग, विभक्ति और वचन के अनुसार जिनके रूपों में व्यय-घटती-बढ़ती न हो; वह अव्यय है।'
अव्यय पांच प्रकार के होते हैं-(१) उपसर्ग (२) क्रिया विशेषग (३) समुच्चयादि बोधक ( Conjunctions ), (४) मनोविकारसूचक ( Interjections ) और (६) अतिरिक्त अव्यय ।
उपसर्ग (उवसग्ग) जो अव्यय क्रिया के पूर्व आते हैं, उन्हें उपसर्ग कहते हैं। उपसर्ग लगाने से क्रिया के अर्थ में परिवर्तन या वैशिष्ट्य आ जाता है। उपसर्ग की स्थिति तीन प्रकार की होती है।
(१) कोई उपसर्ग धातु के मुख्यार्थ को बाधकर नवीन अर्थ का बोध कराता है; (२) कोई धात्वर्थ का ही अनुवर्तन करता है और (३) कोई विशेषग होकर उसी धात्वर्थ को ओर भी स्पष्ट कर देता है । यथा—हरइ ले जाता है; अवहरइ (अपहरति)-चुराता है, अगुहरइ (अनुहरति)-नकल करता है, परिहरइ (परिहरति)छोड़ता है, आहरइ (आहरति)-लाता है, पहरइ (प्रहरति)-मारता है, विहरइ (विहरति)-विहार करता है, उवहरइ (उपहरति)-उपहार देता है , आदि ।
१. स्वरादिनिपातमव्ययम्-स्वरादि और निपात की अव्यय संज्ञा है।-१-१-३७ पा०
सदृशं त्रिषु लिङ्गेसु सर्वाषु च विभक्तिषु । वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम् ॥-सि० कौ० अव्यय प्रकरण २. धात्वार्थ बाधते कश्चित्कश्चित्तमनुवर्तते ।
विशिनाष्ट तमेवाऽर्थमुपसर्गगतिस्त्रिधा ।।.. ३. उपसर्गेण धात्वर्थों बलादन्यत्र नीयते ।
प्रहाराहार-संहार-विहार-परिहारवत् ।।-स्नातकसंस्कृतव्याकरणम् पृ० १२१ .
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२१४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
संस्कृत में २२ उपसर्ग हैं, पर प्राकृत में २० उपसर्ग ही मिलते हैं; निस् का अन्तर्भाव निर में और दुस् का अन्तर्भाव दुर में हो जाता है। प, परा, ओ-अ, व, सं, अणु, ओ-अव, ओ-नि, दु, अहि, वि, अहि, सु, उ, अइ, णि नि, पडि-पति, परिपलि, इ पि-वि-अवि, ऊ-ओ-उव और आ ये बीस उपसर्ग हैं। संस्कृत में भी निस् का प्रयोग निर् के अन्तर्गत और दुस् प्रयोग दुर् के अन्तर्गत पाया जाता है।
पप्र—प्रकर्ष-अधिकता बतलाने के लिए-परूवेइ (प्ररूपयति), पभासेइ (प्रभाषते)
परा< परा–विपरीत अर्थ बतलाने के लिए--पराघाओ (पराघातः); पराजिणइ (पराजयते)
ओ, अव ८ अप-दूर अर्थ बतलाने के लिए—ओसरइ, अवसरइ (अपसरति) अवहरइ (अपहरति) दूर ले जाता है; ओसरिअं, अवसरिअं ( अपसृतम् )
सं< सम् —अच्छी तरह-संखिवइ (संक्षिपति), संखित्तं ( संक्षिप्तम् )। __ अणु, अनु अनु-पीछे या साथ-रामं अणुगमइ लक्खणोः; अणुजाणइ (अनुजानाति), अनुमई (अनुमतिः)।
ओ, अवर अव-नीचे, दूर, अभाव-ओअरइ (अवतरति); ओआरो (अवतार:) अवमाणो (अवमान:); ओआसो, अवयासो (अवकाश:)।
ओ, नि, नी< निर् -निषेध, बाहर, दूर-ओमल्लं, निम्मल्लं ( निर्माल्यम् ) निग्गओ (निर्गत:), नीसहो (निस्सहः); रामो तं णिराकरइ ।
दु, दू<दुर्—कठिन, बुरा-दुन्नयो (दुर्नयः), दूदवो (दुर्भगः)।
अहि, अभि< अभि—ओर-- अहिगमणं ( अभिगमनम् )-किसी ओर जाना, अभिहणइ (अभिहन्ति), अहिप्पाओ (अभिप्रायः) ।
विवि-अलग होना, विना-विकुब्बइ (विकुर्वति), विणओ (विनयः), वेगइआ (वैनयिकाः)।
अहि, अधि<अधि-उपर-अहिरोहइ (अधिरोहति)—ऊपर चढ़ता है, अज्झायो (अध्याय:), अहीइ (अधीते)।
सु–सू८ सु-अच्छा सहज-सुअरं ( सुकरम् ), सूहवो ( सुभगः )।
उ उत्- ऊपर, ऊँचा श्रेष्ठ-उग्गच्छइ ( उद्गच्छति), उग्गओ (उद्गतः), उप्पत्तिआ ( औत्पत्तिकी)।
अइ, अति < अति-बाहुल्य या उल्लंघन-अईओ (अतीतः), वइकतो (व्यतिक्रान्त:), अतिसओ (अतिशयः), अञ्चन्तं ( अत्यन्तम् )।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२१५ णि, नि<नि-अन्दर, नीचे—दुट्टे णियमइ (दुष्टान् नियमति)-दुष्टों को अधीन या नीचे करता है; णिवेसो (निवेश:), सन्निवेसो (सन्निवेश:) निविसइ (निविशते)।
__ पडि-पति परि< प्रति-ओर, उलटा-पडिआरो (प्रतिकारः) पडिमा (प्रतिमा), पतिट्ठा (प्रतिष्ठा), परिट्टा (प्रतिष्ठा)।
परि, पलि< परि-चारों ओर-सुजो पुहवीं परिगमइ-सूर्य पृथ्वी के चारों घूमता है। परिवुडो (परिवृत्त:), पलिहो (परिधः)।
इ, पि, वि, अवि अपि-भी, निकट-देवदत्तो वि णागओ--देवदत्त भी नहीं आया। किमवि (किमपि), कोइ, कोवि (कोऽपि)।
ऊ, ओ उवर उप-निकट, उवासणा (उपासना)-निकट बैठना, प्रार्थना; उझायो, ओज्झायो, उवज्झायो (उपाध्याय); .
आ< आङ --तक-दिलीवो आसमुदं पुहवीए पइ आसि-दिलीप समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का राजा था; आवासो (आवास:), आयन्तो (आचान्तः)।
क्रियाविशेषण क्रियाविशेषण अव्यय प्राकृत में संस्कृत के समान कई प्रकार के होते हैं । क्रियाविशेषणों की संख्या प्राकृत में संस्कृत से भी अधिक है। नीचे अकारादि क्रम से प्रमुख क्रियाविशेषणों की तालिका दी जाती है।
अइ< अति-अतिशय, अइ< अयि-संभावना अईव< अतीव-विशेष, अधिकता, अओ< अत:-इसलिए
बहुत अग्गओर अग्रत:--आगे अग्गे<अग्रे-पहले अज्ज< अद्य-आज
अण ( नञ् )< अन-निषेधार्थक अण्णमएणं (अन्योन्यम्)< अण्णहा < अन्यथा-विपरीत
___अन्योन्यम्-आपस में अणंतरं< अनन्तरम् -पश्चात् , अत्थं अस्तम्-अदर्शन, अस्त-छिपना
विना अस्थि अस्ति–सत्तासूचक, अत्थर अस्तु-विधिसूचक, निषेधसूचक
अस्तित्वसूचक . - - अंतो< अन्तर-भीतर
अंतरं< अन्तरम्-अन्तर अप्पणो आत्मन:-अपना अपरज्जु< अपरेयुः-दूसरे दिन
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण अप्पेव < अप्येवम् – संशय अभिक्खं अभीक्ष्णम्-निरन्तर,
बारम्बार
अभितो< अभितः-चारों ओर अलं< अलम्-बस, पर्याप्त अलाहि < अलंहि-निवारण, निषेध अवस्सं< अवश्यम्-अवश्य अवरि उपरि-ऊपर
असई ८ असकृत्- अनेक बार अहत्ता < अधस्तात्-नीचे अहव, अहवा अथवा-पक्षान्तर अहा< यथा—जिस प्रकार अहे < अधः-नीचे आवि< आवि:-प्रकट
आहच्च < आइत्य-बलात्कार इ<इ-पादपूर्ति के लिए इओ< इत:- यहां से, वाक्यारम्भ में इक्कसरिअं< एकसृतम्-सम्प्रति इत्थत्तं< इत्थंत्वम्-इसप्रकार इच्चत्थो< इत्यर्थ:-इसके निमित्त इयाणिं < इदानीम्-इस समय इर< किल-निश्चय
इह < इह-यहीं इह < ऋधक्-सत्य
इहयं<धकक-सत्य इहरा< इतरथा-अन्यथा इं<किम्-प्रश्न, गर्दा ईसिं<ईपत्-थोड़ा
ईसि< ईषत्-थोड़ा उत्तरओ उत्तरत:- उत्तरसे । उच्चअ< उच्चैः-ऊँचे उत्तरसुवे< उत्तरश्च:-पश्चात् उपि < उपरि-ऊपर उवरि< उपरि-ऊपर
उवरि< उपरि- ऊपर एअं< एतत् - यह
एकइआ< एकदा-एक समय एकइआ< एकदा-एक समय एक्कया< , एकसरिअं< एकसृतम् -झटिति, एकसि, इक्कसिदएकदा-एक समय
सम्प्रति एकसिअं, इक्कसिअं< एकदा- एगइया, एगया< एकदा-एक समय
एक समय एगयओ८ एकैकतः-एक-एक एगंततो एकान्तत:-एक ओर एगझं< ऐकध्यम् –एक प्रकार एतावता, एयावयाद एतावता-इतना एत्थं, एत्थ < अत्र—यहां एव< एव-ही एवंद एवम्-इस तरह
एवमेव< एवमेव-इस तरह कओर कुत:-कहां से
कस्थइ कुत्रचित्-कहीं कल्लं < कल्यम्-कल . कह, कहं < कथम्-कैसे कहि, कहिं < कुन-कहां कालओ<कालत:-समय से
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२१७ काहे < कर्हि-कब, किस समय किंचि< किञ्चित्-अल्प, ईषत् , थोड़ा किंणा, किण्णा,किणो< किन्नु-प्रश्न किर, किल < किल-निश्चय, सचमुच केवच्चिर, केवच्चिरेण किय- केवलं केवलम्-सिर्फ . चिरम् , कियच्चिरेग-कितनी देर से खलु, खुद खलु-निश्चय चिअ, चेअ चैव-और भी । जइ< यदि-जो
जओर यतः-क्योंकि जत्थर यत्र-जहाँ
जह, जहा यथा-जैसे जहेव < यथैव-जिस प्रकार से जंयत्-जो, क्योंकि जाव<यावत्-जबतक
जह, जहा < यथा-यथा-जैसे-जैसे जह-तहा< यथा-तथा-जैसे-तैसे जाव<यावत्-जबतक जेण< येन-जिससे
जे ये-पादपूरक झगिति--सम्प्रति
झत्ति < झटिति-जल्दी ण<न-निषेधार्थक
णइ-अवधारण णं<नं-वाक्यालंकार
णमो< नम:--नमस्कार णवर-परन्तु, केवल
णवरि–अनन्तर णवरं < नवरम् - विशेषता णाणार नाना-अनेक णूण, णूणं ८ नूनम्-निश्चय, तर्क णो<नो-निषेध तं< तत्-वाक्यारंभ, इसलिए तंजहा< तद्यथा-उदाहरणार्थ, जैसे तए<तदा-तब
तओ, ततो, तत्तो< तत:- पुन: इसके
पश्चात् तत्थ < तत्र-वहाँ
तप्पमिइं< तत्प्रभृति-इसको आदि कर तह, तहा<तथा- उस तरह तहेव < तथैव-उसी तरह तहि, तहिं < तत्र-वहाँ तिरियं< तिर्यक-बांका या तिरछा तिरोपतिरः-छिपाना
तीअं अतीतम्--अतीत तु< तु-किन्तु
थू थूत्-तिरस्कार दर<दर-आधा, थोड़ा, अल्प दिवारत्तं< दिवारानम्-रात-दिन दुट् ठु< दुष्ठु-दुष्ट, खराब दुहओ, दुहार द्विधा- दो प्रकार धुवं<ध्रुवं-निश्चय
णिच्चं, निच्चं< नित्यम् -नित्य पच्चुअ< प्रत्युत-उलटा .....- पगेर प्रगे-प्रातःकाल में पच्छा< पश्चात-पीछे
पडिरूवं प्रतिरूपम्-समान परज्जु परेयुः-दूसरे दिन, कल परं परम् -परन्तु
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२१८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण परंमुहं < पराङ्मुखम्-विमुख परसवे परश्व:-परसों परितोद परित:-चारों ओर - परोप्पर, परुप्परं परस्परम्
परस्पर में, आपस में पसरह - प्रसह्य-हठात् , जबर्दस्ती पातो< प्रात:-प्रातःकाल पायो, पाओ< प्रायः-प्रायः, बहुधा. पि< अपि-भी पुण, पुणोः< पुन:-फिर पुणरुत्तं< पुनरुक्तम् -पुनरुक्त पुणरवि< पुनरपि-फिर भी पुरओ< पुरतः-आगे, सम्मुख पुरत्था< पुरस्तात् – आगे, सम्मुख पुरा< पुरा-पहले पुहं, पिहं < पृथक्-अलग पेच्च प्रेत्य-परलोक में बहिद्धा, बहिया, बहिं बहिर्धा, भुज्जोर भूयः-बार-बार, अधिक
बहिः-बाहर मग्गतो<मार्गत:-पीछे मणयं मनाक्-थोड़ा मुसार मृषा—झूठ
मुहु< मुहुः-बार-बार मामा-निषेध
मोदउल्लासमुधा–व्यर्थ यहो< ह्यः-बीता हुआ, कल रहो< रहः-गुप्त लहु - लघु- शीघ्र
व्वर इव-जिस प्रकार विणा< विना-बिना वीसुंदविष्वक्-व्याप्त वे< वै-निश्चय
सइ< सदा-- सदा सइ< सकृत् --एकवार
सक्खं< साक्षात्-प्रत्यक्ष सज्जो< सद्यः-शीघ्र
सद्धिं सार्धम्-साथ सपक्खि ८ सपक्षम् -अभिमुख, सामने समं< समम्-साथ सम्म< सम्यक्-ठीक, भली प्रकार सयं स्वयम्-स्वयम् सयाद सदा-सदा
सव्वओ< सर्वतः-सभी ओर सह सह-साथ
सहसा< सहसा-एकबारगी सिय, सिअ स्यात्-कथञ्चित् सुवत्थिर स्वस्ति-कल्याण सुवेदन:-आनेवाला कल सेवं तदेवं-समाप्ति, स्वीकार हंद रहन्त (गृहाण)-ग्रहण करो, ले हलाद -सखि के लिए
सम्बोधन हव्वं< हव्यम्-शीघ्र हिर -निश्चय हेहार अध:-नीचे
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
समुच्चयबोधक अव्यय
जो अव्यय एक वाक्य को दूसरे वाक्य में मिलाता है, उसे समुच्चयबोधक अव्यय कहते हैं । इसके सात भेद हैं ।
२१९
( १ ) संयोजक – य, अह, अहो, ( अथ ), उद, उ ( तु ), किंच आदि । ( २ ) वियोजककिंवा, तु, ऊ, किंतु आदि ।
Lal,
( ३ ) संकेतार्थ - जइ, चेअ, णोचेअ, ( नोचेत् ), जद्दपि, तहावि, जदि, इत्यादि । ( ४ ) कारणवाचक - हि तअ, तेण इत्यादि ।
(५) प्रश्नवाचक - अहो, उद, किं किमुत, तणु, णु, किन्तु, इत्यादि । ( ६ ) कालवाचक — जाव, ताव, जदा, तदा, कदा इत्यादि ।
(७) विधि अथवा निषेधार्थक – अङ्ग, अह, ई, आम, अद्धा, इत्यादि ।
अह कार्यारम्भ और 'इति' कार्यान्त का सूचक है । 'य' शब्द और अर्थ का सूचक है। जहां हिन्दी में 'और' दो जोड़े हुए शब्दों के बीच में आता है, वहाँ प्राकृत में 'य' शब्द दोनों के उपरान्त आता है । यथा - रामो लक्खणो य सीआए सह गमीईअ ।
मनोविकारसूचक अव्यय
आनन्द अर्थ में - अव्वो
( १ ) अव्वो -दु:ख, संभाषण, अपराध, विस्मय, आनन्द, आदर, भय, खेद, विषाद और पश्चात्ताप अर्थों में 'अव्बो' का प्रयोग होता है । अव्वो तम्मेसि - खेद है कि तुम उदास हो । अब्बो तुज्झेरिसो माणो - प्रणययुक्त प्रणयी में तुम्हारा ऐसा मान ? – इससे अपराध और आश्चर्य दोनों प्रकट होते हैं। पिअस्स समओ - यह आनन्द की बात है कि प्रियतम के आने का समय है | आदर अर्थ में - अव्वो सो एइ – मेरा प्रियतम यह आ अन्वो - भय है कि वह थोड़े अपराध पर ही रूठ अर्थ में - अब्बो कट्टु – मैं खिन्न और विषण्ण हूँ । एसो सहि यए रिओ - सखि ! मैं तो पछता रही हूँ
रहा है । भय अर्थ में - रूसणो जानेवाला है । खेद और विषाद पश्चात्ताप अर्थ में - अव्वो किं कि मैंने इसे बरा क्यों ?
( २ ) आ, हुम् क्रोध सूचक; आ फहमिदं संजाअं - अरे ! यह कैसे हो गया - क्रोध दिखलाया गया है। हं ते कइवरा विवरीया बोहा - क्रोध सहित - खेद है कि कविवर विपरीत बोध वाले हैं ।
( ३ ) विषाद, विकल्प, पश्चात्ताप, निश्चय और सत्य अर्थों में 'हन्दि ' अव्यय का प्रयोग किया जाता है । विषाद अर्थ में- हन्दि विदेसो - दुःख है कि हमारे लिए यह विदेश है । विकल्प अर्थ में - जीवइ हन्दि पिआ - पता नहीं मेरी प्रियतमा
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२२०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण जीती है अथवा नहीं। पश्चात्ताप अर्थ में हन्दि किं पिआ मुक्का ? क्या हमने विरह दुःख का बिना विचार किये ही प्रियतमा को छोड़ दिया ? निश्चय अर्थ में-हन्दि मरणं-मरना निश्चित है । सत्य अर्थ में हन्दि जमो गिम्हो-ग्रीष्म यमराज है, यह बात सच है। शोकसूचक अर्थ में-हा रोगेण पीडितामि-रोग से पीड़ित हूँ।
( ४ ) भय, वारण और विषाद अर्थ में 'वेव्वे' का प्रयोग होता है। यथासमुहोट्ठीअम्मि मयरे वेव्वे त्ति भणेइ मल्लिउञ्चिणिरी--सम्मुखोत्थिते भ्रमरे वेव्वे इति भणति मल्लिकामुच्चेत्री।
( ५ ) निश्चय, वितर्क, संभावना और विस्मय अर्थों में 'हुँ' और 'खु' का प्रयोग किया जाता है। निश्चय अर्थ में --- सो हु अन्नरओ-यह निश्चित है कि वह दूसरी स्त्री में रम गया है। वितर्क और संभावनों अर्थो में-तस्स हुँ जुग्गा सि सा खु न तंमैं ऐसा अनुमान करता हूँ और यह संभव भी है कि वह दूसरी स्त्री उसके योग्य है और तुम उसके प्रियतम के योग्य नहीं हो। विस्मय अर्थ में-एसो खु तुझ रमणोआश्चर्य है कि यह तुम्हारा प्रिय है।
(६ ) गर्दा, आक्षेप, विस्मय और सूचन अर्थों में ऊ का प्रयोग किया जाता है । गीं अर्थ में-तुज्झ ऊ रमणे-तुम्हारा निन्दित रमण। आक्षेप अर्थ में-ऊ किं मए भणिअं-- अरे मैंने क्या कह डाला । विस्मा अर्थ में-ऊ अक्षरा मह सही - अहो, मेरी सखी अप्सरा है। सूचन अर्थ में—ऊ इअ इसेइ लोओ-तुम्हारे प्रियतम को दोष दे-देकर सखियां हँसती हैं।
( ७ ) आश्चर्य अर्थ में अम्मो अव्यय का प्रयोग होता है। यथा-स अम्मो पत्तो खु अप्पणो-वह प्रियतम अपने आप प्राप्त हो गया; आश्चर्य है।
(८) रतिकलह अर्थ में रे, अरे और हरे अव्यय का प्रयोग होता है। यथा-- अरे मए समं मा करेसु उवहासं-रतिकाल में झगड़ा हो जाने पर नायिका कहती है-अरे मेरे साथ हँसी मत करो। अरे बहुवल्लह-अरे बहुतों के प्रिय ।
( ९ ) हद्धी अव्यय निर्वेद अर्थ में प्रयुक्त होता है। यथाहद्धी, इअ व्व चीरीहि उल्लविरं।
(१० ) अम्हो आश्चर्य अर्थ में प्रयुक्त होता है। यथा-अम्हो कहं भाइआश्चर्य कथं भाति ।
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
अतिरिक्त अव्यय निपात
तद्धितों और कृत्प्रत्ययों के संयोग से भी कुछ अव्यय बनते हैं । तथा इआणि, आणि ( इदानीम् ), इअहरा ( इतरथा ), एहि, एत्ता ( इदानीम् ) कहि (कुत्र), कुओ कुदो (कुत:), जत्थ (यत्र), जहा, जहा, जहि (यथा ), सव्वाओ, ( सर्वतः ); सहासउत्तो (सहस्रकृत्वः), एकहा आदि अव्यय के समान ही प्रयुक्त होते हैं ।
प्राकृत में निपात का महत्त्वपूर्ण स्थान है । जो पद व्याकरण के नियमों के विपरीत सिद्ध होते हैं, वे निपातन से सिद्ध माने जाते हैं । जनभाषा होने से प्राकृत में ऐसे सहस्रों शब्द हैं, जिनकी व्युत्पत्तियां सिद्ध नहीं की जा सकती हैं । ऐसे शब्द निपातन से सिद्ध माने जाते हैं । जितने देशी शब्द हैं, वे प्राय: निपातन से सिद्ध माने गये हैं ।
अझहरो - रहस्यभेदी अक्कंतो- वृद्धः अग्गिआयो - इन्द्रगोप: अंकिअं - आलिङ्गितम् अच्छिवि अच्छी- परस्पराधिः अच्छुद्धसिरी - मनोरथाधिकफलप्राप्तिः
अजमो— ऋजुः
अड्डअणा - पुंश्चली
अणरहू - नववधूः
अणुझिअओ - प्रयतः परिजागरित:
अणुसूआ - आसन्नप्रसवा अण्गइओ - सर्वार्थतृप्तः
अत्तिहरी — दूती
-
अन्तरिज्जं - रशना, कटिशूलम्
अपिट्टं - पुनरुकृतम् अपुणं पूर्णम्
-
अ
अमओ-असुर : अम्हत्तो—प्रमृष्टः
अकोप्पो - अपराधः
अग्गहिओ - विरचितः विप्रगृहीतः
अग्गुच्छं - प्रतीतम्
अच्छिवडणं - निमीलनम्
अच्छिहरूहो— वेण्यः अजडो - जारः
अट्टणो — आर्तज्ञः
अणडो - जार:
अणहवणअं - भर्सितम् अणुदिवं - दिनमुखम् अण्णं - आरोपितम्, खण्डितम् अण्णासअं - आस्तृतम्
२२१
अथकं - अकाण्डम् अपंडिअं— अनष्टम्
अपुण्णं - आक्रान्तम्
अबुद्धसिरी - मनोरथाधिकफलप्राप्तिः
अम्मच्छं - असंबद्धम्
अयुजरेas - अचिरयुवति:
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२२२
अरणी - सरणी
अल्लिल्लो -- भ्रमरः अवडाहिअं— उत्कृष्टम् अवरिज्जं - अद्वैतम्
अवहट्ठो - दर्पितः
अवाडिओ - वञ्चितः
अविहिओ
-मत्तः
अस्संगिअं- आसक्तम् अहिरोइअं - पूर्णम् अहुमाअं - पूर्णम्
--
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
आरोग्गरिअं - रक्तम् आविअं - प्रोतम्
आवेवओ - व्यासक्तः, प्रवृद्धः आहडं - सीत्कारः आलिआ - आली
उओ—ऋजुः उक्कंअं - प्रसृतम्
- अलवलव सहओ - धूर्त्तवृषभ: अवगलो - आक्रान्तः अवडल्लिअं - कूपादिनिपतितम् अवसणं- स्तुतम्
अवहोओ — विरह
-
अविणअवइ - जार:
आ
आआसत्तअं - हर्म्यपृष्टम्
आकासिअं - पर्याप्तम्
आणंदवसो - प्रथमरजस्वला रक्तवस्त्रम् आणुअं - आननम्
आपण पिष्टम् आरिट्ठो-यात :
अव्वा - अम्बा
अहिअलो— क्रोधः अहिसिओ - प्रभीतः
chy
आओ - आप: आडविओ - चूर्णितः
आरनालम् - अम्बुजम्
आरोइअं - मुकुलितम्, मुक्तम्, भ्रान्तम्, पुलकितम्
आरोद्धो - प्रवृद्ध:, गृहागतः आविलिओ - कुपितः
आसंधो—आस्था आहिद्धो – रुद्र:, गलितः
इ इसओ - विस्तीर्णः
ईद्धग्धूिमो - तुहिनम्
उओग्गओ- — सन्नद्धः उक्कज्जो - अनवस्थितः
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२२३
अभिनव प्राकृत-व्याकरण उकंडिअ—आरोपितम् , खण्डितम् उक्कंद-विप्रलब्धम् उक्करिओ-विस्तीर्णः
उक्करिअं-आरोपितम् , खण्डितम् उक्कासं-उत्कृष्टम्
उक्कोसिअं-पुरस्कृतम् उक्खणं-अवकीर्णम्
उगाहिअं-उत्क्षिप्तम् उघृणम्-पूर्णम्
उच्चदिअं-मषितम् उच्चरिअं–पुरस्कृतम् । उच्चल्लो–अध्यासितः, दारित: उच्चुगो-अनवस्थितः उच्चुरणो–उच्छिष्टः उच्छिरणं-उच्छिष्टम्
उच्छिल्लो-अवजीण: उच्छूढो-आरूढः
उज्झणिअं-विक्रीतम्, निम्नीकृतम् उज्झमाणं—पलायितम्
उज्झलिअं–प्रक्षिप्तम्, विक्षिप्तम् उज्झलो-प्रबलः
उज्झसिअं-उत्कृष्टम् उझिअं-शुष्कम्, निम्नीकृतम् उडंबो-लिप्तः उडाहिअं-उत्क्षिप्तम्
उडिअं-अन्विष्टम् उड्डिओ-उत्क्षिप्तः
उत्ततो--अध्यासितः उत्तुर्वो-दृष्टः
उदाहिअं-उत्क्षिप्तम् उदूलिअं-अवनतम्
उद्धारिअं-रणद्रुतम्, उत्खातम् उद्घओ-शान्त:
उद्धणो-उद्धतः उद्धरिअं-अदितम्
उद्धलो-पायाप्रवृतः उप्पत्तो-गलितः, विरक्तः उप्पल्लो–अध्यासितः उम्मडो-उद्धृतः
उम्मरिअं-उन्मूलितम् उम्मुहो-उद्धत:
उय्यकिअं-पुजीकृतम् उय्यलो-अध्यासित:
उरविअं-आरोपितम्, खण्डितम् उरुमल्लो-प्रेरितः
उलुओसिअं-रोमाञ्चितम् उलुहुलअं-अवितृप्तम्
उल्लिओ - उपसर्पित: उल्लिकं-दुश्चेष्टितम्
उल्लुअं-पुरस्कृतम्, रक्तम् उल्लुहुडिअं-उन्नतम्
उल्लूढो-आरूढः उल्लोको त्रुटितः
उवउजो-उपकारी उवडिअं—अवनतम्
उविद्धो-स्त: उव्विक्को-प्रलपितः
उव्विडअं–चकितम्, क्लान्तकम् उव्विव्वओ-क्रुद्धः . -.. उसलिअं-रोमाञ्चितम्
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२२४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
ऊआ-यूका ऊणंदिअं-आनन्दितम् ऊसअं-उपधानीकृतम् ऊसुंभिअं–रुद्धगलरोदनम्
-ऊगि-अलंकृतम् ऊरिसंकिओ-रुद्धः ऊसविअं-उद्वान्तम् ऊसुंभिअं-उपधानीकृतम्
- एकल्लो = प्रबल:
एलविलो = धनी, वृष:
ओओधिअं= आघ्रातम् ओअल्लम् = विप्रलब्धम् ओउल्लिअं = पुरस्कृतम् ओज्जरो = भीरूः ओंदुरो-उन्दुरुः ओम्मल्लं-घनीभूतम् ओवाअओ-आपातप: ओसडिओ-आकीर्णः ओसरिओ-आकीर्णः, अक्षिसंकोचात्
ओअम्मओ = अभिभूतः ओअल्लो = कम्पः, अपचारः ओच्छंदिरं = अपहृतशरीरादिव्यथितम् ओणअं-अवनतम् ओप्पं-मृष्टम् ओमंसो-अपसृतः ओसट्रो-विकसित: ओसण्णो---त्रुटितः ओसाअणं-महीशानम्
संज्ञित:
ओसिअं -अपूर्वम् ओहल्ली--अपमृतिः ओहामिओ-अभिमूतः
ओसिरणं-व्युत्सर्जनम् ओहरणं-आघ्रातम्
कउडं-ककुदम् कक्खलो-कर्कशः कडदरि-छिन्नम्, छिद्रता कडिओ-प्रीणितम्
कक्खडो-कर्कशः कच्चं-कार्यम् कडप्पो-कलापः कडिल्लं-आशी:, गहनम्, दौवारिकः,
___कटिवस्त्रम्, निर्विवरः, विपक्षः कणइ–लता कथो-उपरतः, क्षीणः कमणी-निःश्रेणी
कणइल्लो-शुकः कत्तं-कललम् कंदोळं-उत्पलम्
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२२५
कमलं-आस्यम्, कलहः
करमूरी-हठहता करमा-क्षीणः
करिल्लो-करीरः कलबू-अलाबूः
कलेरं-करालम् कव्वरिअं-आरोपितम्, खण्डितम् काअपिउला-कोकिला कारिमं-कृत्रिमम्
कालं-तमिस्त्रम् किपाडो-स्खलितः
किमिघरवसणं-कौशेयम् किरिकिरिया-कर्णोपकर्णिका, कुतुकम् किरो-किरूः कुच्छिमई–गर्भवती
कुडङ्गो-लतागृहम् कुडुबीअं-सुरतम्
कुड्ढं-कुतुमम् कुम्मणो-म्लान:
कोजरिअं-आपूरितम् कोडिओ-पिशुनः
कोडिल्लो–पिशुन: कोलीरं-कुरुविन्दम्
खंधमसी-स्कन्धयष्टिः खुड्डओ-क्षुल्लक: खेड्ड़े-खेल:
खंधलट्ठी-स्कन्धयष्टिः खुरहखुडी-प्रणयकोपः
गअं-आपूर्णितम्
गुम्मिओ-मूलाच्छिन्नः गअसाउल्लो-विरक्तः
गजिलिओ-अगस्पर्शनिमित्तकहासः,
- अङ्गस्पर्शनिमित्तकपुलकः गंजोलो-समाकुलः
गत्तडी-गायिका गत्तो-गतः
गमिदो-अपूर्णः, गूढः, स्खलित: गल्लो-गण्डस्थलम्
गलद्धओ-प्रेरितः गविअं-अवतम्
गहरो-गृद्धः गहिआ-ग्राह्याः
गहिल्लो–अहिलः गामणहं-प्रामस्थानम्
गामरेडो-ग्रामभक्षक: गावी-गौः
गावो-गत: गुज्जलिओ-संघट्टितः
गुमिलो-मूढः गुम्मइओ-अपूरितः, स्खलित:, आमू- गुलिअं-मथितम्
लोच्चलित:, मूढ़ः, विघटित:
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२२६
गोणा - गौः
गोदा - गोदावरी गोला - गोदावरी गोसो - प्रत्यूष:
घअअंदं— मुकुरम् घडं - सृष्टीकृतम्
घडिआ — गोष्टी
घाणो - गायनम् घुसिमं घसृणम्
---स्थासकः
चक्कं-चतुष्पथम् चञ्चरित्र - चंचरीकः चच्चिकोचण्डिज्जो - पिशुनः, चपेटा - कराघातः चलणाओहो - चरणायुधम् चिक्कं — स्तोकः, क्षुतम्
कोप:
चित्तलं – रम्यम् चिमिणं - रोमाञ्चितम्
. चिलिचिलिआ - धारा
छट्टा- छटा
छिक्कं—स्पृष्टम् छिच्छओ - जारः छिण्णालो - जार:
छिल्लं - छिद्रम् छेणो- स्तेन:
अभिनव प्राकृत व्याकरण
गोणिको — गोसमूह :
- गोरडितम् - स्रस्तम् गोसण्णो-मूर्ख :
घ
छ
घडइअं - संकुचितम् घडाघडी-गोष्ठी
घसणि - अन्विष्टम् घुग्घुसुर - अशंकं फणितम्
चक्कलं - वर्तुलम्
चच्चा—तलाहतिः चण्डिक्को—कोपः
चंदोज्जं - कुमुदम् चप्पलओ - बहुमिथ्यावादी
चल्लणकं— जघनांशुकम्
चिक्खअणो-सहन: चित्तविअओ - परितोषितः चिरिचिरिया - धारा च्छाइलो - रूपवान्
इंडि—छन्नम् छिच्छई- पुंश्चली
छिछि धिधि
-जार:
छिण्णोछूहिअं- पार्थपरावृतम्
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२२७
२२७
जअल्लो-छन्न: जंघालुओ- द्रुतः जडं-त्यक्तम् . जण्णहरो-नरराक्षसः जंभणंभणो-स्वैरभाषी जहणरोहो-ऊरुः जुअणो-युवा जोअडो-खद्योतः जोइओ-खद्योतः जोइ-विद्युतः ज्झहुराविश्र-निर्वासितम्
जंघामओ-द्रुतः जच्छंदो-स्वच्छन्दः जणउत्तो-ग्रामप्रधान: जंपिक्खिरमग्गिरओ-दृष्टार्थयाचनशील: जरण्डो-वृद्धः जहणू सुअं-जघनांशुकम् जूसओ-उत्क्षिप्तः जोत्रणो-खद्योतः जोइक्खो-दीपः जोरो-चन्द्रः
झ
झडिओ-श्रान्तः झपिअं-पर्यस्तम्
___ मंदिअं-प्रद्रुतम्
..
ठाणिज-गौरवम्
डंभित्रो-डाम्भिकः डेकुणो—मत्कुणः डोसिणी-ज्योत्स्ना
डिंडओ-जलान्त: पतितः डेड़ डुरो–ददुरः
णन्दिणी-धेनुः णाली-स्रस्तः णिउक्को-तूष्णीक: णिक्कजो-अनवस्थितः णिक्खाविओ-शान्तः णिग्गठो-निर्गतः णिज्जो-सुप्तः
‘णलिअं-निलयम् णिअद्धणं-परिधानम् णिउरं-छिन्नम् , जीर्णम् णिकजो-निश्चयः -णिगमिश्र-निर्वासितम् णिचुड्डो-उद्धत: णिप्पणिओ-जलधौतः
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२२८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
णिप्फंसो-निस्त्रिंशः णिम्मीसुओ-नि:श्मश्रुक: णिव्वहइ-उद्वहति णिहवो-सुप्तः णिहेलणं-निलयम्
णिमि-आघातम् णिरासो-नृशंसः णिसुद्धो-वातितः णिहुअं-सुरतम् णीसंको-वृष:
तच्छिलो-तत्परः तणसोल्ली-तृणशून्यम् तण्णाअं-आर्द्रम् तत्तुरिअं-रजितम् तंबकुसुमं-कुरवकम्, कुरण्टकम् तलारो-तलवरः तल्लडं-तल्पम् तेआलिसा-त्रिचत्वारिंशत् तोमरिओ-शस्त्रमार्जनम्
तडकडिओ-अनवस्थितः तणेसी-तृणराशिः तत्तिलो --- तत्परः तंबकिमी-इन्द्रगोपः तलं-तल्पम् तल्लं-तल्पम् तित्ति-तात्पर्यम् तेवण्णा-त्रिपञ्चाशत्
थिरण्णेसो-अस्थिरः थेवो-स्तोकः थोवो-स्तोकः
थेरोसणं-अम्बुजम् थोको-स्तोकः
दड्ढाली–देववर्म दुग्गं-दुःखम् दुद्धोलना-गौः दुम्मइणी-कलहकारिणी दूणो--द्विपः दोग्गं-युग्मम् दोबुरो-तुंबुरिः दोसारअणो-चन्द्रः
दरवल्लहो-कातरः दुग्घोट्टो–द्विपः दुदुमिअं-रसितम् दुरिअं-द्रुतम् दूसलो-दुर्भगः दोग्योट्टो–द्विपः दोसणिजन्तो–चन्द्रः दोसो-कोपः
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प्राकृत-व्याकरण
२२९
धणिआ-धन्या धुअरासो-भ्रमरः धुअहं-पुरस्कृतम् धूमरी—तुहिनम्
धारावासो-दुर्दुरः धुत्तो-आक्रान्त: धूमद्धअमहिसी-कृतिकाः धोरणी-पङ्क्तिः
नंगओ-रुद्धः
प
__
पअरो-अर्थदरः पंसुलो-रुद्धः पच्छाणिओ-सन्मुखमागत: पट्ठिअं-अलंकृतम् पडिरिग्गअं-भग्नम् पडिसोत्तो-प्रतिकूलः पड्डाविअं-समापितम् पण्णवण्णा-पञ्चपञ्चाशत् पंडरगु-ग्रामेशः पद्धलं-पार्श्वद्वयाप्रवृतः पह्मलो-केसरः परिअट्टविअं-परिच्छन्नम् परिक्खाइअओ-परिक्षीणः परिहाइओ-परिक्षीणः परोळं-पर्यस्तम् पल्लित्तं-पर्यस्तम् पविग्धं-विस्मृतम् पसल्लिओ-प्रेरित: पाउरणं-प्रावरणम्, कवचम् पाडहुकः-प्रतिभूः पासाणिओ-साक्षी पिउच्चा-पितृष्वसा, सखी
पअलाओ-फणी पागरणं-प्रावरणम् पज्जतरं-दलितम् पडिक्खरो-प्रतिकूल: पडिसिद्धी-प्रतिस्पर्धा पडिहत्थो-अपूर्वः पणिलिअं-हतम् पण्णा-पञ्चाशत् पत्थरं-पादताडनम् पम्मी-पाणिः परभत्तो-भीरुः परिअड्डिअं-प्रकटिकम् परिच्चिअं-उहिक्षप्तम् परेओ-पिशाचः पलहिअओ-मूर्खः, उपलहृदया पल्लोट्टजीहो-रहस्यभेदी पविरंजवो-स्निग्धः पहटो-उद्धत,: अचिरटः पाओ-फणो पाडिपिद्धी-प्रतिस्पर्धा पासावो-गवाक्षः पिठसिआ-पितृष्वसा
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२३०
पिडओ - आदिन्नः पिप्पडिअंतू किंचित्पठितम्
पिव्वं - जलम् पुण्णाली -- पुंश्चली पुरिलो — दैत्यः
पुव्वंगो - मुण्डितः
पेसणआली - दूती पेकिअं-यूपरटितम्
बइलो – बलीवर्दः बन्धोल्लो-मेल: बम्हालो - अपस्मारः बहिओ - मथितः
बहुलिआ - ज्येष्ठभ्रातृवधूः बाओ - बालः
बुलबुलो—बुदबुदः
भच्चो - भागिनेयः भाइरो—भीरुः
भिगं - नीलम्, स्वीकृतम् भेज्जो - भीरू :
--
मइमोहिणी - सुरा मघोणो - मघवान् मडप - गर्व:
अभिनव प्राकृत - व्याकरणे
मदोली- दूती मरिओ - लुटितः, विस्तीर्णः महल्लो - मुखर :
माउच्चा - मातृष्वसा, सखी
माणंसी - मायावी, मनस्वी
भ
म
पिड - प्रशान्तम् पिलुअं— क्षुतम्
पुआइ - उन्मतः, पुप्फी - पितृष्वसा
पुलंघओ - भ्रमरः पेज्जलिओ - संघटित: पोरत्थो - मत्सरी
पिशाचः
बडिओ -- बन्दी
बम्हहरं — अम्बुजम्
बलामोडी - बलात्कारः बहुजाणो - चौरः, धूर्त्तः, जार: बहुली - क्रीडोचितशालभञ्जिका बुड्डड्रो - महिष:
भट्टियो – विष्णुः
---
भाउज्जा - भ्रातृजाया
भेज्जलो – भीरुः
भोइओ - महेष :
माइलपुत्ती - पुष्पवती मंजरी - मार्जार: मत्तवालो—
-मत्तः
गम्मको - गर्वः महालयपक्खो – महालयपक्षः माइंदो - माकन्दः माउसिआ - मातृष्वसा
माभाइ - अभयम्
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माहिवाओ- -माघवातः मुसलं - मांसलम् मुहुरोमराइ - भ्रूः
रअणिद्धअं- कुमुदम् रगिल्लो – अभिलषित: रिछोली- पंक्ति:
रिमिणो - रोदनशील : रूपरूइआ - उत्कलिका रोक्काअं - प्रोक्षितम्
लंबा-वल्लरी, लइणा - लता
लज्जालु इणी - कलहकारिणी
लववो -सुप्तः
लुक्को - सुतः ल्हिको
केश:
-
- गतः
वअणीआ - उन्मत्ता, दुःशीला वक्कं पिष्टम्
वच्छुद्धलिओ—प्रत्युद्धतः वडणायो - घर्घरकण्ठ:
बडिमं स्तुतम्
वडइअं - पीडितम्
वणनत्तडिअं - पुरस्कृतम्
वप्पिअं रक्तम् वरइत्तो - नूतनवर: वरत्तो - पीतः, पतितः, पेटितः वल्लटं — पुनरुक्तम्
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
र
मिअं— अलंकृतम्
मुद्दलं - मुखम्
मेहुण - मातुलात्मजा,
रइलक्खं जघनम्
रिअं - लूनम्
रिट्रो-अरिष्टम्, दैत्य, काक:
-आक्रान्तः
रुद्धोवसिणी - रूपवती
लअणी - लता लक्कुडो - लगुड :
लडहा - विलासवती लाहिल्लो - लम्पट : लोट्टो - स्मृतः
स्याली
वइरोडो - जार: वक्खलं - आछादितम्
वंजर - मार्जार:
वडिसाअं - स्तुतम् वड्डअरो - बृहत्तरः
वणइ - वनराजि:
वंद — वृन्दम् पिओ - केदार:
वरण्डो - प्राकारः वल्लकिअं - उत्संगितम् - वल्लविअं - लाक्षारक्तम्
२३१
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२३२
वह पर्यासम्
वाअडो - शुकः
वाडी - वृति:
वामो- आक्रान्तः वारिज्जो - विवाहः
विअंटुटं - अवरोपितम् मुक्तम् विच्छुरिअं - अपूर्वम्
विड्ढो - पुसो स्थितः
वित्थिरं - विस्तार:
विरुओ - विरुद्धः विसारो - सैन्यम्
विहडणो - अनर्थः
विहुंउओ – विधुंतुदः वीवी - वीचिः
वेणुसारो - भ्रमरः
वेलंबो - विडम्बनम्
वेल्लहल्लो –— कोमल, विलासी
वेल्लरीओ- चडुरी, केशः व्युडो - विट:
अभिनव प्राकृत व्याकरण
संसाओ - आरूढः, चूर्णितः, पीतः,
उद्विग्न:
सइलासिओ – मयूर : संकरो- रथ्या
संघअणं - संहननम् सडिअग्गिअं - वर्धितम्
सत्थरो - संस्तरः
समराइअं – पिटम् समुहहरं अम्बुगृह
उत्थिया - दूती
--
बहुहाडिणी - वध्वा उपरि परिणीता
वाउलो - प्रलपितः वामूलूरोवारड्डुं – अभिपीडितम्
- वामलूरुः
वावडो - कुटुम्बी विउसग्गो — व्युत्सर्गः बिड्डितं अर्जितम्
विडुच्छओ – निषिद्ध: विरिचरो - धाराविरेचनशील:
-
विवओ - विस्तीर्णः
विसो - वृष:, मूषकः विहिमिहिओ – विकसित :
वोली -वीथि:
वेणिअं - वचनीयम्
वेण्णो
----आक्रान्तः
बेलअं संकुचितम्
वेल्लरी - विलासवती
वोट्ठी - स
स
सइकोडी - शतकोटि :
सग्गहो—मुक्तः
संगोलं— संघातः
संचारी - दूती
सत्तो गतः
सद्दालं— नूपुरम्
समुद्धणवणीअं - चन्द्रः सरिसाहुलो – सह: साउल्लो – अनुरागः
-सदृश:
-
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
२३३
साणिओ-शान्त: सालकिआ-शारिका सिट्ठो-सुप्तोत्थितः सिंहडहिल्लो-बालक: सीउटुं-हिमकालदुर्दिनम् सीसकं-शीर्षकाम् सुहरओ-धारिकागृहम् , चटकः सूरद्धओ-दिवसः सेवालं-सेवालम् सोहिअं-पिटम्
सामरी-शाल्मरी साहुली-शाखा सिप्पी-शुची सिहिणं-स्तनम् सीउल्लं-हिमकालदुर्दिनम् सुण्हसिओ-निद्राशील: सूरंगो-दीपः सूरल्ली-मध्याह्नम् सोत्ती-तरङ्गिणी
हकिअं-उन्नतम् हडहडओ-अनुराग: हिज्जा-ही हीमोरं-भीमरम् . हेपिअं-उन्नतम् हेसमणं-उन्नतम्
हट्रमहटो-युवस्वस्थः हल्लपविअं-त्वरितम् हिद्धो-स्त्रस्त : हीरणा-त्रपा हेरिवो-हेरम्बः हेसिअं-रसितम्
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आठवाँ अध्याय कारक, समास और तद्धित प्रकरण
कारकविचार करोति क्रियां जनयतीति कारकम् -क्रिया के उत्पादक को कारक कहते हैं; अथवा 'क्रियान्वयि कारकम् '-क्रिया के साथ जिसका सम्बन्ध हो, उसे कारक कहते हैं। हेमचन्द्र ने-'क्रियाहेतुः कारकम् क्रिया की उत्पत्ति में जो हेतु-सहायक हो, उसे कारक कहा है । प्राकृत में संस्कृत के समान ही कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये छः कारक हैं। प्राकृत के वैयाकरणों ने सम्बन्ध को कारक नहीं माना है और न षष्ठी (छट्ठी) विभक्ति के रूपों को ही पृथक् स्थान दिया है। षष्ठी के रूप चतुर्थी के समान ही होते हैं । वास्तविक बात यह है कि सम्बन्ध कारक का क्रिया के साथ सम्बन्ध नहीं है। यथा-विउसाणं परिसाए मुरुक्खेहिं मउणं सेवीअउ, अन्नह मुक्खत्ति नजिहिन्ति'-विद्वानों की सभा में मूखों को मौन रहना चाहिए, अन्यथा उनकी मूर्खता प्रकट हो जाती है। इस वाक्य में 'सेवीअउ' क्रिया के साथ 'विउसाणं' का किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है और न 'विउसाणं' में सेवीअउ' क्रिया का जनकत्व-उत्पादकत्व ही है। अत: यह पद षष्ठी विभक्ति तो है, पर सम्बन्धकारक नहीं है।
विभक्ति की परिभाषा करते हुए कहा है-“संख्याकारकबोधयित्री विभक्तिः - जिसके द्वारा संख्या और कारक का बोध हो, वह विभक्ति है। 'विउसाणं' से विद्वानों के समूह का बोध होता है, अत: वह षष्ठी विभक्ति तो है, पर कारक नहीं।
विभक्ति और कारक में एक अन्तर यह भी है कि कारक कुछ है और विभक्ति कुछ हो जाती है यथा-कर्ता में सर्वदा प्रथमा और कर्म में द्वितीया विभक्ति ही नहीं होती; बल्कि कर्ता में तृतीया और कर्म में प्रथमा विभक्ति भी होती है। जैसे—'रावणो रामेण हओ' इस वाक्य में हनन क्रिया का वास्तविक कर्ता राम है, पर राम प्रथमा विभक्ति में नहीं है, तृतीया विभक्ति में रखा गया है। इसी प्रकार हनन क्रिया का वास्तविक कर्म रावण है, उसे द्वितीया विभक्ति में न रखकर प्रथमा विभक्ति में रखा गया है।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२३५
१. कर्त्ता - क्रिया के द्वारा जिस संज्ञा के सम्बन्ध में विधान किया जाता है, उस संज्ञा के रूप को कर्त्ता कारक कहते हैं'। जैसे - रामो 'भाईअइ' - में 'झाईअड' क्रिया राम के सम्बन्ध में विधान करती है कि राम ध्यान करता है।
1
प्रथमा विभक्ति के नियम
( १ ) प्रातिपदिकार्थ - शब्द का मात्र अर्थ, लिङ्गमात्र, परिमाणमात्र अथवा वचन मात्र बतलाने के लिए प्रथमा विभक्ति होती है । प्रातिपदिक शब्द का अर्थ-“नियतोपस्थितिकः प्रातिपदिकार्थ: " - जिस शब्द की जिस अर्थ के साथ नियम से उपस्थिति हो, उसे प्रातिपदिकार्थ कहते हैं । प्रातिपदिकार्थ में प्रथमा विभक्ति होती है । यथा - जिणो, वाऊ, पज्जुणो, सयंभू, गाणं आदि ।
संस्कृत के समान प्राकृत में भी शब्द में जब तक प्रत्यय नहीं लगता, तब तक उसका अर्थ नहीं जाना जा सकता है । प्रातिपदिक ( Crude form ) में सुप् आदि विभक्तियों को जोड़ने से ही अर्थ प्रकट होता है । उदाहरण के लिए यों समझना चाहिए कि त्रिभक्ति रहित देव शब्द का उच्चारण करें तो यह निरर्थक होगा । जब 'देवो' उच्चारण करते हैं तभी इस शब्द का अर्थ 'देव' ने यह प्रकट होता है । इसलिए संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण में विभक्ति प्रत्यय जोड़े जाते हैं
1
1
लिङ्गमात्र में - तडो, तडी, तड; परिमाणमात्र में -
--वजन मात्र का ज्ञान कराने के लिए - दोणोव्वीही - यहाँ प्रथमा विभक्ति से व्रीहि का द्रोण रूप परिमाण विदित होता है ।
वचनमात्र—एको,
बहू आदि ।
( २ ) सम्बोधन में भी प्रथमा विभक्ति होती है । यथा हे देवो, हे देवा, हे
जुणा ।
२. कर्म - जिस पदार्थ पर क्रिया के व्यापार का फल प्राप्त होता है; उस पदार्थ से सूचित होनेवाली संज्ञा के रूप को कर्म कारक कहते हैं। किसी वाक्य में प्रयोग किये गये पदार्थों में से जिसको कर्त्ता सबसे अधिक चाहता है, उसे कर्म कहते हैं । 3 अर्थात् कर्त्ता के लिए जो अत्यन्त ईप्सित अभीष्ट है, उसीकी कर्म संज्ञा होती है । जैसे -- 'मासेसु अस्सं बंधई' उड़द के खेत में घोड़े को बांधता है, इस वाक्य में बाँधने
१. स्वतन्त्रः कर्त्ता २२२. हे० ।
२. प्रातिपदिकार्थंलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा २ | ३ | ४६ पा० ।
३. कत्तुरीप्सिततमं कर्म १।४।४६. पा० ।
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२३६
अभिनव प्राकृत व्याकरण वाला अपनी बांधने की क्रिया के द्वारा अश्व को वशंगत करना चाहता है । अतः बन्धन व्यापार द्वारा अश्व ही कर्ता को अभीष्ट है, उड़द नहीं । उड़द की चाह अश्व को हो सकती है और उसके प्रलोभन से उसका बांधना सुगमतर हो सकता है, परन्तु कर्ता को उसकी चाह नहीं है। अत: मासेसु में कर्म संज्ञा नहीं हुई।
क्रिविशेष द्वारा जो कर्त्ता को अत्यन्त अभीष्ट है, उसीकी कर्म संज्ञा होती है । जैसे—पयेण ओदनं भुंजइ-दूध से भात खाता है, वाक्य में दूध भी भात की तरह कर्ता को प्रिय है, पर कर्ता अपने भोजन व्यापार द्वारा, जिसे सबसे अधिक पाना चाहता है, वह भात है, दूध नहीं। यतः दूध पेय है, यह तो केवल भोजन क्रिया के सम्पादन में सहायक है, अत: यहां पर पयेण की कर्म संज्ञा नहीं है, ओदनं की है।
( १ ) अनुक्त कर्म को बतलाने के लिए कर्म कारक में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है । यथा-हरिं भजइ, गामं गच्छइ, वेअं पढइ, पुत्थकं पढइ, झाणं झाईअइ, अत्थं चिव्वइ ।
( २ ) सप्तमी और प्रथमा विभक्ति के स्थान पर क्वचित् द्वितीया विभक्ति होतो है। यथा-विज्जुज्जोमं भरइ रत्ति-विद्युदुद्योतं भरति रात्र्याम्-यहाँ ससमी के स्थान पर द्वितीया हुई है।
चउवीसं पि जिणवरा--चतुविशतिरपि जिनवरा:-यहां प्रथमा के स्थान पर द्वितीया हुई है।
( ३ ) संस्कृत के समान प्राकृत में भी द्विकर्मक धातुओं के योग में अपादान आदि कारकों में भी द्वितीया विभक्ति होती है। यथा--
( १ ) माणवअं पहं पुच्छइ-बच्चे से रास्ता पूछता है। (२) रुक्खं ओचिव्वइ फलाइं--वृक्ष के फलों को इकट्ठा करता है ।
( ३ ) माणवअं धम्म सासइ-माणवक से धर्म कहता है। ( ४ ) शी, स्था और आस् धातुओं के पूर्व यदि अधि (अहि) उपसर्ग लगा हो तो इन क्रियाओं के आधार की कर्म संज्ञा होती है। यथा--अहिचिट्ठइ वइउंठं हरी।
(५) अहि और नि उपसर्ग जब एक साथ विश् (विस) धातु के पहले आते हैं, तो विश् के आधार को कर्म कारक होता है। यथा-अहि निवसइ सम्मग्गं ।
(६ ) यदि वस् धातु के पूर्व उव, अनु, अहि और आ में से कोई भी उपसर्ग लगा हो तो क्रिषा के आधार को कर्मकारक होता है। यथा
१. कमरिण द्वितीया २।३।२. पा० । २. सप्तम्या द्वितीया ८।३।१३७ हे.
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7
कृत-व्याकरण
२३७
हरी वइउंठं उववसइ, अहिवसइ, आवसइ वा।
(७) अहिओ (अभितः)—चारों ओर, परिओ (परितः)-सब ओर, सगयासमीप, निकहा (निकषा)-समीप, हा, पडि, धिअ, सवओ और उवरि-उरि शब्दों की जिनमें सन्निकटता पाई जाय उनमें द्वितीया विभक्ति होती है । यथा
अहिओ किसणं, परिओ किसणं, गामं समया, निकहा लंक, हा किसणा मत्तं, परिजणो रायाणं अहिओ चिट्ठइ।
(८) अणु के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। यथा-णई अणुवसिआ सेना, अणुहरिं सुरा, मोहणं अणुगच्छइ हरी।
( १ ) अधिक तथा हीन अर्थ का वाचक होने पर अणु के योग में भी द्वितीया विभक्ति होती है। यथा-अणुहरिं सुरा-देवता हरि से हीन हैं।
( १० ) जब अंगुलि निर्देश करना हो, इत्थंभूत-ये इस प्रकार के हैं--यह बतलाना हो, भाग--यह उनके हिस्से में पड़ा या पड़ता है, यह प्रकट करना हो अथवा पुनरुक्ति दिखलानी हो तो पडि, परि और अणु के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। यथा
(१) वच्छे पडि विज्जुअइ विज्जु-वृक्ष पर विजली चमकती है। ( २ ) भत्तो विसणुं पडि अणु वा--विष्णु के ये भक्त हैं। (३) लच्छी हरि पडि अणु वा-लक्ष्मी विष्णु के हिस्से में पड़ी या पड़े।
(४) वच्छं वच्छं पडि सिञ्चह-प्रत्येक वृक्ष को सींचता है । - (११ ) पूजार्थ में सु अव्यय और उल्लंघन अर्थ में अइ अव्यय के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। यथा
अइ देवा किसणो—कृष्ण सब देवताओं की अपेक्षा पूज्य हैं। सुसिप्प वच्छं-अच्छी तरह सींचा हुआ वृक्ष ।
३. करण कारक-अपने कार्य की सिद्धि में कर्ता जिसकी सबसे अधिक सहायता लेता है, उसे करण कहते हैं। यथा-"रामेण बाणेन हओ बाली" वाक्य में कर्ता राम बाली को मारने में सबसे अधिक सहायता बाण की लेता है; यों तो हाथ और धनुष भी सहायक हैं, पर ये अत्यन्त सहायक नहीं है, अतः इन्हें करणकारक नहीं माना जायगा। तात्पर्य यह है कि जो किया-फल की निष्पत्ति में साधन का बोध कराता है, उसे करणकारक कहते हैं। करण अर्थ में तृतीया विभक्ति होती है । यथा-- रामो जलेन कडं पच्छालइ ।
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२३८
अभिनव प्राकृत व्याकरण - (१ ) प्रकृति--स्वभावादि अर्थों में तृतीया होती है। यथा--पइईअ चारूस्वभाव से सुन्दर, गोत्तेण गग्गो, रसेण महुरो, सुहेण जाइ। किं जगणिजोव्वणविउउणमत्तेज जम्मेणं ।
( २ ) दिव धातु के योग में विकल्प से द्वितीया विभक्ति भी होती है। यथा-- अच्छेहि अच्छा वा दोव्वइ--पाशों से या पाशों को खेलता है।
( ३ ) समपूर्वक णा धातु के कर्म की विकल्प से करण संज्ञा होती है। यथापिअरेण, पिअरं वा सण्णाणइ-पिता के साथ मेल से रहता है।
( ४ ) फलप्राप्ति या कार्यसिद्धि को बतलाने के लिए तृतीया विभक्ति होती है। यथा--दुवालसवरसेहिं वाअरणं सुणइ---द्वादशवर्षेः व्याकरणं श्रूयते ।
(५) सह, साम, सायं और सद्धं के योग में तृतीया विभक्ति होती है । यथा--पुत्तेण सहाअओ पिआ--पुत्रेण सहागतः पिता; लक्खणो रामेण सारं गच्छइ, देवदत्तो जग्यदत्तेण समं नहाति ।
(६) पिधं, बिना, नाना शब्दों के साथ तृतीया, द्वितीया या पञ्चमी विभक्ति होती है । यथा--पिधं रामेण, रामत्तो, रामं वा; जलेन, जलत्तो, जलं वा; जलं बिना कमलं चिट्ठतुं ण सका।
( ७ ) जिस विकृत अंग के द्वारा अङ्गी का विकार मालूम हो, उस अंग में तृतीया विभक्ति होती है । यथा--पाएण खंजो, कण्णेन बहिरो--पैर का लँगड़ा; कान का बहिरा।
( ८ ) जिस कारण या प्रयोजन से कोई कार्य किया जाता है या होता है, उसमें तृतीया विभक्ति होती है। यथा
दंडेण घडो जाओ-दण्डे के कारण घड़ा उत्पन्न हुआ। पुण्णेश दिट्रो हरि-पुण्य के कारण हरि दिखलायी पड़े। अज्झणेण वसइ-अध्ययन के प्रयोजनन से रहता है ।
( ९ ) जो जिस प्रकार से जाना जाय, उसके लक्षण में तृतीया विभक्ति होती है। यथा
जडाहि तावसो-जटाओं से तपस्वी जान पड़ता है। गमणेण रामं अणुहरइ-गमन में राम के सदृश है ।
(१०) कार्य, अर्थ, प्रयोजन, गुण तथा इसी प्रकार उपयोग या प्रयोजन प्रकट करने वाले शब्दों के योग में उपयोज्य या आवश्यक वस्तु को तृतीया विभक्ति होती है। यथा
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२३६ तिणेण कज्जं भवइ ईसराणं-धनी लोगों का कार्य तिनके से भी हो जाता है।
को अत्थो पुत्तेण जो ण विउसो ण धम्मिओ-उस पुत्र के उत्पन्न होने से क्या लाभ है, जो न विद्वान् है और न धर्मात्मा ।
(११) आर्ष प्रयोगों में सप्तमी स्थान में तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। यथा
तेणं कालेणं, तेणं समएणं-तस्मिन् काले, तस्मिन् समये—उस समय में ।
४. सम्प्रदान कारक-दानकार्य के द्वारा कर्ता जिसे सन्तुष्ट करता है, उसे सम्प्रदान कहते हैं। अर्थात् जिस पदार्थ के लिए कोई क्रिया की जाती है, उसका बोध कराने वाली संज्ञा के रूप को संप्रदान कारक कहते हैं। सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा-विप्पाय या विप्पस्स गावं देइ-विप्राय गां ददाति ।
(१) रोअ-रुच् धातु तथा रुच के समान अर्थवाली अन्य धातुओं के योग में प्रसन्न होनेवाला सम्प्रदान कहलाता है और सम्प्रदान को चतुर्थी होती है। यथा
हरिणो रोयइ भत्ती-हरी को भक्ति अच्छी लगती है।
बालकस्स मोअआ रोअन्ते-बालकाय मोदकाः रोचन्ते, बालक को लड्डु, अच्छे लगते हैं। मम तव वियारो रोयइ-मुझे तुम्हारा विचार अच्छा लगता है।
तस्स वाआ मज्भं न रोयइ-उसकी बात मुझे अच्छी नहीं लगती।
( २ ) सलाह (श्लाघ) हुण, (हृड् ), चिट्ट (स्था) और (सव) शप् धातुओं के योग में जिसको जाना जाय उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है और सम्प्रदान को चतर्थी विभक्ति होती है। यथा
गोवी समरत्तो किसणाय किसणस्स वा सलाहइ, चिट्ठइ, सवइ वागोपी कामदेव के वश से श्रीकृष्ण के अर्थ अपनी श्लाघा करती है, स्थित होकर कृष्ण को अपना अभिप्राय बताती है तथा कृष्ण के लिए अपना उपालम्भ करती है।
(३ ) धर-धङ उधार लेना-कर्ज लेना धातु के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा
भत्ताय, भत्तस्स वा धरइ मोक्खं हरी-हरि भक्त के लिए मोक्ष को धारण करते हैं।
सामो अस्सपइणो सई धरइ-श्याम ने अश्वपति से एक सौ कर्ज लिए।
(४) सिह (स्पृह) धातु के योग में जिसे चाहा जाय, वह सम्प्रदानसंज्ञक होता है और सम्प्रदान को चतुर्थी विभक्ति में रखते हैं। यथा
पुप्फाणं सिहइ-पुष्पेभ्यः स्पृहयति-फूलों की चाहना करता है।
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अभिवव प्राकृत - व्याकरण
(५) कुज्झ (क्रुध् ) दोह (ह), ईस (ईर्ष्या) तथा असूअ ( असूय् ) धातुओं के योग में तथा इन धातुओं के समान अर्थवाली धातुओं के योग में जिनके ऊपर क्रोधादि किये जाते हैं, उनको चतुर्थी विभक्ति होती है । यथा हरिणो कुज्झइ, दोहइ, ईसइ, असूअर, वा ।
( ६ ) निश्चित काल के लिए वेतन इत्यादि पर किसी को रखा जाना परिक्रयण कहलाता है, उस परिक्रयण में जो करण होता है, उसकी विकल्प से सम्प्रदान संज्ञा होता है । यथा
सयेण सस्स वा परिकीणइ - सौ रूपये के चेतन पर रखा गया ।
२४०
(७) जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य विभक्ति होती है । यथा
किया जाय, उस प्रयोजन में चतुर्थी
मुत्तिणो हरि भज-मुक्ति के लिए हरि को भजता है ।
भक्ती णाणाय कप्पर, संपज्जइ, जाअइ वा ।
( ८ ) हेमचन्द्र के मत से तादर्थ्य - उसके लिए अर्थ में षष्ठी विभक्ति विकल्प से
आती है । यथा
मुणिस्स, मुणीणं देइ - मुनीनं मुनिभ्यो वा ददाति ।
नमो नाणरस - नमो ज्ञानाय नमो गुरुरुस -नमो गुरवे । देवरस देवाय नमो |
( ९ ) हित और सुख के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है । यथाबंभणस्स हिअं सुहं वा-ब्राह्मण के लिए हितकर या सुखकर ।
(१०) नमो, सुत्थि, सुहा, सुआहा, और अलं के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है । यथा
हरिणो नमो - हरि को नमस्कार हो ।
आणं सुत्थि - प्रजा का कल्याण हो ।
पिअराणं सुंहा - पितरों को यह समर्पित है ।
अलं मल्लो मल्लस्स - मल्ल दूसरे मल्ल के लिए पर्याप्त काफी है ।
५. अपादान कारक - जिससे किसी वस्तु का विश्लेष होता है, उसे अपादानकारक कहते हैं । अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है । या -- धावतो अस्सत्तो पडइ-दौड़ते हुए घोड़े से गिरता है ।
यथा---
( १ ) दुगुञ्छ, विराम और पमाय तथा इनके समानार्थक शब्दों के साथ पञ्चमी विभक्ति होती है । यथा- पावत्तो दुगुञ्छइ, विरमइ वा; धम्मत्तो पमायइ ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२४१ (२) जिसके कारण डर मालूम हो अथवा जिसके डर के कारण रक्षा करनी हो, उस कारण को पञ्चमी विभक्ति होती है। यथा-चोरओ बीहइ, सप्पओ भयं; रामो कलहत्तो बीहइ।
(३) प्राकृत में 'भी' धातु के योग में पञ्चमी के अर्थ में चतुर्थी विभक्ति भी पायी जाती है। यथा-दुट्ठाण को न बीहइ-दुष्टेभ्यः को न बिभेति-दुष्टों से कौन नहीं डरता है।
(४) पञ्चमी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति भी देखी जाती है। यथा-चोरस्स बीहइ-चौराद्विभेति-चोर से डरता है ।
(५) पञ्चमी के स्थान में कहीं-कहीं तृतीया और सप्तमी विभक्ति भी पायी जाती हैं। यथा-चोरेण बीहइ-चौराद्विभेति; अन्तेउरे रमिउमागओ राया-- अन्तःपुरादू रन्त्वागत इत्यर्थः।
(६) परापूर्वक जि धातु के योग में जो असह्य होता है, उसकी अपादान संज्ञा होती है और पञ्चमी विभक्ति हो जाती है । यथा-अज्झयणत्तो पराजयइ ।
(७ ) जनधातु के कर्ता का आदिकारण अपादान होता है। यथा-कामत्तो कोहो अहिजाअइ, कोहत्तो मोहो अहिजाअइ ।
६. प्रातिपादिक और कारक के अतिरिक्त स्वस्वामिभावादि सम्बन्ध में षष्ठी विभक्ति होती है। मुख्यतः सम्बन्ध चार प्रकार का है-स्वस्वामिभाव सम्बन्ध, जन्य-जनक भाव सम्बन्ध, अवयवावयविभाव सम्बन्ध और स्थान्यादेश । साहणो धणं में स्वस्वामिभाव सम्बन्ध है, यत: साथु धन का स्वामी है। पिअरस्स, पिउणो वा पुत्तं में जन्य-जनकभाव सम्बन्ध है। पसणो पाअं में अवयव-अवयविभाव सम्बन्ध है, यतः पशु अवयवी है और पैर उसके अवयव हैं। गम् के स्थान में अइच्छ, अई और अक्स आदेश होता है, अतः यहाँ स्थान्यादेश सम्बन्ध माना जायगा। इन सम्बन्धों के अतिरिक्त कार्य-कारणादि और भी सम्बन्ध हैं, सम्बन्ध में षष्टी विभक्ति होती है। यथा-काअस्स अंगाणि पसंसेइ-कौए के अंगों की प्रशंसा करता है । जहा तुह अंगाणि अईव मणोहराणि तहा तमं समहराई गीयाई गाउं समत्थो सि-- जैसे तुम्हारे अंग सुन्दर हैं, वैसे ही तुम सुमथुर गाना गाने में भी समर्थ हो।
(१) कर्मादि में भी सम्बन्धमात्र की विवक्षा होने पर पष्टी निभक्ति हो जाती है। यथा-तस्स बाहरणत्थं माहावाहिहाणा चेडी पेसिया-उसे बुलाने के लिए माधवी नाम की दासी को भेजा।
तस्स कहियं-उससे कहा; माआए, माऊए वा सुमरइ-माता को याद करता है। ...
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण - (२ ) हेउ शब्द के प्रयोग में जो शब्द कारण या प्रयोजन रहता है, वह और हेउ शब्द दोनों ही षष्ठी में रखे जाते हैं। यथा-अन्नस्स हेउस्स वसइअन्न प्राप्ति के प्रयोजन से रहता है। कस्स हेउस्स वसइ--किस कारण रहते हो ।
( ३ ) द्वितीया-तृतीयादि विभक्ति के स्थान पर पष्टी विभक्ति होती है।' यथा-सीमाधरस्स वन्दे--सीमाधरं वन्दे; तिस्सा मुहस्स भरिमो--तस्या मुखं भरामः; धणस्स लुद्धो-धनेन लुब्धः; तेसिमेअमणाइण्णं -तैरेतदनाचरितम् ; चिरस्स मुक्का--चिरेण मुक्ता; इअराइं जाण लहुअक्खराइं पायन्तिमिल्ल सहिआण--पादान्तेन सहितेभ्यः इतराणि।
७. अधिकरण कारक-कर्ता और कर्म के द्वारा किसी भी क्रिया का आधार अधिकरण कहलाता है। आधार के तीन भेद हैं--औपश्लेषिक, वैषयिक और अभिव्यापक। जिसके आधेय का भौतिक संश्लेष हो, उसे औपश्लेषिक आधार कहते हैं । जैसे--कडे आसइ कागो-यहां चटाई से बैठनेवाले का भौतिक संश्लेष प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। जिसके साथ आधेय का बौद्धिक संश्लेष हो, उसे वैषयिक आधार कहते हैं । यथा--मोक्खे इच्छा अस्थि-इच्छा का मोक्ष में अधिष्ठित होना बौद्धिक संश्लेष है। जिसके साथ आधेय का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध हो, उसे अभिव्यापक कहते हैं । यथा--"तिलेसु तेलं' में तैल तिल के किसी एक भाग में नहीं रहता है, बल्कि समस्त तिल में व्याप्त रहता है।
(१) अधिकरण तथा दूर एवं अन्तिक अर्थ वाले शब्दों में सप्तमी विभक्ति होती है। कडे आसइ कागो; गामस्स दूरे अन्तिए वा।
(२) सामी, ईसर, अहिवइ, दायाद, साखी, पडिहू और पसूअ इन सात शब्दों के योग में षष्ठी और सप्तमी ये दोनों ही विभक्तियां होती हैं । यथा--
गवाणं गोसु वा सामी, गवाणं गोसु वा पसूओ।
( ३ ) यदि किसी वस्तु का अपने समुदाय की अन्य वस्तुओं में से किसी विशेषण द्वारा वैशिष्ट्यनिर्देश किया जाय तो समुदायवाचक शब्द सप्तमी अथवा षष्टी विभक्ति में रखा जाता है। यथा-कइसु कईणं वा हरिचन्दो सेट्रो-कवियों में हरिश्चचन्द्र सबसे बड़े कवि है। गवाणं गोसु वा किसणा बहुक्खीरा-गायों में काली गाय बहुत दूध देनेवाली है। छत्ताणं छत्तेसु वा गोइन्दो पडु--विद्यार्थियों में गोविन्द श्रेष्ठ है।
१. क्वचिद् द्वितीयादे; ८।३।१३४-द्वितीयादीनां विभक्तीनां स्थाने षष्ठी भवति क्वचित् ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२४३ ( ४ ) द्वितीया और तृतीया विभक्ति के स्थान में क्वचित् सप्तमी विभक्ति हो जाती है। यथा--गामे वसामि-प्रामं वसामि; नयरे न जामि--नगरं न यामि । तिसु तेसु वा अलंकिआ पुहवी--तैरलंकृता पृथिवी।
(५) पञ्चमी के स्थान पर भी सप्तमी पायी जाती है। यथा--अन्तेउरे रमिउं आगओ राया-अन्तःपुराद् रन्त्वाऽऽगतो राजा।
(६) मध्य अर्थ या अधिकरण अर्थ बतलाने के लिए सप्तमी विभक्ति होती है। यथा-एत्थंतरम्मि पत्तो एसो तवोवणं, अणेयवियप्पजणियकुचिन्तासंधुकियपवड़ ढमाणकोहाणलो य कुलवई सेसतावसे य परिहरिऊण अलक्खिओ चेव गओ सहयारवीहियं, उवविठ्ठो य विमलसिलाविणिम्मिए चाउरन्तपीढे त्ति ।
(७) वास्तविक बात यह है कि प्राकृत में विभक्तियों के व्यवहार का कोई विशेष नियम नहीं है। कहीं द्वितीया और तृतीया के स्थान में सप्तमी, कहीं पञ्चमी के स्थान में तृतीया तथा सप्तमी और प्रथमा के बदले द्वितीया विभक्तियां व्यहृत होती हैं ।
१. द्वितीया-तृतीययोः सप्तमी ८।३।१३५. हे०--द्वितीयातृतीययोः स्थाने क्वचित् सप्तमी
भवति। २. पञ्चम्यास्तृतीया च ८।३।१३६. पञ्चम्याः स्थाने क्वचित् सप्तमी भवति ।
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समासविचार (१) "समसनं समासः”-संक्षेप को समास कहते हैं अर्थात् दो या अधिक शब्दों को इस प्रकार साथ रखना, जिससे उनके आकार में कमी आ जाय और अर्थ भी प्रकट हो जाय। तात्पर्य यह है कि परस्पर सम्बद्ध अर्थवाले शब्दों का एक रूप में मिलना समास है। समास से सिद्ध पद-सामासिक या समस्तपद कहलाते हैं। समस्तपद के प्रत्येक पद को विभक्तियों के साथ अलग-अलग करने को विग्रह कहते हैं।
समास मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं--(१) अव्ययीभाव, ( २ ) तत्पुरुष, ( ३ ) बहुव्रीहि और ( ४ ) द्वन्द्व । अव्ययीभाव में पहले पद के अर्थ की, तत्पुरुष में दूसरे पद के अर्थ की, बहुव्रीहि में अन्य पद के अर्थ की तथा द्वन्द्व में सभी पदों के अर्थो की प्रधानता होती है।
तत्पुरुष समास दो प्रकार का होता है--( १ ) समानाधिकरण तत्पुरुष और ( २ ) व्यधिकरण तत्पुरुष । समानाधिकरण तत्पुरुष का ही दूसरा नाम कर्मधारय समास है । द्विगु समास कर्मधारय का ही भेद है।
एकशेष समास भी स्वतन्त्र नहीं है, यह द्वन्द्व का ही एक उपभेद है। कहा भी है
दंदे य बहुव्वीही कम्मधारय दिगुयए चेव । तप्पुरिसे अव्वईभावे एक्कसेसे य सत्तमे ॥
(१) अव्ययीभाव (अव्वईभाव) ( १ ) अव्ययीभाव समास में पहला पद बहुधा कोई अव्यय होता है और यही प्रधान होता है। अव्ययीभाव समास का समूचा पद क्रियाविशेषण अव्यय होता है।
(३) विभक्ति आदि अर्थों में अव्यय का प्रयोग होने पर अव्ययीभाव समास होता है।
(१) विभक्ति अर्थ में हरिम्मि इइ–अहिहरि, अप्पंसि अन्तो
अज्झप्पं । ( २ ) समीप अर्थ में-गुरुणो समीवं-उवगुरु; सिद्धगिरिणो समीवं
उवसिद्धगिरिं । ( ३ ) पश्चात् अर्थ में जिणस्स पच्छा-अणुजिणं; भोयणस्स पच्छा
अणुभोयणं।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण (४) समृद्धि अर्थ में—मदाणं समिद्धि-सुमई । ( ५ ) अभाव अर्थ में—मछिकाणं अभाओ-निम्मछिकं । ( ६ ) अत्यय-नाश में हिमस्स अच्चओ-अइहिमं । (७) असम्प्रति-अनौचित्य अर्थ में -निदा संपइ न जुज्जइ-अइनिई। (८) यथा का भाव—योग्यता-रूवस्स जोग्गं—अणुरूपम् (अनुरूपम् )।
वीप्सा-नयरं नयरं ति–पइनयरं ( प्रतिनगरम् )। , -दिणं दिणं ति–पइदिणं ( प्रतिदिनम् )।
, -घरे घरे ति–पइघरं ( प्रतिगृहम् )। अनतिक्रम—सत्तिअणइक्कमिअ-जहाविहि (यथाविधि)।
, ,, -सत्तिं अणइक्कमिऊण-जहासत्ति (यथाशक्ति)। (९) आनुपूर्व्य-क्रम--जेट्ठस्स अणुपुत्वेण-अणुजेडं ( अनुज्येष्टम् ) । (१०) यौगपद्य–एक साथ होना-चक्केण जुगव-सचकं ( सचक्रम् )। (११) सम्पत्ति-छत्ताणं संपइ-सछत्तं ( सक्षत्रम् )।
(२) तत्पुरुष (तप्पुरिस) (. १ ) उत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुषः - जिसमें उत्तरपद के अर्थ की प्रधानता रहती है, उसे तत्पुरुष समास कहते हैं। राइणो पुरिसो = रायपुरिसो में उत्तरपद पुरुष की प्रधानता है। तात्पर्य यह है कि तत्पुरुष समास में प्रथम पद विशेषण और द्वितीय पद विशेष्य रहता है, अत: विशेष्य की प्रधानता रहने के कारण इसमें उत्तरपद की प्रधानता मानी जाती है।
तत्पुरुष समास के आठ भेद हैं—प्रथमा तत्पुरुष, द्वितीया तत्पुरुष, तृतीया तत्पुरुष, चतुर्थी तत्पुरुष, पञ्चमी तत्पुरुष, षष्ठी तत्पुरुष, सप्तमी तत्पुरुष और अन्य तत्पुरुष ।
(१) प्रथमा तत्पुरुष (पढमा तप्पुरिस) (१) पुन्च, अवर, अहर और उत्तर प्रथमान्त पद अपने अवयवी षष्ठयन्त के साथ एकाधिकरण में समास को प्राप्त होते हैं। यथा-पुव्वं कायस्स = पुवकायो, अवरं कायस्स = अवरकायो, उत्तरं गामस्स = उत्तरगामो।
___ (२) द्वितीया तत्पुरुष (वीया तप्पुरिस) ( २ ) सिअ, अतीत, पडिअ, गअ, अइअत्थ, पत्त और आवण्ण शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति के आने पर द्वितीया-तत्पुरुष समास होता है। यथा
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण किसणं सिओ = किसणसिओ, इंदियं अतीतो = इंदियातीतो ( इन्द्रियातीत: ), अग्गि पडिओ = अग्गिपडिओ ( अग्निपतित: ), सिवं गओ = सिवगओ (शिवगतः ), सुहं पत्तो = सुहपत्तो ( सुखप्राप्त:), भदं पत्तो = भद्दपत्तो ( भद्रप्राप्त: ), पलयं गओ = पलयगओ ( प्रलयगतः ), दिवं गओ = दिवगओ ( दिवंगत: ), फट्ट आवण्णो = कट्ठावण्णो ( कष्टापन्नः ), मेहं अइअत्थो = मेघाइअत्थो ( मेघा त्यस्तः ), वीरं अस्सिओ = वीरस्सिओ ( वीराश्रितः )।
___ (३) तृतीया तत्पुरुष (तईया तप्पुरिस) (१) जब तत्पुरुष समास का प्रथम शब्द तृतीया विभक्ति में हो, तब उसे तृतीया तत्पुरुष कहते हैं । यथा
साहूहिं वन्दिओ = साहुवंदिओ (साधुवन्दितः), जिणेण सरिसो = जिणसरिसो ( जितसहशः ), ईसरेण कडे = ईसरकडे (ईश्वरकृतः), दयाए जुत्तो = दयाजुत्तो (दयायुक्त:), गुणेहिं संपन्नो गुणसंपन्नो ( गुणसम्पन्न: ), रसेण पुण्णं = रसपुण्णं ( रसपूर्णम् ), मायाए सरिसी = माउसरिसी ( मातृसदृशः ), कुलगुणेण सरिसी = कुलगुणसरिसी ( कुलगुणसदृशः ), रूवेण समाणा = रूवसमाणा ( रूपसमाना ), आयारेण निउगो = आयारनिउणो ( आचारनिपुणः ), णहेहिं भिण्णो = णहभिण्णो ( नखभिन्नः ), गुडेन मिस्सं = गुडमिस्सं ( गुडमिश्रं ), महुणा मत्तो = महमत्तो ( मधुमत्तः), पंकेन लित्तो - पंकलित्तो ( पङ्कलितः ), बाणेन विदो = बाणविद। ( बाणविद्धः)।
(४) चतुर्थी तत्पुरुष (चउत्थी तप्पुरिस) ( १ ) जिस तत्पुरुष समास का प्रथम पद चतुर्थी विभक्ति में हो, उसे चतुर्थी तत्पुरुष कहते हैं । यथा
कलसाय सुवण्णं = कलससुवणं ( कलशसुवर्णम् ), मोक्खत्थं नाणं, मोक्खाय नाणं वा = मोक्खनाणं ( मोक्षज्ञानम् ), लोयाय हिओ = लोयहिओ ( लोकहितः ), लोगस्स सुहो = लोगसुहो ( लोकसुख: ), कुंभस्स मट्ठिआ = कुंभमहिआ ( कुम्भमृत्तिका ); भूयाणं बली = भूयबली ( भूतबलिः ), बंभणाय हिरं = बंभणहिअं ( ब्राह्मणहितम् ), गवस्स हिअं = गवहिअं ( गोहितम् ), थंभाय कट्ठ = थंभकट्ठ ( यूपदारु: ), बहुजणस्स हिओ = बहुजणहिओ (बहुजनहितः) ।
(५) पञ्चमी तत्पुरुष (पंचमी तप्पुरिस) (१) जब तत्पुरुष समास का पहला पद पञ्चमी विभक्ति में रहता है, तब उसे पञ्चमी तत्पुरुष कहते हैं । यथा
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२४७ संसाराओ भीओ = संसारभीओ ( संसारभीत: ), दसणाअ भट्ठो = दंसणभट्ठो (दर्श भ्रष्टः ), अन्नाणाओ भयं = अन्नाणभयं ( अज्ञानभयम् ), वग्घाओ भयं = वग्घभयं ( व्याघ्रभयं ), रिणाओ मुत्तो = रिणमुत्तो ( ऋणमुक्तः ), चोराओ भयं = चोरभयं ( चौरभयं ), थेणाओ भीओ = थेणभीओ ( स्तनभीत: ), थोवाओ मुत्तो = थोवमुत्तो ( स्तोकान्मुक्त: )।
(६) षष्ठी तत्पुरुष (छट्ठी तप्पुरिस) । (१) जिस तत्पुरुष समास का प्रथम पद षष्ठी विभक्ति में हो, उसे षष्ठी तत्पुरुष कहते हैं । यथा
देवस्स मंदिरं = देवमंदिरं ( देवमन्दिरं ), कन्नाए मुहं = कन्नामुहं ( कन्यामुखम् ), नरस्स इंदो = नरिंदो ( नरेन्द्रः ), देवस्स इंदो - देविंदो ( देवेन्द्रः ), लेहस्स साला = लेहसाला ( लेखशाला ), विजाए ठाणं = विजाठाणं (विद्या. स्थानं ), समाहिणो ठाणं = समाहिठाणं (समाधिस्थानम् ), देवस्स थुई = देवत्थुई, देवथुई ( देवस्तुतिः ), जिणाणं इन्दो = जिणेन्दो, जिणिन्दो ( जिनेन्द्रः ), विबुहाणं अहिवो = विबुहाहियो (विबुधाधिपः ), बहूए मुहं = बहूमुहं ( बधू. मुखम् ), धम्मस्स पुत्तो = धम्मपुत्तो (धर्मपुत्रः ), गणिअस्स अज्झावओ = गणिआज्झावओ ( गणिताध्यापक: ), देवस्स पुजओ = देवपुज्जओ (देवपूजकः)।
(५) सप्तमी तत्पुरुष (सत्तमी तप्पुरिस) (१) सप्तमी तत्पुष समास उसे कहते हैं, जिसका प्रथम पद सप्तमी विभक्ति में रहा हो। यथा
कलासु कुसलो = कलाकुसलो ( कलाकुशलः ), बंभणेस उत्तमो = बंभणोत्तमो (ब्राह्मणोत्तमः), जिणेसु उत्तमो = जिणोत्तमो (जिनोत्तमः ), सभाए पंडिओ = सभापंडिओ ( सभापण्डितः ), कडाहे पक्को = कडाहपक्को ( कटाहपक्कः ), कम्मे कुसलो = कम्मकुसलो ( कर्मकुशलः ), विजाए दक्खो = विज्जादक्खो ( विद्यादक्षः ), नरेसु सेट्ठो = नरसेट्ठो (नरश्रेष्ठः), नाणम्मि उज्जओ = नाणोजओ, नाणुजओ ( ज्ञानोद्योतः ), गिहे जाओ = गिहजाओ ( गृहजातः )।
(८) अन्यतत्पुरुष (अण्ण-तप्पुरिस) अन्यतत्पुरुष समास के नज् तत्पुरुष, प्रादितत्पुरुष, गतितत्पुरुष, उपपदतत्पुरुष, अलुक् तत्पुरुष, मध्यमपदलोपी तत्पुरुष, एवं मयूरव्यंसकादि तत्पुरुष ये सात भेद है।
___(क) नञ् तत्पुरुष (न तप्पुरिस) (१) जब तत्पुरुष समास में प्रथम शब्द न और दूसरा कोई संज्ञा या विशेषण हो तो उसे ना तत्पुरुष कहते हैं। व्यञ्जन के पूर्व न अ में और स्वर के पूर्व अण में बदल जाता है । यथा
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण न लोगो अलोगो ( अलोकः ), न देवो = अदेवो ( अदेवः), न आयारो = अणायारो ( अनाचारः), न इ8 = अणि? ( अनिष्टम् ), न दिढ = अदिट्ठ ( अष्टष्टम् ), न अवजं = अणवजं ( अनवद्यम् ), न विरई = अविरई (अविरतिः), न सञ्चम् = असञ्चम् ( असत्यम् ), न ईसो = अणीसो ( अनीशः ), न कयं = अकयं ( अकृतम् ), न बंभणो = अबंभणो ( अब्राह्मणः )।
__ (ख) प्रादितत्पुरुष (पादितप्पुरिस) ( १ ) जब तत्पुरुष समास में प्रथमपद 'प्र-प' आदि उपसर्गों में से कोई हो तो उसे प्रादि तत्पुरुष कहते हैं। यथा
पगतो आयरियो = पायरिओ (प्राचार्यः ), उग्गओ वेलं = उज्वेलो ( उद्वेल: ), संगतो अत्थो = समत्थो ( समर्थः), अइक्कतो पल्लंक = अइपल्लंको ( अतिपल्यङ्क ), निग्गओ कासीए = निक्कासी ( निष्काशी )।
(ग) उपपद समास (१) जब तत्पुरुष समास का प्रथमपद ऐसी संज्ञा या अव्यय में हो, जिसके न रहने से शब्द का रूप ही न रह सकता हो, तो उसे उपपद तत्पुरुष कहते हैं। यथा
कुंभं करइ त्ति = कुंभआरो (कुम्भकारः), भासआरो (भाष्यकारः), सव्वण्णु ( सर्वज्ञः ), पायवो ( पादपः ), कच्छवो ( कच्छपः ), अहिवो ( अधिप:), गिहत्थो ( गृहस्थः ), सुत्तआरो ( सूत्रकारः ), वुत्तिआरो (वृत्तिकारः), निव्वया (निम्नगा), नीयगा ( नौवगा ), नम्मया ( नर्मदा), सगडब्मि ( स्वकृतभित् ), पावणासओ (पापनाशकः )।
(घ) कर्मधारय ( १ ) जब प्रथमपद विशेषण हो और दूसरा विशेष्य हो तो उसे कर्मधारय कहते हैं। इसके सात भेद हैं-(१) विशेषणपूर्वपद ( २ ) विशेष्यपूर्वपद ( ३ ) विशेषणोभ पद ( ४ ) उपमानपूर्वपद ( ५ ) उपमानोत्तरपद ( ६ ) सम्भावनापूर्वपद ( ७ ) अवधारणापूर्वपद।
(२ ) जिसमें विशेषण विशेष्य से पहले रहे, उसको विशेषणपूर्वपद कहते हैं। यथा- रत्तो अ एसो घडो = रत्तघडो ( रक्तघटः ), सुंदरा य एसा पडिमा = सुंदरपडिमा (सुन्दरप्रतिमा ), परमं एवं पयं परमपयं (परमपदम् ), पीअं तं वत्थं - पीअवत्थं ( पीतवस्त्रम् ), गोरो सो वसभो=गोवसभो ( गौरवृषभ: ), महंतो सो वीरो = महावीरो ( महावीरः), वीरो सो जिणो = वीरजिणो ( वीरजिन: ), कण्हो य सो पक्खो = कण्हपक्खो ( कृष्णपक्षः ), सुद्धो सो पक्खो = सुद्धपक्खो ( शुद्धपक्ष: )।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२४९ (३) जिसमें विशेष्य विशेषण से पूर्व रहे, उसे विशेष्य पूर्वपद कहते हैं। यथा-वीरो अ एसो जिणिंदो = वीरजिणिंदो ( वीरजिनेन्द्रः ), महंतो च सो रायो = महारायो ( महाराज: ), कुमारी अ सा समणा = कुमारीसमणा, कुमारसमणा ( कुमारीश्रमण ), कुमारी अ सा गम्भिणी - कुमारगब्भिणी ( कुमारगर्भिणी)।
( ४ ) जिसके दोनों पद विशेषगवाचक हों, वह विशेषणोभयपद कहलाता है। यथा
__रत्तो अ एस सेओ = रत्तसेओ आसो ( रक्तश्चेतोऽश्व: ), सीअं च तं उण्हं य= सीउण्हं जलं (शीतोष्णं जलम् ), रत्तं अतं पीअं य = रत्तपीअं वत्थं ( रक्तपीतं वस्त्रम् )।
(५) उपमानवाचक शब्द जिसके पूर्वपद में रहे, वह उपमानपूर्वपद कहलाता है । यथा
चंदो इव मुहं = चन्दमुहं ( चन्द्रमुखम् ), घणो इव सामो = घणसामो (घनश्यामः ), वज्जो इव देहो =वजदेहो ( वज्रदेहः ), चन्दो इव आणणं = चंदाणणं ( चन्द्राननम् )।
(६) उपमानवाचक शब्द जिसके उत्तरपद में हो, उसे उपमानोत्तरपद कहते हैं। यथा
मुहं चंदो व = मुहचंदो ( मुखचन्द्रः ), जिणो चंदो व्व =जिणचंदो (जिनचन्द्रः )।
(७) जिसमें सम्भावना पायी जाय ऐसा विशेषण अपने विशेष्य के साथ समास को प्राप्त करता है और इस प्रकार के समास को सम्भावनापूर्वपद समास कहते हैं । यथा
संजमो एव धणं = संजमधणं (संयमधनम् ), तवो चिअ धणं = तवोधणं (तपोधनम् ), पुण्णं चेअ पाहेज़ = पुण्णपाहेजं ( पूर्णपाथेयम् )।
(८ ) जिसमें अवधारणा पायी जाय ऐसा विशेषण पद भी अपने विशेष्य पद के साथ समस्त हो जाता है । यथा
अन्नाणं चेत्र तिमिरं = अन्नाणतिमिरं ( अज्ञानतिमिरम् ), नाणं चेअ धणं = नाणधणं ( ज्ञानधनम् ), पयमेव पउमं = पयपउमं ( पादपद्मम् )।
द्विगु (दिगु) (१) जिस तत्पुरुष के संख्यावाचक शब्द पूर्वपद में हों, वह द्विगु समास कहलाता है। द्विगु समास दो प्रकार का होता है-(१) एकवद्भावी और ( २ ) अनेकवद्भावी।
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
( २ ) समाहार अर्थ में जो द्विगु समास होता है, वह एकवद्भावी कहलाता है और उसमें सदा नपुंसकलिंग और एकवचन होता है । यथा
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नवहं तत्ताणं समाहारो = नवतत्तं ( नवतन्त्रम् ), चउन्हं कसायाणं समूहो = च उक्सायं (चतुष्कषायम् ), तिन्हं लोगाणं समूहो = तिलोयं ( त्रिलोकम् ), तिन्हं लोआणं समूहो = तिलोई ( त्रिलोकी )
( ३ ) प्राकृत में कोई-कोई समाहारद्विगु पुल्लिंग भी हो जाता है । यथातिन्हं विप्पाणं समाहारो त्ति = तिवियप्पो ( त्रिविकल्पम् ) ।
( ४ ) संज्ञा में जो द्विगु होता है, वह अनेकवद्भावी कहलाता है और इसमें वचन और लिंग का कोई नियम नहीं रहता है । यथा
तिणि लोया = तिलोया ( त्रिलोका: ), चउरो दिसाओ = चउदिसा ( चतुर्दिश : ) ।
(३) बहुव्रीहि (बहुवीहि)
( १ ) जब समास में आये हुए दो या अधिक पद किसी अन्य शब्द के विशेषण हों तो उसे बहुब्रीहि समास कहते हैं। यथा
पीअं अंबरं जस्स सो = पीआंबरो (पीताम्बरः ) । इस समास के मुख्य दो भेद हैं- (१) समानाधिकरण बहुव्रीहि और ( २ ) व्यधिकरण बहुव्रीहि । विशेषापेक्षया इसके सात भेद हैं- (१) द्विपद, (२) बहुपद (३) सहपूर्वपद (४) संख्योत्तरपद, (५) संख्योभयपद, (६) व्यतिहारलक्षण (७) दिगन्तराललक्षण । (१) समानिकरण बहुब्रीहि
(२) समानाधिकरण बहुव्रीहि वह है, जिसके दोनों या सभी शब्दों का समान अधिकरण हो अर्थात् वे प्रथमान्त में हों । यथा
=
पीअं अंबरं अस्स सो पीआंबरो ( पीताम्बरः); आरूढो वाणरो जं रुक्खं सो = आरूढवाणरो रुक्खो ( आरूढवानरः वृक्षः); जिआणि इंदियाणि जेण सो = जिइंदियो मुणी (जितेन्द्रियः मुनिः); जिओ कामो जेण सो जिअकामो महादेवो ( जितकारा: महादेवः ) ; जिआ परीसहा जेण सो = जिअपरीसहो गोयमो ( जितपरीषहः गौतमः), भट्ठो आयरो जाओ सो = भट्ठायारो जणो (भ्राचारः जनः ); नट्ठो मोहो जाओ सो = नट्टमोहो साहू ( नष्ट मोहः साधुः ); घोरं बंभचेरं जस्स सो : घोरवंभचेरो जंबू ( घोरब्रह्मचारी - जम्बु : ); समं चउरंसं ठाणं जस्स सो समचरं संठाणो रामो (समचतुरससंस्थानः रामः); कओ अत्थो जस्स सो कत्थो को ( कृतार्थः कृष्णः ); आसा अंबरं जेसिं ते आसंबरा (दिगम्बराः);
=
=
=
=
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२५१
=
सेयं अंबरं जेसिं ते = सेयंवरा (श्वेताम्बराः); महंता बाहुणो जस्स सो महाबाहू ( महाबाहु ); पंच वत्ताणि जस्स सो = पंचवत्तो सीहो ( पञ्चवक्त्रः ); चत्तारि मुहाणि जस्स सो = चउम्मुहो (चतुर्मुखः ) ब्रह्मा; तिण्णि नेत्ताणि जस्स सो तिणेत्तो ( त्रिनेत्र:) हरोः एगो दंतो जस्स सो = एगदंतो ( एकदन्तः) गणेसो; वीरा नरा जम्म गा सो गामो = वीरणरो (वीरनरः); सुत्तो सिंघो जाए गुहाए सा = सुत्तसिंहा गुहा ( सुप्तसिंहा गुफा ); दिण्णाईं वयाईं जेसिं ते = दिण्णवयो साहवो (दत्तव्रताः साधव: ); पत्तं नाणं जं सो = पत्तनाणो मुणी ( प्राप्तज्ञान: मुनि: ) जिओ कामो जेण सो = जिअकामो अकलंओ ( जितकामोऽकलङ्क ); नहं दंसणं जत्तो सो = नट्ठदंसणो मुणी ( नष्टदर्शनो मुनिः); जिओ अरिगणो जेण सो जिआरिगणो अजिओ (जितारिगणोऽजित: ) ।
=
( ३९ ) व्यधिकरण बहुब्रीहि वह है, जिसके सभी पद प्रथमान्त न हों, केवल एक ही पद प्रथमान्त हो और दूसरा पद षष्ठी या सप्तमी में हो । यथा
चक्कं पाणिम्मि जस्स सो चक्कपाणी (चक्रपाणिः); चक्कं हत्थे जस्स सो चक्कहत्थो भरहो (चक्रहस्तो भरत: ); गंडीवं करे जस्स सो गंडीवकरो अज्जुणो (गाण्डीवकरोऽर्जुनः) ।
(२) विशेषणपूर्वपद बहुब्रीहि
(४०) जिस बहुब्रीहि का प्रथम पद विशेषण हो, उसे विशेषणपूर्वपद बहुब्रीह कहते हैं । यथा
णीलो कंठो जस्स सो णीलकंठो मोरो
नीलकण्ठो मयूरः ) ।
(३) उपमानपूर्वपद बहुब्रीहि
(५) जिस बहुब्रीहि का प्रथमपद उपमान हो, उसे उपमानपूर्वपद बहुब्रीहि कहते हैं । यथा
चन्दो इव मुहं जाए = चंदमुही कन्ना ( चन्द्रमुखी कन्या ); मियनयणाईं इव नयणाणि जाए सा = मियनयणा ( मृगनयना ); कमलनयणाईं इव नयणाणि जाए सा = कमलनयणा ( कमलनयना ); गजाणण इव आणणो जस्स सो = गजाणणो (गजाननः ); हंसगमणं इव गमणं जाए सा= हंसगमणा ( हंसगमना ) ।
(४) अवधारणपूर्वपद बहुब्रीहि
(६) जिसके पूर्वपद में अवधारणा पायी जाय, उसे अवधारणपूर्वपद बहुब्रीहि कहते हैं । यथा -
1
चरणं चेअ धणं जाणं = चरणधणा साहवो ( चरणधनाः साधवः ) |
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२५२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
(५) बहुपद बहुब्रीहि ( ७ ) साधनदशा में दो से अधिक पदों का जो समास होता है, उसे बहुपद बहुव्रीहि कहते हैं । यथा
धुओ सव्यो किलेसो जस्स सो=धुअसव्यकिलेसो जिणो ( थुतसर्वक्लेशो जिनः )।
(६) न , न बहुब्रीहि ( ८ ) निषेध के अर्थवाचक अ और अण के साथ जो बहुव्रीहि समास होता है, उसे नज या न बहुव्रीहि कहते हैं। यथा
न अस्थि भयं जस्स सो = अभयो ( अभय: ); न अस्थि पुत्तो जस्स सो = अपुत्तो ( अपुत्रः ); न अत्थि णाहो जस्स सो=अणाहो ( अनाथ: ), न अस्थि पच्छिमो जस्स सो = अपच्छिमो ( अपश्चिम: ); न अस्थि उयरं जीए सा= अणुयरा ( अनुदरा कन्या ); नत्थि उज्जमो जस्स सो = अणुजमो पुरिसो ( अनुद्यमः पुरुष: ); नत्थि अवज्ज जस्स सो = अणवजो मुणी ( अनवद्यो मुनिः )।
(७) सहपूर्व बहुब्रीहि (९) सह अव्यय जिस बहुव्रीहि समास में हो, उसे सहपूर्वपद बहुव्रीहि कहते हैं। सह अव्यय का तृतीयान्त पद के साथ समास होता है तथा आशीर्वाद अर्थ को छोड़ शेष अर्थों में सह स्थान पर स आदेश होता है। यथा-पुत्रेण सह = सपुत्तो राया ( सपुत्र: राजा ); सीसेण सह = ससीसो आयरिओ ( सशिष्य: आचार्यः ); पुण्णेण सह = सपुण्णो लोयो ( सपुण्यः लोकः ); पावेण सह = सपावो रक्खसो (सपाप: राक्षस: ); कम्मणा सह = सकम्मो नरो ( सकर्मा नरः ); फलेण सह = सफलं ( सफलम् ); मूलेण सह = समूलं ( समूलं ) चेलेण सह = सचेलं पहाणं ( सचैलं स्नानम् ); कलत्तेण सह = सकलत्तो नरो ( सकलनं )।
(८) प्रादि बहुव्रीहि (१०) प, नि, वि, अव, अइ, परि आदि उपसर्गो के साथ जो बहुव्रीहि समास होता है, उसे प्रादि बहुव्रीहि कहते हैं। यथा
प-पगिढ़ पुण्णं जस्स सो = पपुण्णो जणो ( प्रपुण्यः जनः )। नि-निग्गया लज्जा जस्स सो = निल्लज्जो ( णिर्लज: )। वि-विगओ धवो जाए सा = विहवा ( विधवा )। अव-अवगतं रूवं जस्स सो = अवरुवो ( अपरूप: )। अइ-अइवतो मग्गो जेण सो = अइमग्गो रहो ( अतिमार्गः रथ: )। परि-परिअअं जलं जाए सा = परिजला परिहा ( परिजला परिखा )। निर-निग्गआ दया जस्स सो = नियो जणो ( निर्दयो जनः )।
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
(४) द्वन्द्व समास (दंद समास )
( १ ) दो या दो से अधिक संज्ञाएँ एक साथ रखी गई हों और उन्हें च ( य ) शब्द के द्वारा जोड़ा गया हो तो वह द्वन्द समास कहलाता है । इस समास के तीन भेद हैं
( १ ) इतरेतर द्वन्द्व । ( २ ) समाहार द्वन्द्व । ( ३ ) एकशेष हुन्छ । (१) इतरेतर द्वन्द्व
( २ ) जिस समास में आई हुई दोनों संज्ञाएँ अपना प्रधान व्यक्तित्व रखती हो, उस समास को इतरेतर द्वन्द्व कहते हैं । यथा
पुण्णं य पात्रं य = पुण्णपावाई ( पुण्यपापे ) |
अजिओ असंती अ = अजियसंतिणो ( अजितशान्ती ) । उसो अ वीरो अ = उसवीरा ( ऋषभवीरौ ) ।
देवा य दाणवा य गंधव्त्रा य = देवदाणवर्गधन्वा ( देवदानवगन्धर्वाः ) | वाणरो अ मोरो अ हंसो अ = बानरमोरहंसा ( वानरमयूर हंसा : ) । सावओ अ साविआ य = सावअसाविआओ ( श्रावकश्राविके ) । देवाय देवीओ अ = देवदेवीओ ( देवदेव्यः ) । सासू अ बहू अ = सासूबहूओ ( वववो )
भक्खं अ अभक्खं अ = भक्खाभक्खाणि ( भक्ष्याभक्ष्ये ) | पत्तं य पुष्कं य फलं य = पत्तपुष्फलाणि ( पत्रपुष्पफलानि ) । जीवा य अजीवा य = जीवाजीवा ( जीवाजीवौ ) ।
२५३
सुहं यदुक्खं य= सुहदुक्खाइं ( सुखदु:खे ) । सुरा य असुरा य = सुरासुरा ( सुरासुरा: ) । हत्थाय पाया य = हत्थपाया ( हस्तपादा : ) ।
लाद्दा य अल्लादा य = लाहालाहा ( लाभालाभौ ) ।
सारं य असारं य = सारासारं ( सारासारम् ) ।
रूवं य सोहग्गं य जोव्वणं य = रूत्रसोहग्गजोन्वणाणि ( रूपसौभाग्ययौवनानि ) । (२) समाहारद्वन्द्व
( ३ ) जिस समास में अ या य शब्द से जुड़ी हुई संज्ञाएँ अपना पृथक् अर्थ रखने पर भी समूह अर्थ का बोध कराती हों, उसे समाहार द्वन्द्व कहते हैं । यथा
असणं य पाणं य एएसिं समाहारो = असणपाणं ( अशनपानम् ) । तवो अ संजमो अ एएसिं समाहारो = तवसंजमं ( तपःसंयमम् ) । नाणं यदंसणं यचरितं य एएसिं समाहारो = नाणदंसणचरितं
( ज्ञानदर्शनचरित्रम् ) ।
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२५४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण राओ अ दोसो अ भयं अ मोहो अ एएसिं समाहारो = राअदोसभयमोह
( रागद्वेषभयमोहम )। (३) एकशेष द्वन्द्व ( ४ ) जिस समास में दो या अधिक शब्दों में से एक ही शेष रहे, उसे एकशेष द्वन्द्व कहते हैं। यथा
जिणो अ जिणो अ जिणो अत्ति = जिणा ( जिनाः )। नेत्तं य नेत्तं यत्ति = नेत्ताइं ( नेत्रे)। माआ य पिआ यत्ति = पिअरा ( पितरौ )। सासू अ ससुरो अ त्ति = ससुरा (श्वशुरौ)।
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तद्धित
( १ ) धातुओं को छोड़ शेष प्रकार के शब्दों में जिन प्रत्ययों को जोड़ने से कुछ और भी अर्थ निकलता है, उन प्रत्ययों को तद्धित प्रत्यय कहते हैं; यथा - अणु, त्व, आदि तद्धित प्रत्यय हैं। इन प्रत्ययों के लगाने से जो शब्द बनते हैं, उन्हें तद्धित कहते हैं । तद्धित प्रत्यय तीन प्रकार के होते हैं - सामान्यवृत्ति, भाववाचक और अव्ययसंज्ञक । सामान्यवृत्ति के अपत्यार्थक, देवतार्थक, सामूहिक आदि भेद हैं।
( २ ) प्राकृत में इदमर्थ - 'यह इसका ' इस सम्बन्ध को सूचित करने के लिए 'केर' प्रत्यय जोड़ा जाता है । यथा—
अस्मद् (अम्ह) + केर = अम्हकेरं ( अस्माकमिदम्, अस्मदीयम् ) ।
युष्मद् (तुम्ह) + र = तुम्हकेरं, तुम्ह केरो ( युष्माकमिदम्, युष्मदीयम्, युष्मदीय:) पर + र = परकेरं ( परस्य इदम, परकीयम् )।
राय + र = रायकेरं ( राज्ञ इदम्, राजकीयम् ) ।
( ३ ) इदमर्थ में युष्मद्, अस्मद् शब्दों से पर में रहनेवाले संस्कृत अन् प्रत्यय के स्थान पर 'एच्चय' आदेश होता है' । यथा
युष्मद् (तुम्ह) + एच्चय = तुम्हेश्च्चयं ( यौष्माकम् )
अस्मद् (अम्ह) + एच्चय = अम्हेच्चयं ( आस्माकम् ) ।
( ४ ) अपस्य अर्थ में प्राकृत में संस्कृत के समान अ ( अण् ), इ ( इन् ),
आवण, एय, इत, ईण और इक प्रत्यय होते हैं । यथा
सिव + अ - सिवस्स अपत्तं = सेवो; दसरह + ई = दासरही ।
वसुदेव + अ -- वसुदेवस्स अपत्तं = वासुदेवो । नड + आयण - नडस्स अपत्तं = नाडायणो ।
कुलडा + एय – कुलडाए अपत्तं = कोलडेयो ।
महाउल + ईण – महाउलस्स अपत्तं = महाउलीणो ।
( ५ ) भव अर्थ बतलाने के लिए इल्ल और उल्ल प्रत्यय जोड़े जाते हैं यथा-६ - गाम + इल्ल = गामिल्लं ( प्रामे भवम् ), स्त्रीलिंग में गामिल्ली ( ग्रामे
इल्ल
भवा ) ।
१. इदमर्थस्य केरः ।२।१४७ । ३. डिल्ल - डुल्लौ भवे ८।२।१६३ ।
२. युष्मदस्मदोन एच्चयः ८ २ १४६ ।
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२५६
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
पुर + इल्ल = पुरिल्लं ( पुरे भवम् ), स्त्री० पुरिल्ली ।
हेट्ठ ( अधस् ) + इल्ल = हेट्ठिल्लं ( अधो भवम् ) स्त्री० हेट्ठिल्ली । उवरि + इल्ल = उवरिल्लं ( उपरि भवम् ) ।
उल्ल—अप्प + उल्ल = अप्पुल्लं ( आत्मनि भवम् ) । तरु + उल्ल = तरुल्लं ( तरौ भवम् ) नयर + उल्ल = नयरुल्लं ( नगरे भवम् ) ।
(६) संस्कृत के वत् प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'व्व' आदेश होता है ।
यथा-
व्व - महु + व्व = महुव्त्र ( मधुवत् )
महुर + व्व = महुरत्र पाडलिपुत्ते पासाया ( मथुरावत् पाटलिपुत्रे प्रासादा :) ( ७ ) संस्कृत के त्व के स्थान पर प्राकृत में डिमा और त्तण विकल्प से आदेश होते हैं। यथा
पीण + इमा = पीणिमा ( पीनत्वम् ) ।
पीण + त्तण= पीणत्तणं, पीण + त = पीणत्तं ( पीनस्त्रम् ) ।
पुष्क + इमा = पुष्फिमा ( पुष्पत्वम् ) ।
पुष्फ + त्तण = पुष्कत्तणं, पुष्फ + त्त = पुष्फक्तं ( पुष्पत्वम् ) ।
( ८ ) वार अर्थ प्रकट करने के लिए - क्रिया की अभ्यावृत्ति की गणना अर्थ में संस्कृत के कृत्वस् प्रत्यय के स्थान पर 'हुत्त' आदेश होता है। आर्ष प्राकृत में यह प्रत्यय खुत्तं हो जाता है । यथा
एय + हुत्तं = एयहुरूं ( एककृत्व:- एकवारम् ) ।
दु + = दुहुत्तं ( द्विवारम् ) ।
ति + हुत्तं तिहुत्तं (तिवारम् ) ।
सय + हुत्तं = सयहुत्तं ( शतवारम् ) ।
सहस्स + हुत्तं = सहस्सहु ( सहस्रवारम् ) ।
( ९ ) ' वाला' अर्थ बतलानेवाले संस्कृत मतुप् प्रत्य के स्थान पर आलु, इल्ल, उल्ल, आल, वन्त और मन्त आदेश होते हैं।
-
आल — रस + आल = रसालो ( रसवान् ) । जडा + आल = जडालो ( जटावान् ) ।
१. वतेः ८।२ । १५० ।
३. कृत्वसो हुत्तं ८।२।१५८ ।
२. त्वस्य डिमा-तणौ वा ८।२।१५४ ।
४. श्राविल्लोल्लाल - वन्त-मन्तेत्तेर - मरणा मतोः ८।२।१५६ ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२५७
२५५
जोण्हा + आल = जोण्हालो ( ज्योत्स्नावान् ) सह + आल = सहालो (शब्दवान् )
फडा + आल = फडालो ( फटावान् ) आलु-ईसा + आलु = ईसाल ( ईर्ष्यावान् )
दया + आलु + दयालू (दयालु ) नेह + आलु - नेहालू ( स्नेहवान् )
हजा + आलु = लज्जालु (लज्जावान् ), स्त्री० र.जालुआ (बजावती) इत्त-कव्व + इत्त= कञ्चइत्तो ( काव्यवान् )
माण + इत्त = माणइत्तो ( मानवान् ) इर-गव्व + इर = गव्विरो ( गर्ववान् ) इल्ल-सोहा + इल सोहिल्लो ( शोभावान् )
छाया + इल्ल = छाइल्लो (छायावान् )
जाम + इल्ल = जामइल्लो ( यामवान् ) उल्ल-वियार + उल्ल = वियारल्लो ( विचारवान् )
वियार + उल्ल=वियारल्लो ( विकारवान् ) मंस + उल्ल = मंसुलो ( श्मश्रुवान् )
इप्प + उल्ल = दप्पुल्लो ( दर्पवान् ) मण-धण + मण = धणमणो ( धनवान् )
सोहा + मण = सोहामणो (शोभावान् )
बोहा + मण = बोहामणी ( भीयान ) मंत-हनु + मंत = हणुमंतो ( हनुमान् )
सिरि+मंत =सिरिमंतो ( श्रीमान् )
पुण्ण + मंत = पुण्णमंतो ( पुण्यवान् ) वंत-धण+वंत = धणवतो (धनवान् )
भत्ति + वंत = भत्तिवतो ( भक्तिमान् ) (१०) संस्कृत के तस् प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में तो और विकल्प से दो आदेश होते हैं। यथा
सब्ध + तस् (तो) = सव्वत्तो, सव्वदो, सवओ ( सर्वतः) एक + तस् (तो) = एकत्तो, एकदो, एकओ ( एकत:) अन्न + तस् (तो) = अन्नत्तो, अन्नदो, अन्नओ (अन्यतः )
१. तो दो तसो वा दारा१६० तसः प्रत्ययस्य स्थाने तो, दो इत्यादेशौ भवतः ।
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२५८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण कु + तस् (तो) = कुत्तो, कूदो, कुओ ( कुतः) ज + तस् (तो) = जत्तो, जदो, जओ ( यत:) त = तस् (तो) = तत्तो, तदो, तओ ( तत: ) इ+ तस (तो)= इत्तो, इदो, इओ ( इत:)
( ११ ) संस्कृत के त्रप् प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में हि, ह और स्थ प्रत्यय आदेश होते हैं। यथा
ज+न (हि) = जहि, जह, जत्थ ( यत्र) त + त्र (हि) = तहि, तह, तत्थ ( सत्र) क + त्र (हि) = कहि, कह, कत्थ ( कुत्र ) अन्न + त्र (हि) = अन्न हि, अन्नह, अन्नत्थ (अन्यत्र)
( १२ ) स्वार्थिक क प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से अ, इल्ल और उल्ल प्रत्यय आदेश होते हैं । यथाअ-चंद + अ = चंदओ, चंदो ( चन्द्रकः )
हअय + अ = हिअयअं, हिअयं ( हृदयकम् )
बहुअ + अ = बहुअअं, बहुअं ( बहुकम् ) इल्ल-पल्लव + इल्ल = पल्लविल्लो, पल्लवो ( पल्लवः )
पुरा + इल्ल = पुरिल्लो, पुरा ( पुरा ) उल्ल-पिअ + उल्ल = पिउल्लो, पिआ (पिता) __हत्थ + उल्ल = हत्थुल्लो, हत्थो ( हस्त : )
(१३) अंकोठ शब्द को छोड़ शेष बीजवाची शब्दों से लगने वाले तैल प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'एल्ल' प्रत्यय जोड़ा जाता है । यथा
कडु + तैल = कडुएल्लं ( कटुतैलम् )। अंकोठ + तैल = अंकोल्लतेल्लं ( अङ्कोठतैल ) ।
( १४ ) यद् , तद् और एतद् शब्दों से पर में आनेवाले परिमाणार्थक प्रत्यय के स्थान में इत्तिअ आदेश होता है और एतद् शब्द का लुक भी होता है । यथा
यत् (ज) + इत्तिअ = जित्तिभं ( यावत् ) तद् (त) + इत्ति = तित्तिों ( तावत् ) एतद् + इत्तिअ = इत्ति (एतावत् )
१. वपो हि-हित्थाः ८।२।१६१ त्रप् प्रत्ययस्य एते भवन्ति । २. स्वार्थे कश्च वा ८।२।१६४ ३. अनौठात्तैलस्य डेल्लः ८।२ । १५५ ४. यत्तदेतदोतोरित्तिन एतल्लुक् च ८।२।१५६
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तावत्
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२५९ (१५) इदम् , किम् , यद् , तद् और एतद् शब्दों से पर में आनेवाले परिमाणार्थक प्रत्यय के स्थान में डेत्तिअ, डेत्तिल और डेदह आदेश होते हैं। इन प्रत्ययों के आने पर एतद् शब्द का लुक् हो जाता है। यथा
ज+ एत्तिअ = जेत्ति ज+ एत्तिल = जेत्तिलं
यावत् ज+ एह = जेहं त + एत्तिअ =तेत्तिों त+ एहिल = तेहिलं त+ एत्तह = तेत्तहं एत + एत्तिअ = एत्ति एत + एत्तिल = एत्तिलं
एतावत् , इयत् एत + एहह = एहं क + एत्तिअ = केत्ति क + एत्तिल = केत्तिलं
कियत् क + एदह = केहह ..
(१६ ) भाववाचक संस्कृत के त्व और तल प्रत्यय के स्थान पर ये ही प्रत्यय रह जाते हैं । यथा
मृदुक + त्व = मउअत्त + ता= मउअत्तता, मउअत्तया (मृदुकत्वता)।
( १७ ) एक शब्द के उत्तर में होनेवाले दा प्रत्यय के स्थान में सि, सिअं और इआ आदेश होते हैं । यथा
एक्क + सि = एक्कसि एक+सि = एक्कसि एक्क + आ = एक्कइआ ( १८ ) 5 शब्द से स्वार्थ में मया और डमया ये दो प्रत्यय होते हैं । यथाभ्रू (भु) + मया = भुमया भ्रू (भ) + डमया = भमया । (१९) शनि शब्द से स्वार्थिक डिअम् प्रत्यय होता है । यथा
त्तिलकोत्तल
एकदा
१. इदंकिमश्च डेत्तिप्र-डेत्तिल-डेदहाः ८।२।१५७ २. त्वादेः सः ८।२।१७२ ....- -... ४. भ्र वो मया डमया ८।२।१६७
३. वैकाद्दः सि सिनं इमा ८।२।१६२ ५. शनसो डिमम् ८।२।१६८
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
शनै: + इअ = सणिअं ( शनै: ), सणिअमवगूढो ।
(२०) मनाक् शब्द से स्वार्थिक डयम् और डिअम् प्रत्यय विकल्प से होते
। यथा
२६०
यथा
मनाक् (मण) +अय = मणयं नाकू (मण) + इय = मणियं, मणा
( २२ ) दीर्घ शब्द से स्वार्थिक से प्रत्यय विकल्प से होता है रे । यथादीर्घ ( दीह) + र = दीहरं, दीहं (दीर्घम् )
२३) विद्युत्, पत्र, पीत और अन्ध शब्द से स्वार्थ में ल प्रत्यय विकल्प से होता है। यथा
विद्युत् (विज्जु) + ल विज्जुला, विज्जू (विद्युत् )
पत्र (पत्त ) + ल = पत्तलं, पत्तं (पत्रम् )
पीत ( पीअ) + ल= पीअलं, पीवलं, पीअं ( पीतम् )
अन्ध + ल = अंधलो, अंधो ( अन्ध: )
( २४ ) नव और एक शब्द को स्वार्थ में विकल्प से ल्लो प्रत्यय होता है" ।
यथा
} मनाक्
२
( २१ ) मिश्र शब्द से स्वार्थिक डालिअ प्रत्यय विकल्प से होता है । यथामिश्र ( मीस ) + आलिअ = मीसालिअं, मीसं ( मिश्रम् )
नव + ल - नवल्लो, नवो ( नवक: )
एक + ल = एकल्लो, एक्को ( एकक : ) अवरि + ल्ल = अवरिल्लो
(२५) पथ शब्द से होने वाले ण के स्थान में इकटू प्रत्यय होता
यथा
१. मनाको न वा डयं च ८।२।१६६
३. रो दीर्घात् ८।२।१७१ ५. ल्लो नवैकाद्वा८।२।१६५
७. यस्यात्मनो यः ८।२।१५३
पह + इ = पहिओ (पान्थ : )
( २६ ) आत्म शब्द से होनेवाले ईय के स्थान में जय आदेश होता है ।
अप्प + णय = अप्पण ( आत्मीयम् )
६
२. मिश्राड्डालिनः ८।२।१७०
४. विद्युत्पत्र - पीतान्धाल्लः ८|२| १ | १७३
६. पथो णस्येकट् ८।२।१५२
1
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२६१
अभिनव प्राकृत व्याकरण ( २ ) सर्वाङ्ग शब्द से विहित इन के स्थान में इक आदेश होता है । यथासव्वंग + इअ = सव्वंगिओ ( सर्वाङ्गीण:)
( २८ ) पर और राजन् शब्द से सम्बन्ध बतलाने के लिए क्क प्रत्यय होता है । यथा
पर + क = परक्कं ( परकीयम् ) राय + क = राइक्कं ( राजकीयम् ) .
(२९) संस्कृत तद्धितान्त रूपों के ऊपर से प्राकृत के रूप बनाये जाते हैं। यथाधनिन् = धनी-धणी
कानीनः = काणीणो आर्थिकः = अस्थिओ
मदीयम् = मईयं तपस्विन् = तपस्वी = तवस्सी पीनता = पीणया भैक्षम् = भिक्खं
राजन्यः = रायण्णो आस्तिक:: = अस्थिओ
कोशेयम् = कोसेयं आर्षम् = आरिसं
. पितामहो = पिआमहो यदा = जया; कदा = कया, सर्वदा = सव्वया, तदा = तया, अन्यदा = अण्णहा; सर्वथा = सव्वहा।
तर और तम प्रत्यय प्राकृत में एक से श्रेष्ठ और सबसे श्रेष्ठ का भाव बतलाने के लिए तर (अर), तम (अम), ईयस् (ईअस) और इष्ठ (इट) का प्रयोग संस्कृत के समान ही होता है। इन तुलनात्मक विशेषणों की (Degree of Comparison) की तालिका दी जाती है।
तिक्ख (तीक्ष्ण) तिक्खअर (तक्ष्णतर) तिक्खअम (तीक्ष्णतम) उज्जल (उज्वल) उज्जलअर (उज्ज्वलतर) उजलअम (उज्ज्वलतम) परगहिय (प्रगृहीत) परगहियअर (प्रगृहीततर) पग्गहियतम (प्रगृहीततम) थोव (स्तोक) थोवअर (स्तोकतर) थोवअम (स्तोकतम) अप्प (अल्प) अप्पअर (अल्पतर) - अप्पअम (अल्पतम) अहिअ (अधिक) अहिअअर, अहिअदर अहिअअम, अहिअयम
(अधिकतर) (अधिकतम) पिअ (प्रिय) पिअअर (प्रियतर) पिअअम (प्रियतम) हलु, लहु (लघु) हलुअर (लघुतर)-----हलुअम (लघुतम)
१. सर्वाङ्गादीनस्येकः ८।२।१५१ ....... २. पर-राजभ्यां क-डिकौ च ८.२।१४८
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२६२
अप्प (अल्प )
बहु
पावी (पापी)
गुरु
जेह (ज्येष्ठ)
विडल ( विपुल)
पडु (43)
घणी (धनी)
महा
वुड्ढ (वृद्ध)
थूल (स्थूल)
बहुल
दीहर (दीर्घ)
अंतिम (अन्तिम)
दूर
पाचअ ( पाचक )
विउस ( विद्वान् )
मिउ (मृदु )
धम्मी (धर्मी) खुद्द (क्षुद्र ) M इम ( मतिमान् )
अभिनव प्राकृत व्याकरण
कणीस ( कनीयस)
भूयस (भूयस् ) पायस (पापीयस् )
यस ( गरीयस् )
जेट्ठयर (ज्येष्ठतर)
विउलअर
महत्तर
जायस (ज्यायस् )
थूलअर (स्थूलतर)
पडीअस, पडुअर (पटीयस) पडिट्ठ, पहुअम ( पटुतम )
धणिअर
धणिअम
अस (बंही अस्)
दोहरअस (दीर्घतर) नेदीअस (नेदीयस् )
दवीअस (दवयस् )
पाचअर (पाचकतर )
विउसअर (विद्वत्तर)
मिउअर (मृदुतर)
धम्मीअस ( धर्मीयस)
खुद्दअर (क्षुद्रतर)
कणिट्ट, कणिट्ठग (कनिष्ठ) (भूष्ठि)
पावि ( पापिष्ठ)
(तीस)
गरि ( गरिष्ठ)
जेम (ज्येष्ठतम )
विलअम (विपुलतम
महत्तम
जेड (ज्येष्ठ)
थूलअम (स्थूलतम ) बंदि (हिट ) दीहरअम (दीर्घतम ) दिट्ठ (नेदिष्ठ )
aag ( दविष्ठ )
पाचअअम (पाचकतम)
विसअम (विद्वत्तम)
मिडअम (मृदुतम)
धम्मिट्ठ ( धर्मिष्ठ )
खुद्द अम (क्षुद्रतम )
मट्ठ (मतिष्ठ)
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नवाँ अध्याय
क्रियाविचार प्राकृत में क्रिया शब्दों के मूल रूप को धातु कहते हैं। धातुओं में विविध प्रत्यय जोड़ने पर क्रिया के रूप बनते हैं।
प्राकृत में क्रियारूपों के विकास पर सारश्य का प्रभाव संज्ञा आदि रूपों की अपेक्षा और भी अधिक व्यापक रूप में मिलता है। द्विवचन का लोप, कर्तृवाच्य और कर्मवाच्य के रूपों का प्रायः एकीकरण, आत्मनेपद के रूपों का हास, विविध काल रूपों में अनुरूपता, क्रिया के विभिन्न रूपों में ध्वनिपरिवर्तन के कारण समानता आदि प्राकृत के क्रियाविकास की कुछ मुख्य विशेषताएँ हैं। संस्कृत धातुएँ भ्वादि, अदादि, जुहोत्यादि, स्वादि, तुदादि, रुधादि, तनादि, क्रयादि और चुरादि इन दश गणों में विभक्त हैं। इन गणों के अनुसार ही विभक्तियों के जुड़ने के पूर्व धातु में परिवर्तन होता है । परन्तु इन सबमें भ्वादि रूपों की ही व्यापकता प्राकृत के क्रियापदों के विकास में मिलती है। कालरचना की दृष्टि से वर्तमान, भूत, आज्ञा, विधि, भविष्य और क्रियातिपत्ति के प्रयोग प्राकृत में दिखलायी पड़ते हैं । सहायक क्रिया के साथ कृदन्त रूपों का व्यवहार बहुलता से उपलब्ध होता है । अतएव यह कहा जा सकता है कि सादृश्य और ध्वनिविकास के कारण क्रिया के रूप अधिक सरल हो गये हैं । संस्कृत के समान क्रियारूपों में पेचीदगी नहीं है।
क्रियारूपों की जानकारी के सम्बन्ध में निम्न नियम स्मरणीय हैं
(१) प्राकृत में तिप आदि प्रत्ययों को तिङ कहते हैं। अकारान्त धातुओं को छोड़कर शेष धातुओं में आत्मनेपदी और परस्मैपदी का भेद नहीं माना जाता। हां, अदन्त या अकारान्त धातुएँ उभयपदी होती हैं।
( २ ) अकारान्त आत्मनेपदी धातुओं के प्रथम और मध्यम पुरुष एकवचन के स्थान में क्रमश: ए और से आदेश विकल्प से होते हैं। यथा—तुवरएर त्वरते; तुवरसे < त्वरसे।
(३ ) अदन्त धातुओं से 'मि के पर में रहने पर पूर्व के 'अ' का आत्व विकल्प से होता है । यथा-- हसामि, हसमि इत्यादि।
(४) अकारान्त धातुओं से मो, मु और म पर में रहे तो पूर्व के अकार के स्थान में इ और आ होते हैं। कहीं-कहीं ए भी हो जाता है। यथा-हसिमो, हसामो, हसेमो; हसिमु, हसेमु इत्यादि।
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२६४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण (५) स्वरान्त धातु से भूतकाल में सभी पुरुषों और वचनों में विहित प्रत्ययों के स्थान पर ही, सी और हीअ आदेश होते हैं। यथा—काही, कासी, काहीअ; ठाही, ठासी और ठाहीअ ( आकार्षीत् , अकरोत् , चक्रार; अस्थात् , अतिष्ठत् , तस्थौ )।
(६) व्यञ्जनान्त धातुओं से भूतकाल में विहित सभी प्रत्ययों के स्थान में इअ आदेश होता है । यथा-गहणीअ< अग्रहीत , अगृह्णात् , जग्राह ।
( ७ ) अस धातु के सभी पुरुषों के एकवचन में आसि और बहुवचन में अहेसि आदेश होता है।
(८) वर्तमानकाल और आज्ञार्थ धातुओं में अन्त्य अ हो तो विकल्प से प्रत्यय के पूर्ववर्ती उस अ को विकल्प से ए हो जाता है। यथा-हसेइ ८ हसति ।
(९) वर्तमानकाल के समान ही भविष्यत् काल के प्रत्यय होते हैं, किन्तु मि, मो, मु, म प्रत्ययों से पूर्व विकल्प से हिस्सा और हित्था आदेश होते हैं ।
(१०) धातु से परे भविष्यत् काल के मि प्रत्यय के स्थान पर स्सं विकल्प से होता है।
( ११ ) भविष्यकाल में पूर्व अ के स्थान पर इ और ए होता है ।
(१२) विधि और आज्ञार्थ में धातु से पर इज्जसु, इजहि, इज्जे प्रत्यय जोड़े जाते हैं। प्रत्यय का लोप होने से धातु का मूल रूप ज्यों का त्यों भी शेष रह जाता है।
( १३ ) क्रियातिपत्ति में उज, ज्जा, न्त और माण प्रत्यय जोड़े जाते हैं।
(१४ ) क्रियातिपत्ति में ज्ज, ज्जा प्रत्यय जोड़ने के पूर्व सभी पुरुष और सभी वचनों में अकार को एत्व हो जाता है।
कर्तरि में धातुओं के विकरणों के नियम ( १५ ) व्यञ्जनान्त में अ विकरण जोड़ने के अनन्तर प्रत्यय जोड़े जाते हैं। यथा
भण + अ-भण + इ = भणइ भणति कह + अ-कह, कह + इ = कहइ कथयति सम् + अ-सम, सम + इ = समइ< शाम्यति हस + अ-हस, हस + इ = हसइ ८ हसति आव् + अ-आव, आव + इ = आवइ (आप्नोति सिंच + अ-सिंच, सिंच + इ = सिंचइ< सिञ्चति रुन्ध = अरुन्ध, रुन्ध + रुन्ध + इ = रुन्धइ< रुणद्धि मुस् + अ-मुस, मुस + इ = मुसइ<मुष्णाति तण + अ-तण, तण+इ = तणइतनोति
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________________
२६५
अभिनव प्राकृत-व्याकरण (१६ ) अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त शेष स्वरान्त धातुओं में अ विकरण विकल्प से जुड़ता है । यथा
पा+ अ-पाअ, पाअ + इ = पाअइ; पा + इ = पाइ<पाति जा + अ-जाअ, जाअ + इ = जाअइ3; जा + इ =जाइ<याति धा + अ-धाअ, धाअ +इ = धाअइ; धा+इ = धाइ <धयति, धावति, दधाति झा + अ-माअ, झाअ + इ = झाअइ; झा + इ = झाइ< ध्यायति जंभा + अ-जंभाअ, जंभाअ + इ = जंभाअइ; जंभा + इ = जंभाइ< जम्भते वा + अ-वाअ, वाअ + इ + वाअइ; वा + इ = वाइ < वाति मिला + अ-मिलाअ, मिलाअ + इ = मिलाअइ; मिला + इ = मिलाइ<म्लायति विक्की-विक + अ-विक्केअ, विक्के + इ = विकेअइ; विक्के + इ = विक्कर
विक्रीणाति हो + अ-होअ, होअ + इ = होअइ, हो + इ = होइ< भवति
(१७ ) उकारान्त धातुओं में उ के स्थान पर उव आदेश होने के अनन्तर अ विकरण जोड़ा जाता है। यथा
ण्हु-हव + अ-हव + इ = ण्हवइ ८ हते नि + ण्हु-निण्हव् + अ = निण्हव+इ = निण्हवइ ८ निद्भुते हु-हव् , हव् + अ-हव + इ = हवइ< जुहोति चु-चव , चव + अ = चव + इ = चवहरच्यवते रु-रव-रव + अ = स्व + इ = रखइदरौति कु-कव , कव + अ =कव + इ = कवइ< कौति सू-सत् + अ = सव + इ = सवइ< सूते; पवसइ< प्रसूते
( १८ ) ऋकारान्त धातुओं में ऋ के स्थान पर अर हो जाने के अनन्तर अ विकरण जोड़ा जाता है । यथा
कृ-कर , कर + अ = कर, कर + इ = करइ करोति धृ-धर., धर + अ = धर + इ = =धरइ<धरति मृ-मर , मर + अ = मर + इ = मरइ< म्रियते वृ-वर , वर + अ = वर + इ = वरइ-वृणोति, वृणुते सु-सर , सर + अ = सर + 5 = सरहदसरति ह-हर , हर + अ = हर + इ = हरहदहरति तृ-तर , तर + अ = तर + इ = तरह-तरति ..
( १९ ) उपान्त्य ऋ वर्णवाली धातुओं में प्रकार के स्थान पर अरि आदेश होता है, पश्चात अविकरण जोड़ा जाता है। यथा
rice IP)
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२६६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण कृष्-कृ = करि—करिस + अ = करिस + इ = करिसह ८ कर्षति मृष–मरिस + अ = मरिस + इ = मरिसह ८ मृष्यते वृष --वरिस + अ = वरिस + इ = वरिसइ< वर्षति हृष-हरिस + अ = हरिस + इ = हरिसइ < हृष्यति
( २० ) इकारान्त और उकारान्त धातुओं में इकार के स्थान पर ए और उकार के स्थान पर ओ होता है । यथा
नी-ने + इ = नेइ नयति, नैति < नयन्ति उड्डी-उड्डे + इ = उड्डेइ < उड्डयते, उड्डेति < उड्डयन्ते ( २१ ) कुछ व्यञ्जनान्त धातुओं के उपान्त्य स्वर को दीर्घ होता है । यथारुष-रुस-रूस + इ = रूसइ < रुष्यति तुष-तुस --तूस + इ = तूसह तुष्यति शुष-सुस–सूस + इ = सूसइ< शुष्यति पुष–पुस -पूस + इ = पूसइ< पुष्यति शिष = सीस + इ = सीसइ र शिष्यते। ( २२ ) धातुओं के नियत स्वर के स्थान पर प्रयोगानुसार अन्य स्वर होता है । हवइ-हिवइ भवति
चिणइ-चुणइ चिनोति सदहणं-सदहाणं श्रद्दधानम् धावइ–थुवइ <धावति दा-दे-देह < ददाति, दाति ला-ले-लेइ < लाति विहा–विहे-विहेइ ८ विदधाति,विभाति ब्रू-वे-बेमि < प्रवीमि ( २३ ) कुछ धातुओं के अन्त्य व्यञ्जन को द्वित्व होता है। यथाफुडइ, फुट्टइ< स्फुटति
चलइ, चल्लइ< चलति निमीलइ, निमिल्लइ < निमीलति । संमोलइ, उम्मिल्लइ < सम्मीलति
परिअट्टइ<पर्यटति सकारशक्नोति
तुइ < त्रुटति नहइ ८ नटति
नस्सइ र नश्यति कुप्पइ < कुप्यति, नृत्यति
(२४) कुछ धातुओं में संस्कृत के विकरण जुड़ जाने पर द्य के स्थान में ज. आदेश होता है । यथा
संपज्जइ < सम्पद्यते; सिजइ ८ स्विधति; खिजइ< खिद्यते
जिम्मइ
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२६७
वर्तमानकाल के प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प्रथम पुरुष ( Third Person ) इ, ए
न्ति, न्ते, हरे मध्यम पुरुष (Second Person) सि, से
इत्था, ह उत्तम पुरुष (First Person) मि. मो, मु, म
भूतकाल के प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प्र० पु० ई.
ईअ व्यञ्जनान्त धातुओं के लिए म० पु० ईअ उ० पु० ई.
ईअ , , स्वरान्त धातुओं में तीनों पुरुष और दोनों वचनों में सी, ही, हीअ ये तीन प्रत्यय जोड़े जाते हैं।
भविष्यत्काल के प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प्र० पु० हिइ, हिए . हिन्ति, हिन्ते, हिरे म० पु० हिसि, हिसे
हित्था, हिह उ० पु० स्सं, स्सामि, हामि, हिमि स्सामो, हामो, हिमो, स्सामु, हामु,
हिमु, स्साम, हाम, हिम, हिस्सा, हित्था विधि और आज्ञार्थक प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प्र० पु० उ म० पु० हि, सु उ० पु० मु
इज्जसु, इजहि और इज्जे प्रत्यय भी उकारान्त धातुओं में जोड़े जाते हैं और प्रत्यय का लोप भी होता है।
क्रियातिपत्ति के प्रत्यय
बहुवचन प्र० पु० ज, जा, न्त, माण ज, जा, न्त, माण म० पु० " "
" " उ० पु० . " ..." -
" "
एकवचन
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
( २५ ) वर्तमान का अर्थ बतालाने के लिए वर्तमानकाल; अतीत-भूत का अर्थ बतलाने के लिए भूत, भविष्य का अर्थ प्रकट करने के लिए भविष्यत्काल; संभावना (Possibility ) या संशय ( Doubt ) विधि, निमन्त्रण, आमन्त्रण, अधीष्ट (Speaking of honorary Duty), संप्रश्न ( Questioning) और प्रार्थना; इच्छा, आशीर्वाद, आज्ञा, शक्ति (Ability) एवं आवश्यकता ( Necessity) अर्थं में विधि या अनुज्ञा का प्रयोग और जब परस्पर संकेतवाले दो वाक्यों का एक संकेतवाक्य बने और उसका बोध करानेवाली क्रिया कोई सांकेतिक क्रिया जब अशक्य प्रतीत हो, तब क्रियातिपत्ति का प्रयोग होता है । क्रियातिपत्ति में क्रिया की अतिपत्ति ( असम्भवता ) की सूचना मिलती है | The Conditional is used instead of the potential, when the non-performance of an action is implied.
२६८
एकवचन
प्र० पु० हसइ, हसए इससि, इससे
हसामि, हसमि
म० पु० उ० पु०
एकवचन
हसेइ
प्र० पु० म० पु० हसेसि उ० पु० हसेमि
प्र० पु० हसीअ
म० पु०
एकवचन
उ० पु०
29
उभयपदी हस् धातु वर्तमानकाल
""
बहुवचन
हसन्ति, हसन्ते, हसिरे
एकवचन प्र० पु० हसिद्दिर, हसिहिए म० पु० हसि हिसि, हसिहिसे
हत्था, सह
इसिमो, इसामो, इसमो; हसिमु हसामु,
समु, हसिम, हसाम, हसम
बहुवचन
सेन्ते, हरे
हत्था, सेह
हसेमो, इसे, इसेम
भूतकाल
बहुवचन
हसीअ
भविष्यत्काल
""
99
बहुवचन इसिद्दिन्ति, हसिद्दिन्ते, हसिद्दिरे हित्था, हसिहि
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
उ० पु० इसिस्सं, हसिस्सा मि सद्दाम, हसिम
प्र० पु० म० पु०
एकवचन
हसउ
हसद्दि, हससु, इस्सेज्जसु, इसेज्जदि, इसज्जे, इस
उ० पु० हसिमु हसामु, हसमु
म० पु०
उ० पु०
एकवचन
हसे उ
प्र० पु०
म० पु० हसेहि, हसेसु
उ० पु०
मु
"
""
,
एकवचन
प्र० पु० इसेज्ज, इसेज्जा, हसन्तो,
माण
प्र० पु०
होइ
होसि
म० पु० उ० पु० होमि
अभिनव प्राकृत व्याकरण
एकवचन
"
fafa और आज्ञार्थकरूप
23
आज्ञार्थ में एब हो जाता है
99
हसिस्सामो, हसिहामो, हसिद्दिमो सिसामु, इसिहामु, हसिहि मु हसिस्साम, हसिहाम, हसिहिम; इसिहिस्सा, इसिद्दिस्था
एकवचन
प्र० पु० होसी, होही, होहीअ
म० पु०
उ० पु०
बहुवचन
हसन्तु
हसद्द
22
सिमो, हामो सम
बहुवचन
हसेन्तु
क्रियातिपत्ति
ह
हम
""
39
हो भू धातु के रूप -- वर्तमान
K
बहुवचन इसेज्ज, हसेज्जा, हसन्तो, इसमाणो
भूतकाल
"
बहुवचन होन्ति, होन्ते, होहरे हत्था, होइ
होमो, होमु, होम
बहुवचन होमी, होही, होहीअ
59
19
ܕܕ
"
""
२६९
Page #301
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________________
२७०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
होन्तु
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० होहिइ
होहिन्ति, होहिन्ते, होहिरे म० पु० होहिसि
होहित्था, होहिह उ० पु० होस्सं, होस्सामि होस्सामो, होहामो, होहिमो; होहामि, होहिमि होस्सामु, होहामु, होहिमु; होस्साम,
होहाम, होहिम; होहिस्सा, होहित्था विधि एवं आज्ञार्थक एकवचन
बहुवचन प्र० पु० होउ म० पु. होहि, होसु
होह उ० पु० होम
होमो क्रियातिपत्ति एकवचन
बहुवचन प्र० पु० होज, होजा, होन्तो, होमाणो होज, होज्जा, होन्तो, होमाणो म० पु० उ० पु०
ठा<स्था धातु (= ठहरना)--वर्तमान एकवचन
बहुवचन . प्र० पु० ठाइ
ठान्ति, ठान्ते, ठाइरे म० पु० ठासि
ठाइस्था, ठाह उ० पु० ठामि
ठामो, ठामु, ठाम
भूतकाल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० ठासी, ठाही, ठाही ठासी, ठाही, ठाहीम म० पु० उ० पु०
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० ठाहिइ
ठाहिन्ति, ठाहिन्ते, ठाहिरे म० पु० ठाहिसि
ठाहित्था, ठाहिह
Page #302
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________________
उ० पु० ठाहामि, ठाहिमि
प्र० पु० ठाउ
म० पु० ठाहि, ठासु
उ० पु०
ठामु
प्र० पु०
म० पु०
उ० पु०
एकवचन
प्र० पु० म० पु०
उ० पु०
19
39
प्र० पु० झाइ म० पु० झासि उ० पु० झामि
एकवचन
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
क्रियातिपत्ति
एकवचन
बहुवचन
ठाज्ज, ठाज्जा, ठान्तो, ठामाणो ठाज, ठाना, ठान्तो, ठामाणो
विधि एवं आज्ञार्थक
"
29
"
एकवचन
प्र० पु० झासी, झाही, काहीअ
म० पु० "
उ० पु० ""
सामु, ठाहामु, ठाहिमु, ठास्साम, ठाठाहिम, ठाहिस्सा, ठाहित्था
"
झाध्यै (= ध्यान करना) - वर्तमान
एकवचन
झाहिइ
झाद्दिसि
झास्लं, झास्लामि
"
बहुवचन
ठान्तु
ठाह
ठामो
•
भूतकाल
काइत्था, झाह
"2
बहुवचन भान्ति, भान्ते, फाइरे
म, मु, म
बहुवचन
झाली, काही,
"
"
भविष्यत्काल
""
29
"
"9
काहीअ
२७१
बहुवचन काहिन्ति, काहिन्ते, भाइरे हत्था, हि
कालामो, काहामो, फाहिमो; कास्सामु,
काहामु, फाहिमु भास्साम, झाहाम, काहिम; काहिस्सा, साहित्था
Page #303
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________________
२७२
उ० पु०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
विधि एवं आज्ञार्थक एकवचन
बहुवचन प्र. पु० झाउ
झान्तु म० पु० झाहि, झासु
झाह उ० पु० झामु
झामो
क्रियातिपत्ति एकवचन
बहुवचन प्र० पु० झाज, झाजा, झान्तो, झामाणो झाज, झाजा, झान्तो, झामणो म० पु.
" "
नेरनी (= ले जाना)--वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० नेइ
नेन्ति, नेन्ते, नेइरे म० पु० नेसि
नेइत्था, नेह. उ० पु० नेमि
नेमो, नेमु, नेम
भूतकाल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० नेसी, नेही, नेही नेसी, नेही, नेहीम म० पु. , "
" " उ० पु० " "
भविष्यत्काल
बहुवचन प्र० पु० नेहिह
नेहिन्ति, नेहन्ते, नेहिरे म० पु. नेहिसि
नेहित्था, नेहिह उ० पु. नेस्सं, नेस्सामि, नेहामि, नेस्सामो, नेहामो, नेहिमो; नेस्सामु, नेहिमि
नेहामु, नेहिम; नेस्साम, नेहाम, नेहिम;
नेहिस्सा, नेहित्था विधि एवं आज्ञार्थक एकवचन
बहुवचन प्र० पु० नेउ म० पु० नेहि, नेसु उ० पु० नेमु
एकबचन
नेन्तु
नेह
नेमो
Page #304
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२७३
क्रियातिपत्ति एकवचन
बहुवचन प्र० पु० नेज, नेजा, नेन्तो, नेमाणो नेज, नेज्जा, नेन्तो, नेमाणो म० पु० उ० पु०
उठे उड़ी (= उड़ना)- वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० उड्डेइ
उडेन्ति, उड्डेन्ते, उड्डेइरे म० पु० उड्डेसि
उड्डेइत्था, उड्डेह उ० पु० उड्डेमि
उड्डेमो, उड्डेमु, उड्डेम
भूतकाल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० उड्डेसी, उड्डेही, उड्डेहीअ उड्डेसी, उड्डेही, उड्डेहीम म० पु. , , उ० पु० " "
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० उड्डेहिह
उड्डेहिन्ति, उड्डेहिन्ते, उड्डेदिरे म. पु० उड्डेहिसि
उड्डेहित्था, उड्डेहिह उ० पु० उड्डेस्सं, उड्डेस्सामि; उड्डेस्सामो, उड्डेहामो, उड्डेहिमो; उड्डेहामि, उड्डेहिमि उड्डेस्सामु, उड्डेहामु, उड्डेहिम;
उड्डेस्साम, उड्डेहाम, उड्डेहिमि विधि एवं आज्ञार्थक एकवचन
बहुवचन प्र० पु० उड्डेड ...... — उड्डेन्तु म० पु० उड्डेहि, उड्डेसु
उड्डेह उ० पु. उड्डेमु.................... उड्डेमो
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________________
२७४
एकवचन
बहुवचन
प्र० पु० उड्डेज्ज; उड्डेज्जा, उड्डेन्तो, उड्डेमाणो उड्डेज्ज, उड्डेज्जा, उड्डेन्तो, उड्डेमाणो
म० पु०
उ० पु०
دو
"
प्र० पु०
म० पु०
उ० पु०
प्र० पु० पाइ म० पु० पासि, उ० पु० पामि
एकवचन
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
क्रियातिपत्ति
,
एकवचन
प्र० पु० पासी, पाही, पाहीअ
म० पु० ""
उ० पु०
""
पा पाने ( = पीना ) -- वर्तमान
एकवचन
प्र० पु०
पाउ
म० पु० पाहि, पासु
उ० पु० पामु
""
39
59
एकवचन
पाहिह
पाद्दिसि
पस्सं, पास्सामि; पाहामि, पाहिम
"2
बहुवचन
पान्ति, पान्ते, पाइरे
पाइथा, पाह पामो, पामु, पाम
भूतकाल
बहुवचन
पासी, पाही, पाहीअ
""
23
""
भविष्यत्काल
विधि एवं आज्ञार्थ
99
""
बहुवचन
पान्तु
पाह
पामो
""
बहुवचन
पाहिन्ति, पाहिन्ते, पाहिरे
पाहिस्था, पाहिह पास्लामो, पाहामो, पाहिमो, पास्सामु,
99
पाहामु, पाहिमु, पास्लाम, पाद्दाम, पाहिम, पाहिस्सा, पाहिस्था
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२७५
क्रियातिपत्ति एकवचन
बहुवचन ३० पु० पाज, पाजा, पान्तो, पामाणो पाज, पाजा, पान्तो, पामाणो म. पु० , " उ० पु० , ,
___ हा स्ना (स्नान करना)--वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० व्हाइ
ण्हान्ति, पहान्ते, ण्हाइरे । म० पु० हासि
व्हाइस्था, ण्हाह उ० पु० पहामि
हामो, आहामु, हाम
भूतकाल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० ण्हासी, व्हाही, हाहीअ ण्हासी, ण्हाही, हाहीम म० पु० " "
" " पु० पु० " "
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० पहाहिइ
पहाहिन्ति, हाहिन्ते, "हाहिरे म० पु. पहाहिसि
हाहित्था, हाहिह उ० पु० ण्हास्सं; हास्सामि; हास्सामो, हाहामो, पहाहिमो; हाहिमि, हाहामि ण्हास्सामु, हाहामु, पहाहिम,
ण्हास्साम, आहाहाम, पहाहिम;
ण्हाहिस्सा, हाहित्था विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन
बहुवचन प्र० पु० हाउ
ण्हान्तु म० पु० हाहि, हासु
ण्हाह उ० पु० ण्हामु
ण्हामो क्रियातिपत्ति
__एकवचन और बहुवचन प्र०, म०, उ० पु० ..पहज, हज्जा, पहान्तो, हामाणो
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________________
२७६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
गा-गै (गाना)--वर्तमान एकवचन
___ बहुवचन प्र० पु० गाइ
गान्ति, गान्ते, गाइरे म० पु० गासि
गाइत्था, गाह उ० पु० गामि
गामो, गामु, गाम - भूतकाल
एकवचन और बहुवचन प्र०, म०, उ० पु०गासी, गाही, गाही
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गाहिइ
गाहिन्ति, गाहिन्ते, गाहिरे म० पु० गाहिसि
गाहित्था, गाहिह उ० पु० गास्सं, गास्सामिः गास्सामो, गाहामो, गाहिमो; गाहामि, गाहिमि गास्सामु, गाहामु, गाहिम
गास्साम, गाहाम, गाहिम,
गाहिस्सा, गाहित्था विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गाउ
गान्तु म. पु. गाहि, गासु
गाह उ० पु० गामु
गामो क्रियातिपत्ति एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गाज, गाजा, गान्तो, गामाणो गाज, गाजा, गान्तो, गामाणो म० पु० " " " उ० पु० , , ,
(२६) अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त धातुओं में विकल्प से विकरण अ प्रत्यय जुड़ने के पश्चात विभक्तिचिन्ह जोड़ा जाता है। यथा
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२७७
भा-भा + अ = भाअ +इ= भाअइ, विकल्पाभाव पक्ष में भा + इ = भाइ या-जा + अ = जाअ + इ = जाअइ, विकल्पाभाव में जा + इ = जाह पा-पा+ अ = पाअ + इ = पाअइ, पा+इ=पाइ ध्यै-झा + अ = झाअ +इ= झाअइ, झा + इ = भाइ धा-धा + अ = धाअ +इ = धाअइ, धाइ उद् + वा-उव्वा + अ = उव्वाअ + इ = उव्वाअइ, उव्वाइ . . म्लै-मिला+ अ = मिलाअ + इ = मिलाअइ, मिलाइ वि + क्री-विक्के + अ-विक्केअ + इ = विक्केअइ, विकेइ
(२६ ) वर्तमान, भविष्यत् तथा विधि एवं आज्ञार्थ में स्वरान्त धातुओं में प्रत्ययों से पूर्व तथा प्रत्ययों के स्थान पर विकल्प से ज, जा आदेश होता है। यथा
बहुवचन
हो--भू-वर्तमान एकवचन प्र० पु० होजा, होजाइ होजन्ति, होजन्ते, होजिरे होज, होजा
होज, होजा म० पु० होजसि, होजासि होजिस्था, होजइ, होजाइ होज, होजा
होज, होजा उ० पु० होजमि, होजामि होजमो, होज्जामो, होज, होजा; होज, होजा
होजमु, होजाम, होज, होजा;
होज्जम, होजाम, होज, होजा
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० होजहिइ, होजाहिइ, होजहिन्ति, होजाहिन्ति, होजहिन्ते, होज, होजा
होजाहिन्ते, होजहिरे, होजाहिरे, होज,
होजा म. पु. होजहिसि, होज्जाहिसि, होजहित्था, होज्जाहित्था, होज्जहिह,
होज्ज, होज्जा होज्जाहिह, होज्ज, होज्जा उ० पु० होजसं, होज्जस्सामि, होजस्सामो, होज्जहामो, होजाहामो,
होजहामि, होज्जाहामि; होजाहिमो, होज्जस्सामु, होज्जहामु, होज्जहिमि, होजाहिमिः . होजाहामु, होज्जहिमु, होज्जाहिमु, होज्ज, होज्जा होज्जहिस्सा, होज्जा हिस्सा, होज्जहित्थ,
होज्जाहित्था, होज्ज, होज्जा
....
..............................
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________________
२७८
'अभिनव प्राकृत-व्याकरण
विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन .... -- बहुवचन प्र० पु० होजउ, होज्जाउ, होज्ज, होज्जन्तु, होज्ज, होज्जा
होज्जा म० पु० होजहि, होज्जादि, होजसु, होज्जह, होज्जाद, होज्ज,
होज्जासु, होज्ज, होज्जा होज्जा उ. पु० होज्जसु, होज्जासु, होज्ज, होज्जमो, होज्जामो, होज्ज, होज्जा
होज्जा इसी प्रकार ने नी, मिला म्लै प्रभृति धातुओं के रूप जज, ज्जा प्रत्ययों के जोड़ने से निष्पन्न होते हैं।
रव<रु (= कहना या बोलना)--वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० रवइ, रवए . खन्ति, रवन्ते, रविरे म० पु० . रवसि, रवसे रवित्था, वह उ० पु० खामि, रवमि
रविमो, स्वामो, रवमो; रविमु, रवामु,
रवमु; रविम, रखाम, खम प्र० पु० स्वेइ . .. रवेन्ति, रवेन्ते, रवेइरे म० पु० रवेसि
रवेत्था , रवेह उ० पु० रवेमि
रवेमो, रवेमु, रवेम
भूतकाल
एकवचन और बहुवचन प्र. पु० म० पु० उ० पु० रखीम
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु. रविहिइ, रविहिए
रविहिन्ति, रविहिन्ते, रविहिरे म० पु. रविहिसि, रविहिसे
रविहित्था, रविहिह उ० पु० रविस्सं, रविस्लामि रविस्सामो, रविहामो, रविहिमो,
रविस्सामु, रविहामु, रविहिमु; रविस्साम, रविहाम, रविहिम, रविहिस्सा, रविहिस्था
Page #310
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
बहुवचन
विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन प्र० पु० रवउ, रवेड
रवन्तु, रवेन्तु म० पु० रवहि, रवसु, रवेहि, रवह, रवेद
रवेनु, रवेजहि, रवेजे, रव उ० पु० रविमु, रवेमु, रवामु, रवमु रविमो, खामो, रखमो, रवेमो
क्रियातिपत्ति एकवचन
बहुवचन प्र. पु० रवेज, रवेजा, स्वन्तो, रवमाणो रवेज, रवेजा, वन्तो, रवमाणो म० पु० "
" उ० पु. , ,
, , उभयपदी कर< (करना) वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० करइ, करए
करन्ति, करन्ते, करिरे म० पु० करसि, करसे - करित्था, करह उ० पु० करामि, करमि
करिमो, करामो, करमो; करिमु, करामु,
करमु; करिम, कराम, करम
भूतकाल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० करीअ
करीअ म० पु० , उ० पु० ,
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० करिहिइ, करिहिए करिहिन्ति, करिहिन्ते, करिहिरे म० पु. करिहिसि, करिहिसे करिहित्था, करिहिह उ० पु० करिस्स, करिस्सामि, करिस्सामो, करिहामो, करिहिमोः करिहामि, करिहिमि. करिस्साम, करिहामु, करिहिमु;
करिस्साम, करिहाम, करिहिम, करिहिस्सा, करिहित्था
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________________
२५०
एकवचन
करउ,
करेउ
करहि करसु, करेज्जसु करेजसु,
करेज्जद्दि, करेज्जे, कर
उ० पु० करिमु, करामु, करमु
प्र० पु० म० पु०
प्र० पु०
म० पु०
उ० पु०
प्र० पु०
म० पु०
उ० पु०
क्रियातिपत्ति
एकवचन
बहुवचन
प्र० पु० करेज, करेला, करन्तो, करमाणो करेज, करेजा, करन्तो, करमाणो
म० पु० ""
उ० पु०
"9
""
इसी प्रकार घर छ, मरदम, वरदवॄ, सर <स, हर दह, तर दतृ एवं जर दज आदि संस्कृत की ऋकारान्त धातुओं के रूप होते हैं ।
अस् (होना) - वर्तमान
प्र० पु०
म० पु०
उ० पु०
"
एकवचन
एकवचन
आसि
अस्थि
अस्थि, सि
अत्थि, म्हि, अंसि
29
अभिनव प्राकृत व्याकरण
विधि एवं आज्ञार्थ
دو
"
""
37
भूतकाल
बहुवचन करन्तु, करेन्तु
करद्द
बहुवचन
अस्थि
अस्थि
अस्थि, म्हो, म्ह
करिमो करामो, करमो
,
बहुवचन
असि
99
ܙܪ
99
विध्यर्थ, आज्ञार्थ और भविष्यत्काल
एकवचन
अस्थि
"8
""
बहुवचन
अत्थि
""
"
Page #312
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२८१ उभयपदी पूस पुष--पुष्ट होना--वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० पूसह, पूसए, पूसेइ पूसन्ति, पूसन्ते, पूसिरे, पूसेन्ति म० पु० पूसासि, पूससे, पूसेसि पूसित्था, पूसह, पूसेहत्था उ० पु० पूसामि, पूसमि, पूसेमि पूसिमो, पूसामो, पूसमो; पूसिमु,
पूसामु, पूसमु; पूसिम, पूसाम, पूसम
भूतकाल
एकवचन
बहुवचन प्र० पु० पूसी
पूसी म० पु० , उ० पु० ,
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० पूसिहिइ, पूसिहिए पूसिहिन्ति, पूसिहिन्ते, प्रसिहिरे म० पु० पूसिहिसि, पूसिहिसे पूसिहित्था, पूसिहिह उ० पु० पूसिस्सं, पूसिस्सामि, पूसिस्सामो, पूसिहामो, पूसिहिमो; पूसिहामि, पूसिहिमि पूसिस्सामु, पूसिहामु, पूसिहिमु,
पूसिस्साम, पूसिहाम, पूसिहिम,
पूसिहिस्सा, पूसिहित्था विशेष-अकार को एत्व कर देने से भी इसके रूप बनते हैं।
विधि एवं आज्ञार्थ
बहुवचन प्र० पु० पूसउ
पूसन्तु म० पु० पूसहि, पूससु, पूसेज्जसु,
पूसज्जेहि, पूस उ० पु० पूसिम, पूसामु, पूसमु पूसिमो, पूसामो, पूसमो विशेष-अकार को एत्व कर देने पर भी इसके रूप बनते हैं।
क्रियातिपत्ति
एकवचन . ------- बहुवचन प्र० म० उ० पु० पूसेज, पूसेजा, पूसन्तो, पूसेज, पूसेजा, पूसन्तो, पुसमाणो -
पूसमाणो
एकवचन
Page #313
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________________
थुणी
२८२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण इसी प्रकार रूस (रुष् ), तूस ( तुष् ), सूस ( शुष ), दूस ( दुष ) एवं सीस ( शिष ) धातुओं के रूप होते हैं। ....
उभयपदी थुण <स्तु (स्तुति करना)--वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु. थुणइ, थुणए
थुणन्ति, थुणन्ते, थुणिरे म० पु० थुणसि, थुणसे
थुणित्था, थुणह उ० रु. थुणामि, थुणमि थुणिमो, थुणामो, थुणमो, थुणिमु,
थुणामु, थुणमु, थुणिम, थुणाम,
थुणम विशेष-अकार को एत्व होने पर थुगेइ , थुणेन्ति, थुणेसि आदि रूप होते हैं।
भूतकाल एकवचन
बहुवचन प्र०, म०, उ० पु० थुणी
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र. पु. थुणीहिइ, थुणिहिए थुणिहिन्ति, थुणिहिन्ते, थुणिहिरे म० पु. थुणिहिसि, थुणिहिसे थुणिहित्था, थुणिहिह उ० पु० थुणिसं, थुणिस्सामि, थुणिस्सामो, थुणिहामो, थुणिहिमो थुणिहामि, थुणिहिमि थुणिस्सामु, थुणिहामु, थुणिहिम,
थुणिस्साम, थुणिहाम, थुणिहिम
थुणिहिस्सा, थुणिहित्था विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन
बहुवचन प्र० पु० थुणउ
थुणन्तु म० पु० थुगहि, थुणसु, थुणेज्जसु थुणह
थुणेजहि, थुणेज्जे, थुण उ० पु० थुणिमु, थुणामु, थुणमु थुणिमो, थुणामो, थुणमो विशेष-अकार को एत्व हो जाने पर थुणेउ, थुणेन्तु आदि रूप होते हैं।
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________________
अभिनव प्राकृत व्याकरण
क्रियातिपत्ति
म० पु०
उ० पु०
एकवचन
बहुवचन
प्र० पु० थुणेज्ज, थुणेज्जा, थुणन्तो, थुणेज्ज, थुणेज्जा, थुणन्तो, थुणमाणो
धुणमाणो
"9
19
इसी प्रकार चिण (चि), जिण (जि), सुण (भु) और घुण (धू) आदि धातुओं के रूप बनते हैं ।
प्र० पु० हरिसइ, हरिसए म० पु० हरिससि, हरिस से उ० पु० हरिसामि, हरिसमि
हरिस हृष (प्रसन्न होना ) - वर्तमान
<
एकवचन
"
प्र० म० उ० पु० हरिसीअ
""
भूतकाल
एकवचन और बहुवचन
भविष्यत्काल
एकवचन प्र० पु० हरिसिहि, हरिसिद्दिए म० पु० हरिसिद्दिसि, हरिसिहिसे उ० पु० हरिसिस्सं, हरिसिस्लामि
हरिसिहामि, हरिसिद्दिमि
), हुण (हु), लुण (लू), पुण (पू)
बहुवचन हरिसन्ति, हरिसन्ते, हरिसिरे हरिसिस्था, हरिसह
हरिसिमो, हरिसामो, हरिसमो;
हरिसिमु, हरिसामु, हरिसमु;
हरिसिम, हरिसाम, हरिसम
विशेष - अकार को एत्व कर देने पर हरिसेइ, हरिसेन्ति इत्यादि रूप बनते हैं ।
२८३
बहुवचन
हरिसिद्दिन्ति, हरिसिद्दिन्ते, हरिसिद्दिरे हरिसिद्दित्था, हरिसिद्दिह हरिसिस्वामी, हरिसिहामो, हरिसिद्दिमो; हरिसिस्सामु, हरिसिहामु, हरिसिद्दिमु; हरिसिस्साम, हरिसिद्दाम, हरिसिहिम; हरिसिद्दिस्सा, हरिसिद्दिस्था
विशेष - एत्व हो जाने पर हरिसेद्दिर, हरिसेद्दिन्ति आदि रूप होते हैं ।
क्रियातिपत्ति
एकवचन और बहुवचन
प्र० म० उ० पु० इरिसेज्ज, हरिसेज्जा, हरिसन्तो, हरिसमाणो
Page #315
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________________
२८४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण इसी प्रकार वरिस (वृष ), दरिस ( दृश् ), करिस (कृष ) और मरिस (मृष ) धातुओं के रूप होते हैं।
उभयपदी गच्छ< गम् (जाना)--वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गच्छइ, गच्छए . गच्छन्ति, गच्छन्ते, गच्छिरे म० पु० गच्छसि, गच्छसे । गच्छित्था, गच्छह उ० पु० गच्छामि, गच्छमि गच्छिमो, गच्छामो, गच्छमो;
गच्छिमु, गच्छामु, गच्छमु, गच्छिम, गच्छाम, गच्छम
भूतकाल एकवचन और बहुवचन प्र० म० उ० पु० गच्छीअ
भविष्यत्काल एकवचन
- बहुवचन प्र० पु० गच्छिइ, गच्छिहिइ गच्छिन्ति, गच्छिहिन्ति, गच्छिन्ते
गच्छिए, गच्छिहिए गच्छिहिन्ते, गच्छिरे, गच्छिहिरे म० पु. गच्छिसि, गच्छिहिसि, गच्छित्था, गच्छिहित्था, गच्छिह,
गच्छिसे, गच्छिहिसे गच्छिहिह उ० पु० गच्छं, गच्छिस्सं, गच्छि- गच्छिस्सामो, गच्छिहामो, गच्छिमो,
स्सामि, गच्छिहामि, गच्छिमि, गच्छिहिमो, गच्छिस्सामु, गच्छिहामु, गच्छिहिमि
गच्छिमु, गच्छिहिमु, गच्छिस्साम, गच्छिहाम, गच्छिम, गच्छिहिम,
गच्छिहिस्सा, गच्छिहित्था विधि एवं आज्ञार्थ
बहुवचन प्र. पु० गच्छउ
गच्छन्तु म० पु० गच्छहि, गच्छसु, गच्छेज्जसु
गच्छेज्जहि, गच्छेज्जे, गच्छ उ० पु० गच्छिमु, गच्छाम, गच्छामु गच्छमो, गच्छाओ, गच्छमो
एकवचन
गच्छह
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२८५
क्रियातिपत्ति एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गच्छेज्ज, गच्छेज्जा, गच्छेज्ज, गच्छेज्जा, गच्छन्तो,
गच्छन्तो, गच्छमाणो गच्छमाणो म० पु० " ". उ. पु० , ,
(२७) भविष्यत्काल में सुण (श्रु) के स्थान पर सोच्छ, सदू के स्थान पर रोच्छ, विद् के स्थान पर वेच्च, दृश् के स्थान पर दच्छ, मुच के स्थान पर मोच्छ, वच के स्थान पर वोच्छ, छिदू के स्थान पर छेच्छ, भिदू के स्थान पर भेच्छ, भुज के स्थान पर भोच्छ आदेश होता है तथा गच्छ धातु के समान रूप होते हैं।
.
"
बोल्ल, जंप, कह < कथ (कहना)-वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० बोल्लइ, बोल्लए बोल्लन्ति, बोल्लन्ते, बोल्लिरे म० पु० बोल्लसि, बोल्लसे बोलिलत्था, बोल्लह उ० पु० बोल्लामि, बोल्लमि बोलिलमो, बोल्लामो, बोल्लमो,
बोल्लिमु, बोल्लामु, बोल्लमु,
बोल्लिम, बोब्लाम, बोल्लम विशेष-एत्व हो जाने पर बोल्लेइ, बोल्लेन्ति इत्यादि रूप होते हैं ।
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र. पु० बोलिलहिइ, बोल्लिहिए बोलिलहिन्ति, बोलिहिन्ते, बोलिलहिरे म० पु० बोलिलहिसि, बोलिलहिसे बोलिलहित्था, बोलिहिह उ० पु० बोलिलस्सं, बोल्लिस्सामि, बोल्लिस्सामो, बोल्लिहामो, बोल्लिहिमो, बोलिलहामि, बोलिलहिमि बोल्लिस्सामु, बोल्लिहामु, बोलिहिम,
बोल्लिस्साम, बोल्लिहाम, बोल्लिहिम,
... -बोल्लहिस्सा, बोलिहित्था विशेष—एस्व होने से बोल्लेउ, बोल्लेन्तु आदि रूप होते हैं। विधि एवं आज्ञार्थ रूप पूर्ववत् होते हैं.। ...----
Page #317
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________________
२८६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
भूतकाल
.
एकवचन
बहुवचन प्र० पु० बोल्ली
बोल्लीम म० पु० उ० पु० ॥
क्रियातिपत्ति एकवचन
___ बहुवचन प्र. पु० बोल्लेज्ज, बोल्लेज्जा, बोल्लेज्ज, बोल्लेज्जा, बोलन्तो,
बोलन्तो, बोल्लमाणो बोल्लमाणो म० पु० ,, ,
उ० पु०
एकवचन
एकवचन
थुवी
उभयपदी धुब <धू (कंपाना)--वर्तमान
बहुवचन प्र० पु० धुवइ, थुवए धुवन्ति, थुवन्ते, थुविरे म० पु० थुवासि, थुवसे थुवित्था, धुवह उ० पु० धुवामि, थुवमि थुविमो, धुवामो, धुवमो; धुविमु, धुवामु,
थुवमु, धुविम, धुवाम, धुवम विशेष—एत्व होने पर थुवेइ, धुवेन्ति इत्यादि रूप होते हैं।'
भूतकाल
बहुवचन प्र. पु० धुवी म० पु० , उ० पु० ,
. भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र. पु० थुविहिइ, थुविहिए धुविहिन्ति, थुविहिन्ते, थुविहिरे म० पु० विहिसि, थुविहिसे धुविहित्था, थुविहिह उ० पु० थुविस्स, थुविस्सामि, थुविस्सामो, थुविहामो, धुविहिमो, थुविहामि, थुविहिमि थुविस्सामु, थुविहामु, थुविहिम,
थुविस्साम, थुविहाम, थुविहिम,
धुविहिस्सा, थुविहित्था विशेष-एत्व होने पर धुवेहिइ, थुवेहिए इत्यादि रूप होते हैं।
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________________
प्र० पु०
म० पु०
उ० पु० धुविसु, धुवामु, धुवमु
धुविमो, धुवामो, धुवमो
विशेष - आज्ञार्थ में एस्व होने पर धुवेउ, धुवेन्तु इत्यादि रूप होते हैं ।
क्रियातिपत्ति
म० पु०
एकवचन
धुवउ
धुवहि, धुवसु, धुवेज्जसु, धुवेज्जहि, धुवुज्जे, धुव
एकवचन
प्र० पु० धुवेज्ज, धुवेज्जा, धुवन्तो,
धुवमाणो
उ० पु०
अभिनव प्राकृत व्याकरण
विधि एवं आज्ञार्थ
बहुवचन
धुवन्तु
धुवद्द
""
99
""
""
एकवचन
प्र० पु० हसीअर, हसीअए
हसिज्जइ, हसिज्जए
म० प्र० इसीअसि, हसीअसे
इसिज्जसि, इसिजसे
उ० पु० हसीअमि, हसीआमि इसिजमि, इसिज्जामि
बहुवचन
धुवेज्ज, थुवेज्जा, थुवन्तो, धुवमाणो
99
""
२८७
"
""
धातुओं के कर्मणि रूप
( २८ ) धातुओं के कर्मणि रूपों में वर्तमानकाल और विधि एवं आज्ञार्थ में धातु प्रत्ययों के पूर्व ईअ और इज्ज विकरण जुड़ जाते हैं। पर यह नियम उन्हीं धातुओं के लिए है, जिन धातुओं के स्थान पर आदेश - धात्वादेश नहीं होता है । भविष्यत्काल और क्रियातिपत्ति के रूप कर्त्तरि के समान ही होते हैं ।
हस (हँसना ) - वर्तमान
बहुवचन
इसी अन्ति, हसीअन्ते, इसी इरे हसिज्जन्ति, हसिज्जन्ते, हसिज्जिरे इसी इस्था, इसी अद्द इसिज्जित्था, इसिजह
१
इसीअमो, इसी आमो, इसीइमो इसिअमु, इसीभामु, हसीइमु इसीअम, इसीआम, इसी इम इसिज्जमो, इसिज्जामो, हसिज्जिमो; हसिज्ज, हसिज्जामु, इसिज्जि हसिम, इसिज्जाम, इसिज्जिम
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण ।
भूतकाल एकवचन
बहुवचन प्र. पु० हसीअईअ, हसीईअ, हसीअईअ, हसीईअ, हसिन्जईअ,
असिज्जीअ . हसिज्जी म० पु० " " " उ० पु० , , ,
" विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन
. बहुवचन प्र. पु० हससीअउ, हसिजउ हसीअन्तु, हसिज्जन्तु म० पु. हसीअहि, हसीअसु, हसिजह
हसीएजसु, हसिइजसु, हसीएजहि, हसीइजहि, हसीएजे, हसीहज्जे, हसीअ, हसिजहि, हसिज्जसु, हसिजेजसु, हसिजिजसु, हसिजेजहि, हसिजिजहि, हसिज्जेज्जे,
हसिजिज्जे, हसिज्ज उ० पु० हसीअमु, हसीआलु, हसीअमो, हसीआमो, हसीइमो,
हसीइमु, हसिज्जमु, हसिजमो, हसिजामो, हसिजिमो
हसिज्जामु, हसिज्जमु भविष्यत्काल और क्रियातिपत्ति के रूप कर्तरि के समान होते हैं ।
होभू-कर्मणि-वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु. होईअइ
होईअन्ति, होईअन्ते, होईइरे, होइज्जन्ति, होइज्जइ
होइज्जन्ते, होइज्जिरे म. पु० होईआसि, होइज्जसि होईइत्था, होईअह, होइज्जित्था,
होइज्जह
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२८६ उ० पु० होईआमि, होईअमि, होईअमो, होईआमो, होईइमो; होईअमु, होईज्जमि, होइज्जामि होईआमु, होईइमु, होईअम, होईआम,
होईइम; होइज्जमो, होइज्मामो, होइज्जिमो, होइज्जमु, होइज्जामु, होइज्जिमु, होइज्जम, होइज्जाक,
होइज्जिम एत्व होने पर होईएइ, होइज्जेइ इत्यादि रूप बनते हैं।
भूतकाल एकवचन और बहुवचन प्र० म० उ० होईअसी, होईअही, होईअहीम; होइज्जसी, होइज्जही, होइज्जहीम
विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन
बहुवचन प्र. पु० होईअड, होइज्जउ होईअन्तु, होइज्जन्तु म० पु० होईअहि, होईअसु, होईअह, होइजह
होइज्जहि .. उ० पु० होईअमु, होईआमु, होईइमु, होईअमो, होईआमो, होईइमो, होइजिमो,
होइजमु, होइजामु, होइजामो, होइजिमो
होहजिमु भविष्यतकाल और क्रियातिपत्ति के रूप कर्तरि के समाम बनते हैं।
कर्मणि नेवनी--वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० नेईअइ, नेइजई नेईअन्ति, नेईअन्ते, नेईइरे, नेइज्जन्ति,
नेइज्जन्ते, नेइजिरे म० पु. नेइअसि, नेइज्जसि नेईइत्था, नेईअह, नेइजित्था, नेहजह उ० पु० नेईअमि, नेईआमि नेईअमो, नेईआमो, नेईइमो; नेईअमु, नइजमि, नेइज्जामि नेईआमु, नेईइम, नेईअम, नेईइम;
नेइज्जमो, नेइजामो, नेइजिमो, नेइज्जमु, नेहजामु, नेइज्जिमु, नेइज्जम, नेइजाम,
नेइजिम एत्व होने पर नेईएइ, नेईएन्ति, नेइज्जेइ, नेइजेन्ति इत्यादि रूप होते हैं।
१९
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________________
२६०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
एकवचन
-----
झारध्यै (कर्मणि)-वर्तमान
बहुवचन प्र० पु० झाईअइ
झाईअन्ति, माईअन्ते, झाईइरे झाइज
झाइजन्ति, झाइजन्ते, झाइजिरे म० पु० झाहिअसि
झाहिइत्था, भाईजह झाइजसि
झाइजित्था, माइजह उ० पु० झाईअमि, माईआमि झाईअमो, माईआमो, झाईइमो, झाइजमि, झाइजामि झाईअमु, माईआमु, झाईइमु, झाईअम,
झाईआम, झाईइम, झाइजमो, झाइजामो, झाइजिमो, झाइजमु, झाइजामु, झाइजिमु, झाइजम,
झाइजाम, झाइजिम भूतकाल
एकवचन और बहुवचन प्र०म० उ० पु. भाईअसी, झाइअही, झाईअहीअ
झाइज्जसी, भाइ ज्जही, झाइज्जहीअ विधि एवं आज्ञार्थ
बहुवचन प्र० पु० झाईअउ, झाइज्जउ झाईअन्तु, झाइज्जन्तु म० पु० झाईअसु, झाई अहि झाईअह
झाइज्जसु, झाइज्जहि झाइज्जह उ० पु० झाईअमु, माईआमु, भाईअमो, झाईआमो, झाईइमो,
झाईइमु, माइज्जमु, माइज्जमो, माईज्जामो, झाइन्जिमो
झाइज्जामु, झाइज्जिमु भविष्यत्काल, और क्रियातिपत्ति के रूप कर्तरि के समान होते हैं।
चिव्वदचि (कर्मणि)--वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र. पु० चिच्चइ, चिम्चए चिवन्ति, चिन्वन्ते, चिन्विरे म० पु० चिवसि, चिबिसे चिम्वित्था, चिवह
एकवचन
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________________
उ० पु० चिवामि,
एकवचन
प्र० पु० चिव्वीअ
म० पु०
उ० पु०
एत्व होने पर चिव्वे, चिव्वेन्ति इत्यादि रूप होते हैं। चित्र चित्र के स्थान पर विकल्प से चिम्म आदेश भी होता है ।
भूतकाल
""
चिव्वमि
33
प्र० पु०
म० पु०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२६१
चिव्विमो, चित्र्वामो, चिव्वमो, चिव्विसु, चिव्वा, चित्र, चिब्विम, चिव्वाम चिव्वम
एकवचन
प्र० पु० चिन्विहिइ, चिन्त्रिहिए म० पु० चिव्विहिसि, चिव्विद्दिसे उ० पु० चिव्विस्सं, चिव्विस्सा मि चिव्विद्दामि चिव्विहिमी
एकवचन
चिव्वउ
चिन्वीअ
"
""
भविष्यत्काल
बहुवचन
चिव्विहिन्ति, चिव्विद्दिन्ते, चिव्विहिरे चिव्विहित्था, चिव्विहि चिविसामो चिन्हिामो, चिव्विहिमो, चिव्विसामु चिव्विद्दासु, चिव्विहिमु; चिविस्लाम, चिव्विद्दाम, चिच्चिद्दिम,
चिव्विहिस्सा, चच्चिद्दिस्था
"
'विशेष - एत्व होने पर चिव्वेद्दि, चित्र्वेस्सं इत्यादि रूप होते हैं ।
विधि एवं आज्ञार्थ
बहुवचन
"
बहुवचन
चिन्वन्तु
चिव्वह
चिव्वद्दि, चिव्वसु, चिव्वेज्ज, चिग्वेज्जद्दि, चिव्वेज्जे, चिव्व
उ० पु० चिव्विसु, चिव्वामु, चिन्वमु
विशेष - एत्व होने पर चिव्वेउ, चिव्वेन्तु आदि रूप होते हैं ।
चिव्विमो, चित्र्वामो, चिव्वमो
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________________
२६२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
क्रियातिपत्ति एकवचन
बहुवचन प्र० पु० चिव्वेज्ज, चिव्वेज्जा, चिव्वेज्ज, चिव्वेज्जा, चिवन्तो,
चिन्वन्तो, चिव्वमाणो चिवमाणो म० पु० " "
" " उ० पु० " "
" " इसी प्रकार कर्मणि में चिम्म (चि), जिव्व (जि), सुव्व, (सु), हुव्व (ह), थुश्च (स्तु), लुब्व (लू), पुव्व (पू), धुव्व (धू ) प्रभृति धातुओं के रूप होते हैं।
'चि' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से चिण भी होता है। चिण में कर्मणि विकरण और प्रत्यय जोड़ने पर रूप बनते हैं। यथा
भूतकाल
एकवचन और बहुवचन प्र०म० उ० पु० नेईअसी, नेईअही, नेईअहीअ
नेइज्जसी, नेइज्जही, नेइज्जहीम
विधि एवं आज्ञार्थ प्र० पु० नेईअउ, नेइज्जउ नेईअन्तु, नेइज्जन्तु म० पु० नेईअसु, नेईअहि नेइज्जसु, नेईअह, नेइज्जह
नेइज्जहि उ० पु० नेइअसु, नेईआमु, नेईइमु नेईअमो, नेईामो, नेईइमो, नेइज्जमो,
नेइज्जमु, नेइज्जामु, नेइज्जामो, नेइज्जिमो
नेइज्जिमु विशेष-एत्व होने पर नेईएउ, नेईएन्तु, नेइज्जेउ, नेइज्जेन्तु आदि रूप होते हैं। भविष्यत्काल और क्रियातिपत्ति के रूप कर्तरि के समान होते हैं।
ठा<स्था (= ठहरना) के कर्मणि रूप-वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र. पु० ठाईअइ, ठाइज्जइ ठाईअन्ति, ठाईअन्ते, ठाईइरे, ठाइज्जन्ति,
ठाइज्जन्ते, ठाइज्जिरे वर्तमानकाल के शेष रूप ने < नी के समान होते हैं।
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२६३
भूतकाल
एकवचन और बहुवचन प्र० म० उ० पु० ठाइअसी, ठाईअही, ठाईअहीअ
ठाइज्जसी, ठाइज्जही, ठाज्जहीअ ठासी, ठाही, ठाही.
विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन
बहुवचन प्र० पु० ठाईअउ, ठाइज्जउ ठाईअन्तु, ठाईज्जन्तु मध्यम पुरुष और उत्तम पुरुष में 'ने' धातु के समान रूपावली होती है।
पा (पीना) कर्मणि एकवचन
बहुवचन प्र० पु० पाईअइ, पाइज्जइ पाईअन्ति, पाईअन्ते, पाईइरे
पाइज्जन्ति, पाइज्जन्ते, पाईज्जिरे इसके आगे ठा धातु के समान सभी कालों में रूप बनते हैं।
वर्तमान
बहुवचन प्र० पु० चिणीअइ, चिणीअए चिणीअन्ति, चिणीअन्ते, चिणीहरे
चिणिज्जा, चिणिज्जए चिणिज्जन्ति, चिणिज्जन्ते, चिणिज्जिरे इसी प्रकार आगे के रूप बनते हैं।
भण्ण, भण (भण )--कर्मणि-वर्तमान
एकवचन . बहुवचन प्र० पु० भण्णइ, भण्णए, भणीअइ भण्णन्ति, भण्णन्ते, भण्णिरे, भणीअन्ति,
भणीअए, भणिज्जइ, भणीअन्ते, भणीइरे, भणिज्जन्ति, भणिज्जए
भणिज्जन्ते, भणिज्जिरे, म. पु० भण्णसि, भण्णसे, भणीअसि, भणिस्था, भण्णह, भणीइत्था, भणीअह
भणिअसे, भणिज्जसि, भणिज्जित्था, भणिज्जह भणिज्जसे .....
एकवचन
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________________
२६४
अभिनव प्राकृत व्याकरण
उ० पु० भण्णामि, भण्णमि
भणिअमि, भणीआमि
"
भणिजमि, भणिज्जामि
पिशेष - एत्व जोड़ने से भण्णेइ, भण्णीएइ, भणिज्जेह इत्यादि रूप होते हैं
1
भूतकाल
एकवचन और बहुबचन
प्र० म० उ० पु० भण्णीअ, भण्णीअईअ, भणीईअ, भणिज्जईअ, भणिज्जीअ
भविष्यत्काल
एकवचन
प्र० पु भणिहिद, भणिहिए fes, भणिि
भणिमो भण्णामो, भण्णमो, भण्णिमु, भण्णामु, भण्णमु, भण्णिम, भण्णाम, भणभणीअमो भणीआमो, भीमो भीअमु, भणीआमु, भणीइमु, अम, भीम, भणीइम भणिज्जमो, भणिजामो, भणिज्जमो,
भणिज्जमु, भणिज्जामु, भणिज्जिमु
भणिजम, भणिजाम, भणिज्जिम
म० पु० भण्णिहिसि, भणिहिसे भणिहिस, भणिहि
उ० पु० भणिस्सं, भणिस्लामि भणिहामि, भणिहि भणिसं, भणिस्लामि भणामि, भणिद्दिमि
बहुवचन
भणिहिन्ति, भणिहिते, भणिहिरे भणिहिन्ति, भणिहिते, भणिहिरे भणिहित्था, भणिहि भणिहित्था, भणिहि
भणिस्सामो, भणिद्दामो, भणिहिमो
हिस्सा, भणिहित्था भणिस्सामो, भणिद्दाम, भणिहिमो भणिहिस्सा, भणिहित्या
विशेष - एत्व होने पर भण्णेदिह, भणेहि आदि रूप होते हैं ।
विधि एवं आज्ञार्थं
एकवचन
प्र० पु० भण्णउ, भण्णीअर, भणिज्जउ
म० पु० भण्णहि, भण्णसु, भण्णेज्जसु भण्णेज्जहि, भण्णेज्जे, भण्ण अभी अभीएज्जहि भणीअह
बहुवचन
भण्णन्तु, भणिअन्तु, भणिज्जन्तु
भण्णह
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२६५ भणीइज्जहि, भणीएज्कसु, भणीइज्जसु भणीएज्जे, भणीइज्जे, भणीअ, भणिज्जहि, भणिज्जसु, भणिज्जेज्जहि भणिजह भणिज्जिज्जहि, भणिज्जेज्जसु, भणिज्जज्जसु, भणिज्जेज्जे, भणिज्जिज्जे,
भणिज्ज उ० पु० भण्णिमु, भण्णामु, भण्णमु, भण्णिमो, भण्णामो, भण्णमो,
भणीअमु, भणोआमु, भणीइमु भणीअमो, भणीआमो, भणीइमो, भणिज्जमु, भणिज्जामु, भणिज्जमो, भणिज्जामो, भणिज्जिमो
भणिज्जमु विशेष-एत्व कर देने में भण्णेउ, भणिएउ, भणिज्जेउ आदि रूप बनते हैं ।
क्रियातिपत्ति
एकवचन और बहुवचन प्र० म० उ० पु० भणेज्ज, भगेज्जा, भण्णन्तो, भण्णमाणो
भणन्तो, भणमाणो लिब्भ, लिह < लिह (चाटना)--वर्तमान
एकवचन __बहुवचन प्र० पु० लिब्भइ, लिहीअइ, लिब्भन्ति, लिहीअन्ति, लिहिज्जन्ति, लिहिज्जा
लिहीअन्ते, लिहिज्जन्ते, लिङभन्ते इसी प्रकार आगे के रूप भी होते हैं ।
भूतकाल
एकवचन और बहुवचन प्र० म० उ० पु० लिब्भीअ, लिहीअई, अलिहीईअ, लिहिज्जई,
अलिहिज्जीअ, लिही भविष्यत्काल और विधि एवं आज्ञार्थ के रूप पूर्ववत् ही होते हैं ।
क्रियातिपत्ति सभी वचन और पुरुषों मेंलिब्भेज्ज, लिब्भेज्जा, लिब्भन्तो, लिम्भमाणो लिहेज्ज, लिहेज्जा, लिहन्तो, लिहमाणो
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- २६६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
एकवचन
गम्म, गम< गम् (जाना) वर्तमान
बहुवचन प्र० पु० गम्मइ, गमीअइ, गमिज्जइ गम्मन्ति, गमीअन्ति, गम्मन्ते,
गमीअन्ते, गमिज्जन्ति, गमिज्जन्ते इसी प्रकार आगे रूप भी समझने चाहिए।
प्रेरणार्थक क्रिया २६. प्रेरणार्थक क्रिया-क्रिया का वह विकृत रूप है, जिससे यह बोध होता है कि क्रिया के व्यापार में कर्ता स्वतन्त्र नहीं हैं; बल्कि उसपर किसी की प्रेरणा है। साधारण धातु में जो कर्ता रहता है, वह प्रेरणार्थक में स्वयं कार्य न करके किसी दूसरे से कार्य कराता है । जैसे-पढ़ता है का प्रेरणार्थक-पढ़वाता है।
(३०) प्राकृत में प्रेरणार्थक बनाने के लिए अ, ए, आव और आवे प्रत्यय जोड़े जाते हैं। (२१) अ और ए प्रत्यय के रहने पर उपान्त्य अ को आ हो जाता है। यथा
कृ-कर + अ = कार; कर् + आव = करावइ-कराता है।
कर + ए = कारे; कर + आवे = करावेइ-कराता है। ( ३२ ) मूल धातु के उपान्त्य में इ स्वर हो तो ए और उ स्वर हो तो ओ हो जाता है। यथा
विस+अ = वेस + इ = वेसइ; विस + ए = वेसे + इ = वेसेइ विस् + आव = वेसाव + इ = वेसावइ विस् + आवे = वेसावे + इ = वेसावेइ
( ३३ ) उपान्त्य दीर्घ स्वर रहने पर धातु में प्रेरणार्थक प्रत्यय जुड़ जाते हैं और उपान्त्य को एकार या ओकार नहीं होता । यथा
चूस + अ = चूस + इ = चूसइ; चूस + ए = चूसे + इ = चूसेइ चूस् + आव = चूसाव + इ = चूसावइ; चूस् + आवे = चूसावे + इ = चूसावेइ
प्रेरणार्थक क्रियाओं की रूपावलि
हस (हसाता है)-वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० हासइ, हासेइ, हसावइ; हासन्ति, हासेन्ति, हसावन्ति, हसावेन्ति
हसावेइ; हासए, हासेए, हासन्ते, हासेन्ते, हसावन्ते, हसावेन्ते हसावए, हसावेए हासिरे हासेइरे, हसाविरे, हसायेरे
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________________
२९७
अभिनव प्राकृत-व्याकरण म० पु० हाससि, हासेसि, हसावसि, हासह, हासेह, हसावह, इसावेह,
हसावेसि
हाससे, हासेसे, हसावसे, हसावेसे हासिस्था, हासेइत्था, हसावित्था,
हसावेइत्था उ० पु० हासमि, हासेमि, हसावमि हासमो, हासेमो, हसावमो, हसावेमो हसावेमि
हासमु, हासेमु, हसावमु, हसावेमु
हासम, हासेम, हसावम, हसावेम भृतकाल
एकवचन और बहुवचन प्र० म० उ० पु. हासीअ, हासेईअ, हसावीअ, हसावेईअ
भविष्यत्काल एकंवचन
बहुवचन प्र० पु० हासिहिइ, हासेहिइ, हसा- हासिहिन्ति, हासेहिन्ति, हसाविहिन्ति,
विहिइ, हसावेहिइ . हसावेहिन्ति; हसाहिए, हासेहिए, हसा- हासिहिन्ते, हासेहिन्ते, हसाविहिन्ते, विहिए, हसावेहिए हसावेहिन्ते;
हसिहिरे, हासेहिरे, हसाविहिरे, हसावेहिरे म० पु० हासिहिसि, हासेहिसि, हासिहित्था, हासेहित्था, हसाविहित्या,
हसाविहिसि, हसोवेहिसि, हसावेइत्था हासिहिसे, हासेहिसे, हासिहिह, हासेहिह, हसाविहिह
हसाविहिसे, हसावेहिसे हसावेहिह उ० पु० हासिस्स, हासेस्सं, हासिस्सामो, हासेस्सामो, हसाविस्सामो, हसाविस्सं, हसावेस्न हसावेस्सामो, हासिस्सामु, हासेस्सामु
हसाविस्सामु, हसावेस्सामु हासिस्सामि, हासेस्सामि, हासिस्साम, हासेस्साम, हसाविस्साम, हसाविस्सामि, हसावेस्सामि, हसावेस्साम हासिहामि, हासेहामि ... हामिहामो, हासेहामो, हसाविहामो, हसाविहामि, हसावेहामि हसावेहामो, हासेहामु, हसाविहामु, हासिहिमि, हासेहिमि, हसावेहामः हासिहाम, हासेहाम,
Page #329
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________________
२६८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण हसाविहिमि, हसावेहिमि हसाविहाम, हसावेहाम, हासिहिमो,
हासेहिमो, हसाविहिमो, हसावेहिमो, हासिहिमु, हासेहिमु, हसाविहिमः हासिहिस्सा, हासेहिस्सा, हसाविहिस्सा, हसावेहिस्सा, हासिहित्था, हासेइत्था,
हसाविहित्था, हसावेहित्था विधि एवं आज्ञार्थं एकवचन
बहुवचन प्र० पु० हासउ, हासेउ, हसावउ, हासन्तु, हासेन्तु, हसावन्तु, हसावेन्तु
हसावेउ म० पु० हाससु, हासेसु, हसावसु, हासह, हासेह, हसावह, हसावेह
हसावेसु, हासहि, हासेहि, हसावहि, हसावेहि, हासेज, हासेइजसु, हसावेजसु, हासेजहि, हासेइजहि, हासेवेजहि, हासेज्जे, हासेइज्जे, हसावेज्जे, हसावेइज्जे,
हास, हासे, हसाव, हसावे उ० पु० हासमु, हासेमु, हसावमु, हसावेमु हासमो, हासेमो, हसावमो,
हसावेमो क्रियातिपत्ति
एकवचन और बहुवचन प्र०म० उ० पु० हासेज, हासेज्जा, हसावेज, हसावेजा, हासन्तो, हासेन्तो,
हासवन्तो, हसावेन्तो, हासमाणो, हासेमाणो, हसावमाणो हसावेमाणो
कर< कृ (कराना)--वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० कारइ, कारेइ, करावइ, करा. कारन्ति, कारेन्ति, करावन्ति, करावेन्ति,
वेइ, कारए, कारेए, करोवए, कारन्ते, कारेन्ते, करावन्ते, करावेन्ते करावेए
कारिरे, कारेइरे, कराविरे, करावेइरे
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
२88
म० पु० कारसि, कारेसि, करावसि, कारह, कारेह, करावह, करावेह,
करावेसि, कारसे, कारेसे, कारिस्था, कारेइत्था, करावित्था,
करावसे, करावेसे करावेइत्था उ० पु. कारमि, कारेमि, करावमि, कारमो, कारेमो, करावमो, करावेमो करावेमि
कारम, कारेमु, करावमु, करावेमु कारम, कारेम, करावम, करावेम
एकवचन
भूतकाल
एकवचन और बहुवचन प्र० म० उ० पु० कारीअ, कारेईअ, करावीअ, कराईम
भविष्यत्काल
बहुवचन प्र० पु० कारिहिइ, कारेहिइ, कारिहिन्ति, कारेहिन्ति, कराविहिन्ति,
काराविहिइ, काराचेहिइ करावेहिन्ति, कारिहिन्ते, कारेहिन्ते, कारिहिए, कारेहिए, कराविहिन्ते, करावेहिन्ते, कारिहिरे,
कराविहिए, करावेहिए कारेहिरे, कराविहिरे, करावेहिरे म. पु० कारिहिसि, कारेहिसि, कारिहित्था, कारहित्या, करावहित्था
कराविहिसि, करावेहिसि, करावेहित्था, कारिहिह, कारेहिह, कारिहिसे, कारेहिसे, कराविहिह, करावेहिह कराविहिसे, कराविहिसे,
कारावेहिसे उ० पु० कारिस्सं, कारेस्सं, कराविसं, कारिस्सामो, कारावेस्समो, कराविस्सामो,
कारिस्सामि, कारेस्सामि करावेस्सामो कारिहामो, कारेहामो. कराविस्सामि, करावेस्लामि कराविहामो, करावेहामो, कारिहिमो, कारिहामि, कारेहामि, कारेहिमो, कारेहिमो, कराविहिमो, कराविहामि
करावेहिमो विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन
बहुवचन प्र० पु० कारउ, कारेउ, करावउ, कारन्तु, कारेन्तु, करावन्तु, करावेन्तु
करावेउ
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३०० .
अभिनव प्राकृत-व्याकरण म० पु० कारसु, कारेसु, करावसु कारह, कारेह, करावह, करावेह
करावेसु, कारहि, कारेहि.. करावहि, करावेहि, कारेजसु कारेहजसु, करावेजसु, करावेइजसु, कारेनहि, कारेइज्जहि,
करावेजहि, कारेज्जे, करावेज्जे उ० पु० कारमु, कारेमु, करावमु, कारमो, कारेमो, करावमो, करावेमो करावेमु
क्रियातिपत्ति
एकवचन और बहुवचन प्र.म.उ. पु० कारेज, कारेजा, करावेज, करावेजा, कारन्तो, कारेन्तो, करावन्तो,
करावेन्तो, कारमाणो, कारेमाणो, करावमाणो, करावेमाणो ढक्क<छद् (ढकवाना, बन्द करवाना)-वर्तमान एकवचन
___ बहुवचन प्र. पु. ढक्कइ, ढक्केइ, ढक्कावइ, ढक्कन्ति, ढक्केन्ति, ढक्कावन्ति, ढक्कावेन्ति, ढक्कावेइ
ढकिरे, ढक्केइरे, ढक्काविरे, ढक्काविरे म० पु० ढक्कसि, ढक्केसि, ढक्कावसि, ढक्कित्था, ढक्केइत्था, ढक्काविस्था, ढक्कावेसि
ढक्कावेइत्था, ढक्कह, ढकेह, ठक्कावद,
ढक्कावेह उ० पु० ढक्कमि, ढक्केमि, ढक्कावमि, ढक्किमो, ढक्केमो, ढक्काबमो, ढक्कामो, ढक्कावेमि
ढक्किमु, ढक्केमु-इत्यादि
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० ढक्किहिइ, ढक्केहिइ, ढक्किहिन्ति, ढक्केहिन्ति, ढक्काविहिन्ति ढक्काविहिइ, ढक्कावेहिह ढक्कावेहिन्ति, ढक्केहिरे, ढक्किहिरे,
ढक्काविहिरे, ढक्कावेहिरे म. पु. ढक्किहिसि, ढक्केहिसि, ढक्किहित्था, ढक्केहित्था, ढक्काविहिस्था ढक्काविहिसि, ढक्कावेहिसि ढक्कावेहित्था, ढक्किहिह, ठक्केहिह
ढक्काविहिह, ढक्कावेहिह
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३०१
उ० पु० ढक्किस्सं, ढक्केस्सं, ढक्किस्सामो,ढक्केस्सामो, ढक्काविस्सामो,
ढक्काविस्सं, ढक्कावेस्सं ढक्कावेस्तामो, ढक्किहामो, ढक्किहिमो, ढक्किस्सामि, ढक्केस्सामि ढक्किहिस्सा, ढक्किहित्था ढक्किहामि, ढक्किहिमि
विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन
बहुवचन प्र० पु० ढक्कउ, ढक्केउ, ढक्कावउ, ढक्कन्तु, ढक्कन्तु, ढक्कावन्तु, ढक्कावेउ
ढक्कावेन्तु म० पु० ढक्कसु, ढक्केसु, ढक्कावसु, ढक्कह, ढक्केह, ढक्कावह, ढक्कावेह
ढक्कावेसु, ढक्कहि, ढक्केहि, ढक्कावहि, ढक्कावेहि, ढक्केजसु,
ढक्केइज्जसु, ढक्केइजहि उ० पु० ढक्कमु, ढक्केमु, ढक्कावमु, ढक्कमो, ढक्केमो, ढक्कावमो, ढक्कावेमु
ढकावेमो भूतकाल
एकवचन और बहुवचन प्र० म० उ० पु० ढक्कीअ, ढक्केईअ, ढक्कावीअ, ढक्कावेईअ
क्रियातिपत्ति
एकवचन और बहुवचन प्र० म० उ० पु० ढक्केज्ज, ढकेज्जा, ढक्कावेज, ढक्कावेजा, ढक्कन्तो, ढक्केन्तो,
ढक्कावन्तो, ढक्कावेन्तो, ढक्कमाणो, ढक्केमाणो, ढक्कावमाणो, ढक्कावमाणो
हो<भू--वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० होअइ, होएइ, होआवइ, होअन्ति, होएन्ति, होआवन्ति, होआहोआवेइ
वेन्ति, होअन्ते, होहरे म. पु. होअसि, होएसि, होइत्था, होएइत्था, होआवित्था, .. __ होआवसि, होआवेसि होआवेइत्था, होअह, होएह, होआवह,
होआवेह
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________________
३०२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण |
उ० पु. होममि, होएमि, . होअमो, होएमो, होआवमो, होआवेमो, होआवमि, होआवेमि --- होअमु, होएमु, होआवमु, होअम
भूतकाल
एकवचन और बहुवचन ३० म० उ० पु० होअसी, होएसी, होआवसी, होआवेसो, होअही, होएही,
होआवही, होआवेही, होअहीअ, होएहीअ, होआवहीअ, होआवेही
- भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० होइहिइ, होएहिइ होइहिन्ति, होएहिन्ति,
होआविहिइ, होआवेहिइ होआविहिन्ति, होआवेहिन्ति म० पु० होइहिसि, होएहिसि, होइहित्या, होएहित्था, होआविहित्था,
होआविहिसि, होआवेहिसि होआवेहित्था, होइहिह उ० पु. होइस्स,होएस्सं,होआविसं, होइस्सामो, होएस्सामो, होआविस्सामो,
होआवेस्सं, होइस्सामि, होआवेस्सामो, होइहामो, होएहामो, होएस्सामि-इत्यादि होआविहामो, होआवेहामो–इत्यादि
विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन
बहुवचन प्र० पु० होअउ, होएउ, होआवउ, होअन्तु, होएन्तु , होआवन्तु, होआवेन्तु
होआवेउ म. पु० होअसु, होएसु, होआवसु, होअह, होएह, होआवह, होआवेह
होआवेसु, होअहि, होएहि,
होआवहि, होआवेहि उ० पु० होअमु, होएमु, होआवमु, होअमो, होएमो, होआवमो, होआवेमो होआवेमु
क्रियातिप त्त
एकवचन और बहुवचन प्र०म० उ० पु० होएज, होएजा, होआवेज, होआवेजा, होअन्तो, होएन्तो,
होआवन्तो, होआवेन्तो, होअमाणो, होएमाणो, होआवमाणो होआवेमाणो
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
कुछ क्रियाओं के प्रेरणार्थक रूपों का संकेत
धातु
वर्तमान
भूत
पड ( पत्)
पाडइ
पाडीअ पाडिहि पाडउ
आहोड ( तड़ ) आहोडइ आहोडीअ आहोडिहिइ आहोडउ
नासवीअ नासविहिइ
नाव (नश् ) नासवइ दरिस (दृश् ) रिस
मिस्स (मिश्र) मिस्सइ
अप्प ( अर्प )
अप्पइ
दूम (दू )
दूमइ
वा (वा)
वाअइ
ठा (स्था )
झा ( ध्यै )
ठाअइ
भाअइ
हाइ
गाअइ
भाड (भ्रम् ) भमाडइ
सोल (शुष)
सोसाइ
तोसइ
तो (तु) रूस (रुष ) रूसइ मोह (मुह ) मोहइ
नावइ
नव (नम् ) पूस (पुष)
खम् (क्षम् )
(
गा (गै )
)
दरिसीअ दरिसिद्दि
मिस्सीअ मिस्सिहिइ
अपीअ
अपिहि
दूमिहि
वाहि
ठाइि
दूमीअ
वाअसी
ठाअसी
झाअसी
भविष्यत् विधि एवं आज्ञा क्रियातिपत्ति
हि
हासी हाeिs
गाअसी गाइि
भमाडीअ भमाडिहि
सोसीअ सोसिहिइ
तोसीअ
तोसहि
रूसी
रूसहि
मोहीअ
नावीअ
पूसइ
पूसीअ
खामइ खामसी
मोहिि
नाविहि
पूसिडि
खामहि
नासवउ
दरिस उ
मिस्सउ
अप्पउ
दूमउ
वाअउ
ठाअउ
झाअउ
ण्हाअउ
गाअउ
भमाडउ
सोसउ
तोसउ
रूसउ
मोहउ
नावउ
३०३
पूस उ
खाममु
पाडेज
आहोडेज
नासवेज
दरिसेज्ज
मिस्सेज
अपिज्ज
दूज
वाएज
ठाएज्ज
झाएज
हाएज
गाएज
भमाडेज्ज
सोसेज्ज
तोसेज्ज
सेन
मोहेज्ज
ना वेज्ज
पूसेज
खामेज
धातुओं के कर्मणि और भाव में प्रेरकरूप
( ३४ ) प्रेरणार्थक धातु में भाव और कर्मणि के रूप बनाने के लिए मूल धातु मैं विप्रत्यय जोड़ने के उपरान्त कर्मणि और भाव के प्रत्यय ईअ, ईय अथवा इज्ज प्रत्यय जोड़ने चाहिए ।
( ३५ ) मूलधातु में उपान्त्य अ के स्थान पर आ कर दिया जाय और इस अंग अ, ईया इप्रत्यय जोड़ देने से प्रेरक कर्मणि और भावि के रूप होते हैं ।
कर् + आवि = करावि, करावि + ईअ = करावीअ +इ = करावीअइ काराप्यते कर्— कार + ईअ = कारीअ + इ = कारीआइ, कारीअ + ए = कारीअए कार्यते कराविहि, कराविद्दिए, कराविस्सए 4 काराययिष्यते ।
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३०४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण प्रेरक भाव और कर्मणि-हास, हसावि-वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र. पु. हासीअइ, हासीअए हासीअन्ति, हासीअन्ते, हासीइरे
हासिज्जइ, हासिजए, हासिजन्ति, हासिजन्ते, हासिजिरे, हसावीअइ, हसावीअए हसावीअन्ति, हसावीअन्ते, हसावीइरे,
हसाविजइ, हसाविजए हसाविजन्ति, हसाविजन्ते, हसाविजिरे म० पु. हासीअसि, हासीअसे, हासीइत्था, हासीअह, हासिजित्था,
हासिजसि, हासिज्जसे, हासिज्जह, हसावीइत्था, हसावीअह, हसावीअसि, हसावीअसे हसावीअह, हसाविजित्था, हसाविजह
हसाविजसे, हसाविजसि उ० पु० हासीअमि, हासीआमि, हासीअमो, हासीआमो, इासीइमो,
हासिज्जमि, हासिज्जामि हासीएमो, हासीअमु,हासीआमु, हासीइमु, हसावीअमि, हसावीआमि, हासीएमु, हासीअमु, हासीआम, हासीइम, हसाविजामि, हसाविजमि हासीएम. हासिजमो. हासिजामो.
हासिजिमो, हासिज्जेमो, हासिज्जमु, हासिज्जामु, हासिजिमु, हासिज्जेम, हासिज्जम,हासिज्जाम,हासिजिम,हासिज्जेम हसावीअमो, हसावीआमो, हसावीइमो, हसावीएमो, हसावीअम, हसावीआमु, हसावीइ, हसावीएमु, हसावीअम, हसावीआम, हसावीइम, हसावीएम,
हसाविजमो
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० हासिहिइ, हासिहिए, हासिहिन्ति, हासिहिन्ते, हासिहिरे, हसाविहिइ
हसाविहिन्ति, हसाविहिन्ते, हसाविहिरे म० पु० हासिहिसि, हासिहिसे, हासिहित्था, हासिहिह हसाविसि
हसाविहित्था, हसाविहिह उ० पु० हासिस्सं, हासिस्सामि हासिस्सामो, हासिहामो, हासिहिमो
हासिहामि, हासिहिमि हासिस्सामु, हासिहामु, हासिहिमु, हसाविस, हसाविस्सामि हासिस्साम, हासिहाम, हासिहिम
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण हसाविह्ममि, हसाविहिमि हस्साविस्सामो, हसाविहामो, हसाविहिमो,
हसाविस्सामु, हसाविहामु, हासिहित्था,
हसाविहित्था
भूतकाल
एकवचन और बहुवचन प्र० म० उ० पु० हासीअ, हसावीअ, हासीईअ, हासीअईअ, हासिज्जीअ
विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन
____ बहुवचन प्र० पु० हासीअउ, हासिजउ हासीअन्तु, हासिज्जन्तु, हसावीअन्तु
हसावीअउ, हसाविजउ हसाविजन्तु म० पु० हासीअहि, हासीअसु, हासीअह, हासिजह,
हालीएजसु, हासीएजहि, हसावीअह, हसाविजह हासीएज्जे, हासी हासिजहि, हासिज्जसु, हासिज्जेज, हासिज्जेजहि, हासिज्जेज्जे, हासिज्ज,
हसावीअहि, हसावीएजहि उ० पु० हासीअमु, हासीआमु, हालीअमो, हासीआमो, हासीइमो,
हासीइम, हासिजमु, हासिजमो, हासिजामो, हासिजिमो हासिज्जामु, हासिजिमु, हसावीअमो, हसाविजमो, हसाविजिमो हसावीअमु, हसावीइमु
क्रियातिपत्ति सभी पुरुष और सभी वचनों में
हासेज, हासेज्जा, इसाविज, हसाविजा, हासन्तो, हासेन्तो, हसाविन्तो, हासमाणो हसाविमाणो
खाम, खमावि <क्षम् (क्षमा कराना)--वर्तमान
एकवचन ... - बहुवचन प्र० पु० खामीअए, खामीअइ खामीअन्ति, खामीअन्ते, खामीइरे
खामिजइ, खामिजर खामिज्जन्ति, खामिज्जन्ते, खामिजिरे
२०
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३०६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
उ०५
खमावीअइ, खमावीअए खमावीअन्ति, खमावीअन्ते,
खमाविजइ, खमाविजए - खमावीइरे, खमाविजन्ति म० पु० खामीअसि, खामीअसे खामीइत्था, खामीअह
खामिजसि, खामिजसे खामिजित्था, खामिजह खमावीअसि, खमावीअसे खमावीइत्था, खमावीअह खमाविज्जसि, खमाविजसे खमाविजित्था, खमाविज्जइ खामीअमि, खामीआमि खामीअमो, खामीआमो, खामीइमो खामीजमि, खामिजामि खामीएमो, खमावीअमि, खमावीआमि खामिजमो, खामिजामो, खमाविजमि, खमाविजाम खामिजिमो, खामिज्जेमो
खमावीअमो, खमावीआमो
खमावीइमो, खमावीएमो भूतकाल
एकवचन और बहुवचन प्र० म० उ० पु० खामीईअ, खामीअईअ, खामिजीअ, खामिजईअ, खमावीईअ,
खमावीअइअ, खमाविज्जीअ, खमाविजईअ, खामीअ, खमावीअ
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र. पु. खामिहिइ, खामिहए खामिहिन्ति, खामिहिन्ते, खामिहिरे, खमाविहिइ
खमाविहिन्ति, खमाविहिन्ते, खमाविहिरे म० पु० खामिहिसि, खामिहिसे खामिहित्था, खामिहिह, खामविहिसि
खमाविहित्था, खमाविहिह उ० पु० खामिस्सं, खामिस्सामि खामिस्सामो, खामिहामो
खामिहामि, खामिहिमि खामिहिमो, खमाविस्सामो, खमाविस्सं, खमाविहामि खमाविहामो, खमाविहिमो
खामिहिस्सा, खामिहित्था विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन
बहुवचन प्र० पु० खामीअठ, खामिजउ खामीअन्तु, खामीजन्तु
खमावीअउ, खमाविजउ खमावीअन्तु, खमाविजन्तु
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
३०७
म० पु० खामीअहि, खामीअसु खामीअह, खामिजह
___ खामीएजसु, खामोएजहि खमावीअह, खमाविजह
खामीएजे, खामीअ, इत्यादि उ० पु. खामीअमु, खामीआमु खामीअमो, खामीआमो खामीइमो,
खामीइमु, खामिज्जमु, खामिजमो, खामिजामो, खामिजामु
खामिजिमो खमावीअमु, खमावीआमु खमावीअमो, खमावीआमो खमावीइमु
खमावीइमो खमाविज्जमु, खमाविज्जामु खमाविज्जमो, खमाविज्जामो खमाविज्जिमु -खमाविज्जिमो
क्रियातिपत्ति
सभी वचन और पुरुषों में खामेज्ज, खामेज्जा, खमाविज्ज, खमाविज्जा, खामन्तो, खामेन्तो, खमाविन्तो, खाममाणो, खमाविमाणो पिवास पा (पिलाना, पिलवाना)--वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० पिवासइ, पिवासए पिवासन्ति, पिवासन्ते, पिवासिरे म. पु० पिवाससि, पिवाससे पिवासित्था, पिवासह उ० पु० पिवासमि, पिवासामि पिवासमो, पिवासामो, पिवासिमो,
पिवासेमो पिवासमु, पिवासामु, पिवासिमु, पिवासेमु;
पिवासम, पिवासाम, पिवासिम, पिवासेम भूतकाल
एकवचन और बहुवचन प्र० म० उ० पु.
पिवासी
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र. पु० पिवासिहिइ, पिवासिहिए पिवासिहिन्ति, पिवासिहिन्ते, पिवासिहिरे म० पु० पिवासिहिसि, पिवासिहिसे पिवासिहित्था, पिवासिहिह उ० पु० पिवासिस्सं पिवासिस्लामिपिवासिस्सामो, पिवासिहामो, पिवासिपिवासिहामि, पिवासिहिमि. हिमो, पिवासिस्सामु, पिवासिहामु,
पिवासिहिमु, पिवासिस्साम, पिवासिहाम
Page #339
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३०८
प्र० पु०
म० पु०
उ० पु० पित्रासमु
धातु
एकवचन
सभी पुरुष और सभी वचनों में
जुगुच्छ <गुप्
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
विधि एवं आज्ञार्थ
कार, करावि हो, होआविभू
लिच्छ दलभू
पिवासउ
पिवासहि, पिवाससु, पिवासेज्ज, पिवासेज्जहि, पिवासह पिवासेज्जे, पिवास
पिवासामु पिवासि
बहुवचन
ने, आदिनी नेईअइ सी
नेविस का, आविध्यै झाईअड्
पिवासन्तु
पिवासेज, पिवासेज्जा, पिवासन्तो, पिवासमाणो
क्रियातिपत्ति
वर्तमान भूत भविष्यत्
पिवासमो
पिवासामो, पिवासिमो
विधि एवं क्रियातिपत्ति
आज्ञा
कारीअउ
हो
कारी अइ काईअ कारिfes होईअइ होसी होfes होआवीअइ होआविसी होआविहिइ होआवोअउ होआविज fes अउ नेज्ज नेआविसी नेआविदिर्इ नेआविअउ नेआविज्ज असी माहि भाईअड भाज्ज काआवीअइ काआविअसी झाआविहिद झाआवीअउ झाआविज जुगुच्छइ जुगुच्छीअ जुगुच्छिहिइ जुगुच्छउ गुच्छे जुगुच्छावइ जुगुच्छावीअ जुगुच्छाविहिइ जुगुच्छावेउ जुगुच्छावेज लिच्छइ बिच्छीअ लिच्छिeिs लिच्छउ लिच्टेज लिच्छवइ लिच्छावीअ लिच्छविहिर सिच्छावड लिच्छावेज्ज
काज
होज
सन्नन्त क्रिया
( ३६ ) किसी कार्य के करने की इच्छा का अर्थ बतलाने के लिए संस्कृत में धातु से सन् प्रत्यय जोड़ा जाता है । पर प्राकृत में सन्नन्त प्रक्रिया के बनाने के कोई विशेष नियम नहीं हैं । मात्र ध्वनिपरिवर्तन के आधार पर ही इस प्रक्रिया के रूप बनते हैं । यहां कुछ क्रियारूप उदाहरणार्थ प्रस्तुत किये जाते हैं ।
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
लिच्छ<लभ्- लिप्सते ( = लाभ की इच्छा करना)
वर्तमान
एकवचन लिच्छइ, लिच्छए
प्र० पु०
म० पु० लिच्छसि, लिच्छ से
उ० पु०
लिच्छामि, लिच्छमि
एकवचन
प्र० म० उ० पु० लिच्छीअ
प्र० पु० म० पु०
एकवचन
प्र० पु० लिच्छिहि, लिच्छिहिए म० पु० लिच्छिहिसि, लिच्छिहिसे उ० पु०
भूतकाल
एकवचन
लिच्छउ
लिचिडस्सं, लिच्छिस्सामि, लिच्छिहामि, लिच्छिहिम
बहुवचन
लिच्छन्ति, लिच्छन्ते, लिच्छि रे
लिच्चित्था, लिच्छ
डिमो, लिच्छामो लिच्छिमो,
लिच्छेमो, लिच्हमु, च्छिम
भविष्यत्काल
बहुवचन
लिच्छीअ
विधि एवं आज्ञार्थ
एकवचन
प्र० पु० जुगुच्छइ, जुगुच्छए म० पु० जुगुच्छसि, जुगुच्छ से
बहुवचन
लिच्छिन्ति, लिच्छिहिन्ते, लिच्छिहिरे लिच्छिहित्था, लिच्छिद्दिह लिच्छिस्सामो, लिच्छिहामो, लिच्छिहिमो, लिच्छिस्सामु, बिच्छिहामु, लिच्छिद्दिमु, लिच्छिहिस्सा, लिच्छित्थिा
बहुवचन लिच्छन्तु
लिच्छह
लिच्छहि, लिच्छ,
लिच्छेज्जसु, लिच्छ
उ० पु० लिच्छ, लिच्छामु, लिच्छिमु लिच्छमो, लिच्छामो, लिमो
३०९
क्रियातिपत्ति
एकवचन और बहुवचन
प्र०म० उ० पु० लिच्डेज, लिच्छेजा, लिच्छन्तो, लिच्छमाणो
जुगुच्छ गुप ( निन्दा या तिरस्कार करने की इच्छा करना)
K
जुगुच्छइ < जुगुप्सति - वर्तमान
बहुवचन
जुगुच्छन्ति, जुगुच्छन्ते, जुगुच्छिरे
जुगुच्छित्था, जुगुच्छद्द
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एकवचन
अभिनव प्राकृत-व्याकरण उ० पु० जुगुच्छमि, जुगुच्छामि जुगुच्छमो, जुगुच्छामो, जुगुच्छिमो,
-जुगुच्छेमो, जुगुच्छमु, जुगुच्छामु,
जुगुच्छिमु, जुगुच्छम, जुगुच्छाम
भूतकाल सभी वचन और सभी पुरुषों में जुगुच्छीअ
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० जुगुच्छिहिइ, जुगुच्छिहिए जुगुच्छिहिन्ति, जुगुच्छिहिन्ते, जुगुच्छिहिरे म० पु० जुगुच्छिहिसि, जुगुच्छिहिसे जुच्छिहित्था, जुगुच्छिहिह उ० पु० जुगुच्छिस्सं, जुगुच्छिस्सामि जुगुच्छिस्सामो, जुगुच्छिहामो, जुगुच्छिहामि, जुगुच्छिहिमि जुगुच्छिहिमो विधि एवं आज्ञार्थ
बहुवचन प्र० पु० जुगुच्छउ
जुगुच्छन्तु म० पु० जुगुच्छहि, जुगुच्छसु जुगुच्छह
जुगुच्छेजसु उ० पु० जुगुच्छमु, जुगुच्छामु, जुगुच्छमो, जुगुच्छामो, जुगुच्छिमो जुगुच्छिमु
क्रियातिपत्ति सभी वचन और सभी पुरुषों में जुगुच्छेज्ज, जुगुच्छेज्जा, जुगुच्छन्तो, जुगुच्छमाणो बहुक्ख - भुज-भोजन करने की इच्छा करना बुहुक्खइ बुभुक्षति--वर्तमान
बहुवचन प्र० पु. बहुक्खइ, बुहुक्खए बुहुक्खन्ति, बहुक्खन्ते, बहुक्खिरै म० पु० बुहुक्खसि, बहुक्खसे बुहुक्खित्था, बहुक्खह उ० पु० बुहुक्खमि, बुहुक्खामि बुहुक्खमो, बहुक्खामो, बुहुक्खिमो,
बुहुक्खेमो, बहुक्खमु, बुहुक्खामु, बुहुक्खिमु, बुहुक्खे,
एकवचन
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अभिनव प्राकृत-व्याकरणे
एकवचन
भूतकाल सभी वचनों और सभी पुरुषों में बुहुक्खी
भविष्यत्काल
बहुवचन प्र० पु० बुहुक्खिहिइ, बहुक्खिहिए बुहुक्खिहिन्ति, बहुक्खिहिन्ते, बुहुक्खिरे म० पु० बुहुक्खिहिसि, बहुक्खिहिसे बहुक्खिहित्था, बहुक्खिहिह उ० पु० बुहुक्खिस्सं, बहुक्खिस्सामि, बुहुक्खिस्सामो, बुहुक्खिहामो, बुहुक्खिहामि, बुहुक्खिहिमि बुहुक्खिहिमो, बहुक्खिस्सामु,
____ बुहुक्खिहामु, बुहुक्खिहिस्सा
विधि एवं आज्ञार्थ एकवचन
बहुवचन प्र० पु० बुहुक्खउ
बुहुक्खन्तु म० पु० बुहुक्खहि, बहुक्खसु बुहुक्खह उ० पु० बुहुक्खमु, बहुक्खामु बुहुक्खमो, बुहुक्खामो, बुहुक्खिमु
बुहुक्खिमो
क्रियातिपत्ति सभी वचन और सभी पुरुषों में बुहुक्खेज्ज, बुहुक्खेजा, बहुक्खन्तो, बुहुक्खमाणो
सुस्सूस <श्र (सुनने की इच्छा करना) सुस्सूसइ< शुश्रूषति--वर्तमान
बहुवचन प्र० पु० सुस्सूसइ, सुस्सूसए सुस्सूसन्ति, सुस्सूसन्ते, सुस्सूसिरे म० पु० सुस्सूससि, सुस्सूससे सुस्सूसित्था, सुस्सूसह उ० पु० सुस्सूसमि, सुस्सूसामि सुस्सूसमो, सुस्सूसामो, सुस्सूसिमो,
सुस्सूसमु, सुस्सूसाम, सुस्सूसाम
भूतकाल सभी वचन और सभी पुरुषों में
भविष्यत्काल एकवचन
- - बहुवचनप्र० पु० सुस्सूसिहिइ, सुस्सूसिहिए सुस्सूसिहिन्ति, सुस्सूसिहिन्ते,
सुस्सूसिहिरे
एकवचन
Page #343
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________________
३१२
म० पु० उ० पु०
प्र०पु०
म० पु०
उ० पु०
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
सुस्सूसि हिसि, सुस्सूसिह से सुस्सूसिस्सं, सुस्सू सिस्सामि
सुसूसिहामि
सुस्सूसिद्दित्था, सुस्सू सिहिह सुस्सूसिस्सामो, सुस्सूसिहामो सुसूसिहिमो, सुस्सू सिस्सामु
विधि एवं आज्ञार्थ
एकवचन
सुस्सूस उ
सुस्सूसहि, सुस्सूससु
सुस्सूसमु, सुस्सूसामु
सुस्सू सिमु
बहुवचन
सुस्सूसन्तु
सुस्सूलह
सुस्सूसमो, सुस्सूयामो, सुस्सूसिमो
क्रियातिपत्ति
सभी वचन और सभी पुरुषों में
सुस्सूसेज, सुस्सूसेजा, सुस्सूसन्तो, सुसुमागो
सन्नन्त -- इच्छार्थक धातुओं के कर्मणि और भावि रूप
लिच्छ<लभू - लिच्छीअइ (लिप्स्यते) झुण गुप्-झुणीअइ (जुगुप्स्यते)
बुहुक्ख < भुज् — बुहुक्खी अइ ( बुभुक्ष्यते )
यङन्त, यङ्लुगन्त और नामधातु
( ३७ ) व्यञ्जन से आरम्भ होनेवाली किसी भी एकाच् धातु के अनन्तर क्रिया को बार-बार करने अथवा क्रिया को खूब करने का बोध कराने के लिए संस्कृत में प्रत्यय लगाया जाता है । पर प्राकृत में यङन्त क्रियाएँ वर्णविकार द्वारा ही निष्पन्न होती हैं। यथा
वीआइ, पेवीए पेपीयते लालप्पइ, लालप्पए लालप्यते वरीवच्चइ, वरीवच्चए द वरीवृत्यते सासक्कइ, सासक्कए दशाशक्यते
जाजाअइ, जाजाअए जाजायते
( ३८ ) संस्कृत धातुओं में यङ् प्रत्यय का लोप हो जाने पर भी अतिशय या बार-बार अर्थ में क्रिया का प्रयोग होता है। प्राकृत में यह यङ्लुबंत या यङ्लुगन्त भी वर्णविकार द्वारा अवगत किया जाता है । यथा
चकमइचङ्क्रमति चंक्रमणं चक्रमणम्
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
३१३
( ३९ ) संज्ञा या प्रातिपदिक को 'नाम' कहते हैं; उससे किसी विशेष अर्थ में प्रत्यय होकर धातुवत् रूपों की जिसमें उत्पत्ति होती है, उसे नामधातु प्रक्रिया कहते हैं । पर्य यह है कि जब किसी सुबन्त संज्ञा के अनन्तर प्रत्यय जोड़कर धातु बना लेते हैं, तो उसे 'नामधातु' कहते हैं। नामधातुओं के विशेष विशेष अर्थ होते हैं । प्राकृत में नामधातु बनाने के निम्नलिखित नियम हैं।
1
(४०) नामधातु बनाने के लिए प्राकृत में विकल्प से अ (य) प्रत्यय जोड़ा जाता है । यथा
गुरुआइ, गुरुआअइ 4 गुरुरिव आचरतीति - गुरुकायते
अमराइ, अमराअइ < अमर इव आचरतीति — अमरायते
तमाइ, तमाअइतमायते--- अन्धकार में होनेवाला आचरण करता है
1
अलसाइ, अलसाअइ अलसायते - आलसी के समान आचरण करता है । ऊम्हाइ, उम्हाअइ < उष्मायते - गर्मी में होनेवाला जैसा आचरण करता है । दमदमाइ, दमदमाइ दमदमायते - दम दम जैसा करता है ।
धूमाइ, धूमाअइ धूमायते — धूम मचाता है ।
सुहाइ, सुहाअइ सुखायते - सुखी होता है, सुख का अनुभव करता है । सद्दाइ, सद्धाअइ द शब्दायते - शब्द करता है ।
लोहिआए—- इ, लोहिआए - इद लोहितायते - लाल होता है ।
हंसाए - इ, हंसाए - इहंसाते - हंस के समान आचरण करता है ।
अच्छा - इ, अच्छराए - इ८ अप्सरायते - अप्सरा के समान आचरण
A
करता है ।
उम्मणाए – इ, उम्मणाअए – इ – उन्मनायते - उन्मना होता है ।
-
कट्ठाए - इ, कट्ठाअए -इ कष्टायते - कष्ट का अनुभव करता है । अस्थाअइ, अस्थाइ < अस्तायते - अस्त होता है ।
तणुआइ, तणुआअइ < तनुकायति - दुबला होता है । संझाअइ, संझाइ 4 सन्ध्यायते - सन्ध्या होती है । सीदलाअइ, सीदलाइ शीतलायति - शीतल होता है । पुत्तीअइ, पुत्तीइ पुत्रीयति -पुत्र की इच्छा करता है कुरुकुराअइ, कुरुकुराइ ८ कुरुकुरायते – कुरुकुरु करता है । थरथरेइ थरथरायते थर थर करता है ।
1
घणाअइ, घाइधनायति — धन की इच्छा करता है । अस्साअइ, अस्साइ << अम्श्वस्यति - मैथुनेच्छा करता है । गव्वाइ, गव्वाइ व्यति-गो की इच्छा करता है ।
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३१४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण वाआअइ, वाआइ<वाच्यति-बात करने की इच्छा करता है। रायाअए, रायाए < राजायते-राजा के समान आचरण करता है। असनाअइ, असनाइ < अशनायति-खाने की इच्छा करता है । वाफ्फाअइ, वाप्फाइ< वाष्पायते-भाप निकलती है। नमाअइ, नमाइ< नमस्यति - नमस्कार करता है । पुत्तकामाअइ, पुत्तकामाइ< पुत्रकाम्यति-पुत्र की कामना करता है । जसकामाअइ, जसकामाइ< यशस्काम्यति-यश की इच्छा करता है। खीराअइ, खीराइ < क्षीरस्यति–दूध की इच्छा करता है। उअआइ, उअआअइ < उदकन्यति—पानी की प्यास है। वेराअइ-ए वेराइ-ए - वैरायते-वैर जैसा आचरण करता है, वैर करता है । कलहाअइ, कलहाइ ८ कलहायते-झगड़ता है। चवलाअइ, चवलाइ < चपलायते-चञ्चल होता है। करुणाअइ-ए, करुणाइ-ए करुणायते-करुणा करता है। सपन्नाअइ-ए, सपन्नाइ-ए< सपत्नायते-कलह करती-करता है। हरिआअइ, हरीअइ < हरितायति-हरा होता है। मेहाअइ-ए, मेहाइ-ए ८ मेघायते-वर्षा होती है। . दुम्माअइ-ए, दुम्माइ-ए < द्रुमायते-वृक्ष जैसा मालूम होता है ।
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कृदन्तविचार कृत् प्रत्यय धातु के अन्त में लगते हैं और उनके योग से संज्ञा, विशेषण अथवा अव्यय के रूप बनते हैं। कृत् प्रत्ययों से सिद्ध शब्द कृदन्त कहलाते हैं ।
कृत और तिङ प्रत्ययों में यह अन्तर है कि कृत् प्रत्ययों से सिद्ध कृदन्त शब्द संज्ञा, विशेषण अथवा अव्यय होते हैं। कहीं कहीं कृदन्त शब्द क्रिया का भी कार्य करते हैं। पर तिङ प्रत्ययों से सिद्ध तिङन्त शब्द सदा क्रिया ही होते हैं । कृत् और तद्धित प्रत्ययों में यह अन्तर है कि तद्धित प्रत्यय सर्वदा किसी सिद्ध संज्ञा, विशेषण अथवा अव्यय में जोड़े जाते हैं; किन्तु कृत् प्रत्यय धातु में ही लगते हैं।
वर्तमान कृदन्त ( ४० ) धातु में न्त, माण और ई प्रत्यय लगाने से वर्तमान कृदन्त के रूप होते हैं। पर ई प्रत्यय केवल स्त्रीलिङ्ग में ही जोड़ा जाता है।
( ४१ ) धातु के प्रेरकरूप में न्त, माण और ई प्रत्यय लगाने से प्रेरक कर्तरि वर्तमान कृदन्त के रूप होते हैं। यहां पर भी ई प्रत्यय केवल स्त्रीलिङ्ग में जुड़ता है।
( ४२ ) धातु के प्रेरक भावि और कर्मणि रूप में न्त, माण और ई प्रत्यय • लगाने से प्रेरक भावि और कर्मणि कृदन्त के रूप होते हैं।
( ४३ ) वर्तमान कृदन्त के न्त, माण और ई प्रत्यय के परे पूर्ववर्ती अकार को विकल्प से एकार होता है । यथाभण-भण+न्त = भणन्त, भण+माण = भणमाणपुंल्लिङ्ग नपुंसकलिङ्ग
स्त्रीलिङ्ग भणंतो, भणमाणो भणंतं, भणमाणं भयंती, भणंता
भणेतो, भणेमाणो भणेत, भणेमाणं .. भणेती, भणेता पा-पाअंतो, पाअमाणो पाअंतं, पाप्रमाणं पाअंती, पाअंता
पाएंतो, पाएमाणो पाएंतं, पाएमाणं पाएंती, पाएंता पांतो, पामाणो पांत, पामारणं पांती, पांता
पाअमाणी, पाअमाणा पाएमाणी, पाएमाणा पामाणी, पामाणा पाअई, पाएई, पाई
पण
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
रु-वंतो, खमाणो
रवतो, रवेमाणो ।
ह-हरंतो, हरमाणो
हरेतो, हरेमाणो
रवंत, रखमाणं रखंती, रवंता खेतं, रवेमाणं रखेंती, रवेंता
रखमाणी, रवमाणा रवेमाणी, रवेमाणा
रवई, रवेई हरंतं, हरमाणं हरंती, हरंता हरेंतं, हरेमाणं हरेती, हरेंता
हरमाणी, हरमाणा हरेमाणी, हरेमाणा
हरई, हरेई वरिसंत, वरिसमाणं वरिसंती, वरिसंता वरित, वरिसेमाणं वरिसती, वरिसंता
वरिसमाणी, वरिसमाणा वरिसेमाणी, वरिसेमाणा
वरिसई, वरिसेई नेतं, नेमाणं नेती, नेता, नेमाणी, नेमाणा
वृष-वरिसंतो, वरिसमाणो
वरिसेतो, वरिसेमाणो
. नी-तो, नेमाणो
तुष-तूसंतो, तूसमाणो
तूसेतो, तूसेमाणो
संतं, तूसमाणं तूसेंतं, तूसेमारणं
तूसंती, तूसंता तूसेंती, तूसेंता, तूसमाणी तूसमाणा, तूसेमाणी, तूसेमाणा तूसई, तूसेई देती, देता, देमाणी, देमाणा
दा-देतो, देमाणो
देंतं, देमाणं
चल-चल्लंतो, चल्लमाणो
चल्लेतो, चल्लेमाणो
खिद-खिजंतो, खिजमाणो
खिजेतो, खिजेमाणो
चल्लंत, चल्लमाणं चल्लंती, चल्लंता चल्लतं, चल्लेमाणं चल्लेती, चल्लेंता, चल्लमाणी
चल्लमाणा, चल्लेमाणी,
चल्लेमाणा, चलई, चल्लेई खिज्जतं, खिज्जमाणं खिजंती, खिजंता खिजेतं, खिज्जेमाणं खिजेती, खिज्जेता,
खिज्जमाणी, खिजमाणा खिज्जेमाणी, खिज्जेमाणा खिजई, खिज्जेई
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३१७
) तुर-तुरंतो, तुरमाणो तुरंतं, तुरमाणं तुरंती, तुरंता त्वर
तूर-तूरंतो, तूरमाणो तूरंतं, तूरमाणं तुरंती, तूरंता तुरंतो, तुरेमाणो तुरेंतं, तुरेमाणं तुरती, तुरेता
तुरमाणी, तुरमाणा तुरेमाणी, तुरेमाणा
तुरई, तुरेई शुश्रूष-सुस्सूसंतो, सुस्सूसमाणो सुस्सूसंत, सुस्सूसमाणं सुस्सूसंती, सुस्सूसंता सुस्सूसंतो, सुस्सूसेमाणो, सुस्सूसेंतं, सुस्सूसेमाणं, सुस्सूती, सुस्सूसता
सुस्सूसमाणी, सुस्सूसमाणा सुस्सूसेमाणी, सुस्सुसेमाणा
सुस्सूसई, सुस्सूसेई लालप्य-लालप्पंतो, लालप्पमाणो लालप्पंत, लालप्पमाणं लालप्पंती, लालप्पंता लालप्पेतो, लालप्पेमाणो लालप्तं, लालप्पेमाणं लालप्ती, लालप्ता
लालप्पमाणी, लालप्पमाणा लालप्पेमाणी, लालप्पेमागा
लालप्पई, लालप्पेई गुरुकाय-गुरुअंतो, गुरुअमाणो गुरुअंतं, गुरुअमाणं गुरुअंती, गुरुअंता गुरुऐंतो, गुरुएमाणो गुरुएंतं, गुरुएमाणं गुरुएंती, गुरुएंता
गुरुप्रमाणी, गुरुअमाणा गुरुएमाणी, गुरुएमाणा
गुरुअई, गुरुएई हो<भू-होतो, होअमाणो होअंतं, होअमाणं होअंतो, होअंता होएंतो, होएमाणो होएंतं, होएमाणं होएंतो, होएंता
होअमाणी, होअमाणा होएमाणी, होएमाणा
होअई, होएई भावि वर्तमान कृदन्त भण् + इज्ज (भावि प्रत्यय) = भणिज्ज + न्त = भणिज्जतं भण्यमानं भण् + इज्ज (भावि प्रत्यय) = भाणिज्ज + माण = भणिज्नमाणं भण + ईअ (भावि इत्यय) = भणीअ +न्त = भणीअंत भण + ईअ (भावि प्रत्यय) = भणीअ + माण = भणीअमाणं
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३१८
पुल्लिङ्ग
भणू -भणीअंतो, भणिज्जं तो
भणी अमाणो, भणिज्ज माणो
हन्- हम्मतो, हम्ममाणो
अभिनव प्राकृत व्याकरण
कर्मणि वर्तमान कृदन्त नपुंसकलिङ्ग
भणीअंतं, भणिज्जंतं भणीअमाणं, भणिज्ज
माणं
पु०
शुप्―सोसवितो, सोसंतो सोतो, सोसावंतो
कर्त्तरि प्रेरक वर्तमान कृदन्त
कृ - कार ( प्रेरक कर्त्तरि ) - कार + न्त = कारंतो, करें तो कारयन् करावि (प्रेरक कर्त्तरि ) — करावि + अ + न्त = करावंतो, करावेंतो < करायन् ) - कार + माण = कारमाणो, कारेमाणोद कारयमाण: करावि ( प्रेरक कर्त्तरि ) – करावि + अ + माण = करावमाणो, करावेमाणो
कार ( प्रेरक कर्त्तरि ) -
सोसविमाणो सोमाणी सोमाणी, सोसावमाणो सोमाणी
हम्मत, हम्ममा
भणाविज्ज + माण = भणावी + अ + न्त =
स्त्रीलिङ्ग भणीअंती, भणीअंता
भणीअमाणी, भणी माणा भणिज्जमाणी, भणिज्जमाना भणिजई,
भणीअ
हम्मंती, हम्मंता
हम्ममाणी, हम्ममाणा
: भणाविज्जमाणो
भणावीअंतो
નપું सोसविंतं, सोसंत
सोसर्विती,
सोती, सोसंता
सोसतं, सोसावंतं सोसविमाणं, सोसमाणं सोसेंती, सोसेंता सोसेमाणं, सोसावमाणं सोसावंती, सोसावंता सोसावेमा
सोसविमाणी, सोसमाणा
सोमाणी, सोसविमाणा
सोमाणी, सोसेमाणा
प्रेरक भावि - वर्तमान कृदन्त
भणभणाविज्ज + न्त = भणाविज्जंतं < भणाप्यमानम् भणावी + अ + न्त = भणावीअंतं भणाप्यमानम्
प्रेरक कर्मणि वर्तमान कृदन्त
भणभणाविज्ज + न्त = भणाविज्जं तो दभणाप्यमानः
कारापयमानः
स्त्री० सोसविता
सोसावाणी, सोसावमाणा सोसावेमाणी, सोसावेमाणा
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पु० भणाविज्जतो, भणाविज्जाणो तो भावी अमाणो
सुस्सूअंतो ( शुश्रूषन् ) सुस्समाणो ( शुश्रूषमाण: ) सुस्सूसिज्जं तो ( शुश्रूष्यमाणः ) सुस्सूसिज्जमाणो ( शुश्रूष्यमाणः ) सुस्सूसी अंतो सुसूसीअमाणो
39
A
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
नपुं०
भगाविज्जंतं, भणाविज्जमाणं भगात्रीअंतं, भणावीअमाणं
""
चकमंतो चङ्क्रमत्
चकममाण ८ चङ्क्रममाणः चकमिज्जंतोच क्रम्यमाणः
कमीअंतो चङ क्रम्ममाणः
चक्रमीअमाणो च क्रम्यमाण:
३१९
सुसूत सुस्समाणं
स्त्री०
भणाविज्जंती, भणाविज्जं ता भणाविज्जमाणी, भणाविज्ज
माणा, भणावीअंती,
भणावीअंता, भणावीअमाणी, भणावीअमाणा
सुस्सूअंती, सुस्सूअंता
सुस्सूसमाणी, सुस्सू समाणा
सुस्सू सिज्जंतं सुसूसिज्जमाणं सुस्सूसीअंतं
सुम्सूसिज्जंती, सुस्सूसिज्जंता सुस्सूसिज्जमाणी, सुस्सू सिज्जमाणा सुस्सूसीअंती, सुस्सूसीअंता
सुस्सूसीअमाणं सुस्सूसीअमाणी, सुस्सूसीअमाणा चकमंत
चकमती, चकता
चकममाणं
चकममाणी, चंक्रममाणा चकमिज्जंती, चंकमिज्जंता
चकमिज्जतं
चक्रमीअंत
कमीअंती, कमीअंता
चं कमीअमाणं
कमीअमाणी, चंकमीअमाणा
कर – करावीअंतो, करावीअमाणो
करावीअंतं, करावीअमाणं करावीअंती, करावीअंता
कारीअंतो, कारी अमाणो कारिज्जतो, कारिज्जमाणो
कराविज्जं तो, कराविज्जमाणो कराविजंतं, कराविजमाणं करावी अमाणी, करावीअमाणा कारीअंतं, कारीअमाणं कराविज्जंती, कराविज्जंता कारिज्जंतं, कारिज्जमाणं कराविज्जमाणी,
कराविज्जमाणा
कारीअंता, कारीअंती कारीअमाणी, कारीअमाणा
कारिज्जती, कारिज्जता करिज्माणी, कारिज्जमाना
भूतकृदन्त
(४४) धातु में अ, द और त प्रत्यय जोड़ने से भूतकालीन कृदन्त के रूप
बनते हैं ।
(४५) धातु में अ, द और त प्रत्यय जोड़ने पर भूतकाल में धातु के अन्त्य अ काइ होता है । यथा
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V
V
V
V
V
३२०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण गम्-गम + अ = गमिओ (धातु के अन्त्य अ को इ किया) गत:-गया
गम + द = गमिदो --, - <गत:-गया गम + त = गमितो
<गत:-गया चल-चल + अ = चलिओ
(चलितः-चला चल+द = चलिदो
दवलित:- चला चल + त = चलितो
<< चलित:-चला कृ०-कर+अ = करिओ
< कृतः-किया कर + द = करिदो
<कृत:-किया कर + त = करितो
कृतः-किया पठ-पढ + अ = पढिओ
< पठित:-पढा पढ + द = पढिदो
< पठितः-पढा पढ + त = पढितो
< पठित:-पढा हस्-हस + अ = हसि
< हसितम्-हँसा हस + ६ = हसिदं
< हसितम्-हँसा हस + त = हसितं
< हसितम्-हँसा लस-लस + अ = लसिअं
<< लसितम्-चमका, सटा-चिपका लस + द = लसिदं
८ लसितम्-, , लस + त = लसितं
< लसितम् --- " खर -तुर + अ = तुरि
<त्वरितम्-शीघ्रता की तुर+द= तुरिदै
<त्वरितम्- , तुर + त = तुरितं
<त्वरितम् , शुश्रूष्–सुस्सूस+अ = सुस्सूसिअं
शुश्रूपितम्-सेवा की, शुश्रूषा की सुस्सूस + द= सुस्सूसिदं < शुभूषितम्- " सुस्सूस + त = सुस्सूसितं
< शुभूषितम्- , " क्रम -चंकम + अ = चंकमिअं
, < चङक्रमितम्-घूमा या बहुत चला चंकम + द= चंकमिदं
< चक्रमितम्-, चंकम + त = चंकमितं
<चङ क्रमितुम्- , ध्यै-झा + अ = झा-भायं
<ध्यातम्-ध्यान किया झा+द= भादं
<ध्यातम्-ध्यान किया का+त-झातं
<ध्यातम्-ध्यान किया लू -लु + अ = लुअं
दलूनम्-काटा लु+६= लुदं
Kलूनम् -काटा लु+त= लुतं
(लुनम्-काटा
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हू-भू-हू + अ = हूअं
हु + द = हूदं
हू + त = हूतं
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
भूतम् — हुआ
भूतम् - हुआ
भूतम् - हुआ
प्रेरणार्थक भूतकृदन्त
( ४६ ) धातु में प्रेरणासूचक आवि और इ प्रत्यय जोड़ने के उपरान्त भूतकृत् प्रत्यय जोड़ने से प्रेरणार्थक भूतकृदन्त के रूप होते हैं। यथा
कर करावि + अ = कराविअं
करवाया
grodems
करावि + द = कराविदं करावि + त = करावितं कर-कार + इ = कारि ( इ प्रत्यय होने पर उपान्त्य अ को दीर्घ हो जाता है ) -
कारितम् - कराया, कारितम् -कराया, करवाया कारितम् - कराया, करवाया
कारि + अ = कारिअं कारितम् कारि + द = कारिदं, कारि + त = हस् + आवि = इसावि + अ = हसाविअं त = इसावितं हासितम् - हँसाया, हँसवाया
: कारितम् - कराया, करवाया
२१
३२१
हसावि + द = हसाविदं हसावि +
"
अनियमित भृतकृदन्त
( ४७ ) कुछ ऐसे भी भूतकालीन कृदन्त रूप मिलते हैं, जिनमें उपर्युक्त नियम लागू नहीं होता । ध्वनिपरिवर्तन के नियमों के आधार पर संस्कृत से निष्पन्न कृदन्त रूपों को प्राकृत रूप बनाया जाता है । यथा
गयं गतम् – मध्यवर्ती त का लोप हो गया है, और अवशेष स्वर के स्थान पर श्रुति हुई है।
ܢ
मयं मतम् —,,
"9
""
कडं ८ कृतम् – ककारोत्तर ऋ के स्थान पर अ और त के स्थान पर 'प्रत्यादौ डः" (८/१/२०६ ) सूत्र से ड हुआ है ।
हडं हृतम् — हकारोत्तर ऋकार को अ और त के स्थान पर ड ।
मड दमृतम् — मकारोत्तर ऋकार को अ और त को ड हुआ है । जिअंजितम् - मध्यवर्ती तकार का लोप और अ स्वर शेष । तप्तं तप्तम् — संयुक्त प् का लोप और त को द्वित्व |
कथं कृतम् – विकल्प से मध्यवर्तीत का लोप होने से अ स्वर शेष और अ को श्रुति ।
दट्ठ दृष्टम् — संयुक्त ष का लोप और ट को द्वित्व तथा ट को ठ; दकारोत्तर ऋ
को अ ।
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३२२
अभिनव प्राकृत व्याकरण
मिलाणं, मिलानं मलानं-स्वरभक्ति के नियम द्वारा म और ल का पृथक्करण और इकारागम।
अक्खायं < आख्यातम्-दीर्घ अ को ह्रस्व, ख्या के स्थान पर क्ख, त का लोप और अ स्वर शेष को य श्रुति ।
निहियं < निहितम्-तकार का लोप, अ स्वर शेष और य श्रुति । आणत्तं <आज्ञप्तम्-ज्ञ के स्थान पर ण, संयुक्त प का लोप और त को द्वित्व । संखयं संस्कृतम् - स्क के स्थान पर ख, त का लोप, अ स्वर शेष और य श्रुति ।
आकुटुं < आक्रु-म्-क्रु में से संयुक्त रेफ का लोप, संयुक्त ष् का लोप, ट को द्वित्व, द्वितीय ट को ठ।
विग8< विनष्टम् –न के स्थान पर ण, ष्ट के स्थान पर ह। पणटुं प्रणष्टम् -प्र के स्थान पर प,ष्ट के स्थान पर ट। मटुं< मृष्टम्-मकारोत्तर के स्थान पर अ, ष्ट के स्थान पर छ । हयं <हतम् -मध्यवर्ती त का लोप, अ स्वर शेष, य श्रुति । जायं जातम् -,
गिलाणं, गिलानं < ग्लानम् -स्वर भक्ति के नियम से ग्ला का पृथक्करण, अकार के स्थान पर इत्व।
परूविअं< प्ररूपितम् –प्र के स्थान प, मध्यवर्ती प को व, त का लोप और अ स्वर शेष।
ठियं < स्थितम्-स्थ के स्थान पर ठ, त लोप, अ स्वर शेष और य श्रुति । पिहियं < पिहितम्-त लोप, अ स्वर शेष और अ के स्थान पर य ।
पन्नत्तं, पणत्तं ८ प्रज्ञप्तम्-प्र के स्थान पर प, ज्ञ को ण्ण, संयुक्त प का लोप और त को द्वित्व ।
पन्नवियं < प्रज्ञापितम्-प्र के स्थान पर प, ज्ञा के स्थान पर न्न, प को व, त लोप और अ शेष तथा य श्रुति ।
सक्वयं संस्कृतम्-स्कृ के स्थान पर क, त लोप, य श्रुति तथा 'सं' के अनुस्वार का लोप।
किलिटुं < क्लिष्टम्-स्वरभक्ति के नियमानुसार पृथक्करण, इकार का आगम, ष्ट के स्थानपर ट।
सुयं < श्रुतम्-श्रु के स्थान पर सु, तकार का लोप, य श्रुति । संसटुं< संसृष्टम्-सकारोत्तर के स्थान पर अ, ष्ट के स्थान पर ट। घटुं<घृतम्-घकारोत्तर ऋ के स्थान पर अ, ष्ट के स्थान पर ह ।
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
भविष्यत्कृदन्त
( ४८ ) धातु में इस्संत, इस्समाण और इस्सई प्रत्यय जोड़ने से भविष्यसूचक कृदन्त के रूप बनते हैं ।
=
कृ कर. + इस्संत करिस्तो करिष्यन् — करता होगा ।
कर + इस्समाण = करिस्समाणो करिष्यमाण:- — करता होगा ।
कर + इस्लई = करिस्सई 4 करिष्यन्ती—करती होगी ।
कर + आवि = करावि + इस्समाण = कराविस्समाणो कारापयिष्यमाणः । करावि + स्संतो = कराविस्संतो कारापयिष्यन् – कराता होगा ।
३२३
हेत्वर्थ कृत् प्रत्यय
( ४९ ) धातु में तुं, दुं और तए हेत्वर्थ कृत् प्रत्यय जोड़ने से हेत्वर्थं कृदन्त के रूप बनते हैं।
(१०) उपर्युक्त हेत्वर्थ कृत्प्रत्ययों के जोड़ने पर पूर्ववर्ती अको इ और ए हो जाता है ।
तुं ( उं ), ढुं
भण्-भण + तं ( उं ) = भणिउं (प्रत्यन जोड़ने के पूर्व अकार को इत्व हुआ ) । भण + तुं ( उ ) = भणे - प्रत्यय के पूर्ववर्ती अकार को एत्व हुआ ।
3
..
भण + तुं = भणितुं, भणेतुं - अकार को इत्व एवं एत्व होने से दोनों रूप बनेंगे । भण + दुं = भणि, भणेदुं - मणितुम् । हस - हस +तुं (उं) = हसिउं, इसेउं - प्रत्यय के पूर्ववर्ती अकार को इत्त्र और एव । इस + तुं = हसितुं, हसेतुं, हसिदु, हसेदुं हसितुम् ।
हो भू - होअ + तुं ( उ ) - होइउं – अकार के स्थान पर इकार ।
=
एव ।
39
होअ + तं ( उ ) = होएउं
19
59
9
होअ + तं; होअ + दुं = होइतुं, होएतुं होइदु, होएदु भवितुं ।
प्रेरणार्थक हेतु कृदन्त
( ११ ) धातु में प्रेरणार्थक प्रत्यय जोड़ने के पश्चात् तुं, दुं प्रत्यय जोड़े जाते
। यथाभण्
[-भण + आवि = भणावि + तुं (उं) = भणाविडं भण + आवि = भणावि + दुं = भणाविदु कर कर + आवि = करावि + तुं (उं) = कराविडं कर + आवि = करावि + दुं = कराविदु, करावितुं
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३२४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण कर कार + तु. (उ) = कारिउं, कारितं, कारिदुं हस्-हास + तु (उ) = हासिउं, हासेउं, हासिदु, हासितुं शुश्रूप-सुस्सूस + तुं (उ) = सुस्सूसिउं, सुस्सेउं, सुस्सूसिदु, सुस्सूसितं चक्रम्य-चंकम + तु (उ) = चंकमिउं, चंकमेडं, चंकामिदु, चंकमित
त्तए कृ-कर - कर <त्तए = करेत्तए, करित्तए < कर्तुम् अकार को ए होने पर .
करेत्तए और इत्व होने पर करित्तए रूप बने हैं। सिझ-सिझ + त्तए = सिज्झित्तए, सिज्झेत्तए सेदूथुम् उववज्ज–उववज्ज + त्तए = उववज्जित्तए, उववज्जेत्तए < उपपत्तुम् विहर-विहर + त्तए = विहरित्तए, विहरेत्तए < विहर्तुम् पास -पास + त्तए = पासित्तए, पासेत्तए द्रष्टुम् गम्-गम + त्तए = गमित्तए < गन्तुम् । प्र + व्र-पव-पन्नज + त्तए = पव्वइत्तए, पव्वएत्तए < प्रव्रजितुम् आ + हृ-आहर--आहार + त्तए = आहारित्तए, आहारेत्तए-आहर्तुम् दा-दल-दल + त्तए = दलइत्तए, दल एत्तए < दातुम् अच्चासाद्-अच्चासाद + त्तए = अञ्चासादेत्तए < अत्याशातयितुम् समभिलोक-सम हलोक + त्त ए = समहिलोइत्तर, समहिलोएत्तए समभि
लोकयितुम् अनियमित हेत्वर्थ कृदन्त ( ५२ ) कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनमें हेत्वर्थक कृत्प्रत्यय नहीं जोड़े जाते हैं; बल्कि जिनकी सिद्धि ध्वनिपरिवर्तन के नियमों के आधार पर होती है। यथा
कृ-कृ + तं = का + तं (उ) = काउंर कतु–ककारोत्तर अ के स्थान पर आ आदेश होने से।
ग्रह + तं = घेत् + तं = घेत्तं< ग्रहीतुम्-संस्कृत की ग्रह धातु के स्थान पर घेत आदेश हुआ है और प्रत्यय का संयोग होने से घेत्तं रूप बना है।
त्वर + तुं = तुर + तुं (उ) = तुरिउं, तुरेउं त्वरितुम्-प्रत्यय के पूर्ववर्ती अकार को इत्व और एत्व होने से।
दृश् + तुं—द8 + तुं (उ) = दटुं-दृश् के स्थान पर दट्ट आदेश हुआ है। भुज् + तुं-भोत् + तुं = भोत्तं । भोत्तम् मुच् + तु = मोत् + तु = मोर मोक्तुम् रुद् + तु = रोत् + तु=रोत्तुंर रोदितुम्
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वच् + तुं = वोत् + तुं = वोत्तुं वक्तुम्
♡
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
लह् + तुं = लद्धुं < लब्धुम्
ܩ
रुध् + तुं = रोद्धुं < रोद्धुम्
युध + तुं = योद्धुं, जोद्धुं योद्धुम्
सम्बन्ध भूतकृदन्त
( ५३ ) धातु में तं, तूण, तुआण, अ, इत्ता, इताण, आय और आए प्रत्यय जोड़ने से सम्बन्धसूचक भूतकृदन्त के रूप बनते हैं ।
( १४ ) तुं, अ, इत्ता और आय प्रत्यय होने पर प्रत्यय के पूर्ववर्ती अको विकल्प से इ और ए आदेश होते हैं ।
(१५) तूण, तुआण और इत्ताण प्रत्ययों में ण के स्थान पर सानुस्वार णं आदेश होता है ।
उदाहरण
३२५
हो भू - होअ + तूं (उं) = होइउं, होएउं < भूत्वा - प्रत्यय के पूर्ववर्ती अकार के स्थान पर इत्व तथा एत्व किया है ।
होअ + अ = होइअ, होएअ< भूत्वा - प्रत्यय के पूर्ववर्ती अकार के स्थान पर इत्व तथा एत्व किया है ।
होअ + तूण (ऊण) = होइऊण, होइऊगं, होएऊण, होएऊणं < भूत्वा- -प्रत्यय के पूर्ववर्ती अकार के स्थान पर इत्व एवं एत्व के अनन्तर विकल्प से ण के ऊपर अनुस्वार किया गया है ।
होअ + तुआण ( उआण) = होइउआण, होइउआणं, होएउआणं, होएउआणं भूत्वा -- प्रत्यय के पूर्ववर्ती अकार को इत्व एवं एत्व तथा ण के ऊपर विकल्प अनुस्वार किया है।
K
हस् — इस + तुं (उं) = इसिउं, हसेउं हसित्वा - विकल्प से इत्व तथा एत्व । हस + अ = हसिअ हसेअ दहसित्वा
-भण + तु (उं)
=
99
99
हसू - इस + तूण (ऊण) = हसिऊग, हसिऊणं, हसेऊण, हसेऊणं हसित्वा - विकल्प से इत्व एवं एत्व तथा ण के ऊपर अनुस्वार |
इस + तुआण (उआण) = हसिउआण, हसिउआणं, इसेउआण, इसेउआनंद हसित्वा - विकल्प से इत्व एवं एत्व तथा ण के ऊपर अनुस्वार ।
भण
भणिउं, भणेउं भणित्वा
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३२६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
भण + अ = भणिअ, भणेअ-प्रत्यय के पूर्ववर्ती अ को इत्व एवं एत्व । भण + तूण (ऊण) = भणिऊण, भणिऊणं, भणेऊण, भणेऊणं । भण + तुमाण (उआण) = भणिउआण, भणिउआणं, भणेउआण, भणेउआणंभणित्वा।
प्रेरणार्थक सम्बन्धसूचक कृदन्त (५५) प्रेरणार्थक बनाने के लिए प्रेरणासूचक प्रत्यय जोड़ने के अनन्तर ही सम्बन्धक भूत वृत्प्रत्ययों को जोड़ना चाहिए। उदाहरणभण्-भण + आवि = भणावि + तु. (उ)= भगाविउ, भणावेउ;
भणावि + अ = भणाविअ, भणावेअ< भाणयित्वा भणावि + तूण (ऊण) = भणाविऊग, भणाविऊणं
भणावि + तुआण (उआण) = भणाविउआण, भगाविउआणं भाणयित्वाकहलाकर या कहलवाकर
भाण + तुं (उ) = भागिउं, भाणेउं भाग + अ = भाणिअ, भाणेअ भाण + तूण (ऊण) = भाणिऊण, भाणिऊणं, भाणेऊग, भाणेऊणं
भाण + तुआण (उआण) = भागिउआण, भाणिउआणं, भाणेउआण, भाणेउआणं कर-कर + आवि = करावि + तु (उ) = कराविउं, करावे
करावि + अ = कराविभ, करावे. करावि + तूण (ऊग) = कराविऊण, कराविऊणं < कारयित्वा कार + तुं (उं) = कारिउं, कारेउ कार + अ = कारिअ, कारे कार + तूण (ऊण) = कारिऊण, कारिऊणं, कारेऊण, कारेऊगं
कार + तुआणं (उआणं) = कारिउआण, कारिउआणं, कारेउआण, कारेउआणं । शुश्रूष-सुस्सूस + तु (उ) = सुस्सूसिउ सुस्सूसेउ
सुस्सूस + अ = सुस्सूसिअ, सुस्सूसेअ सुस्सूस +तूण (ऊण) = सुस्सूसिऊण, सस्सूसिऊणं, सुरसूसेऊण, सुस्सूसेऊणं सुस्सूस + तुआण (उआण) = सुस्सूसिउआण, सुस्सूसिउआणं, सुस्सूसेउआण,
सुस्सूसेउआणं। चक्रम-चंकम + तु (उ) = चंकमिउ, चंकमेउ
चंकम + अ = चंकमिअ, चंकमेअ
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
चंक्रम + तूण (ऊण) = चंक्रमिऊण, चंक्रमिऊणं, चंकमेऊण, चंकमेणं "क्रम + आ = चैकमिउआण, चंकमिउआणं, चकमेउआण, चकमेउआणं
وا
हस् + इत्ता = हसित्ता, हसेत्ता
कर् + इत्ता = करिता, करेत्ता,
कह + इत्ता = कहित्ता, कद्देत्ता गम + इत्ता
इत्ता प्रत्यय
हसित्वा - विकल्प से
गह + आय = गहाय
कृत्वा -
कथयित्वा —
गमित्ता, गमेत्ता <गत्वा
-
आय प्रत्यय
आए प्रत्यय
संपेद्द + आए = संपेहाए ८ संप्रेक्ष्य
आया + आए = आयाए < आदाय
इत्ताण प्रत्यय
हस + इत्ताण = हसित्ताण, हसेत्ताण, हसित्ताणं, हसेत्ताणं हसित्वा - विकल्प से इत्व, एत्व तथा ण के ऊपर अनुस्वार
कर + इताण = करिताण, करित्ताणं, करेत्ताण, करेत्ताणं कृत्वा - विकल्प से इत्व, एत्र तथा ण के ऊपर अनुस्वार
99
99
ܕܙ
गम + इत्ताण = गमित्ताण, गमित्ताणं, गमेत्ताण, गमेत्ताणं गत्वा - विकल्प से इत्व, एत्व तथा ण के ऊपर अनुस्वार
""
ग्रह - घेत् + तुआण = घेत्तुआण, घेत्तआणं —,,
"
अनियमित सम्बन्धक भूत कृदन्त
कृ + तुं = काउं— ककारोत्तर ऋकार के स्थान पर आकार ।
क्रू + तूण = काऊणं
""
कृ+ तुआण = काउआण, काउआणं
""
ग्रह - घेत् + तु = घेत्तुं - ग्रह के स्थान पर घेत आदेश होता है ।
ग्रह. - त् + तूण घेतून घेणं
"
इत्व और एत्व
""
"
"9
دو
३२७
29
त्वर,—तुर् + तुं (उं) = तुरिडं, तुरेउं – विकल्प से अ को इत्व तथा एत्व
तुर + अ = तुरिअ, तुरेअ -,,
१७.
तुर + तूण (ऊण) = तुरिऊण, तुरिऊणं, तुरेऊण, तुरेऊणं - विकल्प से इस्व, एत्व तथा ण के ऊपर अनुस्वार ।
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३२८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण तुर + तुआण (उआण) = तुरिउआण, तुरिउआणं, तुरेउआण, तुरेउआणंविकल्प से इत्व, एत्व तथा ण के ऊपर अनुस्वार ।
दृश् + तं = दह्र; दट्ठ+ तूण = दटूण, दणं; दट्ठ + तुआण = दटुआण, दहुआणं भुज + तं = भोत् + तं = भोत्तं-भुज के स्थान पर भोत् ।। भोत् + तूग = भोत्तण, भोत्तर्ण; भोत् + तुआण = भोत्तुआण, भोत्तुआणं मुच् + तुं = मोत् + तुं = मोत्तुं मुच् + तूण = मोत् + तूण = मोत्तण, मोत्तूणं मुच् + तुआण = मोत् + तुआण = मोत्तुआण, मोत्तुआणं रुद् + तु =रोत् + तुं = रोत्तं रुडू + तूण = रोत् + तूण = रोत्तूण, रोत्तणं रुद् + तुआण = रोत् + तुआण = रोत्तुआण, रोत्तुआणं वच् + तं =वोत् + तं = वोत्तं । वच् + तूण = वोत् + तूण = वोत्तूण, वोत्तणं वच् + तुआण = वोत् + तुआण = वोत्तुआण, वोत्तुआणं
( ५६ ) संस्कृत के कृदन्त रूपों में ध्वनि परिवर्तन करने से प्राकृत के कृदन्त रूप बन जाते हैं। ध्वनिपरिवर्तन के नियम प्रथम अध्याय के ही प्रवृत्त होते हैं ।
आदाय आयाय-मध्यवर्ती द का लोप, आ स्वर शेष तथा यश्रुति ।
गत्वा = गत्ता, गच्चा-संयुक्त व का लोप और त को द्वित्व; त्वा के स्थान पर संयुक्त ध्वनि परिवर्तन के नियमानुसार च ।
ज्ञात्वा > नच्चा, णचा-ज्ञ को हस्व तथा ज्ञ के स्थान पर न या ण और त्वा को चा। बुद्ध वा > बुज्झा-संयुक्त व का लोप और द्ध के स्थान ज्झ । भुक्त्वा भोच्चा-भकारोत्तर उकार के स्थान पर ओकार; और क्त्वा के
स्थान पर चा।
मत्वा>मत्ता, मच्चा-संयुक्त व का लोप और त को द्वित्व; त्व के स्थान पर च । वन्दित्वा > वंदित्ता-संयुक्त व का लोप और त को हित्व । विप्रजहाय > विप्पजहाय-प्र में से र का लोप और प को द्वित्व । सुप्त्वा = सुत्ता-संयुक्त प और व का लोप, त को द्वित्व ।
संहत्य साहटु-अनुस्वार का लोप, अ को आत्व, हकारोत्तर ऋकार को अ तथा त्य के स्थान पर टु आदेश ।
इत्वा हता-हन् धातु के नकार को अनुसार और संयुक्त व का लोप ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३२६
कृत्य प्रत्यय या विध्यर्थ प्रत्यय अंग्रेजी में जो कार्य ( Potential Participle ) पोटेंशल पार्टीसिप्ल से लिया जाता है, वही कार्य प्राकृत में कृत्य या विध्यर्थं प्रत्ययों से लिया जाता है । हिन्दी में विध्यर्थ प्रत्ययों का कार्य 'चाहिए' या 'योग्य' द्वारा प्रकट किया जाता है ।
( ५७ ) धातु में तब्ध, अणिज और अणीम प्रत्यय जोड़ने से विध्यर्थ कृदन्त रूप बनते हैं।
(५८) तम्ब या दव प्रत्यय जोड़ने पर प्रत्यय के पूर्ववर्ती अकार को इ तथा ए आदेश होता है। (५९) संस्कृत के य प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ज' प्रत्यय होता है ।
उदाहरण धातु तव्य
अणिज, अणीअ ज्ञा-जाण जाणिअन्वं, जाणेअव्वं जाणणिज्ज, जाणणीअं ज्ञा-मुण
मुणिअव्वं, मुणेअव्वं मुणणिज्ज, मुणणी स्था-थक्क
थक्किअव्वं, थक्केअव्वं थक्कणिज्ज, थक्कणी स्था-चिट्ठ चिट्टअव्वं, चिट्टेअव्वं चिट्ठणिजं, चिट्ठणी पा-पिज्ज पिजिअव्वं, पिज्जेअव्वं पिजणिजं, पिजगी श्रु-सुण
सुणिअव्वं, सुअवं सुणणिज्ज, सुणणी हन्-हण
हणिअव्वं, हणेअव्वं हणणिजं, हणणी धू-धुण
थुणिअव्वं, थुगेअव्वं थुणणिज्ज, धुणीणों धू-धुव धुविअव्वं, थुवेअव्वं
थुवणिज्ज, धुवणीअं भू-हुव
हुविअव्वं, हुवेअव्वं हुवणिज्ज, हुवणी
हुणिअव्वं, हुणेअव्वं हुणगिज्ज, हुणणी सु-सव सविअव्वं, सवेअव्वं
सवणिज, सवणी स्तु-थुण
थुणिअव्वं, थुणेअव्वं थुणणिज्ज,थुणणी लू-लुण लुणिअव्वं, लुणेअव्वं लुणणिज्जं, लुणणीअं पु-पुण पुणिअव्वं, पुणेअन्वं पुणणिज्ज, पुणणी कृ-कुण कुणिअव्वं, कुणेअव्वं
कुणणिज्जं, कुणणीअं कृ-कर (काम) कायव्वं,
करणिज्ज, करणी -जर जरिअव्वं, जरेअन्वं
जरणिज्जं; जरणी धृ-धर
घरिअन्वं, धरेअन्वं धरणिज्ज, धरणी
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३३०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
तृ-तर हृ-हर सु-सर स्मृ-सुमर जागृ-जग्ग शक-तीर शक्-सक्क पच , क्षिप --सोल्ल मुच-मेल्ल सिच-सिञ्च गर्ज --बुक राज-छज्ज लस्ज-जीह भुज-भुंज कथ-बोल्ल सिध्-हक्क खिद्-खिज्ज कुध-कुज्झ स्वप्-लोट्ट लिप-लिम्प लुभ-लुब्भ क्षुभ-खुब्भ भ्रम-दुंदुल गम्-बोल रम्-मोट्ठाअ-य भ्रंश-भुल्ल नश-नस्स दृश्-देक्ख स्पृश-फास स्पृश्–छिव भष-बुक्क पुष–पूस
तरिअव्वं, तरेअव्वं . हरिअव्वं, हरेअव्वं सरिअव्वं, सरेअव्वं सुमरिअव्वं, सुमरेअव्वं जग्गिअव्वं , जग्गेअव्वं तीरिअव्वं, तीरेअव्वं सक्किअव्वं, सक्केअव्वं सोल्लिअव्वं, सोल्लेअव्वं मेलिभवं, मेल्लेअव्वं सिञ्चिअव्वं, सिञ्चेअव्वं बुक्किअव्वं, बुक्केअव्वं छजिअव्वं, छज्जेअव्वं जीहिअव्वं, जोहेअव्वं भुजिअवं, मुंजेअव्वं बोल्लिअव्यं, बोल्लेअव्वं हक्किअव्वं, हक्केअव्वं खिजिअव्वं, खिजे अव्वं कुझिअव्वं, कुशेअव्वं लोट्टिमव्वं, लोट्टे अव्वं लिम्पिअव्वं, लिम्पेअव्वं लुब्भिभवं, लुभेअव्वं खुब्भिअव्वं, खुब्भेअव्वं ढुंढुलिअव्वं, दुंदुलेअव्वं बोलिअव्वं, बोलेअव्वं मोहाइअव्वं, मोट्टाएअन्वं भुलिअब्व, भुल्लेअव्वं नस्सिअव्वं, नस्सेअव्वं देक्खिअवं, देखेअव्वं फासिअव्वं, फासेअव्वं छिविअव्वं, छिवेअव्वं बुक्कि अव्वं, बुक्केअव्वं पूसिअवं, पूसेअव्वं
तरणिज्ज, तरणीअं हरणिज्जं, हरणी सरणिज्ज, सरणी सुमरणिज्ज, सुमरणीअं जग्गणिज्ज, जग्गणी तीरणिज्ज, तीरणीअं सक्कणिज्ज, सक्कणी सोल्लणिज, सोलणी मेल्लणिज, मेल्लणी सिञ्चणिज्ज, सिञ्चिणी दुक्कणिज्ज, बुक्कणी छजणिज्जं, छजणी जीहणिज, जीहणी भुंजणिजं, भुंजगी बोल्लणिज, बोल्लगी हक्कणिज, हक्कणी खिज्जणिज्जं, खिजगी कुज्झणिज, कुझणी लोट्टणिज, लोटणीअं लिम्पणिज्ज, लिम्पणीअं लुब्भणिजं, लुब्भणी खुब्भणिज, खुब्भणी दुंदुलणिज, ढुंदुलणी बोलणिज, बोलणीअं मोहायणिज, मोट्ठायणी भुल्लगिज, भुल्लगी नस्सणिज, नस्सणीअं देवखणिज्जं, देवखणीअं फासणिज्ज, फासणीअं छिविणज्ज, छिवणीअं बुक्कणिज्ज, बुक्कणी पूसणिज्जं, पूसणी
tontti
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण हृष्-हरिस हरिसिअव्वं, हरिसेअव्वं हरिसणिज्ज, हरिसणीअं मुह -मुझ मुज्झिअव्वं, मुझेअव्वं मुज्झगिज्ज, मुज्झणीअं इष्-इच्छ इच्छिअन्वं, इच्छेअव्वं इच्छणिज्ज, इच्छणी भिद्-भिन्द भिन्दिअव्वं, भिन्देअव्वं भिन्दणिज्ज, भिन्दणी युध-जुज्झ जुझिअव्वं, जुज्झेअन्वं जुज्झणिज्ज, जुझणीअं बुध्-बुज्झ बुझिअन्वं, बुज्झेअव्वं बुज्झणिज्ज, बुज्झणी पत्-पड
पडिअव्वं, पडेअव्वं पडणिज्जं, पडणी सद्-सड
सडिअव्वं, सडेअव्वं सडणिज्ज, सडणी शद्-झड झडिअव्वं, झडेअव्वं झडणिज्ज, झडणी वृध-वड्ढ वड्डिअन्वं, वड्ढेअव्वं वड्ढणिज्ज, वड्ढणी नृत्-नच
नच्चिअन्वं, नच्च अव्वं नञ्चणिज्ज, नच्चणी रुद्-रुव
रुविअव्वं, रुवेअव्वं रुखणिज्ज, स्वणी नम्-नव
नविअव्वं, नवेअन्वं नवणिज्ज, नवणी विसृज-वोसिर वोसिरिअव्वं, वोसिरेअव्वं वोसिरणिज्जं, वोसिरणीअं अट्-अट्ट
अट्टिअव्वं, अट्टेअव्वं अट्टणिज्ज, अट्टणी कुप्-कुप्प कुप्पिअन्वं, कुप्पेअव्वं कुप्पणिज्जं, कुप्पणी नट-नट्ट
नटिअव्वं, नट्टेअव्वं नदृणिज्ज, नट्टणी सिव-सिव्व सिविअन्वं, सिव्वेअव्वं सिव्वणिज्ज, सिव्वणी मृग- मग्ग मग्गिअन्वं, मग्गेअन्वं मरगणिज्ज, मग्गणीअं वन्द्-वन्द वन्दिअव्वं, वन्देअव्वं वन्दणिज्ज, वन्दणीअं ग्रह-घेत्
घेत्तन्वं वच-वोत् वोत्तव्यं रुद्-रोत्
रोत्तव्वं भुज-भोत् भोत्तव्वं मुच्-मोत् दृश-दट्ठ
दट्ठव्वं हस्-हस
हसिअव्वं, हसेअव्वं हसिणिज्ज, हसणीअं
प्रेरक विध्यर्थ कृदन्त (६० ) धातु में प्रेरक प्रत्यय जोड़ने के अनन्तर विध्यर्थक तब्ध, अणिज और अणीभ प्रत्यय जोड़े जाते हैं। यथा-... हस-हस + आवि = हसावि + तव्वं = हसावितव्वं, हसाविअव्वं र हसापयितव्यम्
हसावि + अणिज्ज = हसावणिज, हसावणीअं< हसापनीयम्
मोत्तव्वं
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३३२
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
अनियमित विध्यर्थ कृदन्त
K
कज्जं कार्यम् - आकार को हस्व, संयुक्त रेफ का लोप, य को ज और द्वित्व । किच्चं कृत्यम् - ककारोत्तर ऋकार के स्थान पर इकार, स्य के स्थान पर च्च । गेज् मह्यम् - ग्राह्य के स्थान पर गेज्झ आदेश होता है ।
गुज्भं गुह्यम् - ह्य के स्थान पर ज्झ ।
ववम् संयुक्त रेफ का लोप, य लोप और ज को द्वित्व ।
वज्जं <वद्यम् — संयुक्त द का लोप, य के स्थान प ज और ज को द्वित्व । वच्चं वाच्यम् - संयुक्त का लोप और च को द्वित्व |
वक् वाक्यम् — संयुक्त य का लोप और क को द्विव ।
जन्नं जन्यम् - संयुक्त य का लोप और न को द्वित्व ।
भव्यं भव्यम् — संयुक्त य का लोप और व को द्वित्व |
पेज्जं <पेयम्—संस्कृत के य प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में ज्ज होता है ।
गेज्जं गेयम् -
""
पच्चं << पाच्यम् —पकारोत्तर आकार को हस्व, संयुक्त यकार का लोप और च
Satara |
"
"
जज्जं < जय्यम्-यय के स्थान पर ज्ज हुआ है ।
सज्यं सह्यम् - ह्य के स्थान पर ज्झ ।
देज्जं, देअं 4 देयम् —संस्कृत के य प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में ज, द्वितीय रूप में य का लोप और अ स्वर शेष ।
हस + इर = हसिरोद हसनशीलः नव + इ = नविरो नमनशीलः हसाव + इ = हसाविरो < हासनशीलः हस + इ + आ (स्त्री प्र० ) = हसिरा इस + इ + ई ( स्त्री प्र० ) = हसिरी
शीलधर्म वाचक
शील, धर्म तथा भली प्रकार सम्पादन इन तीनों में से किसी एक अर्थ को व्यक्त करने के लिए प्राकृत में इर प्रत्यय होता है ।
उदाहरण
} इसनशीला
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३३३
अनियमित शीलधर्म वाचक कृदन्त पायगो, पायओ< पाचकः-च कार का लोप, अ त्वर शेष और य श्रुति, ककार का लोप और विसर्ग का ओत्व, विकल्प से क के स्थान पर ग।
नायगो, नायओर नायक:-विकल्प से क के स्थान पर ग तथा विकल्पाभाव पक्ष में क का लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व।
नेआ, नेता<तकार का लोप और आ स्वर शेष । विजंदविद्वान् -द्व के स्थान पर ज, आकार को हस्व । कत्ताकर्ता-संयुक्त रेफ का लोप और त को द्वित्व । विकत्तार विकर्ता-संयुक्त रेफ का लोप और त को द्वित्व । वत्ता वक्ता-संयुक्त ककार का लोप और त को द्वित्व । छेत्ता छेत्ता कुंभआरोद कुम्भकारः-ककार का लोप, आ स्वर शेष, विसर्ग को ओत्व ।
कम्मगरो< कर्मकर:-संयुक्त रेफ का लोप, म को द्वित्व, क को ग और विसर्ग का ओत्व ।
भारहरोभारहर:-विसर्ग के स्थान पर ओत्व । थगंधयोरस्तनंधयः-स्तन के स्थान पर थण आदेश हुआ है। परंतवोदपरंतपः-प के स्थान पर व और विसर्ग को ओत्व ।
लेहओ< लेखक:-ख के स्थान पर ह, ककार का लोप, अ स्वर शेष और विसर्ग को ओत्व ।
हतार हन्ताहन् धातु के नकार के स्थान पर अनुस्वार ।
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धातुकोष
प्राकृत में उपसर्ग के साथ मिलने से धातु में अर्थ परिवर्तन तो होता ही है, पर उसकी आकृति भी नयी हो जाती है । उपसर्ग या उपपद सहित धातु का मूलरूप ( Root ) नया प्रतीत होता है । अत: सुविधा की दृष्टि से उपसर्ग सहित धातुकोष दिया जा रहा है ।
अइइ
अइक्कम
अइगच्छ
अइच्छ
अट्ठा
अइयर
अश्वत्त
अश्वय
अइसय
अंगीकर
अंच
अंबाड
अकंद
अक्कम
अक्कस
अक्कोस
अक्ख
अक्खड
aftaa
अक्खोड
अति + इ
अति + क्रम्
अति + गम्
√ गम्
अति + स्था
अति चर्
अति + √वृत्
अति +
अति + शी
अङ्गी + क
कृषू, अञ्च
खरण्ट्; तिरस् +
आ + कम्
√ गम्
अ
आ + √क्रुश्
आ + √ख्या
मात करना
स्वीकार करना
खींचना, जोतना; पूजना लेप
देना, तिरस्कार करना
आ+ √क्रन्द्; आ + √क्रम् रोना, चिल्लाना; आक्रमण करना
आक्रमण करना
आ + √स्कन्दू आ+क्षिप्
उल्लंघन करना
अतिक्रमण या उल्लंघन करना
वीतना
कृष; आस्फोट
जाना, गमन करना उल्लंघन करना
39
"
अतिक्रमण करना
उल्लंघन करना
करना; खरादना; उपालम्भ
जाना
आक्रोश करना,
कहना, बोलना
गाली देना
आक्रमण करना
आक्षेप करना, टीका करना, दोषारोपण करना
फेंकना,
म्यान से तलवार खींचना; थोड़ा या
एक बार झटकना
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्ची +क
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३३५ अग्घ राज, अई शोभना, चमकना; योग्य होना
लायक होना अग्घा मा+बा
सूंघना अञ्च अर्च
पूजना, सत्कार करना अञ्चासाय अत्या + Vशातम् अपमान करना, हैरान करना अच्चीकर
प्रशंसा करना अच्छ आस्
बैठना अच्छिद आ+ छिद्
छेद करना, काटना अच्छोड आ + छोटय
पटकना, पछाड़ना, सींचना, छिटकना अज्ज अर्ज
पैदा करना, उपार्जन करना अज्जाव आ + ज्ञापय
आज्ञा करना, हुक्म करना अज्झयाव
अधि + आप पढ़ना, सीखना अज्झवस अध्य + Vवस् विचार करना, चिन्तन करना अमरस आ +
आक्रोश करना, अभिशाप देना अमावस अध्या + Vवस् रहना, वास करना अझोववज्ज अध्युप + पद् अत्यासक्त होना, आसक्ति करना अट, अड अट्
भ्रमण करना, घूमना अडखम्म .
सँभालना, रक्षण करना अडक्ख
फेंकना, गिरना अण
आवाज करना, जानना, समझना अणुअंच अनु वृष्
पीछे खींचना अणुकंप अनु + कम्प
दया करना अणुकड्ढ अनु + कृष खींचना, अनुसरण करना अणुकर, अणुकुण अनु +1क
अनुकरण करना, नकल करना अणुकह अनु + Vथ्
दुहराना, अनुवाद करना, पीछे .
बोलना अणुक्कम अनु + क्रम्
अतिक्रमण करना अणुगच्छ, अणुगम अनु + गम्
पीछे चलना, अनुगमन करना, अनु
सरण करना अणुगवेस अनु + गवेष .. - खोजना, शोधना, तलाश करना अणुगिल अनु + V]
भक्षण करना अणुग्गह अनु + ग्रह-..-- कपा करना
क्षिप्
भण्
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--------------------------------------------------------------------------
________________
३३६
अणुग्घास
अणुचर
अणुचि
अनु +व्युत्
अणुचिंत
अनु + चित्
अणुचिट्ठ, अणुट्ठा अनु + √स्था
परिदृ
अणुजा
अनु + √या
अणुजाण, अणुण्णव अनु + √ज्ञा
अणुभा
अनु + √ध्या
अणुणो
अनु + नी
अणुतप्प
अनु +प्
अनुपरि + √अट् ; वृत्
अणुपविस
अणुपस्स
अणुपाल
अणुपणी
अणुप्पदा
अणुपवाय
अणुप्पसाद
अणुप्पेह
अणुबंध
अभिनव प्राकृत व्याकरण
अणुभव
अणुभास
अनु + √प्रासय्
अनु + √चर्
अणुर्भुज
अणुभूस
अणुमण्ण
अणुमाण
अणुमाल
अणुमोय
अणुरज्ज
अनुप्र
अनु +
अनु + पा
अनुप्र + √णी
अनुप्र + √दा
अनुप्र + √त्राचय्
अनु + साय्
अनुप्र + √ई
अनु + √बंध
अनु + √भू
अनु + √भाष्
अनु + √भुज्
अनु + √भूष
अनु + √मन्
अनु + √मानय्
अनु
अनु + √मुद्
अनु + √रज्ज्
खिलाना, भोजन करना
सेवा करना, अनुष्ठान करना, पीछे
जाना
मरना, एक जन्म से दूसरे जन्म में
जाना
विचारना, याद करना, सोचना अनुष्ठान करना, शास्त्रोक्त विधान
करना
अनुसरण करना, पीछे चलना
अनुमति देना, सम्मति देना
चिन्तन करना, ध्यान करना अनुनय-विनय करना
अनुताप करना, पछताना
घूमना, परिभ्रमण करना, फिरना, फिरते जाना
प्रवेश करना, पीछे प्रवेश करना
पर्यालोचन करना
अनुभव करना, प्रतीक्षा करना
प्रणय करना
दान देना
पढ़ाना
प्रसन्न करना
चिन्तन करना, विचार करना
अणुसरण करना
अनुभव करना
अनुवाद करना, कही हुई बात को
दुहराना
भोग करना
भूषित करना, शोभित करना
अनुमति देना, अनुमोदन करना
अनुमान करना
शोभित होना, चमकना
प्रशंसा करना, अनुमति करना
अनुरक्त होना, प्रेमी होना
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
अरुंध
अणुलिंप अणुलिह
अणुवूह
अणुवेय
अणुसंचर
अणुसंध
अणुसंसर
अणुसज्ज
अणुसर
अणुसील
अणुसोय
अणुवच्च, अणुवज्ज अनु +
अणुवज्ज
गम्
अणुवय
अनु + V
अणुवास
अनु +
अणुहर अणुहव, अणुहो
अणुहुंज
अण्ण, अण्ह
अण्णे
अस
अतिउ
अत्थ
अत्थम
अत्थीकर
अत्थु
अद्द
अद्दह
अपेक्
अपोह
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
२२
अनु +/रुध्
अनु + √लिप्
अनु + लिहू
अनु + √ ह
अनु + वे
अनु +
अनुसं + √धा
अनुसं + √सृ, स्मृ
अणु +संज्
अनु + √सृ, स्मृ
अनु + √शील
अनु + √शुच्
अनु + Va
अनु + √भू
अनु + √भुञ्ज्
भुज्
अनु + √इ
अनु + √इष्
अति + √त्रुट्, √वृत्
अर्थ
अर्थी + √कृ
आ + √स्तृ
अ
आ + √द्रह
अप + √ईक्ष्
अप + ऊह
अनुरोध करना,
स्वीकार करना,
आज्ञा का पालन करना, प्रार्थना करना पोतना,
लेप करना
चाटना, छूना
अनुसरण करना
जाना
अनुवाद करना
व्यवस्था करना
अनुमोदन करना, प्रशंसा करना
_अनुभव करना
परिभ्रमण करना
खोजना, ढूढ़ना, तलाश करना
गमन करना, स्मरण करना अनुसरण करना
अनुवर्तन करना; याद करना, चिन्तन करना
पालन करना, रक्षण करना
सोचना, चिन्ता करना
अनुकरण करना, नकल करना अनुभव करना
भोग करना
भोजन करना
३३७
खाना,
अनुसरण करना
खोजना, ढूँढ़न
खूब टूटना, उल्लंघन करना
मांगना, याचना करना अस्त होना, अदृश्य होना प्रार्थना करना, याचना करना
विछाना, शय्या करना
मारना, पीटना
उबालना
अपेक्षा करना, राह देखना
निश्चय करना
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________________
अब्भंग
३३८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण अप्पाह सं+ दिश् , अधि+आपय् संदेश देना, खबर पहुँचाना; पढ़ाना,
सिखाना अप्पिण अर्पय
अर्पण करना अप्फाल आ + स्फालय आस्फोटन करना अफ्फुद आ + क्रम्
आक्रमण करना अफ्फोड आ + स्फोटय आस्फालन करना, हाथ से ताल
ठोकना अभि + अञ्ज तैल आदि से मर्दन करना, मालिश
करना अब्भत्थ अभि + अर्थय सत्कार करना अब्भस, अब्भास अभि + Vअस् सीखना, अभ्यास करना अभाअच्छ, अभिगच्छ अभ्या + गम् सम्मुख आना, सामने आना अभिउ सं + गम्
संगति करना, मिलना अब्भुक्ख अभि + Vउक्षु सिंचन करना अब्भुट्ठ अभ्युत् + स्था
आदर करने के लिए खड़ा होना अब्भुत्त स्ना, प्रदीप स्नान करना, प्रकाशित करना अब्भुद्धर अभ्युद् +Ve उद्धार करना अब्भुवगच्छ अभ्युप + गम् स्वीकार करना, पास जाना अभिकंख अभि + Vाक्ष इच्छा करना, चाहना अभिगन्ज अभि + गर्न गर्जना, जोर से आवाज करना अभिगिज्म अभि + ध
अतिलोभ करना, आसक्त होना अभिघट्ट अभि + Vवठ्ठ वेग से जाना अभिजाण
जानना अभिमुंज अभि + युज मन्त्र-तन्त्रादि से वश करना अभिणंद अभि + निन्द प्रशंसा करना, स्तुति करना अभिणिगिह अभिनि + ग्रह रोकना, अटकना अभिणिभुज्झ अभिनि + Vबुध इन्द्रियों द्वारा ज्ञान करना अभिणी अभि + नी
अभिनय करना, नाट्य करना अभितज्ज अभि + Vतर्ज तिरस्कार करना, डाँटना, ताड़न
करना अभि + Vतापय
तपाना, गर्म करना अभितास अभि + Vत्रासय्
त्रास उपजाना, भयभीत करना अभित्थु अभि + स्तु स्तुति करना, प्रशंसा करना
अभि + ज्ञा
अभिताव
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिनव प्राकृत व्याकरण
३३६
अभिदव अभिनिक्खम अभिमंत अभिमन्न अभिरम
अभि + अभि निर + क्रम् अभि + मन्त्रय अभि + Vमन् अभि + रम्
अभिहण
अय
अर्ह
अभिस्य अभिरुच अभिरुह अभि + रुह अभिलस अभि + Vलष अभिवंद अभि + वन्द अभिवड्ढ अभिवृध अभिसिंच अभि + सिच
अभि + हन् अम
अम् अय अयंछ
घृष् अरिह अरोअ उत् + लस अलंकर अलं +1क अल्लिअ उप+ सप् अल्लिव
अर्पय अल्ली, अल्लीअ
आ + Vली अव अवअक्ख,अवअझ दश अवअच्छ अबउज्झ अप + उज्झ अवकंख अव + Nकाङ्क्ष अवकर अव + V अवकस
अव + कष अवक्कम
अप+ क्रम् अवखेर अवगाह अव+गाह - - अवगुण अव+गुणय
पीड़ा करना, दुःख उपजाना दीक्षा लेना मन्त्रित करना अभिमान करना क्रोड़ा करना, संभोग करना, प्रीति करना पसन्द करना, रुचना रोकना, ऊपर चढ़ना चाहना, वांछना नमस्कार करना, वन्दना करना बढ़ना, बड़ा होना, उन्नत होना अभिषेक करना मारना, हिंसा करना जाना, आवाज करना गमन करना, जाना खींचना योग्य होना, पूजा करना उल्लास करना, विकसित होना भूषित करना समीप में जाना अर्पण करना आना, प्रवेश करना, आश्रय करना रक्षण करना देखना आनन्द पाना, प्रसन्न होना परित्याग करना चाहना, देखना अहित करना त्याग करना पीछे हटना, बाहर निकलना खिन्न करना, तिरस्कार करना अवगाहन करना खोलना, उद्घाटन करना
अव
हादू
-
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________________
३४०
अवचि अवजाण अवट्ट अवट्ठव, अवठंभ अवडाह अवणम अवणी अवत्थाव अवदाल अवधार अवधाव अवधुण अवबुज्झ अवभास अवमज्ज अवमण्ण अवयक्ख अवयर, अवरुह अवयास अवरज्म अवरंड अवलंब
अभिनव प्राकृत-व्याकरण अप + चि, अव + चि हीन होना, कम होना; इकट्ठा करना अप+ज्ञा
अपलाप करना अप+Vत्
घुमाना, फिराना अव + स्तम्भ अवलम्बन करना उत् + क्रुश ऊँचे स्वर से रुदन करना अव+ नम्
नीचे नमना अप+नी
दूर करना, हटाना अव + स्थापय स्थिर करना, ठहरना अव+दलय खेलना अव + Vधारय निश्चय करना अप + Vधाव
पीछे दौड़ना अव + vधू परित्याग करना अव + Vबुध
जानना, समझना अव + भास चमकाना, प्रकाशित करना अव + ज् पौंछना, साफ करना, झाड़ना अव + मन् तिरस्कार करना, अवज्ञा करना अप + इक्ष
अपेक्षा करना, राह देखना अब + Vतृ, रुह नीचे उतरना, जन्म ग्रहण करना
श्लिष , अब + काश् आलिंगन करना; प्रकट करना अप + राध अपराध करना
आलिंगन करना अव+लम्ब ,अप+लप सहारा लेना, आश्रय लेना; असत्य
बोलना अव +लोक् देखना, अवलोकन करना अव + Vकाश अवकाश देना, जगह देना अव + Vवष्क पीछे हट जाना अव + सप्
पीछे हटना अव+स्
आश्रय करना अव + सद् हारना, पराजित होना अव+सद्
क्लेश पाना, खिन्न होना उद् + Vवा
सूखना रच
निर्माण करना, बनाना अप + हस्तय हाथ को ऊँचा करना
अवलोअ अववास अवसक्क अवसप्प अवसर अवसिज्ज अवसीय अवसुअ अवह अवहत्थ
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३४१
अवहर
अवहस अवहार अवहाव अवहीर अवहोल अवुक्क अवे अवेक्ख
अवोह
अस
अस्सस, अस्सास
अस्साद अहिगम अहिजाण अहिज्ज अहिट्ठा अहिणिवस अहिणु अहिदव अहिपच्चुअ अहिरम अहिलिह अहिवड अहिसर अहिहर अही
निश्, गम् , अप + Vह पलायन करना; जाना; छीन लेना,
अपहरण करना अप + हस्
उपहास करना, तिरस्कार करना अव + Vधारय
निर्णय या निश्चय करना क्रिप
दया करना अव + Vधीरय अवज्ञा करना अव + होलय झूलना, सन्देह करना वि +ज्ञपय
विज्ञप्ति करना, प्रार्थना करना अव + Vइ, अप+इ जानना; दूर होना, हटना अप + Vईक्ष अपेक्षा करना, अवलोकन करना अप + ऊह
विचार करना अश् , अस् भोजन करना, व्याप्त होना; होना आ + Vश्वस् , आ+Vश्वासय आश्वासन लेना, आश्वासन देना आ + स्वादय
आस्वादन करना अधि+ गम् ,अभि+ गम् जानना, निर्णय करना; सामने जाना अभि + ज्ञा
पहिचानना अधि + NE
पढ़ना, अभ्यास करना अधि+ स्था
ऊपर चलना, रहना, निवास करना अभिनि + Vवस वसना, रहना अभि + नु
स्तुति करना अभि + Vछ
हैरान करना ग्रह, आ + गम् ग्रहण करना, आना अभि + रम् क्रीड़ा करना अभि + लिख चिन्ता करना, लिखना अधि + पत्
आना अभि +
प्रवेश करना, अभिसरण करना अभि + Nह लेना, उठाना अधि +NE
पढ़ना
-आ
आऊंछ आअक्ख
खीचना, जोतना कहना; घोलना, उपदेश देना
...
आ+Vवक्ष
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--------------------------------------------------------------------------
________________
३४२
दे०,
आअड्ड आअर
आअव्व
आइ
आइग्घ आइस आईव आउंच आउच्छ आउट्ट
आउड, आउड्ड
आउस
अभिनव प्राकृत-व्याकरण. - व्या + VY
परवश होकर चलना; काम में लगना आ + VE
आदर करना Vवेप
कांपना आ+दा
ग्रहण करना, लेना आ+ Vघा
सूंघना आ+दिश् आदेश करना, आज्ञा देना आ + Vढीप
चमकना आ + कुञ्चय संकुचित करना, समेटना आ + प्रच्छ आज्ञा लेना, अनुज्ञा लेना आ + Vवृत् , आ +/कुट व्यवस्था करना, छेदन करना,
हिसा करना आ + जोडय् , +कुट , लिख , मस्ज् जोड़ना; कूटना; लिखना; डूबना आ + Vवस् , + क्रुश , रहना; शाप देना; स्पर्श करना; +मृश् , + Vजुष् सेवन करना आ + पूरय
भरना, पूर्ति करना प्रा+खोटय्
प्रवेश करना, घुसेड़ना आ + युध्
लड़ना आ + क्रन्दू
रोना, चिल्लाना आ + कम्प
कापना आ + आकुञ्चय संकोच करना आ + कलय जानना, लगाना आ + कारय् बुलाना, आह्वान करना आ + Vष
घर्षण करना आ+Vघस् घिसना आ + घूर्ण डोलना, हिलना आ + Vघोषय घोषणा करना आ + दह
चारों ओर जलाना
मिश्रण करना, मिलाना आ + Vटोपय्
आडंबर करना आ+रभ
आरम्भ करना आ+VE
आदर करना, मानना
आऊर आओड आओध आकंद आकंप आकुंच आगल आगार आघंस आघस आघुम्म आघोस आडह आडुआल आडोव आढव आढा
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
'आण आणंद आणक्स आणम आणव आणाव आणी, आणे आणे 'आदिय आधरिस आपुच्छ आफाल आबंध आभोय आमंत
आमुय, आमिल्ल, आ + N मुच
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३४३ Vज्ञा, आ +vनी
जानना; लाना, आनयन करना आ+ नन्दू
आनन्द पाना परीक्षा करना
श्वास लेना आ+ ज्ञापय आज्ञा देना आ% नायय
सँगवाना आ + नी
लाना
जानना आ + Vा
ग्रहण करना आ + Vधर्षय
परास्त करना, तिरस्कार करना आ + प्रच्छ
आज्ञा लेना, सम्पत्ति देना आ + स्फालय आघात करना आ+ Vबन्ध मजबूत बांधना आ + Vभोगय देखना, जानना आ + vमन्त्रय आह्वान करना, सम्बोधन करना
छोड़ना, उतारना, त्यागना आ+ मश् थोड़ा स्पर्श करना आ + मुद्
खुश होना आ + Vतञ्च
सींचना, छिटकना विप
कांपना, हिलना आ + Vकर्णय सुनना, श्रवण करना आ+ चम्
आचमन करना आ + Vचर
औचरण करना, व्यवहार करना Vलम्ब
व्याप्त होना आ+ Vया, + दा आना, आगमन करना; ग्रहण करना आ+ यमय
लम्बा करना आ + Vकारय
बुलाना आ + Vयासय कष्ट देना, खिन्न करना आ+ रभ
आरम्भ करना आ+ स्ट आ + राधय
सेवा करना, भक्ति करना आ+रुष
क्रोध करना, रोष करना
आमुच आमुस आमोअ आयंच आयज्झ आयण्ण आयम आयर आयल्ल आया आयाम आयार आयास आरंभ आरउ आराह आरुस ।
-चिल्लाना
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--------------------------------------------------------------------------
________________
३४४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
है,
आरोव आलक्ख आलभ आलिंप आलिह आली
आलुख
आलुंप आलोअ आलोड आलोव आव आवज्ज आवट्ट, आवत्त आवर आवस आवह आवा, आविअ आविंध आविस आविहव आवीड आवेअ आवेस आस आसंक आसव आसस आसाअ
आ + रुह, + रोपय् ऊपर चढ़ना अ + Vलक्षय
जानना I+Vलम
प्राप्त करना आ + लिप लीपना, पोतना आ + लिख विन्यास करना आ + Vली
लीन होला, आसक्त होना दह , स्पृश जलाना; स्पर्श करना आ + Vलुम्प
हरण करना आ + लोय
गुरु को अपना अपराध कहना आ + Vलोडय मन्थन करना, हिलोरना आ+Vलोपय आच्छादित करना आ + या
आना, आगमन करना आ+पद्
प्राप्त होना आ + Vवृत्
चक्र की तरह घूमना, परिभ्रमण करना आ+v
आच्छादन करना आ + Vवस
रहना, वास करना आ + वह
धारण करना, वहन करना आ + पा
पीना आ + Vव्य
विधना आ + विश् सम्बद्ध होना आविर + भू प्रकट होना आ+पीड् पीड़ा देना, दबाना आ + Vवेदय
निवेदन करना आ+ विशय भूताविष्ट करना आस
बैठना आ + शङ्क
सन्देह करना आ +
धीरे-धीरे झरना, टपकना आ + श्वस विनाम लेना आ + स्वाद् + सादय् स्वाद लेना; प्राप्त करना; + शातय
अवज्ञा करना आ + शास् , + श्वासय् आशा करना, आश्वासन देना आ + सेव
सेवन करना, पालन करना
आसास आसेव
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३४५
आह आहल्ल आहा आहार आहिंड आहु आहोड
आ + चल आ + Vधा, +ख्या . आ + हारय आ+ हिण्ड् आ + Nहु ताडय
कहना हिलना, चलना स्थापन करना, कहना खाना, भोजन करना गमन करना, जाना दान करना, त्याग करना ताड़ना करना, पीटना
ho
to lo
Vइष आ+VE
जाना, गमन करना इच्छा करना, चाहना आना, आगमन करना
ch
for car ho
प्रेरणा करना ईर्ष्या करना, द्वेष करना देखना, विचारना
ईश्
उंभ
उकंप
उअऊह उप + Vगूह छिपाना, आलिंगन करना उह
उद् + Vइ, उप + Vइ उदित होना, समीप जाना उंघ नि+दा
नींद लेना उंज सिच् , युज सींचना, प्रयोग करना, जोड़ना
पूर्ति करना, पूरा करना उत् + कम्प कांपना, हिलना उक्त्त उत् + कृत
काटना, कतरना उक्कम उत् + क्रम्
ऊँचा जाना, उल्टे क्रम से रखना उक्कर, उकिर उत् +क
खोदना उक्कुक्कुर उत् + स्था
उठना, खड़ा होना उक्कुज्ज
उत् + ।कुब्ज ऊँचा होकर नीचा होना उक्कूव
उत् + कूज अव्यक्त आवाज करना, चिल्लाना उक्कोस उत् + क्रुश्
रोना, चिल्लाना उक्खंड उत् + खण्डय . -- तोड़ना, टुकड़ा करना उक्खण, उक्खिण उत् + Vखन् उखाड़ना, उच्छेद करना उक्खिव उत् + क्षिप्
फेकना
Page #377
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________________
३४६
चतुडू
उक्खुड
उग,उग्ग, उग्गम उत् + गम् + √घाटय्
√रचय्, उद् + ग्रह
उग्गह
उग्गिल
उग्गोव
उग्घड, उग्घाड
उग्घोस
उच्चर
उच्चल
उच्चाड
उच्चार
उच्चाल
उचि
उच्चि
उचुड
उच्चप
उच्छप्प
उच्छल
उच्छह
उच्छाह
उच्छिद
उच्छुभ
उच्छेर
उच्छोल
उज्जम
उज्जल
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
उज्जाल
उज्जोअ
उज्झ
उट्ठ, उट्ठाव
उट्ठभ
उट् ठुभ उडूडाव
उडू + √गृ
उद् + √गोपय्
उद् + √चाय्
उद् + √घोषय्
उत् + √__
उत् + √चल्
दे०
उत् + /चार
उत् + √चालय्
उत् + स्था
उत् + √चि
उत् + √चुड्
√चट्
उत् + √सर्पय्
उत् + √शल्
उत् + सह
उत् + साहय्
उत् + √छिद्
उद् + √ज्वल्
उद् + √ज्वालय्
उद् + √द्योतय्
तोड़ना, टुकड़ा करना उदित होना; खोलना
रचना, निर्माण करना; ग्रहण करना डकार लेना, बोलना, कहना
खोजना, प्रकट करना
खोलना
घोषणा करना
पार जाना, उत्तीर्ण होना
चलना, जाना
रोकना, निवारण करना बोलना, उच्चारण करना
ऊँचा फेंकना
खड़ा होना
एकत्र करना, इकट्ठा करना
अपसरण करना, हटना चढ़ना, आरूढ होना, ऊपर बैठना
उन्नत करना, प्रभावित करना
अव +तम्भ्
अव + ष्ठीव्
उदू + √डापय्
उछलना, ऊँचा जाना
उत्साहित होना
उत्साह दिलाना
उत् + √क्षिप्
उत् + √श्रि
उत् + √मूलय् + √क्षालय् उन्मूलन करना; प्रक्षालन करना,
उदू + √यम्
उन्मूलन करना
आक्रोश करना, गाली देना ऊँचा होना, उन्नत होना
उद्यम करना, प्रयत्न करना जलना, प्रकाशित होना
उजाला करना
प्रकाश करना
उज्झ
त्याग करना, छोड़ना
उत् + √स्था, + √स्थापय् उठना, खड़ा होना, उठाना
आलम्बन देना, सहारा देना
थूकना
उड़ाना
धोना
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
उण्णम, उण्णाम उदू + नम् ऊँचा होना, उन्नत होना; ऊँचा
करना उण्णी उद् + Vनी
ऊँचा ले जाना उत्तम्म उत् + तय खिन्न होना, उद्विग्न होना उत्तर उत् +तृ
बाहर निकालना, उतरना उत्तस उत् + त्रस्
त्रास देना, पीड़ा देना उत्ताड उत् + Vताडय
ताड़ना, ताड़न करना उत् +तुदू
पीड़ा करना, परेशान करना उत्थंघ उद्+Vनमय , रुध् ऊँचा करना, उन्नत करना; रोकना उत्थर, उत्थार आ + क्रम्, अव + स्तृ आक्रमण करना, दबाना, आच्छादन
करना
उत्तय
उद्दा
उत्थल्ल उत् + शल
उछलना, कूदना उदाहर उदा+ह
दृष्टान्त देना उदि उद्+VE
उन्नत होना उदीर उद्+Vईरय
प्रेरणा करना उद्+ दा
बनाना, निर्माण करना उद्दाल आ + छिद्
खींच लेना, हाथ से छीनना उद्दिस उद् + दिश् नाम निर्देश पूर्वक वस्तु का निरूपण
करना उइंस उदू + Vष , उद् + Vध्वंस् मारना, गाली देना; विनाश करना उद्धम उद्+हिन्
उड़ाना, वायु से भरना, शंख फूंकना उदू +ह
फंसे हुए को निकालना उधूल उद् + Vधूलय व्याप्त करना उन्नंद उद् + नन्दू
अभिनन्दन करना उप्पज्ज उत् + पद्
उत्पन्न होना उप्पय, उप्पड, उत् + (पत्
उड़ना, ऊँचा जाना, कूदनाः उखाड़ना उप्पाड उप्पण उत् + पू
फटकना, साफ करना उप्पिय उत् + पा
आस्वादन करना उप्पील उत् + पीडय - कसकर बांधना उपेक्ख उत् प्र + Vईक्ष .. सम्भावना करना, कल्पना करना उप्पेल. .... - उद्+निमय ऊँचा करना, उन्नत करना
उद्धर
Page #379
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________________
३४८
उप्फाल
उफिड
उप्फुस
उब्बंध
उब्बुड
उब्भास
उब्भुअ
उम्माय
उम्मिल्ल
उम्मुंच
उम्मूल
उल्लल्ल
उल्लस
उल्लाव
उल्लुंड
उल्लुट्ट
उल्लुह
उल्लूर
उल्हव
उल्हा
उवइस
उवयुंज
उवकप्प
उवकर, उवगर,
उवयर
उवक्खड
उवजा
उवजीव
उवजिण
उवट्ठव
उवणिमंत
वणी
उवद्दव
अभिनव प्राकृत व्याकरण
√ऋथ्
उत् + √स्फिट्
उत् + √स्पृश्
उद् + √बन्ध्
उद् + √ब्रुड्
उद् + √भासय्
उदू + √भू
उद् + √मद्
उद् + √मील्
उद् + √मुच्
उद् + √मूल
उत् + √लल्
उत् + √लस्
उत् + √लप्
वि + √रेचय्
उत् + √लुट्
निस् +√सृ
तुड्
वि + √ध्मापय्
वि + √ध्मा
उप + √दिश्
उप + √युज्
उप + √क्लप्
अव + √कू, उप + √कृ
उप+स्क्रू
उप + √जन्
उप +
उप + अज्
उव+स्थाप
उपनि+मन्त्रय्
उप + नी
उप + √द्भु
कहना, बोलना कुण्ठित होना, असमर्थ होना सिंचन करना
फांसी लगाना, फांसी लगाकर मरना
तैरना
प्रकाशित करना
उत्पन्न होना
उन्माद करना
विकसित होना., खिलना
परित्याग करना
उखाड़ना, उन्मूलन करना
जड़
चलित होना, चंचल होना विकसित होना
बकवाद करना,
बोलना
झरना, टपकना, बाहर निकलना
नष्ट होना, ध्वंस होना
निकलना
तोड़ना, नाश करना
ठंढा करना, आग को बुझाना
बुझ जाना
उपदेश देना, उपयोग करना
उपस्थित करना
व्याप्त करना; उपकार करना, हित
करना
पकाना,
उत्पन्न होना
आश्रय लेना
उपार्जन करना
सिखाना
रसोई करना
उपस्थित करना
निमन्त्रण देना
समीप में लाना
उपद्रव करना
Page #380
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३४९
उवनिक्खेव उपनि + क्षेपय धरोहर रखना उवरंज उप + रज
ग्रस्त करना उवरम उप+रम्
निवृत्त होना, विरत होना उवरंध उप + रुध
अटकाव करना, रोकना उवलंभ उप + लम
प्राप्त करना, उलाहना देना उवलक्ख उप + लक्ष्य जानना, पहिचानना उवला उप +ला
ग्रहण करना उवलोभ उप + लोभय लालच देना उवल्लि उप +ली
रहना . उवबूह उप +बूंह
पुष्ट करना, प्रशंसा करना उवसंघर उपसंह
उपसंहार करना उवसप्प उप + स्प
समीप में जाना उवसम, उवसाम उप + Vशम्, +शामय्
क्रोध रहित होना, शान्त होना;
शान्त करना उक्सोभ उप + शुभ शोभना, विराजना, शोभित होना उवहत्थ
बनाना, रचना करना उवहर उप +ह
पूजा करना, उपस्थित करना उवहुंज उप + Vभुज
उपभोग करना, कार्य में लगना उवाइण, उवादा उपा + दा
ग्रहण करना उवाय उव+Vयाच
मनौती मनाना उवालह उपा+Vलभ
उलाहना देना उवास उप + आस
उपासना करना उव्वम उद् + Vवम्
वमन करना, उल्टी करना उव्वर उद् + Na
शेष रहना, बच जाना उव्वल उद् + Vवल
उपलेपन करना उव्वह उप + Vवह
धारण करना, उठाना उव्विय, उव्विव उद् + विज उद्वेग करना, उदासीन होना उव्विल्ल
उद् + विल , प्र+ चलना, कांपना; फैलना, पसरना उठवील अव + पीडय पीड़ा पहुँचाना उस्सक उत् + वषक
उत्कंठित होना उस्सर, ऊसर उत् + स्
हटना, दूर जाना उस्सस, ऊसस उत् + Vवस् ... उच्छवास लेना, ऊँचा श्वास लेना उस्सिच उत् + सिच् . सींचना, सेक करना उस्सिक
मच ..... छोड़ना, त्याग करना
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________________
३५०
ऊसल, ऊसुंभ
ऊसार
ऊह
ए
एड
एस
एह
ओअंद ओअक्ख
ओअग्ग
ओअर
ओअल्ल
ओअव
ओआर
ओईंध
ओक्कस
ओक्खंड
ओगाह
ओगिज्झ
ओग्गाल
ओच्छर
ओच्छाय
ओणंद
ओणल्ल
ओणिअत्त ओद्धंस
उत् + √लस्
उत् + √सारय्
√ऊह्
अभिनव प्राकृत व्याकरण
आ + √इ.
√एड्
आ + √ इष
चालुघू
आ + छिद्
दश
वि+आ
अत्र + √तृ
अव + √चल्
साधय्
अप +
आ + √मुच्
अव + √ कृष
अव +
अव + गा
अव + √ग्रह
रोमन्थायू
、
-खण्डय्
अव + √स्तृ
अव + छा
अव + नन्दू
+
अपनि + वृत्
अव +
ओ
उल्लसित होना
"
दूर करना तीर्थ करना
आना, आगमन करना
छोड़ना, त्याग करना खोजना, निर्दोष भिक्षा की खोज
करना या ग्रहण करना
बढ़ना, उन्नत होना
बलपूर्वक छीनना
देखना, अवलोकन करना
व्याप्त करना
जन्म ग्रहण करना, अवतार लेना
चलना
साधना, वश में करना, जीतना डाँकना, रोकना
छोड़ना, लागना
निमन होना, गड़ जाना
तोड़ना
अवगाहन करना
आश्रय लेना
पगुराना, चबाई हुई वस्तु को पुन:
चत्राना
विछाना,
फैलाना
आच्छादन करना
अभिनन्दन करना
लटकना
पीछे हटना, वापस लौटना
गिराना, हटाना
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३५१
ओधाव ओबुज्झ ओमिण ओमील ओमुय ओरस ओरुम्मा ओलग्ग
ओलिंप
अव+ धाव अव+Vबुध अव+Vमा अव + मील अव + मुच अव + Vत उद् + Vवा अव+ Vलग अव+ लिप वि+ Vध्यापय अप + Vवर्त्तय
तिज अप + घट्ट अप + ह, अव + Vह Vतुलय अव + Vधारय आ + क्रम् अव + धाव नि+ द्रा
पीछे दौड़ना जानना मापना, मान करना मुद्रित होना, बन्द होना पहनना नीचे उतरना सूखना पीछे लगना लीपना, लेप लगाना बुझाना, ठंडा करना उलटा करना, घुमाना तीक्ष्ण करना, तेज करना कम होना, ह्रास होना अपहरण करना; टेढ़ा होना,वक्र होना तौलना, तुलना करना निश्चय करना आक्रमण करना
ओल्हव
ओवत्त
ओसुक्क ओहट्ट ओहर, ओहिर
ओहाम
ओहार
ओहाव
पीछे हटना
ओहाव ओहोर
सो जाना, निद्रा लेना
कंड कंडार
कंद
कंप
कण्ड उत् + क्रन्दू कम्प Vब्रुड कृत कटाक्षय
कन्जलाव कट, कत्त कडक्ख कड्ढ कढ कण
धान का छिलका अलग करना खोदना, छोल-छाल कर ठीक करना रोना, आक्रन्दन करना कांपना, हिलना डूबना, वूड़ना काटना, छेदना कटाक्ष करना खीचना क्वाथ करना, उबालना, गरम करना शब्द करना, आवाज करना समर्थ होना, कल्पना करना चाहना
कृष्
कप्प
कृप्
कम
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________________
३५२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
कदर्थय
कयस्थ कर, कुण, कुव्व कराल कल
करालय कलय्
कव कस
हैरान करना करना, बनाना फाड़ना, छिद्र करना संख्या करना, जानना आवाज करना, शब्द करना कसना, घिसना ताड़न करना, मारना कहना, बोलना; क्वाथ करना,उबालना करवाना, बनवाना कहरना, खाँसना श्लाघा करना, स्तुति करना खेलना, क्रीडा करना
Vकस् कशाय कथय , कथ कारय्
कसाय
कह
कार कास
कास
किट्ट
कीर्तय
- क्रोड्
फेंकना
किड्ड, कील किर किलाम किलिस कीण, के कुंच कुच्छ कुज्झ
क्लमय क्लिश क्रो
कुत्स्
Vथ्
कुट्ट
क्लान्त करना, खिन्न करना खेद पाना, थक जाना, दुःखी होना खरीदना, मोल लेना जाना, चलना निन्दा करना, धिक्कारना क्रोध करना कूटना, पीसना, ताड़न करना कोप करना; बोलना, कहना कुलकुलाना, बड़बड़ाना आवाज करना, कौए का बोलना सड़ जाना, दुर्गन्ध देना, बदबू आना साफ करना, ठीक करना बुलाना, आह्वान करना
Vकुट्ट
कुप् , भाष Vकुरुकुराय
कुप्प कुरुकुरु
कुरुल
कुह केलाय
कोक
समा + रचय व्या + Ve
खंच
खंज
खङ्ग खण्डय
खींचना, वश में करना लंगड़ा होना तोड़ना, टुकड़े करना सींचना, छिड़कना पावन करना, पवित्र करना
खंप
खच
खच्
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३५३
मृदू
Vखन् क्षम्
खड्ड, खुड्ड खण खम खर, खिर खरंट खल
Nक्षर
Vखरण्य स्खल
मर्दन करना खोदना क्षमा करना झरना, टपकना, नष्ट होना दुतकारना, निर्भर्त्सना करना पड़ना, गिरना नाश करमा खिसकना, पढ़ना खाना, भोजन करना माफी मांगना धोना, पखारना क्रीडा करना, खेल करना
खव
क्षपय
खस
दे०
खा
खाम
Vखाद्
क्षमय Vक्षालय Vखेल क्षिप्
फेंकना
खाल खिल्ल, खेल खिव खुट्ट, खुड खुडुक्क खुप्प खेअ खेड, खेड्ड
मस्ज
खेदय
तोड़ना, टुकड़े करना, खंडित करना नीचे उतरना डूबना, निमग्न होना खिन्न करना, खेद करना खेती करना; क्रीडा करना, खेलना खटखटाना, ठोकना विचलित करना, धैर्य से च्युत होना
खो
कृष , रम् दे० Vक्षोभय
खोभ
प्रथ्
गम् गर्ज
गच्छ गन्ज गडयड गण
Dथना, गठना जाना, गमन करना गरजना, घड़धड़ाना गर्जन करना, आवाज करना गिनना, गिनती करना, गणना करना बोलना, कहना जाना, गति करना, चलना निन्दा करना, घृणा करना गुरु करना, बड़ा बनाना गल जाना, सड़ना गवेषणा करना, तलाश करना
गद
गणय गदू गम् गई, गुरुकाय गिल गवेषय
गम गरह गरुअ, गरुआ गल गवेस
Page #385
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________________
३५४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
गालय
गुंठ
गुड्
गुड गुण
गह ग्रह
ग्रहण करना गहगह
दे० ..... -- हर्ष से भर जाना . गा, गाअ
गाना, आलापना गाल
गालना, छानना गाह ग्राहय
ग्रहण करना गिज्झ Vध
आसक्त होना, लम्पट होना गिर, गिल V2
बोलना, उच्चारण करना; निगलना गुण्ठ
धूसरित करना, धूल के रंग का
करना गुभ, गुम्ह, गुंफ गुम्फ
गूंथना
युद्ध के लिए तय्यार करना, सजाना गुणय
गिनना गुप्प गुप्
व्याकुल होना गुम भ्रम्
घूमना, पर्यटन करना गुम्म, गुम्मड मुह
मुग्ध होना, घबड़ाना, व्याकुल होना गुलगुंछ उत् + शिप ,उत् + /नमय ऊँचा फेंकना, ऊँचा करना, उन्नत
करना गुलगुल गुलगुलाय
गुलगुल आवाज करना गुलल
खुशामद करना गृह
छिपाना, गुप्त रखना गेण्ह
ग्रहण करना गोपाय
छिपाना, रक्षण करना
चाटुक गुह. ग्रह.
गोवाय
घद्र
घट्ट
घड, घडाव
Vघट
घत्त, घल्ल घत्त घाड घाय
क्षिप् , गवेष् ग्रह भ्रंश हिन् ग्रस्
स्पर्श करना, छूना चेष्टा करना, बनाना, मिलाना; बनवाना फेंकना, डालना, दढ़ना, खोजना ग्रहण करना भ्रष्ट होना, च्युत होना मारना, विनाश करना प्रसना, निगलना, भक्षण करना गर्जना
घिस
घुडुक्क
गर्ज
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________________
अभिनव प्राकृत व्याकरण
मा
Vघुर्ण
दे०
घुम्म घुरुक्क घुरघुर . घुलघुल
Vघुरघुराय Vघुलघुलाय मिथ
घुसल
घूमना, चक्राकार फिरना घुड़कना, घुड़की देना घुरघुराना घुलघुल की आवाज करना मथना, विलोडन करना ग्रहण करना निद्रा में घुरघुर की आवाज करना घिसना, रगड़ना घोषणा करना
ग्रह
घुर.
घोर घोल
घोलय
Vघोषय
चंकम
चंछ, चच्छ चंड
पिष
चंप
चंप चकम, चक्कम चक्ख चच्चुप्प चज्ज चट्ट चड चड्ड
चक्रम्
बारम्बार चलना, इधर-उधर भ्रमण
करना Vतक्ष
छीलना, तरासना, काटना
पीसना दे०
चांपना, दबाना चर्च
चर्चा करना भ्रम्
घूमना, भटकना आ + स्वादय चखना, स्वाद लेना, चीखना अर्पय
अर्पण करना Vश्
देखना, अवलोकन करना
चाटना आ+ रह
चढ़ना, ऊपर बैठना समृद्, पिष , भुज मर्दन करना, मसलना; पीसना;
भोजन करना आ + क्रम्
आक्रमण करना चमत् + क विस्मित करना, आश्चर्यान्वित
करना भुज्
भोजन करना Vत्यज , शिक्, Vघ्यु छोड़ना, सकना, समर्थ होना;
मरना Vवर
-गमन करना, चलना चल कथय , च्यु कहना, बोलना; मरना, च्युत होना
चप्प चमक्क
चमड
चय
चर
चल
चव
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--------------------------------------------------------------------------
________________
३५६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
चाव
चर्व
Vवाग्छ ।
चाह चिइच्छ चिंत चिगिचिगाय
चिकित्स् चिन्तय
चिट्ठ
चित्त
चिकचिकाय स्था चित्रय च्यु Vश्चुत
चबाना चाहना, वाञ्छा करना दवा करना, चिकित्सा करना चिन्ता करना, विचार करना चकचकाट करना बैठना, स्थिति करना चित्र बनाना मरना, जन्मान्तर में जाना झरना, टपकना पुष्पचयन करना चुम्बन करना चूकना, भूलना चूरना, टुकड़े-टुकड़े करना खण्ड करना फेंकना, डालना चेतना, सावधान होना प्रेरणा करना, कहना
चुम्ब भ्रंश
चूर्णय चूरय्
क्षिप्
चित् चोदय
छंद
छन्दू
छज्ज
राज्
छड्ड छण
आ + सह Vछर्दय , Nमुच
क्षण Vछलय
छाय
चाहना, वाञ्छना शोभना, चमकना आरूढ होना, चढ़ना वमन करना, छोड़ना, त्याग करना हिंसा करना ठगना, वञ्चन करना, छल करना आच्छादन करना, ढकना छेदना, विच्छेद करना स्पर्श करना, छूना आक्रमण करना लेप करना, लीपना छिन्न करना छोड़ना, बन्धन मुक्त करना
छादय छिदू
छिद
छिव, छुव, छिह स्पृश्
आ + क्रम्
Vछुर
ल
छेदय् छोटय्
७
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३५७
जअंड
जप
जिल्प
जंभा जग्ग जज्जर
जण
जम
जम्म
जय जर
जल जव जह
जा
त्वर
त्वरा करना, शीघ्रता करना
बोलना, कहना जिम्भ
जंभाई लेना जागृ
जागना, नींद से उठाना जिर्जरय
जीर्ण करना, खोखला करना जनय
उत्पन्न करना यमय
काबू में लाना, नियन्त्रण करना जिन्, जम् उत्पन्न होना; खाना, भक्षण करना जि, यत्
जीतना, पूजा करना
जीर्ण होना, पुराना होना, बूढ़ा होना ज्वल
जलना, दग्ध होना Vयापय , जप गमन करना, भेजना; जाप करना हा
त्यागना, छोड़ना जन्, या उत्पन्न होना; जाना, गमन करना Vज्ञा .
जानना, समझना, ज्ञान प्राप्त करना
साफ करना, मार्जन करना पाच, यातय प्रार्थना करना, मांगना पीड़ना,
यन्त्रणा करना Vजीव
जीना, प्राणधारण करना जीतना, वश करना
जीमना, भोजन करना लस्ज्
लज्जा करना
देना, अर्पण करना Vध , खिद् , जूर क्रोध करना, गुस्सा करना; खेद
करना; सूखना, झुरना Vश
देखना द्युत् , योजय प्रकाशित होना; जोड़ना, युक्त करना Vयुध्
लड़ना, युद्ध करना
जाण जाम जाय
मज्
जिअ, जीव जिण जिम, जेम
सं+तप वि + Vलप्.....
संतप्त होना, संताप करना विलाप करना, बकवाद करना
Page #389
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________________
३५८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
भख
भंख मंझण
भड झडप्प झण, झुण झर, झूर भा झाम झिल्ल झुण, भूर झोड भोस
उपा+लभ उपालंभ देना, उलाहना देना निर + Vश्वस् - - - निश्वास लेना Vझंझणाय
झन-झन करना भ्रम्
घूमना, फिरना
झड़ना, टपकना आ + छिद्
झपटना, झपट मारना, छीनना जुगुप्स
घृणा करना क्षर, स्मृ
झरना, टपकना; याद करना चिन्ता करना, ध्यान करना
जलाना, भस्म करना स्ना
स्नान करना, जल गिराना Vजुगुप्स् , क्षि घृणा करना, निन्दा करना, क्षीण होना /शाय्य
पेड़ आदि से पत्तों को गिराना Vगवेषय्
खोजना, अन्वेषण करना
द६.
मण्डय
टिविडिक्क टिट्टियाव टिरिटिल्ल टुट्ट
मण्डित करना बोलने की प्रेरणा करना घूमना, फिरना टूटना, कट जाना
भ्रम्
बुट
ठय
स्थग
ठव, ठाव
बन्द करना, रोकना स्थापन करना बैठना, स्थिर रहना मोड़ना
स्थापय्
स्था वि + फुट
ठा
ठिव्व
७
डर
Vत्रस्
पा आ + Ve दह
डप
डरना, भयभीत होना पीना आरम्भ करना जलाना, दग्ध करना नीचे गिरना, ध्वस्त होना सांड़ का गर्जना करना दीपना, चमकना; गलजाना, सड़ जाना
डिंभ डिक, ढिक्क डिप्प
स्टेस गर्ज
दीप, वि + गल
Page #390
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३५६
भ्रम्
डुल, डोल
दोलय
घूमना, चक्कर लगाना डोलना, हिलना, कांपना उल्लंघन करना, कूद जाना
उत् + Vलंघ
भ्रम् छादय्
ढंढल्ल, दुम ढक्क ढाल दुक्क
घूमना, भ्रमण करना ढकना, आच्छादन करना टपकना, नीचे गिरना, नीचे पड़ना भेंट करना, अर्पण करना
Vढोक
गंद
नन्दू
णच, णट्ट णज्ज, णप्प, णा
णड
णद
नृत् , निट
ज्ञा Vगुप्
नदू नि + अस् , निश् निमय नाशय
णस...
दृश्
णाम णास, णासव णिअ, णिअच्छ णिअच्छ णिअट्ट णिअद णिअम णिउंज
खुश होना, आनन्दित होना, समृद्ध होना नाचना, नृत्य करना जानना, समझना व्याकुल होना नाद करना, आवाज करना स्थापन करना; भागना, पलायन करना नमाना, नीचा करना नाश करना देखना नियमन करना निवृत होना, बनाना कहना, बोलना नियन्त्रित करना जोड़ना, संयुक्त करना मजन करना, डूबना निन्दा करना नियमन करना, नियन्त्रण करना काटना, छेदना
णिउड्ड जिंद
नि+यम् नि + वृत नि+गद् नि+यम् नि + युज
मस्ज ,नि + Vब्रुड निन्द नि+काचय नि + कृत नि + Vकुट - . निर् + कस् निर+क्री
णिकाय
णिकिंत णिकुट्ट
-
णिकस णिक्किण
निकासना, बाहर निकालना निष्क्रय करना, खरीदना
Page #391
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________________
३६०
णिगद णिगिण्ह णिगुंज णिगृह णिग्गच्छ णिञ्चल
णिच्छय णिच्छल्ल णिच्छुभ णिच्छोड णिच्छोल णिज्जर णिज्जा णिज्जिण णिज्जूह
अभिनव प्राकृत-व्याकरण नि+गदू .. कहना नि + ग्रह
निग्रह करना, दण्ड करना, दण्ड देना नि+Nगुज्न्
गूंजना, अव्यक्त शब्द करना नि + Nगुह.
छिपाना, गोपन करना निर + गम् बाहर निकालना Vक्षर् , मुच झरना, टपकना; दुःख को छोड़ना,
दुःख का त्याग करना निस + चि निश्चय करना, निर्णय करना छिद्
छेदना, काटना नि + क्षिप बाहर निकालना निस् + छोटय बाहर निकलने के लिए धमकाना निस् + तक्ष छीलना, छाल उतारना निर+ज
क्षय करना, नाश करना निर + या
बाहर निकालना निर + जि जीतना, पराभव करना निर+यूह परित्याग करना, रचना, निर्माण
करना
णिज्झर
निर + vध्यै
णिज्मा णिट्रअ णिट्रय, ट्ठिव
क्षर
णिटा णिठुह
नि + स्थापय् नि+स्था नि+ स्तम्भ निर + नाशय
क्षीण होना विशेष चिन्तन करना टपकना, चूना समाप्त करना, पूर्ण करना समाप्त होना निष्टम्भ करना, निश्चेष्ट होना विनाश करना अपलाप करना पार करना, पार उतरना उदाहरण बतलाना, दृष्टान्त दिखाना जला देना, भस्म करना उच्चारण करना, कथन करना
णिण्णास णिण्हव णित्थर
नि + हु
णिदंस णिदह
णिदिस
निर +Vत नि + दर्शय निर + दह निर + दिश निर + धाव निर + धू निर+पक्षय निर + पद्
णिद्धाव
दौड़ना
णिधुण णिप्पंख णिप्पज
विनाश करना, दूर करना पक्षरहित करना, पंख तोड़ना उपजना, सिद्ध होना
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
णिमे
णिप्फिड नि+स्फिट बाहर निकलना णिबंध नि + Vबंध
बांधना णिबुड्ड, णिबोल नि + मस्ज निमजन करना, डूबना गिब्भच्छ निर + Vमर्ल्स तिरस्कार करना, अपमान करना,
अवहेलना करना णिब्भर निर + भृ
भरना, पूर्ण करना णिभिद निर+भिद् तोड़ना, विदारण करना णिभाल
नि + भालय देखना, निरीक्षण करना णिभेल निर + भेलय
बाहर करना णिम, णिस नि+ अस् स्थापन करना णिमंत नि+मन्त्रय
निमन्त्रण देना णिमज्ज नि+मस्ज डूबना, निमज्जन करना णिमिल्ल नि + Vमील आँख मूंदना, आंख मींचना नि+मा
स्थापन करना जिम्म निर+मा
बनाना, निर्माण करना णिम्मच्छ
नि+म्रक्ष विलेपन करना गम् ।
जाना, गमन करना णिरक्ख, णिरिक्ख निर + Vईक्ष
निरीक्षण करना, देखना णिरव
आ + क्षिप् आक्षेप करना निर + अस् अपास्त करना
निरा + कृ निषेध करना, दूर करना गिरिग्घ नि+Vली
आश्लेष करना, भेंट करना णिरिणास गम्, पिष , निश् गमन करना; पीसना; पलायन करना णिरंभ निरुध
निरोध करना, रोकना णिरुवार ग्रह
ग्रहण करना णिरूव नि+ रूपय विचार कर कहना णिलिज
नि+Vली भेटना, मिलना णिलीअ
दूर करना णिलुक्क
तोड़ना जिल्लस उत् + लस
उल्लसना, विकसना जिल्लुंछ
छोड़ना, त्यागना णिवज्ज निर + पद्, नि+ सद, उपजना; बैठना .
नि+Vवृत् ....... निवृत्त होना, लौटना, हटना
णिम्मह
णिरस
णिराकर
मुच
णिवट्ट
Page #393
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________________
३६२
णिवड
णिवस णिवह
णिवार
बैठना
णिविस णिवेअ णिव्वड
णिवण्ण णिवत्त
णिव्वय णिव्वर णिव्वल णिव्वव णिव्वह णिव्वा णिव्विज णिव्विस णिव्वे णिठवेल णिव्योल
अभिनव प्राकृत-व्याकरण नि + पत्नीचे पड़ ना, नीचे गिरना नि + Vवस् ----- निवास करना गम्, निश, पिष जाना; भागना, पलायन करना,
पीसना नि+वारय
निवारण करना, निषेध करना निर + विश् नि+ विदय
सम्मानपूर्वक ज्ञापन करना मुच् , भू दुःख को छोड़ना; पृथक् होना, जुदा
होना निर + वर्णय श्लाघा करना, प्रशंसा करना, देखना निर + वर्तय् + वृत्तय बनाना, करना; गोल बनाना, वर्तुल
करना निर + va
शान्त होना कथ् , छिद् दुःख कहना; छेदन करना, काटना निर+पद् निष्पन्न होना निर + Vवापय् ठंडा करना, बुझाना निर + Vवह , निभाना, निर्वाह करना; धारण करना, । उद् + वह
ऊपर उठाना वि+ श्रम्
विश्राम करना निर + विद् निर्वेद पाना, विरक्त होना निर + विश त्याग करना निर + Vवेष्टय नाश करना, क्षय करना निर + Vवेल फुरना
क्रोध से होठ काटना, होठ को मलिन
करना नि + Vशमय सुनना नि+ Vशाणय शान पर चढ़ाना, तीक्ष्ण करना नि+सृज
बाहर निकालना, त्याग करना नि+Vषद्
बैठना नि+ Vशुम्भ
मार डालना, मारना नि + श्रु
सुनना नि + सेव
सेवा करना नि+ षिध् निषेध करना, निवारण करना
णिसम णिसाण णिसिर णिसीअ णिसुंभ णिसुण णिसेव णिसेह
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३६३
बैठना
णिस्सम्म णिसिंच णिहण
णिहम्म णिहर णिहस
णिहा
णिहुव
णिहोड णी, णीण णीरंज णीरव
निर + श्रम् निर + सिच् प्रक्षेप करना, डालना नि + हन् , + खन् मारना; गाड़ना नि+हम् जाना, गमन करना नि+ Vह, + स पाखाना जाना, बाहर निकलना नि+ वृष
घिसना नि + Vधा, + राहा, Vश
स्थापन करना; त्याग करना; देखना, Vकामय
संभोग की अभिलाषा करना नि + Vवारय् , पातय् निवारण करना; गिराना, नाश करना गम्
जाना, गमन करना
तोड़ना आ + क्षिप
आक्षेप करना [आ + Vकृन्द, नि + स, आक्रन्दन करना, बाहर निकालना, रनि + हृद्
प्रतिध्वनि करना नि + सदू प्र+काशय प्रकाशित करना
ढकना, छिपाना क्षिप , नुदू फेंकना; प्रेरणा करना स्नपय
नहलाना, स्नान कराना स्ना
स्नान करना, नहाना
भिज
णीहर
बैठना
णुमज्ज णुव्व एम णोल्ल ण्हव
Vछादय
एहा
तक्क
तर्क तक्ष Vतन्
तक्ख तड, तड्ड, तण तडफड तणुअ तप्प, तव तमाड तम्म
तर्क करना छीलना, काटना विस्तार करना तड़फड़ाना पतला करना, कृश करना तप करना घुमाना, फिराना खेद करना
Vतनय तप
भ्रमय
Vतम्
तर
तैरना
तलहट्ट---
सिच्
सींचना
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण ।
तव, ताव तस ताड तालिअंट तिउट्ट तिप्प तिम्म
Vतपय , तापथ Vत्रस् Vताडय भ्रामय त्रुट तर्पय , तिप् स्तीम् Vशक् , Vतीरय
तीर
गर्म करना डरना, त्रास पाना ताड़ना घुमाना, फिराना टूटना तृप्त करना; झरना, चूना भीगना, आई होना समर्थ होना; समाप्त करना, परिपूर्ण करना व्यथा करना, पीड़ा करना शीघ्रता करना, त्वरा करना टूटना पार्श्व को घूमना, करवट बदलना तोलना खुश होना तेज करना
Vतुदू
त्वर
तुआ तुअर तुट्ट, तुड तुयट्ट तुल तूस, तोस तेअ
स्वग+ Vवृत Vतोलय
Vतुष
तेजय
थंभ
थक्क
थगथग
थण
थय
स्तम्भ
रुकना, स्तब्ध होना, स्थिर होना स्था, Vफक्क् , श्रम् रहना, बैठना; नोचे जाना; थकना,
श्रान्त होना Vथगथगय
फड़कना, कांपना स्तन्
गर्जना, कांपना स्थगय
आच्छादन करना काँपना स्तुति करना
तृप्त होना, सन्तुष्ट होना वि + गल
गल जाना स्तिम्
आई करना, गीला करना थिवथिव आवाज करना थूकना
थरथर थव, थुण थिंप थिप्प थिम थिवथिव थुक्क
तृप्
द
दंस, दरिस, दाव
दर्शय
दिखलाना, बतलाना देखना, अवलोकन करना
दक्ख
Vश
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३६५
दम
दय दल, दा; दल
दमय् उदय दा, दिल् , दिलय
दलिद्दा
दरिद्रा
दवाव
दापय
दह
दह.
दार
दारय दिक्ख
दीक्ष दिगिच्छ
जिघत्स् दिप्प, दीव, धिप्प दीप दिव, देव दिव् दुक्खाव Vदुःखय् दुगुण
द्विगुणय भ्रम्
निग्रह करना रक्षण करना, कृपा करना, देना देना, दान करना; विकसना, फटना चूर्ण करना, टुकड़े करना दुर्गति होना, दरिद्र होना छोड़ना दिलाना जलना, भस्म करना विक्षरना, तोड़ना दीक्षा देना खाने की इच्छा करना चमकना, तेज होना क्रीड़ा करना, जीतने की इच्छा करना दुःख उपजाना, दुःखी करना दुगुना करना खोयी हुई वस्तु की तलाश में घूमना, भ्रमण करना
आरूढ होना, चढ़ना दुहना, दूध निकालना छेदना; दुःखी करना उत्ताप करना, सन्ताप करना गमन करना, विहार करना दूषित होना, दूषण लगाना कहना, उपदेश देना हिलना, झूलना
आ + रुह
दुह दुहाव, दूभ दू, दूम दूज्जइ
छिद्, Vदुःखय दू
RE
दिशय
दोलय
धम
Vध्मा
Vष
धर धरिस धवक्क धवल
धमना, आग में तपाना धारण करना, पृथ्वी का पालन करना संहत होना, एकत्र होना "धड़कना, भय से व्याकुल होना सफेद करना धसना, नीचे जाना
Vधवलय धस---
धस
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
धा, धाव धाड
Vधा, Vध्यै, Vधाव निर + सृ, Vध्राड
धार धिक्कार धीर, धीख
Vधारय धिक् + कारय Vधीरय. Vथु Vधाव , Vधू Vधा
धारण करना; ध्यान करना; दौड़ना बाहर निकलना; प्रेरणा करना, नाश करना धारण करना धिक्कारना, तिरस्कार करना धैर्य देना, सान्त्वना देना कांपना धोना, शुद्ध करना; कंपाना, हिलाना धारण करना
धुव, धोअ, धुव
पउंज पउत्त पउल
पउस पंस पकत्थ पक्खर
प्र+युज प्र+Vवृत् उपच प्र + द्विष
पांसय. प्र+कित्थ् सं+ नाहय प्र+स्खल प्र+कथय प्र + कृष प्र+गल
ग्रह
जोड़ना, युक्त करना प्रवृत्ति करना पकाना द्वेष करना मलिन करना श्लाघा करना, प्रशंसा करना सन्नद्ध करना, घोड़े को सजाना गिरना, पढ़ना निन्दा करना खींचना झरना, टपकना ग्रहण करना पकाना त्याग करना, छोड़ना प्रतीति करना, विद्यास करना उत्पन्न होना, जन्म होना आस्वादन करना उछल कर नीचे गिरना नीचे उतारना प्रार्थना करना त्याग करना पिलाना, पान कराना
पक्खल पगंथ पगढ़ पगल पग्ग पच पञ्चक्ख पञ्चा पञ्चाया पच्चोगिल पच्चोणिवय पच्चोयर पच्छ पजह पज्ज
पच
प्रति + आपय प्रत्या + जन् प्रत्यव + गिल प्रत्यव नि +/पत् प्रत्यव + Vतृ प्र+अर्थय प्र+हा पायय
Page #398
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३६७
पज्जर पज्जुवट्ठा पज्झम
पट
Vat
पडिकप्प पडिक्ख पडिखिज पडिच्छ पडिदा पडिन्नव पडिपुच्छ पडिबाह पडिबुज्झ पडिबोह पडिभंज पडिवच्च पडिसव पडिसा पडिहण
कथय
कहना, बोलना पर्युप+स्था उपस्थित होना प्र + Vझञ्झ झरना, टपकना
पोना, पान करना प्रति + कृप सनाना, सजावट करना प्रति + ईक्ष प्रतीक्षा करना, बाट जोहना परि + खिदू खिन्न होना, क्लान्त होना प्रति + इष्
ग्रहण करना प्रति + Vा पीछे देना, दान का बदला देना प्रति + ज्ञापय कहना प्रति + प्रच्छ पूछना प्रति + Vबाध्
रोकना प्रति + Vबुध
बोध पाना प्रति + Vबोधय् जगाना प्रति + भञ्ज टूटना, भग्न होना प्रति +
वापस जाना प्रति + श्रु प्रतिज्ञा करना, स्वीकार करना Vशम्
शान्त होना, भागना, पलायन करना प्रति + हन् प्रतिघात करना प्रति +/भा
मालूम होना Vक्षुभ्
क्षुब्ध होना
पढ़ना, अभ्यास करना अर्पय, प्र + निमय अर्पण करना, नमाना प्रणि+ Vधा एकाग्र चिन्तन करना, ध्यान करना प्रज्ञापय प्ररूपण करना, उपदेश देना प्र + जा
प्रकर्ष से जानना प्र+ सु
झरना, टपकना प्र+ Vतारय
ठगना प्रति +NE
जानना, विश्वास करना प्र+अर्थय प्रार्थना करना प्रस्तु ... -- विछाना मृदू
मर्दन करना प्र + आप्
प्राप्त करना
पडिहा
198
पढ पणाम
पणिहा
पण्णव पण्णा
पण्डअ पतार पत्ति पत्थ पत्थर
पन्नाड पप्प
Page #399
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________________
३६८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण ......
पमज्ज
प्र+मज . प्र+Vमा
पमा
-
मार्जन करना, साफ सुथरा करना सत्य-सत्य ज्ञान करना प्रमाद करना
प्र+मद्
मुरझाना
मलाय
पमाय पमिलाय पम्हअ, पम्हस पय पयल्ल पया
प्र + स्मृ
पंच , पदू
पयार
प्र+Vया प्र+ चारथ परा + जि परा + मृश् क्षिप
पराइ परामुस परि परिआल परिक्कम परिगिला परिजव
Vवेष्टय
परि + क्रिम् परि + ग्लै परि + विच
भूल जाना पकाना, जाना शिथिलता करना, ढीला होना प्रयाण करना, प्रस्थान करना प्रचार करना, प्रतारण करना हराना, पराजय करना स्पर्श करना, छूना फैंकना वेष्टन करना, लपेटना पांव से चलना, पैदल चलना ग्लानि होना पृथक करना रक्षण करना स्तुति करना मार्जन करना गिर पड़ना, सरक जाना बढ़ना सूखना आलिंगन करना
परित्ता
परिथु
परिमइल परिल्हस परिवड्ढ परिवा परिस्सअ
परिह
पहिरना
परी
परि + स्तु परि + मृज परि + संस् परि + Vवृध परि + Vवा परि + स्वज परि + Vधा परि + Vइ, क्षिप ,
भ्रम् परि + अस् परा + अय् प्रवि+जी प्र+भाष प्र+ भू
पायय प्र+कटय
पलट्ट पलाय पविणी पहास पहुच्च पाए पागड
जाना; फेंकना; भ्रमण करना पलटना, बदलना भाग जाना दूर करना बोलना पहुँचना पिलाना प्रकट करना
Page #400
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३६९
पाठय प्र+ आनय
पाढ, पाढाव पाण पाणम पाम
पाधार
पार
Vशक , पारय्
पारंभ
पढाना, अध्ययन कराना जिलाना निःश्वास लेना प्राप्त करना पधारना सकना, करने में समर्थ होगा, पार , पहुंचना आरम्भ करना, शुरू करना पालन करना, रक्षण करना प्राप्त करना प्रार्थना करना प्रकर्ष से लाना, ले आना रूई धुनना, पोजना एकत्रित करना, संश्लिष्ट करना ढकना
प्रा+ भ पालय प्र+आय
पाल पाव
पाह पाहर
पिंज
प्रह पिञ्ज
पिंड
पिंध
पिज, पिव
19T
पीना
पिट्ट
पीडय
अज
पिडव पिस, पीस पिह
Vale
स्पृइ.
पुंज
पुज
पीडा करना . पैदा करना, उपार्जन करना पीसना इच्छा करना, चाहना इकट्ठा करना, फैलाना मार्जन करना, पौंछना पूजन करना, आदर करना पवित्र करना देखना भेजना, प्रेषण करना
पुंस
मृज पूजय
पुज, पूअ पुण पेच्छ
Vश प्र+ईरय
क्षिप प्र+एषय्
फेंकना
भेजना, पठाना, प्रेषण करना पुष्ट होना
Nपुष्
स्पन्द
थोड़ा हिलना, धड़कना उछलना
Page #401
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________________
३७०
फंस - फंसइ
फंस,फस,फास, } /स्पृशू फुस, फरिस
फट्ट
फड
फल
फव्वीह
फाड
फिट्ट
फिर
फुक्क — फुक्कइ
फुट्
फुम, फुस
फुर
फुरफुर
फुल्ल
फेल
फेल्लुस
फोड
बइस
बंध
बडबड
बल
बव, बुव, बू
बाह
बिंब
बिंह
बीह
बुक्क
√स्फटू
स्कट
√फल्
लभ्
फ
चअंशू
√ गम्
स्फुट्
भ्रम्, फूतू + √कु
चस्फुर
फुल्लू
क्षिप्
दे०
स्फोट्
अभिनव प्राकृत व्याकरण
उप + √विश्
बन्ध
दे०
VET
बाध
बिम्ब
ฟรี ร
भी
गर्ज, कू
ब
अस्य प्रमाणित होना
छूना, स्पर्श करना
फटना, छूटना
खोदना
फलना,
फलान्वित होना
यथेष्ट लाभ प्राप्त करना
फाइना
नीचे गिरना, ध्वस्त होना
फिरना, चलना
फुफकारना, फू-फू की आवाज करना निकलना, खिलना
भ्रमण करना; फूँक मारना
फड़कना, हिलना, अपहरण करना
थरथराना
विकसित होना
फूलना, फेंकना, दूर करना
फिसलना, खिसकना, खिसक कर
गिरना
फोड़ना, विदारण करना
बैठना
बांधना
बिलाप करना, बड़बड़ाना
ग्रहण करना
बोलना
विरोध करना, प्रतिबिम्बित करना
रोकना
पोषण करना
डरना, भयभीत होना
गर्जन करना, गरजना; कुत्ते का
भूँकना
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
बुध मस्ज्
बुज्झ बुड्ड बुब्बुअ बोट्ट बोल
जानना, ज्ञान करना डूबना बु,बु, की आवाज जूठा करना, उच्छिष्ट करना नुवाना बोलना समझना, ज्ञान करना
बोल्ल
Vबोधय्
भंज
भञ्ज भाण्डय् , भण्ड्
भंस
भ्रंश भिक्षय
भक्ख
भज्ज
भण्
भण, भण्ण भम भय
भ्रम भज
भर
भू
भल
भल
भव
तोड़ना, भग्न करना भंडारा करना, संग्रह करना, भर्त्सना करना नीचे गिरना भक्षण करना, खाना पकाना, भूनना कहना, बोलना भ्रमण करना, घूमना सेवा करना भरना, धारण करना सम्हालना होना भूकना चमकना डरना, भय करना वासित करना; चिन्तन करना; दिखाना बोलना; शोभना, प्रकाशना भेदना, तोड़ना भीख मांगना भेटना भिड़ना, मिलना, सटना मालिश करना जलाना भोजन करना
भस
भष
भा
भा
भाव
उभा भी भावय , भाल भाष , भास् भिदू भिक्ष
भास
भिंद
भिक्ख
भिट्ट
भिड भिलिंग भिस
दे०
प्लु __भुज् ---
भुंज
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________________
३७२
भुल्ल
भूस
भेल
भोअ
मइल
मइल
मउल
मंड
मंड
मक्ख
मग्ग
मज्ज
मड्ड, मद्द
मण
मर
मरह
मल्ह
मव
मह
माण
मार
माल
मिट
मिण
मिल
मिला
मिस
मिसमिस
मिसल, मिस्स
मिह
मील
अंग्
भूष
भेल
चभुजू
ሐ
मण्डू
दे०
√स्त्रक्षू
मार्गय्, ग्
मज्दू
स्टिडू
मन्
√ट
√सृष्
दे०
दे०
अभिनव प्राकृत व्याकरण
मा, मी
मिल
म्लै
√मिस्
दे०
मापय्
नापना, पाप करना
काक्षू, मधू, मह, चाहना, वांछना; मथना; पूजा करना
माय
सम्मान करना, आदर करना ताडन करना, हिंसा करना
मायू
मा
शोभना, वेष्टित होना
मिटाना, लोप करना
नापना, तोलना
मिलना
म्लान होना, निस्तेज होना
शब्द करना
मिश्रय
मधु
मी
च्युत होना
सजावट करना मिलाना, मिश्रण करना खिलाना, भोजन करना
मैला करना,
मलिन बनाना
तेज रहित होना, फीका लगना
सकुचना, संकुचित होना भूषित करना, सजाना
आगे धरना
स्निग्ध करना
चुपड़ना, मांगना; गमन करना, चलना
स्नान करना; अभिमान करना
मर्दन करना, चूर्ण करना, मसलना
मानना; जानना
मरना
क्षमा करना
मौज करना, लीला करना
अत्यन्त चमकना, खूब जलना मिश्रण करना, मिलाना
स्नेह करना
सकुचाना
Page #404
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________________
३७३
Vमुह.
मुण
अभिनव प्राकृत-व्याकरण मुअ, मुक्क, मुअ मोदय , Vमुच् खुश होना; छोड़ना Vमुण्डय
मूंडना मुच्छ मूर्छ
मूच्छित होना मुझ
मोह करना Vज्ञा
जानना मुन्य
मोहर लगाना विलास करना, जीभ चलाना,
व्याप्त करना स
चोरी करना मिलाना
मोड़ना, टेढ़ा करना मोहय
भ्रम में डालना
मेलय
मोट्य्
अन्
गमन करना
याण
जानना
མ ཝ - ཝ ཝ ཝ ཝེ ཀྵ ལྕེ ཝ ཝ ༈ ལ་ ཝ ཝ ཟླ༔ སྣ སྣ སྨཡཱ ཨཱ ཡྻ ཨཱ ཡྻ ཡྻ སྨཱ ཡྻ
र
रङ्ग रङ्गय्
रज्जर
र तक्ष
गम् , आ + रम्
रिक्ष
रक्ख. रच, रज्ज रड
रज स्ट आ + क्रम्
इधर-उधर जाना रंगना रंग लगाना राधना, पकाना छीलना, पतला करना जाना, गति करना; आरम्भ करना रक्षण करना, पालन करना अनुराग करना, आसक्त होना रोना, चिल्लाना आक्रमण करना क्रीड़ा करना, संभोग करना रंगना; बनाना, निर्माण करना कहना, बोलना
आई करना चिल्लाना, आवाज करना
रप्प
रम
रिज , रचय
रव
रव, राव
रस
रस्
रह .
रहना
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
राण
रह
रा वि+निम् रमय राज री; +/विश्
राम
राय
रिअ
वित
रड
मण्डय
त्यागना, छोड़ना देना, दान करना विशेष नमना रमण करना चमकना, शोभित होना गमन करना; प्रवेश करना रेंगना, चलना विभूषित करना रोना कपास से उसके बीज अलग करने की क्रिया करना आवाज करना रोकना, अटकना रुचना, पसंद होना शोभना, चमकना पीसना .
रुद्ध
रुध
लम्ब
लंभ
Izlete vititratérteni
Vलक्षय
लक्ख लग्ग
स्मृ
लभ
लम्
लांघना, अतिक्रमण करना सहारा लेना प्राप्त करना जानना लगना, सम्बन्ध करना स्मरण करना प्राप्त करना ग्रहण करना विलास करना, मौज करना काटना; बोलना, कहना श्लेष करना स्नेहपूर्वक पालन करना लेपन करना, लीपना प्राप्त करने की चाहना सोना, शयन करना; आलिंगन करना
लल
लस
लस् लालय लिप
लाल लिअ, लिंप लिच्छ लिस
लिप्स् स्वप् , श्लिष्
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिनव प्राकृत व्याकरण
३७५
लिह लुट, लुट्ट, लूड
लिख , लिह ਢਾਟ नि+Vली, तुड
लुक
Vलुभ
लिखना; चाटना लूटना लुकना, छिपना; टूटेना लुढ़कना, लेटना लोभ करना वध करना, मार डालना पोछना लेना कपास निकालना
लूषय मुज ला
वग्ग
वज्ज वज्जर
वट्ट
वड्ढ
वृध
वड्ढव वण्ण
Vवर्णय
वम
Vवञ्च
ठगना वि + अञ्ज
व्यक्त करना Vवन्दू
प्रणाम करना काङ्क्ष
चाहना, अभिलाषा करना Vवल्ग
कूदना, जाना, वर्ग करना Vत्रस् , Vवदू डरना; वजना कथय
कहना, बोलना वृत्
परोसना, व्यवहार करना, वरतना
बढ़ना Vवर्धय
बढाना, वृद्धि करना
वर्णन करना Vवम्
उलटी करना, वमन करना Vवच , Vवदू बोलना, कहना, गमन करना Vवृ
सगाई करना, सम्बन्ध करना Vवल
लोटाना, वापस करना, प्रहण करना Vवह , Vवध् , व्यथ् पहुँचानाः मारना; पीड़ा करना Vवा, म्ल, व्ये गति करना,चलना; सूखना, बुनना Vवादय्
बजाना Vवालय
मोड़ना, वापस लौटाना व्या+
काम में लगना व्या +पादय --- - मार डालना, विनाश करना
पशु-पक्षियों का बोलना -वाहय
वहन करना, चलाना
वय
१८
वा वाय
वाल वावर वावाअ वास वाह
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________________
३७६
वाहर
विअ
विअंभ
विअट्र
विअर
विअप्प
विअल
विअल्ल
विअस
विआण
विआय
विआर
विउक्कम
विउक्कस
विउज्झ
चिउट्ट
विउस
विओज
विछ, विभ
विंट
विंध, विज्झ
विकंथ
विकट्ट
विकर
अभिनव प्राकृत व्याकरण
विकुप्प
विकूड
व्या +ह
विदू
वि + √जृम्भू
विसं + √
वि + √वृत् अप्रमाणित करना, विचारना, विहरना
"
वि+चर् वि + √तृ
विहरना, घूमना, देना, अर्पण करना
पि + √कल्प.....
विचार करना, संशय करना
भुज् वि + √गल्
9
ओजय्
वि + /चलू वि+कस्
वि + √ज्ञा
वि+जन
च्युत् + क्रम्
व्युत् +कर्ष
वि + √बुध्
जानना, मालूम करना जन्म देना, प्रसव करना
वि + √कारय् + √चारय्, विकृत करना; विचार करना;
+ दाय
वि+ त्रोटयू + वृत्
वर्तय्
वि+विस्
वि+योज
वि + √घट्
बोलना, कहना
जानना
उत्पन्न होना, विकसना
व्यघ्
वि + थ्
वि + कृत्
वि + √
विकिण, विक्क, विक्के वि + क्री
विकिर, विक्खर वि + कृ
वि + √ कुप्
वि + √कूटयू
मोड़ना; गल जाना; मजबूत होना क्षुब्ध होना खिलना, विकसित होना
फाड़ना, चीरना
परित्याग करना, उल्लंघन करना
गर्व करना, बड़ाई करना
जागना
तोड़ डालना, उत्पन्न होना; विच्छेद होना विशेष बोलना; विद्वान् की तरह
आचरण करना
अलग करना
अलग होना
वेष्टन करना,
लपेटना
धना, छेदना, वेधना
प्रशंसा करना
काटना
विकार पाना
वेचना
विखरना
कोप करना प्रतिघात करना
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________________
विकूण विक्कोस
वि + √क्रुश
विक्खिव, विच्छु वि + √क्षिप्
विगण
वि + √गणय्
विगत्त
वि + √त्
विधुम्म. विच्च
विश्व
विगरह
वि+गर्ह
विगाह
वि+गाहू
विगिंच
वि + विच्
विगला, विगलाअ वि + ग्लै
विगोव
विच्छड्ड
विच्छुह
विज्ज
विट्टाल
विडंब
विढप्प
विढव
विण्ड
विणभ
विणिच्छ
विणिजंज
विणिवट्ट
विणिवाए
विणिवार
विणिहा
विणोअ
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
वि + √कूटयू
V
विष्णव
विष्णस
वि + √गोपय्
वि + √घूर्णय्
वि+अय्
दे
वि + √छर्दय्
वि + शुभ्
विद्
दे०
घृणा से मुँह मोड़ना चिल्लाना
वि + √ज्ञापय्
हि + न्यासय
दूर करना, फेंकना निन्दा करना, घृणा करना छेदना
काटना,
निन्दा करना
अवगाहन करना
पृथक् करना, अलग करना विशेष ग्लानि होना, खिन्न होना
प्रकाशित करना
डोलना
व्यय करना
समीप में आना
परित्याग करना
विक्षोभ करना, चंचल हो उठना
होना
उच्छिष्ट करना
अस्पृश्य करना, तिरस्कार करना, अपमान करना
वि+डम्बय्
व्युत् + √ पद्
अर्ज. वि+√नटय्, वि + √गुप् व्याकुल करना, खेद
खिन्न करना
विनिस् + चि
विनि + √युज्
विनि + √वृत्
विनि + पातय
विनि + Var
विनि + √धा
षि + √नोदय्
व्युत्पन्न होना
उपार्जन करना, पैदा करना
विडम्बना करना
निश्चय करना
जोड़ना, कार्य में लगना
निवृत्त होना,
पीछे हटना
मार गिराना
रोकना, निवारण करना
व्यवस्था करना
खण्डित करना,
करना
३७७
खेल करना,
कुतूहल
विनती करना, प्रार्थना करना
स्थापन करना, रखना
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________________
३७८
वित्थर, वित्थार
विद्दा
विद्ध
विपरिणाम
विपलाअ
विप्पजह
विप्पलंभ
विप्पसीअ
विप्फाल
विम्हय
विम्हर
विर
विरमाल
विरल्ल
विरेअ
विलस
विलुंप
विवर
विवह
विस
विसट्ट
विसिस
विसुज्झ
विसूर
वीसुंभ
वुज्ज
वुड्ढ
वेअ
वेआर
वि + √स्तृ
वि + √द्रा
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
√व्यध्
विपरि + √णमयू
विपरा + अ
विप्र + √हा
विप्र + √लभ्
विप्र + √सद्
दे
वि + स्मि
स्मृ
√भञ्ज्, √गुप् प्रति+ईश्
तनू
वि + √रेचय्
त्रि + √लस्
काङ्क्ष
वि + √
वि + वह
वि + √
वि+कस्
वि+शि
वि + √शुध्
खिद्
दे०
स
√ब्रुध्,
दे०
वर्धय्
वेदय् ; वे
·
फैलाना, बढ़ाना
खराब होना
धना, छेदना
विपरीत करना
दूर भागना
परित्याग करना, छोड़ देना
ठगना
प्रसन्न होना
पूछना
चमत्कृत होना, आश्चर्यान्वित होना, विस्मित होना
याद करना
तोड़ना; व्याकुल होना राह देखना, बाट जोहना विस्तारना, फैलाना
मल निकालना, दस्त लेना मौज करना
अभिलाषा करना, चाहना
बाल सँवारना, व्याख्या करना
विवाह करना
हिंसा करना, नष्ट करना
फटना, टूटना; विकसित होना,
खिलना
विशेषण युक्त करना
शुद्धि करना
खेद करना
पृथक होना
डरना
बढ़ना,
बढ़ाना
अनुभव करना, भोगना, जानना;
कांपना
ठगना, प्रतारण करना
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________________
३७६
वेल्ल
वेह
अभिनव प्रांकृत-व्याकरण Vवेष्ट
लपेटना Vवेल्ल , रम् कांपना, लेटना; क्रीडा करना व्यध्
वीधना गम्
चलना, गति करना Vआ + क्रम् आक्रमण करना व्युत् + Vसज् परित्याग करना, छोड़ना
बोल वोल्ल
वोसर
सअ संक
संकल संकेअ संखा
संखुड्ड संगह
स्वद् शङक् सं+ कलय् सं+ Vतय सं+ स्त्यैि
रम् सं+ग्रह: संगै
कथ सं+ शक सं+ स्था सं + क्षिप्
संगा
संघ
संचाय
चखना, स्वाद लेना, प्रीति करना संशय करना, सन्देह करना संकलन करना, जोड़ना इशारा करना आवाज करना,सान्द्र होना,निबिड बनना क्रीड़ा करना, संभोग करना संचय करना, संग्रह करना गान करना कहना समर्थ होना रहना, ठहरना एकत्र करना, इकट्ठा करना तैयार करना ख्याल करना, चिन्तन करना सन्ध्या की तरह आचरण करना कवच धारण करना, बसतर पहनना झरना, टपकना अवलम्बन करना, सहारा देना अनुसन्धान करना, खोजना, जोड़ना प्राप्त करना
संचिक्ख
संछह
संजत्त संझा
सं + vध्ये, सन्ध्याय
संणज्झ
सं+नह स्यन्दू
संद
संदाण संध
काटना
संपाव संलंच संवर संविज संवेल्ल'
सं+Vधा संप्र + आप सं + Vलुञ्च सं +va .... सं+ विद् दे०...-- --
- निरोध करना, रोकना . विद्यमान होना
सकेलना, समेटना, संकुचित करना
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________________
३८०
संस
सक
सज्ज
सड
सडढ
सद्दह
सप्प
सम
समत्थ
समर
समाण
समोसव
सम्म
सय
सय
सर
सलह
सव
सस
सह
सार
सार
साराय, साराव
सास, साह
साह
सिंगार
स्
खिसकना, गिरना कहना, प्रशंसा
करना
श√सृक सकना, समर्थ होना; जाना, गति
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
खञ्ज, सज्
सडू, ट
श्लाघ्
√शपू, √सू, √खु
√शदू
श्रद् + √धा
√सृप्
√शम्, शमय्
सम् + अर्थ
स्मृ
याद करना
√भुज, सम् + √आप भोजन करना, खानाः समाप्त करना दे०
करना
आसक्ति करना, आलिंगन करना; तैयार होना
टुकड़ा टुकड़ा करना शान्त होना
√शम्
√शी, √स्त्र; √स्वडू सोना, शयन करना; पचना, जीर्ण होना झरना, टपकना; सेवा करना
स्रु, √नি
सृ, स्मृ, स्वर्
खिसकना याद करना;
सरकना,
आवाज करना
प्रशंसा करना
शाप देना, गाली देना; उत्पन्न करना;
स्वरयू
सड़ना, विषाद करना, विनाश करना, कृश करना श्रद्धा करना, विश्वास करना
जाना, गमन करना
शान्त होना, उपशान्त होना; उपशान्त करना, दबाना सिद्ध करना, पुष्ट करना
खारायू
खेद करना
भरना, टपकना
चश्वस्
श्वास लेना
राज़, सह, आज्ञा शोभनाः सहन करना; आदेश देना
सार, प्र + √, स्मारय् ठीक करनाः प्रहार करना;
याद दिलाना
शास्√ऋथयू
साध्
शृङ्गा
बुलवाना
सार रूप होना; चिपकवाना, लगवाना
सजा करना, सीख देना कहना
सिद्ध करना; बनाना
सिंगार करना, सजावट करना
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
शि
सिंघ सिंच सिंज
सिक्ख
মি शिक्ष মিস্
सिक्खाव सिज सिज्म
स्विद्
मिथ्
सिणा
स्वा, स्नपय
सिणिज्म
सिर
स्निह. सृज
श्लाघ
सिलाह सिलेस सिव्व, सीव
श्लिष सीव
ह. सद्
सिह
सीअ
सीआव
सादय
सीमंत सील सीस सुप्प, सुअ, सुव
सूंघना सींचना, छिड़कना अस्फुट आवाज करना सीखना, पढ़ना, अभ्यास करना सिखाना, पढ़ाना, अभ्यास कराना पसीना होना निष्पन्न होना, बनना, मुक्त होना स्नान करना: स्नान कराना प्रीति करना बनाना, निर्माण करना प्रशंसा करना आलिङ्गन करना, भेटना सीना इच्छा करना, चाहना विषाद करना, खेद करना शिथिल करना बेचना अभ्यास करना वध करना, हिंसा करना; कहना सोना; सुनना शयन करना, सोना सूंघना सूखना; सुखाना शुद्ध होना याद करना सुनना सुगन्धित होना सूखना सू सू आवाज करना, सस्कार करना सेवा करना सुखी करना सूचना करना, जानना सूखना
Vशीलय शिष , Vश्य स्वप्, Vश्रु शी दे० शुष , शोषय
सुआ
सुंघ
सुक्क, सुकव सुज्झ सुढ, सुमर सुण सुरह
स्मृ
सुस्स
सुस्सुयाय सुस्सूस सुह
सुरभय शुष सुसुकाय , सूत्कारय Vशुभ्रष सुखय सूचय शुष -
सू
सस, सोस
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________________
३८२
सेव
सो
सोभ, सोह
सोल्ल
सोह
हक्क
हकार
हक्खुव
हण, हम्म
हम्म
हर
ཝཱ ཀཱ ཀཱ ཝཱ
हरेस
हा
हार
हाव
हास
हिरि
हाल
ཝཱ ཨཱལླ ཝཱ
हुल
हेर
होम
सेव
सु, स्वप् शुभ शोभय
अभिनव प्राकृत व्याकरण
चमकना
क्षिप् च् √र फेंकना पकाना; प्रेरणा करना
"
शोधय
शुद्धि करना, खोजना
दे०
उत् + √क्षिप्
हन्
हम्म्
Vह, मह, हदू
Ve, Ved
हेप √सू
स ू, स
VET
हारय
हाय
हालय
ही
हेल
√हु √क्षिप्, √मृज्
दे०
होम
आराधना करना, आश्रय करना
दारू बनाना, पीड़ा करना; सोना शोभना, चमकना; शोभा युक्त करना,
पुकारना, आह्नान करना ऊँचे फैलान
ऊँचा करना, उठाना, फेंकना
वध करना,
मारना
जाना
हरण करना, छीनना; ग्रहण करना;
आवाज करना
खुशी होना; हर्ष से रोमाञ्चित होना
गति करना
होना
हँसना, हास्य करना; हीन होना कम होना
त्याग करना, गति करना
नाश करना, हारना, पराभव होना
हानि करना, त्याग करना
हँसाना
लज्जित होना
अवज्ञा करना,
तिरस्कार करना
होम करना
फेंकना, मार्जन करना, साफ करना
देखना, निरीक्षण करना होम करना
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________________
दशवाँ अध्याय अन्य प्राकृत भाषाएँ
शौरसेनी (१) शौरसेनी में जितने भी शब्द आते हैं, उनको प्रकृति संस्कृत है । (२) शोरसेनी में अनादि में वर्तमान असंयुक्त त का द होता है । यथा--- मारुदिणा, मन्तिदो-त के स्थान पर है।... एदाहि, एदाओ<एतस्मात् ।
विशेष—(क) संयुक्त होने पर त का द नहीं होता। यथा-अजउत्त और सउन्तले में त का द नहीं हुआ है।
(ख) आदि में होने पर भी त का द नहीं होता । यथा
"तधोकरेध जधा तस्स राइणो अणुकम्पणीआ भोमि" में तधा और तस्स के तकारों को द नहीं हुआ।
(३) कहीं-कहीं शौरसेनी में वर्णान्तर के अधः-अनन्तर वर्तमान त का द होता है। यथा
महन्दो< महान्तः-हकारोत्तर आकार को हस्व और त को द । निश्चिन्दो< निश्चिन्त:- के स्थान पर च तथा त को द। अन्दे-उरं < अन्त:पुरम्-त को द और पकार का लोप । (४) शौरसेनी में तावत् शब्द के आदि तकार को विकल्प से दुकार होता है।
यथा
दाव, ताव < तावत्-विकल्प से तकार को द तथा हलन्त्य त् का लोप। (६) शौरसेनी में थ के स्थान पर विकल्प से ध होता है। यथाकधं < कथम् --थ के स्नान पर विकल्प से ध। कधेदि< कथयति- , कधिदं - कथितम्-"
१. तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य ८।४।२६० हे। २. अधः कचित् ८।४।२६१ । ३. बादेस्तावति ८।४।२६२ हे०। ......... ४. थो धः ८।४।२६७ ।
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________________
"
३८४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण _नाधो, नाहो< नाथः---थ के स्थान पर विकल्प से ध और विकल्पाभाव मेंथ को ह हुआ है।
राजपधो, राजपहो< राजपथ:-- ,
(६) शौरसेनी में इन्नन्त शब्दों से आमन्त्रण-सम्बोधन की प्रथमा विभक्ति के एकवचन में विकल्प से इन् के न का आकार होता है । यथा
भो कञ्चुइआ< भो कबुकिन् । सुहिआ< सुखिन् । अन्यन्त्र----भो तवस्सि < भो तपस्विन् भो मणस्सि< भो मनस्विन्
(७) शौरसेनी में नकरान्त शब्दों में सम्बोधन एकवचन में विकल्प से न के स्थान पर अनुस्वार होता है । यथा
भो रायं< भो राजन्–ज का लोप, अ स्वर शेष और अ को य, न् का विकल्प से अनुस्वार ।
मो विअयवम्म दभो विजयवर्मन्-जलोप, अ स्वर शेष और न को अनुस्वार ।
(८) शौरसेनी में भवत् और भगवत् शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नकार के स्थान पर अनुस्वार हो जाता है। यथा
एदु भवं, समणे भगवं महावीरे।
(९) शौरसेनी में ये के स्थान पर विकल्प से प्य आदेश होता है और विकल्पाभाव में ज आदेश होता है। यथा
अय्यउत्तो, अजउत्तोर आर्यपुत्र:-र्य के स्थान पर प्य तथा विकल्पाभाव में ज और पकार का लोप, नको त्त।
कय्यं, कजं < कार्यम्-र्य को विकल्प से य्य, विकल्पाभाव में ज । पय्याकुलो, पजाकुलोद पाकुल:-, सुय्यो, सुजो सूयःकजपरवसो< कार्यपरवश:-.,
(१०) शौरसेनी में इह और ह्यू आदेश के हकार के स्थान में विकल्प से ध होता है। यथा
इधर इह-द के स्थान पर ध हुआ है। होध होह-भवथ-,
परित्तायध< परित्तायह-परित्रायध्वे—त्र को त और ह को ध । १. मा आमन्त्र्ये सौ वेनो नः ८।४।२६३ । २. मो वा ८।४।२६४ । ३. भवद्भगवतोः ८।२।२६५ ।
४. न वा यो व्यः ८।४।२६६ । ५. इह-ह्योहस्य ८।४।२६८।
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३८५ (११) शौरसेनी में भू धातु के हकार को विकल्प से भ आदेश होता है।' यथा
भोदि, होदि भवति–प्राकृत में भू के स्थान पर हो आदेश होता है; शौरसेनी में विकल्प से भू के स्थान पर भ हुआ है।
(१२) शौरसेनी में पूर्व शब्द के स्थान पर विकल्प से 'पुरव' आदेश होता है।' यथा
अपुरवं नाड्यं । अपूर्व नाट्यम्-पूर्व के स्थान पर पुरव आदेश हुआ है। अपुरवागदं, अपुवागदं <अपूर्वागतम्-,
(१३) शौरसेनी में इत और एत के पर में रहने पर अन्त्य मकार के आगे णकार का विकल्प से आगम होता है।
(१४) शौरसेनी में इदानीम् के स्थान पर दाणिं आदेश होता है। यथाअनन्तर करणीयं दाणि आणेवदु अथ्यो। प्राकृत-महाराष्ट्री प्राकृत में भी इदानीम् के स्थान पर दाणि आदेश होता है । (१५) शौरसेनी में तस्मात् के स्थान पर ता आदेश होता है। यथाता जाव पविसामि तस्मात् तावत् प्रविशामि । ता अलं एदिणा माणेण < तस्मात् अलं एतेन मानेन ।
(१६) शौरसेनी में इत् और एन के पर में रहने पर अन्त्य मकार के कार का आगम विकल्प से होता है। यथा
जुत्तं णिमं,जुत्तमिमं—इकार के पर में रहने से। सरिसं णिमं, सरिसमिमं- , , किणेदं, किमेद-एकार के पर में रहने से। एवं णेदं, एवमेदं- , " (१७) शौरसेनी में एव के अर्थ में य्येव निपात से सिद्ध होता है। यथामम य्येव बम्भणस्स; सो य्येव एसो-एव के स्थान पर य्येव ।
(१८) चेटी के आह्वान अर्थ में शौरसेनी में हजे इस निपात का प्रयोग होता है। यथा
हज्जे चदुरिके।
१. भुवो भः ८।४।२६६ ।
२. पूर्वस्य पुरवः ८।४।२७० । ३. इदानीमो दारिण ८।४।२७७ हे०। ४. तस्मात्ताः ८।४।२७८ । ५. मोन्त्यारणो वेदेतोः ८।४।२७६ । ६. एवार्थे य्येव ८।४।२८० । ७. हज्जे चेट्याह्याने ८।४।२८१। .........
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण (१९) विस्मय और निर्वेद अर्थों में शौरसेनी में हीमाणहे का निपात होता है । यथा
हीमाणहे जीवन्तवच्छा मे जणणी–विस्मय मेंहीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एदेण नियविधिणो दुव्यवसिदेण–निर्वेद में । (२०) ननु के अर्थ में गं का निपात होता है। यथाणं अफलोदया; णं अय्यमिस्सेहिं पुढमं य्येव आणत्तं, णं भवं मे अग्गदो चलदि । (२१) शौरसेनी में हर्ष प्रकट करने के लिए अम्महे निपात का प्रयोग होतो है। यथाअम्महे एआए सुम्मिलाए सुपलिगढिदो भवं । (२२) शौरसेनी में विदूषक के हर्ण द्योतन में हीही निपात का प्रयोग होता है। यथाहीही भो संपन्ना मणोरधा पियवयस्सस्स ।
(२३) शौरसेनी में व्याप्त शब्द के त को तथा कुचित् पुत्र शब्द के त को ड होता है। यथा
बावडो व्यापृत:; पुडो , पुत्तो < पुत्रः ।
(२४) शौरसेनी में गृध्र जैसे शब्दों के प्रकार के स्थान पर इकार होता है। यथा-गिद्धोः गृध्रः- के स्थान पर इ, संयुक्त रेफ का लोप, ध को द्वित्व और पूर्ववतीं ध को द, विसर्ग को ओत्व ।
(२६) ब्राह्मण्य, विज्ञ, यज्ञ और कन्या शब्दों के ण्य, ज्ञ और न्य के स्थान में विकल्प से ज्ज आदेश होता है। यथा
बम्हजो ब्रह्मण्यः-संयुक्त रेफ का लोप, ह्य के स्थान पर म्ह और ण्य के स्थान पर ओ।
विजोर विज्ञः-ज्ञ के स्थान पर अ, विसर्ग का ओत्व । जजोर यज्ञ:–य के स्थान ज और ज्ञ के स्थान ज । कजा कन्या-न्य के स्थान पर ज । विकल्प भाव में--बम्हणो, विष्णो, जण्णो एवं कण्णा रूप होते हैं।
१. हीमाणहे विस्मय-निवेदे ८।४।२८२। २. णं नन्वर्थे ८।४।२८३ । ३. अम्महे हर्षे ८।४।८४ ।
४. हीही विदूषकस्य ८।४।२८५ । ५. व्यापते ड: १२।४ वर ।
६. पुत्रेऽपि क्वचित् १२१५ वर० । ७. इ गृधसमेषु १२।६ वर० । ८. ब्रह्मण्यविज्ञयज्ञकन्यकानां एयज्ञन्यानां जो वा १२७ वर० ।
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________________
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
३८७
(२६) शौरसेनी में सर्वज्ञ और इङ्गितज्ञ शब्दों के अन्त्य ज्ञ के स्थान पर ण आदेश होता है । यथा
सव्वण्णो < सर्वज्ञः– संयुक्त रेफ का लोप, व को द्वित्व और ज्ञ के स्थान पर ण्ण, विसर्ग को ओव
इंगिअण्णो इङ्गितज्ञ :- मध्यवर्ती का लोप, अ स्वर शेष और ज्ञ के स्थान पर or, विसर्ग का ओत्व |
(२७) शौरसेनी में स्त्री शब्द के स्थान पर इत्थी आदेश होता है ।
इत्थी स्त्री ।
(२८) शौरसेनी में इव के स्थान पर विअ आदेश होता है ।
विअ इव |
(२९) शौरसेनी में विकल्प से एव के स्थान जेम्ब आदेश होता है।
जेव्व एव ।
(३०) आश्चर्य शब्द के स्थान पर अच्चरिम आदेश होता है । यथाअच्चरिअं << आश्चर्यम्; अहह अच्चरिअं अच्चरिअं < अहह आश्चर्यमाश्चर्यम् ।
शौरसेनी के शब्दरूप
और
(३१) शौरसेनी में अत से पर में आनेवाली ङसि विभक्ति के स्थान पर आदो आदु आदेश होते हैं तथा शब्द के टि (अ) का लोप होता है ।
(३२) शौरसेनी में नपुंसक लिङ्ग में वर्तमान शब्दों से पर में आनेवाले जस और शस् के स्थान में णि आदेश तथा पूर्व स्वर को दीर्घ भी होता है ।
प्र०
पढमा
द्वि० बीआ
( ३३ ) शौरसेनी में सर्वनाम शब्दों से पर में आनेवाली —- सप्तमी एकवचन की ङि विभक्ति के स्थान में सिम्मि आदेश होते हैं ।
शौरसेनी के विभक्ति चिन्ह
एकवचन
ओ
(३४) जस् सहित अस्मद् के स्थान में वअं और अम्हे ये दोनों रूप शौरसेनी होते हैं ।
१. सर्वज्ञेङि गतज्ञयोगंः १२८ वर० । ३. इवस्य विश्र १२।२४ वर० । ५. श्राश्वयंस्याच्चरिनं १२।३० वर० ।
यथा
+
यथा
बहुवचन
यथा-
आ
आ, ए
२. स्त्रियामित्थी १२/२२ वर० । ४. एवस्य जेव्व १२।२३ वर० ।
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
तृ० तइया - ण, गं हि, हिं च० चउत्थी
.......स्स, आय- ण, पं० पंचमी
आदु, आदो आदो, तो, हितो, संतो, हि प० छट्ठी
ण, णं स० सत्तमी सि, म्मि
वीर शब्द के रूप एकवचन
बहुवचन प० वीरो
वीरा बी० वीरं
वीरे, वीरा त. वीरेण, वीरेणं वीरेहि, वीरेहि च० वीराय, वीरस्स वीराणं, वीराण ५० वीरादो, वीरादु वीरादो, वीराहितो, वीरासंतो, वीरेहितो,
वीरेसंतो छ० वीरस्स
वीराण, वीराणं स० वीरंसि, वीरम्मि वीरेसु, वीरेखें इसी प्रकार सभी आकारान्त शब्दों के रूप बनते हैं।
इकारान्त और उकारान्त शब्दों के विभक्ति चिन्ह एकवचन
बहुवचन ५० दीर्घ
अउ, अओ, णो बी० अनुस्वार
णो, दीर्घ त० णा
हि, हिं च० णो, स्स
ण, णं प० दो, दु
तो, ओ, उ, हितो, संतो छ० णो, स्स
ण, णं स० सि
सु, सं शौरसेनी में इसि <ऋषि शब्द के रूप एकवचन
बहुवचन प० इसी
इसउ, इसओ, इसिणो वी० इसिं
इसिणो, इसी इसिणा
इसीहि, इसीहि
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________________
च० छ० इसिणो, इसिस इसिदो, इसि
प०
प०
वी०
สว
च०
प०
इसीण, इसी
इसितो, इसीओ, इसीउ, इसी हितो इसी संतो
स०
इसिस, इसिम्मि
इसी, इसी
इसी प्रकार अग्गि, मुणि, बोहि, रासि, गिरि, रवि, कवि, निहि, विहि आदि शब्दों के रूप इसी शब्द के ही समान होते हैं ।
छ
स०
प०
वी०
प्रभिनव प्राकृत व्याकरण
शौरसेनी में भाणु भानु शब्द के रूप
K
एकवचन
भाणू
भाणुं
भागुणा
भाणुणो, भाणुस
भादो, भा
भागुणो, भागुस्स
भासि, भांणुम्मि
एकवचन
म्
एकवचन
कुलं
कुलं
बहुवचन
भो, भावो भाणओ
भाण, भा
भाणू, भाि
भाणूण, भाणूर्ण
भाणुत्तो, भाणूओ भाणू, भाणू हितो
भाणूसंतो
भाणूण, भापूर्ण
भाणूसु, भाणू
नपुंसकलिङ्ग
प०
वी०
""
""
शेष पुल्लिङ्ग के समान प्रत्यय होते हैं ।
बहुवचन णि-पूर्व स्वर को दोघं
शौरसेनी में कुल शब्द के रूप
३८६
बहुवचन कुलाणि
- कुष्ठाणि
""
शेष रूप वीर शब्द के समान होते हैं ।
सर्वनाम शब्दों के रूपों में पञ्चमी एकवचन में आदो और आदु प्रत्यय जोड़कर रूप बनते हैं। यथा
सव्वादो, सव्वादु, इमादो, इमादु; कादो, कादु, जावो, जादु आदि रूप बनते हैं । सप्तभी एक वचन में सव्वसित्वा सर्वस्मिन् इदरसित्वा हैं । एतद् (एअ) शब्द के रूपों में विशेषता है।
इतरस्मिन् आदि रूप बनते
"
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________________
३६०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
--
anana स स ६ ३ ३०
एअदएतद् एकवचन
बहुवचन एस, एसो एवं
एदे, एदा एदेश, एदेणं, एदिगा एदेहि, एदेहि एदस्स
एदेसि, एदाण, एदाणं एदादु, एदादो एअत्तो, एआओ, एआहितो, एआसंतो एदस्स
एदेसि, एदाण, एदागं एत्थ, अयम्मि, ईअम्मि एएस, एएसु एअम्मि, एअंस्सि
क्रियारूप । ३६ ) शौरसेनी में ति के स्थान पर दि और ते के स्थान पर दे, दि आदेश होते हैं।
(३६) शौरसेनी में भविष्यत् अर्थ में विहित प्रत्यय के पर में रहने पर स्सि होता है । भविस्सिदि, करिस्सिदि, गच्छिस्सिदि, आदि ।
(३७) शौरसेनी में भूधातु के स्थान पर भो आदेश होता है । यथा-भोवि ।
(३८) शौरसेनी में तिङ के पर में रहने पर दा धातु के स्थान में दे आदेश होता है और भविष्यत् में दइस्स होता है।
(३९) शौरसेनी में कृज धातु के स्थान में कर आदेश होता है। यथा करेमि ।
(४०) शौरसेनी में तिङ के पर में रहने पर स्था धातु के स्थान में चिट्ठ आदेश होता है।
( ४१ ) शौरसेनी में स्मृ, दृश और अस धातुओं के स्थान में क्रमशः सुमर, पेक्ख और अच्छ आदेश होते हैं।
( ४२ ) तिप के साथ अस् धातु के सकार के स्थान में स्थि आदेश होता है।
(४३ ) भविष्यत्काल में मिप सहित अस के स्थान में विकल्प से सं आदेश होता है । विकल्पाभाव में धातु के स्वर का दीर्घ भी होता है । स्सं, आस्सं आदि ।
( ४४ ) बहुवचन में तकार का धकार भी होता है । (४६ ) उत्तम पुरुष में म्ह होता है तथा मिप के स्थान पर स्सम् होता है।
वर्तमान में शौरसेनी के धातु प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प्रथम पुरुष (Thrid Person) दि. दे न्ति, न्ते, इरे मध्यम पुरुष (Second Person) सि, से इत्था, ध, ह उत्तम पुरुष (First Person) मि मो, मु, म
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
शौरसेनी के भविष्यत्काल के प्रत्यय
एकवचन
प्र० पु० म० पु०
उ० पु०
बहुवचन
रिसति, स्सिते, स्सिइरे
( Thrid Person) स्पिदि, स्सिदे (Second Person) स्थिति, स्सिसे
स्लिह, स्सिध, स्सिइस्था
( First Person) स्सं, स्सिमि
सिमो, स्सिमु, स्लिम
भूतकाल, आज्ञा एवं विधि में प्राकृत के समान ही प्रत्यय होते हैं।
एकवचन
प्र० पु० हसदि, हसेदे म० पु० हससि, इससे
उ० पु० हसमि, हसे मि
हसू धातु के रूप
वर्तमानकाल
भविष्यत्काल-भण
एकवचन
प्र० पु० भणिस्सिदि, भणेस्सि दि भणिस्सिदे, भणेस्सिदे
म० पु० भणिस्सिसि, भणिसि से उ० पु०
बहुवचन
हसन्ति, हसंते, हसिरे, हसइरे
हत्था, हसघ, हद्द
हसमो, हसमु, हसम, हसिमो, हसिमु इसिम, हसेमो, इसे, इसेम
३६१
बहुवचन
भणिस्थिति, भणेस्सिति, भणिस्सिते भणेस्लें ते, भणिस्सिइरे, भणेस्सिइरे
भणिसिह, भणिस्सिध, भणिस्सिइत्था
भणिस्सिमो भणिस्सिमु, भणिस्सिम
भणिस्सं, भणिस्सिमि
"
अन्य सभी धातुओं के रूप इस और भण के समान होते हैं ।
कृत् प्रत्यय
( ४६ ) शौरसेनी में क्त्वा प्रत्यय के स्थान पर इय, दूण और ता प्रत्यय होते हैं । यथा
इय
भू + क्त्वा - इय = भविय भूत्वा
हवियदभूत्वा
पढ + इ = पदिय पठित्वा
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
दूण
भू + दूण = भोदूण भूत्वा हो + दूण = होदूण< भूत्वा
पढ + दूण = पढिदूण < पठित्वा त्ता
भू + ता = भोत्ता< भूत्वा हो +त्ता होत्तारभूत्वा
पढ + ता = पठित्ता< पठित्वा ( ४७ ) शौरसेनी में क और गम धातुओं से पर में आनेवाले क्त्वा प्रत्यय के स्थान में विकल्प से अडुअ आदेश होता है और धातु के रि का लोप होता है। यथा
कृ + क्त्वा = क + अडुअ (टि-अ का लोप) = कडुअर कृत्वा । गम् + +क्त्वा=गम् + अडुअ (रि-अम् का लोप) = गडुअ< गत्वा । विकल्पाभाव पक्ष में क-कर + इय = करिया कत्वा । कर + दूण = करिदूण; कर + त्ता = करित्ता। गम्-गच्छ + इय = गच्छिय; गच्छ + दूण = गच्छिदूण । ( ४८ ) अवशेष कदन्त रूपों में त के स्थान पर द कर दिया जाता है । यथाभू + तव्यं हो + तव्वं = होदव्वं < भवितव्यम् ।
कुछ शौरसेनी धातु संस्कृत शौरसेनी
क्रियारूप भो या हो
भोदि, होदि पेच्छ
पेच्छदि दुच्च
बुच्चदि कधेदि
जिग्यदि भाअ
भाअदि
फुसदि घुम्म थुण
थुणादि
भादि पस
पसदि चवदि
कध
जिग्घ
घुम्मदि
भा
चव्व
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________________
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
प्रह गृह्य शक लै उदू + स्था
गेण्ड गेज्झ, घेण्प सक्कुण, सक्क
Poste गेदि, घेण्पदि कुद, सक्कद fearfa उत्थेदि
मिआअ उत्थ
Im
स्वप्
सुअ
सुभदि
शीङ
आदि
सुआ रोव
रोवद रोददि
रोद
बुडू दुद्दीअ
वहीअ लिहीअ
रुध्
रुद्र मस्ज
दुह्य
उद्य
लिह्य
तद्धित, समास, कारक आदि सभी अनुशासन शौरसेनी में प्राकृत के समान ही होते हैं। वर्णपरिवर्तन के नियम भी शौरसेनी में प्राकृत के समान ही हैं। केवल त कद और थका होना ही शौरसेनी की विशेषता है ।
-
वही अदि लिही अदि
जैनशौरसेनी
नाटकीय शौरसेनी से भिन्न होने के कारण प्रवचनसार, कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा, गोम्मटसार, समयसार आदि ग्रन्थों की भाषा को पृथक् भाषा माना गया है 1 इस भाषा की मूलप्रवृत्ति शौरसेनी की होने पर भी इसके ऊपर प्राचीन अर्धमागधी का प्रभाव है । जैनशौरसेनी का साहित्य नाटकों की अपेक्षा पुरातन है । षड्खण्डागम के मूल सूत्र भी जैनशौरसेनी में लिखे गये हैं । कुन्दकुन्दाचार्य और स्वामिकार्त्तिकेय ईस्वी प्रथम शताब्दी के विद्वान् हैं । अत: हमारा अनुमान है कि जैन शौरसेनी का विकसित और परिवर्तित रूप ही नाटकीय शौरसेनी है । यही कारण है कि नाटकीय शौरसेनी में जैन शौरसेनी की अनेक प्रवृत्तियां विद्यमान हैं। कुछ विद्वान् शौरसेनी के इस भेद को स्वीकार नहीं करते, पर हमारे विचार से यह नाटकीय शौरसेनी की अपेक्षा भिन्न है। जैनशौरसेनी की निम्न प्रमुख विशेषताएँ हैं ।
( १ ) त के स्थान पर द और थ के स्थान पर ध का होना । यथा
विगदरागो विगतरागः संजुदो संयुतः
29
३६३
-1
-त के स्थान पर द ( प्र० स० गा० १४ )
99
99
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३६४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण सुविदिदो< सुविदित:-त के स्थान पर द (प्र० सा० गा० १४) भणिदो भणित: - 1 ----" पदिमहिदो पतिमहित: -, (प्र० सा० गा० १६) भूदो भूतः - हवदि भवतिपरिवजि दो< परिवर्जितः-, (प्र० सा० गा० १७) ठिदि< स्थिति:--- , , (प्र० सा० गा० १७) उप्पादोर उत्पादः - ,
(प्र० सा० गा० १८) सब्भूदो< सद्भूतः - " "
" जादो< जातः -
(प्र० सा० गा० १९) अदिदिओ अतीन्द्रियःवितीद ८ व्यतीतः -
( धवला प्र० ख०) पयासदि प्रकाशयति-,, ,
(स्वा का० गा० २९४) मदिणाणं < मतिज्ञान-, , स्वा० का० गा० २५८) ) जैन शौरसेनी में त के स्थान पर त और य भी पाये जाते हैं। यथातिहुवणतिलयं र त्रिभुवनतिलक-त के स्थान पर त ( स्वा० का० गा० १) जलतरंगचपला < जलतरङ्ग चपला-(स्वा० का० गा० १२ ) विसहते रविसहते-(स्वा० का० गा० ३६) तिव्वतिसाए < तीव्रतृषया–त के स्थान पर त ( स्वा० का० गा० ४३ ) संपत्ती< सम्प्राप्ति: -
, (स्वा० का० गा० ४५१) अधिकतेजो अधिकतेजाः -
(प्र० सा० गा० १९) अक्खातीदो< अक्षातीत: -, , (प्र० सा० गा० २९) संति < सन्ति-
(प्र. सा० गा० ३१ ) मुत्तममुत्तं< मूर्तममूर्तम्-,, , (प्र० सा० गा० ४१)
मुत्तिगदो मूर्तिगत:- , , (प्र० सा० गा० ५५) त = य-रहियं दरहितं- त के स्थान पर य (प्र० सा० गा० ५९)
सव्वगयंद सर्वगतम्- , (प्र० सा० गा० २३, ३१) भणिया- भणिता- , (प्र० सा० गा० २६) संजाया< संजाता-
(प्र० सा. गा० ३८) गयं गतम्-
, (प्र० सा० गा० ४१) महत्वयं महाव्रतम्
, (स्वा० का० गा० ९५)
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३९५ रहियार रहिता- त के स्थान पर य (स्वा० का. गा० १२८)
पडियं < पतितम्- , , (स्वा० का० गा० ३९७) थ = ध-तधप्पदेसा तथाप्रदेशा-थ के स्थान पर ध (प्र० सा० गा० १३७) जध< यथा
(प्र० सा० गा० १३७ ) तधार तथा
, (प्र० सा० गा० १४६ ) वाघदवाथ
___ " " (प्र० सा० गा० १६३ ) अजधा<अयथा
(प्र० सा० गा० ८५) कधंर कथम्
, (प्रव० सा० गा० ५७, ११३, १०६) (३) जैन शौरसेनी में अर्धमागधी के समान क के स्थान पर ग भी होता है। यथा
वेदगर वेदक-क के स्थान पर ग (१० प्र० खं० ) एग<एकसगं स्वकं-
, (प्र० सा० गा० ५४) एगतेण एकान्तेन- , (प्र० सा० गा० ६६) ओगप्पगेहि योगात्मकै: - प्र० सा० गा० ७३) सागारो< साकारः -, (गो० सा० जी० गा० ७) अणगारो< अनाकार: -, उवसामगे< उपशामके-, , (गो० सा० जी० ६६) खवगे<क्षपके- , एगविगले < एकविकले-,, , (गो० सा० जी० ७९ )
वेदगा< वेदका: - , , (गो० सा० जी० ९३ ) (४) जैन शौरसेनी में क के स्थान पर क और य भी पाये जाते हैं । इसकी यह प्रवृत्ति भी अर्धमागधी से मिलती-जुलती है।
क= क संतोसकरं< सन्तोषकरं (स्वा० का० गा० ३३५) चिरकालं चिरकालं-(स्वा० का० गा० २९३) मणवयकाएहि मनोवचनकायैः (स्वा० का० गा० ३३२) अणुकूलं < अनुकूलं (स्वा० का० गा० ४६९) ओमकोट्टाए < अवमकोष्टया (गो० सा० जी० गा० १३४) हीणकमहीनक्रमम् (गो० सा० जी० गा० १७९) एकसमयम्हि < एकसमये (प्र० सा गा० १४२)
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३६६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
क- य सामाइयं सामायिकम् ( स्वा० का० गा० ३७२) कम्मविवायं ८ कर्मविपाकं (स्वा० का० गा० ३७२) सुहयरो सुखकरः ( स्वा० का गा० ३७२) नेरइया र नैरयिकाः (गो० सा० जी० ६३ ) वियसिदियेसु < विकलेन्द्रियेषु ( गो० सा० जी ८९) एयवियलक्खा < एकविकलाक्षाः ( गो० सा० जी० ९०) गाहयादहकाः (गो० सा० जी १७३) पत्तेयं प्रत्येक (गो० सा जी०१८४ ) ओरालियर औरालिकं ( गो० सा० जी १८४ ) क = अ-स्वरशेष अलिअं अलीकं ( स्वा० का० गा० ४०६) आलोओ आलोकः (स्वा० का गा० ३४४ ) नरए < नरके (प्र० सा० गा० ११४) पज्जा पट्टिएण< पर्यायार्थिकेन (प्र० सा० गा० ११४) वेउनिओ वैक्रियिकः (प्र० सा० गा० १७१)..
(५) जैन शौरसेनी में मध्यवर्ती क, ग, च, ज, त, द, और प का लोप विकल्प से पाया जाता है । अथवा यों कह सकते हैं कि इनका लोप अनियमित रूप से पाया जाता है। यथा
सुयकेवलिमिसिणो< श्रुतकेवलिनमृषयः ( प्रव०सा०गा० ३३ )-तकार का लोप और अवशिष्ट स्वर के स्थान पर य श्रुति ।
लोरपदीवयरा < लोकप्रदीपकरा-ककार का लोप और अवशिष्ट स्वर के स्थान में य श्रुति। ( प्रवचनसार गा० ३६)
वयणेहि ८ वचनैः ( प्र० सा० गा० ३४ )-चकार का लोप अवशिष्ट स्वर के स्थान पर य श्रुति।
सयलं < सकलम् ( प्र०सा०गा० ५१)-क का लोप और अवशिष्ट स्वर के स्थान पर य श्रुति ।
उवओगो< उपयोगः (६० सं० गा० ४)-4 के स्थान पर व।
बहुभेया< बहुभेदा (द्र० सं० गा० ३६)-दकार का लोप और अवशिष्ट स्वर के स्थान पर य श्रुति।
सुहाउ< शुभायुः (द्र० सं० गा० ३८)-यकार का लोप और उ स्वर शेष ।
सायारं सकारं (प्र०सं०गा० ४२)-ककार का लोप और अवशिष्ट आ स्वर के स्थान पर य श्रुति ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३९७ (६) जैन शौरसेनी में महाराष्ट्री के समान ही मध्यवर्ती व्यञ्जन का लोप होने पर अवशिष्ट अ या आ स्वर के स्थान में ही यश्रुति पायी जाती है । यथा
तित्थयरो तीर्थङ्करः- यहां क का लोप होने पर अवशिष्ट अ स्वर के स्थान में ही य श्रुति हुई है।
पयत्थर पदार्थ:-दकार का लोप और अवशिष्ट आ स्वर के स्थान में य श्रुति । वेणा < वेदना-दकार का लोप और अवशिष्ट अ के स्थान में आ को य श्रुति । आहारया आहारका-ककार का लोप और अवशिष्ट आ को य श्रुति । ( ७ ) उ के पश्चात् लुप्त वर्ण के स्थान में बहुधा व श्रुति पायी जाती है । यथाबालुवा बालुका-ककार का लोप और अवशिष्ट आ स्वर के स्थान में व श्रुति । बहुवं < बहुकं-ककार का लोप और अवशिष्ट स्वर के स्थान में व श्रुति । बिहुव < विधूत-तकार का लोप और अवशिष्ट स्वर के स्थान में व श्रुति ।
(८) जैन शौरसेनी में महाराष्ट्री के समान प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ओ और अर्धमागधी के प्रभाव के कारण सप्तमी के एकवचन में म्मि और म्हि विभक्ति चिह्न पाये जाते हैं। षष्ठी और चतुर्थी के बहुवचन में सिं प्रत्यय जोड़ा जाता है। पञ्चमी के एकवचन में शौरसेनी के समान आदो, आदु प्रत्ययों का योग पाया जाता है।
दवसहावो< व्यस्वभाव:-प्रथमा के एकवचन में ओ प्रत्यय जोड़ा गया है । सदविसिट्ठो< सदविशिष्टः- ,
एकसमयम्हि ८ एकसमये-(प्र० सा० गा० १४२ )-सप्तमी के एकवचन में म्हि प्रत्यय जोड़ा गया है।
एगम्हि < एकस्मिन् ( प्र०सागा० १४३ )-सप्तमी के एक वचन में म्हि प्रत्यय जोड़ा गया है।
अण्णदवियम्हि < अन्यद्रव्ये (प्र० सा० गा० १९९)- , ,
सुहम्मद शुभे (प्र० सा० गा० ७९ )- सप्तमी के एकवचन में म्मि प्रत्यय जोड़ा गया है। ____ चरियम्हि ८ चरिके ( प्र० सा० गा० ७९ )-सप्तमी के एकवचन में मिह प्रत्यय जोड़ा गया है।
गम्भम्मि < गर्भे ( स्वा० का. गा० ७४ )-सप्तमी के एकवचन में म्मि प्रत्यय जोड़ा गया है।
ससरूवम्मि स्वस्वरूपे ( स्वा० का गा० ४८३ )-सप्तमी के एक वचन में म्मि प्रत्यय जोड़ा गया है। ____ जोगम्मि < योगे (स्वा० का० गा० ४८४)- ,
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३६८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण एकम्मि, एकम्हि, लोयम्मि, लोगम्हि, जैसे वैकल्पिक प्रयोग भी जैन शौरसेनी में पाये जाते हैं।
तेसिं< तेभ्यः ( प्र० सा० गा० ८२ ) चतुर्थी के बहुवचन में सिं प्रत्यय जोड़ा गया है। ___सव्वेसि ८ सर्वेषाम् (स्वा० का० १०३ ) पष्ठी के बहुवचन में सिं प्रत्यय जोड़ा गया है।
(९) कृ धातु का रूप जैन शौरसेनी में कुबदि भी मिलता है। इसका प्रयोग स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ३१३, ३२९, ३४०, ३६७, ३८४ आदि में देखा जाता है।
(१०) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा और प्रवचनसार में शौरसेनीके समान करेदि का भी निम्न गाथाओं में प्रयोग मिलता है । यथा स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा—गा० ६१, २२६, २९६, ३२०, ३ २, ३५०, ३६९, ३७८, ४२०, ४४०, ४४९ और ६५१ । प्रवचनसार में गा० १८५ में करेदि रूप आया है ।
(११) जैन शौरसेनी में महाराष्ट्री के समान कृ धातु के रूप कुणेदि और कुणइ रूप भी निम्न गाथाओं में पाये जाते हैं । यथा
कुणेदि-स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा गा० १८२, १८८, २०९, ३१९, ३७०, ३८८, ३८९, ३६६ और ४२० । प्रवचनसार में गाथा ६६ और १४९ में कुणादि क्रिया व्यवहत की गयी है।
स्चामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा में गा० २०९, २२७, २८६ और ३१० में कृ धातु के कुणइ रूप का व्यवहार पाया जाता है।
जैन शौरसेनी में कृ धातु का करेइ रूप भी मिलता है। स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा गा० २२५ में यह रूप आया है।
(१२ ) जैन शौरसेनी में क्त्वा के स्थान में त्ता का व्यवहार होता है । यथाजाण+त्ता = जाणित्ता; वियाण + त्ता = वियाणित्ता । णयस + चा = णयसित्ता; पेच्छ + ता = पेच्छिता।
(१३ ) जैन शौरसेनी में क्त्वा के स्थान पर य भी पाया जाता है। यथाभवीय ( प्रवचनसार गा० १२ ); संस्कृत के आपृच्छ के स्थान पर आपिच्छ रूप आया है । गहिय र गृहीत्वा ( स्वा० का० गा० ३७३ )।
(१४) स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा में क्त्वा के स्थान पर चा का व्यवहार मिलता है। यथा-किच्चा कृत्वा ठिच्चाद स्थित्वा ।
शौरसेनी प्राकृत के दूण और महाराष्ट्री के ऊण प्रत्यय भी संस्कृत के क्त्वा के स्थान में जैन शौरसेनी में पाये जाते हैं। यथा-गमिऊण (गोम्मटसार गा० ५०),
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अभिनव प्राकृत-व्याकरम
३६६
जाइऊण, गहिऊण, भुंजाविऊण ( स्वा० का० गा० ३७३, ३७४, ३७५, ३७६ ); काढूण ( स्वा० का० गा० ३७४ )।
(१६) जैन शौरसेनी में शौरसेनी और अर्धमागधी के वर्णविकारसम्बन्धी अधिकांश नियम मिलते हैं। सभी क्रियाओं में त के स्थान पर नियमत: द पाया जाता जाता है। यथा-होदि, जादिदयाति (प्र. सा. गा० १५), हवदि< भवति (प्र. सा० गा० १६ ) विज्जादित विद्यते ( प्र० सा० १७ ), विजाणदिर विजानाति ( प्र० सा० गा० २१), जाणादि, जाणदि, णादिर जानाति (प्र. सा० गा० २५), वदिर वर्तते (प्र० सा० गा० २७), परिणमदि< परिणमति (प्र० सा० गा० ३२ ); उप्पजदि< उत्पद्यते ( प्र० सा० गा० ५२ ); मण्णदि मन्यते (प्र० सा० गा० ७७) जायदिजायते ( प्र० सा० गा० ८४ ), खीदि<क्षीयते (प्र० सा० गा० ८६ )। स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा में भी गोवदि ( स्वा० का० ४१८ ), परिहरेदि (४०३ ), संठवेदि ( ४१९ ), भासदि ( ३९८ ) और वहदि आदि प्रयोग पाये जाते हैं ।
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मागधी
( १ ) भागधी की प्रकृति शौरसेनी मानी गयी है । साधारण प्राकृत भी मांगी का मूल मानी जा सकती है ।
( २ ) मागधी में अकारान्त पुल्लिङ्ग शब्दों के प्रथमा के एकवचन में ओकारान्त रूप न होकर एकारान्त होते हैं । यथा
<
एशेमेशेष मेषः एशे पुलिशे । एष पुरुषः; करोमि भन्ते करोमि भदन्त । ( ३ ) मागधी में रेफ के स्थान पर लकार और इन्स्य सकार के स्थान पर तालव्य शकार होता है । यथा
र के स्थान पर ल और विसर्ग को एत्व
नले नरः -
कले ८ करः
विआले < विचार:
23
हं हंसः - दन्त्य के स्थान पर तालव्य श और विसर्ग को एत्व शालशे सारसः - आद्यन्त दन्त्य स के स्थान पर ताब्व्य श और रेफ को ल शुदं श्रुतम् - एदं – दस्य स को तालव्य श और शौरसेनी के समान
-
त को द ।
-
""
99
शोभणं सोहणं शोभनम् -
"3
( ४ ) मागधी में यदि सकार और षकार - अलग-अलग संयुक्त हों तो उनके स्थान में स होता है। ग्रीष्म शब्द में उक्त आदेश नहीं होता । यथा -
पक्खलदि हस्ती प्रस्खलति हस्ती - यहां स् और त संयुक्त हैं, अतः संयुक्त स के स्थान पर तालव्य श नहीं हुआ ।
बृहस्पदी 4 बृहस्पतिः — संयुक्त स को तालव्य श नहीं हुआ और दस्य स ज्यों का त्यों बना रहा।
१. प्रत एत्सौ पुंसि मागध्याम् ८।४।२८७ ।
२. र - सोल - शौ ८।४।२८८ ।
३. स - षोः संयोगे सोऽग्रीष्मे ८।४।२८ |
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
मस्कली मस्करी-संयुक्त स ज्यों का त्यों और रेफ को लत्व ।
शुस्कदालुं< शुष्कदारं- और क संयुक्त हैं, अत: संयुक्त मूर्धन्य ष के स्थान पर तालव्य श न होकर दन्त्य स हो गया है और रेफ को ल हुआ है।
कस्टंद कष्टम्-संयुक्त मूर्धन्य ष के स्थान पर दन्त्य स हुआ है। विस्नु विष्णुम्- " निस्फलं < निष्फलम् - , धनुस्खंड < धनुष्खण्डम्-, गिम्हवाशले < ग्रीष्मवासर:--ग्रीष्म शब्द में उक्त नियम लागू नहीं हुआ है ।
( ५ ) द्विरुक्त ट ( १ ) और षकार से युक्त ठकार के स्थान पर मागधी में 2 आदेश होता है। यथा -
पस्टे < पट्टः-ट्ट के स्थान में स्ट। भस्टालिका < भट्टारिका-2 के स्थान में स्ट और रेफ के स्थान में छ ।
शुस्टु कद< सुष्टु कृतम्–स के स्थान श, ष्टु के स्थान पर स्टु तथा ककारोत्तर प्रकार के स्थान पर अ एवं त के स्थान पर द।
कोस्टागालं < कोष्ठागारम्-8 के स्थान पर स्ट और र के स्थान पर ल हुआ।
(६) स्थ और र्थ इन दोनों वर्गों के स्थान में मागधी में सकार से संयुक्त तकार होता है। यथा
उवस्तिदे उपस्थित: --प के स्थान पर व, स्थि के स्थान पर स्ति तथा त के स्थान पर द और विसर्ग को एत्व ।
शुस्तिदेव सुस्थितः -दन्त्य स के स्थान पर तालव्य श, स्थ के स्थान पर स्त, त के स्थान पर द और विसर्ग को एत्व ।
अस्तवदी ८ अर्थवती-र्थ के स्थान में स्त और त स्थान पर द होता है )
शस्तवाहे < सार्थवाह: -दन्त्य स के स्थान पर श, र्थ के स्थान पर स्त और विसर्ग को एत्व।
( ७ ) मागधी में ज, घ और य के स्थान में य आदेश होता है। यथायणवदे < जनपदः –ज के स्थान पर य और प के स्थान पर व हुआ है । अय्युणे- अर्जुन: -र्जु के स्थान पर य्यु और न के स्थान पर ण। याणादिर जानाति-ज के स्थान पर य. न को ण और त के स्थान पर द । गय्यिदे< गर्जित:- के स्थान पर य्य और त को द, विसर्ग को एत्व ।
...
२. स्थ-र्थयोस्तः ८।४।२६१ ।
१. ट्ट-ष्ठयोस्ट: ८।४।२६० । ३. ज-ध-यां या शार
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४०२.
दुय्यणे दुजो दुर्जन: वयदे वर्जितः
""
मय्यं मद्यम्-द्य के स्थान में य्य । <
--
अय्य कि विय्याह आगदे अद्य किल विद्याधर आगतः ।
यादियादिइय के स्थान पर य ।
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
-र्जं के स्थान पर य्य और न कोण ।
-
-
( ८ ) मागधी में न्य, ण्य, ज्ञ और ज्ज इन संयुक्ताक्षरों के स्थान पर द्विरुक्त
होता है । यथा
अहिमज्जुकुमाले - अभिमन्युकुमारः -न्य के स्थान पर ज्ञ्ज । कञ्ञकावलं < कन्यकावरणम् —न्य के स्थान पर ज्ञ र को ल । अबम्हज्ञं 4 अब्रह्मण्यम् —ण्य के स्थान पर ञ्ज आदेश । पुजाहं पुण्याहम्ण्य के स्थान पर ज्ञ्ज ।
"
-
पञ्जाविशाले 4 प्रज्ञाविशाल: - ज्ञ के स्थान पर ञ ।
शव सर्वज्ञः दन्त्य स के स्थान पर श और ज्ञ के स्थान ज्ञ्ज । अवञ्ञा अवज्ञा - ज्ञ के स्थान पर ञ्ज ।
अञ्जली अञ्जलि: —ज के स्थान पर ञ । धणञ्जए धनञ्जयः ञ्ज के स्थान पर ञ । पञ्ञले पञ्जरः
aata और वर्ग को पुत्र ।
द
१. न्य-राय-ज्ञां ञः ८।४।२६३ ।
३. क्षस्य कः ८।४।२६६ |
और रेफ को लत्व |
,
"
घ)
( ९ ) मागधी में अनादि से वर्तमान छ के स्थान में शकार संयुक्त च (श्व होता है । यथा
गश्च गच्छ—'' के स्थान पर च । उश्चलदि उच्छति
के स्थान पर श्च और त को द ।
तिरश्चि पेस्कदिदतिरिच्छ पेच्छा < तिर्यक् प्रेक्षते - च्छ के स्थान पर श्व और क्ष के स्थान पर स्क, त को द ।
आवन्नवश्वले आपन्नवत्सलः - लाक्षणिक होने से त्स के स्थान पर भी श्च आदेश | (१०) मागधी में अनादि में वर्तमान क्ष के स्थान पर जिह्वामूलीयक आदेश होता है । यथा
य के यक्षः -क्ष के स्थान पर क आदेश और विसर्ग को एव ।
ल कशे राक्षस: रेफ के स्थान पर ल, अनियमित ह्रस्व, क्ष के स्थान पर क, दन्त्य स के स्थान पर तालव्य श और विसर्ग को एव ।
२. छस्य वोनादौ ८।४।२६५ ।
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४०३
अभिनव प्राकृत-व्याकरण (११) मागधी में प्रेक्ष और आचक्ष के स्थान पर स्क आदेश होता है। यथा- .
पेस्कदिरप्रेक्षते-संयुक्त रेफ का लोप होने से प्र के स्थान पर प, स के स्थान पर स्क तथा त को द। मागधी में ति और ते इन दोनों के स्थान पर दि आदेश होता है।
(१२) मागधी में हृदय शब्द के स्थान पर हडक्क आदेश होता है। यथा
हडक्के आलले मम< हृदये आदरो मम हृदय के स्थान पर हडके आदेश, तथा द और र के स्थान पर ल, प्रथमा एकवचन में विभक्ति ए का संयोग ।
(१३ ) मागधी में अस्मद् शब्द को प्रथमा एकवचन में सु विभक्ति में हके, हगे और अहके ये तीन आदेश होते हैं। यथा
हके, हगे, अहके भणामि < अहं भणामि ।।
(१४ ) मागधी में शृगाल शब्द के स्थान पर शिआल और शिआलक आदेश होते हैं। यथाशिआले आअच्छदि, शिआलके आअच्छदिशृगाल आगच्छति ।
शब्दरूपों के नियम (१५) मागधी में प्रथमा एकवचन में एत्व होता है । यथा-पुलिशे < पुरुषः ।
(१६ ) मागधी में अवर्ण से पर में आनेवाले उस्-षष्ठी के एकवचन के स्थान में विकल्प से आह आदेश होता है। आह के पूर्ववर्ती टि का लोप होता है। यथा
हगे न ईदिशाह कम्माह काली < अहं न ईदृशस्य कर्मण: कारी; भगदत्त-शोणिदाह कुंभे; पक्ष में-भीमशेणस्स पश्चादो हिण्डीअदि ।
(१७) मागधी में अवर्ण से पर में विद्यमान आम् के स्थान में विकल्प से आह आदेश होता है और पूर्व केटि का लोप हो जाता है। यथा
आहे-येषाम्; विकल्पाभाव से-याणं येषाम् । (१८) मागधी में अहम् और वयं के स्थान पर हगे आदेश होता है। यथाहगे शक्कावदालतिस्वणिवाशी धीवले ८ अहं शक्रावतारतीर्थनिवासी धीवरः।
( १९ ) मागधी में अकारान्त शब्दों को सुपर रहते इ, ए होते हैं और सु का लोप होता है। यथा
एशि लाआदएष राजा-यहां ष को श और अकार को इकार । एशे पुलिशेदएष पुरुष:-एत्व होने से एशे होता है।
१. स्कः प्रेक्षाचक्षोः ८।४२६७।
२. हृदस्य हडकः ११३६ वर० । ३. अस्मदः सौ हके-हगे-प्रहके ११६ वर० । ४. शृगालशब्दस्य शिप्रालाशिबालकाः ११।१७ वर० । ५. प्रवर्णाद्वा ङसो डाहः ८।४।२६६ हे० । ६. प्रामो डाहँ वा ८।४।३०० हे । ७. महंवयमोहंगे ८।४।३०१ हे०। ८. प्रत इदेतो लुक्च ११।१० व० ।
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
( २० ) हस्व अकारान्त शब्द के अन्तिम अकार को सम्बुद्धि पर रहते दीर्घ होता
है । यथा
૪૦૪
पुलिशा आगच्छ
माशा आगच्छ हे मानुष आगच्छ
पढमा
बीआ
तइआ
पंचमी
सप्तमी
पढमा
बीआ
तइया
चउत्थी
पंचमी
थी, छट्टी ६, स
छट्टी
समी
संबो
एकवचन
ए
•
अनुस्वार
ण णं
पुरुष आगच्छ – सम्बोधन होने से अकार को दीर्घ ।
एकवचन
वीले
वीलं
आदो, आदु
सि, म्मि
वीण, वीले
वीलाह, वीलस्स
वीलादो, वीलादु
वीलाह, वीस
वीलंस, वीलम्मि
हे वी
एकवचन
शब्वे
शव्वं
विभक्तिचिह्न
क्षा
अ
हि, हिं, हि
,, vi
तो, ओ, उ, हि, हिन्तो, शुंतो
शु, शं
वील - वीर शब्द के रूप
99
पढमा
वीआ
१. प्रदीर्घः सम्बुद्धौ ११।१३ व० ।
बहुवचन
बहुवचन
वीला
वीला
वलेहि, वीलेहिं, वीले हि®
वीला, वीलाण, वीलाणं वीलतो, वीलओ, वीलउ, बीलाहिन्तो,
बीलाशुन्तो
अन्य अकारान्त शब्दों के रूप भी वील शब्द के समान होते हैं ।
नपुंसक लिङ्ग में शौरसेनी के समान ही शब्दरूप बनते हैं ।
सर्वनामवाची शब्द मागधी में वील वीर के समान होगें । यहाँ उदाहरण के
लिए कुछ शब्द रूप प्रस्तुत किये जाते हैं।
1
शब्द सर्व के शब्दरूप
32
वीला, वीलाण, वीलाणं
वीलेशु, वीले
हेवीला
शव्वा
शव्वा
बहुवचन
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तइयो
चउत्थी
पंचमी
छट्टी
सत्तमी
संबोण
प
वी
त
च०
प०
छ०
स०
प०
वी०
त०
च०
पं०
शव्वेण, शव्वेणं
शव्वाह, शव्वस्स
शव्वादो, शव्वादु
शवाह, शव्वस्स
शव्वंसि, शव्वम्मि
हे श
अभिनव प्राकृत व्याकरण
एकवचन
शे
तं,
ते, तेणं, ति
ण णेणं
ताई, तस्स
तादो, तादु
एकवचन
एशे, एश
एं
ताह, तस्स
ता, ताला, तहआ
तम्मि, तस्सि, तहिं, तस्थ,
णम्मि, स्,ि णत्थ
त, तत् शब्द के रूप
बहुवचन
शब्वेहि, शब्वेदि, शब्वेद्दि
शव्वाइँ, शव्वाण, शव्वाणं शव्वत्तो, शव्वओ, शव्वउ, शव्वाद्दिन्तो,
शव्वाशुन्तो
शवाह,
शब्बे, शब्बे
हे शव्वा
एदेण, एदेणं, एदिणा
शे, एदाह दादु, दादो
शव्वाण, शवाण
तेणे
तेता,
तेहि, तेहि, तेहि, रोहि, हि, हि,
ताह, शिं, शि
ताणं, ताण, णाण, नाणं
तत्तो, ताओ, ताउ, ताहि, तेहि, तातो, तेहितो, तातो, तेशुंतो णत्तो, णाओ आदि
एअ< एतद्
ताह, तेशि, शिं, ताण, नाण
शु
णेशं
बहुवचन
दे
दे, दा
एदेहि, एदेहि, एदेि
शिं, एदाह, एदाण, एदाणं
४०५
मत्तो, एआउ, एआओो,
एआदि, एएहि, एआहितो, एएहितो, एआशुतो, एएशुंतो
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण छ० शे, एदाह .. - शिं, एदाहँ स० एत्थ, अयम्मि, ईअम्मि, एएशु, एएशुं
एअम्मि, एअस्सि इकारान्त और उकारान्त शब्दों के मागधी विभक्ति प्रत्यय एकवचन
बहुवचन . अउ, अओ, णो
णो० तणा
हि, हि, हि
दीर्घ
अनुस्वार
दो, दु
त्तो, ओ, उ, हिन्तो, शुन्तो
शु, शुं
स० शि
इशिद ऋषि शब्द के रूप एकवचन
बहुवचन इशो
इशउ, इशओ, इशिणो, इशी इशि
इशिणो, इशी इशिणा
इशीहि, इशोहिं, इशीहि इशिह
इशिहूँ, इशीण, इशीणं इशिदो, इशिदु इशित्तो, इशिओ, इशीउ,
इशिहितो, इशीशुतो छ० इशिह
इशिहूँ, इशीण, इशीणं स० इशिशि
इशीशु, इशीशु सं हे इशि, हे इशी हे इशउ, हे इशओ, हे इशिणो गागधी में इन-अन्तवाले शब्दों में सम्बोधन एकवचन में विकल्प से न के स्थान पर अकार आदेश होता है।
हे दंडिआ, हे दण्डी र दण्डिन् हे शुहिआ, हे शुहि < सुखिन् हे तवश्शिआ, है तवस्सि< तपस्विन्
उकारान्त-भाणु शब्द एकवचन
बहुवचन प० भाणू
भाणुणो, भाणो, भाणउ, भाणू वी० भागु
भागुणो, भाणू
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४०७
अभिनव प्राकृत-व्याकरण त भाणुणा
भाणूहि, भाyहि, भाणूहिँ भाणुह
भागुह भाणुदो, भाणुदु भाणुत्तो, भाणूओ, भाणूड
भाणूहितो, भाणूशंतो भाणुह
भाणुह, भाणूण, भाणूणं स० भाणुंशि, भाणुम्मि भाणूशु, भाणूशं सं० हे भाणु, हे भाणू हे भागुणो, हे भाणओ, हे भाणू
इसी प्रकार यउ, गुलु< गुरु, शाहु, मेलु < मेरु, कालु < कारु, लाहु दराहु आदि उकारान्त शब्दों के रूप बनते हैं। उकारान्त या इकारान्त शब्दों के रूप मागधी की प्रवृत्ति के अनुसार ही वर्णविकृति कर बनाने चाहिए। व्यञ्जनान्त या शेष स्वरान्त शब्द प्राकृत की शब्दरूपावली में मागधी की प्रवृत्ति के अनुसार वर्णविकृति करने से निष्पन्न होते हैं।
मागधी में प्रथमा, चतुर्थी, पञ्चमी और षष्ठी विभक्ति में ही अन्तर पड़ता है। स्पष्टीकरण के लिए अकारान्त पितृ शब्द के रूप भी दिये जाते हैं।
पिउ, पिआ, पिआल< पितृ एकववन
बहुवचन प०. पिआ, पिअले पिअला, पिउणो, पिअओ वी० पिअलं
पिअले, पिअला, पिउणो त० पिअलेण, पिमलेणं, पिउणा पिअलेहि, पिअलेहि, पहि च०, छ० पिअलाह
पिअलाह, पिअलाण प० पिअलादो, पिमलादु पिअलत्तो, पिअलाओ, पिअलाहितो,
पिअलाशंतो स० पिअले, पिअलंशि, पिऊशु, पिऊशुं
पिअलम्मि, पिउंशि. पिउम्मि सं० हे पिअ, हे पिअले हे पिमला, हे पिउणो ___ इसी प्रकार दाउ, दायाल र दातृ का प्रथमा के एकवचन में दायाले, चतुर्थी-षष्ठी के एकवचन में दायालाह और बहुवचन में दायालाहँ, पञ्चमी के एकवचन में दापालादो, दायालादु और सप्तमी के एकवचन में दायालंशि तथा सप्तमी के बहुवचन में दायालेशु, दायालेशुं रूप बनते हैं।
___ मागधी के धातुरूप मागधी की धातुरूपावली शौरसेनी के समान होती है। अतः मागधी के धातुचिह्न शौरसेनी के समान ही हैं। ........
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
(२१) मागधी में व्रज धातु के जकार को अ आदेश होता है । यथादिति ।
૪૦૬
( २२ ) प्रेक्ष और आचक्ष धातु के अ के स्थान पर एक आदेश होता है । यथा'पेस्कदि प्रेक्षते, आचस्कदि < आचक्षते ।
( २३ ) मागधी में स्था धातु के तिष्ठ के स्थान पर चिष्ट आदेश होता है । यथाचिष्ठदि तिष्ठति । मतान्तर से प्राकृत के समान चिट्ठ भी आदेश होता है ।
हशधातु - वर्तमान
प्र० पु०
एकवचन दशदि, हशेदि
म० पु०
शशि, हशशे, हशेज्ज
उ० पु० हशामि, हशमि, हशेमि, हज्ज
एकवचन
प्र० पु० भणिस्सिदि, भणेस्सिदि भणिस्सिदे, भणेस्सिदे
माशे दमाषः विलाशे विलासः
यावदे जायते
परिचये परिचय: गहिदच्छले << गृहीच्छलः
वियले 4 विजल :
णिज्भले निर्भरः
बहुवचन
हडके 4 हृदयः
अल्ले 4 आदरः कये कार्यम्
कारिदाणि कृत्वा गडे गतः
हति, ह
हत्था, दशध, दशेध हशमो, हामो, हशिमो, हशेमो,
हशम
भविष्यत्काल—भण
बहुवचन
भणिरिति, भणेस्थिति, भणिस्सिते भणिस्सिते, भणेस्सिले, भणेस्सिइले भणिसिह, भणेस्सिह
म० पु० भणिस्सिशि भणेस्सिशि भणिसिशे, भगेस्सिशे
भणिधि, भणेस्धि, भणिस्सिइत्था
उ० पु० भणिस्सं भणेस्सं भणेस्सिमि भणिस्सिमो भणेस्सिमो भणिस्लिम, भणेस्सिमु शेष सभी धातुरूप और कृदन्त रूप शौरसेनी के समान मागधी में होते हैं । मागधी के कतिपय विशेष शब्द
दुर्जनः
दुय्य लस्कशे << राक्षसः
दक्के < दक्षः
हक्के, अहके, हगे अहम् शिलाआएष राजा
हशिदु, हशिदि, हशिद हसित: पुलिशे पुरुष:
चिष्ठदितिष्ठति
कडे <कृत:
मडे मृतः
हशमु,
सहिदाणि <सोवा
शिआले, शिआलके < शृगालः
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अर्धमागधी साधारणतः अर्धमागधी शब्द की व्युत्पत्ति 'अधं मागध्या:' अर्थात् जिसका अर्धाश मागधी का हो वह भाषा 'अर्धमागधी' कहलायेगी। परन्तु जैनसूत्र ग्रन्थों की भाषा में उक्त व्युत्पत्ति सम्यक् प्रकार घटित नहीं होती। हां, नाटकीय अर्धमागधी में मागधी भाषा के अधिकांश लक्षण पाये जाते हैं।
अर्धमागधी शब्द की एक व्युत्पत्ति में "अर्धमगधस्येयं” अर्थात् मगध देश के अर्धीश की भाषा को अर्धमागधी कहा जायेगा। इस व्युत्पत्ति का समर्थन ईस्वी सन् सातवीं शताब्दी के विद्वान् जिनदासगणि महत्तर ने निशीथचूर्णि-नामक ग्रन्थ में"पोराणमद्धमागहमासानिययं हवइ सुत्तं द्वारा किया है । अर्धमगध शब्द की व्याख्या करते हुए "मगहद्ध विसयभासानिबद्धं अद्धमागह" अर्थात् मगधदेश के अर्ध प्रदेश की भाषा में निबद्ध होने से प्राचीन सूत्रग्रन्थ अर्धमागध कहलाते हैं। अर्धमागधी में अट्ठारह देशी भाषाएँ मिश्रित मानी गयी हैं। बताया है-"अट्ठारसदेसीभासानिययं वा अद्धमागहं" । अन्यत्र भी इसे सर्वभाषामयी कहा है।
अर्धमागधी का मूल उत्पत्ति स्थान पश्चिम मगध और शूरसेन (मथुरा) का मध्यवर्ती प्रदेश अयोध्या है। तीर्थङ्करों के उपदेश की भाषा अर्धमागधी मानी गयी है। आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव अयोध्या के निवासी थे, अत: अयोध्या में ही इस भाषा की उत्पत्ति हुई मानी जायगी। पर भाषा की भौगोलिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने पर अवगत होता है कि शौरसेनी या पूर्वी हिन्दी के साथ इस भाषा का विशेष सम्बन्ध नहीं है। महाराष्ट्री प्राकृत या आधुनिक मराठी के साथ इस भाषा का घनिष्ठ सम्बन्धा पाया जाता है। इन्हीं विशेषताओं के आधार पर डॉ० हॉर्नले ने बताया है कि अर्धमागधी ही
सर्वार्धमागधी सर्वभाषासु परिणामिनीम् । सर्वेषां सर्वतो वाचं सार्वज्ञी प्रणिदध्महे ।।
-वाग्भट्ट काव्यानुशासन पृ० २ मारिसवयणे सिद्ध देवाणं मद्धमागहा वाणी।
-काव्यालंकार की नमिसाधुकृत टीका २, १२ । २. “It thus seems to me very clear, that the Prakrit of
chanda is the Arsha - or ancient ( Porana) from the Ardhamagadhi, Maharashtra and Sauraseni"-Introduction to Prakrit Laksbana of chanda Page XIX
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४१०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण आर्ष प्राकृत है, और इसीसे परवर्ती काल में नाटकीय अर्धमागधी, महाराष्ट्री और शौरसेनी निकली हैं। आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के अध्ययन से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि एक ही भाषा के प्राचीन रूप को आर्ष प्राकृत और अर्वाचीन रूप को महाराष्ट्री कहा गया है। आर्ष प्राकृत से अर्धमागधी अभिप्रेत है। उन्होंने "आर्षम्" ८१३ सूत्र में 'आष प्राकृतं बहुलं भवति' तथा 'आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते' कथन में आर्ष-ऋषिभाषित प्राकृत के अनुशासन की बात कही है।
अर्धमागधी के प्रथमा एकवचन में मागधी के समान ए प्रत्यय जोड़ा जाता है। में समाप्त होनेवाले धातु के त स्थान में अर्धमागधी में ड होता है । अर्धमागधी की यह प्रवृत्ति भी मागधी से मिलती जुलती है। अर्धमागधी की वर्णपरिर्वतनसम्बन्धी निम्न विशेषताएँ है।
(१) अर्धमागधी में दो स्वरों के मध्यवर्ती असंयुक्त क के स्थान में सर्वत्र ग और अनेक स्थलों में त और य होते हैं। यथा
ग -- पगप्पर प्रकल्प-प्र के स्थान पर प, क को ग और संयुक्त ल का लोप तथा द को द्वित्व।
आगर < आकर-क के स्थान पर ग। आगास < आकाश-क को ग और श के स्थान पर दन्त्य स । पगार प्रकार-प्र को प और क को ग। सावग< श्रावक-संयुक्त रेफ का लोप, श को स और क के स्थान पर ग । विवजगद विवर्जक -- संयुक्त रंफ का लोप, ज को द्वित्व और क को ग। अहिगरणं < अधिकरणं -- ध के स्थान पर ह और क के स्थान पर ग । णिसेवग< निषेवकः-न के स्थान पर ण, मूर्धन्य ष को स और क को ग । लोगे- लोक: - क के स्थान पर ग और एकवचन का ए प्रत्यय । आगइ आकृति:-क के स्थान पर ग, ककारोत्तर - को अ, तकार का लोप ! त--आराहत आराधक-ध के स्थान ह, क के स्थान पर त । सामातित < सामायिक- के स्थान पर त और क के स्थान पर त । विसुद्धितर विशुद्धिक-तालव्य श को दन्त्ये स और क को त। अहित < अधिक-ध के स्थान पर ह और क को त।
साउणित < शाकुनिक-तालव्य श को दन्त्य स, ककार का लोप और उ स्वर शेष, न को ण तथा अन्तिम क के स्थान पर त ।
णेसजिा < नैषधिक-ऐकार के स्थान पर एकार, ष को स, ध के स्थान पर ज और क को त हुआ है।
वीरासणित < वीरासनिक-न को ण और क के स्थान पर त ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरणे
४११ वेड्ढति दवर्धकि-रेफ का लोप, ध को द्वित्व और मूर्धन्य ठ, पूर्ववर्ती ढ को ड तथा क के स्थान पर त .
नेरतित र नैरयिक—ऐकार का एकार, य को त और क को त । सीमंतत दसीमंतक-क को त हुआ है। नरतातोद नरकात्-क के स्थान पर त । माडंबित <माडम्बिक-क के स्थान पर त । कोडंबित < कौटुम्बिक-औकार को ओकार, ट को ड तथा क को त । सचक्खुत्तेण< सचक्षुष्कण-क्ष के स्थान पर क्ख और क के स्थान पर त । कूणित < कूणिक-क को त। य- काइयं कायिक-मध्यवर्ती यकार का लोप और क को य । लोय < लोक-क को य हुआ है। अवयारो< भवकारो-क के स्थान पर य ।
( २ ) दो स्वरों के बीच का असंयुक्त ग प्रायः कायम रहता है। कहीं कहीं त और य भी होता है । यथा
ग-आगमआगम-ग के स्थान पर ग रह गया है। आगमणं<आगमनं-ग के स्थान पर ग और न को ग हुआ है।
अणुगामिय < अनुगामिक-ग के स्थान पर ग, न के स्थान पर ण और क के स्थान पर य हुआ है।
आगामिस्स र आगमिष्यत्- ग के स्थान पर ग, संयुक्त य का लोप और स को द्वित्व; अन्तिम हल स् का लोप ।
भगवं < भगवन्- ग के स्थान पर ग और न को अनुस्वार । त-अतित < अतिग–ग के स्थान पर त । य-सायर< सागर–ग के स्थान पर य ।
( ३ ) दो स्वरों के बीच में आनेवाले असंयुक्त च और ज के स्थान में त और य दोनों ही होते हैं। यथा
त-णारात < नाराच-न के स्थान पर ण और च के स्थान पर त । वति वचस्-अन्त्य हल स् का लोप और च के स्थान त तथा इकार । पावतण< प्रवचन-प्र के स्थान पर प और च के स्थान पर त ।
य-कयातीर कदाचित्-दकार का लोप, आ शेष और य श्रुति, च के स्थान पर य और अन्तिम व्यञ्जन त् का लोप एवं पूर्ववर्ती इ को दीर्घ ।
वायणार वाचना-च को य और क को ण।
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४१२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण उवयार < उपचार-पको व और च को य । लोय < लोच-च के स्थान पर य ।
आयरिय ८ आचार्य-च को य और स्वरभक्ति के नियमानुसार र तथा य का पृथक्करण, इ स्वर का आगम ।
ज= त-भोति < भोजिन्–ज के स्थान पर त और अन्तिम न का लोप ।
वतिर < वज्र-ज के स्थान पर त और २ का पृथक्करण तथा त में ह्रस्व इकार का संयोग।
पूता< पूजा-ज के स्थान पर त ।
रातीसरराजेश्वर–ज के स्थान पर त, ऐकार को ईस्व, संयुक्त व का लोप और तालव्य श को दन्त्य स।
अत्तते< आत्मजः-संयुक्त म का लोप और त को द्वित्व तथा ज को त। पयाय र प्रजात-प्र के स्थान पर प, जकार को य और त का लोप, ऊ स्वर शेष तथा यश्रुति। कामज्झया कामध्वजा-ध्व के स्थान पर ज्झ, ज के स्थान पर य । अत्ता आत्मज-संयुक्त म का लोप, त को द्वित्व और ज को य ।
( ४ ) दो स्वरों का मध्यवर्ती त प्रायः बना रहता है; कहीं-कहीं इसका य होता है। यथा
वंदति < वन्दते-त के स्थान पर त ही बना रहा। आत्मनेपद की क्रिया परस्मैपद में परिवर्तित हो गई। ___ नमसति ( नमस्यति-संयुक्त य का लोप और म के ऊपर अनुस्वार ।
पजुवासतिपयुपास्ते-संयुक्त रेफ का लोप, य को ज और द्वित्व । पके स्थान पर व और स्वरभक्ति के अनुसार पृथक्करण, ए का इत्व ।
जितिदिय< जितेन्द्रिय-एकार को इत्व, संयुक्त रेफ का लोप और त ज्यों का त्यों बना हुआ है।
सतत सतत-तकार जैसे का तैसे बना हुआ है। अंतरित < अन्तरित-, " " धेवत (धेवत-. .. " " जाति जाति
आगति आकृति- क के स्थान पर ग, ऋकार को इ और त की स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है।
विहरतिर विहरति-त की स्थिति ज्यों की त्यों बनी है। पुरतोद पुरतः-विसर्ग को विकल्प से ओत्व और त ज्यों का त्यों बना है।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
करेति < करोति-ओकार को एत्व, त ज्यों का त्यों। तते<तत:-विसर्ग को एत्व, , , संलवति < संलपति-को व और ,,
पभिति< प्रभृति-प्र को प, भकारोत्तर ऋकार को इकार और त ज्यों का त्यों बना रहा।
करयल < करतल-मध्यवर्ती त के स्थान पर य हुआ।
(५) दो स्वरों के बीच में स्थित द का द और त ही अधिकांश में देखा जाता है, कहीं-कहीं य भी होता है। यथा
द-पदिसो< प्रदिश:-प्र को प, द के स्थान पर द और श को स हुआ है ! अणादियं अनादिक-न के स्थान पर ण, द को द और क के स्थान पर य ।
वदमाण< वदत् -द के स्थान पर द और संस्कृत के शतृ प्रत्यय के स्थान पर माण हुआ है।
णदति < नदति-न के स्थान पर ण और द को द ही रह गया है। जणवद जनपद-नके स्थान पर ण, प के स्थान पर व और ६ को द।
वेदिहिती< वेदिष्यति-संयुक्त य का लोप, ष को स और स के स्थान पर ह तथा द और त के स्थान पर उक्त दोनों वर्ण ही विद्यमान हैं।
त-जता< यदा-य के स्थान पर ज और द को त। पात < पाद-द के स्थान पर त । निसात < निषाद-मूर्धन्य ष को स और द को त । नती नदी-द को त।
मुसावात मृषावाद-मकारोत्तर के स्थान पर उ, ष को स और द के स्थान पर त हुमा है।
वातित < वादिक-द के स्थान पर त और क के स्थान पर भी त । अन्नता< अन्यदा-संयुक्त य का लोप, न को द्वित्व और द को त ।
कताती< कदाचित्-द के स्थान पर त, चको त और अन्तिम हल तू का लोप तथा त् के पूर्ववर्ती इकार को दीर्घ ।
जति < यदि-य को ज और द को त । चिरातीत द चिरादिक-द और क के स्थान पर त, इकार को दीर्घ । य-पडिच्छायण< प्रतिच्छादन-प्रति के स्थान पर पडि, द को य और न कोण।
चउप्पय < चतुष्पद-तकार का लोप, उ स्वर शेष, संयुक्त ष का लोप, प को द्वित्व और द के स्थान पर य । ___ कयस्थो कदर्थ-द के स्थान पर य, र्थ को त्थ ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
उयर < उदरम्-६ को य।
पयाहिणा< पदक्षिणा-प्र को पद के स्थान पर य और क्ष के स्थान पर ह हुआ है।
(६) दो स्वरों के मध्यवर्ती प के स्थान पर व होता है । यथापावग < पापक-मध्यवर्ती ५ को व और अन्त्य क को ग हुआ है । संलवति संलपति-, सोधयार< सोपचार-4 को व और च के स्थान पर य हुआ है। अतिवात अतिपात-4 के स्थान में व हुआ है। उवणीय उपनीत- के स्थान में व और न कोण, तथा त को य हुआ है।
अज्झोववयण्ण < अध्युपपन्न-ध्य के स्थान पर ज्झ, उ को ओत्व, उत्तरवर्ती दोनों पकारों को व तथा न कोण।
उवगृढ < उपगूढ–प को व हुआ है।
आहेवच्च आधिपत्य-ध के स्थान पर ह, इकार को एत्व, प को व और त्य को च।
तवय र तपक–५ को व और क को य । ववरोपित < व्यपरोपित-संयुक्त य का लोप, प को व हुआ है।
( ७ ) स्वरों का मध्यवर्ती य प्रायः ज्यों का त्यों रह जाता है और कहीं-कहीं उसका त भी हो जाता है । यथा
वायव वायव-य ज्यों का त्यों स्थित है। पियवप्रिय-प्र के स्थान पर प और य ज्यों का त्यों वर्तमान है। निरय < निरय -य ज्यों का त्यों वर्तमान है। इंदिय < इन्द्रिय-संयुक्त रेफ का लोप, और य ज्यों का त्यों। गायइगायति-यज्यों का त्यों, त लोप और इ शेष । त-सितारसिया-य के स्थान पर त। सामातित र सामायिक-य के स्थान पर त और क को भी त हुआ। पालतिस्संति < पालयिष्यन्ति–य के स्थान पर त और ष्य को स्स । परितात ८ पर्याय--स्वरभक्ति के नियम से यं का पृथक्करण और इ का आगम दोनों य के स्थान पर त। णातग<नायक--न के स्थान पर ण, य को त और क के स्थान पर ग। गातति < गायति-य के स्थान पर त । ठाति-स्थायिन् –स्था के स्थान पर ठा, य को त और अन्त्य न का लोप । साति<शायिन्-तालव्य श को स, य के स्थान पर त और अन्त्य न का लोप ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण नैरतित र नैरयिक-ऐकार को एकार, य के स्थान में त और क को भी त । इंदित < इन्द्रिय-संयुक्त रेफ का लोप और य के स्थान पर त । (८) दो स्वरों के मध्यवर्ती व के स्थान पर व, त और य होता है। यथाव-वायव ८ वायव-व के स्थान पर व ही रह गया है। गारव< गौरव-औकार के स्थान पर आकार और व के स्थान पर व । भवति भवति-व के स्थान पर व ही रहा।
अणुवीति अनुविचिन्त्य-न के स्थान पर ण, इ को ईत्व, व के स्थान पर व और चिन्त्य के स्थान पर ति।
त-परिताल र परिवार-व के स्थान पर त और र के स्थान ल। कति कवि–व के स्थान पर त । य-परियट्टण र परिवर्तन–व के स्थान पर य, र्त के स्थान पर दृ और न को ण। परियट्टणा< परिवर्तना
(९) शब्द के आदि, मध्य और संयोग में सर्वत्र ण की तरह न भी स्थित रहता है । यथा
नई ८ नदी-न ज्यों का त्यों और द का लोप, ई स्वर शेष । नायपुत्त र ज्ञातपुत्र-ज्ञ के स्थान पर न, त को य और त्र के स्थान पर त । भारनाल < आरनाल-न के स्थान पर न ही रह गया है। अनिल < अनिलपन्ना र प्रज्ञा–प्र को प और ज्ञा के स्थान पर ना। विन्नु ८ विज्ञ-स के स्थान पर न्नु ।
सव्वन्नु < सर्वज्ञ-संयुक्त रेफ का लोप, व को द्वित्व और ज्ञ के स्थान पर न और अकार को उत्व।
(१०) एव के पूर्व अम् के स्थान में आम होता है । यथाजामेव < यमेव-य के स्थान पर ज और एव के पूर्ववर्ती अम् के स्थान पर आम् । तामेव < तमेव- एव के पूर्ववर्ती अम् के स्थान पर आम् ।
खिप्पामेवर क्षिप्रमेव क्ष के स्थान पर ख, संयुक्त रेफ का लोप और प को द्वित्व तथा एव के पूर्ववर्ती अम् को आम् ।
एवामेव < एवमेव-एव के पूर्ववर्ती अम् के स्थान पर आम्। पुवामेव < पूर्वमेव-पूर्व के स्थान पर पुच और एव के पूर्ववर्ती अम् को आम् ।
(११) दीर्घ स्वर के बाद इति वा के स्थान में ति वा और इ वा का प्रयोग होता है । यथा---
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण इंदमहे ति वार इन्द्रमह इति वा-इति वा के स्थान में ति वा । इंदमहे इ वा< इन्द्रमह इति वा- , , इ वा।
( १२ ) यथा और यावत् शब्द के य का लोप और ज दोनों ही देखे जाते हैं । यथा
अहक्खाय र यथाख्यात-यथा के स्थान पर अह और ख्यात को क्खाय होता
अहाजात र यथाजात-यथा के स्थान पर अहा हुआ है।
जहाणामए < यथानामक–य के स्थान ज, थ को ह, न को ण और स्वार्थिक क के स्थान पर ए।
आवकहा यावत्कथा-य का लोप, अ स्वर शेष, अन्त्य हल त् का लोप और थ के स्थान पर है।
जावजीव < यावज्जीव-य के स्थान पर ज हुआ है।
(१३) दिवस् शब्द में व और सकार के स्थान पर विकल्प से यकार और हकार आदेश होते हैं। यथा
दियह. दियसंरदिवसं विकल्प से व के स्थान पर य और स के स्थान पर हा स के स्थान पर ह न होने पर दियसं रूप बनेगा।
दिवह, दियसं< दिवसं-स के स्थान पर ह होने से प्रथम रूप और विकल्पाभाव में द्वितीय रूप बनता है।
(१४ ) गृह शब्द के स्थान पर गह, घर, हर और गिह आदेश होते हैं । यथागह गृहम्-गृह के स्थान पर गह आदेश होने से । घरं, हरं, गिहं < गृहम्-गृह के स्थान पर घर, हर और गिह आदेश होने से ।
(१५) म्लेच्छ शब्द के च्छ के स्थान पर विकल्प से क्खु आदेश होता है तथा एकार के स्थान पर विकल्प से एकार और उकार होते हैं। यथा
मिलेखु , मिलक्खू , मिलुक्खू म्लेच्छ:-स्वर भक्ति के नियम से म और ल का पृथक्करण, इकार का आगम, च्छ के स्थान पर क्खू तथा एकार के स्थान पर विकल्प से अकार और उकार होते हैं।
(१६ ) पर्याय शब्द के र्याय भाग के स्थान पर विकल्प से रियाग, रिआग और जाय आदेश होते हैं । यथा
परियागो, परिआगो, पज्जायो पर्यायः ।
(१७) बुधादिगण पठित शब्दों के धकार के स्थान पर विकल्प से हकार आदेश होता है। यथा
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४१७
अभिनव प्राकृत-व्याकरण बुहो< बुधहे-ध के स्थान पर ह और विसर्ग को एत्व। . रुहिरं< रुधिरं-ध के स्थान पर ह आदेश हुआ है। एहतो एधन्तो-ध के स्थान पर ह हुआ है।
खुहा<खुधा-ध के स्थान पर ह आदेश हुआ है।
(१८) वर्ज आदि शब्दों में व के स्थान पर विकल्प से उ आदेश होता है । यथा____ आउजो, आवजोआवर्ज: –व के स्थान पर विकल्प से उकार और संयुक्त रेफ का लोप तथा ज को द्वित्व ।
आउजणं, आवजणंद आवर्जनम्-, (१९) धनु शब्द के स्थान पर विकल्प से धणुहं, धणुक्खं का आगम होता है। धणुह, धणुक्खं, धणुं<धनु: ( २० ) पुट और पुर शब्द के से पकार का लोप विकल्प होता है। यथातालउडं, तालपुडं ( तालपुटं-पकार का लोप, उ स्वर शेष और तकार के स्थान
पर ड।
गोउर, गोपुरं गोपुरम्-विकल्प से पकार का लोप।
(२१) अर्धमागधी में ऐसे शब्द भी प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं, जिनका प्राय: महाराष्ट्री में अभाव है । यथा
अज्झस्थिय, अज्झोवण्ण, अणुवीति, आघवणा, आघवेत्तग, आणापाणू , आवीकम्म कण्हुइ, केमहालय, पच्चस्थिमिल्ल, पाउकुव्वं, पुरथिमिल्ल, पोरेवच्च, महतिमहालिया, वक्क, विउस।
( २२ ) अर्धमागधी में ऐसे शब्दों की संख्या भी बहुत अधिक है, जिनके रूप महाराष्ट्री से भिन्न होते हैं । उदाहरणार्थ कुछ शब्दों की तालिका दी जाती है । अर्धमागधी महाराष्ट्री अर्धमागधी
महाराष्टी अभियागम अब्भाअम
णिच्च आउंटण आउंचण निएय
णिअअ आहरण उआहरण पडुप्पन्न.
पच्चुप्पण्ण उम्पि उरिं; अवरिं पच्छेकम्म
पच्छाकम्म किरिआ कीस, केस केरिस
पुढो (पृथक् ) पुहं, पिह केवञ्चिर किअच्चिर पुरेकम्म
पुराकम्म गिद्धि
पुवं चियत्त ......--- चइअ
माय
मत्त, मेत्त २७
नितीय
किया
पाय
पत्त
गेहि
पुन्वि
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
छक्क
जत्ता
णग
णगत्तण
तइभ
सहाअ
तच्छ--
सिमिण
सा
माहण जाया
मिलक्खू , मेच्छ मिलिच्छ णिगण, णिगिण
वग्गू
वाया णिगिणिण
वाहणा (उपानह) उवाणा तच्च (तृतीय)
सहेज्ज तच्च (तथ्य)
सीआण, सुसाण मसाण तेगिच्छा
चिइच्छा सुमिण दुवालसंग
वारसंग सुहम, सुहुम सह दोच्च
दुइ सोहि
सुद्धि दुवालस, बारस; तेरस, अउणावीसइ, बत्तीस, पणतीस, इगयाल, तेयालीस पणयाल, अढयाल, एगट्टि, बावट्टि, तेवटि, छावट्टि, अढसट्टि, अउणत्तरि, बाबत्तरि, पण्णत्तरि, सत्तहत्तरि, तेयासी, छलसीइ, बाणउइ आदि संख्या-शब्दों के रूप आर्धमागधी में महाराष्ट्री से भिन्न हैं।
शब्दरूप ( २३ ) अर्धमागधी में पुल्लिङ्गः अकारान्त शब्द के प्रथमा एकवचन में प्राय: सर्वत्र ए और क्वचित् ओ होता है ।
( २४ ) सप्तमी एकवचन में स्सि प्रत्यय होता है। ( २५ ) चतुर्थी के एक वचन में आये या आते प्रत्यय जोड़े जाते हैं।
( २६ ) अर्धमागधी में कुछ शब्दों में तृतीया के एकवचन में सा प्रत्यय जोड़ा जाता है । यथा
मणला, वयसा, कायसा, जोगसा आदि। महाराष्ट्री में मणेण, वएण आदि रूप बनते हैं।
(२७ ) कम्म और धम्म शब्द के तृतीया के एकवचन में पालि की तरह कम्मुणा और धम्मुणा रूप होते हैं। महाराष्ट्री में कम्मेण और धम्मेण रूप बनते हैं।
( २८ ) अर्धमागधी में तत् शब्द के पञ्चमी के एकवचन में तेब्भो रूप भी पाया जाता है।
(२९) युषमद् शब्द के षष्ठी के एकवचन में तव और अस्मदू शब्द के षष्ठी के बहुवचन में अस्माकं रूप पाये जाते हैं । ये रूप महाराष्ट्री में नहीं होते हैं।
अर्धमागधी के विभक्ति प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प्र० ए, ओ द्वि० अनुस्वार
आ
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तृ०
च०
प०
ष०
स०
इण, सा
आए, आते
ओ. आतो
स्स
सि, मि
अकारान्त जिण शब्द के रूप
प्र०
द्वि०
तृ०
एकवचन
जिणे
जिणं
जिणेण, जिणेणं
च०
जिणाते
जिजाए, जिणाओ, जिणातो
प०
ष
जिणस्स
स०
जिणंसि, जिणम्मि
सम्बो० भो जिणे, भो जिणा
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
एकवचन
राया
राय, रायाणं
29
अणं
प्र०
द्वि०
तृ०. स्वा
इर्हितो
अणं
इसु
बहुवचन
जिणा
जिणे
जिहिं, जिणेहि
जिणाणं
जिणेहिंतो
जिणाणं
इसी प्रकार गोयम, देव, वीर आदि अकारान्त शब्दों के रूप होते हैं । अर्धमागधी में भगवत् ( भगवन्त) शब्द का प्रथमा के एकवचन में भगवन्तोः मतिमन्त का मतिमं और मतिमन्तो; कार और कारयन्तोः द्वितीया के बहुवचन में भगवन्तो, मतिमन्तो, कारयन्तों एवं तृतीया के भगवा और भगवता रूप बनते हैं । षष्ठी के एकवचन में भगवओ और होते हैं । इन शब्दों के शेष रूप जिण शब्द के समान होते हैं ।
जिणेसु
भोजणे
(३०) तार प्रत्यान्त शब्दों में प्रथमा और द्वितीया के ओकार आदेश होते हैं। यथा
पसत्थारे, पथारो; कत्तारे, कत्तारो; भत्तारे, भत्तारो एवं तर के स्थान पर आदेश होने से पसत्थुणा, कत्तुणा, भत्तुणा बनते हैं। शेष शब्द रूप जिण शब्द के समान होते हैं ।
राय शब्द के रूप (राजन् शब्द )
बहुवचन
रायाणो
राई हि
४१६
भगवं और प्रथमा और
एकवचन में भगवतो रूप
बहुवचन में एकार और
तृतीया के एकवचन रूप भी विकल्प से
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राईणं
प०
पा
४२०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण च० रायाए, रायाते प० रायाओ, रायातो
रायेहितो ष० रनो
राईणं स. रायसि, रायम्मि, राये रायेसु
संस्कृत के आत्मन् शब्द के स्थान पर अर्धमागधी में अत्त और अप्प आदेश होते हैं । अत: इस शब्द के रूप निम्न प्रकार चलते हैं।
अत्त, अप्प<आत्मन् एकवचन
बहुवचन प्र० अत्ता, अप्पा
अत्ते, अप्पे अत्ताणं, अप्पाणं
अत्त, अप्पे, अप्पा अत्तणा, अप्पणा
अत्तेहि, अप्पेहि अत्ताए, अप्पाए
अत्ताणं, अप्पाणं अत्ताओ, अप्पाओ अत्ताहितो, अप्पाहतो अत्तणो, अप्पणो
अत्ताणं, अप्पाणं स० अत्तंसि, अप्पंसि, अत्तम्मि, अत्तेसु, अप्पेसु
अप्पम्मि जस, मण, वय, काय, तेय, चक्खु और जोग शब्द के तृतीया एकवचन में जससा, मणसा, वयसा, कायसा, तेयसा, चक्खुसा; जोगसाः षष्ठी के एकवचन में जससो, जसस्स; मणणो, मणस्स; वयसो, वयस्स; कायसो, कायस्स; तेयसो, तेयस्स; चक्खुसो, चक्खुस्स; जोगसो, जोगस्स एवं सप्तमी विभक्ति एकवचन में मणसि, मणसि, मणमिः वयसि, वयंसि, वयंमिः कायसि, कायंसि, कायंमिः तेयसि; तेयंसि, तेयंमि; चक्खुसि चक्खुसि, चखुमि और जोगसि, जोगसि, जोगंमि रूप बनते हैं।
इकारान्त मुणि शब्द के रूप .. एकवचन
बहुवचन प्र० मुणी
मुणिणो, मुणी
मुणिणो, मुणी तृ० मुणिणा, मुणिस्स मुणोहि, मुणीहि
मुणिणो, मुणिस्स मुणीणं मुणिणो, मुणीओ मुणीहितो मुणिणो, मुणिस्स मुणीणं
मुर्णिसि, मुणिमि, मुणी मुणीसु सं० भो मुणि, भो मुणी
भो मुणिणो
द्वि०
मुणिं
च०
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४२१ इकारान्त शब्दों के अतिरिक्त उकारान्त शब्दों के रूप भी प्राकृत-महाराष्ट्री प्राकृत के समान चलते हैं।
पितृ शब्द का प्रथमा के एकवचन में पिता, पिया, पितरो, पियरोः द्वितीया के एकवचन में पितरं, पियरं एवं चतुर्थी के एकवचन में पिउए, पिउस्स और पिउणो रूप बनते हैं। सव्व शब्द के रूप प्राकृत के समान ही होते हैं।
क< किम् के शब्दरूप एकवचन
बहुवचन प्र० के, को द्वि० के केणं, केण
केहि, केहि च० काए
केसि प० कम्हा, काओ
कओहिन्तो कस्स
केसि कस्सि, कसि, कमि, के केसु
अयं< इदम् एकवचन
बहुवचन प्र० अयं, इमे
इणमो, इमो इणं, इयं
अणेण, इमेणं, इमेण इमेहि, इमेहि च० इमाए
इमेसि इमाओ, इमा
इमेहितो अस्स, इमस्स .
इमेसि अस्सि, इमंसि, इमंमि इमेसु .
एस <एतद् एकवचन प्र० एसो, एसे, ए
एए द्वि० एयं तृ० एएणं, एएण
एएहि, एएवि च० एयाए
एएसि पं० एयाओ, एया
एएहितो ष० एएस्स
एएर्सि
द्वि०
इमे
स०
बहुवचन
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________________
४२२
स०
एएस, एस, एमि
एएस
इसी प्रकार अन्य सर्वनाम शब्दों के रूप होते हैं ।
प्र०
माला
द्वि० मालं
तृ०
च०
पं०
प०
स०
सं०
प्र०
द्वि
तृ०
च०
पं०
प०
स०
सं०
प्र०
this ie p
दिट्टीओ, दिट्ठी
दिट्टीओ, दिट्ठी
faste
दिट्ठीणं
हितो
दिट्ठीणं
दिट्ठीसु
भो दिट्टीओ
Saria और ऊकारान्त शब्दों के रूप भी प्राकृत के समान ही होते हैं ।
द्वि०
तृ०
च०
एकवचन
पं०
अकारान्त स्त्रीलिंग माला शब्द के रूप
मालाए
मालाए
मालाओ
मालाए
मालाए
भो माले
एकवचन
दिट्ठि
दिि
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
दिट्ठीए
दिट्ठीए
दिट्ठोओ
दिट्ठीए
दिट्ठिसि
भो दिट्ठी
मालासु
भो माला
स्त्रीलिंग इकारान्त दिट्ठि दृष्टिः
बहुवचन
बहुवचन
मालाओ, माला मालाओ, माला
मालाहि
मालाणं
मालातो
मालाणं
जा
जं जीए, जाए
जीसे, जाए
जाए, जाओ
स्त्रीलिंग में जादू सर्वनाम शब्द के रूप
एकवचन
बहुवचन
जाओ
जाओ
जाहि
जासिं
जाहितो
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४२३
ष० जीसे, जाए
जासि स. जीसे, जाए
जासु सं० हे जा
हे जाओ नपुंसकलिङ्ग में शब्दों के रूप प्राकृत के समान ही होते हैं।
तद्धित अर्धमागधी में संस्कृत के समान तद्धित प्रत्ययों को अपत्यार्थक, देवतार्थक, समूहार्थक, अध्ययनार्थक, विकारावयवार्थक, अनेकार्थक, मतुबर्थक और स्वार्थिक इन आठ भागों में विभक्त किया जा सकता है। शेषिक प्रत्यय भी अर्धमागधी में पाये जाते हैं । अपत्यार्थक और समूहार्थक
( ३१ ) समूह, सम्बन्ध और अपत्यार्थक बतलाने के लिए इय, अण् और इज्ज प्रत्यय जोड़े जाते हैं। यथा
कविलस्स इयं-काविलियं ९ कापालिकम्-कविल + इय-लकारोत्तर अकार का लोप और वृद्धि होने से, विभक्ति चिह्न जोड़ने से उक्त रूप बनता है।
उत्तरस्स इम-उत्तरिज औत्तरेयम्-उत्तर + इज्ज–रकारोत्तर अकार का लोप और विभक्तिचिह्न जोड़ने से उक्त रूप बना है।
कोसस्स इमं-कोसेज < कौशेयम्-कोस + इज-गुण और विभक्ति चिह्न जोड़ने से।
समूहार्थ
सगडाणं समूहो-सागडं < शाकटम्-सगड + अ-वृद्धि और विभक्तिचिह्न ।
वेसालीए अवच्च-वेसालिओ८ वैशालिक: – वेसालियसावए वैशालिकश्रावकः -इय (अ) प्रत्यय जोड़ा गया है ।
पण्डवस्स भवच्चाणि—पाण्डवा-पाण्डव + अण (अ) पाण्डवा, पण्डवा; इसी प्रकार अण प्रत्यय जोड़ देने से-लाघवं, अजवं, महवं आदि रूप भी बनते हैं। व्यापार या वृत्ति अर्थचोरस्स वावारो—चोजं < चौर्यम्-चोरियं में इज और इय प्रत्यय जोड़े गये हैं। वणियस्स वावारो-वाणिज< वाणिज्यम्-व्यापार अर्थ में इज प्रत्यय ।
( ३२ ) अप्पण शब्द से सम्बन्ध बतलाने के लिए इच्चिय और इजिय प्रत्यय होते हैं। यथा
अप्पणस्स इयं-अप्पणिच्चियं < आत्मीयम् -अप्पण + इच्चिय = अप्पणिच्चियं; अप्पण + इजिय = अप्पणिजियं ।
पयातीणं समूहो—पायत्तं पदातम्-पयत्त + अण = पायत्तं ।
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________________
४२४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण पडिहारीए इयं—पाडिहेरं - प्रातिहार्यम्-पडिहारी + अण-पडिहारी शब्द में हा के स्थान पर हे आदेश हुआ है और रकारोत्तर इकार का लोप ।
मम + इय-ममाई, ममाइए<ममत्वी, ममायितः ।। ( ३३ ) पर शब्द से सम्बन्ध बतलाने के लिए कीय प्रत्यय होता है। यथापर + कीय-परकीयं । ( ३४ ) राय शब्द से सम्बन्ध बसलाने के लिए पण प्रत्यय होता है । यथाराय + bण-राइण्णं, रायणं-य कार के स्थान पर इकार । (३५) कम्म शब्द से सम्बन्ध बताने के लिए ण और अ प्रत्यय जोड़े जाते हैं।
कम्म + ण = कम्मणं< कार्मणम् , कम्म + अ = कम्मअं भवार्थक प्रत्यय
( ३६ ) भवार्थ में इम, इल्ल, इज, इय, इक, क आदि प्रत्यय जोड़े होते हैं ।
अभंतरे भवो-अभंतरिए, अब्भंतरगो< आभ्यन्तरक: - अभंतर + इय = अभंतरिए, विकल्पाभाव में अब्भंतर + क (ग) = अब्भंतरगो । अवरिल्लं <आपरम्
___ पुरा भवं-पुरच्छिमं, पुरथिमंदपौरस्त्यम्-पुरस्थ + इम = पुरथिम, पुरस्थ के स्थान पर पुरच्छ होने से पुरच्छिमं रूप बनता है। अन्ते भवं-अन्तिम-अन्त + इम = अन्तिमं ।
___ वरि भवं-उवरिल्लं-उवर + इल्म = उवरिल्लं <उपरितनं; उबरि + इम = उवरिमं ।
भंडारे अहिगडो-भाण्डारिए < भाण्डारिकः -भण्डार + इयण (इए) = भाण्डारिए । स्वार्थिक
(३७) स्वार्थ बतलाने के लिए अणु , इक, इज, इजण, इय, इयण , इम, इल्ल, क और मेत्त प्रत्यय होते हैं ।
जायमेत्तं, जायमित्तं < जातमात्रम्-जाय + मेत्त = जायमेत्तं—एको इत्व होने से जायमित्तं रूप बनता है।
णियडिल्लया निकृतिमत्ता-णियड + इल्ल = णियडिल्ल स्त्रीलिङ्गवाची या प्रत्यय जोड़ने से णियडिल्लया। उत्तर + इल्लं - उत्तरिल्लं < औत्तरेयम्; आण + इल्ल + इथ = आणिल्लियं<आनीतकम् ; छ + च्च = छच्चं, छ + छलं < षटकम् ।
(३८) पोत्त शब्द से उल्ल और बद्ध तथा मुक्त शब्द से स्वार्थिक इल्लग प्रत्यय होता है। यथा
पोत्त + उल्ल = पोत्तुल्लओरपौत्रकः; बद्ध + इल्लग = बद्धेल्लगोवद्धकः; मुक्क + इल्लग = मुक्केल्लगोद मुत्तकः ।
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
४२५
( ३९ ) लोभादि शब्दों से स्वर्थिक त्ता प्रत्यय होता है और त्ता के स्थान पर
विकल्प से या हो जाता है । यथा
गवेसण + त्ता = गवसणत्ता < गवेषणिका; लोभ + त्ता = लोभत्ता, लोभया < लोभकः, सील + त्ता = सीलत्ता, सीलया 4 शीलकम्, लीण + त्ता = लीणत्ता, लीणया लीनकम्; अणुकंपण +ता= अणुकंपणत्ता, अणुकंपणया अनुकम्पनकम्; दुक्खण + त्ता = दुक्खणत्ता, दुक्खणया दुःखनकम्; लिप्पण + त्ता = लिप्पणत्ता लिप्पण्या लिम्पनकम् ; पिट्टण + = पिट्टणत्ता, पिट्टणया पिट्टकम् | मड + इल्लि = मइल्लिओ < मृतकः
यहांड का लोप हुआ है और विभक्ति
का ओ चिह्न जोड़ दिया है ।
(४०) पढम शब्द से स्वार्थ में इल्लु प्रत्यय जोड़ा जाता है । यथा
पढम + इल्लु = पढमिल्लुए < प्रथमकः
( ४१ ) एग (एक) शब्द से स्वार्थ में आगि, इणिय, इय प्रत्यय होते हैं ।
एग + आगि = एमागी एकाकी; एग + अणिय = एगाणिए, एकाणिए; एक + - एक्किया—क को द्वित्व हुआ है 1
इय -
( ४२ ) नीसीहि शब्द से स्वार्थ में के प्रत्यय होता है । यथा
नीसीहि + क = निसीहिगा, के के स्थान पर य होने से निसीहिया ८ निशीथिका, नैषेधिक वा ।
( ४३ ) अपेक्षा कृत अतिशय - विशिष्ट अर्थ बतलाने के लिए तर प्रत्यय होता है । यथा - अइसएण तुच्छं - तुच्छत रं
1
( ४४ ) तर के स्थान पर तराए आदेश होता है । यथा - बहुतराए, अप्पतराए
( ४१ ) धम्मादि शब्दों को अतिशय अर्थ बतलाने के लिए इट्ठ प्रत्यय होता है । यथा - अइसएण धम्मी - धम्मिट्ठो धर्मिष्ठः, अइसएण अधम्मी - अहमिट्ठो < अधर्मिष्टः ।
( ४६ ) थेर, धीर, पिय शब्दों से अतिशय अर्थ प्रकट करने के लिए इज प्रत्यय होता है और थेर के स्थान पर थ, धीर के स्थान पर ध और पिय के स्थान पर प आदेश होते हैं। यथा
<
थेर + इज्ज - थ + इज्ज = थेज्जं स्थैयम् धीर + इज्ज-ध + इज्ज = घेज्जं पिय + इज्ज -प + इज्ज - पेज्जं 4 प्रियतरम्
धैर्यम्
(४७) अर्हति और करोति अर्थ में इय और क प्रत्यय होते हैं तथा अलंकार
शब्द में विकल्प से आदि स्वर की वृद्धि होती है । यथा
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४२६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण ____ अभिसेकमर्हति-अभिसिक्को-अभिसेक्+क = अभिसिक्का आभिषिक्यः; अलंकारं करेइ त्ति-अलंकार + इय = आलंकारिए, अलंकारिए < अलंकार्यः; पसिणं करेइ त्ति—पासणिए < प्राश्निकः । अनेकार्थक प्रत्यय
(४८ ) तृतीयान्त से निर्वृत, क्रीत, चरति, व्यवहरति और जीवित अर्थ में इत्ता, इय, इम, आउ, इल्ल और अ प्रत्यय होते हैं । यथा
____ अब्भोधगमेन निव्वत्ता-अब्भोवगम + इत्ता = अब्भोगमिया (त्त के स्थान पर य हुआ है ) आभ्युपगमिकी; अहिगरण + इत्ता--या + अहिगरणिया < आधिकरणिकी; दण्डेण निव्वत्तं दण्डिमं–दण्ड + इय = दण्डियं < दण्डिमम्; सयेण कीयंसतिय; सइयं -- सत + इय = सतियं, तकार का लोप होने पर सइयं शतकम् ।
णाएणं ववहरति-णेयाउओ, णेयाइयो< नैयायिकः तेल्लेणं जीवइ-तेलिलओ-तेल + ल्लिअ = तेल्लिओ< तैलिकः । आहारयणं ववरइ = आहारायणिय < यथारान्निकम्; तेयहियं तेजोहितम् । चक्खुणा णिगिहजइ-चक्खुसं< चाक्षुषम् ।।
अस्सिणिए जुत्ता पुण्णमाली—आसोई, अस्लोई ८ अश्विनी ; आसाढी आषाढी, कत्तिया कात्तिकी, जेट्टामूला < ज्येष्ठामूली, फरगुणी फाल्गुनी, विसाही र वैशाखी, मगसिरा मार्गशीर्षा, साविट्टी< श्राविष्ठा, पोवती< प्रौष्ठपदी, पोसी< पौषी, माहीर माघी, चेतो चैत्री।
__ आसोइ पुण्णमासी अस्सि मासंमि-आसोओ मासो—असोह + अण = आसोओ मासो< आचिनो मास: ; वातेण उवयं-वातीणं, वाईणं-बात + इन = वातीणं, वाईणं-तकार का लोप होने पर।
पसंगाओ आगयं-पासनियर प्रासंगिकम् । पारितोसियंपारितोषिकम् । ( ४९ ) पाई शब्द से भवार्थ में ण प्रत्यय होता है । यथापाई +ण = पाईणं, पादीणं < प्राचीनम् ( ५० ) पहादि सप्तम्यन्त शब्दों से साधु अर्थ में एजण प्रत्यय होता है । यथापहे साहू-पाहेज < पाथेयः । (५१) सप्तम्यन्त पासे शब्द से इल्ल प्रत्यय होता है। यथापास + इल्ल-पासिल्लओ< पाश्विकः ।
( ५२ ) बहि शब्द को अण् प्रत्यय के परे म और र का आगम होता है। तथा--
बहि + * = बहिर्म, बहिरं - बाह्यम् । ( ५३ ) मम शब्द से म और इल प्रत्यय होते हैं । यथामज्झम, मज्झिम, मझिल्लं दमध्यमम् ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण मतुबर्थक प्रत्यय
(५४ ) हिन्दी में जो अर्थ वान् या घाला आदि प्रत्ययों के द्वारा सूचित किया जाता है, अर्धमागधी में वह अर्थ मन्त, न्त, इण आदि प्रत्ययों से । मन्त प्रत्यय जोड़ते समय म के स्थान पर विकल्प से व आदेश होता है । यथा
वण्ण + मन्त = वण्णवन्तो-विकल्प से त का लोप न का अनुस्वार होने से वण्णवं < वर्णवान् रूप बनेगा।
___भग + मन्तो = भगवन्तो, भगवं भगवान् ; वीइ + मन्तो = वीइमन्तोर वीचिमान् ; जाति + मन्तो = जातिमन्तो< जातिमान् ; तिसूलो इमस्य अस्थितिसूलिओ-तिसूल + इय = तिसूलिओर त्रिशूलिकः , गंठी अस्थि अस्सि-गठिलोगंठि+ko = गंठिल्लो ग्रन्थिमान् ; माया अस्थि इमस्स–माइल्लो-माया + इल्ल-यकार का लोप = माइल्लो< मायावी; कलुणा अस्थि इमस्स-कलुणो< करुणः; आउस + न्त-आउसन्तो<आयुष्मान् ।
गो+ मन्त-गोमी, गोमिणी-मन्त प्रत्यय के स्थान पर मी और मिणी आदेश होता है।
जस + मन्त-जसवन्ती, जसमन्तो यशस्वीन्
आयार + मन्त–आयारवन्तो, आयारमन्तो< आचारवान् ; गति + मन्त = णतिवन्तो, णाइवं र ज्ञातिवान् ; वुसि + मन्त = वुसिमन्तो< वशी।
जय + इण-जइणोजयी; दोसि + इगो = दोसिणो दोषी; वरहि + इण = बरहिणो< बही; किमि + ण = किमिणो< कृमिमान् ; पंक + मन्त-स्त्रीलिडविवक्षा में आकारान्त आदेश और म के स्थान पर व, न का लोप तथा डीप प्रत्यय होने से पंकावती रूप बनता है।
(५५) गन्ध, तुन्द आदि शब्दों से इल प्रत्यय होता है । यथागन्ध + इल = गन्धिलो, तुन्द + इल = तुन्दिलो तुन्दिलः ।
( ५६ ) जडा शब्द को इल प्रत्यय होने से प्रत्यय सहित विकल्प से जडुल और जडियाल का निपातन होता है। यथा
जडा + इल = जडुलो, जडियालो, जडिलो<< जटिलः । ( ६७ ) रय शब्द से विकल्प से स्सल प्रत्यय होता है । यथारय+स्सला = रयस्वला, रइला--विकल्प से इल प्रत्यय होने पर रजस्वला । ( ५८ ) पम्हादि शब्दों से मतुबर्थ में विकल्प से ल प्रत्यय होता है । यथा
पम्ह + ल = पम्हलो< पक्ष्मलः, पत्त + ल = पत्तलो पत्रलः, तणु + ल = तणुलो तनुलः। ... .......
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण (५९) दया आदि शब्दों से मतुबर्थ में आलु प्रत्यय होता है। यथादया + आलु = दयालू < दयालुः ; वीसरण + आलु = विसरणालु-विनाशीकः । ( ६० ) मतुबर्थ के लज्जा शब्द से उ प्रत्यय होता है । लज + उ = लज्ज र लजालुः । (६१ ) मतुबर्थ में जसादि शब्दों से अंसी और स्सी प्रत्यय होते हैं। यथा
जस + अंसी =जसंसी, जस + स्सी = जसस्सी< यशस्वी; तेय + अंसी = तेयंसी, तेयस्सी तेजस्वी; बच्चंसी, वच्चस्सी वर्चस्वी ; ओयंसी, ओयस्सी < ओजस्वी।
भावार्थ तथा कर्मार्थ ( ६२ ) किसी शब्द से भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए अर्धमागधी में त्त और तण प्रत्यय होते हैं । यथा
अपर + त्त = अपरत्तंद अपरत्वम् ; उस्सुग + त्त = उस्सुगत्तं< उत्सुकत्वम्, अंब + तण = अंबत्तणं < आम्रत्वम् तीय + तण = तीयत्तणं तृतीयत्वम्; पहु + तण = पहुत्तणं प्रभुत्वम्, अंध + तण = अंधत्तणं अन्धत्वम् ।
(६३ ) भाव अर्थ में ता, अद् और इयण प्रत्यय भी होते हैं । जैसे-अरि + त्ता=अरित्ता अरिता ।
उप्पलकंद + त्ता = उप्पलकंदत्ता उत्पलकन्दता ।। आइत्तहियं, आहातहियं <याथातथिकम् -इयण प्रत्यय हुआ है। जहातहं < यथातथम्-अदू प्रत्यय हुआ है। (६४) जडादि शब्दों से भाव अर्थ में इण प्रत्यय होता है । यथाजडा + इण = जडिगोर जटत्वम् ; णग + इण = णगिणो, णिगिणोर नग्नत्वम् । मुंड + इण= मुंडिणो मुण्डत्वम् ; संघाड + इण = संघाडियो< संघाटत्वम् । (६६) इस्सरादि शब्दों से भाव अर्थ में इय प्रत्यय होता है। इस्सर + इय = इस्सरियं < ऐश्वर्यम् । अज्जव + इय = अज्जवियं र आर्जवम् ; सामग्ग + इय = सामग्गियं<
सामनयम्।
अप्पाबहु + क + अप्पाबहुगं, अप्पाबहुकं, अप्पाबहुयं, अप्पबहुतं < अल्पबहुत्वम् । (भावार्थ में क प्रत्यय हुआ है।)
( ६६ ) उवमादि शब्दों से भाव अर्थ में अण प्रत्यय होता है । यथाउवमा + अण् = ओवम्म < औपम्यम्।
आहिक्क आधिक्यम् , दोहग्गं< दौर्भाग्यम्, सोहग्गं < सौभाग्यम्, तेलुक्कर त्रैलोक्यम्, तेलोक्कं < त्रैलोक्यम् ।
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
४२६
जुवाण + अण् = जुब्वणं, जोन्वणं, जोवणं, जोवणगं यौवनम् - वकार के आकार
atta और वको विकल्प से द्वित्व हुआ है ।
दूध + अणू = दोच्चं 4 दौत्यम्-य के स्थान पर छत्र आदेश हुआ है । अहातच्वं < याथातथ्यम्; वेयावच्चं वैयावृत्यम् ।
वियावड + इयण् = वेषावडियं < वैयावृत्तिकम् ।
कलुण + अण् = कोलुण्णं कारुण्यम् ।
सह + अण् = साद्दल्लं, साफल्लं < साफल्यम् ।
सुकुमार + अण् = सोगमल्लं सौकुमार्यम् - सुकुमार के स्थान पर सुगमल आदेश होता है ।
विकारार्थक और सम्बन्धार्थक प्रत्यय
( ६७ ) विकार अर्थ में प्रधानरूप से अण और मय प्रत्यय होते हैं । यथाअयो + मय = अयोमयम्, फलिह + मयं = फलिहमयं ८ स्फटिकमयम्; वओ + मय = वओमयं वयोमयम् ।
वई + मय = वईमयं वाङ्मयम्; रयय + मय = स्ययामयं स्यथमयं रजतमयं - विकल्प से अकार आदेश हुआ है।
(६८) संख्यावाचक शब्दों में पूर्व अर्थ में म प्रत्यय होता है । यथा
و
सत्त + म = सत्तमं सप्तमम्, अट्ठ + म = अट्ठमंद अष्टमम् नव+म = नवमं, अट्ठारस + सम= अट्ठारसमं < अष्टादशम्, वीसइ+म = वीसइमं विंशतिमम् । ( ६९ ) दु और ति शब्दों से इय, तिथ और तीय प्रत्यय होते हैं। यथाबि + इ = बिइयं, बि + तीय = बितीयं,
वितिज्जं, दोच्चं द्वितीयम् —य के स्थान पर ज्ज आदेश ।
ति + इ = तीयं, तइयं, ततीयं तच्चं - तृतीयम् ।
( ७० ) छ शब्द से पूर्णार्थ में ट्ठ प्रत्यय होता है । यथाछ + ट्ठ = छ्टुं षष्ठम् ।
(७१) चतु शब्द से पूर्णार्थ में त्थ प्रत्यय होता है । यथा
चतु + स्थं = चतुत्थं, चउ + स्थं = चउत्थं । चतुर्थम् ।
( ७२ ) कादि शब्दों से निर्धारण अर्थ में तर प्रत्यय होता है । यथाक + तर = कयरो < कतर:, एगयरो < एकतरः, अन्नयरो अन्यतरः । बहु + सो - बहुसो 4 बहुशः ।
कम + सो = कमसो <क्रमश: पगाम + सो = पगामसो < प्रकामशः, एगन्त + सो पुगन्तसो एकान्तशः । कुंभग + सो = कुंभगसो कुम्भकशः । एक्क + सि एक्कसि एकशः । एमय + तो = एगयओ, एगयतो एकतः ।
=
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४३०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण दव + ओ = दचओ, दवतो = द्रव्यत: पिट्टओ, पिट्ठतो पृष्टतः, कम्म+तो = कम्मओ, कम्मतो< कर्मतः ।
अत्थ + तो = अत्थतो, अत्थओ< अर्थतः । धम्म+तो = धम्मतो, धम्मओ< धर्मतः ; दुह + तो = दुहओ, दुहतो < द्विधा ।
( ७३ ) संख्यावाचक शब्दों से बारंबार अर्थ बतलाने के लिए क्खुत्तो प्रत्यय होता है । यथा
दु+ खुत्तोर द्विकृत्वः ; ति + क्खुत्तो = तिक्खुत्तो< विकृत्वः ; सहस्स + क्खुत्तो = सहस्सक्खुत्तो८ सहस्रकृत्वः ; अणंत + खुत्तो = अणंतक्खुत्तोर अनन्तकृत्वः । स्सि-एक्कस्सि < एकशः । ( ७४ ) प्रकार अर्थ में हा प्रत्यय होता है । यथासव्व + हा = सव्वहा< सर्वथा; अण्ण + हा = अण्णहा < अन्यथा ; अट्ठ + हा= अट्टहा < अष्टधा ; ज+हा = जहा यथा; त+हा= तहादतथा । (७६) ज और त शब्दों से ह और हं प्रत्यय होते हैं। यथाज+ह = जह, ज+हं =जहं< यथा; त + ह = तह, त + हैं = तह < तथा । ( ७६ ) प्रकार अर्थ में धा प्रत्यय होता है । यथा--- त+धा = तधा< तथा ।
( ७७ ) इयर शब्द से प्रकार अर्थ में इहरा शब्द का विकल्प से निपातन होता है। यथा
इहरा, इयरहार इतरथा ।
( ७८ ) प्रकार अर्थ में क शब्द से अह, अहं, इह और इण्णा प्रत्यय होते हैं । यथा
क + अह = कह, क + अहं = कहं, क + इह = किह, क + इण्णा = किण्णाद कथम् । ( ७९ ) इदं शब्द से प्रकार अर्थ में एत्थं का निपातन होता है । यथाइदं-एत्थं, इत्थं < इत्थम् । (८०) एक शब्द से त्त प्रत्यय होता है । यया-एग+त्त = एगत्त। (८१) इन शब्द से त्थ प्रत्यय होता है। यथाइम + स्थ = इत्थ-इम के स्थान पर इ आदेश । इम + स्थ = एत्थ-इम के स्थान पर ए आदेश । इम + त्थ = इयरत्थ < इतरत्र-इम के स्थान पर इयर आदेश । इम + ह = हइव-मकार का लोप। इम + ई = इहं-, ,
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४३१ ( ८२ ) इम, क और ज शब्दों से तो, डि, दाणिं, ह, हं और तर प्रत्यय होते हैं और इम के मकार का लोप होता है । यथा__इम + तो= इत्तोर इत:-म का लोप ।
इम +त्तो = एत्तो, इतो, इओ-मकार का लोप, इ को एत्व ।
विकल्प से तकार का लोप होने से इ ओ और त को द्वित्व न होने पर इतो रूप बनता है।
क+त्तो कत्तो, कओ< कुतः । ( ८३ ) सप्तम्यन्त क शब्द से अहि, इह और गहु प्रत्यय होते हैं । यथा
क + अहि = कहि, क + इह = किह, क + ण्हु = कण्हु, क + स्थ = कत्थर कर्दि, कुत्र ।
क + तो = कुतो-अकार को उकार आदेश हुआ है। क + तो = कुओ-,, , और तकार का लोप । क + स्थ = कुत्थ अकार को उकार ।
( ८४ ) ज और पगाम शब्दों से पनवम्यर्थ में आए और तो प्रत्यय होते हैं। यथा-ज+ आए = जाए यतः ।
ज+ तो = जत्तो, जओ, जतो, यतः–त को द्वित्व और त का लोप होने से जओ, जतो रूप बनते हैं।
पगाम + आए = पगामाए, पगाम + तो = पगामतो प्रकामतः । ( ८५ ) पञ्चम्यन्त शब्दों से आ, ओ, ते और ए प्रत्यय होते हैं । यथा
त + आ = ता< ततः, त + ओ = तो, त+ ते = तते, त + ए = तए, ततो, तओ, तत्तो, तए (ततः।
(८६ ) पञ्चम्यन्त ज शब्द से हं प्रत्यय होता है। ज + ण्हं = जण्हं, ज+ म् = जं,-यत:, त+म् = तं-तत:।
दा-सव्व + दा = सया, सदा-सच के स्थान पर स प्रत्यय होता है। सव्व + दा = सव्वदा, अन्न + दा = अन्नदा, अन्नया । हि-इम + हि-इण्हि-इम के मकार का लोप । इम + हि = इयहि-म के स्थान पर य । . . ण-अहु + णा = अहुणा< अथुना । दाणि-इम + दाणि = दाणि- इम का लोप और प्रत्यय शेष । इम + दाणि = इयाणि, इम + दाणि = इदाणि । इदानीम् । आहे-क + आहे = काहे ८ कर्हि, क + हि = कहि । हि + हियं—ज + हि = जहि, क + हिय = कहियं, तहि, तहियं । एव-क + एव + चिर= केवचिरंद कियच्चिरम् ।। क + एवच् + चिर = केवच्चिरं, क + एवच + चिरेण = केवच्चिरेण ।
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४३२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
ति
धातुप्रत्यय
वर्तमानकाल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० इ म. पु० सि उ० पु० मि
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० स्सइ, हिह
स्सन्ति, हिन्ति म० पु० स्ससि, हिसि
स्सह, हिह उ० पु० स्सामि, हामि स्सामो, हामो
भूतकाल भूतकाल के सभी पुरुष और सभी वचनों में इंसु प्रत्यय होता है। महाराष्ट्री में इसका अभाव है।
विध्यर्थ .. एकवचन
बहुवचन प्र० पु० इज, एज, इजा एजा, ए इज, एज इज्जा, एजा, ए म० पु० इज, एज, एजासि इज, एज, एजाह उ० पु० इज्ज, एज, एजामि इज, एज, एजामो
आज्ञा एकवचन
बहुवचन प्र. पु० उ
उन्तु म० पु० हि उ० पु० मि
कर्मणि में इज प्रत्यय और प्रेरणा में भावि प्रत्यय जोड़ने के अनन्तर धातु प्रत्यय जोड़ने से कर्मणि और प्रेरणा के रूप होते हैं ।
गच्छ--गमन करना
वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गच्छद
गच्छन्ति म० पु० गच्छसि
गच्छह उ० पु० गच्छामि
गच्छामो
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
गच्छिसु
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गच्छिस्सइ, गच्छिहिइ गच्छिरसन्ति, गच्छिहिन्ति म० पु० गच्छिस्ससि, गच्छिहिसि गच्छिस्सह, गच्छिहिह उ० पु० गच्छिस्सामि, गच्छिहामि गच्छिस्सामो, गच्छिहामो
भूतकाल एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गच्छिसु म० पु० गच्छिसु
गच्छिसु उ० पु० गच्छिसु
गच्छिसु
विधि एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गच्छिज, गच्छेज्ज (जा) गच्छिज्ज, गच्छेज्ज (जा) गच्छे
गच्छे म० पु० गच्छिज्ज, गच्छेज (ज्जा) गच्छिन्न, गच्छेन्ज (जा)
गच्छे, गच्छेजासि गच्छे, गच्छेजाह गच्छिज्ज, गच्छेज (जा) गच्छिज, गच्छेज (जा) गच्छे, गच्छेन्जामि गच्छे, गच्छेज्जामो
आज्ञा एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गच्छउ
गच्छन्तु म. पु० गच्छाहि, गच्छ মা , সাদ उ० पु० गच्छामि
कर्मणि रूप
वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गच्छिज्जइ
गच्छिजन्ति म० पु० गच्छिज्जसि
गच्छिजह उ० पु० गच्छिजामि
गच्छिज्जामो
गच्छामो
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४३४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
भविष्यत्काल एकवचन
बहुवचन प्र० पु. गच्छिजिस्सइ, गच्छिजिहिइ गच्छिजिस्सन्ति, गच्छिजिहिन्ति म० पु० गच्छिजिस्ससि, गच्छिजिस्सह, गच्छिजिहिह
गच्छिजिहिसि उ० पु० गच्छिजिस्सामि, गच्छिजिस्सामो, गच्छिजिहामो गच्छिजिहामि ..
भूतकाल भूतकाल के सभी वचन और सभी पुरुषों में गच्छिजिसु रूप बनता है।
विधि एकवचन
बहुवचन प्र० पु. गच्छिजिज, गच्छिज्जेज (जा) गच्छिजिज्ज, गच्छिज्जेज (जा) गच्छिज्जे
गच्छिज्जे म० पु० गच्छिजिज, गच्छिज्जेज (जा) गच्छिजिज; गच्छिज्जेज (जा) गच्छिज्जेज्जासि
गच्छिज्जेजाह उ० पु० गच्छिजिज, गच्छिज्जेज (जा) गच्छिजिज, गच्छिज्जेज गच्छिज्जेजामि
गच्छिज्जेजामो
आज्ञा एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गच्छिजउ
गच्छिजन्तु म० पु. गच्छिनाहि, गच्छिज्ज
गच्छिजह, गच्छिज्जेह उ० पु० गच्छजामि
गच्छिज्जामो प्रेरणार्थक
वर्तमान एकवचन
बहुवचन प्र० पु० गच्छावेइ
गच्छाविन्ति, गच्छावन्ति म० पु० गच्छावेसि
गच्छावेह उ० पु० गच्छामि
गच्छावेमो
भविष्यकाल एकवचन
वहुवचन प्र० पु० गच्छाविस्सइ, गच्छाविहिइ गच्छाविस्सन्ति, गच्छाविहिन्ति म० पु० गच्छाविस्ससि, गच्छाविहिसि गच्छाविस्सह, गच्छाविहिह उ० पु० गच्छाविस्सामि, गच्छाविहामि गच्छाविस्सामो, गच्छाविहामो
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
भूतकाल
भूतकाल के सभी पुरुष और सभी वचनों में गच्छाविलु रूप होता है ।
विधि
एकवचन
प्र० पु० गच्छावेज, गच्छावेजा
गच्छाविज, गच्छाविजा
म० पु० गच्छावेज, गच्छाविज्ज
गच्छावेजा, गच्छाविजा गच्छावेजसि
उ० पु० गच्छावेज, गच्छा विज्ज गच्छावेजा, गच्छाविजा गच्छावेजा मि
एकवचन गच्छावेउ
प्र० पु० म० पु० गच्छावेहि उ० पु० गच्छावेमि
घातु
एकवचन
अस्थि
अच्छ
अण
आ + अण
आज्ञा
बहुवचन गच्छावेज, गच्छा विज्ज
गच्छावेजा, गच्छाविजा
गच्छावेज, गच्छाविज्ज
गच्छावेजा, गच्छाविज्जा
गच्छावेजाह
गच्छवि, गच्छावेज गच्छाविजा, गच्छावेजा जामो
बहुवचन गच्छन्तुि गच्छावेन्तु
गच्छावेह
गच्छावेमो
अस-सत्ता
वर्तमान
सि
असि, मि
आज्ञा में सभी पुरुष और सभी वचनों में अत्थु और भूतकाल में प्रथम पुरुष और मध्यम पुरुष के सभी वचनों में आसि और आसी तथा उत्तम पुरुष के एक वचन
में आसि, आसी और बहुवचन में आसिमो रूप बनते हैं ।
अर्थ
बैठना
अच्छ
जानना, आवाज करना अणइ
उच्छ्वास ग्रहण करना आणमह
बहुवचन
सन्ति
ह
मो
कुछ धातुरूपों का संकेत
कर्त्तरिरूप
४३५
कर्मणि
अनिइ
अणिजइ
आणमिज्जइ
प्रेरणा
अच्छाइ
आणावे
आणावेइ
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४३६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
अय
इइ
इआवेइ
गमन करना
अयह अइज्जइ
आयावेइ उव+अय उपासना करना ... उवायइ - - उवाइज्जइ उवायावेइ
गमन करना अइ+इ उल्लंघन करना अईति अईज इ अईवेइ उव+इ उदय होना उवेइ उविजइ उवावेइ प+इ परलोक गमन पेञ्चइ - पेच्चिजा पेच्चावेइ पति +इ विश्वास करमा पत्तिपइ पत्तिजय पत्तिआवेइ वि+इ व्यय करना वेद वेइजइ वेआवेइ अहि + इ अध्ययन करना अहिज इ,अहीयइ अहिजइ। अज्झायेइ
इच्छा करना इच्छ इच्छिज्जइ इच्छावेइ पडि + इच्छ स्वीकृति करना पडिच्छइ पडिच्छिनइ पडिच्छावेइ उंच कुटिलता करना उंच उचिजाइ उंचावेइ पलि + उच्च अपलाप करना पलिउंच पलिउंचिजइ पलिउंचावेइ उंज योग करना उजइ । उंजिजह उजावेद उव + उंज उपयोग उवउंजइ उबउंजिज्जइ
उवउंजावेद वि + उंज वियोग-वियुक्त करना विउंजइ विउंजिजइ विउंजावेद आकाण सुनना
आयन সায়ন্তিকা आयनावेइ आकर्षण कसह कसिजह कसावे करना काइ
काइजई कावेइ कुण करना
कुणा कुणिजइ कुणावेइ खाना
खाइ, खाइ खाइज खावे सहना
দামি खामेइ गम्म
गमावेइ आ + गम आगमन
आगमइ आगरसई आगमावेइ गाना गाइ
गिजा, गीयइ गावे गिज्झ आसक्ति
गिज्झा गिझिजइ गिज्झाइ गिला ग्लानि गिलाइ गिलाइजइ गिलावे उद्यम करना
गुरिजा गुरावे ग्घा
सूंघना जिग्घा घाइजइ छावेद चिगिच्छ चिकित्सा बिगिच्छद चिगिच्छिजइ चिगिच्छावेइ चिणइ चयन करना चिणह चिजइ चिणावेद उव+चिण उपचयन उवचिणइ उवचिजइ उवचिणावे
कल
का
खा
खम
खम
गम
चलना
गमई
गा
गुर
गुरई
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
जंपिजइ
जय
पराजय
सम् + चिण संचय करना संचिणइ संचिजह संचिणावे जंप बोलना जंपइ
जंपावे जय-जीतना जयइ जयिजा जयावे परा+ जय हारना
पराजय पराजयिजइ पराजयावेइ वि+ जय विजय करना विजवइ विजयिजइ विजयावेइ जहा त्याग करना जहइ, जहाइ जहाइजह जहावेइ जा
जाना, उत्पन्न होना जाइ, जायइ जाइज्जइ जावेइ, जवेइ उद् + जा ऊपर गमन करना रज्जाइ उज्जाइज
उज्जावे पति + आ+जा प्रत्यागमन , पञ्चायाइ पच्चायाइजई जाण अवनोधन-जानना जाणाइ, जाणइ जाणिजह जाणावेड़ ज्झा, भिया ध्यान करना झाअइ, झायइ झायइजइ झायावेइ डंस काटना
उसई डंसिजइ डंसावे डी आकाश में चलना डीइ
डीइजइ
डीआवेह उद्इ + डी
, ,, उड्डीइ उड्डीइज्ज इ उड्डीआवेइ ढा ढाना
ढाइ
ढाइजइ ढावे तिप्प दुःख देना, तृप्ति
तर्पण करना तिप्पइ तिप्पाइ तिप्पिजइ तिप्पाचे
सन्तोष करना , तुसइ तुसिजइ तोसेइ तस उद्वेग करना तसह तसिज्जा तासेह स्तुति थुण
थुणिजह थुणावे दल दान देना दलइ दलिजइ दलावेद दह धारण करना
दहिजइ दहावेइ सद+दह श्रद्धा करना सदहाइ सहहिजइ सदहावे
देखना, देना देहए दिसिजा दिसावेह विकृति, द्वेष दुसह दुसिजइ दुसावे
देविजइ देवावे कँपना, कम्पन धुणइ, थुधए थुणावेइ नम्र होना, प्रणाम करना
नमइ, णमइ नमिज्जा नस्स नाश होना नस्सइ- - नासिजइ नासेइ ले जाना नेइ निजइ ।
नेआवेइ न्हा स्नान करना -- हाइ ण्हविजइ ___ण्हावेइ
तुस
थुण
विलाप
देवइ
नामेइ
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________________
४३८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
पड
पा
पिवई
बंध
बीह
HOT
भज
माद
रोना
पज्ज गमन करना पजइ पजिजइ पजावेइ उद् + पज उत्पत्ति होना उपजा - - उप्पजिजइ उप्पजावेइ णि + पज निष्पत्ति णिप्फजइ णिप्फजिजइ निप्फजावेइ
पतन-गिरना पडइ पडिजइ पाडेइ पीना
पाइज्ज इ पजेइ पुच्छ पूछना
पुच्छ पुच्छिन्नइ पुच्छेइ बंध बंधन
बंधिज्जह बंधावेह भयभीत होना भीमद
बीहिजइ
बीहावे सत्ता होना
भव
भविजइ भावे विदीर्ण करना भिदइ भिदिजइ
भिंदावेइ भोजन करना भुंजइ भुज भुंजावेइ
प्रमाद करना मादइ मादिजइ मादावेइ मिल मिलना मिलइ मिलिजइ मिलावेइ रंभ आरंभ करना रंभ
भिजइ रंभावेइ गमन करना रिम रिइजइ रियावेद
रोवह रुदिजह रुदावेद लम प्राप्त करना लभइ
लब्भइ छेदना, काटना लुणइ लुणिजइ लुणावेइ लोभ करना
लुभिजइ लोभेइ सुनना
सुणेइ, सुणइ सुव्वइ सुणावेइ बोलना वच्च उच्च
वच्चावे पहुँचाना वहइ
वुज्झइ वहावेह हवा चलना वाइ
वाइज्ज वावेइ सास
अनुशासन सासह सासिजइ सासावेह बनाना, निर्माण करना
सिरिजह सिरावेह सिव्व सीना, बांधना सिव्वद
सिव्वावेह शोक करना, सीय
सीयावे विषाद करना सोना
सुवइ, सुयइ सुइजह सुयावेइ सुस्सुस सेवा करना सुस्सूसइ सुस्सुसिजहू सुस्सुसावेइ हण हिंसा करना हणइ
हम्मद हणावेइ
लाभेइ
लुण
लुब्भइ
वच्च
वह
वा
सिरइ
सिव्विजइ सीइजा
सीय
सुय
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________________
कास
तक्क
ताड
दा
दिजइ
धार
::estrist size:
खि
अभिनव प्राकृत-व्याकरण .. ४३६ कर करना
करेइ किजइ, कजइ कारेइ, कारावेइ अच्च पूजा
अञ्चेइ अचिजह अच्चावेइ प्रकाश, चमकना कासेइ कासिज्जा कासावे किलाम ग्लानि करना किलामेइ किलाविजइ किलामावेइ
कल्पना करना तके तकिजइ तकावेइ ताडना करना ताडेइ, तालेइ तालिजह तालावेइ, ताडावेइ देना
दाणेइ दीप्ति
दीवेइ दीविजइ दीवावे धारण करना धारेइ धारिज
धारावेइ उस निन्दा करना
उसेइ, उसई उसिजइ उसावेइ कह कहना
कहेइ, कहइ कहिजइ कहावेइ वि+ कीर विकीर्ण करना विक्खिरइ विक्खीरिजइ विक्खीरावेइ किण खरीदना किणेइ, किणइ किणिजइ किणावेइ वि+विण वेचना विकणेइ विक्कणिजइ विकणावेइ
प्रेरणा खिवेइ खिप्पड़ खेवावेद खुभ क्षुब्ध होना खुम्भइ खुभिजइ खोभेइ गिण्ड ग्रहण करना गेण्हइ घेप्पइ, धिप्पइ गिण्हावेइ हल-चल करना
चलिजइ चालेह ठहरना
चिट्ठिजइ चिट्ठावेइ जीर्ण होना जेरइ, जरइ जरिजइ जरावेइ धा
धारण, पोषण धाइ धीयए धावह देखना
पासेइ पासिजइ पासावे भाषण करना भासह भासिज्जह भासावेइ मन्न समझना
मन्नेइ मन्निजद
कृदन्त (८७ ) अर्धमागधी में सम्बन्धार्थक क्त्वा प्रत्यय के स्थान में ता, तु, तूण हु, उं, ऊण, इय, इत्ता, इत्ताणं, एत्ताणं, इत्तु, च्च आदि प्रत्यय होते हैं। यथा
इत्ता-कर + इत्ता = करित्ता, च+ इत्ता = चइत्ता, पास + इत्ता = पासित्ता, विउदृ + इत्ता = विउट्टित्ता; लभ + इत्ता = लभित्ता।
एत्ता-कर + एत्ता = करेत्ता, पास + एत्ता = पासेत्ता । एत्ताणं-पास + एत्ताणं = पासेत्ताणं, कर + एत्ताणं = करेत्ताणं।
इत्ताणं-पास + इत्ताणं = पासित्ताणं, कर + इत्ताणं = करित्ताणं, चइ + इत्ताणं = चइत्ताणं, भुज+ इत्ताणं = भुजित्ताणं ।
चल
ट्र
चिट्ठ
जर
पास
भास
मन्नावेइ
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________________
४४०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
इत्त-दुरुह + इत्तु = दुरूहित्तु, जाण + इत्तु = जाणित्तु, वध + इत्तु = वधित्तु ।
चा--कि + च्चा - किच्चा, ण + च्चा = [च्चा, सो+च्चा = सोच्चा, भुज +च्चा = भोच्चा, चय + चा = चेचा।
इया ... परिजाण + इया = परिजाणिया, दुरूह + इया = दुरूहिया । हु-क + कटु, साह +8 = साहटु, अवह + १ = अवहटु । उं-गुण-सो + उ = सोउं, दट्ठ + उ = दटुं, छोढ + उ = छोढुं ।
तूण---भुज + तूण--भोत्तण, मुंच + तूण = मोत् + तूण = मोक्तूण, मुत्तूण । ग्रह + तूण--घेत्तण।
ऊण----अभिवाइ + ऊण = अभिवाइऊण, लभ + ऊग = लघृण, सुण + ऊण = सोऊण, छुम + ऊण = छोडूग, नि + जिण = निजिऊण; गम + ऊण = गामिऊग, निः + चिप + ऊण = निच्छिऊण।
हेत्वर्थ कृदन्त ( ८८) हेत्वर्थक तुमुन् के अर्थ में इत्तए, इत्तते, त्तु, उं प्रत्यय होते हैं।
इत्तए—कर + इत्तए = करित्तए, प+ कर + एत्तए = पकरेत्तए, वागर+एत्तए = वागरित्तए, वियागरित्तए, कारवेत्तए, कारावित्तए, कारावेत्तए ।
इत्तत्ते--उवसाय + इत्तते = उत्सामित्तते । तुं-पच् + तुं = वत्तं । उं-चारस + उ = वास + उ = वासिङ, वरिसे
वर्तमानकृदन्त वर्तमान अर्थ में प्राकृत के समान न्त और माण प्रत्यय अर्धमागधी में भी होते हैं। यथा
न्त-कर + न्त = करिन्तो, करेन्तो; गाय + न्त = गायन्तो, जणय + न्त = जणयन्तो, समावयन्तो।
माण-पउज्ज + माण = पउजमाणो, विक्काय + माण = विक्कायमाणो, धिप्प + माण = धिप्पमाणो, परिगिज्म + माण = परिगिज्झमाणो, जाय + माण = जायमाणो, आढिय + माण = आढियमाणो। ( ८९ ) अकारान्त धातु के त प्रत्यय के स्थान में ड होता है। यथा
+ त = कड, म + त = मड, अभिहड, वावड, संवुड, वियड, वित्थड ।
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जैन महाराष्ट्री
अर्धमागधी के आगम ग्रन्थों के अतिरिक्त चरित, कथा, दर्शन, तर्क, ज्योतिष, भूगोल और स्तोत्र आदि विषयक प्राकृत का विशाल साहित्य है । इस साहित्य की की भाषा को वैयाकरणों ने जैन महाराष्ट्री नाम देकर महाराष्ट्री और अर्धमागधी से पृथक् इस भाषा का अस्तित्व बताया है । यद्यपि काव्य और नाटकों की भाषा से यह भाषा बहुत कुछ अंशों में मिलती-जुलती है; फिर भी यह एक स्वतन्त्र भाषा है । इसका रूप महाराष्ट्री और अर्धमागधी के मिश्रण से निर्मित हुआ है । आगम ग्रन्थों पर रचे गये बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारसूत्रभाष्य, विशेषावश्यकभाष्य एवं निशीधचूर्णि प्रभृति टीका और भाष्य ग्रन्थों में भी इस भाषा का प्रयोग पाया जाता है। धर्मसंग्रहणी, समराइच्चकहा, कुवलयमाला वसुदेवहिण्डी, पउमचरिय प्रभृति ग्रन्थों में भी इसी भाषा का प्रयोग हुआ है । हमें ऐसा लगता है कि काव्यों और नाटकों की भाषा से यह जैन महाराष्ट्री प्राचीन है । अर्धमागधी की भाषागत प्रवृत्तियों में थोड़ा-सा परिवर्तन होकर I जैन महाराष्ट्री का विकास हुआ होगा और इसी जैन महाराष्ट्री से व्यंजन वर्णों का लोप होकर काव्य और नाटकों की महाराष्ट्री का प्रादुर्भाव हुआ है। जैन महाराष्ट्री की मूलप्रवृत्ति अर्धमागधी से सम्बन्ध रखती है । इसमें अधिक व्यञ्जनों का लोप नहीं होता है । य और व जैसे मृदुल व्यञ्जनों को अत्यधिक स्थान प्राप्त है। अर्धमागधी और शौरसेनी के समान इस भाषा की मूलप्रवृत्ति पर संस्कृत का पर्याप्त प्रभाव लक्षित होता है । ध्वनिपरिवर्तन सम्बन्धी जैन महाराष्ट्री की निम्न विशेषताएँ हैं :( १ ) क के स्थान में अनेक स्थलों में ग पाया जाता है । सावग श्रावक - क के स्थान पर ग हुआ' है 1 निगरं निकरम् - मध्यवर्ती क के स्थान पर ग ।
'~~
यथा
K
K
तित्थगद तीर्थंकरः —क के स्थान पर ग । लोगो लोकः आगरिसी < आकर्ष: आगारो आकार:
99
""
"
उवासगो उपासकः दुगुल्लं 4 दुकूलम् - गेंदुअं 4 कन्दुकम् -
"9
महाराष्ट्री में कन्दुक रूप भी पाया जाता है ।
39
ܕܕ
""
"
93
"
29
""
इस शब्द का विकल्प से जैन
( २ ) लुप्त व्यञ्जनों के स्थान पर य श्रुति होती है । यथाकहाणयं कथानकम् — यहाँ लुप्त क के स्थान पर य श्रुति । भगवया भगवता — लुप्त त के स्थान पर य ।
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४४२
अभिनव प्रकृित-व्याकरण
चेयणा चेतना-लुप्त त के स्थान पर य । भणियं र भणितम्- , , विसायं र विषाद-लुप्त द के स्थान पर य । महारायस्सार महाराजस्य-लुप्त ज के स्थान पर य । स्ययं < रजतम्-लुप्त ज और त के स्थान पर य । पयावई ८ प्रजापतिः - लुप्त ज के स्थान पर य । गया< गदा–लुप्त द के स्थान पर य । कयग्गहो< कचप्रहः -लुप्त च के स्थान पर य । कायमणी काचमणिः - , , , लायणं < लावण्यम्-लुप्त व के स्थान पर य । मयणो मदन: - लुप्त द के स्थान पर य ।
यह प्रवृत्ति काव्य और नाटकों की भाषा में नहीं पायी जाती है और न अर्धमागधी में सार्वत्रिक मिलती है। महाराष्ट्री में व्यजनों का लोप होने पर मात्र स्वर शेष रह जाते हैं। य श्रुति की प्रवृत्ति जैन महाराष्ट्री का प्रमुख चिह्न है।।
(३ ) शब्द के आदि और मध्य में भी ण की तरह न रह जाता है। यह प्रवृत्ति अर्धमागधी की देन है। यथा
नाणुमयमेएसि नानुमतमेतयोः -आदि न ज्यों का त्यों स्थित है। नियमोववसिहिद नियमोपवासै: - नियट्टीएर निकृत्यनूगमेसाद नूनमेषाभत्तिनिब्भरा भक्तिनिर्भरा-मध्य न ज्यों का त्यों स्थित है। अणुन्नविय अनुज्ञाप्यकहमन्नयाः कथमन्यथाअलहनिहा- अलब्धनिद्रा- , उववन्नाओ त्ति< उपपन्ने इति- , अन्नहा<अन्यथाकन्नयाएर कन्यकाया:पडिवन्ना प्रतिपन्ना-अन्तिम न ज्यों का त्यों स्थित है। नुवन्ना एसा<निपन्ना एषा-आदि और अन्तिम न ज्यों का त्यों स्थित है। नुवन्नो< निपन्न: - , " " समुप्पन्नाः समुत्पन्ना-अन्तिम न ज्यों का त्यों स्थित है । उववन्नोर उत्पन्नः- , , , विवाहजनो< विवहयज्ञः
( ४ ) यथा और यावत् के स्थान में क्रमशः जहा और जाव की तरह अहा और आव भी होते हैं।
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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
४४३
(५) कुछ पदों में समास होने पर उत्तरपद के पूर्व म् का आगम हो जाता है ।
यथा
अन्नमन्न <<अन्न + अन्न-उत्तर पद के अन्न के पूर्व मकारागम । एगमेग = एग + एग- उत्तर पद एग के पूर्व मकारागम । चित्तमाणं दियं : चित्त + आनंदियं = उत्तर पद आनंदियं के पूर्व मकारागम । (६) पाय, माय, गिच्छिग, पडुप्पण, साहि, सुहुम आदि शब्दों का पत्त मेत इच्छय आदि की तरह उपयोग होता है ।
=
(७) तृतीया के एकवचन में अर्धमागधी के समान कहीं-कहीं सा का प्रयोग भी पाया जाता है । और प्रथमा विभक्ति के एकवचन में महाराष्ट्री के समान ओ पाया जाता है । यथा
1
मन + सा = मणसा < मनसा ; - जिण - जिणो वय + सा = वयसा द वचसा; वीर-वीरो ।
काय + सा = कायसा 4 कायेन; गोयम = गोयमो ।
( ८ ) आइक्खइ, कुव्वाइ, सडइ, सोलइ, वोसिरह प्रभृति धातुरूप उपलब्ध होते हैं । ( ९ ) क्त्वा प्रत्यय के रूप अर्धमागधी के च्चा और त्तु प्रत्यय जोड़ने से भी बनाये जाते हैं । महाराष्ट्री तूण और ऊण भी पाये जाते हैं । यथा—
सुण +च्चा = सो + च्चा = सोचा
श्रुत्वा ।
कृ + च्चा = कि +च्चा = किच्चा वंदित्तु — वंदि + त्तु = वंदित्तु
-
आलोचि + ऊण = आलोचिऊण आलोच्च ।
कृत्वा ।
वंदित्वा |
चवि + ऊ = चविऊण च्युत्वा । मुच् + तूण – मोत्त् + तूण = मोत्तूण
--
मुक्त्वा ।
( १० ) त प्रत्ययान्त रूप ड में परिवर्तित दिखलायी पड़ते हैं । यथा
कर्ड < कृतम्-त के स्थान पर ड ।
""
<
""
वावडं व्यापृतम्संवुडं संवृत्तम् - ( ११ ) असू धातु का सभी काल, समान आसी रूप पाया जाता है । सभी अहेसी रूप भी उपलब्ध होता है ।
""
"
वचन और सभी पुरुषों में अर्धमागधी के कालों के बहुवचन में महाराष्ट्री के समान
अवशेष नियम प्राकृत के समान ही जैन महाराष्ट्री में प्रवृत्त होते हैं ।
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पैशाची पैशाची एक बहुत प्राचीन प्राकृत भाषा है। इसकी गणना पालि, अर्धमागधी और शिलालेखीय प्राकृतों के साथ की जाती है। चीनी-तुर्किस्तान के खरोष्ट्री शिलालेखों में पैशाची की विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। डा० जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार पैशाची पालि का एक रूप है, जो भारतीय आर्यभाषाओं के विभिन्न रूपों के साथ मिश्रित हो गयी है।
पैशाची की प्रकृति शौरसेनी है। मार्कण्डेय ने पैशाची भाषा को कैकय, शौरसेन और पञ्चाल इन तीन भेदों में विभक्त किया है। अत: सिद्ध होता है कि पैशाची भाषा पाण्ड, काञ्ची और कैकय आदि प्रदेशों में बोली जाती थी। अब यहां यह आशंका उत्पन्न होती है कि इतने दूरवर्ती इन तीनों प्रदेशों में एक ही भाषा का व्यवहार क्यों और कैसे होता था ? इसका उत्तर यह हो सकता है कि पैशाची भाषा एक जातिविशेष की भाषा थी। यह जाति जिस जिस स्थान पर गयी, उस उस स्थान पर अपनी भाषा को भी लेती गयी। अनुमान है कि यह कैकय देश में उत्पन्न हुई और बाद में उसीके समीपस्थ शूरसेन और पक्षाब तक फैल गयी। डा० सर जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार पैशाची का आदिम स्थान उत्तर-पश्चिम पञ्जाब अथवा अफगानिस्तान प्रान्त है। यहीं से इस भाषा का अन्यन्न विस्तार हुआ है। डा० हार्नलि का मत है कि अनार्य लोग आर्यजाति की भाषा का जिस विकृत रूप में उच्चारण करते थे,वह विकृत रूप ही पैशाची भाषा का है। दूसरे देशों में यों कहा जा सकता है कि द्राविड भाषा से प्रभावित आर्यभाषा का एक रूप पैशाची प्राकृत है। पंजाब, सिन्ध, विलोचिस्तान और काश्मीर की भाषाओं पर इसका प्रभाव आज भी लक्षित होता है।
वाग्भट्ट ने पैशाची को भूतभाषा कहा है। पिशाच नाम की एक जाति प्राचीन भारत में निवास करती थी। उसकी भाषा को पैशाची कहा गया है। पैशाची की व्याकरण सम्बन्धी निम्न विशेषताएँ है
(१) पैशाची शब्दों में आदि में न रहने पर, वर्गों के तृतीय और चतुर्थ वर्णों के स्थान पर उसी वर्ग के क्रमश: प्रथम और द्वितीय वर्ण हो जाते हैं। यथा
गकनंद गगनम्-ग के स्थान पर क हुआ है।
मेखो< मेघ---ऋवर्ग के चतुर्थ वर्ण घ के स्थान पर उसी वर्ग का द्वितीय वर्ण ख हुआ है।
१. वर्गाणां तृतीयचतुर्थयोरयुजोरनाद्योराद्यौ १०।३ वरः ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४४५ राचा< राजा-चवर्ग के तृतीय वर्ण ज के स्थान पर उसी वर्ग का प्रथम वर्ण च हुआ है।
णिच्छरो<णिज्झरो< निर्झर:-ज्झ के स्थान पर च्छ । दसवतनो< दसवदनोर दशवदन:-मध्यवर्ती द के स्थान पर त । सलफो< सलभो< शलभः–भ के स्थान पर फ। (२) पैशाची में ज्ञ के स्थान पर ज आदेश होता। जैसेपञ्जा< प्रज्ञा–ज्ञ के स्थान पर ज हुआ है। सञ्जा< संज्ञा- ,, , सव्वजो< सर्वज्ञ:-, " विज्ञान र विज्ञानम्-, ,
(३) राजन् शब्द के रूपों में जहां-जहां ज्ञ रहता है, वहां-वहां ज्ञ के स्थान में विकल्प से चिञ् आदेश होता है। यथा
राचिना लपितं, रञा लपितं दराज्ञा लपेतम्-विकल्प से ज्ञ के स्थान में चित्र आदेश होने पर राचिना और विकल्पाभाव में ज्ञ के स्थान पर म आदेश होने से राज्जा रूप बना है।
राचिनो धनं, रजो धनं राज्ञो धनम् । ( ४ ) पैशाची में न्य और ण्य के स्थान में अ आदेश होता है। यथाकन्नका, अभिम - कन्या, अभिमन्युः -न्य के स्थान पर न । पुजाहं ८ पुण्याहम्- ' (५) पैशाची में णकार का नकार होता है। यथागुनगनयुत्तो< गुणगणयुक्तः --शौरसेनी के ज के स्थान पर न। गुनेन<गुणेन-
, ( ६ ) पैशाची में तकार और दकार के स्थान में तकार हो जाता है। यथाभगवती, पव्वती भगवती, पार्वती-तकार के स्थान त हुआ है। मतनपरवसो< मदनपरवशः -द के स्थान पर त आदेश हुआ है। सतनं सदनम् -
" " तामोतरो< दामोदरः - , होतु होदु-शौरसेनी के दु के स्थान पर तु हुआ है। (७ ) पैशाची में ल के स्थान ळकार हो जाता है। यथा
१. ज्ञो न पैशाच्याम् ८।४।३०३ हे. ३. न्य-एयोजः ८।४।३०५ । ५. तदोस्तः ८।४।३०७......
.. २. राज्ञो वा चित्र ८।४।३०४ ।
४. णो नः ८।४।३०६ । ६. लो ळ: ८।४।३०८ ।
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४४६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
सलिळं 4 सलिलम् - ल के स्थान पर ळ हुआ है ।
कमळं कमलम् —
,
39
( ८ ) पैशाची श और ष के स्थान स आदेश होता हैं ।' यथासोभति शोभते - श के स्थान पर स हुआ
है 1
सोभनं शोभनं
"
-
ससी शशी
39
"
विसमो विषमः - मूर्धन्य ष के स्थान पर स हुआ है ।
विसानो विषाणः
"
"
( ९ ) पैशाची में हृदय शब्द के यकार के स्थान में पकार हो जाता है । यथाहितपर्क हृदयकम् – द के स्थान पर त और य के स्थान प आदेश होता है । ( १० ) पैशाची में टु के स्थान पर विकल्प से तु आदेश होता है । यथाकुतुम्बकं कुटुंबकं 4 कुटुम्बकम् ।
"
( ११ ) पैशाची में कही-कहीं र्य, स्न और ष्ट के स्थान में रिय, सिन और सट आदेश होते हैं। यथा
<
भारिया भार्या - स्वरभक्ति के नियमानुसार र और य का पृथक्करण होकर इत्व हो गया है ।
सिनातं स्नातम् -
कसटं कष्टम् -
""
""
"
सनानं <स्नानम् – स्वरभक्ति के नियमानुसार स और न का पृथक्करण । सनेहो स्नेह:
39
39
""
""
33
( १२ ) पैशाची में यादृश, तादृश आदि के दृ के स्थान पर ति आदेश होता है । यथा
या तिसादृशः ह के स्थान पर ति और श को स ।
तातिसो < तादृश:--
"
""
"9
"
भवातिलो भवादृशः -- अज्ञातिसो < अन्यादृशः न्य के स्थान पर ञ्ज और ह कोति । युम्हातिसो युष्माश: - ष्म के स्थान पर म्ह और ड के स्थान पर ति । अम्हातिसो अस्मादृशः स्म ,
""
( १३ ) पैशाची में शौरसेनी के ज के स्थान में च्च आदेश होता है । यथाकच्चं । कज्जं कार्यम् – शौरसेनी के ज्ज के स्थान पर च ।
१. श-षोः सः ८।४।३०६ ।
२. हृदये यस्य पः ८|४|३१०
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४४७
(१४) पैशाची में शौरसेनी का सुज शब्द ज्यों का त्यों रह जाता है।
सुजोर सूर्यः-शौरसेनी में यं के स्थान में ज आदेश होता है और पूर्ववती ऊकार को हस्त्र होने से सुज्ज बनता है । पैशाची में भी यही रूप पाया जाता है।
(१५) पैशाची में स्वरों के मध्यवर्ती क, ग, च, ज, त, द, य और व का लोप नहीं होता। यथा
ठोकरलोक-क का लोप नहीं हुआ। इंगार< अंगार-ग का लोप नहीं हुआ है। पतिभासद प्रतिभास-प्र के स्थान पर प और त का लोप नहीं हुआ। करणीय < करणीय-य ज्यों का त्यों रह गया है । सपथ शपथ-4 का लोप नहीं हुआ। (१६ ) पैशाची में ख, भ, और थ के स्थान पर ह नहीं होता। यथासाखा<शाखा-श के स्थान पर स और ख के स्थान पर ह नहीं हुआ। पतिभास प्रतिभास-म के स्थान ह नहीं हुआ। सपथ < शपथ-प के स्थान में व भी नहीं हुआ और न थ को ह ही हुआ।
(१७) पैशाची में ट के स्थान पर ड और 3 के स्थान पर ढ नहीं होता। यथा-भट भट–ट के स्थान पर ट ही रह गया है।
मठ मठ-ठ के स्थान पर आ ही रह गया है ।
(१८) पैशाची में रेफ के स्थान में ल और ह के स्थान में घ नहीं होता। यथा-गरुड< गरुड-र के स्थान में ल नहीं हुआ।
रेफ द रेफदाह < दाह-ह के स्थान में घ नहीं हुआ।
शब्दरूप (१९) पञ्चमी के एकवचन में आतो और आतु प्रत्यय होते हैं । यथाजिनातु, जिनातो। ( २० ) पैशाची में तद् और इदम् शब्दों में टा प्रत्यय सहित पुल्लिङ्ग में नेन और स्त्रीलिंग में ताए आदेश होते हैं। यथा
नेन कतसिनानेन तेन कृतस्नानेन अथवा अनेन । पूजितो च नाएदपूजितश्चानया।
वीर शब्द के रूप एकवचन
बहुवचन प० वीरो
वीरा बी० वीरें
वीरे, वीरा त० वीरेन, वीरेनं
वीरेहि, वीरेहि
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४४८
च० वीराय, वीरस्स प० वीरातो, वीरातु ..
छ० वीरस्स
स वीरंसि वीरम्मि
एकवचन
प० इसी
वी० इसिं
त० इसिना
च० इसिनो, इसिस
पर इसितो, इसिस
इकारान्त इसि शब्द
एकवचन
अभिनव प्राकृत व्याकरण
प० भानू वी० भानुं
त० भानुना
च० भानुनो, भानुस्स
पं० भानुतो, भानुतु
छ० इसिनो, इसिस
स० इसिंसि
इसी, इसी
इसी प्रकार अग्ग, मुनि, बोहि और कवि आदि इकारान्त शब्दों के रूप होते हैं ।
भानु शब्द
वीरान वीरानं
वीरातो, वीराहितो; वीरासुन्तो,
वीरेहितो, वीरेन्तो वीरान, वीरानं
वीरे, वीरे
के
छ० भानुनो, भानुस्स स० भानुंसि, भानुम्मि
प० अयं, इमो
वी० इमं, इनं, नं
रूप
बहुवचन
इस, इसओ, इसिनो
इसिनो, इसी
इस, इसी
इसीन, इसीनं
इसीओ, इसीउ, इसीहिंतो, इसीसंतो
इसीन, इसीनं
बहुवचन भानुनो, भानवो, भानूओ
भानुनो, भानू
भानूद्दि, भानूहि
भानून, भानून
भानुत्तो, भानूओ, भानूउ भानुर्हित्तो, भानुमुँतो भानून, भानू नं
भानू, भानूसु
नपुंसकलिङ्ग के शब्दरूप शौरसेनी के समान होते हैं ।
सर्वादि गण के शब्दों के रूप पञ्चमी विभक्ति एकवचन को छोड़, अवशेष रूप पञ्चमी विभक्ति एक वचन में अतो और अतु प्रत्यय
।
शौरसेनी के समान ही होते हैं जोड़े जाते हैं ।
इम इदम् शब्द के रूप
एकवचन
बहुवचन
इमे
इमे इमा, ने,
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४४६
एकवचन
अभिनव प्राकृत-व्याकरण त. इमेन, इमेनं, नेन
इमेदि, इमेहिं, इमेहि च० इमस्स, अस्स, से
सिं, इमेसि, इमान, इमानं ५० इमातु, इमातो
इमत्तो, इमाउ, इमाओ
इमाहितो, इमासुतो छ० इमस्स, अस्स, से
इमान, इमानं स० इमस्सि, इमम्मि, अस्सि, इह इमेसु, इमेसु
एअ< एतद्
बहुवचन प० एस, एसो वी० एतं
एते, एता त. एतेन, एतिना
एतेहि, एतेहिं, एतेहि च० एतस्स
एतेसि, एतान पं० एतातो, एतातु
एआउ, एआओ, एआहि, एआहितो,
एएहितो छ० एतस्स
एतेसिं, एतान स. एत्थ, अयम्मि, एअस्सि एतेसु, एएसं
राया< राजन्
बहुवचन प० राया
रायानो, राइनो वी० राइनं रायं
राये, राया, राचिनो, रजो त० राचिजा, राचिना
राईहि, राई हिं, राईहिं च० राचिनो, रो
राईन, राईन, रायान, रायानं पं० रायातो, रायन्तु, राचिओ, रजो राइनो, राईओ, राईहितो, राईसंतो छ० राचित्रो, रज्जो
राईन, राईनं, रायान; रायानं स. राचिजि, रञि
रायेस, रायेसं, राईसु, राईसं सं० रायं, राया, रायो।
रायानो, राइनो
क्रियारूप ( २० ) पैशाची में शौरसेनी के दि और दे प्रत्ययों के स्थान पर ति आर ते प्रत्यय होते हैं।
(२१ ) पैशाची में भविष्यकाल में रिस प्रत्यय के स्थान पर एय्य प्रत्यय जोड़ा जाता है। यथा-हुवेय ८ भविष्यति । ..
(२२ ) पैशाची में भाव और कर्म में ईअ तथा इज्ज के स्थान में इय्य प्रत्यय होता है।
एकवचन
२९
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४५०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
हस धातु-वर्तमानकाल एकचवन
बहुवचन प्र० पु० हसति, हसेते हसन्ति, हसते, हसिरे, हसेहरे म० पु० हससि, हससे
हसित्था, हसध, हसह उ० पु० हसमि, हसेमि हसमो, हसमु, हसम
कृदन्त क्त्वा प्रत्यय के स्थान में तून, स्थून और द्धन प्रत्यय होते हैं । यथापठितून < पठित्वा-पठ धातु में तून प्रत्यय जोड़ने से। गन्तून < गत्वा-गम् धातु में तून प्रत्यय जोड़ने से । नत्थून < नष्ट्वा-नश् धातु में त्थून प्रत्यय जोड़ने से । तत्थून < दृष्ट्वा-दृश धातु में स्थून प्रत्यय जोड़ने से। नदन < नष्ट्वा-नश् धातु में धून प्रत्य जोड़ने से। तळून दृष्ट्वा-दृश् धातु में खून प्रत्यय जोड़ने से ।
पैशाची के कुछ शब्द पैशाची संस्कृत
ध्वनिपरिवर्तन मेखो मेष:
घ के स्थान पर ख हुआ है। गकनं गगनम्
ग के स्थान पर क। राचा राजा
ज के स्थान पर च । णिच्छरो निरः
में के स्थान पर च्छ । वटिस
ड के स्थान पर ट। दसवत्तनो दशवदनः
द के स्थान पर त । माथवो माधव:
ध के स्थान पर थ। गोविन्तो गोविन्दः द के स्थान पर त । केसवो केशवः श के स्थान पर स। सरफसं सरभसं
भ के स्थान पर फ। शलभः संगामो संग्रामः
प्र के स्थान पर ग।
इव के स्थान पर पिव आदेश । तरुणी
र के स्थान पर ल। कसट कष्टम्
स्वरभक्ति के नियम से ष्ट का पृथक्करण । स्नानम्
स्न का सनेहो स्नेहः भारिआ भार्या
यो का
वडिशम्
सलफो
पिव
तलुनी
सनानं
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४५१
विज्ञातः
ज्ञ के स्थान पर पालि के समान च ।
सर्वज्ञ:
विजातो सव्वजो कमा कच्चं दातून घेत्तून हितअकं
कन्या कार्यम् दत्त्वा गृहीत्वा
न्य के स्थान पर न । र्य के स्थान पर च। क्त्वा के स्थान पर तून ।
हृदयकम्
हृदयक के स्थान पर हितअकं आदेश ।
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चूलिका पैशाची यद्यपि वररुचि आदि वैयाकरणों ने पैशाची के लक्षणों के अन्तर्गत ही चूलिका पैशाची का अनुशासन बताया है। पर हेमचन्द्र और षडूभाषाचन्द्रिका के कर्ता पं० लक्ष्मीधर ने इस भाषा का भी स्वतन्त्र अस्तित्व मानकर इसकी विशेषताओं का निर्देश किया है । चूलिका पैशाची के कुछ उदाहरण हेमचन्द्र के कुमारपाल और जयसिंह सूरि के हम्मीरमर्दन नामक नाटक तथा पड़भाषा स्तोत्रों में पाये जाते हैं। यह सत्य है कि चूलिका पैशाची पैशाची का ही एक भेद है। इसमें पैशाची की अपेक्षा अधिक विशेषताएँ दृष्टिगोचर नहीं होतीं। ध्वनि परिवर्तन सम्बन्धी निम्न विशेषताएँ हैं।
(१) चूलिका पैशाची में र के स्थान में विकल्प से ल होता है। यथागोली< गोरी–र के स्थान पर ल । चलन < चरण-र के स्थान पर ल और ण को न । लुद्ध र रुद्र-र के स्थान पर ल, संयुक्त रेफ का लोप और द को द्वित्व । लाचा राजा-र को ल और ज को च। लामो रामो-र के स्थान पर ल। हलंद हरं-र के स्थान पर ल।
( २ ) चूलिका पैशाची में वर्ग के तृतीय और चतुर्थ अक्षरों के स्थान पर प्रथम और द्वितीय अक्षर होते हैं। यथा
मक्कनो< मार्गण:- संयुक्त रेफ का लोप और ग के स्थान में क तथा क को द्वित्व और ण को न।
नकोर नगः-ग के स्थान पर क । मेखो< मेघः-घ के स्थान पर ख । वखोर व्याघ्रः-संयुक्त य का लोप तथा संयुक्त रेफ का लोप और को ख । चीमूतो< जीमूत:-ज के स्थान में च । छलोर झर:-झ के स्थान पर छ और रेफ को ल। तटाकं ८ तडार्क-ड के स्थान में ट। टमलुको< डमरुकः-ड को ट और रु के स्थान में ल । काढं < गाढम्-ग के स्थान में क। ठक्का< ढक्का-ढ के स्थान में ठ । मतनो मदनः-द के स्थान में त। तामोतलोर दामोदरः-द के स्थान में त और रेफ को ल।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४५३ मथुलोर मधुरो-ध के स्थान थ और रेफ को ल । थालाद्धारा-ध के स्थान में थ और रेफ को ल। पाटपोर बाडवः-ब के स्थान में प और ड को ट। पालोबाल:-ब के स्थान पर प। लफसोद रभसः-र के स्थान पर ल और भ के स्थान पर फ। लंफादरंभा- , फवो भवः-भ के स्थान पर फ। फकवती भगवती-भ के स्थान पर फ और ग को क । पनमथ प्रणमत- के स्थान में न और त को थ। नखतप्पनेसु नखदपणेषु-दर्प के स्थान पर तप्प और ण को न ।
चलनग्ग< चरणाग्र-र को ल, " को न और संयुक्त रेफ का लोप और ग को द्वित्व।
एकातस< एकादश-द को त और श को स। तनुथलं - तनुधरं-ध के स्थान पर थ और र को ल। पातुक्खेवेन पादोत्क्षेपेण-द को त, क्ष के स्थान पर क्ख । वसुथा< वसुधा-ध को थ। नमथ < नमत-त को थ । ( ३ ) चूलिका पैशाची में आदि अक्षरों में उक्त नियम लागू नहीं होता। यथागती गति:-ग के स्थान पर हेमचन्द्र के मत से क नहीं हुआ। धम्मो धर्म:-ध के स्थान पर थ नहीं हुआ। जीमूतोदजीमूतः-ज के स्थान पर च नहीं हुआ। डमरुको डमरुक:-ड के स्थान पर ट नहीं हुआ। नियोजितं नियोजितम्-युज धातु में भी उक्त नियम नहीं लगा। घनो< घनः-घ के स्थान पर ख नहीं हुआ। जनोरजन:-ज के स्थान पर च नहीं हुआ। झल्लरी< झल्लरी-झ के स्थान पर छ नहीं हुआ।
( ४ ) शब्दरूप और धातुरूप चूलिका पैशाची में पैशाची के समान ही होते हैं, परन्तु वर्णपरिवर्तन सम्बन्धी नियमों का प्रयोग कर लेना आवश्यक है। यथा
फोति < भवति-भ को फ हुआ है। फरते < भवतेफवति भवति- , फोइय्य < भोइय्य- ,
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ग्यारहवाँ अध्याय
अपभ्रंश प्राकृत वैयाकरणों ने अपभ्रंश को प्राकृत का एक भेद माना है। काव्यालंकार की टीका में नमिसाधु ने “प्राकृतमेवापभ्रंशः” ( २।१२ ) अर्थात् शौरसेनी, मागधी आदि की तरह अपभ्रंश को प्राकृत का एक भेद बताया है। महर्षि पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में लिखा है "भूयांसोऽपशब्दा: अल्पीयांस: शब्दा इति । एकैकस्य हि शब्दस्य वहवोऽपभ्रंशा। तद्यथा गौरित्यस्य शब्दस्य गावी गोणी गोता गोपोतलिकेत्यादयो बहवोऽपभ्रंशाः ।" अर्थात् संस्कृत व्याकरण में असिद्ध शब्दों को अपभ्रंश बताया है। दण्डी ने अपने काव्यादर्श में प्राकत और अपभ्रंश का अलग-अलग निर्देश किया है। पतञ्जलि के भाष्पवाले उपयुक्त कथन से भी स्पष्ट है कि संस्कृत से भिन्न सभी प्राकृत भाषाएँ अपभ्रंश के अन्तर्गत हैं। उनके गावी, गोणी, गोता और गोपोतलिका आदि उदाहरण उक्त अर्थ में ही चरितार्थ हैं।
डा० हार्नलि का मत है कि आर्यों की बोलचाल की भाषाएँ भारत के आदिम निवासी अनार्य लोगों की भिन्न-भिन्न भाषाओं के प्रभाव से जिन रूपान्तरों को प्राप्त हुई थीं, वे ही भिन्न-भिन्न अपभ्रंश भाषाएँ हैं और ये महाराष्ट्री की अपेक्षा अधिक प्राचीन हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन प्रति विद्वान् डा० हार्नलि के मत को नहीं मानते। इनका मत है कि साहित्यिक प्राकृतों को व्याकरण के नियमों में आबद्ध हो जाने पर जिन नूतन कथ्य भाषाओं की उत्पत्ति हुई, वे भाषाएँ अपभ्रंश कहलायीं । अपभ्रंश भाषा का साहित्य में प्रयोग ईस्वी सन् की पांचवी शताब्दी के पहले ही होने लगा था। अपभ्रंश भाषा के बहुत भेद हैं। प्राकृत चन्द्रिका में इसके सत्ताईस भेद बतलाये गये हैं। वाचड, लाटी, वैदर्भी, उपनागर, नागर, बार्बर, अवन्ती, पञ्चाली, टाक, मालवी, कैकेयी, गौडी, कौन्तली औढी, पाश्चात्त्या, पाण्ड्या, कौन्तली, सहली, कालिङ्गी, प्राच्या, कार्णाटी, काञ्ची, द्राविडी. गौर्जरी, आभीरी, मध्यदेशीया एवं वैतालिकी इन २७ भेदों का उल्लेख मार्कण्डेय ने भी अपने प्राकतसर्वस्व में किया है। प्रधान रूप से अपभ्रंश को नागर, उपनागर और वाचड इन तीन भेदों में ही विभक्त किया गया है।
१. पातञ्जल-महाभाष्यम् (प्रदीपोयोतसमन्वितम् ) पृ० १७; सन् १९३५ । २. टाक टकभाषानागरोपनागरादिभ्योऽवधारणीयम् । तु-बहुला मालवी। वाडीबहुला पाञ्चाली। उल्लप्राया वैदर्भी । संबोधनाढ्या लाटी । ईकारोकारबहुला प्रौढ़ी। सवीप्सा कैकेकी । समासान्या गौडी । डकारबहुला कौन्तली। एकारिणी च पारख्या । युक्ताट्या
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
४५५
आचार्य हेमचन्द्र ने सामान्य अपभ्रंश के नाम से अनुशासनसम्बन्धी नियम लिखे हैं । अतः इस प्रकरण में मी सामान्य अपभ्रंश के अनुशासन सम्बन्धी नियम दिये जाते हैं। ( १ ) अपभ्रंश में अ, इ, उ, ऍ और ओ ये पाँच हस्व स्वर और आ, ई, ऊ, ए और ओ ये पांच दीर्घ स्वर माने गये हैं । ऋ, ऌ, ऐ और औ का अभाव है । ( २ ) ऋ स्वर के स्थान पर अपभ्रंश में अ, इ, उ, आ, ए, और रि आदेश हो जाता है। कुछ स्थानों में ऋ ज्यों का त्यों भी पाया जाता है । यथा
ऋ - अ
तणुतृण, पट्टि पृष्ठ, कच्चु कृत्य
ऋ =
आ
ऋ = इ
ऋ = उ
ऋ = ए
ऋ = रि, री
( ३ ) ऌ के स्थान पर अपभ्रंश में इ और इलि आदेश होता है । यथाकिन्नो, किलिन्नो क्ऌन्न ।
ऐ = ए
ऐ = अइ औ = ओ'
औ = ओ
( ४ ) ऐ के स्थान पर अपभ्रंश में ऍ, ए और अइ तथा औ के स्थान पर ओ, ओ और अउ आदेश होते हैं । यथा
ऐ = ऍ
काच्चु < कृत्य;
तिणुतृण, पिडि पृष्ठ
औ
पुट्ट पृष्ठ
गेह गृह
रिणऋण रिसोऋषभ; रीछ ऋच्छ
= अउ
यौवन
पर पौर, गउरी गौरी
( ५ ) अपभ्रंश में पद के अन्त में स्थित उं, हुँ, हिं और हं का भी लघु-हस्व उच्चारण होता है । यथा—
(क) अन्नु जु तुच्छउं ते धनहे !
(ख) दइवु घटावइ वणि तरहुँ । ( ग ) तणहुँ तइज्जी भंगि नवि ।
अवरेकअपरैक
देवदैव
दइदैव
गोरी दगौरी
सैंहली । हिंयुक्ता कालिङ्गी । प्राच्या तद्देशीयभाषाढ्या । ज (भ) ट्टादिबहुला प्राभीरी । वर्णंविपर्ययात् कार्णाटी । मध्यदेशीया तद्देशीयाच्या । संस्कृतान्या च गौर्जरी । चकारात् पूर्वोक्तढकभाषाग्रहणम् । रत (ल) हभां व्यत्ययेन पाश्चात्त्या । रेफव्यत्ययेन द्राविडी । ढकारबहुला वैतालिकी । एत्रो बहुला की ।
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5
आ%अ
no ॥
|| | || hor chur chur chur chur chur
|| | |
४५६
अभिनव प्राकृत-व्याकरण (६ ) अपभ्रंश में एक स्वर के स्थान पर प्रायः दूसरा स्वर हो जाता है। यथा
अ = इ किविण< कृपण। अ%D 3 मुणइ< मनुते । अ=ए वेल्लि र वल्ली।
सीय< सीता। आउ उल्लर आई। आए देइ<दा, लेइला , मेत्त<मात्र ।
पडिवत्त र प्रतिपत्ति । बेल्ल < बिल्व, एत्था< इत्थु ।
हरडइ< हरीतिकी। ई = आ कम्हार< काश्मीर ।
विहूण< विहीन । एरिसद ईदृश । वेगर वीणा। खेड्डअर क्रीडा। मउड< मुकुट; बाह < बाहु; सउमार< सुकुमार ।
पुरिस< पुरुष। उ=ओ'
मोगर < मुद्गर,पोत्थयार पुस्तक; को तत र कुन्त। ऊ = ए नेउर <नूपुर । ऊ = ओ मोल्ल < मूल्य । ऊ = ओ थोर< स्थूल; तांबोल ताम्बूल ।
एइ, ई, ए लिह, लोह, लेह र लेखा । (७) अपभ्रंश में स्वादि विभक्तियों के आने पर प्रायः कभी तो प्रतिपादिक के अन्त्य स्वर का दीर्घ और कभी हस्व हो जाता है । यथा
ढोला सामला < विट श्यामल:-विट में रहनेवाले अ को ढोला में दीर्घ कर दिया है । सामला में भी ल को दीर्घ हुआ है।
धण<धन्या-दीर्घ को हस्व हुआ है। सुवण्णरेह < सुवर्ण रेखा- दीर्घ को हस्व हुआ है। विट्टीए ८ पुत्रि-स्त्रीलिङ्ग में ह्रस्व का दीर्घ हुआ है। पइट्टि ८ प्रविष्टा-स्त्रीलिंग में दीर्घ का हस्व हुआ है। निलिआ खग्गदनिशिता खड्गा , ,
उ = अ
| i m
|
१. स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रशे ८।४।३२६ हे० । २. स्यादौ दीर्घ-हस्वौ ८।४।३३० ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरणे
४५७
) अनुस्वारयुक्त हस्व स्वर के आगे र श ष स और ह हो तो हस्व को दीर्घ और अनुस्वार का लोप हो जाता है । यथा
बीस विंशतिः सह सिंह ।
( ९ ) अपभ्रंश में छन्द के कारण हस्व को दीर्घ और दीर्घ को हस्व हो जाता है । कई स्थानों पर हस्व को दीर्घ न करके अनुस्वार कर देते हैं ।
दंसण दर्शन | फंस स्पर्श
अंसु अश्रु ।
व्यञ्जनविकार
सामान्यतः शब्द के आदि व्यञ्जन में विकार नहीं होता । पर ऐसे भी कुछ अपवाद हैं जिनमें आदि व्यञ्जन में परिवर्तन पाया जाता है । यथा
दिदिति - यहां शब्द के आदि ध के स्थान पर द हो गया
है 1
अ या धुआ दुहिता - शब्द के आदि व्यञ्जन ध के स्थान पर द हुआ है । यादि जाति - शब्द के आदि में ज के स्थान पर अपभ्रंश में य होता है ।
( १० ) अपभ्रंश में पद के आदि में वर्तमान किन्तु स्वर से पर में आनेवाले और असंयुक्त क, ख, त, थ, प और फ- वर्णों के स्थान में प्राय: ग, घ, द, ध, ब और भ होते हैं। यथा
पिमाणुसविच्छाहरु <प्रियमनुष्य विक्षोभकरम् —क के स्थान पर ग । चितिज माणुसुखं चिन्त्यते मान: - - ख के स्थान पर घ । कधिदु कथितम्-थ के स्थान पर ध और त के स्थान पर द । सबधु शपथम् प के स्थान पर ब और थ के स्थान पर ध ।
सभलउ << सफलम् —फ के स्थान पर भ ।
P
फ
( ११ ) कुछ शब्दों में अपभ्रंश में दो स्वरों के बीच में स्थित ख, घ, थ, ध, और भको छ होता है । यथा
साहादशाखा - तालव्य श के स्थान पर स और ख को ह ।
पहुल पृथुल – पकारोत्तर ऋ को अकार और थ के स्थान पर ह ।
अहर अधर-ध के स्थान पर ह ।
मुत्ताहल मुक्ताफल — संयुक्त क् का लोप, तू को द्विस्त्र और फ को छ ।
( १२ ) अपभ्रंश में प्राकृत के समान ट के स्थान पर ड, ढ के स्थान पर ठ और
प
के स्थान पर व होता है । यथा
१. श्रनादौ स्वरादसंयुक्तानां क खत-थ-प-फां ग घ द-ध-ब-भाः ८| ४ | ३६६ ।
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प्राकृत-व्याकरण
तड < तट, कवड < कपट, सुहड < सुभट–ट के स्थान में ड हुआ है। मढ < मठ, वीढ< पीठ-3 के स्थान पर ढ हुआ है। दीवर द्वीप, पावर पाप-के स्थान पर व हुआ है।
(१३ ) अपभ्रंश में कुछशब्दों में अल्पप्राण वर्गों के स्थान पर महाप्राण वर्ग हो जाते हैं।
खेलइ < क्रीड, खप्पर कर्पर, नोक्खि < नवक्की–अल्पप्राण क के स्थान पर महाप्राण ख हुआ है।
भारथ भारत, वसथिर वसति-अल्पप्राण त के स्थान पर थ हुआ है।
फंसह स्पृशति, फरसु< परशु-अल्पप्राण प के स्थान पर महाप्राण फ हुआ है।
( १४ ) अपभ्रंश में दन्त्य व्यञ्जनों में मूर्धन्य व्यञ्जन हो जाते हैं । यथापडिउ< पतित-त दन्त्य वर्ण के स्थान पर मूर्धन्य ड हुमा है। पडायद पताका- ,,
, और क के स्थान पर य । गंठिपाल (प्रन्थिपाल-थ के स्थान पर ठ हुआ है। उहइ ८ दहति-दन्त्य द के स्थान पर मूर्धन्य ड हुआ है । खुडिय<क्षुधित-दन्त्य ध के स्थान पर मूर्धन्य ड हुआ है। डोलइ दोलायते-, द के , " डुक्कर < दुष्कर , , वियउढ < विदग्ध-दन्त्य ध के स्थान पर मूर्धन्य ढ हुआ है।
(१५) अपभ्रंश में पद के आदि में अवर्तमान असंयुक्त मकार के स्थान में विकल्प से अनुनासिक वकार होता है'। यथा
कलु < कमलम्-म के स्थान में विकल्प से सानुनासिक ढं हुआ है। भवरु (भ्रमरः- जिवजिमतिवदतिम
( १६ ) अपभ्रंश में संयोग के बाद में आनेवाले रेफ का विकल्प से लुक् होता है । यथा___जइ केवँइ पावीसु पिउ, यदि कथञ्चित् प्राप्स्यामि प्रियम्-संयुक्त रेफ का लोप हुआ है।
(१७) अपभ्रंश में कहीं-कहीं सर्वथा अविद्यमान रेफ भी होता देखा जाता है । यथा
"
"
१. मोऽनुनासिको वो वा ८।४।३६७ । २. वाघो रो लुक ८।४।३९८ । ३. अभूतोऽपि क्वचित् ८।४।३६६ ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४५६ वासु महारिसि एउ' भणइ< व्यासो महर्षिः एतद् भणति । बहुल रूप में कहने से नियम की प्रवृत्ति नहीं भी पायी जाती है । यथावासेण वि भारहखम्भि बद्ध ८ व्यासेनापि भारतस्तम्भे बद्धम् ।
( १८ ) अपभ्रंश में प्राकृत के म्ह के स्थान में विकल्प से म्भ आदेश होता है। यथा
गिम्भो< गिम्हो-प्राकृत के म्ह के स्थान पर म्भ आदेश हुआ है।
अभिप्राय यह है कि संस्कृत के क्षम, श्म, म, स्म और म्ह के स्थान पर प्राकृत में म्ह आदेश होता है और प्राकृत के इस म्ह के स्थान पर अपभ्रंश में म्भ आदेश हो जाता है । यथा
संस्कृत ब्रह्म का प्राकृत में बम्ह रूप बनता है और इस बम्ह का अपभ्रंश में बम्भ बन जाता है।
अपभ्रंश में स्वरों के बीच में स्थित छ को च्छ होता है । यथाविच्छ वृक्ष-क्ष के स्थान पर छ और छ को च्छ हुआ है। (१९) अपभ्रंश में ड, त और र के स्थान पर क्वचित् ल होता है । यथाडल-कील < क्रीडा, सोलस <षोडश, तलाउ< तडाग, नियल निगड, पीलिय < पीडित-ड के स्थान ल हुआ है। त = ल-अलसी अतसी, विजुलिया< विद्युतिका । र =ल-चलण< चरण । य = ज-जमुना< यमुना; जसु< यस्य । व = य-पयट्ट< प्रवृत्त–व के स्थान पर य, ऋ को अ, प्र को प और त कोह। ष= छ-छ<षट्-षट् के स्थान पर छ । ष=ह-पाहान < पाषाण-पके स्थान पर ह हुआ है।
(२०) अपभ्रंश में संयुक्त व्यञ्जन परिवर्तन सम्बन्धी नियम प्रायः प्राकृत के ही समान हैं। कुछ स्थानों में विशेषताएँ पायी जाती हैं।
( २१ ) आदि संयुक्त व्यन्जन में यदि दूसरा व्यन्जन य, र, ल और व हो तो उसका लोप हो जाता है। यथा
जोइसिउदज्योतिषी-य का लोप, मध्यवर्ती त का लोप इ स्वर शेष, ष को स और विभक्ति प्रत्यय उ।
वावारउदव्यापार-पकार का लोप, य को व और विभक्ति का प्रत्यय उ । वामोह र व्यामोह-य का लोप। कील < क्रीड़ा-र का लोप और ड को ल।
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४६०
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
प्रिय पर का लोप और य को उ ।
पेम्म प्रेम
"
सर स्वर का लोप ।
दीव द्वीप -
""
यथा
और पकोच ।
""
(२२) अपभ्रंश में प्राकृत के समान त्य के स्थान पर च्च, थ्य के स्थान पर च्छ और के स्थान पर ज्ज आदेश होता है । यथा
अच्चंत < अत्यन्त —त्य के स्थान पर चत्र ।
मिच्छत्त < मिथ्यात्व - थ्य के स्थान पर च्छ ।
अज्जु अद्य द्य के स्थान पर ज्ज ।
( २३ ) अपभ्रंश में क्ष के स्थान पर ख, छ, झ, घ, क्ख और ह आदेश होते हैं।
खार दक्षार; खत्रण दक्षपण-क्ष के स्थान पर ख ।
छग क्षण - प्राकृत के समान क्ष के स्थान पर छ ।
निरक्षीयते -क्ष के स्थान पर क आदेश |
कडक्ख << कटाक्ष-ट को ड और क्ष को क्ख आदेश हुआ है ।
निहित्त निक्षित-क्ष के स्थान पर ह और संयुक्त प का लोप औरत को द्वित्व | अपभ्रंश में वर्णागम, वर्णविपर्यय ( Metathesis ), वर्णलोप और स्वरभक्ति आदि भी उपलब्ध हैं।
1
( २४ ) वर्णागम में स्वर या व्यञ्जन का आदि, मध्य और अन्त्य स्थान में आगम होता है। यथा-
इत्थी स्त्री - स्त्री का त्थी हो जाता है और आदि में इ स्वर का आगम होजाने इथी पद बनता है ।
वासुदव्यास - मध्य में र व्यज्ञ्जन का आगम हुआ है ।
मध्य में स्वर के आगम को स्वरभक्ति ( Anaptysis ) कहा जाता है । यथासमासण < श्मशान - पृथक्करण होकर मध्य में आकार का आगम हुआ है । सलहइ < श्लाघते - पृथक्करण होकर अ स्वर का मध्य में आगम हुआ है 1 दीहर दीर्घ
"
(२५) स्वर भक्ति का एक भेद अपनिहिती ( Epenthesis ) है; जिस शब्द के अन्त में इ, उ, ए और ओ में से कोई एक हो तो बीच में इ या उ का आगम हो जाता है तथा तृतीय स्वर भी परिवर्तित हो जाता है । यथा
1
वेल्लि < बल्लि बल्ल + इ - इस स्थिति में ल्ल के पहले इ का आगम होने पर ब + इ + ल् + इ = बेल्लि पूर्ववर्ती इ का अ के साथ गुण हुआ
है 1
"
""
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अभिनव प्राकृत व्याकरण
४६१
अपभ्रंश में वर्णविपर्यय ( Metathesis ) के भी उदाहरण पाये जाते हैं ।
यथा---
हर गृह — वर्णविपर्यय ।
रद्दस हर्ष
<
..
वर्णविकार में समीकरण ( Assamilation ) और विषयी ( Disassamilation ) के भी उदाहरण मिलते हैं। यथा
जुप्त युक्त — य के स्थान पर ज और त के संयोग से क ध्वनि भीत में परिवर्तित है ।
रक्त रक्तत के संयोग से क् ध्वनि तू में परिर्तित है ।
सद्द शब्द- द के संयोग से बू ध्वनिद में परिवर्तित है । अग्ग अग्निग के संयोग से न ध्वनि ग में परिवर्तित । सत्ति
पत्नी को व और त के संयोग से न ध्वनि त में परिवर्तित |
-
वर्णलोप में भी आदि, मध्य और अन्त्य वर्ण का लोप होता है । वि अपि आदि स्वर का लोप ( Aphaerasis )
रण्ण अरण्य- ""
पोष्फल पूगफल - मध्य वर्ग का लोप ( Syncope ) भविसत्तकहा << भविष्यदत्तकथा - यहाँ अक्षर लोप ( Haplology ) है |
शब्दरूपावलि
यथा
ވ,
( २६ ) अपभ्रंश में प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त शब्दों के अन्तिम अ को उ होता है । यथा-
दहमुहु 4 दसमुखः - स को ह और ख को ह; प्रथमा एकवचन में उ विभक्तिचिह । तोसिअ - संकरु तोषित - शंकर : - प्रथमा एकवचन में उ विभक्तिचिह्न । चउमुहु चतुर्मुखम् - द्वितीया के एकवचन में उ विभक्तिचिह्न |
छमुहु षण्मुखम् - षट् के स्थान पर छ और द्वितीया के एकवचन में उ विभक्तिचिह्न |
१. स्यमोरस्योत् ८|४|३३१;
जिणु जिनः प्रथमा के एकवचन में उ विभक्तिचिह्न ।
(२७) अपभ्रंश में पुंल्लिङ्ग में वर्तमान अकारान्त शब्दों के प्रथमा के एकवचन में विकल्प से अन्तिम अ के स्थान में ओ होता है । यथा
जोय के स्थान पर ज और विभक्ति प्रत्यय ओ । सोसः विभक्ति प्रत्यय ओ जोड़ा गया है ।
२. सौ पुंस्योद्वा८।४।३३२ ॥
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૪૬૨
अभिनव प्राकृत-व्याकरण (२८ ) अपभ्रंश में तृतीया विभक्ति के एकवचन में अन्तिम अ के स्थान पर ए हो जाता है। यथा
पवसन्ते < प्रवसता-तृतीया के एक्ववन में अ को ए हुआ है। नहे < नखेन
अपभ्रंश में तृतीया एकवचन में ण और अनुस्वार दोनों होते हैं। अत: तृतीया एकवचन में तीन रूप बनते हैं। यथा
देवे, देवें, देवेण < देवेन।
( २६ ) अपभ्रंश में शब्द के अन्त्य अकार और डि-- सप्तमी एकवचन के स्थान में इकार और एकार होते हैं। यथा
तलि धल्लइ, तले धल्लइ < तले क्षिपति ।
( ३० ) अपभ्रंश में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में अन्त्य अकार के स्थान में विकल्प से एकार आदेश होता है और हिं प्रत्यय जुड़ जाता है। यथा
लक्खेहि, गुणहि । लक्षैः, गुणैः ।
( ३१ ) अपभ्रंश में अकारान्त शब्दों से पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में हे और हु प्रत्यय जोड़े जाते हैं। यथा
बच्छहे गृहइ< वृक्षात् गृह्णाति-हे प्रत्यय जुड़ने से । वच्छहु गृण्हइ वृक्षात् गृह्णाति-हु प्रत्यय जुड़ने से।
( ३२ ) अपभ्रंश में अकारान्त शब्दों में पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में हुं प्रत्यय जोड़ा जाता है। ___ यथा-गिरिसिंगहुं । गिरिशेंगेभ्यः ।
( ३३ ) अपभ्रंश में अकारान्त शब्दों से पर में आनेवाले षष्ठी के बहुवचन में सु, हो और स्सु ये तीन प्रत्यय होते हैं। यथा
तसु< तस्य- सु प्रत्यय जोड़ा गया है। दुल्लहहोदुर्लभस्य-हो ,, , सुअणस्सु< सुजनस्य-स्सु प्रत्यय जोड़ा जाता है।
( ३४ ) अपभ्रंश में अकारान्त शब्दों से पर में आनेवाली षष्ठी विभिक्ति के बहवचन में हैं प्रत्यय जोड़ा जाता है। यथा
१. एहि ८।४।३३३ । ३. भिस्येद्वा ८।४।३३५ । ५. भ्यसो हुँ ८।४।३३५। ७. प्रामो हं ८।४।३३६ ।
२. डिरानेच ८।४।३३४ । ४. उसेहेंहू ८।४।३६ । ६. उसः सु-हो-स्सवः ८।४।३३८ ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
तणहं < तृणानाम्-ऋकार का अ होकर तण शब्द बना है, इसमें षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में हैं प्रत्यय जोड़ दिया गया है।
( ३९ ) अपभ्रंश में इकारान्त और उकारान्त शब्दों से पर में आनेवाले आम् प्रत्यय-षष्ठी के बहुवचन में हुं और हँ दोनों आदेश होते हैं । यथा
सउणिहं < शकुनीनाम्-पष्टी विभक्ति के बहुवचन में हैं प्रत्यय होता है। सप्तमी विभक्ति बहुवचन में भी हैं प्रत्यय होता है । यथादुहुँ <द्वयोः
( ३६ ) अपभ्रंश में इकारान्त और उकारान्त शब्दों से पञ्चमी के एकवचन, पञ्चमी बहुवचन और सप्तमी के एकवचन में क्रमश: हे, हुं और हि आदेश होते हैं। यथा
गिरिहे< गिरेः गिरि + उ = गिरि + हे = गिरिहे। तरहे<तरोः - तरु + उ = तरु + हे = तरुहे।। तरहुं < तरुभ्यः -तरु + भ्यस् = तरु + हुं = तरुहुँ। कलिहिद कलौ-कलि + ङि = कलि + हि = कलिहि ।
( ३७ ) अपभ्रंश में इकारान्त और उकारान्त शब्दों से तृतीया विभक्ति के एकवचन में एं, ण और अनुस्वार आदेश होते हैं । यथा
अग्गिएं अग्निना-अग्गि + ए = अग्गिएं। अग्गिणं अग्निना-अग्गि + णं = अग्गिणं । अग्गि< अग्निना-अग्गि + म् = अग्गि। ( ३८ ) अपभ्रंश में सु, अम् , जस् और शस् विभक्तियों का लोप हो जाता है ।
यथा
एइ ति घोडा< एते ते घोटका:-जस का लोप । वालइ वग्गरवालयति वल्गाम्-अम् का लोप । अपभ्रंश में षष्ठी विभक्ति का प्रायः लुक् हो जाता है । यथागय कुम्भई दारन्तु < गजानां कुम्भान् दारयन्तम् ।
( ३९ ) अपभ्रंश में यदि किसी शब्द के सम्बोधन में जस् विभक्ति आयी हो तो उसके स्थान में हो आदेश होता है । यथा
तरुणहो, तरुणिहोर हे तरुणाः, हे तरुण्यः -जस् के स्थान में हो आदेश
हुआ है।
१. हुं चेदुद्भ्याम् ८।४।३४०। ...२. उसिभ्यस्-डीनां हे-हं-हयः ८।४।३४१ । ३. एं चेदुतः ८।४।३४३ ।
४. स्यम्जसशसां लुक् ८।४।३४४ । ५. षष्ठ्याः ८।४।३४५ । ------- ६. प्रामन्त्र्ये जसो होः ८।४।३४६ ।
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण अपभ्रंश में भिस् और सुप के स्थान में हिं आदेश होता है'। यथागुणहिं । गुणैः, मग्गेहि तिहिं < मार्गेषु त्रिषु ।
(४०) अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान शब्द से पर में आनेवाले जस् और शस के स्थान में उ और ओ आदेश होते हैं । यथा
अंगुलिउ< अङ्गाल्या-यहाँ जस के स्थान में उ हुआ है।
सव्वंगाउ सर्वाङ्गी-यहां शस के स्थान में उ हुआ है। विलासिणीओदविलासिनी:-शस् के स्थान पर ओ हुआ है।
(११) अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान शब्द से पर में आनेवाले उस ( षष्ठी एकवचन) और ङसि ( पञ्चमी एकवचन ) के स्थान में हे आदेश होता है । यथा
मझो मध्याया:-पञ्चमी के एकवचन में हे प्रत्यय आदेश हुआ है। तहे< तस्या:--षष्ठी के एकवचन में हे प्रत्यय आदेश हुआ है । धणहे धन्यायाः-५ञ्चनी के एकवचन में हे आदेश । बालहे बालायाः-,
( ४२ ) अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग में भ्यस ( पञ्चमी बहुवचन ) में और आम् ( षष्ठी बहुवचन ) के स्थान में हु आदेश होता है । यथा
वयंसिअहु ८ वयस्याभ्यः; अथवा वास्यानाम्-हु प्रत्यय हुआ है ।
अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग में सप्तमी एकवचन में हि आदेश होता है । यथामहि हि < मह्याम् ।
( ४३ ) अपभ्रंश में नपुंसकलिंग में प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन में ई आदेश होता है । यथा
कमलई < कमलानि ।
( ४४ ) अपभ्रंश में नपुंसक लिङ्ग में वर्तमान कान्त—जिसके अन्त में अ सहित क हो, शब्दों से पर में आनेवाले प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के एकवचन में उ आदेश होता है । यथा
तुच्छउं< तुच्छकम् भग्गउं< भग्नकम् ।
( ४५ ) अपभ्रंश में अकारान्त सर्वादि शब्दों को पञ्चमी के एकवचन में हां आदेश होता है । यथा
१ भिस्सुपोहिं ८१४।३४७ । ३ उस-डस्योहे ८।४।४५०। ५ ङहि ८।४।३५२ । ७ कान्तस्यात उं स्यमोः ८।४।३५४ ।
२ स्त्रियां जस-शसोरुदोत् ८।४।३४८ । ४ भ्यसामोहुंः ८।४।३५१ । ६ क्लीबे जस्-शसोरि ८।४।३५३ । ८ सर्वादेङसेहीं ८।४।३५५ ।
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
जहां होन्तउ आगदो, तहां होन्तउ आगदोर यस्मात् भवान् आगतः, तस्मात् भवान् आगतः।
कहां< कस्मात् ।
( ४६ ) अपभ्रंश में अकारान्त क ( किम् ) शब्द से पञ्चमी के एकवचन में इहे आदेश होता है और क के अकार का लोप होता है'। यथा
किहे < कस्मात ; कहाँ कस्मात् ।
( ४७ ) अपभ्रंश में अकारान्त सर्वादि शब्दों से सहमी के एकवचन में डि के स्थान में हिं आदेश होता है । यथा
जहिं < यस्मिन् , तर्हि ८ तस्मिन् , एक्कहिं ( एकस्मिन् ।
( ४८ ) अपभ्रंशमें य, त, क ( यद् , तद् , किम् ) शब्दों को षष्ठी के एकवचन में आसु आदेश होता है । यथा
जासु यस्य, तासुतस्य, कासुर कस्य ।
(४६) अपभ्रंश में स्त्रीलिङ्ग में या, ता, का ( यद् , तद्, किम् ) से षष्ठी के एकवचन में अहे आदेश और आ का लोप भी होता है । यथा
जहे केरउ यस्याः कृते; तहे केरउ तस्याः कृते; कहे करउ< कस्याः कृते।
(५०) अपभ्रंश में प्रथमा और द्वितीया के एकवचन में यद् और तद के स्थान में क्रमश: धं और त्रं विकल्प से आदेश होते हैं । यथा
प्रगणि चिट्ठदि नाहु | नं रणि करदि न भ्रंति-प्राङ्गणे तिष्ठति नाथः यद् यद् रणे करोति न भ्रान्तिम् ।
(५१) अपभ्रंश में नपुंसकलिङ्ग में इदं शब्द के स्थान में प्रथमा और द्वितीया के एकवचन में इमु आदेश होता है । यथा
इमु कुलु तुह तणउँ; इमु कुलु देक्खु < इदं कुलं ।
( ५२ ) अपभ्रंश में प्रथमा और द्वितीया के एकवचन में एतदू शब्द के स्त्रीलिङ्ग में एह, पुंल्लिङ्ग में एहो और नपुंसकलिङ्ग में एहु रूप होते हैं । यथा
एह कुमारी< एषा कुमारी, एहो नरु< एष नरः; एहु माणोरह-ठाणु< एतन्मनोरथस्थानम् ।
१ किमो डिहे वा ८।४।३५६ । ३ यत्तत्किभ्यो ङसो डासुनं वा ८।४।३५८ । । ५ यत्तदः स्यमोध त्रं ८।४।३६० । ७ एतदः स्त्री-पुं-क्लीबे एह एहो एहु ।४।३६२ ।
२ हि ८।४।३५७ । ४ स्त्रियां डहे ८।४।३५६ । ६ इदम इमुः क्लीबे ८।४।३६१ ।
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४६६
. अभिनव प्राकृत-व्याकरण ( ६३ ) अपभ्रंश में प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन में अदस् शब्द के स्थान में ओइ आदेश होता है । यथा
ओइ < अमूनि ।
(५४ ) अपभ्रंश में प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन में एतद् शब्द के स्थान पर एइ आदेश होता है । यथा
एइ पेच्छ । एतान् प्रेक्षस्व । .. (५९) अपभ्रंश में इदम् शब्द के स्थान पर आय आदेश होता है । यथाआयइइमानि; आयेण< एतेन; आपहो< अस्य । अपभ्रंश में सर्व शब्द के स्थान में विकल्प से साह आदेश होता है । यथासाहु वि लोउ. सव्वु वि लोउ सर्वोऽपि लोकः ।
( ५६ ) अपभ्रंश में किम् शब्द के स्थान में विकल्प से काई और कवण आदेश होते हैं। यथा
काई न दूरे देक्खइ < किं न दूरे पश्यति । ताहँ पराई कवण घृण<< तयोः परकीया का घृणा । किं गजहि खल मेह < कि गर्जसि खल मेघः । पुल्लिङ्ग अकारान्त शब्दों में जोड़े जानेवाले विभक्ति-प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प० उ, ओ,. वी० उ,०
ए, एं ण सु, स्सु, हो, .
.
2
M24. Gave gh.
सु, स्सु, हो, .
प०
देव शब्द के रूप एकवचन
बहुवचन देव, देवो, देव
देव, देवा देवु, देव, देवा
देव, देवा देवे, देवे, देवेण
देवहि, देवेहि देव, देवसु, देवस्सु, देवहो देवह
वी० त० च०
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अभिनव प्राकृत व्याकरण पं० देवहे, देवहु छ० देव, देवसु, देवहो, देवस्सु देव, देवहं सं० देवे, देवि
देव, देवा, देवहो वीर शब्द के रूप एकवचन
बहुवचन वीरु, वीरो
वीर, वीरा वीर, वीरा वी० वीरु, वीर, वीरा
वीर, वीरा त० वीरेग, वीरेणं, वीरें
धीरहि, वीराहि, वीरहि च० छ. वीरसु, वीरस्तु, वीरासु,
वीराहो, वीरहो, वीर, वीरा वीराह; वीरह, वीर, वीरा पं० वीराहु, वीरहु, वीराहे, वीरहे वीराहुं, वीरहुं वीरि, वीरे
वीराहि, वीरहि सं० वीरु, वीरो
वीराहो, वीरहो वीर, वीरा
वीर, वीरा पुल्लिङ्ग इकारान्त और उकारान्त शब्दों के विभक्ति-प्रत्यय एकवचन
बहुवचन
एं, ण, म्
Gove Coat
स० हि
हो, . इसि शब्द के रूप एकवचन
बहुवचन प०, वी इसि, इसी ----- इसि, इसी त० इसिण, इसिणं, इसीण, इसीणं इसीहिं, इसीदि
इसिएं, इसीएं, इसिं, इसी
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४६८
अभिनव प्राकृत-व्याकरण च. छ० इसि, इसी
इसिहं, इसीहुं इसिहं, इसीहं ५० इसिहे, इसीहे
इसिहं, इसीहुं स० इसिहि, इसीहि
इसिहि, इसीहि, इसिहं, इसिहो,
इसीहो सं० इसि, इसी
इसि, इसी गिरि शब्द के रूप एकवचन
बहुवचन प०, वी. गिरि, गिरी
गिरि, गिरी त. गिरिएँ, गिरिण, गिरि गिरिहिं, गिरीहिं च०,छ० गिरि, गिरी
गिरीहि, गिरिहं, गिरिहुं, गिरीहुं पं० गिरिहे, गिरोहे
गिरिडं, गिरीहुँ स० गिरिहि, गिरीहि
गिरीह, गिरिहं, गिरिहि सं० गिरि, गिरी
गिरि, गिरी, गिरिहो उकारान्त भाणु शब्द के रूप एकवचन
बहुवचन प० भाणु, भाणू
भाणु, भाणू
" " त० भाणुण, भाणुणं, भाणूण
भाणूणं, भाणुएं, भाणूएं, भाणुहि, भाणूहि
भाणु, भाणूं च०,छ० भाणु, भाणू
भाणुहुं, भाणू हुं, भाणुहं, भाणूह पं० भाणुहे, भाणूहे
भाणुहं, भाणू हुँ स० भाणुदि, भाणूहि भाणुहि, भाणूहि, भाणुहुं, भागृहुँ सं० भाणु, भाणू
भाणुहो, भाणूहो, भाणु, भाणू
स्त्रीलिङ्ग शब्द स्त्रीलिङ्ग में प्रायः दीर्घ ईकारान्त शब्द हस्व हो जाते हैं। अकारान्त शब्द उकारान्त हो जाते हैं और देव शब्द के समान उनके रूप बनते हैं।
स्त्रीलिङ्ग के विभक्तिचिह्न एकवचन
बहुवचन
वी.
०, उ, ओ
वी० त०
० ए
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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४६९
hon northe
०, हो
च०,छ० हे पं० हे स० हि सं० ०
माला शब्द के रूप एकवचन
बहुवचन प०,वी० माला, माल
मालाउ, मालाओ, माल, माला त० मालाए, मालए
मालाहिं, मालहिं च०,छ० मालाहे, मालहे, माला, माल मालाडं, मालहुं पं० मालाहे, मालत्तो, मालादो, - मालाहु, मालहु, मालतो, मालादो, मालादु, मालाहितो
मालादु, मालाहितो, मालासुन्तो स० मालाहि, मालहि
मालाहि, मालहिं सं० माला, माल
मालाहो, मालहो
मइ शब्द एकवचन
बहुवचन प०, वी० मइ, मई
मइउ, मईउ, मइओ, मईओ, मइ, गई त० मइए, मईए
मइहिं, मई हिं च०,छ० मइहे, मई हे, मइ, मई मइहु, मईहु, मइ, मई पं० मइहे, मईहे
मइहु, मईहु स० मइहि, मईहि
माहि, मई हिं सं० मइ, मई .
मइ, मई पइट्ठी< प्रविष्टा एकवचन
बहुवचन ५०, बी० पइट्टी, पइटि
पइटिउ, पइट्ठोउ, पइटिओ, पट्टीओ, पइट्टीओ, पइटी, पहि
पइट्टी, पइटि त० पइट्टिए, पइट्ठीए
पट्ठिहिं, पइट्टीहिं च० छ० पइट्ठिहे, पइट्ठीहे,
पहटिहु, पइट्ठीहु, पइट्ठी, पइट्टि
पइट्ठी, पहडि पइट्टिहे, पइट्ठीहे
पइद्विहु, पइट्ठीहु पइट्ठिहि, पइट्ठीहि, -पइष्टिदि, पइट्ठीहि सं० पइडि, पइट्टी
पाठिहो, पइंटीहो पइट्ठी, पइडि
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४७०
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
घेणुधेनु एकवचन
बहुवचन घेणु, घेणू
घेणुउ, घेणूउ
घेणुओ, धेणूओ बी० घेणु, घेणू
घेणुउ, घेणूउ, घेणुओ, घेणूओ,
घेणु, घेणू त० घेणुए, घेणूए
घेणुहि, धेहि च० छ० घेणुहे, घेणू हे
घेणुहु, घेणू हु प० घेणुहे, घेणू हे
घेणुहु, घेणू हु स० घेणुहि, घेणूहि
घेणुहि, घेणूहि सं० धेणु, धेणू
घेणुहो, धे]हो
वहूदवधू एकवचन
बहुवचन प०, बी० वहु, बहू
वहूउ, वहुउ, वहुओ, वह को त० वहुए, वहूए
वहुहि, वहूहि च० छ० बहुहे, बहू हे
वहुहु, वहूहु प० वहुहे, वहूहे
वहुहु, वहूहु स. वहुहि, वहूनि
वहूर्हि, वहू हिं सं. वहु, वहू
वहुहो, वहूहो नपुंसकलिङ्ग के विभक्ति चिह्न एकवचन
बहुवचन प० ०
बी०
शेष विभक्तिचिह्न पुँल्लिङ्ग के समान होते हैं।
कमल शब्द एकवचन
बहुवचन प० कमलु, कमला, कमल कमलाई', कमलइ
कमलु, कमला, कमल कमलाई, कमल शेष रूप पुंल्लिङ्ग के समान होते हैं।
हलन्त शब्द अपभ्रंश में नहीं होते। अत: उनके स्थान पर अजन्त हो जाते हैं। अन्तिम हल होने से प्रायः हलन्त शब्द अकारान्त होते हैं।
वी०
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________________
प०
बी०
अभिनव प्राकृत व्याकरण
सर्वनाम (Pronoun)
सव्व< सर्व – सब ( अन्य पुरुष या प्रथम पुरुष )
त
"
च०, छ० सब्वसु, सव्वस्सु, सव्वहो
प०
सव्वहां, सव्वाहां safe
प०
वी
त०
एकवचन
सन्वु, सव्वो, सव्व
सव्वु, सन्न, सव्वा
सवें
वे
चं
प०
स०
स०
सच्च के स्थान पर अपभ्रंश में साह आदेश होता है । अतः साह शब्द के रूप भी अकारान्त पुंल्लिङ्ग शब्दों के समान बनते हैं ।
तुम द युष्मद्
एकवचन
तुहुँ
इ', इ
पई,
तइ
छ० तउ, तुज्झ, तुध ( तुहु)
तर, तुझ, तुध
पई,
तइ
एकवचन
हरं
मह
प०
बी०
त०
च०, छ० महु, मज्झु
प०
महु, मज्झु
स०
मह
एकवचन
हो
बहुवचन
सव्वे, सव्व, सव्वा
सव्व, सञ्चा
स
सव्वहं सव्व, सव्वा
सवहुँ, सव्वाहुं
स
बहुवचन
तुम्हे, तुम्हह
प०
वी०
,,
शेष रूप सव्व के समान होते हैं ।
एह एतद्
तुम्हे, तुम्ह
तुम्हे ह
अहं अस्मद्
तुम्ह
तुम्हीं
तुम्हासु
बहुवचन
अम्हे, अम्ह
अम्हे, अम्
अि
अम्हहं
अहं
अम्हासु
बहुवचन
- एहू
४७१
""
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________________
४७२
त.
त,
तहु
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
जो यत्-सम्बन्धी सर्वनाम एकवचन .
बहुवचन प० जु, जो वी० जं त० जेण, जिं, जें च० छ० जासु, जसु, जस्स, जहो, जहे जाहं, जाह पं० जउ, जहे स० जहि, जम्मि
जहिं सोतद्-वह-निर्देशवाचक सर्वनाम एकवचन
बहुवचन सो, सु, स वो तं
तेण, तई', तें, ति तेहि, ताहँ, तेहि च०, छ० तासु, तहो, तहि, त्सु पं० तहे, तउ स० तहि, तहि
तहिं . क<किम्-क्या, कौन-प्रश्नवाचक सर्वनाम एकवचन
बहुवचन प०,वी० को, कु त० केण, कई च०,छ० कहो, कहु, कस्स, कासु पं० कउ, किहे, कहां स० कहि, कहि कवण के रूप सब के समान होते हैं।
आय< इदम्-यह एकवचन
बहुवचन प० आयु, आयो, आय, आया आये, आय, आया बी० आयु, आय, आया
आय, आया त० आयेण, आयेणं, आयें आयेहि, आयहिं, आयाहिं
शेष शब्दरूप सव्व के समान बनते हैं।
स्त्रीलिङ्ग में सव्वा शब्द के रूप माला के समान होते हैं। एतद शब्द के स्थान पर स्त्रीलिङ्ग में एह आदेश होता है। अत: प्रथमा और द्वितीया के एकवचन में एह और इन विभक्तियों के बहुवचन में एहउ, एहाऊ रूप बनते हैं।
केहि
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४७३
प०
ति
जाहि
जाहि
स्त्रीलिङ्ग जादयत्-जो एकवचन
बहुवचन
जाउ बी०
जाउ त० जाई, जाएं, जिए च०,छ० जाहि पं० जाहे स० जाहि
আছি
सा<तद्-वह एकवचन
बहुवचन प० सा, स
ताउ, ति बी०
ताउ त० तई, तिए, ताए, तए तेहि च०, छ० तिहि, ताहि, तहे
ताहि पं० ताह, तहे
ताहिं स० ताहि, ताहि .
ताहिं कारकिम्-कौन, क्या ? एकवचन
बहुवचन प०, वी० का, क
कायउ, काउ त० काइ', काए
केहि, काहि च०, छ० काहिं, काहि
काहि पं० काहे
काहिं स० काहि
काहिं नपुंसकलिङ्ग-सव्व एकवचन
बहुवचन प०, वी० सत्र, सव्वु, सव्वा
सव्वाई', सव्वई शेष रूप पुष्टिङ्ग के समान होते हैं।
जयत् एकवचन
बहुवचन प० जं, ध्र ---- जाइ वी० जं, जु
जाई शेष रूप पुल्लिङ्ग के समान होते हैं।
Page #505
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________________
४७४
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
ताई
काइ
सातद् एकवचन
बहुवचन प० तं, तु
ताई वी० तं, शेष रूप 'लिग के समान बनते हैं।
कर किम् एकवचन
बहुवचन प० वी० कि अवशेष रूप पुल्लिङ्ग के समान होते हैं ।
इदम एकवचन
बहुवचन प०, वी० इमु
आयाइ', आयई सर्वनाम शब्दों से निष्पन्न विशेषण
परिणामवाचक जेवडु, वेत्तुल-जितना
केवडु, केत्तुल-कितना तेवडु, तेत्तिल-उतना
एवडु, एतुल-इतना
गुणवाचक जइसो, जेहु-जैसा
तइसो, तेहु-तैसा कइसो, केहु-कैसा
अइसो, एहु-ऐसा
सम्बन्धवाचक एरिस-इस जैसा
तुम्हारिस-तुम्हारे जैसा हम्हारिस-हमारा जैसा
_तुम्हार तुम्हारा
रीतिवाचक जेम, जिम, जिह, जिध-जिस प्रकार केम, किम, किह, किध-किस प्रकार तेम, तिम, तिह, विध-तिस प्रकार
अव्यय
स्थानवाचक अव्यय एत्थु-यहां
जेत्थु, जत्तु-जहां तेत्यु, तत्तु-तहाँ
केत्थु-कहां एत्तहे-तेत्तहे-यहां-वहां
केत्तहे-कहाँ तेत्तहे-तहाँ
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४७५
४७५
समयवाचक अव्यय जामाहि, जाम, जाउं-जब तक तामहि, ताम, ताउ-तब तक तो-तबसे
अन्य अव्यय अन्न, अन्नह < अन्यथा
अन्य प्रकार से। अवसर अवशेन
वश में न होने से। अवसर अवश्यम्
अवश्य ही। अहवह अथवाआहरजाहर, ऐहिरेयाहिरे-- एम्बहि < इदानीम्
इस समय। उट्ठवइस उत्तिष्ठविश
उठने का इच्छुक । इक्कसि < एकशः
एक वार। एत्तहे अन्न
यहां एत्तहेर इत:
यहां से अथवा वाक्यारम्भ के लिए । जि
जिससे । एम्ब< एवं
इस प्रकार, ऐसे या वाक्य जोड़ना। एम्वइ<एवं कहतिहु< कुतः
कहां से।. किह, किधर कथम्
क्यों या किस तरह। किर किल
किल, निश्चय । केत्थुर कुत्र
कहाँ। केहि
तादर्थ्य बतलाने के लिए या किलके । खाई
निरर्थक वाक्य पूर्ति के लिए।
घुग्ध छुडुद यदि जणि, जणु जेत्थु, जत्तु र यत्र जेम, जिम, जेम्ब, जिम्ब< यथा जिह, जिध जाम, जा, जामहि यावत् तणेण :
चेष्टा का अनुकरण करने में। जो। जानना या इव की सूचना के लिए। जहाँ। जैसा।
जब तक। तादर्थ्य की सूचना के लिए।
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________________
४७६
तेम तेम्ब, तिम, तिम्ब< तथा तिह, तिघ
ताउ', ताम, तामहिं तावत्
तेत्थु तत्तु, तेहिं तत्र
・
तो ततः, तदा
दिवेदिवा
ध्रुवुध्रुवम्
नउ, नाइ, नाव, नं नाह नहि
पचलिउ प्रत्युत
पश्चात्
पछइ
पर परम्
अवरोप्परं, अवरुप्परं < परस्परम् पाडिक्क, पाडि एक्कं प्राउ, प्राइव, प्राइम्ब, पग्गिम्ब
प्रत्येकम्
पुणु पुनः
मणाउ <मनाकू
मं मा
रेसि, रेसिं
अभिनव प्राकृत व्याकरण
शीघ्रम्
विणु
विना
समाणुं < समानम्
सव्वेस हे
सर्वत्र
हुहुरु
प्रायः
इसी प्रकार,
तब तक ।
वहाँ
, वैसे
अनन्तर, तब ।
दिवस |
निश्चय
परन्तु ।
आपस में ।
जानने के अर्थ में ।
निषेध अर्थ में, इवार्थ में ।
इसके विपरीत |
पीछे |
एक-एक ।
प्रायः, बहुधा । फिर ।
थोड़ा
बिना |
समान ।
1
निषेधार्थक, मत ।
ताद बतलाने के लिए ।
शीघ्र ।
सब जगह ।
आवाज करना ।
तद्धित
( १७ ) अपभ्रंश में संज्ञा से परे स्वार्थ में अ, अड और उल्ल प्रत्यय होते हैं। और स्वार्थिक कप्रत्यय का लोप होता है । स्त्रीलिङ्ग बनाने के लिए ई प्रत्यय जोड़ा जाता है । यथा
पथिउ. -अ प्रत्यय जोड़ा गया है
१. न डड-डुल्ला: स्वार्थिक-क लुक् च ८।४।४२६ । २. स्त्रियां तदन्ताड्डी : ८।४।४३१ ।
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४७७
४७७
बे दोसडा< द्वौ दोषौ-यहां अड प्रत्यय हुआ है। कुहुल्ली८ कुण्डलिनी-दुल्ल प्रत्यय हुआ है। हिअड-अड + अ प्रत्यय जोड़ा गया है। धुदुल्लउ-दुल्ल + अ " " बलुल्लडा-दुल्ल + अड, गोरड + ई-गोरडी-स्त्रीलिंग बनाने के लिए ई प्रत्यय जोड़ा है। । ६८ ) अपभ्रंश में भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए त्व और तल प्रत्यय के
पण और तणु प्रत्य जोड़े जाते हैं । त्तणु का तण भी हो जाता है। यथाबडप्पणु, बडुत्तणु, बड्डत्तणहो महत्त्वम्-बड़प्पन ।
स्त्रीलिंग बनाने के लिए अपभ्रंश में आ और ई प्रत्यय में से कोई एक प्रत्यय जोड़ा जाता है। यथागोरडी, धूलडिआ।
क्रियारूप ( ५९ ) अपभ्रंश में संस्कृत की व्यज्जनान्त धातु में अ प्रत्यय जोड़ कर रूप बनाये जाते हैं। यथा
कह + अ + इ = कहइ-अ विकरण के रूप में जोड़ा गया है। पढ + अ + ई = पढइ-
, (६० ) उकारान्त धातुओं को उव, ईकारान्त को ए और अकारान्त धातुओं में क स्वर को अर होता है। कुछ धातुओं में उपान्त्य स्वर को दीर्घ भी हो जाता है। यथा
सु-सुवइ-सु = स + उव +इ=सुवइ-सोता है । नी-नेइ-न + ए + इ = नेइ-ले जाता है। क-करह- + अर् + इ = करइ-करता है। है-हरइ-हू + अर + इ = हरइ-हरता है। तुष्--तूसइ-उपान्त्य स्वर उकार को दीर्घ हुआ है। पुष-पूसइ- , ( ६१ ) अपभ्रंश में कुछ धातुओं में एक स्वर का दूसरा स्वर हो जाता है । यथाचिन-चुनइ-चिनइ-चुनता है। इकार को उकार हुआ है।
( ६२ ) अपभ्रंश की कुछ धातुओं में धातु के अन्तिम व्यञ्जन को द्वित्व हो जाता है। यथा
१. स्व-तलोः प्पण: ८।४४४३७ ।
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________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण . फुट-फुटइ-फूटता है। यहां ट को द्वित्व हुआ है। सुद-तुट्टइ-तोड़ता है। -- - लग-लग्गइ-लगता है। ग को द्वित्व हुआ है। कुप्-कुप्पइ-कुपित होता है। प को द्वित्व हुआ है।
(६३ ) अपभ्रंश में प्राकृत के समान संस्कृत के घ के स्थान पर ज्ज होता है। यथा
संपज्जइ ८ संपद्यते-संपादित होता है। खिजइ खिद्यते-खिन्न होता है ।
(६४ ) अपभ्रंश में धातु से वर्तमान काल के प्रथमपुरुष बहुवचन में विकल्प से हिं प्रत्यय जोड़ा जाता है।' यथा
सहर्हि शोभन्ते। करहि < कुरुतः।
(६५) अपभ्रंश में धातु से वर्तमान काल के मध्यम पुरुष एकवचन में विकल्प से हि आदेश होता है। यथा
रुाहिद रोदिषि-हि प्रत्यय जोड़ा गया है। लहहि र लभसे
(६६ ) अपभ्रंश में धातु से वर्तमान के मध्यम पुरुष बहुवचन में विकल्प से हु आदेश होता है। यथा___ इच्छहु < इच्छथ-हु प्रत्यय जोड़ा गया है।
( ६७ ) अपभ्रंश में धातु से वर्तमान काल उत्तमपुरुष एकवचन में विकल्प से उं प्रत्यय जोड़ा जाता है। यथा___ कड़ढउं< कर्षामि-उँ प्रत्यय जोड़ा है। विकल्पानाव में-कड्ढामि ।
(६८) अपभ्रंश में धातु से पर में आनेवाले वर्तमानकाल के उत्तम पुरुष बहुवचन में विकल्प से हुं आदेश होता है । यथा
लहुई < लभाम); जाहुं < यामः, वलाहुं < वलामहे ।।
(६६) अपभ्रंश में हि और स्व के स्थान पर इ, उ और ए ये तीनों आदेश होते हैं। यथा
सुमरि < स्मर; मेलिल < मुच्च; विलम्बुद विलम्बस्व; करे कुरु ।
(७० ) अपभ्रंश में भविष्यकाल में स्य के स्थान में स विकल्प से आदेश होता है। यथा
होसइ, पक्ष में होहिइ < भविष्यति ।
१. त्यादेराद्यवयस्य सम्बन्धिनो हिं न वा ८।४।३८२
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________________
धातु
AE
व्रज
वुन
दृश
प्रह
तक्ष तापि
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
अपभ्रंश का धात्वादेश आदेश . उदाहरण
अहरि पहुच्चइ नाहुद अधरे प्रभवति नाथः ।
ब्रुवह सुहासिउ किंपिब्रूत सुभाषितम् किञ्चित् । ब्रोप्प ब्रेप्पिणुर उक्त्वा।
वुअइ, वुप्पि, वुप्पिणु । प्रस्स प्रस्सदि। एण्ड पढ गृहेप्पिणु तु < पठ गृहीत्वा व्रत । छोल्ल ससि छोलिलजन्तु शशो अतिक्षिष्यत ।
सासानलजाल झलक्किअउ<श्वासाललज्वालासन्तापितम् ।
हिअइ खुडुका हृदयं शल्यायते। घुटुक्क
घुडुक्कइ मेहु <गर्जति मेघः । वंचइ
जाता है।
भग्न करता है। धुटु अइ गर्थ शब्द करता है। क्रियाओं में जुड़ने वाले प्रत्यय एकवचन
बहुवचन इ, ए हि
झल्लक
शल्याय
बंच भज्ज
भजह
थुछ
प्र० पु० म० पु०
उ०पु० उं
हुँ
4.
आज्ञार्थ एवं विध्यर्थक प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प्र० पु० उ म. पु० इ, उ, ए उ० पु० उ
भविष्यकाल के प्रत्यय एकवचन
बहुवचन प्र० पु० इ म० पु० हि, सि उ० पु० मि, मो
Chhoy they
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________________
४८०
प्र० पु०
म० पु० उ० पु०
प्र० पु०
म० पु०
उ० पु०
एकवचन
करइ, करेइ
करहि, करसि
करिमि, कर
अभिनव प्राकृत व्याकरण
कर धातु के रूप वर्तमानकाल
एकवचन
करिज्जउ
करिज्जहि, करिज्जइ
करिज्जउ
आज्ञार्थ एवं विध्यर्थक
एकवचन
प्र० पु० करेसइ, करेहइ
म० पु०
करेसहि, करेससि करिहिसि उ० पु० करेसमि, करीहिमि, करि
इज -- गणिज्जह, कहिज्जइ, वणिजइ ।
इन फिट्टियइ, वणियइ ।
भविष्यत्काल
,,
बहुवचन करहिं, करन्ति
करहु, करह करहुँ, करिमु
भूतकाल के लिए भूतकृदन्त का ही प्रयोग होता है । यथा-
गयं गतम्, किर्यं कृतम्, पठ्ठे प्रतिष्ठितम् ।
कर्मणि प्रयोग के लिए इज या इय प्रत्यय जोड़कर रूप बनाये जाते हैं । ।
""
"
बहुवचन
करियां, करिज्ज
कृदन्त
( ७२ ) वर्तमान कृदन्त अंत और माण प्रत्यय जोड़कर बनाया जाता है । अंत प्रत्यय परस्मैपद में और माण प्रत्यय आत्मनेपद में जुड़ता है । यथा
अंत - डज्झ + अंत = डज्मंत - परस्मैपद में |
सिंच + अंत = सिंचंत -
ܕܐ
करिज्जहु
किज्जउं
""
कर + अंत = करंत--- पइस + अंत = पइसंतवज्ज + अंत =
वर्जत
उग्गम + अंत = उग्गमंत -,,
माण- पविस्स + माण = पविस्समाण - आत्मने पद में ।
वट्ट + माण = वट्टमाण भण + माण = भणमाण
33
हुच्च + माण = हुच्चमाण --,,
बहुवचन करे सहि, करेद्दिति करेसहु, करेसहो
करेस
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________________
अभिनव प्राकृत - व्याकरण
भूतकृदन्त
( ७२ ) भूतकालिक कृदन्त बनाने के लिए अ, इअ, और इय प्रत्यय जोड़े जाते हैं। यथा
अ - हु + हुआ, मुक्क + अ = मुक्क, ग + अ = गअ ।
इअ - गाल + इअ = गालिअ, भक्ख + इअ = भक्खिअ ।
इय - कह + इ = कहिय, छड्ड + इय = छड्डिय, उप्पड + इ = उप्पाडिय 1
सम्बन्धक कृदन्त
(७३) पूर्वकालिक क्रिया या सम्बन्धक कृदन्त के लिए संस्कृत में क्त्वा और ल्यप् प्रत्यय होते हैं । अपभ्रंश में पूर्वकालिक क्रिया के लिए निम्न आठ प्रत्यय जोड़े जाते हैं ।
इ-लद्द + इ = लहि इउ - कर + इ = करिउ इवि - कर + इवि = करिवि अवि - कर + अवि = करवि
लब्ध्वा ।
कृत्वा ।
कृत्वा ।
कृत्वा ।
=
एप्पिकर + एप्पि = करेप्पिद कृत्वा । एप्पिणु-कर + एप्पिणु: एविणु - कर + एविणु = करेविणु एवि - - कर + एवि :
करेवि < कृत्वा ।
=
करेष्पिणु < कृत्वा । कृत्वा ।
हेत्वर्थ कृदन्त
( ७४ ) क्रियार्थक क्रिया या हेत्वर्थ कृदन्त के लिए अपभ्रंश में निम्न आठ प्रत्यय जोड़ने से रूप बनाये जाते हैं । संस्कृत में यह कार्य तुमुन् प्रत्यय से और हिन्दी में 'ना' 1 प्रत्यय लगाकर चलाया जाता है । यथा
एवं - चय् + एवं = चएवं त्यक्तुम् — छोड़ना । दा + एवं + देवं < दातुम् —देना
अण - भुंज् + अण = भंजण भोक्तुम् — भोगना ।
ु
कर + अण = करण < कर्तुम् —करना ।
४८ १
अहं - सेव + अहं सेवणहं द सेवितुम् — सेवना । भुंज + अहं = भुंजणहं एप्पि - कर + एप्पि करेप्पि
भोक्तुम् - भोगना । कर्त्तम् - करना । जि + एप्पि = जेप्पिन् जेतुम् - जीतना ।
एप्पिणु-कर + एप्पिणु = करेष्पिणु चयू + एप्पिणु = चएप्पिणु
३१
कर्तुम् - करना । त्यक्तुम् — छोड़ना ।
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________________
४८२
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
एवि-कर + एवि = करेवि, कर्तुम्-करना ।
पाल् + एवि = पालेवि< पालयितुम्-पालना। एविणु-कर + एविशु = करेविणुः कर्तुम्-करना । ला + एविणु = लेविणु < लातुम्-लाना।
विध्यर्थ कृदन्त ( ७५ ) अपभ्रंश में 'चाहिए' या किसी विधिविशेष के लिए इएव्वलं, एव्वउं एवं एवा प्रत्यय जोड़े जाते हैं। संस्कृत में जिस अर्थ में तव्य प्रत्यय जोड़ा जाता है या हिन्दी में 'चाहिए' जोड़ते हैं, उसी अर्थ में उक्त प्रत्यय लगाये जाते हैं । यथाइएव्वउं-कर + इएव्यउं = किरएव्वउं< कर्तव्यम् ।
मर + इएव्वउं = मरिएव्वउं< मर्तव्यम् ।
सह + इएच = सहिएव्वउं< सोढव्यम् । एव्वउं-कर + एव्वळ = करेव्वउं< कर्तव्यम् ।
मर + एव्वउं = मरेव्वउं< मर्तव्यम् ।
सह + एव्वउं - सहेव्वउं< सोढव्यम् । एवा-कर + एवा = करेवार कर्तव्यम् ।
मर + एवा = मरेवा< मर्तव्यम् । सह + एवा = सहेवा< सोढव्यम् । सो + एवा = सोएवार स्वप्तव्यम् । जग्ग+ एवा = जग्गेवार जागरितव्यम् ।
शीलार्थक (७६ ) संस्कत में शीलधर्म को बतलाने के लिए तृ प्रत्यय लगाया जाता है ; या अपभ्रंश में शील, स्वभाव और साध्वर्थ में अणअ प्रत्यय जोड़ा जाता है। अणअ-हस + अणअ = हसणअ-- हसणउ-हसनशील ।
भस + अणअ = भसणअ-भसणउ-भौंकनेवाला । कर + अणअ = करणअ-करणउ-करनेवाला। मार + अणअ = मारणअ-मारणउ-करनेवाला । वज = अणअ = वजणअ-वजणउ-वादनशील ।
क्रियाविशेषण वहिल्लउ-शीघ्र, निञ्चटु---प्रगाढ, कोड्ड-कौतिक, ढक्करि-अभुत, दड़वड़शीघ्र एवं जुअंजुअ...- अलग-अलग आदि है।
विद्यालु-नीच संसर्ग, अप्पणु-आत्मीय, सडढलु-असाधारण, रवण्ण-सुन्दर, नालिअ, वढ-मूर्ख और नवख-नया-विचित्र आदि विशेषण भी अपनंश में उपलब्ध हैं।
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________________
अअह अ आणि
अ आणण
अइमुत्तर्यं
अइतयं
अइरेगअवास
अइस रिअ
अको
अक्खइ
अङ्को
अगरु
अगरु
अग्गओ
अग्गिणी
अग्घइ
घ
अङ्गारो
अच्छअर
अच्छरसा
1
अच्छरि
अच्छेरिजं
अछरीअं
५०
५६
५३, ६९
१६
२९
१३७
२५, १३८
अकछरा २४, २५,
७७, १२७
८६, १३७
१३७
१३७
१६५
७२
अि
अच्छी
अ
८
८
१८
१८
८
४८, १०६
५३, ६८
५६
२७
५२
९४
१५
२१
४१
परिशिष्ट १ उदाहृतशब्दानुक्रमणिका
अच्छेरं ३०, ७७, १२७
अज्जा
३३, ६९, १३३
३३, ८९
६३
७८
१६
१३६
१२३
१३६
६९
१८
१८, ११४
११९
७५. १३०
९
१०५
१२३
१३०
३१
२३
२२
अजू
अजोग्गो
अकाओ
अञ्जि
अट्ठ
अडो
अं
अण्णा
अणि यं
अणिउँ तयं
अणिॐतयं
अणि
अणोय
अर्ण
अत्तमाणो
अस्थि
अन्तरगर्य
अन्तरपा
अन्त पाओ
अन्तरिदा
अन्तरं
अन्तावेई
अन्तै
अन्तेरेर
अन्तरि
असंभ
२३
१६
११
३१
३१
२४
१५
अन्तो- वीसम्भ
निवेसिआणं
अहो
अहं
अघणो
अधीरो
अनुमई
अन्नन्नं
अन्नारिच्छो
अन्नारिसो
अन्नं
अप्प उदय
अपनो
अप्पण्णू
अप्पा
अप्पाणो
अपि
३१
६८
३४
५६
अथ
अम्देव
५६.
२१४
१०७
१०३
४७,१०३
१०७
१०
६९, १६३
६९, १३३
१३७
१३७
३१
३१
५३, १०९
१०४
१०३
७२
अ
अमुँगो अच्छ
अमूरिलो
अम्हरं
अम्हक्रं
७२
अम्हारिच्छो ४७, १०४ अम्हारिस ४७, ८०,
१०४, १३१
२०
२०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४८४
अरिहइ
१३४
१३४
अरिहो अलचपुरं अलसी
१३८ ११४
अलाऊ
६०
६०
परिशिष्ट अहिआई २८ आयरिय उवज्झाय १० अहिअं . - ५९ आरक्खाधिकते अहिग्गहो २२ आरम्भो अहिजो ३०, ६९ आसारो अहिण्णू ३०, ६९ आसो अहिमन्नू ६२ आहडं अहिमुको १८ आहरणं अहिमुंको
आहिआई, अहिमाई २८ अहिवन्नू ६२, ११२ आवजं १०७, ११४ अहो अच्छरिअं १२ आवत्तओ आअदो
आवत्तणं आओ ६६, १२३ आवसहो आइदी ५९ ओ
१३८ आइरिओ ३३, ८९ ओआसो आउनं १०७, ११४ ओझरो आउण्टणं ५३, १११ . - ओप्पि आउदी
ओप्पेइ आउसं
ओमल्लं आगओ
ओमालं आगमण्णू ३०, ८६ ओली आगारिसो ६३, १०९ ओल्लं ३४, ९० आगारो ६३, ११० ओसधं आचरिओ ८७ ओसरह आढत्तो १३८ ओसिअन्तो आढिओ १०३ ओसितं आणा १२९, १३३ ।। ओहणं आणालक्खम्भो ७० ओहसि आणालखम्भो ७० ओहिर्ड आणालो १३८ ओइयं आणि ३८, ९२ अंको आफंसो,अफसो २८,८३ अंकोलतेल्लं ११२ आमेलो ३९, १४, ११७ अंकोलो आयरिओ ३३, १३५ अंगअंगम्मि
६०
६
अलाबू अलिअं ३८, ९३ अलिहिदा
६५ अल्लं अव
१३८ अवआसो अवक्खन्दो ७४, १२५ अवगअं ५० अवजसो अवज्जं ७७, १२८ अवद्दालं ६५, १२० अवयवो अवरण्हो ८०, १३३ अवरि अवसदो अवसर अवहडं ५९, ११३ अवहयं अवह १३८ असहजो, असंहजो ९० असारो, आसारो ३४,८९ असुगो अस्सं अहरुटुं अहव ३२, अहवा अहाजा अहावरा
७
६
६०
११३
११२
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________________
अंगणं
अंग मंगम्मि
अंजिअं
अंतरं
अंतेमारी
अंतेउरं
अंब
अंबिलं
अंसु
इअ
९०
इअ' 'चचनम् ३६ इअ जं पिअावसाणे ३६
३६
इअ "कुसुमसरो इआ जंपि अवसाणे २०
आणि
आणि
इक्खू
इङ्गालो
ट्ठी
इड्ढो
इडी
१६
१८
१६
१६
८६
८६
३४, १३७
१३४
१०७
इन्धं
इसि
९८
५३
२८, ८४, १३२
१००
१००
इसी ४३, ४७,९८, १०५
इद्द
१७
७
इसिगुतो
इसितं
sacate
इामियो
१९
१९
१२४
२२
७५, १३०
४२
१००
इंगारो, अंगारो
८५
इंगालो २९, ६४, १२० इंगिअजो ६९, १३३ इंगअण्णू
६९, १२३
उदाहृतशब्दानुक्रमणिका
इंगियागारो
अं, अंगुअं
ईसरो
ईसो
१३६
६९
१३
१०
उद्दं
५१
उऊ ६०, १०१, १०५
उक्कतिओ
७७
२१, ६८
४४,९८
३०, ८६
१६, २१
३२
૮૮
हामिगऊसम
उक्का
उक्कि
उक्करो
उक्कंठा
उक्खअं
उक्खयं
उक्खाअं
उग्गइ
उच्चअं
३२
२२
१०५
४१
१२७
उच्छा
७३, १२५
उच्छाद्दो ४१, ७७, १२७
६३
१२७
उच्छू ७२, ११, १२२
उजू
४५
उच्छणो
उच्छवो
७
उच्छु
उच्छुओ
९१
५५, ११६
ठणाई
उत्तमिढि
उज्जू ४६, ७१, १०५
उद्दो
७५
उ
उ
२३
७९, १३२
८७
१४
उत्तरि
उत्तरीअं
उत्तमो
उत्थारो
उल्ल
उद्द
उप्पलं
उम्बरं
उम्हा
उल्लाओ
उल्लं
उवमा
२२
२३
८०, १३१
५४
३४, ८९
५४
वाओ
७८
उवणिअं णीअं ३८, ९३
"
वहं
१३८
उवासगो
११०
१८
५४
१२३
९५
१५
उसो ४४-४६, १०१
उत्सवो
२२
उसो
२७
५०
४१
७७
४१
५०
एआरह
११६, १२२ आरिच्छो १०४
आरिसो
४७, १०४
७१
उवरि, उवरिं
उवसग्गो
४४,४७,५९
उंबरो
उव्वीढं
उसभमजिअं
४८५
६३, ११९
६३
२९, ८४
१२३
१०
एओ
आसो
ऊसओ, उसवो
ऊसारिओ
ऊसितो
ऊहसि
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५६
परिशिष्ट
..........
एओएत्थ
एक्कमेक्केण
एकमेक्कं
१८
७१,
१३७
१३ .
कयलं
एक्कक्केण एकेक
१८ एक्को एगत्तणं एगिदिय
१४ एगूण १४ एगो ५३, ११७ एत्तिअमेत्तं, एत्तिअमत्त
९० एत्थ ३१, ८६ एमेव
१२३ एरावणो ४७, १०७ एरिच्छो १.४ एरिसो ३९, ९४, १०४
कउक्खेभो ५० कम्पह कडरवो ५०, १०८ कमो कउली
कम्मो १३८ कउलो १०८ कम्हारा ८०, ९२, १३१ कउसलं
कम्हारो ८० कउहा . २५, १३८ कयग्गहो ५१, ५३ कउहं
कयण्णू कउसासा १४ कयणं ककोडो
१७ कयन्धो ६२, ११८ कच्छा ___७३, १२५ कर्य कच्छो ७२, १२५ कर्ज ७८, १२८ कर्य कञ्चुओ
करली 8 ७५, १३० करणिज्ज कडणं ११५ करणी
११३ - कररुहोरंप कर्ण
करिअरोरु कणयं
११७ करिसो, करीसो ३८, ९३ कर्णवीरो १२० कलओं कणेरु १३८ कलमो कणेरु उसि
कलुणी कणेरुसि ८ कलंबी १७, ११६ कण्णुप्पल
कल्हार ४०, १३३ कण्टी १६ कवहिओ कण्ड
१६ कबड्डो कण्णउरं २२ __कवीलों कष्णिआरो १३७ कविणो कण्हो ४४, ७९, १३२ कवोलो कत्तरी
कसणपक्खो कत्था
कसाओ कत्तिो
कसायो १२२ कमढो
कह कमंधो ६२, ११८ कहा
एव
१९
एवमेअं, एवमेदं एवं एवंणेदं १६ एसमो कअग्गहो २२, ६१ कआवराह
c. ...
m
क
. 6 occ
कइअवं ४८,१०६,११९ कफ्फलं २२ कामो २९,८४ कहरवं ४७, १०७ कइलासो ४८, १०७ कइवाह
५२
६
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८७
३
काइ काउँओ
mr
कायरो
[IITTEINITE||ZILITEIT 1
aw
m
9
उदाहबालानुक्रमणिका कदमवि, मि १९ किदी
९८ कुढारो कहावणो किमवि, किंपि २० कुदलं
१३० कहेहि
५५ किमेअं, किमेदं १६ कुदो कह १९, १५ किलम्मइ १३४ कुप्पलं काउआण, काउआणं १८ । किलिहं
कुप्पिसो, कुप्पासो काउण
१८ किलिटुं१३४ कुम्भआरो १९ किलिण्णं ८१ कुमरो ११९ किलिन
१३४ कुमारो कायमणी
५३ किलिस्सइ ८१ कुम्भारो
किलेसाणक ७ कुम्हाणो ८०, १३१ क्रालओ किलेसो
कुसुमुप्पयरो ७० कालायर्स किलेत
कुसो ६६, १२१ कालासं६१, १२३ किवणो ४२ केवो ४८, ६७, १०७ कालेण, कायं १८ किवा ४२, ९८ केणवि, केणावि १९ कालो
किवाणं ४३, ९८ केरवं ४८, १०७ किविणो २९, ९८ केरिच्छो १०७ किवो ४४, ९८ केरिसो ३९, ४७, ९४ किसरा
१८ केलासो ४८, १०७
किसरो ४३ केलं कासं
किसरं १०५ केवट्टो ७६, १२९
किसलं धरहलो ६५,११४,१.२०
६५, १२३ १२३
केसरं केसर
१०५ काहावणो किसलयं
केसुअं, किसुअं ९२ कि, वि
किसा ९८ कोउहलं, कोऊहलं ७१, किसाणू ४२, ९८
९९, ९६ किसिओ १८ कोउहल्लं ७१, १३७ किवा ९८, १२६ किंसुअ, किंसुअं-१९ कोत्थुहो १०९ __९८, १३५
कोंचो ४९, १०९ किति २० कोटिम
४१ निच्छं
कोलइ ५७ कोट्ठागारं १३० किडी
१२० कीला ११२ कोत्थुहो ४९ किणेदं . १६ कुक्खेअओ५० कोन्तलो किण्हो ४४ कुच्छअयं १२५ कोप्परं कित्ती ----१६ कुच्छी ५३, ११९ कोमुई
कासह क्लासमो कासको क्रासा
9
कि
१२, ९८
or
किच्ची
किसो
m
०
४३, ९८
1111151
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८८
१२४
१०९
गरुओ, गुरुओ ४०, ९४ गई ३९, ९४ गहलो
६७ गरिहा १३४ गलोइ ४०, ९६, ९९ गहि गहिरं ३८, ९३ गहीरि# १३५ गहो
३०
कंडुअइ
गाऊ
१२५
कंप
११
परिशिष्ट कोसिओ ४९, १०९ __ खाणू
७२ कोसंबी ४९, १०९ खीणं ७२, १२४ कोहण्डी ९६,
खीरं कोहलं
खीलओ कोंड
खीलो कंकोडो
खुजो
१० कंचुओ १६, १२६
खुड्डगेगावलि १० कंटओ
खुडिओ, खंडिओ ८९ कंठसुत्तउरस्थ
खुडिओ खेडओ १२४, १३५
खोडओ कंडया
१२४ कंडयणं
खंदो
१२९ खंधावरो
.७४ कथा
खंधावारो
खंथुक्खेव कंसं १९,८७, ३३
खंधो ७४, १२५ कंसिओ ३३, ८७
खंभो ५६, १३०, १३५ खओ ७२, १२४ गा
२ खइअं
गओ ६१, ६० खइरं, खाइरं
गइंद खग्गउसम
१०८ खग्गो
गउआ ३०, ८५, १०८ खट्टा
गउओ ३०, ८५, १०८ खड्गो
गउरवं १०८ खणो
गउडो ६०, १०८ खण्डिओ
गऊ खण्णू
गजइ घणो . ६६ खप्पर
गजन्ते खे मेहा १६
गड्डो खलिओ
गन्ध खल्लीडो
गन्धो खसिओ १११ गम्भिणो ११४ खाइ
३२ गमणूसुअ १४
गारवम् गाढ-जोवणा गामणीइहासो गामणीसरो गामेणी गाहा गिठी गिट्टी ४३, ९८ गिड्ढी ४३ गिद्धी गिम्हो ८०, गिरा गिरिलुलिओअहि गिरि गिलाइ १३४ गिलाणं
९८
गउ
१
५७
७
३०
७
१००
गुज्झं
१२८
खमा
७३
१३६
गुडोदन गुत्तो
१२
गुरुओ
oc
गुरुल्लावा गुरुवी
८१
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदाहृतशब्दानुक्रमणिका
४८६
चंदो, चंद्रो
१७,६८
१२२ २२, १२२
१३६ १३६
१
.
955
५७
०
छट्टो छड्डी छडो छणो छत्तपण्णो छत्तिपण्णो छप्पहो छमा
७३,
.
२९, १२२
१२६
२९
१२२
१०५
___७३, १२४
छमी
११२
छयं
चाई
१२६
११९
घडो
६७
HALF44 g... 4 3 4 5. 4. 2 ११ मा
गुंफह
चच्चरं
१२६ गूढ उअरं, गूढोअरं ९ चडू, चाडू गेझ
९०
चन्दो गेडुअं
चबिला गेदुअं८६,
चमरं गोही. २२ चम्म गोदमो
४९
चयइ गोरिहरं, गोरीहरं ११ चलणो गोरी
१४९ चवेडा गंभीरि
१३५ चविडा ६७,१०५ गिठी
चविलो गुंछ
१७ चाओ घों ४२,९७
चाउरन्त
चाउँडा ६७, ११२
चिहइ
चिण्हं घाणिदिय
चिलाओ ६४, धिक्को
चिहुरो घिणा
११३ घुसिणं
चेण्हं
__ ३५ घंटा
६७ चुण्णो ३४ चइत्तो ४९, १०७ चेत्तो ४९,१०७ चइत्तं
१०६ चोग्गुणो १३७ चउट्ठो
चोवारो १३८ चउत्थी
चोत्थी चउत्थो १३७ चोत्थो चउसी ३६, १३८ चोहसी ३६, १३८ चउहह . १३७ चोहह चउव्वारो . १३८ चोरिअं--- चक्काओ १३ चोरो ६३ चक्कं ----६८ चंदिमा ११०
घ
१३८
१३८
छिहा
४२, ९८
छमुहो
१२२ ७३, १२४
७३, १२४ छाली १११ छालो
१११ छावो
१२१ छाहा छिरा
१२१
१००, १३६ छी __४०, ७२ छोणं ७२, १२४ छीयं
१२४ छोरं छुच्छे ११३ छुण्णो ____७३, १२४
१२४ छुहा २५, ७३, १२३ रुदं । छेतं छंमुहो जआ जओ
छुरो
७३, १२५
mms
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६०
जइ
जइत्थ
जइमा
जइसं
जहं
जउँणय ड
जउँ
जक्खो
जजो
जट्टो
जडिलो
जढलं
जहू
जमो
जम्मो
३३, ५२
२०
जह, जहा
जहणं
२०
११
११९
१२४
७८, १२८
१२६
१११
६५
१३३
२१
६२, ११९
७९, १३१
ܕܘ
जलअरो, जलचरो जलमइअं, जलमअं
जोह
जलं
२०
४७
५३
८७
११
१५
जवणिज्जं, जवगो
६
जसो २३, ६२, ११९
३२, ८९
५५
३९
जहिहिलो
हुट्टि ३९,६४,९२
जा
१२३
जाइ
६२, ११३
जाणं
४७
जादिसं
४७, ६९
जामाउओ ४५, १०१
४५
जामादुओ जारि
१०४
जारिच्छो
जारिसो
जारो
परिशिष्ट
जाला .... घे पति
जालोलि
जाव
जिआइ,
जिणधम्मो
जिणो
जिन्हू
जिदि
जिब्भा
जीअं
जोहर
जु
जुग्गं
जिभिदिय
जिवड
जीआ
जीओ
१०४
४७, १०४
५३
६७
१०
जं
झओ
जिअउ
जु ुछ इ
जुण्णो
जुण्णं, जिणं
जुत्तमिणं, जुइ
जुम्मं
जेहं
जोओ
१२७
जोइसिंद
१३
जोग्गो
२१
जोहा
७९, १३२
जांबणं ४९, ७१, १०९
१५, २५
१२६
डिलो
भाणं
२३
झुणी
३८
टक्को
५६
गरो
३९ टसरो
१३२
१३
१३१
१४
९३
८२
५२
१२३
९१, १३१
१२७
६७, १३१
७७, १२७
३९
९३
१६
१३१
७
झायइ
झिजइ
झीणं
टूबरो
उड्ढो
ठाई
ठोणं
डड्ढो
डब्भो
डरो
ठविओ ठाविओ ठविअं,
ठाविअं
डसइ
डसणं
१११
७८, १२८
डह
डहह
डाहो
डिंभी
डोला
डोलो
डंडो
डंभो
स
अणं
अरं
णभो
१२८.
७२, १२५
१२५
२९, ८५
५७
११३
११३
११३
१३६
८८.
३२
५७.
३३, ८९
११५
११५
११५
६०
११५
११५
६०
११५
५७
११५
११५
११५
११५
११५
५२
५१
५१
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
आमि
आ
आणीयदि
८
८
८
६१, ११७
उण ण उणाई ३२
उलो
५१
णक्कंचरो
५२
ङ्गलो
६५
७५, १२६
७६
१२१
५६
८
ई
णच्चा
ओ
डालं २९, ६५,
डो
पपंत
णयरं
णराओ
णरो
णवहुत्त
णवेला
सहिअपडिबोह
सहिआलोअ
हं
हुप्पल
५१
३२
६१, ११७
८
णालवइ
णाल्लिअइ
नागअ
नाणं ६९, ८९,
णालंकि दा
जाहलो
णिअत्तं
णिउअं
णिउक्कण्ठ
चिलो णिचोउम
१०
८
८
२३, १५
१४
७
१२९
७
७
७
६५, १२१
९७
४५
२४
२२, ७७
उदाहृतशब्दानुक्रमणिका
णिचं
७५
णिडालं २९, ६५, ८५
णिद्दा
३५
३७
रिओ
निराबाध
निरुत्तरं
णिवडइ
निव्वअं
णिन्वुई
निव्वुदं
निसाअरो
णिसासो
निसिअरो
णिस्सहो
अं
मज्जइ
णुमण्णो
मन्नो
इ
हा
आ
गोमलिआ
जंगलं
हाओ
न्हाऊ
हाणं
हाविओ
तभ
तओ
तइ
तइअं
तइजो
तसं
२३
३७
४४
४५
४४
३३
३७
३३
३७
४५
३७, ९१
३७
९१
११७
३५
५१
३५
१२१
१३२
७९
४६१
२१७
७४
७७, १३५
४२, ९७
७७
२३
२०
६८, ९३
तरू
५३
तलवेंट, तालवेंटं ३२,८८
तलायो
तलायं
७९
११७
३३
६०
३३
३८, ९३
तए
तक्करो
तच्चं
तणं
तत्थं
तम
तमवि
तयाणि
तह, तहा
तहात्त, तहात्ति
तहा
ताओ
ताव
तिअसीसो
तिक्खं
तिगं
तिन्ह
तिणुवी, तणुई
तित्तिरो
तितं
तित्थयरो
तित्थं
११९ तिप्पं
४७
तिम्मं
तातिसं
तादिसं
तारिक
तारिच्छो
तारिसो
५७
११२
३२, ८९
२०
३२
६०
४७
४७
१०४
१०४
४७, १०४
२३
१३
१३५
१३१
१३३
८१
९०
९८
५१
३४, ३९
४३
१३१
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६२
तिरिच्छि
१३२
तीसा १९, ९१,१३८
तुओ
सुहिको
तुम्ह
तुम्हरो
तुम्हार
तुम्हारिच्छो
तुम्हारिलो ४७,६३,१०५
तुरिअं
तू हं
तेणं
तेत्तीसा
तेरह ११६, १२,
तेरहो
तेवीसा
तोणीरं
ܕܕܘ
तेलुक्कं तेलोकं, तेल्लोकं
तेल्लं
क
थवो
७२
१३७
११९
११८
१०५
१०५
८५
३९, ९३, १३७
१८
१३८
१३८
३०
१०७
तोणं, तूर्णं
तोण्ड
तं
तंचेअ, तंच्चेअ
तंव एहिं
तंपि
तंबो
तंबोलं
तंब
तंसं
थंभो
७०
७०, १३७
१३८
९६
९६
४१
१५, २५
७२
१२
२०
७९
९६
३४, १३७
१७
१२९
१२९ १२९
थुई
धुलो
थूणो
थिष्णं
परिशिष्ट
थेरिअं
थेरो
थेव
थोअं
थोक्क
थोणा
थोक्तं
थोरो
थोरं
थो
थीणं ३३, ७२,
थूलभद्दो
धूलो
धुवओ
थेणो
दुआलू
दइअ
दइच्चो
दइणं
दइवअं
दइवज्जो
दइवण्णू
दइ
दो
दइव्वं
दच्चा
दच्छो
दो
७९, १२९
७१
१०५
३३, ७२
१२९
१२१
१२१
८९
१०५
१३५
१३८
१३८
७९, १२९
१३८
९६
७८, १२९
७१
६५, ९६, १२१
१३८
५२
A
१०६
४८, १०६
४८
४८
६९
६६
७२
१३७
७२
१२६
७३, १२५
१३०
१३६
दणुइन्दरु हिरलिप्तो १२
हो
१२३
दणू
दरिओ
दरस
दलिद्दाइ
दलिद्दो
दग्गी, दावग्गी
वो
दुख
दस
दसमुहो
दसरहो
दह
दहबलो
दहमुख
दहमुहो
दहरहो
दहीसरो
दहो
१२३
१०३
१३४
६४, १२०
६४, १२०
दिअरो
दिअहो
दिओ
३२
५३
६६, १२१
१७
६६
६६
१२२
६६, १२२
१२२
६६
६६, १२२
८
दाढा
दारं
दालि
६४, १२०
दाहिणो २८, ८३, १३७
१०५
१३८
१३८
३४
५२
३७
३७
३७
दिट्ठी ७४, ९८, १३०
दिट्ठ
४२, ९८
दिति
२०
दिण्णं २९, ८४, १३६
दिउओ, दुइओ
दिउणो
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
दिप्पह
०
दिरओ
6
दिवहो
दिसा
२५
दिसेभ
४१
२५
२२
६३
धत्थं
ur
9
दीओ दी दीजो दोहाउसो दीहाऊ दीवदिसा उदहीणं १० दोहो
१३७ दुअणो ३७ दुअल्लं
४३, ९९
९९
दुआई
४३
उदाहृतशब्दानुक्रमणिका दुवाई
दोहो, दोहो दुवारिओ ४९,१०८ दंसणं दुरिहो ९१ धट्ठो
१०० ३७ धणुहं २५, १३८ दुसओ
धणू दुस्सहो, दूसहो २३, ९५ धणं दुहओ
धणंजओ दुहमइअं, दुइम ८७ दुहा
धम्मकहावसान दुहाकअं - ३७ धम्मिल, धम्मेलं ३५ दुताकिजा ३७ धम्मो
२१ १३७ धयं
९६ दूदिअलावमाण ७ घिई दूसहो २३, ४१ धिट्ठो दूसासणो २७ धिणा दहओ ४१, ९५ धिप्पड ६०, ११६ ९५, १११ , धीप
११६ देउलं
धोरिअं १३५ देयरो १०५ धीरं ७०, १०६ देरं ३४, ३० थुत्तो देवज्जो देवण्णू १३३ धूआ
१३८ देव-त्थुइ
नहग्गामो देविढि
नइसोत्तं नई
६२, ६१ देवीएएस्थ --१२ नक्खा दोवअणं ३७ नक्खो १३७ दोवयणं ९२ नग्गो
६७ दोहग्गं ४९ न जुत्तंति दोहलो ११५, ११६ नज्झइ दोहा, दुहा - ९२
१२९ दोहाकों
नडो
११२ दोहा किजइ
नत्तिओ ४६, ९९
दूहवो
दुआरं ३४ दुइओ, विइओ ९२ दुइ ३८, ९३ दुउणो
९२ दुक्कडं ५९, ९७, ११३
११३ दुकरं
७४ दुरवगाह २४ दुगुल्लं ११०
१२३
१३३
थुरा
१४
दुग्गावी
१२३
देविंद
७१
९१ २४
दुमत्तो दुरागदं दुरुत्तरं दुरेहो दुल्लहो
.९१
दुवअणं
दुवयणं
९२
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६४
पइक्को
नहा
२३
परिशिष्ट नत्तुओ ४६, १०१। निव्वुअं नमोकारो ३१, ७४, ८६ निव्वुई ------ १०१ पइट्ठा
२६, ५९ नयणं ११७ निव्वुदी
पइट्ठाणं नयरं ५१, ५३
निसढो
११६ पइट्ठि नराओ, नाराओ ८८ निसाअरो १२ पइण्णा नरिंदो १३, ३४
निसिअरो। १२, ८९ पइसमयं नरो
६१ निसित्तो
२७
पइहरं न वेरिवग्गेविअवयासो१२ निसीढो ११५
निसंसो ६६, ९९, १२२ पईवं नहं निस्सहं
पउअं नाइरं
निहसो ११०, १२२ पउट्ठो १०२, १०७ नाभिजाणइ ७ निहुअं १०१ पउत्ती ४४, १०२
१०९ नीचअं १०६ नावा
पउमं
३१ नाहो
नीड ५५, ११५
३९,७१ पउरिसं ४०, ५०, १०८ निअत्तं
नीमी ६५, १२१ पउरो ५०, १०८
४५ निउअं
नीमो . १०१
११८ .. पक्कं निउरं, नुउरं नीलुप्पलं
पक्खीणं निकाओ नीवी
पक्खेवो १२४ निकामं
३ . नीसरइ ९१ पखलो ५६ निक्खं
१२५
नीसहो २७ पगुरणं १३८ निरवसेसं
नीसह, निस्सह २३, ९१ पच्चओ ७५, १२६ निचं
७६ नीसासूसासा १३ निठुरो २२, ६७,१२१
नीसो २७ पच्चूसो ७५, १२६ निठुलो ६५, १२१ नूणं
पच्चूहो
७५ निष्णं ७८,१२९ नेउरं, नूउरं ९६
qs ७७, १२७ निष्फाओ १३० नेडं ३९, ७१, ९४ । पच्छिमं ७७, १२७ निफेसो ७९, १३० ने९ ७१, १३७ पच्छीणं १२५ निम्मल २६ नेहो
२२ पच्छेकम्म,पच्छाकम्म९० नियो ____९९ नोणीअं १३८ पच्छं ७७, १२७ निवत्तओ
नोमालिआ १३८ पजत्तं १२८ निवत्तणं . ७६ पअर्ड
पजन्तं निवृत्तं पअरो, पआरो
६९, १३३ निवो
४३ पआवई ११ पजाओ ७८, १२८
२१, २९
१२४
६५
ट
७३
१२.
पञ्चच्छं
६
७८
पन्जा
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदाहृतशब्दानुक्रमणिका
४६५
पण्हो
१३२
११
१३२
१३०
पयत्तणं
८८
१२
पज्जुण्णो ७८, १२९ पज्झीणं . १२५ पत्थरो ३२,७९, १३० पज्जो
पत्थारो ३२ पट्टणं
पत्थवो, पस्थावो ३२ पढें
१०० पन्थो पठमं
पमुकं, पम्मुकं ७० पठमसमय उवसंत १० पमुहेण पडंसुआ १७, १८, ११३ पम्हलं
३५, ९० पम्हाइ पडाया ५८, ११३ पम्हाई पडिकरइ ५८, ११३ पयट्ट ७६, पडिनिअत्तं ५८, ११३ । पडिप्फद्धी २८,७९,१३१ पययं, पाययं पडिमा ५८, ११३ पयागजलं पडिवआ २४, २८ पयारो पडिवण्णं ५८ पयावई पडिवही ६० - परहुओ ४४, पडिवया २१, ५८,११३ परामुट्ठो ४४, पडिसरो ५८ पडिसारो ५८,११३ परिहा पडिसिद्धि २८, ५८ । परिट्टि पडिहारो ५८ परिठविअंपरिठाविअं३२ पडिहासो ५८, ११३ परुवेह
२१४ पडिसुदं
परोप्परं ३१,८६ परोहो
२८ पढमो
११४ परंमुहो पढुमं
पलिअं ११४ पणट्ठभओ
पलितं ६०, ११६ पण्णरह
पलिलं ११४ पण्णा ६९, ७८, १३३ पलिविअं ३८,९३ । पण्णासा १३६ पलीवेइ-.-- ६०, ११६ पण्णो १३३ पलंबघणो पण्हुओ १३२ - पल्लत्थो १३०
पल्हाओ ८०, १३३. पवट्ठो १०७,११० पवत्तो ७६ पवयणउवघोयग १० पवासू , २८ पवाहो, पवहो पव्वदुम्मूलिदं १४ पसत्थो पसि पसिढिलं पसिद्धी पसिओ पसुतं पहरो पहा पहाडो पहारो पहावलिउरुणो १२ पहुडि ५८,१०१,११३ पहुदि
४४
३५, ९० पहोलि पाअडोरु पाअर्ड पाउओ १०२ पाउअं ३२, ४९ पाउरणं १३८ पाउवणं पाउसो २५, ४४ १०२ पाडिफदी, पडिफदी ८४ पाडिफ्फद्धी २८, ५८ पाडिवआ, पडिवआ २८, पाडिसिद्धी २८,८४
२६
पहो
or
9
पढ
११२
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६६
पाणि, पाणी ३८,९३ पातुकखेव
११
८३
९७
५४
१२३
पारक्क, परक्क
२८, ८३
पारकेरं, परकेरं २८, ८३
११८
पारदी पारेवओ, पारावओ ३४
६.६, १२३
पारो पारोहो, परोहो २८, ८४
पावडणं
१२३
२८
पाय, प
पाययं
पायाल
पारओ
पावयणं
पावासुओ
९२
पावासू, पयासू २८, ९१
पावी ढं
१२२
पावं
५३
२६
पासइ
पासिद्धी, पसिद्धी २८,८४ पासुत्तो पत्तो ८४
पासुतं
२८
पासू
१९
पाहुडँ, ४४, ५८, ११३
पिओत्ति
२०, ३६
पिउओ
४५, १०१
पिउत्ति
२०
पिक्कं पक्कं २१, २९, ६८
पिच्छी ७५, ९९, १२६
३५, १००
११२
३५
४४
पिट्ठ
पिठरो
पिण्डं
पिस्थी
पियगमणं
पिलुट्ट
पिलोसो
परिशिष्ट
पिसल्लो
पिसागो
पिछडो
पीढ़
पीवलं
१११
१११
११२, १२०
पिहं १५, १८, २६, ४६
पीअलं
११४
३९
पुट्
पुढ
पुदुमं
पुढवी
पुणा
पुणाई, पुणो
पुनाभाई
पुछं
१७
पुट्ठो ७५, १०३, १३०
४५
३०, ८५
३०
३५, ११५
पुष्कं
पुरओ
५२
८१, १३४
१३४
पुरा
पुरिसुति
पुरिसो
पुरिसोति
१११
१३०
१५
२४
२०
४०, ९४
२०, ३६
९७
५२
४९, १०८
पुत्रहो ३२, ८०, ८८
पुव्वाहो
३२
पुरेकर्ड
पुरंदरो
पुलोमी
११४
६१, ७९,
८३
८७
पुहई ३५,४५,९०,१०१
पुहवी
पुहवीस
४५
८
पुहवी
पु
पुंछं
पूसो
पेआ
पेऊसं
पेज्जा
पेट्ठ
पेढं
पेण्डं
पेम्म
पेम्मं
परंतो, पचंतो
पेरंतं
पंको, '
पङ्को
८६
३०
७४, १२५
पोक्खरिणी पोक्खरं ४१, ७४, १२५
पोग्गलं
४२
पोत्थअं
पोप्फलं
पोम्मं
पोरो
पंचूण
पंडवो
पंडिओ
पंति, पंती
पंत्ती
पंथो
पंसणो
पंसू
फणसो
४५, ८१
४६
१७
२७
फणी
फन्दनं
६३
३९, ९४
६३
३५
३९, ९४
३५
१३७
७१
४१
१३८
३१, ८७
१३८
१६
१४
८७
५४
१६
२६
१६
३३,८७
१९, ३३, ८७
११७
६१
२३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४६७
३२
उदाहृतशब्दानुक्रमणिका बहूदग
भाणु उवज्झाओ
जवाओ८ बहुमुहं
११ भाणूवज्झाओ बहेडओ ९०,३५, ३९ भामिणी बाम्हणो
भाणं १२३ बारह ११६, १२५ भिउडी बाहइ ११७ भिऊ
४२ बाहो ११६
भिंगारो बिइजो ६३ भिंगो ४३, ९९ बीओ
भिभलो बुज्झा ७५, १२६ - भिसअ २५
भिसिणी २६, ११८ बंधो
१७ भुअमंतं, भुआमंतं ११
फाडेइ
बुधो
१७
बोरं
१३८
०.
९७
९६
.m
०
फरुसो . ११७ फलिहा ६५,११७, १२० फलिहो ५८, ६५, ११० फलं फसो
१७ फाडि
११७
६७ फालिहठो ६६, ११७ फालेइ ५७, ११२ फासिदिय १४ फुल्लेला फंदणं ७९,१३१ फंसो बढलो बन्दारओ बन्दारया
५६ बन्धको बम्भणं बम्भहो बम्हचरिअं १३६ बम्हचेरं ३१, ८०, ८६ बम्हणो ३२, ८०, ८८ बम्हा ८०, १३२ बलया बलही बहफ्फई बहिणी पहिरो बहुअरं बहुआइन'"अंगे १२ बहुउअरं बहुतं ७१, ९३७
बंभणो * बंसो
बन्ध
१२०
w
.m
w.
W.
भुत्तं भुमया भुसओ भेडो भोअणमेतं भोच्चा ७६, १२६ मअणो मअलांछण ९७ मअवहू मओ ४२, मइल मइंद मउओ
९७ मउभं मउडो
6
बंधवो बभचेरं
८०, १३७
८०
१२२ भइरवो ४८, १०६ भग्गो भजा ७८, ११८ भडो ५६, ११२ भई, भद्रं भमरो भरिया १३५ भवओ भवन्तो भवारि १०४ भवारिच्छो १०४ भवारिसो. ४७, १०४ भसलो ६२, ६५, ११८ भाइरही ११ भाउओ ४४, १०२ भागूण १४
6
or m
१७
१३८
c
मउडं
.
मउणं मउत्तणं
मउरं
c
मउली
५०, १०८
.
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६८
परिशिष्ट
मउलो मउलं
१०७
महु-लट्ठी महूसव महेसि महो माइमंडलं माइहरं माईदजाल माई माउआ माउओ
४६, ९०१ ४६, १००
१७, २८
९९ ४५, १०२
१०२
माउअं
११४
११०
११४
ur
८०
T
९४ मणोण्णं
६९ ३९, ५१ मणोरहो. . . ५५ मऊरो
मणोसिला मऊहो ३६, १३८ मणोहरं मक्खिा १२४ मणसिनी २८ मग्गओ
मणसिला मग्गो २२, ५३ । मणंसी मच्चु ९७, १०१ मम्मणं मच्छरो ७७, १२७ मम्महो • ७९ मच्छिआ ७३, १२५ मयगलो ११०
मयणो मजाया मजारो १७, ३२
मयं मज ७७, १२८ मयंको ५१, १०० मज्झिमो २९, ८४ मरगयं मझ ७८, १२८
मरलो मज्झ
मरहट्टो ८७ महिआ १३६ मरहटुं, मरहट्ठ -३३ मट्टिओलित्त
मरालो मट्टिया
९७ मलय सिहरक्खण्डं ७० मढे
मसाणं १३८ मडयं
मसू
१७ ११४ महण्णवसमा सहिआ ६७ मड्डियो १३६ महाआखंद, महाक्खन्द ७ मढो
५६ महाउदग १० मणहरं
महाराआधिराओ ७ मणसिणी, मणसिणी १७ महि ढिय मणसिला ११, १७, २७ महिवालो ५४
महिविटं मणसो २७ महिंद १३ मणासिला
महुअमहुरगिरा
महुअं, महू मगुण्णं
महुअर मणोज ६९, १३३ महुइँ
१२
-
ur 099
माउकं ७१, ९८ माउमंडलं माउलिंग माउहरं माऊ माजारो माणुसो माणंसिणी ८४ माणसी, मणसी २८,८४ मादु मादुमंडलं मादुहरं मालोहड मासलं मासं माहणी माहुलिंग माहो मिइंगो
मर्ड
१०७
मणसी
४४
. ११४
9
M
मणुअत्तं
मिचू
-
मिच्छा
१२७ ४३, ९९
मिट्ट
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६६
५३
मित
२२ मियतण्हा १०० मियसिराओ १०० मियको मिरि २९, ८४ मिलाइ १३४ मिलाणं ८१, १३४ मिलिच्छो मिहुणं ५५, ११५ मीसं
२६ मुइंगो २९, ४६, ८४ मुक्को ७२, १३७ मुग्गु
२२
७४, १३० मुडाल
४४
उदाहृतशब्दानुक्रमणिका मुसावओ ११९ मेहला
५५ मेहो मोर्ड ४१, १७ मोत्ता मोल्लं ९६ मोसा ४६, १०३ मोसावओ ४६ मोरो मोहो ३६, १३८ मंजरो मंडूक्को ७१, १३७ मंसलं मंसू
३६
रययं रसाअलं रसायलं रस्सी
६७, ८० राओ राईसर राउलं राएसि रामकण्हो रामा इअरो रामे अरो रायवट्टयं ७६, १२९ राहा
५५ रिऊ ४७, १२, १०५ रिक्खो रिक्खं रिच्छो १०३, १२५ रिच्छ
४६, १०५
४६, १०५ रिद्धी
४६, ४७ रिसहो
४६, १०५ रिसी ४७, १०५ रुक्खादो आअओ १२ रुक्खो
१३८ रुहो रुप्पिणी
मंसं
१९, ३३
१२४
मुणालं १०२ मुणिइणो, मुनीणो ८ मुणिईसरो, मुणीसरो ८ मुत्ताहलं
रअओ रअअं रअढं रअणं रअदं रच्छा ण्णं
૧૨
रिज्जू रिणं
५९
मुत्ती
०७
१२३
६७
रत्ती
mr
मुसा
१३८
रुपण
6
नुत्तो मुत्तं मुर्णिदो
४६,१०३ मुहलो ६४, १२० मुह
६५ मुहुत्तो मुंजायणो ४९, १०८ मूओ ७२ मूसओ ३५ मूसलं, मुसलं ४०, ९५ मूसा .....४६, १०३
6
रमणिज रमणीअरो रमणीअं रमाअहीणो रमाआरामो रमाउवचिों रमारामो रमाहीणो रमोवचिों रयणुजल
७३,
९३०
रुप्पं
6
6
रेभ
रोअदि ९ लक्खणं १४ लग्गो
७२, १२४
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
५००
लङ्गाणं
१६ लच्छो ७२, १२५ लच्छीएआणंदो १२ लट्ठी ६३, ७४, ११९ लब्भइ २६
वदामि अजवहरं १२ वन्दु वम्फा वम्महो ६२, ११८ वम्मिओ ३८, ९३
११७ वयसो वयंसो
लह
वयणं
८१
लहुई, लहुवी लाऊ लोअण्णं
५२
वरि
लासं लाहअं
वरिससयं वरिसा
१३४ १३४
१५
९७ २२
बरिसं
लाहलो लिच्छइ
७७, १२७
लिहइ
लिंबो
परिशिष्ट वइसवणो ४९, १०७ वइसालो- ४८, १०६ वइसाहो ४८,१०६ वइसिओ ४९ वइसि १०७ वइसंपाअणो ४९ वइसंपायणो १०७ वइस्साणरो ४८, १०६ वक्कलं वक्खाणं वगी वरगा वग्गो १२, ६८ वञ्चणीयं वच्छस्सच्छाहा ६४ वच्छेण वच्छेणं १८ वच्छेसु
१८ वच्छो ७२, ७७, १२५ वच्छं १५, ७३, १२६ वजं ७८, १२८ वहलं
१२९ वट्टा वट्टी ७६, १२९ बटुलं
७६ वडआणलो बड्डी वणोअडइ वणोलि वण्ही वत्ता वत्तिआ वत्तिओ ७६
6
c
०
oc
6
११७ लोणी
१३८ लुक्को ५१,६५, १२० लोओ ५१ लोणं ३५, १३८ लोद्धओ ४१ लंगलं १२० लंघणं लंकणं, लन्छणं १६
५२, ६१ वअसो ११४ वइअब्भो ४८ वइआलिओ वइआलीओ
४८ वइआली १०६ वइएसो ४८, १०६ वइएहो ४८,१०६ बइदम्भो १०६ वर ४८,१०७
वरिहो वलाआ
३२ वलयामुहं ५७, ११२ वलुणो ६४, १२० वसई, वसही ११४ वसहो ४२, ४५, ९७ वसो । वसंतुस्सव उवायण १० वसंतूसव वहप्फई वहिरो वहुअवऊढो वहुत्तं ११८ वहेडओ ६८, ९४ वाआ वाआच्छलं वाआविहवो वाओलि वाअंदोलणोणविअ ११ वाउणा वाउलो
2
वअणं
१०
२४
c
०c
०
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाउलो
वाणारसी
वायरणं
वाया
वारणं
वारिम, वाम
वारं
वावडी
वास
वासरसरो
९
९
२७
१०
९
२७
५५
५५
९९
४३
१३७
१२
विअड्ढो
१३६
विअणा
१०५
विअणं
२८, ८५
विआनं
५१
विओओ, बिओहो १२
विज्जो
११९
वासा
वासेणोल
वासेसी
वासो
७१
१३८
६६
२४
६६, १२३
११
३४
५८
वाहइ
चाहा
चाहिअं
वाहितं
वाहो
विअ
विइन्हो
विउअं
९९
४५, १०२
विउदं
६०
विडलं
५२
विकासशे
२७
विकat
२१, ६८
विञ्चुओ ४३, ९९
उदाहृतशब्दानुक्रमणिका
विच्छड़ो
बिच्छुओ
विडिओ
विछिओ
विजं
विजा
चिज्जू
विज्जुलाअसुंमिअं
विज्जं
वि
विट्ठो
विडवो
विड्डा
विड्ढी
विष्णार्ण
विज्झो
१२८
विटं ४६, १०१, १०३
विट्ठी
४६, ९९
९९
४६, ५७
७१, १३७
४३
७८, १२९
विष्णू
८६
विहू ३५, ७९, १३२
वितिहो
४३
वित्ती
४३, ९९
वित्तं
४३, ९९
४३
९९
१०१
५४
८०, १३२
१३६
३६
१७, १२७
१७
१२६
७७
विधाओ
विद्व कई
विद्धो
विष्पो
विओ
विम्हणिज्जं
विम्हणीअं
विब्भलो
विरहग्गी
विलया
२४
९
७६, १२५
१६
६३
६३
१२१, १३१
३४
१३८
विलयाईसो, विलिअं
विलीअं
विल्लं
विसइ
विसढो
विसमइअं
विसी
विहत्थी
विफ्फ
विसेसुओगो
विसेसो
विसो
विहलो ७०
विहा
विहिओ
विद्दित्तो
विहिओ
विहीणो
विहूणो
वीरिअं
५०१
विलयेसो ९
९३
८५
३५
१२२
६२, ११८
८७
२८, ३८,
वुट्टी
४३, ९९
१४
६६.
४४
११४
४६, १००
७०, १२१,१३१
४३, ९९
७१
७१
४३, ९९
३९
३९,९४
१३५
की संभो
२७
वीसमइ
२६
वीससइ
२७
वीसा १९, ९२, १३८
वीसानो
२७
वीसामो
२६
१५, २६, २७, ८५
४६, १०२
ढ
४६, १०२
वुड्ढी ४४, १०१, १०२
वृत्तंतो
१०२
वृत्तान्तो
४५
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०२
बुंदें
बुंदारया
बुंदावण
४५, १०२
४५
४५,१०२
३०
१३१
१०५
४९
५७
७७
१०७, १२८
वेंट ४६, १०१, १०३
वेडिसो २८,८५,११४
वेणुट्ठी
वेणू
वेहू
वेरं
बुंदुं
वुहफ्फइ
वेणा
बेलिओ
कुंठो
वेज्जं
वेज्जो
वेल्ली, वल्ली
वेलू
वेलवणं
वेल्लं
मो
वेसलिअं
वेसवणो
वेसिओ
वेसिअं
वेपाअणो
संपा
वेदव्वं
६३
११२
३५
४८, १०७
३०, ८६
११२
१४
३५
१२१
१३८
४९, १०७
४९
१०७
४९
१०७
४८,१०७
वोक्तं
वॉट, वोटं ४६, १०३
वैंक, क
फइ
वसिओ
सिय
वंसो
सभढं
सअणं
सआ
सइ
सइरं
सई
सउण
सउरा
सउहं
सकलं
सक्कअं
सक्क
सकारो
'सक्कालो
को
परिशिष्ट
सक्खं
सङ्घी
सचावं
सच्चं
सच्छा हं
सज्जो
४२ सढा
ढो
सज्झसं
सभाओ
सभो
सज्
सञ्झा
१७ सड्ढा
१७
सण्डो
६६
५१
६१
३३
३३, ४३, १००
१०६
५१
३३
८८
५३
५०, १०८
१०, १०८
११०
१९
७४
१९, ७४
६४, १२०
२१
१५, २५
१६
५२
७५, १२६
१२०
२२, ६७
१२६
७८, १२८
१२८
१२८
१६
५७, ११२
सह
सण्णा
सणिच्छरो
सत्तरी
सत्तावीसा
सत्तअं
सहो
१३६
१६, ६६
सम्म
ढो
सयल
सरअ
सररुहं
सरि
५६ सरो
सद्धा
सन्तो
सप्पओ
सप्पो
सफं
समत्तं
समरी
समलं
समरो
समवाओ
सम्म
१५
समिद्धी २७, ४४, १००
मुद्दो
६८
२६
५७, ११२
८
२५
१०७
१०५
६८, ९५, १३३
सरोरुहं
६९.
सवलो
१०६
११४
२२
१९
६६, ६८, १२२
सरिअ
२४
सरिच्छो २८, ७३, १०५
सरिया
२४
सरिसो
१०५
६७, ८०
१०७
६१
२३
१५
६७
५४
७९, १३०
७९
६१
६१
१२१
५२
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
सासं
सुइदी
م
१३५
सुकयं
مه
600 W w w.
م
و
सहलं
९१
सुगओ
م
ه
G
G
सही
। उदाहृतशब्दानुक्रमणिका
५०३ सवहो ५४, ६५
. २७ सीसो सव
८ साहू ५६, ११७ सीहो १९, ६६, ९१ . सव्वओ
साहूसवो
८ सुअइ . सम्बजो ३०,६८, १३३ सिआलो १०० सुउरिसो १३, ५१ सवण्णू ३०,६८, ८६
सिंगारो ४२, १०० सव्वोउय सिंगं
सुइल सहअरो, सहारो ५३ सिंघ १९, ६६, १२३
५९, ११४ सहकारो
सिट्ठी ४२, ७४, १०० सहचरो सिटुं ४४, १००
सुकुसुम सहरी
सिढिलो ६४,११५,१२० सुक्लपक्खो
सिढिलं सहस्सातिरेक सिणिद्धो
सुगंधत्तणं सहा ५५,११८ सिण्हो
१.३२ सुठु
१३० सहावो १५, ११८ सित्थं
६७ संढो . १०८ सहिओ १२३ सिंदूरं ३५ सुण्हा ८९, १२२ ५५ . सिंघवं
सुत्तो साअरो
सिन्नं
१०६ सुपरिसणं १३४ सिप्पी १३८
सुद्धोअणी सामओ ३३, ८८ सिभा
१२२ सामच्छं १२७ सिमिणो २८, ६५, १२१ सुन्दरिअं ४९, १३५ सामा सियालो
सुन्देरं ३०, ४९, ७० सामिद्धी, समिद्धी ८४ सिरिसो ३८, ९३ सुपण्णिओ १०९ समोअअं
सिरोविअणा १०७ सुभिणो २८ सायरो
सिरं
२३ सुम्हा ८०, सारिक्खं
सिलवटो. ९७ सारिच्छो २८, ८४ सिलाखलिअं ११ सरहो सारिच्छं ७३, १२५ सिलिट्टे,सिलिटुं ८१,१३५ सुवइ सालवाहणो ११४ सिलिम्हा १३६ सुवण्णिओ सालाहणो
सिलेसो १३४ सुवेक सावगो ११० सिलोओ ८१, १६ सुवेजना सावो
५४ . सिविणो २८, ६५, ८६ सासऊसासा ९ सीअसे सीमरो, ११० सुहओ ४०,१११ सासाणल ७ सीहरो ११०
सुहमा
१०६
.m
س
Tutinian:112111animali
साऊअयं
ه
३
सुरहा
Amwwe Gu0"
सुसाणं
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५०४
परिशिष्ट
१३६
संण्डो
सूअअं
१२७ ७६,१२९
सूरिओ सूरिसो
संभड्डो संमुहं संवच्छरो संवट्टि संवत्तो संवत्तणं संवरो संवुअं संसिद्धिओ संहारो
१३
१६, ५६
संग
१०१
४७
ur
३३,८८
६६
m
सेदूरं
३३
हत्थो
__
सन्न
सुहुमं
___ सोहइ ५५, ६६, ११८ सोहग्गं
४९ सोहणं संकेतो ६९ संकरो
संकला सूहओ ४०, ९५, १११
संखो सूसासो १०८ सेच्वं
संघारो सेन्जा ३०,७८,८६,१२८
संजतिओ ८४
संजत्तिओ सेमालिआ६१
संजदो
५९
संजमउवधाय ११ सेल्टग जक्खआरहण ८
संजमो सेला
संजा ६९,१३४ सेलो
४७ संजादो सेवा
संजोओ
संझा १६, ६९ सेहालिआ
संठविओ सोअमल्ल ४०, ९४ संठवि सोइंदिय १४ संडो ४९, १२२ सोचिअ
संणा ७८,१३४,१३९ सोच्चा ७०,
संदहेभमोचिअ सोच्चिअ
संदट्टो सोत्तम्
___ संपआ, संपया २४ सोमालो ६४,१२०,१३८ संप सोमो ६७ संपदि सो य, सो अ ५३ संफस्लो सोरियं १३५ संफासो सावेइ, सुवह ८७। संबुदी
१०७
हदो हरडइ हरो हलद्दा हलद्दी हलिआरो हलिओ हलिद्दा हलिद्दो हलुअं हिअ हि हीणो हीरो,हरो
५९,६८
५८,९२ २९, १३८ ३५, ९०
३५ १३२ ३२, ८९ १२१ ६४
सेसो
F
४३, १०० ४३,१२३ ३९, ९४ ३९, ८५
हूणो हेटिमउवरिय
३९, ९४
१०
१९
होइइह
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
अजा
अओ
अचल
अच्छी
अच्छीई
अच्छं
परिशिष्ट २
लिंगानुशासन एवं स्त्रीप्रत्ययप्रयोगानुक्रमणिका
एसा बाद्दा,
१४०, १४१
१४०
१४१
१४७
अयलो -अयला अहिवइ अहिवणी १४५ आयरियाणी १४४
इत्थी
इमाणं - इमीणं
आयरिओ-आयरिआणी,
आयरिआ
१४२
१४७
उवज्झायाणी
--
एईए - एआए एई-एआणं एसा अच्छी
एसा अंजली,
१४३
इमीए - इमाए
इंदाणी
इंदो - इंदाणी
उवज्झायाणी
उवज्झायो - उवज्झाया
एसा गरिमा,
१४६
१४६
१४४
३४
१४४
१४४
१४६
१४४
एसो अंजली १४२
१४६
१४४
१४४
१४०
एसो गरिमा १४१
साधुत्तिमा, एसो
थुत्तिमा
एसो बाहो
एसा महिमा,
सो महिमा
१४१
अली
१४३
कच्छवो-कच्छवी १४६
कररुहं, कररुहो १४१
कामुओ-कामुआ,
कामुई
काली
काली - काला
किन्नरो,
किन्नरी
किसोरी
कोए, काए
कीओ-काओ
की-का
कुंडी, कुंडा
कुमारी
कुरुचरी, कुरुचरा
कुरंगी
कुलो
कुलं
कुसला
कुसी, कुसा
कुंभ
१४२
कुंभआरो
कोइला
१४१ खगो
१४६
१४३
१४४
१४६
१४३
१४४
१४४
१४४
१४४
१४३
१४३
१४३
१४०
१४०
१४२
१४४
१४३
१४६
१४२
१४१
खडगं
ई
खत्तियो, खन्तिया,
खत्तियाणी
१४६
१४३
freas, गिवण्णी १४५
गुणो
गुणं
गोणा
गोवी
गोवालिआ
गोवालओ
गोवो, गोवी
१४१
१४३
चवला
चवलो
१४१
१४१
१४४
१४३
१४६
१४६
१४२
१४६
१४३
१४३
१४०
गंठी, गंठी
गंधिओ, गंधिआ
घोडी
चउरा
चक्खू
चडआ
१४२
चडओ, चडआ
१४७
चन्दमुद्दो, चन्दमुही १४६
चम्मं
१४०.
१४२
१४७
चोरिओ, चोरिआ १४२
चंडाली
१४३
छन्दो, छन्दं
१४०
छाया
१४४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट २
छाही
१३९
१४४ १३९
१४६
१४४
१४३
१३९
जम्मो অনাগী जसो जाणवदी जीओ, जाओ जुवा, जुवई
१४४
१४६ १४५
पओ पइ -- पडी पढ, पढन्ती पढमो, पढमा पढमा पण्हा, पण्हो पहिई पाउसो पाणिगहीदा पाणिगहीदी पिओ पीवरो, पीवरी
१४७ १४३ १४१
जंबुई
मूसिया
१३९ १४४ १४४
१४६
१४१
१४४
१४७
णअणो, णअणं १४०
१४३ णायणी, णायिआ १४७ तमो १३९ तरणी तरुणी, तरुणो
१४७ ताओ, तीओ तुअंती १४५ तेओ
१३९ थली १४३ थली, थला १४४ दुक्खा, दुक्खाहं १४० देवा, देवाणि १४१ धणवई १४३ धीवरी
१४६ धीवरो, धीवरी १४६ नडो, नडी १४६ नम्मो १३९
पुत्तई पुरिसो बालओ, बालिआ १४६ बाला
१४२ बीयो, बीया १४७ बंभणी बहिणी १४६ भज्जा
१४३ भवाणी
१४४ भवो, भवाणी १४७ भागा, भागी १४४ भायणा भायणाह भाया
१४६
१४३ मऊरो, मऊरी १४६ मच्छो, मच्छी १४५ मलिणा १४३ महिसी १४७,१४३
माआ माउलो, माउली,
माउलाणी १४४,१४९ माणुसो, माणुसी १४५ माहणो, माहणी १४६ माहप्पो, माहप्पं १४० मिडाणी १४४ मुणि, मुणी १४५
१४५ मंडलग्गं, मंडलग्गो १४१ मंडली १४३ रक्खसी रस्सी, रस्सी १४२ राया, राणी १४५ रुक्खा, रुक्खाई १४१ रुद्दो, रुद्दाणी
१४४ लोअणो १४० वअणो, वअणं १४० वग्घी
१४३ वच्छा
१४२ वम्मो
१३९ वयं विउसो, विउसो १४५ विडाली १४३ विही, विही १४२ वीया
१४३ वुत्तिगारो,बुत्तिगारी १४६
१४० सरओ १३९ सरो . सव्वाणी १४४ सहा, सही १४९
C G
१४०
०
m
नहीं
१४०
सम्म
निउणा १४३ निउणो, निउणा १४७ निसाअरी १४३ निही, निही १४२ नीली, नीला १४४
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
सारसी साहणी, साहणा १४३ साहु; साहू
१४५ सियाली
१४३ सिरीमई
१४३ सिरं
१४० सीसो, सीसा १४६ सीही
१४३ सुत्तगारो, सुत्तगारी १४६
अव्ययप्रयोगानुक्रमणिका
५०७ सुद्दा, सुद्दो १४५ । सूअरी सुन्नरी १४३
सेट्रि, सेद्विनी १४६ सुप्पणहो, सुप्पणहा, संखपुष्फो,संखपुप्फी १४७ सुप्पणही १४७ हत्थि, हस्थिणी १४६ सुप्पणही, सुप्पणहा १४४ हरिणी १४३ सुमणं १४० हलही, हलहा १४४ सुएसा,सुएसी,सुएसो१४६ हसमाणी,हसमाणा १४४ सुवण्णआरो,
हंसी
१४३ सुवण्गआरी १४६
२१५
अहव
अहवा
२१६
२१४
२१५
परिशिष्ट ३
अव्ययप्रयोगानुक्रमणिका अओ
अस्थि
२१५ अइ
२१५
अत्थं अईओ
अनुमई अईव २१५ अपरज्जु २१५ अग्गओ २१५
अप्पणो २१५ अग्गे
अप्पेव अच्चन्तं २१४ अभिक्खं
२१५
अभितो -अज्झायो २१४ अभिहणइ
२१५ अलाहि २१६ अणुगमा २१५
अलं
२१६ अणुजाणइ
अवहरइ २१४ अणुहर
अवमाणो २१४ अणंतरं, अणंयरं २१५ अवरि २१६ अण्णमण्णं
२१५ अवस्सं अण्णहा
२१५ असई .. २१६ अत्थ
अहत्ता २१६
२१६
अज
२१६
२१४
अण, न
अहा अहिगमणं २१४ अहिप्पाओ
२१४ अहिरोहइ २१४ अहोइ
२१४ अहे आयन्तो २१५ आवासो आवि.
२१६ आसमुदं आहच्च आहरइ ओअरह ओआरो २१४ ओआसो,अवयासो २१४
ur wwwww ~~
rurr ur m0
२१४
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०८
परिशिष्ट ३
२१४
जइ जओ जत्थ
w
w
ओमल्ल ओसरइ, अवसरह २१४ ओसरिअं ____ अवसरिक्षं २१४ अंतरं
२१४ अंतो
२१६
जह-जहा
एकइआ, एक्कइआ २१६ एक्कया
२१६ एक्कसरि एक्कसि एक्कसि एगइया, एगया २१६ एगझं एगयओ २१६ एगंततो एतावता एत्थ, एत्थं एयावया
२१६ एवमेव
जह-तहा जहेय जाव जे
२१७ २१७
इओ
२१७
२१६
इक्कसरिअं इकसि, इक्कसि इञ्चत्थो इत्थतं इयाणि
२१६ २१६ २१६
झगिति भत्ति ण,
३१७
एव
9 ~
9
~
एवं
9 ~
इर
कओ
२१६
णमो
वरि णवरं
9
~
इह
२१६
कत्थइ
9 ~
इहयं
कल्लं
२१६
२१६
कह
२१४
२१७
२१६ इहरा ईसि, ईसि उग्गओ उगच्छद २१४ उच्च
२१६ उझायो, ओझायो, ___ उवज्झायो २१९ उत्तरओ उत्तरसुवे उप्पत्तिा २१४ उप्पि
२१६ उवरि, उवरि उवहर उवासणा २१५ एअं
२१६
२१६
कहि
२१६ कालओ काहे किंचि किण्णा,किंणा,किणो २१७ किमवि किर, किल वेणचिरं २१७ केवच्चिरेग केवलं कोइ, कोवि
२१५ खलु, खु चिअ, चेअ २१७
আগা
२१७ मिच्चं, निच्चं णिवेसो णूण, णूणं जो तए तओ, तत्तो, ततो २१० तत्थ तप्पमिइं तह, तहा तहि, तहिं तहव तिरिय
२१७ तिरो ती तु ।
२१७
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०६
२१७
own
२१४ २१४
तंजहा
२१७ २१७ २१७
*
w
विकुव्व विणओ विणा विहरह वीसु
अव्ययप्रयोगानुक्रमणिका परवेइ परोप्परं २१८ परं परंमुह २१८ पलिहो पसय्ह पहरह पाओ, पायो २१८ पातो
२१३ २१८
दिवास्तं
२१५
~
दुटु
२१७
~
वेणइआ
२१२
व
दु? णियमह दुन्न यो दुहओ, दुहा दूहवो
२१४ २१७
. . c
सह
२१८
२१८
२१७
our or a wor or or w
सक्ख
~
थुवं
पिह
२१८
पुणरुतं
~
सज्जो सद्धि सन्निवेसो सपक्खि समं
पुणरधि
~
२१४
२१८
पुरओ
~
२१८
पुरस्था
२१८
पुरा
२१८ २१८
सया
२१८
सयं
~
णागओ निग्गओ निम्मल्लं निविसह नीसहो पगे पच्चुअ पच्छा पतिट्ठा परज्जु परसवे पराधाओ पराजिणइ पतिट्टा, परिहा पडिआरो पडिमा पडिरुवं परिगम परितो परिवुडो परिहरह परुप्परं
२१८ २१८
पुहं पेच्च बहिद्धा बहिया बहि भुजो
~ ~ ~
~ ~ ~ 2000.29 ५०० - १४७
~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ on
२१८
ow morwwwr or or orm
मग्गतो
२१८ २१४ २१८
मणयं
२१५
सवओ सह सहसा सिस, सिय सुअरं सुवत्थि सुषे सूहवो सेवं संखिवा संखितं हवं
।
.
.
.
२१८ २१८ २१८
मा
२१५
मुसा
२१८
२१४ २१८ २१४
मोदउल्ला
२१८
हो
२१८
२१५
रहो
२१८ . लहु - . ---२१८
वइक्तो २१४
।
२१८
-
-
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
अइदेवा किसणो २३७
अणुहरि सुरा
२३७
अच्छे अच्छा व दीव्वइ
अज्झणेण वसई • अज्झायणत्तो पराजयइ
२३८
२३८
२४१
अलं मल्लो मल्लस २४०
अन्तेउरे रमिउं आगयो
२४३
राया अन्नरस हेउस्स वसइ २४२ अहिओ किस
refuge as हरी
अहिनिवसइ सम्म
२३७
२३६
२.३६
अहिवस वइउंठ २३७
अत्थं चिoar
२३६
आवसइ वइउंठ
२३७
इअराई सहिआण२ ४२
एत्थंतरमिति २४३
कडे आइ कागो २४२
auda बहिरो २३८ काअस्स अंगाणि पसंसेइ
२४१
कामत कोहो अद्दिजाइ
२४१
परिशिष्ट ४
कारकप्रयोगानुक्रमणिका
को अत्थो पुत्ते ...२३९ कोहत्तो मोहो अहिजाअइ
२४१
गमणेण रामं अणुहरइ
गवाणं गोसु वा सामी
गामे वसामि
गामं गच्छ
गामं समया
गोते गग्गो
गोवी सलाहइ
गोवी चिट्ठ
२३८
वाणं गोवा पसुओ
गोवीसवइ
चिरस्स मुक्का
चोरओ बीes
चोरस्स बीहड्
चोरेण बीहड
जाहि तावस
जलत्तो
जलेन
२४२
२४२
२४३
२३६
२३७
२३८
२३९
२३९
२३९
२४२
२४१
२४१
२४१
२३८
२३८
२३८
जलं
२३८
जलं बिना सकइ २३८
जिणो
२३५
झाणं झाइअइ
२३६
अणुवसि सेना
στοί
तस्स' 'पेसिआ
तस्स रोयइ
२४१
२३९
तिणेण इसराणं २३९
२४२
तिलेस तेलं तिसु पुहवी तिस्सा मुहरु भरिमो
२४३
.
•
•
२४२
२४१
सिमेअमणा इण्णं २४२
तु अंगाणि
२३७
२३५
ते काणं
२३९
तेणं समएणं
२३९
दुहाण को न बीइ २४१
दुवाल 'सुणइ २३८ देवदत्तो' 'नहाति २३८
देवस्स देवाय नमो २४०
•
दंडे घडो जाओ २३८ सो
२४२
धम्मत्तोपमायइ
नमो नाणस्स
नयरे न जामि
निका क
आणं सुत्थि
पइअ चारू
२४०
२४०
२४३
२३७
२४०
२३८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
कारकप्रयोगानुक्रमणिका पज्जुणो २३५ माणवों धम्म सासइ वच्छ वच्छं पडि सिच्चा पयेण ओदनं भुंजइ २३६
२३६ .
२३६ परिजणो' 'चिटइ २३७ मोणवों पहं पुच्छइ २३६ वाउ २३७ परिओ किसणं २३७ मासेसु अस्सं बंधइ २३६ विउसाणं.."सेवीअउ पाएण खंजो २३८ मुत्तिणो हरि भजइ २४०
२३४ पावत्तो दुगुच्छ मुणिस्स, मुणीणं देइ २४० विजुज्जोमं भरइ रत्तिं । विरमइ वा २४०
मोक्खे इच्छा अस्थि २४२ पिअराणं सुहा २४०
मोहणं अणुगच्छइ हरी विप्पाय वा विपस्स पिअरेण 'सण्णाणइ
२३७ गावं देइ २३९ २३८ पिधं रामेण,रामं वा २३८
रसेण महुरो - २३८ वेअं पढइ २३६ पुण्णेण दिट्ठो हरि २३८ रामत्तो २३८ सप्पो भयं २४१ पुत्तेण सहाअओ पिआ रामेण बाणेन हओ सयेण सयरस वा
बाली २३७ परिकीणइ २४० पुत्थक पढइ २३६ रामो जलेन कडं
सयंभू २३५ पुप्फाणं सिहइ २३९
पच्छालइ २३७ सामो अस्सपइणो बालकस्स मोअआ .
रामो कलहत्तो बीहइ सई धरइ २३९ रोअन्ते २३९
२४१
सीमाधरस्ल वन्दे २४२ बंभणस्स हिअं सुहं वा
रामो झाईअइ २३५ सुसिप्परं वच्छं २४०
२३७. भत्तस्स भत्ताय वा धरइ रुक्खं ओचिवह सुहेण जाइ २३८
मोक्खं हरी २३९ फलाई २३८ । संपजइ २४० भत्ती गाणाय कप्पइ२४०
लक्खरणो रामेण हरिणो नमो २४० भत्ती गाणाय संपजइ
सारं गच्छइ २३८ हरिणो रोयइ भत्ती २३९ जाअइ वा २४० भत्तो विसणुं पडि लच्छी हरि पडि हरिं भजइ २३६
__ अणु वा २३७ __ अणु वा २३७ हरी वहांठं उववसइ मम तव विचारो रोयइवच्छ पडि विज्जुअइ
२३९ विज्जु - २३७ हा किसरणा मत्तं २३७
खणा रामेण
२३७.
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
__ २५०
आर
अकर्य
परिशिष्ट ५
समासप्रयोगानुक्रमणिका अइपल्लंको २४८ आरूढ़वाणरो
गिहजाओ अइमग्गो रहो २५२ आसंबरा २६० गिहत्थो २४८
२४८ ईसरकडे
२४६
गुडमिस्सं २४६ अग्गिपडिभो २४६ इंदियातीतो २४६ गुणसंपन्नो २४६ अजियसंतिणो २५३ उत्तरगामो २४५ गोवसभो २४८ अणवजो मुणी २५२
उव्वेलो
२४८
घोरबंभचेरो, जंबू २५० अणवज
२४८ उसहवीरा २६३
चउक्कसायं २५० अणायारो २४८ एगदंतो
चउदिसा २५० . अणाहो . २५५ कच्छवो
चउम्मुहो २५१
२४८ अणिटुं २४८ कट्ठावण्णो २४६
चक्कपाणी २५१ अणीसो २४८ कडाहपक्को २४७ चक्कहत्यो, भरहो २५१ अणुजमो, पुरिसो २५२ . कण्हपक्खो
चन्दमुहं २४९ अणुयरा २५२ कनामुहं
२४७
चरणधणा, साहवो २५१ अदिटुं
२४८ कमलनयणा
चोरभयं २४७ अदेवो
२४८ कम्मकुसलो २४७ चंदमुही कन्ना २५१ अन्नाणतिमिरं २४९ कयत्थो, कण्हो २५० चंदाणणं २४९ अन्नाणभयं २४७ कलससुवण्णं
जिअकामो, अकलंओ अपच्छिमो २५२ कलाकुसलो २४७
२५१ अबभणो २४८ किसणसिओ २४६ जिअपरीसहो. गोयमो अभयो कुंभआरो२४८
२५० अलोगो कुंभभट्ठिआ
जिभकामो, महादेवो २५० अवरकायो २४६
कुमारगब्भिणी २४९ जिमारिगणो, अजिओ अवरुओ २५२ कुमारीसमणा २४९
२५१ अविरई
कुलगुणसरिसी २४६ जिइंदियो, मुणी २५० असच्चम् २४८ गजाणणो २५१ जिणसरिसो २४६ असणपाणम् गंडीवकरो,अज्जुणो २५१ जिणा
२५४ अहिवो २४८ गणिआज्झावओ २४७ जिणेन्दो आयारनिउणो
२४६ जिणोसमा २४७
२४६
२५२
२४८ .
२४६
२४८
२५३
गवहि
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवाजीवा
भिण्णो
तवसंजमं
तवोधणं
तिणेत्तो हरो
तिलोई
तिलोयं
तिलोया
थेणभीओ
थोवमुत्तो
भकट्ठ
दयाजुत्तो
देवदानवगंधवा
देवपुज्जओ
देवदेवीओ
सो
देव मंदिरं
देवथुई
देविंदो
.२४७
दिण्णवया साहवो २५१
दिवगओ
२४६
२४७
२४९
२४७
धम्मपुत्तो
२५३
२४६
२५३
२४९
२५१
२५०
२५०
२५०
२४७
नम्मया
नरसेो
नरिंदो
नवतत्तं
२४७
२४६
२४६
२५३
२४७
२५३
२४७
२४७
हो, साहू
२४७
नसणो मुणी २५१
२४८
नणदंसणचरितं
नाणघणं
नाणुज्जओ
निक्कासी
नियोजनो
समासप्रयोगानुक्रमणिका
निल्लज्जो
निव्वया
नीयगा
ताई
पत्तनाणो मुणी
पत्तपुप्फफलाणि
पपुण्णो जणो
पयपउमं
परमपर्यं
परिजला परिहा
पलयगओ
पायरिओ
पायवो
पावणासओ
पिअरा
पीअवस्थं
पीआंबरो
पुण्णपावहिं
पुणपा
पुत्रकायो
पंकलितो
पंचवतो सीहो
बहुजगहिओ
बहुमुहं
बाणविद्धो
बानर मोरहंसा
२४७
२४७
२५०
२५३
२४९
भट्ठायारो जणो
भद्दत्तो
२४७
२४८ भासअरो
२५२
भूयबली
भणोत्तमा
भहि
२५२
२४८
२४८
२५४
२५१
२५३
२५२
२४९
२४८
२५२
२.४६
२४८
२४८
२४८
२५४
२४८
२५०
२५३
२४९
२४५
२४६
२४६
२४६
२४७
२४६
२५३
२४७
२४६
भक्खाभक्खाणि २५३
२५०
२४६
२४८
२४६
महारायो
महावीरो
महमतो
माउस रिसी
मियन्यणा
मेघा अथ
मोक्खनाणं
रत्तघडो
रत्तपी वत्थं
रत्तसेओ
रसपुणं
राअदोसभयमोहं
रिणमुत्तो
ख्वसमाणा
लाहालाहा
लहसाला
लोगो
लोहिओ
वग्घभयं
वज्रदेहो
विज्जाठाणं
५१३
विज्जादक्खो
fagaाहिवो
विहवा
वीरजिनिंदो
वीरजिणो
वीरवरो
वीरस्सिओ
वृतिआरो
सगढ
२४९
२४८
२४६
२४६
२५१
२४६
२४६
२४८
२४९
२४८
२४६
ख्वसोहग्गजोव्वणाणि
२५४
२४७
२४६
२५३
२५३
२४७
२४६
२४६
२४७
२४९
२४७
२४७
२४७
२५२
२४९
२४८
२५०
२४६
२४८
२४८
समचउरंसठाणो २५०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५१४
सभापंडिओ
समत्थो
समाहिठाणं
२४७
२४८
२४७
२४८
२५४
२५३
सावअसाविआओ २५३
सासूबहू
२५३
सव्वण्णु
ससुरा
सारासारं
अण्णा
अस्थिओ
अनन्तो, अम्मो, अन्नओ
२६१
२६१
२५७
अप, कणीस,
कणि, कणिट्टग २६२
अप्प,
अप्पअर,
अप्पअम २६१
अपणयं
अप्पुल्लं
अम्हकेरं
२५५
अम्हेच्चयं
२५५
अवरिल्लो २६० अहि, अहिअर,
२६०
२५६
अअअम २६१
आरिसं
२६१
अडोलतेल्ल २५८
अन्तिम, नेदीअस, दि
२६२
परिशिष्ट ६
साहुवंदिओ
सिवगओ
२४६
२४६
२४९
२४८
२५१
२४८
२५३
सुरासुरा सुदुक्खाईं २.५३
सी उन्हं जलं
सुतभारो
सुत्तसिंहा गुहा
सुद्ध पक्खो
परिशिष्ट ६
तद्धितप्रयोगानुक्रमणिका
अन्धलो, अन्धो
२६०.
इत्तिअं
२५८
इत्तो, इदो, इओ २५८
सालू
२५७
उज्जल, उज्जलअर,
उज्जलअम
4
उवरिल्लं
एकतो, एकदो
एकओ
एक्लो, एक्को
एकइआ
एक्कसि
एक्कसि
एत्तिअं
एत्तिलं
एद्दहं
एयहुसं
कडु एल्लं
२६१
२५६
२५७
२६०
२५९
२५९
२५९
२६९
२५९
२५९
२५६
२५८
सहपत्तो
सुदरपडिमा
सेब
संजमधणं
संसारभीओ
हत्थपाया
हंसगमणा
कया
कवतो
२६१
२५७
कहि, कह, थ २५८
काणीणो
२६१
कुत्तो, कूदो, कुओ २५८
केत्ति
२५९
केत्तिलं
२५९
२५९
२६१
के हं
को सेयं
खुद्द, खुद्दअर,
खुद्द अम
२४६
२४८
२५१
२४९
२४७
२५३
२५१
२६२
२५७
२५६
२५८
२५७
२५६
जत्तो, जदो, जओ २५८
जया
२६१
गव्विरो
गामिल्लं
चंदओ, चंदो
छाइल्लो
जडालो
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--------------------------------------------------------------------------
________________
जहि, जह, जत्थ २५८ जामइल्लो
२५७
जे, जेट्टयर, जेट्ठयम२६२
नित्तिअं
जेप्तिअं
जेत्तिलं
जेद्दह
जोण्हालो
तया
तरुल्लं
तवस्सी, तपस्सी
हि, तह, तथ
तिक्ख, तिक्खअम
तित्तिअं
तिहु
तेत्तिअं
तेह
तेहिलं
तिक्खअर,
२५८
२५९
२५९
२५९
दप्पुल्लो
दयालू दीहर, दोहरअस,
२५७
२६१
२५६
२६१
२५८
२६१
२५८
२५६
२५६
२५९
२५९
तुम्हरो, तुम्हरं २५५
तुम्हेच्चयं
२५५
थूल, थूलअर,
थूलअम
थो, थोअर,
थोवअम
२६२
२६१
२५७
२५७
दीदरम २६२
२६०
दीहरं
दुहुतं
२५६
दूर, दवीअस, दविट्ठ २६२
धणमणो
२५७
तद्धितप्रयोगानुक्रमणिका
धणवंतो
धणी
धणी, धणिअर, धणिअम
धम्मी, धम्मीअस,
धम्मिट्ठ
नवल्लो, नवो
नयरुल्ल
२५७ पुष्फिमा पुरिल्लो,
२६१
नेहालू
पग्ग हिय, पम्महिअर,
२६२
पग्ग हियतम २६१
२६२
२६०
२५६
२५७
पडु, पडुअर, पडुअम २६२
पत्तलं, पत्तं
२६०
परकेरं
पर कं
पावी, पावीयस, पाविट्ठ
पिअ, पिअअर,
पिअअम
पल्लविल्लो, पल्लवो२१८
पहिओ
२६०
पाचअ, पाचअअर,
पिआमहो
पिउल्लो, पिआ
पाचअअम २६२
पीणत्तं
पीणया
पीणिमा
पुण्णमंतो
पुष्कत्तणं
पुष्कत्तं
२५५
२६१
२६१
२६१
२५८
पीअलं, पीवलं, पीअं २६०
पीणत्तणं
२५६
२६२
२५६
पुरा
२५८
पुरिल्लं, पुरिल्ली २५६
फडाली
२५७
२६२
२५८
बहु, भूयस, भूइट्ठ
बहु, बहु
बहुल,
बंदीअस,
बंदिट्ट
बामणो
भत्तिवतो
भमया
भमिरो
भिक्खं
मउअन्तया
मणयं
मणियं
५१५
२५५
२६१
मइम, मइअस, मइट्ठ २६२
मई
२६१
मउअत्तता,
मीसालिअं
मीसं
मुहव्व
मंसुल्लो
रसालो
राइक
२६२
२५७
२५९
२६०
२६०
महा, महत्तर, महतम २६२
माइत
२५७
मिउ, मिअर,
मिअम
२६०
२६१
२५६
रायकेर
२५७
रायण्णो
२५६
रोचिरो
२५६ लज्जालु
२५७
२५९
२६२
२६०
२६०
२५६
२५७
२५६
२६१
२५५
२६१
२५५
२५७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट ७
लज्जालुआ २६७ लजिरो २६५ विउल, विउलअर,
विउलअम २६२ विउस, विउसअर,
विउसअम २६२ विज्जुला, विज्जू २६० वियारुल्लो २५७ वुडढ, जायस, जेट्ट २६२
सणि २६० सद्दालो
. २५७ सयहुत्तं
२९६ सव्वत्तो, सव्वदो,
सव्वओ २५७ सव्वंगिओ सव्वया सहस्सहुत्तं २५६ सिरिमंतो २६७
सोहामणो सोहिल्लो २५७ हणुमंतो २९७ हत्थुल्लो, हत्थो २६८ हलु, हलुअर,
हलुअम २६१ हसिरो २५६ हिअयअं, हिअयं २५८ हेडिल्लं, हेडिल्ली २६६ .
परिशिष्ट ७ यङन्त, यङ्लुगन्त और नामधातु प्रयोगानुक्रमणिका अच्छारए,
चंकमा ३१२ मेहाअइ, मेहाइ ३१४ अच्छाराआए ३१३ चंकमणं ३१२ रायाअए, रायाए ३१४ अत्याअइ, अत्थाइ ३१३ चवलाअइ, चवलाइ ३१४ लालप्पइ, लालप्पए ३१२ अमराअइ, अमराइ ३१३ जसकामाअई.
लोहिआअइ, अलसाअइ, अलसाइ३१३
जसकामाइ ३१४
लोहिआए ३१३ असनाअइ, असनाइ ३१४ जाजाअइ, जाजाअए३१२
वरीवञ्चइ, वरीवच्चए ३१२ अस्साअइ, अस्साइ ३१३
तगुआअइ, तणुआइ३१३
तमाअइ, तमाइ ३१३ उअआअइ, उअआइ३१३
वाआअइ, वाआइ ३१४ थरथरेइ उम्मणाअए,
वास्फाअइ,वाफ्फाइ३१४
३१३ उम्मणाए ३१३ दमदमाअइ, दमदमा३३१३ वराअइ, वेराइ ३१४ ऊम्हाअइ, उम्हाइ ३१३
दुम्माअइ, दुम्माइ ३१४ सद्दाअइ, सदाइ ३१३ कट्टाअए, कट्टाए ३१३ धणाअइ, धणाइ ३१३
सपन्नाअइ,सपन्नाइ ३१३ करुणाअइ, करुणाई ३१४ धूमाअइ, धूमाइ ३१३ सासकइ, सासकए ३१२ कलहाअइ, कलहाइ ३१४ नमाअइ, नमाइ ३१४ सीदलाअइ,सीदलाइ३१३ कुरुकुराअइ,कुरुकुराइ३१४ पुत्तकामाअइ, सुहाअइ, सुहाइ ३१३ खीराअइ, खीराइ ३१४ पुत्तकामाइ ३१४ ।। संझाअइ, संझाइ ३१३ गव्वाअइ, गब्वाइ ३१३ पुत्तीअइ, पुत्तीइ ३१३ हरिआअइ, हरीअइ ३१४ गुरुआअइ, गुरुआइ ३१३ पेवीअइ, पेवीअए ३१२ हंसाअए, हंसाए ३१३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अक्खायं
३२२
अच्चासादेत्तर
३२४
अट्टिअन्नं, अट्टणिज्जं ३३१
आकुटुं
आणत्तं
आयाए
आयाय
आद्दारित्तए,
आहारेत्तए ३२४
gora, इच्छणि
उववजित्तए,
३२२
३२२
३२७
३२८
कड
कप्ता
कम्मरो
उववज्जेत्तए ३२४
३२१
३३३
३३३
३२१
३२१
कयं
करविअं
करावमाणो,
३३१
करावेमाणो ३१८
कराविअ, करावेअ ३२६
कराविउ ३२३, ३२६
कराविऊण,
कराविणं ३२६
करावितं
३२१
कराविद
३२१
करावितु, कराविदु ३२३ कस विस्समाणो ३२३
परिशिष्ट = कृदन्तप्रयोगानुक्रमणिका
करावि संतो
करावंत, करावेंतो ३१८
३.२०
३२०
३२७
करिओ
करितो
करिता, करेत्ता
३२.३ कारिदं, कारंतो,
किच्चं
कुज्भिअव्वं,
करिताण, करित्ताणं,
करेत्ताण, करेत्ताणं ३२७
करिदो
करिसई
करिस्तो
करिस्माणो
३२०
३२३
३२३
३२३
३२४
करेत्तए, करित्तए
कद्दित्ता,
कत्ता ३२७
काउआण, काउआणं ३२७
काउं
३२७
काऊणं •
३२७
कायव्वं, करणिज्जं ३२९
कारमाणो, कारेमाणो ३१८
कारि
३२१
- कारिअ, कारे
३२६
कारि
३२१
कारिउआण, कारिउभणं,
कारे उभाणं,
कारि, कारे
कारेउआण_३२६
३२४,
३२६ कारिऊण कारेजणं ३ २६
कुज्झणिज्जं
३३०
कुणिअव्वं, कुणणि ३२९ कुप्पि अव्वं, कुप्पणिज्जं ३३१
कुंभआरो
३३३
खिज्जिअव्वं,
कारें तो
खिज्ज णिज्जं
खुभिव्यं
गत्ता, गच्चा
गमिओ
गमित्तो
गमिदो
गयं
गमित्तए
गमित्ता, गमेत्ता
गमित्ताणं ....
गमेत्ताणं
भणिज्जं
गुज्
गेज्जं
गहाय
गिलाणं, गिलानं
घ
घेत्तव्वं
३२१
३१८
३३२
३३०
३३०
३२८
३२०
३२४
३२७
३२७
३२०
३२०
३२१
३२७
३२२
३३२
३२२
३२२
३३१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
३२०
तुरितं
३२० ३२०
५१८
परिशिष्ट ८ घेत्तआण, घेत्तआणं ३२७ ढुंटुलिअव्वं ३३० नायओ, नायगो ३३३ घेरण, घेत्तूणं - ३२७ तत्तं
३२१ निहियं ३२२ चलिओ
तरिअन्वं, तरणिज्ज ३३० नेआ, नेता ३३३ चलितो
तोरिअव्वं,तीरणिज्जं३३० पच्चं चलिदो ३२० तुरिअ, तुरेअ ३२७ पडिअव्वं,पडणिज्ज ३३१ चंकमिअ. चंकमेअ ३२६
तुरि
३२० पढिओ ३२० चंकमि तुरिउआण.
पढितो
३२० चकमिउं, चंकमेउं ३२४ तुरेउआणं ३२८ पढिदो ३०२ चंकामउआण...... तुरिलं, तुरेउं ३२७ पणटुं
३२२ चकमेउआणं ३२७ तुरिऊण, तुरेऊणं ३२७ पण्णत्तं ३२२ चंकमिऊण......
पन्नत्तं
३२२ चंकमेऊणं ३२७ तुरिदं
पन्नवियं ३२२ चंकमितं ३२० थक्किअव्वं,थक्कणिज्ज३२९
परूविरं ३२२ चंकमिदं ३२० थगंधयो ३३३
परंतवो ३३३ चिट्ठअव्वं, चिट्ठणिज ३२९ थुणिअव्वं,थुणणिज ३२९
पव्वइत्तए,पव्वएत्तए३२४ छजिअव्वं,छजणिज ३३० दटव्वं ३३१ पायओ, पायगो ३३३ छिविअव्वं,छिविणिज३३०
दठुआण,टुआणं ३२८ पासित्तए, पासे त्तए ३२४ छेत्ता
३३३
दण, दहणं ३२८ पिजिभव्वं, जग्गिअव्वं,जग्गणिज३३०
पिज्जणिज ३२९ ३३२
दलइत्तए, दलएत्तए ३२४ पिहियं ३२२ जाणिअव्वं, देक्खिअव्वं,
पुणिअन्वं,पुणणिजं ३२९ __ जाणणिज्जं ३२९ देखणिज्ज ३३० पूसिअव्वं, पूसणिज ३३०
३३२ देज ३३२ पेजं
३३२ ___ धरिअव्वं, धरणिज्ज ३२९ फासिअव्वं, जायं
३२२ थुणिअन्वं,
फासणिज ३३० जिअं
थुणिज्ज ३२९ बन्दिअव्वं,बन्दणिज३३१ जीहिअव्वं, नञ्चा, णच्चा ३२८
बुकिअव्वं,बुक्किणिजं ३३० जीहणिज्नं ३३० नच्चिअब्ब, नञ्चणिज ३३१
बुज्झा ३२८ जुझिअव्वं, नटिअव्वं, नट्टणिज्जं ३३१
बुझिअव्वं, जुज्झणिज्जं ३३१ नविअव्वं, नवणिज्जं३३१
बुज्झणिज ३३१ झातं
३२०
नविरो ३३२ बोलिअव्वं, झादं
३२० नस्सिअन्वं,
बोलणिज्ज ३३० नस्सणिज्ज ३३० भणाविअ, भणावे. ३२६
जज
जन
३२२
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३०
www
महें
३२२
س
वक्त व
३३२
س
m
वज
wwww
कृदन्तप्रयोगानुक्रमणिका
५१६ भोच्चा ३२८ लसितं
३२० भोत्तुआण,
लसिदं
३२० भोत्तुआणं ३२८ लद्धं ३२६ भोत्तं ३२४,३२८ लिम्पिअव्वं, भोत्तूण,भोत्तूणं ३२८ लिम्पणिज मग्गिअव्वं,
लुअं
३२० मग्गणिज
लुतं
३२०
लुदं मडं
३२१ लुणिअव्वं,लुणणिज्ज ३२९ मत्ता, मच्चा ३२८ लुब्भिअब्द, मयं
३२१ लुब्भणिनं ३३० मोत्तव्वं
लेहओ ३३३ मिलाणं, मिलानं ३२२
लोहिअव्वं,लोहिणज३३० मुझिअव्वं,
३३२ मुज्झिणिज ३३१ मुणिअव्वं,
मुणणिज ३२९ वत्ता मेल्लिअव्वं,
वढिअन्वं, मेल्लणिजं ३३० वड्ढणिज मोट्ठाइअव्वं,
विकत्ता मोहायणिज्ज ३३० विजं
३३३ मोत्तुआण,
विण8
३२२ मोत्तुआणं ३२८ । विप्पजहाय ३२८ मोत्तुं ३२४, ३२८ विलिटुं
३२२ मोत्तूण, मोतूणं ३२८ विहरित्तए,विहरेत्तए ३२४ योद्धं, जोद्धं ३२९ वोत्तव्वं ३३१ रुविअव्वं वणिज ३३१ वोत्तुं ३२५, ३२८ रोत्तव्यं ३३१ वोत्तुआण,वोत्तुआणं ३२८ रोत्तुं ३२४, ३२८ । वोत्तूण, वोत्तूणं ३२८ रोत्तुआण, रोत्तुआणं ३२८ वोसिरिअव्वं, रोत्तण, रोत्तणं ३२८ वोसिरणिज्ज ३३१
३२५ वंदित्ता ३२८ लसि
सक्कयं
३२२
३३२
س
भणाविउआण,
भणाविउआणं ३२६ भणाविउ, भगाउं ३२६ भणाविऊण, ___ भणाविऊणं ३२६ भणाविउं ३२३ भणाविजमाणो ३१८ भणाविजंतो ३१८ भणावि, ३२३ भणावीअंतो ३१८ भणिअ, भणेअ ३२६ भणिउआण.......
भणेउआणं ३२६ भणिउं ३२३ भणिउं, भणेउं ३२९ भणिऊण भणेऊणं३२६ भणिजंतं ३१७ भणिजमाणं ३१७ भणितुं, भणेतुं . ३२३ भणिदुं, भणेदुं ३२३ भणीअमाणं ३१७ भणीअंत ३१७ भणे
३२३ भाणिअ, भाणेअ ३२६ भाणिउआण... ____ भाणेउआणं ३२६ भाणिउं, भाणेउं ३२६ भाणिऊण... ____ भाणेऊणं ३२६ भारहरो ३३३ भिन्दिअव्वं ३३१ भुजिअव्वं, जणिज्ज३३० भुलिअव्वं,भुलणिज३३०
س
३३३
eu
eu
रोद्धं
३२०
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२०
सक्किअव्वं, सक्कणिजं ३३०
सज्
३३२
सव्वं, सडणिज्जं ३३१
समहिलोइत्तए,
महिलोएत्तए ३२४
सरिअवं, सरणिजं ३३० सविअव्वं, सवणिज्जं ३२९
३२८
साहट्ट
सिञ्चिअव्वं,
सिञ्चिणिज्जं ३३०
सिज्झित्तए,
सिज्झित्तए ३२४
सिव्विअन्
सिव्वणिज्जं ३३१
सुणिअव्वं, सुणणिज्जं ३२९
सुत्ता
३२८
सुमरिअ,
सुमरणिज्जं ३३०
सुर्यं
३२२
सुस्सू सि, सुस्से ३२६
सुस्सूसि
३२०
सुसूसिउआण..
सुस्से आणं ३२६ सुस्सूसिउं ...
सुस्सूसितुं ३२४,३२६
सुसूसिऊण
सुसेऊणं ३२६
सुस्सूसितं
सुरसूसिद
सोल्लिअन्वं,
संखयं
संस
परिशिष्ट ५
सोलणिज्जं ३३०
३२२
३२७
पेहाए
हन्ता
यं
३.२२
ह
३२१
हक्क अव्वं, हक्कणिज्जं ३३० हणिअव्वं, हणणिज्जं ३२९
३३३
३२२
हरिअन्वं, हरिणिज्जं ३३० हसावणिज्जं,
हसावणीअं ३३१
हसाविअन्वं,
हसावितव्वं
हसि
हसितं
हसि
३२०
३२०
सावि
हसावित्तं
हाविद
हसा विरो
अ, हसेअ
हरिवं
३३१
३२०
३२०
३२०
३२१
३२१
३२१
३३२
३२५
हरिसणिज्जं ३३१
इसिभवं इसिणिज्जं ३३१ हआिण •
हसे आणं ३२५
हसिउं, इसे ३२२, ३२५
हसिऊण हसेऊणं ३२५
हसित्ता, हसेत्ता
३२७
.
हसत्ताण...
हत्त
हसितुं, हसेतुं
सिदु, इसेदुं ३२३
2
हसरा, हसि
हसिरो
३२७
३२२
३३२
हासिउँहासे ३२४
हूतं
हूद
अं
३२.१
हुणिअब्वं, हुणणिज्जं ३२९
३२१
३२१
विअ, वणिज्जं ३२९
हो, हो
३२५
होइउआण......
होउआणं ३२५
हो एउ
हो, होएड होइउं,
३२३
३२५
होइऊण, होएऊणं ३२५
हो, होप
३२३
हंता
३२८
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
س
भोदूण
س
س
३८४
س
س
परिशिष्ट ९
शौरसेनीशब्दानुक्रमणिका अच्चरिअं ३८७ गच्छिदूण ३९२ भो तवस्सि ३८४ अन्दे-उरं ३८३ गिद्धो ३८६ भोत्ता
३९२ अपुरवागदं,
जजो ३८६ भोदि, होदि ३८५ अपुव्वागदं ३८६ जुत्तंणिमं, जुत्तमिमं ३८५
३९२ अपुरवं नाड्यं ३८५ जेव्व
३८७ भो मणस्सि ३८४ अम्महे सुपलि- णं अफलोदया ३८६ भो रायं ३८४ गढिदो भवं ३८५ णं अय्यमिस्सेहि
भो विभयवम्म अय्यउत्तो,अजउत्तो ३८४ पुढमच्चेव आणत्तं ३८६ मन्तिदो अहह अच्चरिअं, णं भवं मे अग्गदो
महन्दो ३८३ ___अच्चरिअं ३८७
चलदि ३८६
मारुदिणा ३८३ इत्थी ता अलं एदिणा
राजपधो, राजपहो ३८४
माणेण ३८५ इध ३८४
विध
३८७ ता जाव पाविसामि ३८५ इंगिअण्णो ३८७
विक्षो
३८६ दाव, ताव ३८३ एदाहिएदाओ ३८३
सवण्णो नाधो, नाहो ३८४ एवंणेदं, एवमेदं ३८५
सरिसंणिमं, निच्चिन्दो
३८३ कजा ३८६
सरिसमिम पय्याकुलो,पन्नाकुलो३८४ कजपरवसो पढिय
सुय्यो, सुजो ३८४
३९१ कडु पढित्ता
सुहिआ ३८४
३९२ कधेदि पढिदूण
हज्जे चदुरिके .
३८५ कधिदं ३८३ परित्तायध
हविय
३८४ कंधं पुडो, पुत्तो
होता
३८६ कर्य, कज्ज बम्हज्जो
होदवं कारिय ____३९२ बावडो ३८६
होदूण किंणेदं, किमेदं ३८५ भविय
३९१ गडुअ ३९२ भो कञ्चुइया. ३८४
हीही भो संपन्ना ३८६.
m
३८७.
३८५
३८४
س
३९२
س
३८३
३९९
३८४
३९२.
३९२. ३८४.
होष
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अक्खातोदो
अजधा
अणगारो
विहि
अणुकूलं
अदिदिओ
अधिक तेजो
अलिअं
आलोओ
आहारया
ओप
ओमकोट्टाए
ओरालिय
उपजदि
उप्पादो
ओगो
सामगे
एग
एग म्हि
एग विगले
एतेण
farmar
३९४
३९५
कध
कम्मविवा
किच्चा
खगे
खीयदि
परिशिष्ट १०
जैनशौरसेनीशब्दानुक्रमणिका
३९६
३९५
एकसमयम्हि ३९५, ३९७
३९५
३९५
३९७
३९५
३९४
३९४
३९६
३९६
३९७
३९५
३९६
३९६
गग्भम्मि
गमिजण
गयं
गहिय
गाहया
चरियम्हि
चिरकालं
जध
जलतरं गचपला
जाणादि, जाणदि,
दि
जादो
जाय दि
३९९
जोगम्मि
३९४ ठिच्चा
ठिदि
तधा
तित्थयरो
तिब्बतसाए
तिहुवणतिलयं
३९७
सिं ३९५
दव्वसहावो
३९५
३९६
३९५
३९६
३९८
३९५
३९९
नरए
नेरइया
परिवज्जिदो
पज्जयट्ठिएण
पडिय
पत्तेयं
३९७ पदिमहिदो
३९८
३९४ ३९८ .
३९६
३९७
३९५
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३९८
३९४
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३९४
३९४
३९८
३९७
३९६
३९६
३९४
३९६
३६५
३९६
पयस्थ
पयास दि
परिणमदि
पेच्छिता
बहुभेया
बहुवं
बालुवा
बिहूव
भणिदो
भणिया
भासदि
भूदो
मणकाि
मदि
मदिणाण
महव्वयं
मुत्तममुत्तं
मुत्तिगदो
रहिया
रहियं
लोयपदीवरा
वह दि
यहि
वाध
विगदरागो
विजा दि
विज्जादि
३९४
३९७ ३९४
३९९
३९८
३९६
३९७
३९७
३९७
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३९४
३९९
३९४
३९५
३९९
३९४
३९.४
३९४
३९४
३९५
३९४
३९६
३९९
३.९६.
३९५
३९३
३९९
३९९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
. मागधोशानुक्रमणिका
३९४ ३९७
३९६
३९८
३९८ ३९४
-वित्तीद चेयणा वियसिदियेसु वियाणित्ता विसहते वेउब्बिओ वेदग, वेदगा सगं सदविसिट्ठो सव्वगयं
सबभूदो सयलं सव्वेसि ससरुवम्मि सागारो सामाइयं खायारं सुयकेवलिमिसिणो सुविदिदो सुहम्मि
सुहयो ३९६ सुहाउ
संजाया ३९७
संजुदो ३९५ संति
संतोसकरं
संपत्ती ३९६ हवदि ३९४, ३९४
३९१ ३९७ होदि, जादि
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३९६
३९६
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३९५ ३९५ ३९७ ३९४
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परिशिष्ट ११ मागधीशब्दानुक्रमणिका एशे पुलिशे
४०३ गुलु एशे मेशे ४०० चिष्ठदि कनकाक्पा
णिज्झले
४०८ ४०८
४०२
c ०
तिरिश्च
४०२ ४०८
क
occcc
४.०८
०
४०२
०
अञ्जली
४०२ अबम्हनं ४०२ अय्य किल विय्याहले
आगदे अय्युणे
४०१ अलले
४०८ आवजा
४०२ अस्तवदी ४०१ अहके हगे ४०८ अहिम कुमाले ४०२ आचस्कदि ४०८ आवन्नवश्वले ४०२ उश्वलदि
४०२ उवस्तिदे एशिलाआ ४०३, ४०८
४०८
४०१
४०८
कय्ये
४०८ दक्के कले
४०० दुय्यणे कस्टं
घणजए कारिदाणि
ध्रनुस्खंड कालु कोस्टागालं ४०१ निस्फलं गश्च .
. पक्खलदि गडे गय्यिदे ---४०१ এলানিয়া गहिदच्छले ४०२ ।। पलिचये गिम्हवाशले ४०१ स्टे
OC OC Cococc
०.
४००
सम्मले
४.०२
४०२. ४०८
४०१
१ ४
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४
- परिशिष्ट १२
४००
शुस्कदालं
शुसुकदं
४०१
४००
शुस्तिदे शोभणं सहिदाणि
४००
४०२
४०८
पुजाह ४०२ यादि
४०२ पुलिशा आगच्छ ४०४ यायदे
४०८ पुलिशे ४०२, ४०८ लस्कशे
४०८ पेरकदि ४०३, ४०८
४०७ बुहस्पदी
वादि ४०८ भस्टालिका
वच्चिदे मय्यं
४०२ विआले ४०० ४०८ वियले ४०८
४०१ विलाशे माणुशा आगच्छ विस्नु
४०१ माशे
४०८ शवने ४०२ मेलू
४०७ शस्तवाहे ४०१ यणवदे
शालशे ४०० याणादि
शिआले, शिालके ४०८ याणं ४०३ शिआले आअच्छदि ४०३
* 911111111111Til
मस्कली
४०३
अहके भणामि ४०३ हके
४०८ हगे न ईदिशाह
कम्माह काली ४०३ हगे 'धीवले ४०३ हडक्के आलले मम ४०३ हशिदु,हशिदि,हशिद ४०८ शे
४०१
४००
४३०
परिशिष्ट १२
अर्धमागधीशब्दानुक्रमणिका अइसएण तुच्छे ४२५ अणुवीति ४१५ अनिल ४१५ अज्जावियं ४२८ अणंतक्खुत्तो
अन्नता
४१३ अज्झोववयण्ण अण्णहा
अन्नयरो ४१४
४२९ ४३० अपरत्तं
४२८ अट्ठमं ४२९ अतित
४११
अप्पणस्सइयं अट्टहा ४३० अतिवात ४१४
अप्पणिच्चियं ४२३ अट्ठारसमं ४२९ अत्त, अप्प ४२०
अप्पाबहुयं, अणादियं ४१३ अत्तत्ते
४१२
__अप्पबहुतं ४२८ अणुकंपणया, अत्तय
अब्भोगमिया ४२६ ___ अणुकंपणत्ता ४२५ अस्थओ, अस्थतो ४३० अभंतरिए, अणुगामिय ४११
अभंतरगो ४२४
४२३
४१२
अEE
४२४
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
afferat
अरिता
अवयारो
अवरिल्लं
अहक्खाय
अहमिट्ठो
अहाजात
अहातच्च
अहिरणिया
अहिगरण
अहित
अहुणा
आउज्जणं,
आवजाणं
आउसन्तो
आगइ
आगति
आगमणं
आगम
आगर
आगामिस्स
आगास
आणिल्लियं
आयरिय
आयारमन्तो
आरनाल
आराहत
आलंकारिए,
अलंकारिए
आवकहा
आसाढी
आसोई, अस्सोई आसोओ, मासो
४२६
४२८
४११
४२४
४१६
४२५
४१६
४२९
४२६
४१०
४१०
४३१
४१७
४२७
४१०
४१२
४११
४११
४१०
४११
४१०
४२४
४१२
४२७
४१५
४१०
४२६
४१६
४२६
४२६
-४२६
अर्धमागधीशब्दानुक्रमणिका
आहत ह
आहारायणियं
आहिक्कं
आहेवच्च
इत्तो
इणि
इयरत्थ
इस्सरियं
इहरा, इयरहा
इंदम इवा
इंदमहेति वा
इंदित
उत्तररूप इमं
उत्तरिल्लं
उपकेंदत्ता
उयरं
उवगूढ
उवणीय
उवयार
उगतं
एक्कसि
graf
४२८
४२६
४२८
४२८
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४१४
४१४
४१२
४२८
४२८
४३०
गन्तसो
४२९
एमओ, एगयतो ४२८
एयरो
४२.९
४१४
४३१
४३१
४३०
४२८
एथं, इत्थं
एवमेव
एहंतो
ओस्सी
ओवम्म
अंतरित
४३०
४१६
४१६
४१५
४२३
४२४
गागी
४२५
गाणये एकाणिये ४२५
४३०
४१५
४१७
४२८
४२८
४१२
अंधत्तणं
अत्तणं
कताती
कति
कतारे,
कत्तिया
कत्तो
कत्थ
कमसो
कम्म
कम्मणं
कम्मत्तो
कत्थो
कयरो
कयाती
कत्तारो
करयल
करेति
कलुणो
कविल सइयं
काइयं
कामज्या
कायसा
का
किण्णा
किमो
कूणित
केवचिरं
कोडंबित
कोलुपणं
कोसस्स इ
कुंभगो
कोलस इमं
खिप्पामेव
खुहा
५३५
४२८
४२८
४१३
४१५
४१९
४२६
४३१
४३१
४२९
४१८
४२४
४३०
४१३
४२९
४११
४१३
४१३
४२७
४२३
४११
४१२
४१८
४३१
४३०
४२७
४११
४३१
४११
४२९
४२३
४२९
४२३
४१५
४१७
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२६
गवसत्ता
गहं
गासति
गायइ
गारव
गोउरं, गोपुरं
मंठिल्लो
घरं, हरं, गि
चउत्थं
चउप्पय
चक्खूसं
चिरातीत
चेतो
चोरस्य वावारो
छट्टै
जभो, जतो
जो
जडुलो, जडियालो, जडिलो
जणवद
जता
जति
जसवन्तो
जसस्सी
जहा
जहाणामए
जहातह
जह
जाए
जाति
४२५
४१६
४१४
४१४
४१५
४१७
४२७
४१६
४२९
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४१३
४२६
४२३
४२९
४३१
४२७
४२७
४१३
४१३
४१३
४२७
४२८
४३०
४१३
४२८
जातिमन्तो ४२७
जामेव
४१५
जायमेत्तं जायमित्तं ४२४
जावज्जीव
जितिंदिय
जुब्बणं
जेट्ठामूला
जोगसा
जोवणगं, जोवणं,
जोव्वणं
ठाfa
गिणो, निगिणो
दति
णाइवं
णातग
णारात
नियडिल्लया
णिसेवग
याइओ,
सज्जि
तए
तणुलो
तते
परिशिष्ट १२
तथा
तवय
तहा
तह
तामेव
याओ
तालउड, तालपु
४३०
तिक्खुत्तो
४३१
तिसूलिओ
४१२ तीयत्तणं
तुन्दिलो
तेस्सी
यहि
४२६
४१२
४२९
४२६
४१८
४२९
४१४
४२८
४१३
४२७
४१४
४११
४२४
४१०
४२६
४१०
४३१
४२७
४१३
४३०
४१४
४३०
४३०
४१५
४१७
४३०
४२७
४२८
४२७
४२८
४२६
तेलोक
तेलिओ
थेजं
दण्डिय
दयालू
दहग्गं
दिय ं, दिसं
दिव, दिसं
दुक्खणत्ता,
दुक्खणया
दुइओ, दुहतो
दोच्चं
दोसिणो
हं, धणुक्खं,
धणुं
नमसति
नरतातो
नायपुत्त
निरय
निसात
निसी हिगा,
४१७
धम्म
४१८
धम्मतो, धम्मओ ४३०
धम्मिट्ठो
४२५
वेज्जं
४२५
धेवत
४१२
नई
४१५
नती
४१३
४१२
४११
४.१५
४१४
४१३
निसीहिया
४२८
४२६
४२५
४२६
नेर तित
पगप्प
प्रगामतो
पगामसो
४२८
४२८
४१६
४१६
४२५
४३०
४२९
४२७
४२५
४११, ४१५
४१०
४३१
४२९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५२७
पूना
४१२ ४२५
س
पदिसो
م
मुंडिणो
४२८ रययमयं
४२९ राइण्णं, रायण्णं ४२४ रातीसर
४१२ रुहिरं लज्जू
४२८ लिप्पणत्ता,लिप्पणया४२५ लोणत्ता, लोणया ४२५ लोगे
४१० लोभत्ता, लोभया ४२५ लोय ४११, ४१२ वईमयं ४२९ वओमयं
४२९ वड्ढति ४११ वण्णवं
४२७ वणियस्स वावारो ४२३
س
४२६
पम्हलो
ه
४२९
४२३
ع
अर्धमागधीशब्दानुक्रमणिका पगार
४१० पुरच्छिमं, पुरस्थिमं ४२४ पज्जुवासति ४१२ पुरतो
४१२ पण्डवस्स अवञ्चाणि ४२३ पुवामेव ४१५ पडिच्छायण ४१३ . पडिहारीएइयं ४२४५. पेज पत्तलो ४२७ पोवती
४१३ पोतुलओ ४२४ पन्ना
४१६ पोसी पभिति ४१३ फरगुणी
४२० फलिहमयं पयातीणं
बच्चस्सी ३२८ पयाये
४१२ बद्धल्लगो ४२४ परितात
४१४ बरहिणो ४२७ परिताल ४१५ बहिम, बहिरं . ४२६ परियट्टण,परियट्टणा ४१५ बहुतराए परियागो, परिआगो, बहुसो
४२९ पज्जायो
बुहो
४१७ पसत्यारे
भगवं ४११, ४२७ पसत्यारो
भत्तारे, भत्तारो ४१९ पहुत्तणं ४२८ भवति
४१५ पात
भाण्डारिए ४२४ पादीणं
४२६ मगसिरा ४२६ पारितोसियं ४२६ मज्झम, मज्झिम, पालतिस्संति ११४ मझिल्लं ४२६ पावग
४१४ मणसा
४१८ पावतण ४११ माइल्लो ४२७ पासङ्गित्यं ४२६ ममाई, ममाइए ४२४ पासणिए ४२६ माडंबित पासिलओ
माही पाहेज
४२६ मिलेक्खू, मिलक्ख, पिट्टणत्ता, पिट्टणया ४२५ मिलुक्खू ४१६ पिट्ठओ, पिट्टत्तो ४३०
मुकल्लगो ४२४. पिय
मुसावत
cc
वति
वतिर वदमाण वयसा ववरोपित वातित वायव
४१२ ४१३ ४१८ ४१४ ४१३
४१३
४१५
वायणा
४११
४१५
विन्नु विवजग
४११
४१० ४२६ ४१० ४१२ ४२७
विसाही विसुद्धित विहरति वीहमन्तो वीरासणित वीसहम वुसिमन्तो
४२६
४१० ४२९
४२७
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२८
वेदिहिती
वेयावच्च Parasi
सालीए समूहो
दति
सइयं
समूह
चक्खुण
सतत
सत्तमं
४१३
४२९
४२९
४२३
४१२
४२६
आलोचिऊण
उन्नाओ ति
उवत्रन्नो
उवासगो
कउं
कन्नयाए
कहो
कहमन्नया
कहाण
कायमणी
कायसा
किच्चा
गया
४२३
४११
४१२
४२८
अन्नवि
४४२
अन्ना
४४२
अलद्दनिद्दा ४४२
आगरसो
आगारो
४४१
४४१
४४३
४४२
४४२
४४१
४४३
४४२
४४२
४४३
परिशिष्ट १२
४४३
४४२
सन्वन्नु
सव्वद्दा
सहस्त
साउण
साति
सामग्गियं
सामातित
सायर
सावग
नियमो सिहि
नुवन्ना एसा
नुवन्नो
४४२
४४२
नूणमेसा
४४१ पडिवन्ना
पावई
४१०, ४१४
४११
४१०
दुगुल्लं नामयमे एसि
नियट्ठीए
४१५
४३०
४३०
४१०
४१४
४२८
भगवया
भणियं
भत्तिनिब्भरा
परिशिष्ट १३
जैन महाराष्ट्रीशब्दानुक्रमणिका
गेदु अं
चविण
चेयणा
निगरं
तित्थगरो
४४१
४४३
४४२
४४१
४४१
४४१
४४२
४४२
४४२
४४२
४४२
४४२
४४२
४४२
साविट्टी
साइल्लं
सिता
सीमंतत
४४१
४४२
४४२
४१४
४११
सीलत्ता, सील्या ४२५
सोग मल्लं
सोवयार
सोहगं
संघाडणी
संलवति
मणसा
मयणो
महारायस्स
मो
रययं
लायं
लोगो
वयसा
वावउं
४२६
४२९
विवाहजन्नो
विसायं
वंदित
समुप्पन्ना
सावग
सोचा
संव
४२९
४१४
४२८
४२८
४१३, ४१७
४४३
४४२
४४२
४४३
४४२
४४२
४४१
४४३
४४३
४४२
४४२
४४३
४४२
४४१
४४३
४४३
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४६
४४५
अम्मातिसो अभिमत इम इंगार
४४८
४४७
४४६
४५१
कजा कमळ करणीय
४५०
४५१ ४४६
४४७ ४४६,४५०
कसट
४४५
कुटुंबक केसवो
४५०,
परिशिष्ट १४ पैशाचीशब्दानुक्रमणिका दाजून ४५० राया
४४७ रेफ नस्थून
४५० लोक नधून
४६०
वटिस नेन कतसिनानेन ४४७ ..विजातो
४४५
विज्ञानं पठितून
विसमो पतिभास ४४७
'विसानो पव्वती
सतनं पिच
४५० सनानं
४४५ सनेहो पूजितो च नाए ४४७ सपथ भगवती
सव्वजो ४४६
सरफसं भट
४४७
सलफो भवातिसो .
सलिलं भारिआ
४५०
ससी भारिया ४४६
साखा मठ
४४७
सिनातं मतनपरवसो ४४५. सुजो माथवो
४५० सोभति मेखो
४४४ सोभनं यातिसो ४४६ संगामो युम्हातिसो
४४६
हितअकं रज्जो धनं
हितपक राचा -४४६
गकनं
- c c
. oc c ococccccccccccccccccccc coc 2 oc cococcccc .ccccc ccc
४४४
occccccc
गन्तून गरुड गुनेन गोविन्तो घेत्तूनं णिच्छरो
४५० ४४७
४४६
४४६ ४५० ४५१ ४४५ ४५०
ur ur 9 09
तत्थून
तधून
तलुनी
४५० ४९० ४४६
४४६
४५०
तातिसो तामोतरो दसवतनो दसवत्तनो
४४६
४४५
४४५ ४५०
४५१ ४४६ . ४४६
होतु
३५
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
एकातस
काढ
गती
गोली
घनो
चलन
चलनग्ग
चीमूतो
छलो
जनो
जीमूतो
झलरी
मलुको
ठक्का
डमरुको
४५३
४५२
४५३
४५२
४५३
४५२
४५३
४५२
४५२
४५३
४५३
४५३
४५२
४५२
४५३
परिशिष्ट १५
चूलिका पैशाची शब्दानुक्रमणिका
तटाकं
४५२
तनुधलं
४५३
तामोतलो
थाला
धम्मो
नको
नखतप
नमथ
नियोजितं
पनमथ
पातुक्खेवेन
पाटपो
पालो
फकवती
फवति
फते
४५२
४५३
४५३
४५२
४५३
४५३
४५३
४५३
४५३
४५३
४५३
४५३
४५३
४५३
फत्रो
फोइय्य
फोति
मनो
मतनो
मधुलो
मेखो
लफसो
लाचा
लामो
लुद
लंफा
वखो
वसुथा
हलं
४५३
४५३
४५३
४५२
४५२
४५३
४५२
४५३
४.२
४५२
४५२
४५३
४५२
४५३
४५२
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
अग्गि
अग्गिएं
अग्गणं
अच्चंत
अज्जु
अन्न
अलसी
अवक
अवरोप्परं
अहवइ
अहं
आय
आय
आयेण
आयहो
आहर, जाहर
इकसि
अवस
४७५
अहर
४५७
अरि, पहुच नाहु ४७९
हु
इत्थी
उट्ठवइस
उठ
इति घोडा
इच्छ
४६°,
refe
एत
४६१ एम्ब, एम्बइ
एम्ब
एरिस
४६३
४६३
४६०
४६४
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४५५
४७६
४७५
४७१
४७२
४६६
४६६
४६६
४७५
४७५
४७८
४५९
४७५
४५६
४६३
४६६
४६५
परिशिष्ट १६
अपभ्रंशशब्दानुक्रमणिका
४७५
एह
एद कुमारी
एहोनरु
ओइ
अंगुलिउ
अंसु
क
कउक्ख
कच्चु
कड्ढउं
कमलई
कम्हार
करहिं
लिहि
कवड
कवलु
कहां
कहेकर उ
४७५
४७५
४५६
४७१
४६५
४६६
४६६
४६४
४५७
४७२, ४७४
४५९
४५५
४७८
४५७
४६४
४५६
४७८
४६३
४५८
४५८
४६५
४६५
का
४७३
काई न पूरे देखइ ४६६
४५५
काच्चु
कासु
४६५
किं गजहि खलमेह ४६६
fear
४५५
किय
किर
किलिनो
किविण
क्रिह,
किहे
कील
केत्थु
कुडुल
खप्पर
खवण
किध
४५८
४६०
४६०
४७८
४५८
४५६
४५८
४५५
गयकुम्भई दारन्तु ४६३
४८०
खार
खिज्जइ
खुडिय
ड
खेलइ
गउरी
गयं
गिम्भी
गिरिसिंगहूं
गिरिहे
गुण
गेह
गोरी
गंठिपाल
४८०
४७५
४५५
४५६
४७५
४६५
४५९
४७५
४७७
चउमुहु
चलण
४५९
४६२
४६३
४६४
४५५
४५५
४५८
४६१
४५९
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५३२
परिशिष्ट १६
छुडु
४७५
४६५
४५६ ४५८
४६६
जहि
w
जा
४७३
जिगु
४६१
चुडुल्लउ ४७७
धणहे ४६९ तरह -- - - ४६३ धुअ, धुआ ४५७ छण ४६९ तलि धल्लइ ४६२ ध्रुव
४७६ ४६१ तलाउ
४५९ नउ,नाइ, नावइ, नं ४७६ तसु ४६२
४६२ ४७३ तहि ४६५ नाहि
४७६ जइकेवइ पावीसु पिउ४५८ तहेकेरउ ४६५ नियल
४५९ जमुना
४६९ ताउं, ताम, तामहि ४७६ निसिआ खग्ग ४५६ जहां, होन्तउ, तासु
निहित ४५९ आगरो ४६५ ___ताहं पराई कवण नेउर ४५९ घृण
नोक्खि ४६५ तिणु ४५५ पहि
४५६ जो केरउ ४६५ तिव
४५८ पउर
४५५ तुच्छउं ४५६, ४६४ पच्चा लिउ ४७६ जार १६५ तुम ४७१ पच्छ
४७६ तेत्थु, तत्तु, तेहि ४७६ पट्टि
४५५ ४५८ तेम,तेम्ब,तिम,तिम्ब४७६ पडाय
४५८ ४६१ तो ४७६ पडिउ
४५८ जेत्यु, जत्तु
तोसिअ-संकस ४६१ पडिवत्त ४५६ जेम, जिम, जिम्ब, थोर
४४६ पढ गृण्हेप्पिणु तु ४७९ जेम्ब ४७९
दइअ ४५५
४५९ जो ४६१, दहमुहु ४६१
४७६ जोइसिउ ४५९
४५७ पवसन्ते ४६२ ४५५ ४७६ पहुलु
४५७ झिजद
४५९
दीव ४५८,४६० पाडिक,पाडिएक ४७६ उहह ४५८ दीहर
४६० पाव
४५८ डुक्कर ४५८ दुल्लहहो
पाहाव
४५९ डोलइ
पिअमाणुसढोला सामलो
४५६ विच्छोहगरु ४५७ तड ४५७ देव ४५६ पिट्टि
४१५ तणहं देवेण
पिउ
४६० तणु ४५६ ४६७ पोलिय
४५९ तरुणहो, तरुणिहो ४६३
४६९
४७५
पयट्ट
४७२
पर
दिहि
जॉव्वण
दिवे
४६२
४५८
४५६
४६२
दसण
घण
४५६
पेम्म
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अपभ्रंशशब्दानुक्रमणिका
५३३
४६७
यादि रण रत्त
४६१
४५६
पुणु पुरिस पेम्म पोत्थय पोप्फल फारेसु
४७६ ४५६ ४५६ ४६० ४५६
४५५, ४६१
४५५
रिसहो रीछ रुअहि लक्खेहि लहहि
४५८
४५५ ४७८
occccccc
फंस
४५७
४६०
लिह,लीह
सव्व
फंसह
४६८ बलुल्लडा
४६४ बीस . ४५७ ब्रुवह सुहासिउ किंपि४७९ बे दोसडा ४७७ बेल्ल
४५६ ४६९
४६४ भवरु भविसत्तकहा भारथ
४५८
बेल्लि
भग्गउं
जह
४७९ वेल्लि
४७४ समणिहं सबथु
४६७ सभलउ
४५७ समाएँ
४७६ समासण
४६० सर
४६९ सलहइ सवत्ति
४७१ सव्वत्तहे ४७६ सव्वु वि लोड ४६६ सव्वंगाउ ४६४ ससि छोल्लिजन्तु ४७९ सहहि
४७८ संपज्जा
४७८ सा
४७३ साहा
४५७ सीय
४५६ सीह
४५७ सुअणस्सु ४६२ सुधिचिन्तिजइमाणु ४५७ सुमरि
४७८ सुवण्णरेह ४५६
४६१,४७२ सोलस
४९९ ४६१
४५६ हिअइ खुडुक्का ४७९ हिअडर्ड
४७७ होसह
४७८
४५९
मउड मग्गेहि तिहिं मझहे
वच्छहु गिण्हइ ४६२ वच्छहे गिण्हह
४६२ वयंसिअहु वसथि
४५८ वहिल्ल ४७६ वामोह ४५९ वालइवग्ग वोवारउ वासेण वि भारहर
खम्भि बद्ध ४६१ ब्रासुमहारिसि एउं
भणइ ४६१ विच्छ
४५९ विज्जुलिया
४५९
४५६ विणु
४७६ वियउढ
४५८ विलासिणीओ ४६४ विहूण
४५८
मढ
मणाउं महिहि
सो
occccccccccc
.
.m mm
विट्टीए
हर
मिच्छत्त मुण मुत्ताहल मोगर मोल्ल
वीढ़ ..
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