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पड़ा । उसने बहुत तिलों की हानि उठाई । उसी तरह प्रमादी मुनि अपने दुष्कर तप - संयम के बदले में चारित्र में थोड़ीसी शिथिलता लाकर बहुत बड़ा नुकसान (उत्कृष्टफल की हानि) कर बैठता है; यही इस गाथा का आशय है ॥ ४२८ ॥ छज्जीवनिकायमहव्वयाण, परिपालणाए जधम्मो । जइ पुण ताइं न रक्खड़, भणाहिको नाम सो धम्मो ? ॥ ४२९ ॥
शब्दार्थ : पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन षड् जीवनिकायों की आत्मवत् रक्षा करने से और प्राणातिपात विरमणादि पाँच महाव्रतों का यथाविधि परिपालन करने से ही साधुधर्म सफल होता है । परंतु जो उन जीवनिकायों की रक्षा व पाँच महाव्रतों का पालन नहीं करता । तो भला बताओ वह कैसे धर्म हो सकता है ? जीवरक्षा और महाव्रतपालन के बिना साधुधर्म नहीं कहलाता ॥४२९॥ छज्जीवनिकायदयाविवज्जिओ, नेव दिक्खिओ न गिही । जइधम्माओ चुक्को, चुक्कड़ गिहिदाणधम्माओ || ४३०॥
शब्दार्थ : षड्जीवनिकाय की दया से रहित केवल वेषधारी दीक्षित साधु नहीं कहलाता है और सिर मुंडा हुआ होने से उसे गृहस्थ भी नहीं कहा जा सकता । वह साधु से भी भ्रष्ट हुआ और गृहस्थ के योग्य दानधर्म से भी भ्रष्ट
उपदेशमाला
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