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शब्दार्थ : अपनी आत्मा के लिए हितकारी धर्मानुष्ठान आदि करने वाले किस मनुष्य का गौरव गुरु के समान गणनापात्र नहीं होता ? यानी जो आत्म-हिताचरण करता है, वह सब जगह प्रतिष्ठा पाता है । और आत्मा का अहित करने वाला कौन मनुष्य अविश्वासपात्र नहीं होता ? वह सर्वत्र अविश्वसनीय होता है ॥४५४॥ जो नियम-सील-तव-संजमेहं, जुत्तो करेइ अप्पहियं । सो देवयं व पुज्जो, सीसे सिद्धत्थओ व्व जणे ॥४५५॥ ___शब्दार्थ : जो भाग्यशाली नियम, शील (सदाचार), तप,
संयम, व्रत-प्रत्याख्यान आदि से युक्त होकर आत्मा का हितकारी धर्मानुष्ठान करता है, वह देवता के समान पूजनीय बनता है । संसार में उसे सफेद सरसों की तरह मस्तक पर चढ़ाते हैं । जैसे संसार में लोग सफेद सरसों को अपने मस्तक पर चढ़ाते हैं; वैसे ही उस व्यक्ति की आज्ञा को लोग शिरोधार्य करते हैं ॥४५५॥ सव्वो गुणेहिं गण्णो, गुणाहियस्स जह लोगवीरस्स । संभंतमउडविडवो, सहस्स नयणो सययमेइ ॥४५६॥ ___ शब्दार्थ : सभी जीव अपने गुणों से ही माननीय होते हैं ।
जैसे लोक-प्रसिद्ध महावीर स्वामी को सहस्त्रनेत्र एवं चंचल मुकुटाडंबरधारी इन्द्र सतत वंदन करने आता हैं । इसीलिए गुणवत्ता ही पूजनीयता का कारण है ॥४५६॥
उपदेशमाला
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