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है, या सुस्त है वह साधु गच्छ से निकलकर विषय-कषायविकथादि दोष रूपी विघ्नों से परिपूर्ण प्रमाद रूपी अरण्य में स्वेच्छा से परिभ्रमण करता है ॥४२२॥ नाणाहिओ वरतरं, हीणो वि हु पवयणं पभावितो । न य दुक्करं करितो, सुट्ठ वि अप्पागमो पुरिसो ॥४२३॥
शब्दार्थ : कोई साधक चारित्र (क्रिया) पालन में हीन होने पर भी निश्चयनय की दृष्टि से शुद्ध प्ररूपणा से जिनशासन की प्रभावना करता है, तो वह बहुश्रुत पुरुष श्रेष्ठ है; परंतु भलीभांति मासक्षमणादि दुष्कर तपस्या करने वाला अल्पश्रुत पुरुष श्रेष्ठ नहीं है । अर्थात् क्रियावान होने पर भी ज्ञानहीन पुरुष अच्छा नहीं है ॥४२३॥ नाणाहियस्स नाणं, पुज्जई नाणापवत्तए चरणं । जस्स पुण दुण्ह इक्कं पि, नत्थि तस्स पुज्जए काइं?॥४२४॥
शब्दार्थ : ज्ञान से पूर्ण पुरुष का ज्ञान पूजा जाता है; क्योंकि ज्ञानयोग से चारित्र की प्राप्ति होती है, परंतु जिस पुरुष के जीवन में ज्ञान या चारित्र में से एक भी गुण न हो, उस पुरुष की क्या पूजा हो सकती है ? कुछ भी नहीं होती ॥४२४॥ नाणं चरित्तहीणं, लिंगग्गहणं च दंसणविहीणं । संजमहीणं च तवं, जो चरइ निरत्थयं तस्स ॥४२५॥ उपदेशमाला
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