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कर्मों की चिकनाहट मजबूती से चिपकी हुई है, वे गुरुकर्मा जीव इस ग्रंथ के बार-बार कहने-सुनने पर भी इसके परमार्थ को नहीं समझ सकते; आचरण की बात तो दूर रही ॥५३५।। उवएसमालमेयं, जो पढइ सुणइ कुणइ वा हियए ।
सो जाणइ अप्पहियं, नाऊण सुहं समायरइ ॥५३६॥ ___ शब्दार्थ : जो पुरुष इस उपदेश माला का अध्ययन करता है, श्रवण करता है और हृदय में धारण करता है, अथवा उसका परम रहस्य समझकर उसके अर्थ का चिन्तन-मनन करता है; वह इहलोक और परलोक दोनों का आत्महित जान लेता है और स्वहित का मार्ग जानकर सुख-पूर्वक उस पर अमल करता है एवं अंत में मोक्षसुख प्राप्त करता है ॥५३६॥ धंतिमणिदामससिगयणिहिपयपढमक्खराण, नामेणं(भिहाणेण)। उवएसमालपगरणमिणमो, रइअं हियट्ठाए ॥५३७॥
शब्दार्थ : धंत, मणि, दाम, ससि, गय और णिधि इन ६ शब्दों के आदि के अक्षरों को जोड़ने से निष्पन्न नाम वाले 'धर्मदासगणि' ने स्वपरहित के लिए यह 'उपदेशमालाप्रकरण' बनाया है ॥५३७॥
उपदेशमाला