Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 207
________________ शब्दार्थ : इस अनादि-अनंत संसार में परिभ्रमण करते हुए समस्त जीवों ने अनंत बार द्रव्यलिंगों (रजोहरण वेषों) को धारण किया है, और छोड़ा है। परंतु कोरे वेष धारण से कोई आत्महित नहीं हुआ ॥५२१॥ अच्चणुरत्तो जो पुण, न मुयइ बहुसो वि पन्नविज्जतो । संविग्गपक्खियत्तं, करेज्ज लब्भिहिसि तेण पहं ॥५२२॥ __शब्दार्थ : शिथिलता आदि के कारण कोई प्रमादी साधु साधु वेष रखने में अत्यंत अनुरागी है; बहुत बार आचार्यगीतार्थसाधु आदि द्वारा उसे हितबुद्धि से समझाने पर भी साधुवेष नहीं छोड़ता है तो उसे चाहिए कि वह पूर्वोक्त लक्षणों वाला संविग्नपक्ष वाला मार्ग स्वीकार कर ले । ऐसा करने पर वह एक जन्म बिताकर आगामी जन्म में ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है ॥५२२॥ कंताररोहमद्धाण-ओमगेलन्नमाइकज्जेसु । सव्वायरेण जयणाइ, कुणइ जं साहुकरणिज्जं ॥५२३॥ शब्दार्थ : बड़ी भारी अटवी में, किसी शत्रु राजा द्वारा नगर पर चढ़ाई के कारण नगर-के द्वार बंद हो जाने से, उजड़ या उबड़-खाबड़ रास्ते पड़ जाने के कारण, दुष्काल, भूखमरी आदि प्रसंगों में, या बीमारी के अवसर पर भी सुसाधु अपनी पूरी ताकत लगाकर सावधान होकर यतना पूर्वक साधु के योग्य क्रिया (करणी) करता है। मतलब यह है कि ऐसे प्रबल उपदेशमाला २०७

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