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सुशिष्यवर्ग के सामने समय-समय पर उपदेश के रूप में कही है ॥५४०॥ संतिकरी वुड्डिकरी, कल्लाणकारी, सुमंगलकरी य । होइ कहगस्स परिसाए, तह य निव्वाणफलदाई ॥५४१॥ ___ शब्दार्थ : यह उपदेशामाला व्याख्यान देने वाले (उपदेशक)
वक्ता और व्याख्यान सुनने वाले श्रोताजनों के क्रोधादि विकारों को शांत करने वाली, उनमें ज्ञानादि गुणों की वृद्धि करने वाली स्व-पर कल्याणकारिणी तथा इस लोक में धन या शिष्यादि वैभव रूप और परलोक में वैमानिक देवों के ऋद्धि-समृद्धि-सुखादि मंगल को देने वाली अथवा परलोक में समस्त जन्म-मरण-कर्मादि बंधनों से छुटकारा दिलाकर निर्वाणफल दायिनी है । अर्थात्-इस ग्रंथ के व्याख्याता और श्रोता दोनों को कथन-श्रवण से उत्तम फल मिलता है ॥५४१॥ इत्थ समप्पइ इणमो, माला उवएसपगरणं पगयं । गाहाणं सव्वाणं, पंचसया चेव चालीसा ॥५४२॥
शब्दार्थ : 'इस प्रकार प्राकृतभाषा में रचित माला के रूप में प्रस्तुत उपदेश-प्रकरण यहाँ संपूर्ण कर रहे हैं । इसकी सब मिलाकर ५४० गाथाएँ हैं' ॥५४२॥ (दो गाथाएँ प्रक्षिप्त समझनी चाहिए) जावय लवणसमुद्दो, जावय नक्खत्तमंडिओ मेरु । तावय रइया माला, जयंमि थिरथावरा होउ ॥५४३॥ उपदेशमाला
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