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आत्महित के लिए धर्मसाधना कर लेनी चाहिए, ताकि बाद में पछताने का मौका न आये ॥४६९॥ कत्तो चिंता सुचरियतवस्स, गुणसुट्ठियस्स साहुस्स ? । सुग्गइगमपडिहत्थो, जो अच्छइ नियमभरियभरो ॥४७० ॥
शब्दार्थ : जिस साधु ने भलीभांति तप-संयम की आराधना की है और महाव्रतादि गुणों में जो सुस्थित है, उसे किस बात की चिन्ता हो सकती है ? क्योंकि सुगतिगमन तो व्रत-नियम आदि के परिपालन में समर्थ, धर्म-धन से परिपूर्ण ऐसे साधु के हाथ में ही होता है ॥४७०॥ साहति य फुड वियडं, मासाहससउणसरिसया जीवा । न य कम्मभारगरुयत्तणेण, तं आयरंति तहा ॥४७१॥
शब्दार्थ : संसार में लोग जितना और जैसा स्पष्ट रूप से उपदेश झाड़ते हैं, उतना और वैसा वे स्वयं आचरण नहीं करते; क्योंकि वे अपने दुष्कर्मों के भार से बोझिल बने हुए हैं । ऐसे परोपदेश कुशल, किन्तु आचरण दुर्बल मासाहस नामक पर्वतीय पक्षी की तरह हैं; जो बाद में पछताते हैं ॥४७१॥ वग्घमुहम्मि अइगओ, मंसं दंतंतराउ कड्डइ । 'मा साहसं' ति जंपइ, करेइ न य तं जहाभणियं ॥४७२॥
शब्दार्थ : जंगल में एक बाघ मुँह फाड़े सोया था । उसकी दाढ़ों में मांस का कुछ अंश लगा हुआ था । 'मासाहस' नाम का एक पक्षी रोज उसके मुंह में घुसकर उपदेशमाला
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