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शब्दार्थ : जो साधक सदा कलह और क्रोध करता रहता है, हमेशा अपशब्द बोलता रहता है तथा विवाद (व्यर्थ का झगड़ा) करता रहता है; वह हमेशा ( कषायाग्नि में) जलता रहता है । ऐसे व्यक्ति का संयमाचरण निरर्थक है ॥ १३१ ॥
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जह वणदवो वणं, दवदवस्स जलिओ खणेण निद्दह । एवं कसायपरिणओ, जीवो तवसंजमं दहइ ॥१३२॥
शब्दार्थ : जैसे शीघ्र जलने वाला वनदव (दावानल-जंगल में लगी हुई आग ) क्षणभर में सारे वन को जलाकर खाक कर देता है, वैसे ही क्रोधादि कषाय से युक्त साधु भी तप संयम की अपनी करणी को क्षणमात्र में नष्ट कर देता है ॥१३२॥ परिणामवसेण पुणो, अहिओ ऊणयरओ व हुज्ज खओ । तह वि ववहारमित्तेण, भण्णइ इमं जहा थूलं ॥१३३॥
शब्दार्थ : परिणामों की तरतमता ( न्यूनाधिकता) के अनुसार चारित्र का न्यूनाधिक ( कमोवेश ) क्षय होता है । तथापि यह क्षय व्यवहारमात्र से कहा जाता है कि स्थूलरूप (मोटे तौर) से इतना क्षय हुआ है ॥१३३॥
फरुसवयणेण दिणतवं, अहिक्खिवंतो हाइ मासतवं । वरिसतवं सवमाणो, हाइ हणंतो य सामण्णं ॥ १३४॥
शब्दार्थ : 'किसी को कठोर वचन कहने पर व्यक्ति एक दिन के तप का नाश (संयम पुण्य का क्षय ) कर देता है,
उपदेशमाला
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