Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 211
________________ नाऊण करयलगयाऽऽमलं व, सब्भावओ पहं सव्वं । धम्ममि नाम सीइज्जइ त्ति, कम्माइं गुरुयाइं ॥५३१॥ शब्दार्थ : हथेली पर रखे हुए आंवले के समान सद्भाव से अथवा सत्यबुद्धि से ज्ञानादिमय मोक्षमार्ग को स्पष्ट रूप से जानकर भी यह जीव जो धर्माचरण करने से घबराताकतराता है, उसमें उसके भारी कर्मों को ही कारणभूत समझना चाहिए । अर्थात् वह जीव गुरुकर्मा होने से ज्ञानावरणीयादि कर्मों की प्रचुरता के कारण जानते हुए भी धर्माराधना नहीं कर सकता । लघुकर्मी जीव को ही धर्माचरण में स्वाभाविक रुचि या प्रीति होती है ॥५३१॥ धम्मत्थकाममोक्खेसु, जस्स भावो जहिं-जहिं रमइ । वेरग्गेगंतरसं न इमं, सव्वं सुहावेइ ॥५३२॥ शब्दार्थ : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों में से जिस-जिस पुरुषार्थ में होता है, वह उसीमें रमण करता है । अर्थात् जीवों की भावना (रुचि) विभिन्न पदार्थों में विविध प्रकार की होती है। इसीलिए एकांत वैराग्यरसशांतरस से परिपूर्ण यह उपदेशमाला सभी जीवों को सुखदायिनी प्रतीत नहीं होती । परंतु जो शांतरसार्थी आत्मार्थी जन हैं, उन्हें सारी उपदेशमाला वैराग्यरसपोषिका होने से अत्यंत सुखदायिनी प्रतीत होगी ॥५३२।। उपदेशमाला २११

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