Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 178
________________ चोरिक्क-वंचणा-कूडकवड- परदारदारुणमइस्स । तस्स च्चिय तं अहियं, पुणो वि वेरं जणो वहइ ॥ ४५७॥ शब्दार्थ : चोरी करना, दूसरों को धोखा देना, झूठ बोलना, कपट करना, परस्त्री गमन आदि भयंकर पापकार्यों में जिसकी बुद्धि लगी हुई रहती है, उसके लिए ये पापाचरण अवश्य ही अहितकर हैं, परभव में ये नरकतिर्यंच-गति के कारण हैं ही इस भव में भी लोग ऐसे व्यक्ति से वैर रखते हैं और यह वैरपरंपरा आगे से आगे कई जन्मों तक चलती है ॥ ४५७॥ जड़ ता तणकंचणलिट्ठरयणसरिसोवमो जणो जाओ । तइया नणु वोच्छिन्नो, अहिलासो दव्वहरणम्मि ॥ ४५८ ॥ शब्दार्थ : जब साधक तिनके और सोने में, पत्थर और रत्न में समान बुद्धि रखता है, उन दोनों में कोई अंतर नहीं देखता, तभी उसके जीवन में परधन हरण की अभिलाषा, लोभ, तृष्णा आदि का विच्छेद हुआ समझो || ४५८॥ आजीवग-गणनेया, रज्जसिरिं पयहिऊण य जमाली । हियमप्पणो करिंतो, न य वयणिज्जे इह पडतो ॥ ४५९ ॥ शब्दार्थ : राज्यलक्ष्मी का त्याग करके तथा शास्त्रों (सिद्धांतों) का अध्ययन करके भी भगवान् महावीर के दामाद जमाली ने, जो भगवान् महावीर से वेष धारण करके भी बाद में आजीविका - गण (निह्नव) का नेता बन गया था; उपदेशमाला १७८

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