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शब्दार्थ : परंतु जो व्यक्ति द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की अर्चनाओं से रहित है; यानी न तो वह साधुधर्म का ही पालन करता है और न श्रावकधर्म का ही; किन्तु रातदिन शरीर को आराम तलब बनाने में ही लगा रहता है, अपने शरीर सुख का ही लिप्सु बना रहता है; उसे आगामी जन्म में बोधिलाभ (शुद्द धर्म का बोध प्राप्त) नहीं होता, न उसे सद्गति (मोक्षगति) प्राप्त होती है और न उसे परलोक ही अच्छा (मनुष्यत्व या देवत्व के रूप में) मिलता है ||४९३ ॥ कंचणमणिसोवाणं, थंभसहस्सूसिअं सुवण्णतलं । जो करिज्ज जिणहरं, तओ वि तव - संजमो अहिओ ||४९४ ॥
शब्दार्थ : अगर एक व्यक्ति सोने और चन्द्रकान्त आदि मणियों से निर्मित सोपानों वाला, हजारों स्तंभो वाला विशाल और सोने के तलघर वाला जिनालय बनवाता है; परंतु दूसरा भगवान् की आज्ञानुसार तप - संयम ( सर्वविरति चारित्र) का पालन करता है तो वह उससे भी बढ़कर है । यानी द्रव्यपूजा से भावपूजा श्रेष्ठ है ||४९४॥
निब्बीए दुब्भिक्खे, रन्ना दीवंतराओ अन्नाओ । आणेऊणं बीअं, इह दिन्नं कासवजणस्स ॥४९५ ॥ केहिंवि सव्वं खइयं, पइन्नमन्नेहिं सव्वमद्धं च । वुत्तंग्गयं च केई, खित्ते खोटेंति संतत्था ॥४९६ ॥
उपदेशमाला
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