Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 185
________________ मांस निकाल लाता और पेड़ पर बैठकर खाता था । फिर वह बोलता- ‘मा साहसं कुरु', 'मा साहसं कुरु' (साहस मत करो, साहस मत करो) । परंतु जैसा वह कहता था, उसके अनुसार स्वयं करता नहीं था । वह खुद बार-बार बाघ के मुंह में से मांस निकालने का साहस किया करता था । दूसरे पक्षियों ने उसे ऐसा करने से रोका, मगर वह नहीं माना । एक दिन जब बाघ सोया हुआ था तब वह मांस लोलुप मासाहस पक्षी उसके मुंह में घुसकर मांस निकालने लगा । इतने में सहसा बाघ जाग गया और उस पक्षी को अपने मुंह में दबोचकर उसका काम तमाम कर डाला । इसी तरह जो व्यक्ति दूसरों को उपदेश तो बहुत देते हैं, मगर स्वयं उस पर अमल नहीं करते; उनकी भी अंत में मासाहस पक्षी के जैसी ही दुर्दशा होती है ॥४७२॥ परियट्टिऊण गंथत्थवित्थर, निहसिऊण परमत्थं । तं तह करेह जह तं, न होइ सव्वंपि नडपढियं ॥४७३॥ शब्दार्थ : ग्रंथ (सूत्र) के अर्थों का विस्तार से बार-बार दोहराकर घोटकर याद करके और उसके परमार्थ को अच्छी तरह समझकर भी भारी कर्मा साधक उसके अनुसार आचरण नहीं करता; इससे उसकी मुक्ति रूप कार्यसिद्धि नहीं होती । बल्कि उसका सारा सूत्रार्थ कण्ठस्थ करना नट के द्वारा रंगमंच पर बोलने के समान होता है । जैसे कुशल नट पहले उपदेशमाला १८५

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