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शब्दार्थ : इस संसार में सर्वप्रथम पाँचों इन्द्रियों का मिलना दुर्लभ है । उसके बाद मनुष्यत्व (मनुष्यजन्म तथा मानवता) प्राप्त करना दुर्लभ है । उसके मिलने पर भी मगध आदि आर्यदेश में जन्म होना कठिन है । फिर उत्तमकुल में पैदा होना दुष्कर है । इतना हो जाने पर भी सुसाधुजनों का समागम मिलना सुलभ नहीं । सुसाधु - समागम मिलने पर भी धर्मश्रवण करना दुर्लभ है । उसके बाद उस पर दृढ़ श्रद्धा होना मुश्किल है । श्रद्धा तो है, मगर शरीर निरोग नहीं तो प्रव्रज्या नहीं ली जा सकती । इसीलिए शरीर स्वस्थता और उसके बाद मुनि दीक्षा लेना अत्यंत दुर्लभ है ||४६६॥ आउं संविल्लंतो, सिढिलंतो बंधणाइं सव्वाइं । देहट्ठि मुयंतो, झायड़ कलुणं बहुँ जीवो ॥४६७॥
शब्दार्थ : आयु जब पूर्ण होने को आती है, तब शरीर के सारे अंगोपांग ढीले हो जाते हैं, अवयवों के जोड़ लड़खड़ा जाते हैं; और जब इस शरीर को छोड़ने लगता है, तब धर्माचरण से रहित जीव करुण स्वर से बहुत पश्चात्ताप करता है कि "हाय ! अपने शरीर के स्वस्थ रहते, जवानी में सर्वोत्तम, जिनप्रणीत धर्म - (शासन ) प्राप्त करके भी मैंने अज्ञान, मोह और प्रमादवश विषय- लोलुपता में फंसकर अपनी अमूल्य जिंदगी खो दी, मगर आत्महितकर धर्मसाधना नहीं की ! अब मेरी क्या दशा होगी ?" इस प्रकार वह शोकसागर में डूबा रहता है ||४६७॥
उपदेशमाला
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