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शब्दार्थ : पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी तो भगवद् कथित दोनों ही मार्गों का उल्लंघन करके समस्त जिनेश्वरों की आज्ञा का भंग करता है । और जिनाज्ञा-भंग के फलस्वरूप वह जन्म, जरा और मृत्यु रूप अत्यंत दुर्गम अनंत संसार में चिरकाल तक परिभ्रमण करता रहता है ॥५००॥ जइ न तरसि धारेउं, मूलगुणभरं सउत्तरगुणं च । मुत्तूण तो तिभूमि, सुसावगत्तं वरतरागं ॥५०१॥
शब्दार्थ : इसीलिए हे भव्यजीव ! यदि समिति आदि उत्तरगुणों के भारसहित पंचमहाव्रतादि मूलगुणों के भार को धारण करने की तुम्हारी शक्ति नहीं है तो बेहतर यही है कि अपनी जन्मभूमि, विहारभूमि और दीक्षाभूमि इन तीनों प्रदेशों को छोडकर तथा साधुवेश का त्यागकर सुश्रावकत्व अंगीकार कर लो । साधुवेश में रहकर दंभ, मायाचार और पापाचरण करने के बजाय कपटरहित होकर श्रावकधर्म का अंगीकार करना कहीं अच्छा है ॥५०१॥ अरहंतचेइआणं, सुसाहुपूयारओ दढायारो ।
सुस्सावगो वरतरं, न साहुवेसेणं चुअधम्मो ॥५०२॥ __शब्दार्थ : अरिहंत भगवान् के चैत्यों की पूजा और उत्तम
साधुओं के सत्कार-सम्मान रूप पूजा में रत होकर निष्कपटता पूर्वक दृढ़ाचार वाला सुश्रावक होना श्रेयस्कर है, परंतु साधुवेश में रहकर धर्मभ्रष्ट बिताना अच्छा नहीं । क्योंकि उपदेशमाला
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