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में एक भी गाय, भैंस आदि चौपाया जानवर नहीं रखता तो उसका इस प्रकार की सामग्री इकट्ठी करना व्यर्थ होता है ॥४४६॥ तह वत्थपायदंडग-उवगरणे, जयणकज्जमुज्जुत्तो । जस्सठ्ठाए किलिस्सइ, तं चिय मूढो न वि करेइ ॥४४७॥
शब्दार्थ : जैसे पशुओं के रखे बिना ही पशुओं के बांधने आदि का सामान इकट्ठा करने वाला हंसी का पात्र
और बेवकूफ समझा जाता है; वैसे ही जो अविवेकी साधक वस्त्र, पात्र, दंड, रजोहरण आदि संयम की सकल सामग्री (धर्मोपकरण) अत्यंत ममतापूर्वक बेमर्याद इकट्ठी कर लेता है, लेकिन जिस उद्देश्य के लिए / वह संयम की साधन सामग्री रखी है, उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन उपकरणों की जयणा जरा भी नहीं करता । उन्हें सहेज-सहेज कर रखता जरूर है, मगर उनका प्रतिलेखन-प्रमार्जन आदि नहीं करता, न दूसरे साधुओं को देता है । वह वास्तव में विचारमूढ़ है; क्योंकि संयम के लिए वह उपकरण जुटाने का सिर्फ कष्ठ उठाता है, मगर उस संयम की कारणभूत यतना को नहीं अपनाता । इसीलिए उसका उपकरण इकट्ठा करना व्यर्थ है ॥४४७॥ अरिहंत भगवंतो, अहियं व हियं व न वि इहं किंचि । वारंति कारविंति य, धित्तूण जणं बला हत्थे ॥४४८॥
शब्दार्थ : राग-द्वेष रहित श्री अरिहंत भगवान् इस संसार में किसी का हाथ पकड़कर न तो जबरन जरा भी हित उपदेशमाला
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