Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 190
________________ आदि के दृष्टांत विभिन्न तरीकों से बताये हैं; समिति, गुप्ति, विषय, कषायादि पर विजय आदि के सुफल बताने वाली अनेक युक्तियाँ देकर समझाया है, तथा अनेक प्रकार से सुकर्म-कुकर्म के फल भी प्रदर्शित किये हैं, अधर्म, प्रमाद, पाप आदि के आचरणों के नरकादि दुष्फल बताकर उनसे विरत होने का उपदेश दिया है, फिर भी भारीकर्मा दीर्घसंसारी जीव प्रतिबोधित नहीं होता; उसे यह उपदेश रुचिकर नहीं लगता । लघुकर्मा जीव को ही शीघ्र प्रतिबोध लग सकता है, भारीकर्मा को नहीं । अतः उन भारीकर्मा जीवों की ऐसी भवितव्यता समझना ॥४८१॥ किमगं तु पुणो जेणं, संजमसेढी सिढिलीकया होइ । सो तं चिय पडिवज्जइ, दुक्खं पच्छा उ उज्जमइ ॥४८२॥ शब्दार्थ : जो पुरुष संयमश्रेणी-ज्ञानादि गुणों की श्रेणी को शिथिल करता है, उसकी शिथिलता दिन-ब-दिन अवश्य ही बढ़ती जाती है । और बार-बार शिथिल होने के पश्चात् उसे संयम में उद्यम करना दुष्कर लगता है। इसीलिए शिथिलता प्रवेश होने के साथ ही उसे फौरन निकाल देना चाहिए ॥४८२॥ जइ सव्वं उवलद्धं, जइ अप्पा भाविओ उवसमेण । कायं वायं च मणं, उप्पहेणं जह न देई ॥४८३॥ उपदेशमाला १९०

Loading...

Page Navigation
1 ... 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216