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अभिनव प्राकृत-व्याकरण (६ ) अपभ्रंश में एक स्वर के स्थान पर प्रायः दूसरा स्वर हो जाता है। यथा
अ = इ किविण< कृपण। अ%D 3 मुणइ< मनुते । अ=ए वेल्लि र वल्ली।
सीय< सीता। आउ उल्लर आई। आए देइ<दा, लेइला , मेत्त<मात्र ।
पडिवत्त र प्रतिपत्ति । बेल्ल < बिल्व, एत्था< इत्थु ।
हरडइ< हरीतिकी। ई = आ कम्हार< काश्मीर ।
विहूण< विहीन । एरिसद ईदृश । वेगर वीणा। खेड्डअर क्रीडा। मउड< मुकुट; बाह < बाहु; सउमार< सुकुमार ।
पुरिस< पुरुष। उ=ओ'
मोगर < मुद्गर,पोत्थयार पुस्तक; को तत र कुन्त। ऊ = ए नेउर <नूपुर । ऊ = ओ मोल्ल < मूल्य । ऊ = ओ थोर< स्थूल; तांबोल ताम्बूल ।
एइ, ई, ए लिह, लोह, लेह र लेखा । (७) अपभ्रंश में स्वादि विभक्तियों के आने पर प्रायः कभी तो प्रतिपादिक के अन्त्य स्वर का दीर्घ और कभी हस्व हो जाता है । यथा
ढोला सामला < विट श्यामल:-विट में रहनेवाले अ को ढोला में दीर्घ कर दिया है । सामला में भी ल को दीर्घ हुआ है।
धण<धन्या-दीर्घ को हस्व हुआ है। सुवण्णरेह < सुवर्ण रेखा- दीर्घ को हस्व हुआ है। विट्टीए ८ पुत्रि-स्त्रीलिङ्ग में ह्रस्व का दीर्घ हुआ है। पइट्टि ८ प्रविष्टा-स्त्रीलिंग में दीर्घ का हस्व हुआ है। निलिआ खग्गदनिशिता खड्गा , ,
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१. स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रशे ८।४।३२६ हे० । २. स्यादौ दीर्घ-हस्वौ ८।४।३३० ।