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पाक्षिक साधु भी शुद्ध हो सकता है। यानी ये सब आत्महित कर सकते हैं ॥५१३॥ संविग्गपक्खियाणं, लक्खणमेयं समासओ भणियं । ओसन्नचरणकरणा वि, जेण कम्मं विसोहिंति ॥५१४॥
शब्दार्थ : 'चूंकि संविग्नपाक्षिक साधुओं का लक्षण श्री तीर्थंकरदेवों ने संक्षेप में इस प्रकार का बताया है कि वे मोक्षाभिलाषी साधुओं के हिमायती होते हैं, क्रियानुष्ठान में भी रुचि रखते हैं। इस कारण चरण-करण में शिथिल होते हुए भी वे ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षय कर देते हैं ॥५१४॥ सुद्धं सुसाहुधम्मं कहेइ, निंदइ य निययमायारं । सुतवस्सियाणं पुरओ, होइ य सव्वोमरायणीओ ॥५१५॥ वंदइ न य वंदावेइ, किइकम्मं कुणइ, कारवइ नेय । अत्तट्ठा न वि दिक्खे, देइ सुसाहूण बोहेउं ॥५१६॥ युग्मम्
शब्दार्थ : जो साधक शुद्ध सुसाधुधर्म (क्षमा आदि १० प्रकार के श्रमणधर्म) की सुसाधु के समान प्ररूपणा करता है, अपने शिथिलाचार की निन्दा करता है और अच्छे तपस्वियों, बड़े साधुओं या नवदीक्षित साधुओं आदि सबसे अपने आपको छोटा (सबसे न्यूनरानिक) मानता है । संविग्न लघुसाधुओं को भी स्वयं वंदन करता है, परंतु उनसे वंदन नहीं करवाता; उनकी सेवा आदि करता है, मगर उनसे सेवादि नहीं कराता; अपने पास दीक्षा लेने के लिए आये उपदेशमाला
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