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असंजएहिं सव्वं, खइयं अद्धं च देसविरएहिं । साहूहिं धम्मबीयं, वुत्तं नीअं च निष्फतिं ॥४९८॥
शब्दार्थ : अरिहंतदेव रूपी राजा ने चार प्रकार के कृषकवर्ग को धर्मरूपी बीज बोने के लिए दिये । उनमें से संयत अर्थात् व्रत नियम आदि से सर्वथा रहित व्यक्ति तो उन सब धर्मबीजों को बोने के बदले खा गये; जो देशविरति श्रावक (पाँच अणुव्रतादि के धारक) थे, उन्होंने आधे धर्मबीज बोए और आधे खा गये; जो संयतसाधु-थे, उन्होंने सर्वविरति धर्मरूपी सारे बीजों को बो दिये, अर्थात् उनका पूर्णरूपेण सदुपयोग किया ॥४९८॥ । जे ते सव्वं लहिउं, पच्छा खुटुंति दुब्बलधिईया । तवसंजमपरितंता, इह ते ओहरिअसीलभरा ॥४९९॥
शब्दार्थ : और जो पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी साधु हैं, वे सर्वविरति रूप धर्मबीज को प्राप्त तो कर लेते हैं, लेकिन बाद में अधीर और कमजोर दिल के बनकर तप-संयम (साधुधर्म) के पालन से ऊब जाते हैं; रातदिन खेद करते रहते हैं और आखिर वे संयम के भार (दायित्व) को छोड़ देते हैं । इस तरह वे अपने ही हाथों से अपने धर्मबीज को नष्ट कर देते हैं ॥४९९।। आणं सव्वजिणाणं, भंजइ दुविहं पहं अइक्कतो, आणं च अइक्कंतो, भमइ जरामरणदुग्गंमि ॥५००॥ उपदेशमाला
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