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को निरंकुश छोड़ने वाले सिर्फ वेश धारण किये फिरने वाले साधु हैं । ऐसे असंयमी साधक अत्यंत असंयम (अनाचीर्ण) - रूप पाप के प्रवाह में क्षार ( जले हुए तिल) के समान अपनी और दूसरे की आत्मा को पूरी तरह से मलिन बना देते हैं ॥४३५॥
किं लिंगविड्डरीधारणेण ? कज्जम्मि अट्ठिए ठाणे । राया न होइ सयमेव, धारयं चामराडोवे ॥४३६॥
शब्दार्थ : जैसे श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठने से या हाथी-घोड़े आदि पर बैठने से, छत्र - चामर के आडंबर धारण करने से ही कोई राजा नहीं कहलाता; उसी तरह संयमरहित पुरुष केवल साधुवेष धारण करने से ही साधु नहीं कहलाता । इसीलिए गुण के बिना साधुवेश का आडंबर व्यर्थ है और वह केवल उपहास का पात्र बनता है ||४३६ ॥
जो सुत्तत्थविणिच्छियकयागमो मूलउत्तरगुणोहं । उव्वहइ - सयाऽखलिओ, सो लिक्खड़ साहूलिक्खमि ॥४३७॥
शब्दार्थ : जिसने सूत्र और कार्य का असंदिग्ध ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जिसने आगमों के रहस्य को जान लिया है और जो निरंतर अतिचार रहित मूल - गुणों और उत्तर - गुणों के परिवार को सावधानी से धारण किये हुए है; वही साधु साधुओं की गिनती में आता है ||४३७||
उपदेशमाला
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