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अभिनव प्राकृत-व्याकरणे
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) अनुस्वारयुक्त हस्व स्वर के आगे र श ष स और ह हो तो हस्व को दीर्घ और अनुस्वार का लोप हो जाता है । यथा
बीस विंशतिः सह सिंह ।
( ९ ) अपभ्रंश में छन्द के कारण हस्व को दीर्घ और दीर्घ को हस्व हो जाता है । कई स्थानों पर हस्व को दीर्घ न करके अनुस्वार कर देते हैं ।
दंसण दर्शन | फंस स्पर्श
अंसु अश्रु ।
व्यञ्जनविकार
सामान्यतः शब्द के आदि व्यञ्जन में विकार नहीं होता । पर ऐसे भी कुछ अपवाद हैं जिनमें आदि व्यञ्जन में परिवर्तन पाया जाता है । यथा
दिदिति - यहां शब्द के आदि ध के स्थान पर द हो गया
है 1
अ या धुआ दुहिता - शब्द के आदि व्यञ्जन ध के स्थान पर द हुआ है । यादि जाति - शब्द के आदि में ज के स्थान पर अपभ्रंश में य होता है ।
( १० ) अपभ्रंश में पद के आदि में वर्तमान किन्तु स्वर से पर में आनेवाले और असंयुक्त क, ख, त, थ, प और फ- वर्णों के स्थान में प्राय: ग, घ, द, ध, ब और भ होते हैं। यथा
पिमाणुसविच्छाहरु <प्रियमनुष्य विक्षोभकरम् —क के स्थान पर ग । चितिज माणुसुखं चिन्त्यते मान: - - ख के स्थान पर घ । कधिदु कथितम्-थ के स्थान पर ध और त के स्थान पर द । सबधु शपथम् प के स्थान पर ब और थ के स्थान पर ध ।
सभलउ << सफलम् —फ के स्थान पर भ ।
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फ
( ११ ) कुछ शब्दों में अपभ्रंश में दो स्वरों के बीच में स्थित ख, घ, थ, ध, और भको छ होता है । यथा
साहादशाखा - तालव्य श के स्थान पर स और ख को ह ।
पहुल पृथुल – पकारोत्तर ऋ को अकार और थ के स्थान पर ह ।
अहर अधर-ध के स्थान पर ह ।
मुत्ताहल मुक्ताफल — संयुक्त क् का लोप, तू को द्विस्त्र और फ को छ ।
( १२ ) अपभ्रंश में प्राकृत के समान ट के स्थान पर ड, ढ के स्थान पर ठ और
प
के स्थान पर व होता है । यथा
१. श्रनादौ स्वरादसंयुक्तानां क खत-थ-प-फां ग घ द-ध-ब-भाः ८| ४ | ३६६ ।