Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 201
________________ न करूँगा, न कराऊँगा, न करते हुए दूसरे का अनुमोदन ही करूँगा ) इस प्रकार का त्रिकरण - त्रियोग से नौ कोटि सहित प्रत्याख्यान (प्रतिज्ञा) करके उसी पाप का सेवन पुनः पुनः करता जाता है, उसे सरासर मृषावादी समझना । क्योंकि वह जैसा कहता है, वैसा करता नहीं । अतः उसे अंतरंगअसत्यरूप माया और बाह्य-असत्यरूप निकृति (धूर्तता) का सेवन करने वाला असत्यवादी समझना चाहिए ||५०७ || लोए वि जो ससूगो, अलिअं सहसा न भासए किंचि । अह दिक्खिओ वि अलियं, भासइ तो किं च दिक्खाए । ५०८ । शब्दार्थ : लोक व्यवहार में भी पापभीरु व्यक्ति सहसा कोई भी झूठ नहीं बोलता, तब जो मुनि दीक्षा लिया हुआ है, वह असत्य बोलता है तो उसके दीक्षा लेने का अर्थ क्या ? उसका दीक्षित होना निरर्थक ही हुआ ||५०८॥ महव्वय-अणुव्वयाइं छड्डेउं, जो तवं चरइ अन्नं । सो अन्नाणी मूढो, नावा बोद्दो मुणेयव्वो ॥५०९॥ शब्दार्थ : जो साधक महाव्रतों या अणुव्रतों को छोड़कर (लोक दिखावे के लिए) दूसरे तप करता है; उस विचारमूढ अज्ञानी मनुष्य को हाथ में आयी हुई नौका को छोड़कर समुद्र में डूबने का - सा काम करने वाला समझना चाहिए । जिस प्रकार समुद्र में किसी मूढ़ आदमी के हाथ में नौका आ जाय और मूर्खतावश उसे छोड़कर उस नौका की कील उपदेशमाला २०१

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