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वर्णीजी : जीवन-रेखा
ब्राह्मण साथी तुलसीदासको दे देते थे। इस प्रकार १४ वर्ष की उम्रमें हिन्दी मिडिल पास करनेपर लोगोंने नौकरी या धंधा करने को कहा पर अान्तरिक द्विविधामें पड़ा किशोर कुछ भी निश्चित न कर सका । चार वर्ष बीत गये, धीरे धीरे छोटा भाई भी विवाह लायक हो रहा था फलतः १८ वें वर्षमें इनका विवाह कर दिया गया।
यौवन प्रभातमें संसारमें भूल जाना स्वाभाविक था पर प्रकृतिका संकेत और था। यह वर्ष बड़े संकट का रहा । पहिले विवाहित बड़े भाईकी मृत्यु हुई, फिर पिता संधातिक वीमार हुए जिसे देखकर ११० वर्षकी अवस्थामें श्राजाको इच्छामरण प्राप्त हुश्रा और अगले दिन पिता भी चल बसे । विधवा जीवितनृत युवती भाभी और बिलखती वृद्धामाताने सारे वातावरणको संसारकी क्षणभंगुरतासे भर दिया । सिर पर पड़े दायित्वको निभाने के लिए मदनपुरके स्कूल में मास्टरी शुरू की । ट्रेनिंगका प्रश्न उठा और नार्मल पास करने आगरा गये । किन्तु प्रारम्भ हो गयी सत्यकी खोज । किसी मित्रके साथ जयपुर गये और वहांसे इन्दौर पहुँचे । फिर माता पत्नीके भरण पोषण को चिन्ता हुई और शिक्षा विभागमें वहीं नौकरी कर ली। पर ये थपेड़े किनारे पर न ला सके अतः फिर घर लोट आये।
तीसरी परीक्षा--घर पाते ही पत्नीका द्विरागमन हो गया। अवस्थाने विजय पायी। कारीटोरन ग्रामके स्कूल में अध्यापकी करने लगे। पत्नीको बुला लिया, सुखसे समय कट रहा था। ककेरे छोटे भाईका विवाह था अतः उसमें गये। पंक्तिमें सबके साथ बैठकर जीमनेका मौका आया किन्तु भोजन जैनियों जैसा नहीं था अतः पांतमें बैठनेसे इंकार कर दिया । जाति वाले आग बबूला हो गये, जातिसे गिराने की धमकी दी गयी । माताने समझाया 'अब तुम लरका नौंइ हो, समझझके चलो अपनो धरम पालो, काये मोय लजाउत हो ।' पत्नी भी अपने संस्कार तथा सासके समझानेसे अपना वैष्णव धर्म पालनेका आग्रह करने लगी । फलतः उससे मन हठ गया । सोचा जो करना है उसे कहां तक टाला जाय और किस लिए? "आप सब जनों की बात मंजूर है. मैं अपने आप अलग भयो जात ।" कह कर घरसे निकल पड़े। "तैसी मिले सहाय---
घरसे चलकर टीकमगढ़ ओरछा पहुंचे । सौभाग्यसे वहां श्रीराम मास्टरसे भेंट हो गयी और इन्होंने जताराके स्कूल में नियुक्ति करवा दी । यहां पहुंचने से श्री कडोरेलाल भायजी, पं० मोतीलाल वर्णों तथा रूपचन्द्र बनपुरयाका समागम प्राप्त हुआ। खूब धर्म चर्चा तथा पूजादि चलते थे। बढ़ती आस्था के साथ साथ धर्मका रहस्य जाननेकी अभिलाषा भी बढ़ती जा रही थी । जवानीका जोश त्यागकी तरफ झुका रहा था फलतः भायजीने समझाया पहिले ज्ञान सम्पादन करो फिर त्याग करना । उन्होंने यह भी बार बार कहा कि माता पत्नी को बुला लो अब वे अनुकूल हो जांय गी। किन्तु आत्म-शोधके लिए कृतसंकल्प युवक गणेश प्रसादको कहां विश्वास था। उनके मनमें शृद्धा बैठ गयी थी कि सब जैनी अच्छे होते हैं। अतःउनकी
सात.