Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 200
________________ आणाइ च्चिय चरणं, तब्भंगे जाण किं न भग्गंति ? । आणं च अइक्वंतो, कस्साएसा कुणइ सेसं ॥५०५॥ शब्दार्थ : जिन भगवान् की आज्ञा का पालन ही वास्तव में चारित्र है । जिनाज्ञा-भंग कर देने पर समझ लो, उसने क्या भंग नहीं किया ? यानी जिनाज्ञा-भंग करते ही उसने एक तरह से चारित्र आदि सभी गुणों का सर्वथा भंग कर दिया ! क्योंकि जिनाज्ञा का उल्लंघन करने वाला साधक बाकी के धर्मानुष्ठान या धर्माचरण किसकी आज्ञा से करता है ? जिनाज्ञा के बिना धर्मानुष्ठान या धर्मक्रियाराधन आदि करना केवल विडंबना ही है; वे अनुष्ठान मोक्षफलदायी नहीं होते ॥५०५॥ संसारो अ अणंतो, भट्ठचरित्तस्स लिंगजीविस्स । पंचमहव्वयतुंगो, पागारो भिल्लिओ जेण ॥५०६॥ शब्दार्थ : जिस अभागे व्यक्ति ने पंचमहाव्रत रूपी उच्च किलों को तोड़ डाले हैं, वह चारित्रभ्रष्ट मुखवस्त्रिका, रजोहरण आदि वेष केवल आजीविका (उदरपूर्ति) के लिए रखता है। उससे कोई मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य सिद्ध नहीं होता; बल्कि वह अनंतकाल तक संसार परिभ्रमण करता है ॥५०६॥ न करेमि त्ति भणित्ता, तं चेव निसेवए पुणो पावं । पच्चक्खमुसावाई, माया नियडीपसंगो य ॥५०७॥ शब्दार्थ : जो साधक 'न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि' (मन-वचन-काया से हिंसा आदि पाप उपदेशमाला २००

Loading...

Page Navigation
1 ... 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216