Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 196
________________ शब्दार्थ : दुष्काल के समय बोने के लिए बीजों का बिल्कुल अभाव होने पर उस देश का राजा दूसरे द्वीपों से बीज मंगवाकर कृषकजनों को बोने के लिए देता है । राजा के द्वारा बोने के लिए दिये हुए उन सारे बीजों को कितने ही किसान खा जाते हैं; कई कृषक उन बीजों में से आधे बो देते हैं, आधे खा जाते हैं और कुछ किसान अपने खेत में उन बीजों को बो देने के बाद ऊगकर फसल पूरी पकने से पहले ही उस डर से कि राजसेवकों को पता लगा तो वे इस अनाज को ले जायेंगे; उस अनाज को झटपट घर ले जाने के लिए कूट कर दाने निकालने लगते हैं । परंतु तब भी राजसेवकों को पता लग जाता है और वे उन्हें अपराधी समझकर पकड़ लेते हैं और बहुत तंग करते हैं ॥४९५-४९६॥ राया जिणवरचंदो, निब्बीयं धम्मविरहिओ कालो । खित्ताइं कम्मभूमी, कासगवग्गो य चत्तारि ॥४९७॥ शब्दार्थ : इसी प्रकार यहाँ राजा जिनेश्वरचन्द्र ( तीर्थंकर देव) हैं । धर्माचरण रूपी बीज से रहित काल दुष्काल के समान निर्बीज काल है । १५ कर्मभूमियाँ धर्मबीज बोने के लिए उत्तम क्षेत्र (खेत) हैं; तथा कृषकवर्ग में चार प्रकार के संसारी जीव हैं - १. असंयत, २. संयत, ३. देशविरति ( संयतासंयत ) और ४. पार्श्वस्थ ॥४९७॥ उपदेशमाला १९६

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