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आचारभ्रष्ट होकर साधुवेश में रहने से वेश धारण करने के सिवाय और कुछ भी सुफल मिलने वाला नहीं ॥५०२॥ सव्वं ति भाणिऊणं, विरई खलु जस्स सव्विया नत्थि । सो सव्वविरइवाई, चुक्कइ देसं च सव्वं च ॥५०३॥
शब्दार्थ : 'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' (मैं समस्त सावध मन-वचन-काया के व्यापारों (प्रवृत्तियों) का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ, इस प्रकार से सर्वथा त्यागरूप महाप्रतिज्ञा लेने के बाद जिस साधक के जीवन में षड्जीवनिकाय के रक्षणरूप विरति अथवा प्राणातिपात आदि से विरति सर्वांशों में नहीं है; फिर भी जो अपने आपको सर्वविरतिधर कहता है, तो इस प्रकार मिथ्या प्रचार करने वाला साधक देशविरति श्रावकधर्म और सर्वविरति साधुधर्म इन दोनों धर्मों से चूकता है; यानी दोनों से भ्रष्ट होता है ॥५०॥ जो जहवायं न कुणइ, मिच्छदिट्ठी तओ हु को अन्नो । वुड्ढेइ य मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो ॥५०४॥ __शब्दार्थ : जो साधक स्वयं महाप्रतिज्ञा लेकर खुद को 'साधु हूँ' ऐसा बताता है, मगर अपनी कथनी के अनुसार करणी नहीं करता; यानी तदनुसार सर्वविरति रूप चारित्र का भलीभांति पालन नहीं करता; तब उससे बढ़कर मिथ्या-दृष्टि
और कौन होगा ? बल्कि वह स्वयं मिथ्यादृष्टि बनकर दूसरों में शंका पैदा करके मिथ्यात्व को बढ़ाता है ॥५०४।। उपदेशमाला
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