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शब्दार्थ : हे भव्यजीव ! यदि तुमने पूर्वोक्त समस्त सामग्री प्राप्त की है और आत्मा को उपशमभाव से सुसज्जित कर लिया है तो अब ऐसा उपाय करो, जिससे तुम्हारा शरीर, मन और वचन प्रमादवश उन्मार्ग पर न चला जाय ॥४८३।। हत्थे पाए न खिव्वे, कायं चालिज्ज तं पि कज्जेण । कुम्मु व्व सए अंगम्मि, अंगुवंगाइ गोविज्जा ॥४८४॥
शब्दार्थ : साधक को अपने हाथ-पैर निष्प्रयोजन नहीं हिलाने चाहिए । शरीर को भी तभी चलाना चाहिए, जब ज्ञानादि गुणों का अभ्यास करना हो, गुरुसेवा करनी हो, अथवा अन्य कोई अनिवार्य कारण हो । तथापि जैसे कछुआ अपने अंगों को अंदर ही सिकोड़ लेता है, वैसे ही साधक को अपने समस्त अंगोपांगों को सिकोड़कर उनका संगोपन (सुरक्षण) करना चाहिए ॥४८४॥ विकहं विणोयभासं, अंतरभासं अवक्कभासं च ।
जं जस्स अणिट्ठमपुच्छिओ, य भासं न भासिज्जा ॥४८५॥ __शब्दार्थ : स्त्री, भोजन, शासक और देशसंबंधी विकथाओं
से युक्त भाषा, कुतूहल, कामोत्तेजना या हँसी पैदा करने वाली वाणी, गुरु या बड़े साधु किसी से बात कर रहे हों, उस समय बीच में ही बोल पड़ना, मकार-चकार आदि अवाच्य अश्लील शब्द या अपशब्द बोलना या किसी का उपदेशमाला
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