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आठवाँ अध्याय कारक, समास और तद्धित प्रकरण
कारकविचार करोति क्रियां जनयतीति कारकम् -क्रिया के उत्पादक को कारक कहते हैं; अथवा 'क्रियान्वयि कारकम् '-क्रिया के साथ जिसका सम्बन्ध हो, उसे कारक कहते हैं। हेमचन्द्र ने-'क्रियाहेतुः कारकम् क्रिया की उत्पत्ति में जो हेतु-सहायक हो, उसे कारक कहा है । प्राकृत में संस्कृत के समान ही कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये छः कारक हैं। प्राकृत के वैयाकरणों ने सम्बन्ध को कारक नहीं माना है और न षष्ठी (छट्ठी) विभक्ति के रूपों को ही पृथक् स्थान दिया है। षष्ठी के रूप चतुर्थी के समान ही होते हैं । वास्तविक बात यह है कि सम्बन्ध कारक का क्रिया के साथ सम्बन्ध नहीं है। यथा-विउसाणं परिसाए मुरुक्खेहिं मउणं सेवीअउ, अन्नह मुक्खत्ति नजिहिन्ति'-विद्वानों की सभा में मूखों को मौन रहना चाहिए, अन्यथा उनकी मूर्खता प्रकट हो जाती है। इस वाक्य में 'सेवीअउ' क्रिया के साथ 'विउसाणं' का किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है और न 'विउसाणं' में सेवीअउ' क्रिया का जनकत्व-उत्पादकत्व ही है। अत: यह पद षष्ठी विभक्ति तो है, पर सम्बन्धकारक नहीं है।
विभक्ति की परिभाषा करते हुए कहा है-“संख्याकारकबोधयित्री विभक्तिः - जिसके द्वारा संख्या और कारक का बोध हो, वह विभक्ति है। 'विउसाणं' से विद्वानों के समूह का बोध होता है, अत: वह षष्ठी विभक्ति तो है, पर कारक नहीं।
विभक्ति और कारक में एक अन्तर यह भी है कि कारक कुछ है और विभक्ति कुछ हो जाती है यथा-कर्ता में सर्वदा प्रथमा और कर्म में द्वितीया विभक्ति ही नहीं होती; बल्कि कर्ता में तृतीया और कर्म में प्रथमा विभक्ति भी होती है। जैसे—'रावणो रामेण हओ' इस वाक्य में हनन क्रिया का वास्तविक कर्ता राम है, पर राम प्रथमा विभक्ति में नहीं है, तृतीया विभक्ति में रखा गया है। इसी प्रकार हनन क्रिया का वास्तविक कर्म रावण है, उसे द्वितीया विभक्ति में न रखकर प्रथमा विभक्ति में रखा गया है।