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उव्विलण-सूअण-परिभवेहिं, अइभणिय दुट्ठभणिएहिं । सत्ताहिया सुविहिया, न चेव भिंदंति मुहरागं ॥७७॥ ___शब्दार्थ : दुर्जनों के द्वारा उद्वेगकर, सूचना-(चेतावनी)रूप परिभव (तिरस्कार)-रूप अतिशिक्षा (डांट-फटकार) रूप कर्कश वचन कहे जाने पर भी सत्त्वगुणी सुविहित अपने मुंह का रंग नहीं बदलते ॥७७॥ माणंसिणो वि अवमाण-वंचणा, ते परस्स न करेंति ।
सुह दुक्खग्गिरणत्थं, साहू उयहिव्व गंभीरा ॥७८॥ ___शब्दार्थ : इन्द्रादिक के द्वारा सम्माननीय साधु दूसरों का
अपमान या दूसरों के सुख को उच्छेदन करने व दुःख में डालने के लिए वंचना (ठगी) नहीं करते । वे तो सागर की तरह गंभीर होते हैं ॥७८॥ मउआ निहुअसहावा, हासदवविवज्जिया विग्गहमुक्का ।
असमंजसमइबहुअं, न भणंति अपुच्छिया साहू ॥७९॥ ___ शब्दार्थ : साधु मृदु और शांत स्वभाव वाले होते हैं, हास्य और भय से दूर होते हैं, वे कलह, विकथा आदि से भी मुक्त होते हैं; पूछने पर भी वे असंबद्ध नहीं बोलते ॥७९॥ महुरं निउणं थोवं, कज्जावडिअं अगव्वियमतुच्छं । पुव्विंमइसंकलियं, भणंति जं धम्मसंजुत्तं ॥८०॥
शब्दार्थ : साधु मधुर, निपुणता से युक्त, नपे तुले शब्दों में, प्रसंग होने पर, गर्व रहित, तुच्छता रहित और पहले से उपदेशमाला
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