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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
एग + इंदिय = एगिंदिय (एकेन्द्रिय:) सोअ + इंदिय = सोइंदिय ( श्रोत्रेन्द्रियम् ) घाण + इंदिय = घाणिदिय ( घ्राणेन्द्रियम् ) जिभ + इंदिय = जिभिदिय ( जिह्न े न्द्रियम् ) फास + इंदिय = फासिंदिय ( स्पर्शनेन्द्रियम् ) तद्दिअस + इंदु = तद्दिअसिंदु ( तद्दिवसेन्दुः ) राअ + ईसर = राईसर ( राजेश्वरः ) कण्ण + उप्पल = कण्णुप्पल ( कर्णोत्पलम् ) णील + उप्पल = णीलुप्पल ( नीलोत्पलम् )
ह + उप्पल = णहुप्पल ( नखोत्पलम् )
रयण + उज्जल = रयणुज्जल ( रलोज्ज्वलम् ) पव्वद + उम्मूलिदं = पव्त्रदुम्मूलिदं ( पर्वतोन्मूलितम् ) कअ + ऊसासा = कऊसासा ( कृतोच्छ्वास: )
गमण + ऊसुअ = गमणूसुअ ( गमनोत्सुकः ) एग + ऊ = एगूण ( एकोन: )
= भागूण ( भागोनः )
पंच + ऊ = पंचूण (पञ्चोन: ) भाग + ऊ महा + ऊ वसंत + ऊसव = वसंतूसव ( वसन्तोत्सवः ) देव + इड्ढि = देविड्ढि ( देवद्धिः )
= महूसव ( महोत्सव : )
उत्तम + इड्ढि = उत्तमिड्ढि (उमर्दि : )
महा + इड्ढिय = महिड्ढिय ( महर्द्धितः ) विसेस + उवओगो = विसेसुवओगो ( विशेषोपयोगः )
व्यंजन सन्धि
प्राकृत में व्यंजन सन्धि का विस्तृत प्रयोग नहीं मिलता है; यत: प्राय: अन्तिम हलन्त व्यञ्जनका लोप हो जाता है । व्यञ्जन का विकारमात्र अनुनासिक वर्णों में ही उपलब्ध होता है । इस सन्धि का प्रमुख नियमों सहित विवेचन किया जाता है ।
( १ ) अ के बाद आये हुए संस्कृत विसर्ग के स्थान में उस पूर्व "अ" के साथ ओ हो जाता है' । यथा—
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१. तो डो विसर्गस्य ८ । १।३७ संस्कृतलक्षणोत्पन्नस्यातः परस्य विसर्गस्य स्थाने डो इत्यादेशो भवति । हे० ।