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प्राक्कथन ]
हिन्दी भाषाटीकासहित
(१६)
१ - ज्ञानावरणीय - जिस के द्वारा पदार्थों का स्वरूप जाना जाए उस का नाम ज्ञान है । जो कर्म ज्ञान का आवरण-आच्छादन करने वाला हो, उसे ज्ञानावरणीय कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे सूर्य को बादल आवृत कर लेता है, अथवा जैसे नेत्रों के प्रकाश को वस्त्रादि पदार्थ आच्छादित कर देते हैं, उसी प्रकार जिन कर्माओं या कर्म वर्गणाओं के द्वारा इस जीवात्मा का ज्ञानवृत (ढका हुआ) हो रहा है, उन कर्माओं या कर्मवर्गणाओं का नाम ज्ञानावरणीय कर्म है।
२- दर्शनावरणीय — पदार्थों के सामान्य बोध का नाम दर्शन है । जिस कर्म के द्वारा जीवात्मा का सामान्य बोध आच्छादित हो उसे दर्शनावरणीय कहा जाता है। यह कर्म द्वारपाल के समान है । जैसे -द्वारपाल राजा के दर्शन करने में रुकावट डालता है ठीक उसी प्रकार यह कर्म भी आत्मा के चक्षुर्दर्शन (नेत्रों के द्वारा होने वाला पदार्थ का सामान्य बोध) आदि में रुकावट डालता है । ३ - वेदनीय -- जिस कम के द्वारा सुख दुःख की उपलब्धि हो उस का नाम वेदनीय कर्म है । यह कर्म मधुलिप्त असिधारा के समान है। जैसे - मधुलिप्त असिधारा को चाटने वाला मधु से आनन्द तथा जिह्वा के कट जाने से दुःख दोनों को प्राप्त करता है, उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से यह जीव सुख और दुःख दोनों का अनुभव करता है ।
रसास्वाद
४ - मोहनीय- जो कर्म स्व पर विवेक में तथा स्वरूपरमण में बाधा पहुँचाता है, अथवा जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व गुण का और चारित्रगुण का घात करता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । यह कर्म मदिराजन्य फल के समान फल करता है। जिस प्रकार मदिरा के नशे में चूर हुआ २ पुरुष अपने कर्तव्याकर्तव्य के भान से च्युत हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीयकर्म के प्रभाव से इस जीवात्मा को भी निज हेयोपादेय का ज्ञान नहीं रहता ।
५ - श्रायु - जिस कर्म के अवस्थित रहने से प्राणी जीवित रहता है और क्षीण हो जाने से मृत्यु को प्राप्त करता है, उसे आयुष्कर्म कहते हैं। यह कर्म कारागार (जेल) के समान है, अर्थात् जिस प्रकार कारागार में पड़ा हुआ द| अपने नियत समय से पहले नहीं निकल पाता उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से यह जीवात्मा अपना नियत भवस्थिति को पूरा किये बिना मृत्यु को प्राप्त नहीं हो सकता । ६- नाम - जिस कर्म के प्रभाव से अमुक जीव नारकी है, अमुक तिर्यच है, अमुक मनुष्य और अमुक देव है - इस प्रकार के नामों से सम्बोधित होता है, उसे नामकर्म कहते हैं । यह कर्म चित्रकार के समान है । जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्रों का निर्माण करता है । उसी प्रकार नामकमे भी इस जीवात्मा को अनेक प्रकार की अवस्थाओं में परिवर्तित करता है ।
*नाणस्सावरणिज्जं, दंसणावरणं तहा । वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य ॥२॥ नामकम्मं च गोयं च, अन्तरायं तहेव य । एवमेयाई कम्पाइ, अट्ठ ेव उ समासो ॥३॥
(उत्तराध्ययनसूत्र, अ० ३३)
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