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श्री विपाकसूत्र
[प्राक्कथन
७-गोत्र-जिस कर्म के द्वारा यह जीवात्मा ऊँच और नीच कुल में उत्पन्न हो अर्थात् ऊँच नीच संज्ञा से सम्बोधित किया जाए, उस का नाम गोत्रकर्म है। यह कर्म कुलाल (कुम्हार) के समान है । जैसे-कुलाल छोटे तथा बड़े भाजनों को बनाता है, उसी प्रकार गोत्रकर्म के प्रभाव से इस जीव को ऊँच और नीच पद की उपलब्धि होती है।
८-अन्तराय-जो कर्म आत्मा के वीर्य, दान, लाभ, भोग और उपभोग रूप शक्तियों का घात करता है वह कर्म अन्तराय कहलाता है । अन्तराय कर्म राजभंडारी के समान होता है। जैसे-- राजा ने द्वार पर आये हुए किसी याचक को कुछ द्रव्य देने को कामना से भंडारी के नाम पत्र लिख कर याचक को तो दिया, परन्तु याचक को भंडारी ने किसी कारण से द्रव्य नहीं दिया, या भंडारी ही उसे नहीं मिला । भंडारी का इन्कार या उस का न मिलना ही अन्तराय कम है । कारण कि पुण्यकमवशात् दानादि सामग्री के उपस्थित होते हुए भी इस के प्रभाव से कई न काई एसा विघ्न उपस्थित हो जाता है कि देने और लेने वाले दोनों ही सफल नहीं हो पाते ।
कर्मों की आठ मूल प्रकृतिये ऊपर कही जा चुकी हैं, इन की उत्तर प्रकृतियें १५८ हैं । ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय को ६, वेदनीय को २, मोहनीय की २८, आयु की ४, नाम की १०३, गोत्र की २ और अन्तराय की ५, कुल मिला कर +१५८ उत्तरप्रकृति या उत्तरभेद होते हैं। इन समस्त उत्तरभेदों का विस्तृत वर्णन तो जैनागमों तथा उन से संकलित किये गये कर्मग्रन्थों में किया गया है, परन्तु प्रस्तुत में इन का प्रकरणानुसारी संक्षिप्त वर्णन दिया जा रहा है
(१) ज्ञानावरणीय कर्म के ५ भेद हैं, जिनका विवरण नीचे की पंक्तियों में है
१-मतिज्ञानावरणीय-- इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं । इस ज्ञान को आवरण--आच्छादन करने वाले कर्म को मतिज्ञानावरणीय अथवा मतिज्ञानावरण
कहते हैं।
२-श्र तज्ञानावरणीय-शास्त्रों के वाचने तथा सुनने से जो अर्थज्ञान होता है, अथवामतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिस में हो ऐसा ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है । इस ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को श्र तज्ञानावरलीय या श्र तज्ञानावरण कर्म कहते हैं।
३-अवधिज्ञानावरणीय-इन्द्रियों तथा मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिये हुए रूप वाले द्रव्य का जो ज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं, इस ज्ञान के प्रावरण करने वाले कर्म को अवधिज्ञानावरणीय कहते हैं।
ॐकर्मों के मूलभेद मूलप्रकृति और उत्तरभेद उत्तरप्रकृतियें कहलाती है। इह नाणदसणावरणवेदमोहाउनामगोयाणि । विग्धं च पणनवदुअट्ठवीसचउतिसयदुपणविहं ॥३॥ (कमग्रंथ भाग १)
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