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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
प्रतिदिन संध्या समय शाला (वैश्णव मन्दिर) में आरती देखने, रामायण सुनने तथा प्रसाद लेने जाते थे तो दूसरी ओर घरके सामने स्थित गोरावालोंके जैनमन्दिरके चबूतरे पर होने वाली शास्त्रसभा तथा पूजा श्रादिसे भी अनाकृष्ट नहीं रह पाते थे । जैन मन्दिरकी स्वच्छता, पूजाकी प्राञ्जल विधि, पूजनपाठकी संगीतमयता, पुराणों में हनुमानजी को बानर न बता कर वानरवंशी राजा कहना, आदि वर्णन जहां विवेकी बालकके मन पर अपनी छाप डाल रहे थे, वहीं पड़ोसी जैनियोंका शुद्ध आहार विहार उन्हें अपने कुलके रात्रिभोजन, अनछना पानी, महिनों चलने वाले दहीके जोवन, अादि शिथिल अाचार से खिंचता जा रहा था । यतः दृढ़ श्रद्धानी पिता सामनेके जैन मन्दिर में होने वाली सभामें जाते थे अतः बालक गणेशको भी माता वहां जानेसे न रोक सकती थीं। संयोगवश १० वर्षकी अवस्थामें किसी ऐसी ही सभामें प्रवचन के बाद जब श्रोता नियम ले रहे थे तभी बालक गणेशने भी रात्रिभोजनके त्यागका नियम ले लिया।
"सांचो देव कौन है इनमें ?"----
बालक गणेशके मनमें प्रश्न उठता था कि किस धर्म पर श्रद्धा की जाय ! कौल-धर्म तथा दृष्ट धर्म में किसे अपनाया जाय ! द्विविधा बढ़ती ही जा रही थी कि एक रात शालामें प्रसादके पेड़े बटे । इन्हें भी पुरोहित देने लगे, पर इन्होंने इंकार कर दिया । फिर क्या था सामने बैठे हुए गुरूजी दुर्वासा ऋषि हो गये
और डट गया प्रहलादकी तरह बालक गणेश; "मैं रातको नहीं खांऊगा और न सम्यक्दृष्टि वानर वंशी राजा हनूमानको बानर मानूंगा। इतना ही नहीं अब मैं कालसे शाला भी नहीं श्राऊंगा।" प्रकृत्या भीरू शिष्यसे गुरुजी को ऐसी आशा न थी, पर हुम्का फोड़कर हुक्का न पीनेकी प्रार्थना करने वाले शिष्यकी ये बातें व्यर्थ तो नहीं ही मानी जा सकती थी। फलतः 'समझने पर सब करेगा के सिवा चारा ही क्या था।
. दूसरी परीक्षा-माताके मुखसे "लड़का विगरत जात है, देखत नइयां बारा बरसको तो हो गत्रो, जनेऊ काये नई करा देत ।" सुनकर पिताने श्राजाकी अनुमति पूर्वक कुलगुरु बुडेराके पुरेतको बुलाया तथा यज्ञोपवीत संस्कारकी पूरी तयारी कर दी । संस्कारके अन्तमें पुरेतजी ने मंत्र दिया और आज्ञा दी 'किसीको मत बताना।' तार्किक बालककी समझमें न आया कि हजारोंको स्वयं गुरुजी द्वारा दिया गया मंत्र कैसे गोप्य है ? शंका की, और कुलगुरु उबल पड़े । माताके पश्चाताप और खेदकी सीमा न रही । मुहसे निकल ही पड़ा "ईसें बिना लरकाकी भली हती।" जब प्रौढा माता उत्तेजित हो गयी तो बारह वर्षका लड़का कहां तक शान्त रहता ? मनकी श्रद्धा छिपाना असंभव हो गया और कह हो उठा "मताई आपकी बात बिल्कुल ठीक आय, अब मोय ई धर्ममें नई रैने। आजसे जिनेन्द्रको छोड़कर दूसरेको नई मानूं गो। मैं तो भौत दिननसे जाई सोच रो तो के जैन धर्म मोरो कल्याण करै ।" माता पुत्रके इस मतभेदमें भी सेठ हीरालाल अवचलित थे। पत्नीको समझाया कि जोर जबरदस्तीसे काम विगड़े गा लड़केको पढ़ने लिखने दो। पढ़ाई चलती रही। स्कूल में जो वजीफा मिलता था उसे अपने
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