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रयणुज्जलाई जाई, बत्तीसविमाणसयसहस्साइं । वज्जहरेण वराई, हिओवरसेण लद्वाइं ॥४५१॥
शब्दार्थ : सौधर्मेन्द्र को दिव्यरत्नादि से विभूषित देदीप्यमान और श्रेष्ठ ३२ लाख विमानों का स्वामित्व श्री वीतरागप्रभु के हितोपदेश के अनुसार आराधना करने से प्राप्त हुआ || ४५१ || सुरवइसमं विभूइं, जं पत्तो भरहचक्कवट्टी वि । माणुसलोगस्स पहू, तं जाण हिओवएसेण ॥४५२॥
शब्दार्थ : इस मनुष्य लोक में भी भरतचक्रवर्ती ने इन्द्र के समान ऐश्चर्य और भरतक्षेत्र के षट्खण्ड के अधिपति के रूप में जो प्रभुत्व पाया, उसे भी जिनेश्वर भगवान् के हितकर-उपदेशानुसार आचरण का फल समझो ||४५२ ॥ लद्धूण तं सुइसुहं, जिणवयणुवएस - मयबिंदुसमं । अप्पहियं कायव्वं, अहिएसु मणं न दायव्वं ॥ ४५३॥
शब्दार्थ : अमृत के समान श्रवण सुखदायी जिनवचनोपदेशामृत की बूँदें पाकर भव्य जीवों को अपना हितकारी धर्मानुष्ठान अवश्य करना चाहिए, और जो अहितकर पापमय कार्य हैं उनमें चित्त नहीं लगाना चाहिए । काया और वचन को उनमें प्रवृत्त करने की तो बात ही कहाँ ? जगत्-हितकर जिनवचन सुनने का यही सार है ||४५३ ॥ हियमप्पणो करिंतो, कस्स न होइ गरुओ गुरुगण्णो ? | अहियं समायरंतो, कस्स न विप्पच्चओ होइ ? ॥४५४ ॥
उपदेशमाला
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