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छठवाँ अध्याय
सुवन्त या शब्दरूप प्रकरण भाषा का आधार वाक्य है और वाक्य का आधार शब्द। शब्दों की रचना वर्णो के मेल से होती है। ___ जो कान से सुनायी पड़ता है, वह शब्द है। एक या एक से अधिक अक्षरों के योग से बनी हुई स्वतन्त्र सार्थक ध्वनि को शब्द कहते हैं । जैसे-'देवा पितं नमसंति' वाक्य में देवा, पि---अपि, तं और नमसंति शब्द हैं। शब्द दो प्रकार के होते हैंसार्थक और निरर्थक । सार्थक शब्द की पदसंज्ञा होती है । व्याकरणशास्त्र में सार्थक शब्द का ही विवेचन किया जाता है । पद—सार्थक शब्द मूलतः दो प्रकार के हैं-संज्ञा और क्रिया।
प्राकृत में रूपान्तर के अनुसार पदों के दो भेद हैं-विकारी और अविकारी । जिस सार्थक शब्द के रूप में विभक्ति या प्रत्यय जोड़ने से विकार या परिवर्तन होता है, उसे विकारी कहते हैं। यथा-देवो, देवा, पढइ, पढन्ति आदि । विकारी-परिवर्तनशील सार्थक शब्दों के संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया और विशेषण ये चार मूल भेद हैं। अविकारी पद अव्यय कहलाते हैं।
प्राचीन वैयाकरणों ने नाम, आख्यात और अव्यय ये तीन ही प्रकार के शब्द माने हैं। सर्वनाम, संख्यावाचक और विशेषण भी नाम के अन्तर्गत हैं। नाम को प्रातिपदिक कहा गया है। प्रातिपदिकों के साथ सुप् प्रत्यय लगाने से संज्ञा पद बनते हैं। प्रत्येक संज्ञा के पुल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग ये तीन लिङ्ग होते हैं।
प्राकृत भाषा में संस्कृत के समान लिंगभेद स्वाभाविक स्थिति पर निर्भर नहीं है, बल्कि यह लिंगभेद कुन्निम हैं। उदाहरणार्थ स्त्री का अर्थ बतलाने के लिए दारी, भज्जा और कलत्तं-ये तीन शब्द प्रचलित हैं। इनमें दारो पुँल्लिग, भज्जा स्त्रीलिंग और कलत्तं नपुंसकलिंग हैं। इसी प्रकार शरीर का बोध करानेवाले शब्दों में लिंगभेद वर्तमान है। यथा-तणू स्त्रीलिग, देहो पुंल्लिंग और सरीरं नपुंसकलिंग हैं। कई शब्द ऐसे हैं, जिनके रूप एक से अधिक लिंगों में चलते हैं। किन्हीं पुल्लिग शब्दों में प्रत्यय जोड़ने से भी स्त्रीलिंग शब्द बनते हैं और किन्हीं प्रत्ययों के याग से नपुंसक लिंग के शब्द बन जाते हैं। इतना होने पर भी प्राकृत में संस्कृत के समान ही शब्द प्रायः नियतलिङ्गी हैं-शब्दों के लिङ्ग निर्धारित है।