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अभिनव प्राकृत-व्याकरणं
वञ्चनीयम् >वञ्चणीयम्। स्पन्दनम् > फन्दनं ।
उदुम्बरं > उम्बरं। (३) शब्दों के अन्त में रहनेवाले हलन्त व्यंजन का सर्वत्र लोप होता है। जैसे
जाव< यावत्- अन्तिम हलन्त व्यंजन तू का लोप हुआ है। ताव< तावत् , जसो< यशस्- हलन्त स् का लोप हुआ है। . णहं < नभस् सिरंद शिरस् " " .
तम< तमस् (४) श्रत् और उत् इन दोनों शब्दों के अन्त्य व्यंजन का लोप नहीं होता। यथा
सद्धार श्रद्धा-श्रत के अन्तिम हलन्त व्यंजन त् का लोप नहीं हुआ है। उण्णय < उन्नयम्-उत् के अन्तिम हलन्त व्यंजन त् का लोप नहीं हुआ है। (६) निर् और दुर् के अन्तिम व्यंजन र् का लोप विकल्प से होता है। जैसेनिस्सह, नीसह < निर् + सहम् -यहां निर् के र् का लोप विकल्प से हुआ है।
दुस्सहो, दूसहो< दुस्सहः-दुर के र का लोप होने पर दूसहो और लोपाभाव में दुस्सहो शब्द बनता है।
(६) स्वर वर्ण के पर में रहने पर अन्तर् , निर् और दुर् के अन्त्य व्यंजन का लोप नहीं होता। जैसे
अन्तरप्पा < अन्तरात्मा-अन्तर् के र् का लोप नहीं हुआ है। अन्तरिदा< अन्तरिता ,, णिरुत्तरं< निरुत्तरम्-निर के र् का लोप नहीं हुआ है। णिराबाधं < निराबाधम् ..
" निरवसेसं< निरवशेषम् ,
१. अन्त्यव्यञ्जनस्य ८।१।११. शब्दानां यद् अन्त्यव्यञ्जनं तस्य लुग् भवति । हे० । २. न श्रदुदोः ८।१।१२. श्रद् उद् इत्येतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य लुम् न भवति । हे० । ३. निर्दुरोर्वा ८।१।१३. निर् दुर् इत्येतयोरस्त्यव्यञ्जनस्य वा लुग् भवति । हे । ४. स्वरेन्तश्च ८।१।१४. अन्तरो निर्दुरोश्चान्त्यव्यञ्जनस्य स्वरे परे लुग न भवति । हे० ।