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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
३९५ रहियार रहिता- त के स्थान पर य (स्वा० का. गा० १२८)
पडियं < पतितम्- , , (स्वा० का० गा० ३९७) थ = ध-तधप्पदेसा तथाप्रदेशा-थ के स्थान पर ध (प्र० सा० गा० १३७) जध< यथा
(प्र० सा० गा० १३७ ) तधार तथा
, (प्र० सा० गा० १४६ ) वाघदवाथ
___ " " (प्र० सा० गा० १६३ ) अजधा<अयथा
(प्र० सा० गा० ८५) कधंर कथम्
, (प्रव० सा० गा० ५७, ११३, १०६) (३) जैन शौरसेनी में अर्धमागधी के समान क के स्थान पर ग भी होता है। यथा
वेदगर वेदक-क के स्थान पर ग (१० प्र० खं० ) एग<एकसगं स्वकं-
, (प्र० सा० गा० ५४) एगतेण एकान्तेन- , (प्र० सा० गा० ६६) ओगप्पगेहि योगात्मकै: - प्र० सा० गा० ७३) सागारो< साकारः -, (गो० सा० जी० गा० ७) अणगारो< अनाकार: -, उवसामगे< उपशामके-, , (गो० सा० जी० ६६) खवगे<क्षपके- , एगविगले < एकविकले-,, , (गो० सा० जी० ७९ )
वेदगा< वेदका: - , , (गो० सा० जी० ९३ ) (४) जैन शौरसेनी में क के स्थान पर क और य भी पाये जाते हैं । इसकी यह प्रवृत्ति भी अर्धमागधी से मिलती-जुलती है।
क= क संतोसकरं< सन्तोषकरं (स्वा० का० गा० ३३५) चिरकालं चिरकालं-(स्वा० का० गा० २९३) मणवयकाएहि मनोवचनकायैः (स्वा० का० गा० ३३२) अणुकूलं < अनुकूलं (स्वा० का० गा० ४६९) ओमकोट्टाए < अवमकोष्टया (गो० सा० जी० गा० १३४) हीणकमहीनक्रमम् (गो० सा० जी० गा० १७९) एकसमयम्हि < एकसमये (प्र० सा गा० १४२)