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________________ अभिनव प्राकृत-व्याकरण २४३ ( ४ ) द्वितीया और तृतीया विभक्ति के स्थान में क्वचित् सप्तमी विभक्ति हो जाती है। यथा--गामे वसामि-प्रामं वसामि; नयरे न जामि--नगरं न यामि । तिसु तेसु वा अलंकिआ पुहवी--तैरलंकृता पृथिवी। (५) पञ्चमी के स्थान पर भी सप्तमी पायी जाती है। यथा--अन्तेउरे रमिउं आगओ राया-अन्तःपुराद् रन्त्वाऽऽगतो राजा। (६) मध्य अर्थ या अधिकरण अर्थ बतलाने के लिए सप्तमी विभक्ति होती है। यथा-एत्थंतरम्मि पत्तो एसो तवोवणं, अणेयवियप्पजणियकुचिन्तासंधुकियपवड़ ढमाणकोहाणलो य कुलवई सेसतावसे य परिहरिऊण अलक्खिओ चेव गओ सहयारवीहियं, उवविठ्ठो य विमलसिलाविणिम्मिए चाउरन्तपीढे त्ति । (७) वास्तविक बात यह है कि प्राकृत में विभक्तियों के व्यवहार का कोई विशेष नियम नहीं है। कहीं द्वितीया और तृतीया के स्थान में सप्तमी, कहीं पञ्चमी के स्थान में तृतीया तथा सप्तमी और प्रथमा के बदले द्वितीया विभक्तियां व्यहृत होती हैं । १. द्वितीया-तृतीययोः सप्तमी ८।३।१३५. हे०--द्वितीयातृतीययोः स्थाने क्वचित् सप्तमी भवति। २. पञ्चम्यास्तृतीया च ८।३।१३६. पञ्चम्याः स्थाने क्वचित् सप्तमी भवति ।
SR No.032038
Book TitleAbhinav Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN C Shastri
PublisherTara Publications
Publication Year1963
Total Pages566
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size28 MB
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