Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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पन्द्रह
श्री पी०वी० काणे' ने नागेश की ग्रंथ रचना का काल १७००-१७५० ई० माना है । महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने नागेश की मृत्यु का काल १७७५ ई० माना है, जिसे प्रो० पी०वी० काणे ने इस तर्क के आधार पर अस्वीकृत कर दिया है कि नागेश के एक हस्तलेख का समय १७१३ ई० है । इसलिए १७७५ तक नागेश का जीवित रहना तभी सम्भव है, यदि उनकी आयु १०० वर्ष की मानी जाय । '
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इस प्रसंग में यह भी ध्यान देने योग्य है कि नागेश भट्ट ने भट्टोज दीक्षित के पौत्र हरिदीक्षित से महाभाष्य प्रादि ग्रंथों का अध्ययन किया था । भट्टोज दीक्षित का समय १७वीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है, क्योंकि इनके एक शिष्य नीलकण्ठ शुक्ल ने अपना एक ग्रन्थ १६६३ वि० सं० में लिखा था। साथ ही यह भी द्रष्टव्य है कि नागेश ने कौण्ड भट्ट के दो एक मन्तव्यों का लघुमंजूषा तथा परमलघुमंजूषा में बिना नाम लिए खण्डन किया है । इसके अतिरिक्त परमलमंजूषा के अनेक स्थलों पर कौण्ड भट्ट के वैयाकरणभूषण तथा वैयाकरणभूषणसार का पर्याप्त अनुकरण किया गया है । परमलघुमंजूषा के अन्तिम दो अध्यायों में तो ऐसी स्थिति है कि पंक्ति की पंक्ति अक्षरशः वैयाकरणभूषणसार की पंक्तियों से अभिन्न रूप में उपलब्ध हैं, जिसका विवरण यहीं आगे के पृष्ठों में दिया जा रहा है। कौण्डभट्ट भट्टोजि दीक्षित के भाई रंगोजि दीक्षित के पुत्र हैं । इस कारण नागेश भट्ट को १७वीं शताब्दी के अन्तिम तथा १८वीं शताब्दी के प्रथम चरण के मध्य में माना जा सकता है ।
Status भट्ट तथा नागेश भट्ट भले ही एक शताब्दी के समसामयिक क्यों न हों, पर यह निश्चित है कि कौण्ड भट्ट नागेश से पूर्ववर्ती हैं। इन दोनों के हस्त लेखों की तिथियों के आधार पर भी यही निष्कर्ष निकलता है ।"
जीवन-वृत्त - नागेश भट्ट महाराष्ट्र के ऋग्वेद-शाखाध्यायी देशस्थ ब्रह्मण परिवार में उत्पन्न हुए थे | परन्तु इनके जीवन का अधिकांश समय बनारस में ही बीता। इनका दूसरा नाम नागोजि भट्ट भी कहीं कहीं मिलता है । इनके पिता का नाम शिव भट्ट तथा माता का नाम सती देवी था । शब्देन्दुशेखर को पुत्र तथा मंजूषा को कन्या कहने से यह अनुमान किया जा सकता है कि नागेश भट्ट सन्तानहीन थे । प्रयाग के समीप की रियासत
२.
१.
पी० के० काणे - हिस्टरी आफ धर्मशाला, भाग १, पृ० ४५३-५६ ।
पी० के० गोडे - स्टडीज इन इण्डियन लिटरेरी हिस्टरी, भाग ३, पृ० २०६-११ ।
३.
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४.
द्र० - वैसिलम० की अन्तिम पंक्तियाँ ;
इति श्रीमदुपाध्यायोपनामक - सतीगर्भज-शिव भट्टसुत- नागेशकृत: "
स्फोटवादः ।
शब्देन्दुशेखर तथा परमलघुमंजूषा आदि ग्रन्थों में भी अन्त के अंश में इन्हीं विशेषणों का प्रयोग मिलता है।
द्र० - शब्देन्दुशेखर का समाप्ति-श्लोक ;
शब्देन्दुशेखरं पुत्र मंजूषां चैव कन्यकाम् । स्वमतौ सम्यग् उत्पाद्य शिवयोरपितो मया ॥
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