Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 162
________________ देखने मात्र से यानी क्रियानुष्ठानादि करने वालों के पास में रहने मात्र से उनकी देखादेखी जो आचरण करता है वह शुद्ध आचरण नहीं जानता । स्वयं सिद्धांत ज्ञान प्राप्त करके उससे जैसा जानता है, वैसा दूसरे को करते हुए देखने मात्र से भी वह नहीं जान सकता । वह मनुष्य आत्म-कल्याण का वास्तविक उपाय जाने बिना किस तरह चित्त-शुद्धि रूप सफल उद्यम कर सकता है ॥४२०॥ सिप्पाणि य सत्थाणि य, जाणतो वि न य जुंजई जो उ। तेसिं फलं न भुंजइ, इअ अजयंतो जई नाणी ॥४२१॥ शब्दार्थ : शिल्प, कला और व्याकरण आदि शास्त्रों को जानता हुआ भी जो व्यक्ति जब तक उसका सदुपयोग (प्रयोग) नहीं करता तब तक वह इन शिल्पादि से होने वाला धनलाभादि फल प्राप्त नहीं कर सकता । उसी तरह ज्ञानवान साधु प्रमादवश शास्त्र विहित संयम-क्रिया में उद्यम नहीं करता तो उसका ज्ञान निष्फल है, वह मोक्षफल कैसे प्राप्त कर सकता है ? ॥४२१॥ गारवतियपडिबद्धा, संजमकरणुज्जमंमि सीयंता । निग्गंतूण गणाओ, हिंडंति पमायरन्नंमि ॥४२२॥ शब्दार्थ : रसगौरव, ऋद्धिगौरव और सातागौरव में आसक्त रहने वाला और ६-जीवनिकाय के रक्षण रूप संयम-अनुष्ठान के उद्यम से या पुरुषार्थ करने से जो कतराता उपदेशमाला १६२

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