Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 189
________________ चाहे वह थोड़ा ही क्यों न हो । बाकी का सारा समय निरर्थक है ॥४७९॥ जो नवि दिणे-दिणे संकलेइ, के अज्ज अज्जिया मए गुणा ? । अगुणेसु य न य खलिओ, कह सो उ करेइ अप्पहियं ? ॥४८० ॥ शब्दार्थ : जो साधक प्रतिदिन इस प्रकार का संकलन विचार नहीं करता कि आज मैंने कौन-से ज्ञानादि गुण प्राप्त किये ? किन-किन मिथ्यात्वादि दुर्गुणों से मैं आज स्खलित (लिप्त) नहीं हुआ ? यानी जो अहर्निश इस प्रकार का चिन्तन नहीं करता, प्रमाद और अतिचार रूप अवगुण को नहीं छोड़ता, उसी ढर्रे पर (आचरण पर) चलता रहता है; वह साधक अपना आत्महित कैसे कर सकता है ? सतत् आत्म-निरीक्षण करने वाला साधक ही स्व-पर हित कर सकता है ॥४८०॥ इय गणियं इय तुलिअं, इय बहुआ दरिसियं नियमियं च । जहतहविन पडिबुज्झइ, किंकीरउ?नूण भवियव्वं ॥४८१॥ ___शब्दार्थ : इसी ग्रंथ में पहले अनेक स्थलों पर श्री ऋषभदेव स्वामी और श्री महावीर स्वामी के समान धर्माचरण में पुरुषार्थ करने के, अवंतीसुकुमाल आदि की तरह प्राणांत कष्ट आ पड़ने पर भी धर्म को नहीं छोड़ने के, और जिनकल्पी के समान चर्या रखने वाले आर्यमहागिरि उपदेशमाला १८९

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