________________
अनिष्ट (बुरा) करने वाली या अप्रीति पैदा करने वाली बात कहना, किसी के बिना पूछे ही निरर्थक बोलते रहना; इन और ऐसी भाषाओं का प्रयोग साधु न करे ||४८५ ॥
अणवट्ठियं मणो जस्स, झायइ बहुयाइं अट्टमट्टाई । तं चिंतिअं च न लहइ, संचिणइ अ पावकम्माई ॥४८६ ॥
शब्दार्थ : जिसका मन हर समय अत्यंत चंचल रहता है, जो अंट-संट इधर-उधर के अनाप-शनाप बुरे विचार करता रहता है; वह अपना मनोवांछित फल प्राप्त नहीं कर सकता; उल्टे वह पापकर्मों का संचय करता रहता है । इसीलिए मन को स्थिर करके ही सर्वार्थ साधक संयम में पुरुषार्थ करना चाहिए ||४८६||
जह-जह सव्वुवलद्धं, जह-जह सुचिरं तवोधणे (वणे) वोत्थं । तह तह कम्मभरगुरु, संजमनिब्बाहिरो जाओ ॥ ४८७॥
शब्दार्थ : 'यह देखा गया है कि गुरुकर्मा साधक ज्योंज्यों सिद्धांतों (शास्त्रों) के रहस्य को अधिकाधिक उपलब्ध करता जाता है और जितने - जितने दीर्घकाल तक वह तपोधनी साधुओं के संपर्क में रहता है; त्यों-त्यों और उतना उतना वह अपने भयंकर स्निग्धकर्मों के कारण संयममार्ग से अधिकाधिक विमुख होता जाता है' ||४८७|| विज्जप्पो जह - जह ओसहाई, पज्जेइ वायहरणाई । तह-तह से अहिययरं, वाएणाऊरितं पोट्टं ॥ ४८८ ॥
उपदेशमाला
१९२