________________ __ शब्दार्थ : जब तक संसार में लवण-समुद्र मौजूद है और जब तक नक्षत्रों से सुशोभित मेरु-पर्वत विद्यमान है, तब तक धर्मदासगणि विरचित यह उपदेश माला शाश्वत पदार्थ के समान स्थायी रहे // 543 // अक्खरमत्ताहीणं, जं चिय पढियं अयाणमाणेणं / तं खमह मज्झ सव्वं, जिणवयणविणिग्गया वाणी // 544 // शब्दार्थ : इस उपदेश माला ग्रंथ में अज्ञानवश अनजान में मुझसे कोई अक्षर या मात्रा न्यूनाधिक पढ़ी या कही गयी हो तो जिन भगवान् के मुखकमल से निसृत वाणी भगवती श्रुतदेवी मेरी समस्त भूलों को क्षमा करें // 544 // // इति श्री धर्मदासगणिविरचित उपदेशमालाप्रकरण समाप्त // // श्रोतृवाचकयोः शुभं भूयात् // उपदेशमाला 216