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शब्दार्थ : इसीलिए बहुत-से सद्गुणों को नाश करने वाले और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र आदि गुणों के विघातक राग-द्वेष रूपी पापों के वशीभूत नहीं होना चाहिए ॥१२५॥ न वि कुणइ अमित्तो, सुट्ठवि सुविराहिओ समत्थो वि । जं दो वि अणिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य ॥१२६॥
शब्दार्थ : जितना अनर्थ वश में (निग्रह) नहीं किये हुए राग और द्वेष करते हैं, उतना अच्छी तरह विरोध करने में समर्थ शत्रु भी नहीं करता ॥१२६।। इह लोए आयासं, अजसं च करेंति गुणविणासं च । पसवंति अ परलोए, सारीरमणोगए दुक्खे ॥१२७॥
शब्दार्थ : राग और द्वेष से इस लोक में शारीरिक और मानसिक खेद होता है; वे जगत् में अपयश (बदनामी) कराते हैं और ज्ञानदर्शन-चारित्र आदि सद्गुणों का विनाश करते हैं; तथा परलोक में भी नरकगति और तिर्यंचगति के कारण होने से दोनों शारीरिक और मानसिक दुःखों को पैदा करते हैं ॥१२७॥ धिद्धि अहो अकज्ज, जं जाणंतो वि रागदोसेहिं । फलमउलं कडुअरसं, तं चेव निसेवए जीवो ॥१२८॥
शब्दार्थ : आश्चर्य है कि राग-द्वेष के कारण जो अकार्य (अनिष्ट) होते हैं उन्हें; तथा उनके अत्यंत कड़वे रस उपदेशमाला
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