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वराङ्ग
वचांसि तेषां स निशम्य राजा स्वकिताक्रान्तविज़म्भितानि । प्रशस्य तान् राज्यधुरंधरांश्च वैदेहकोक्तं पुनराचचक्षे ॥ ३४ ॥ ते चापि राज्ञां समुदीरितार्थां गिरं निशम्यानुमति प्रकृत्य' । विवाहतन्त्राबिकृतान्सलेखान्प्रत्येकशो दूतवरान्ससर्ज (?) ॥ ३५ ॥ तेषामथैको गुणवांस्तु दूतः पति समासाद्य समृद्धपुर्याः । प्रदर्य लेखं प्रियवाक्यगर्भ व्यजिज्ञपद्वाचिकमर्थयुतम् ॥ ३६॥ निशाम्य लेखं च वचो निशम्य मुदाब्रवीत्तच्च तथेति राजा। विज्ञाय वागिनितदानमानैः स्वकार्यसिद्धौ मतिमादधे सः । ३७ ॥
द्वितीय सर्गः
चरितम्
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मामा
नप अभिमत अपनी-अपनी तर्कणाशक्तिके अनुसार ऊहापोह करके कहे गये सबही मंत्रियोंके विस्तृत वक्तव्योंको राजाने ध्यानपूर्वक सुना और उन सबकी नीतिज्ञता तथा राज्यभक्तिकी प्रशंसा की क्योंकि वे अपने सबही राजकीय कर्तव्यों और दायित्योंको योग्यतापूर्वक निबाहते थे । और अन्तमें विदेह देशसे लौटे सेठकी बातको भी उन लोगोंसे कहा ।। ३४ ॥
और अन्तमें विवाह शास्त्रके प्रधान आचार्योंके मतोंको फिरसे मंत्रियोंको समझाया। महाराज धर्मसेनका यह अन्तिम वक्तव्य प्रकृत विषयपर प्रकाश ही नहीं डालता था अपितु उसकी सब ही गुत्थियोंको सुलक्षा देता था, इसीलिए मंत्रियोंने उसे सावधानीसे सुना और उससे अपनी पूर्ण सहमति प्रकट की थी। फलतः इसके बाद ही पत्रों के साथ अत्यन्त कुशल दूत प्रत्येक दिशामें भेजे गये थे। इन्हें विवाह-सम्बन्ध करने या न करनेके पूर्ण अधिकार प्राप्त थे ।। ३५ ॥
कन्या अन्वेषण उक्त प्रकारसे भेजे गये दूतोंमेंसे एक अत्यन्त गुणी और नीतिमान् राजदूत समृद्धिपुरीके महाराज धृतिषेणकी राजसभामें जाकर उपस्थित हुआ। पहुँचते ही उसने अपनी विश्वासपात्रता सिद्ध करनेके लिये महाराज धर्मसेनकी नाममुद्रासे अंकित नियुक्तिपत्र दिखाकर अपनी यात्राके प्रधान प्रयोजनको मौखिकरूपसे ही हित-मित भाषामें राजाके सामने उपस्थित किया ॥३६॥
महाराज धृतिषणने दूतके द्वारा दिये गये पत्रको सावधानीसे देखा और उसके वचनोंको भी ध्यानपूर्वक सुना। इसके बाद प्रसन्नतापूर्वक बोले 'क्या महाराज धर्मसेनका ऐसा विचार है ?' किन्तु निपुण राजदूतको उनके बात करनेके ढंग, मुख और १. म प्रकृत्वा।
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