Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 188
________________ __ शब्दार्थ : जैसे चन्द्रमा कृष्णपक्ष में प्रतिदिन क्षीण होता जाता है, वैसे ही पग-पग पर प्रमादपरायण साधक के गुण दिनानुदिन घटते जाते हैं । यद्यपि वह गृहस्थ-धर्म का त्यागकर गृह-गृहिणी से रहित होकर साधु-धर्म में दीक्षित होता है. तथापि प्रमादाचरणवश अशभ अध्यवसाय के कारण वह स्वर्गादि वांछनीय फल प्राप्त नहीं कर सकता ॥४७७॥ भीउव्विग्गनिलुक्को, पागडपच्छन्नदोससयकारी । अप्पच्चयं जणंतो, जणस्स धी जीवियं जियइ ॥४७८॥ शब्दार्थ : अपने किये हुए पापाचरण के प्रकट हो जाने के भय से जो मन में सदा उद्विग्न रहता है, लोगों की नजरों से बचता-छिपता रहता है, अपने किये हुए पापों पर पर्दा डालता रहता है; और खुले आम सैकड़ों दोषों का सेवन करता रहता है; ऐसा व्यक्ति अपना निन्द्य जीवन लिये हुए अविश्वास पैदा करता रहता है। धिक्कार है उसके जीवन को ! ॥४७८॥ न तहिं दिवसा पक्खा, मासा वरिसा वि संगणिज्जंति । जे मूल-उत्तरगुणा, अक्खलिया ते गणिज्जंति ॥४७९॥ शब्दार्थ : वे दिन, वे पक्ष, वे मास या वे वर्ष निरर्थक गिने जाते हैं, जो धर्माचरण के बिना बीते हों । परंतु जो दिन-मासादि धर्माचरण-मूलगुण-उत्तरगुण रूप धर्म-की निरतिचार आराधना पूर्वक बीते हों, वे ही सार्थक गिने जाते हैं । मतलब यह है कि जो समय धर्मयुक्त बीते वही सार्थक है, उपदेशमाला १८८

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