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कृत-व्याकरण
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हरी वइउंठं उववसइ, अहिवसइ, आवसइ वा।
(७) अहिओ (अभितः)—चारों ओर, परिओ (परितः)-सब ओर, सगयासमीप, निकहा (निकषा)-समीप, हा, पडि, धिअ, सवओ और उवरि-उरि शब्दों की जिनमें सन्निकटता पाई जाय उनमें द्वितीया विभक्ति होती है । यथा
अहिओ किसणं, परिओ किसणं, गामं समया, निकहा लंक, हा किसणा मत्तं, परिजणो रायाणं अहिओ चिट्ठइ।
(८) अणु के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। यथा-णई अणुवसिआ सेना, अणुहरिं सुरा, मोहणं अणुगच्छइ हरी।
( १ ) अधिक तथा हीन अर्थ का वाचक होने पर अणु के योग में भी द्वितीया विभक्ति होती है। यथा-अणुहरिं सुरा-देवता हरि से हीन हैं।
( १० ) जब अंगुलि निर्देश करना हो, इत्थंभूत-ये इस प्रकार के हैं--यह बतलाना हो, भाग--यह उनके हिस्से में पड़ा या पड़ता है, यह प्रकट करना हो अथवा पुनरुक्ति दिखलानी हो तो पडि, परि और अणु के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। यथा
(१) वच्छे पडि विज्जुअइ विज्जु-वृक्ष पर विजली चमकती है। ( २ ) भत्तो विसणुं पडि अणु वा--विष्णु के ये भक्त हैं। (३) लच्छी हरि पडि अणु वा-लक्ष्मी विष्णु के हिस्से में पड़ी या पड़े।
(४) वच्छं वच्छं पडि सिञ्चह-प्रत्येक वृक्ष को सींचता है । - (११ ) पूजार्थ में सु अव्यय और उल्लंघन अर्थ में अइ अव्यय के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। यथा
अइ देवा किसणो—कृष्ण सब देवताओं की अपेक्षा पूज्य हैं। सुसिप्प वच्छं-अच्छी तरह सींचा हुआ वृक्ष ।
३. करण कारक-अपने कार्य की सिद्धि में कर्ता जिसकी सबसे अधिक सहायता लेता है, उसे करण कहते हैं। यथा-"रामेण बाणेन हओ बाली" वाक्य में कर्ता राम बाली को मारने में सबसे अधिक सहायता बाण की लेता है; यों तो हाथ और धनुष भी सहायक हैं, पर ये अत्यन्त सहायक नहीं है, अतः इन्हें करणकारक नहीं माना जायगा। तात्पर्य यह है कि जो किया-फल की निष्पत्ति में साधन का बोध कराता है, उसे करणकारक कहते हैं। करण अर्थ में तृतीया विभक्ति होती है । यथा-- रामो जलेन कडं पच्छालइ ।