Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 214
________________ जिणवयणकप्परुक्खो, अणेगसुत्तत्थसालि (सत्थत्थसाल )वित्थिन्नो । तवनियमकुसुमगुच्छो, सोग्गइफलबंधणो जयइ ॥५३८॥ शब्दार्थ : अनेक सूत्र और अर्थ रूपी शाखाओं से विस्तीर्ण, तप-नियम रूपी फूलों के गुच्छों वाला और देवमनुष्यादि सुगति या मोक्षगति रूपी उत्तम फल देने वाला द्वादशाङ्गी जिनवचन रूप कल्पवृक्ष विजयी हो ॥५३८॥ जोग्गा सुसाहुवेरग्गियाण, परलोग-पट्ठियाणं च । संविग्गपक्खियाणं, दायव्वा बहुस्सुयाणं च ॥५३९॥ शब्दार्थ : यह उपदेश माला वैराग्यवान सुसाधुओं के, परलोक का हित साधन करना चाहने वालों के और संविग्न-पाक्षिकों तथा बुहश्रुतजनों के ही पठन-पाठन-योग्य जानकर उन्हींको देनी (बतानी या सिखानी) चाहिए । क्योंकि यह उत्तम ग्रंथ विद्वानों को ही आनंद देने वाला है, मूों को नहीं ॥५३९॥ इय धम्मदासगणिणा, जिणवयणुवएसकज्जमालाजो । मालव्व विविहकुसुमा, कहिआ य सुसीसवग्गस्स ॥५४०॥ ___ शब्दार्थ : जैसे विविध फूलों से माला गूंथी जाती है, वैसे ही श्रीधर्मदासगणि ने जिनवचनोपदेश के अक्षर रूपी फूलों को चुन-चुनकर यह 'उपदेशमाला' बनायी और अपने उपदेशमाला २१४

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